गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

आभीर-

सबसे पहले जाति की बात करें तो जातियाँ
एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की चिर-पुरातन  प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। उन प्रवृतियों से जो जन्म से ही उत्पन्न होती हैं। 
जाति की अवधारणा जन्म मूलक है। जातियों के मूल में उनकी जन्मगत प्रवृतियाँ विद्यमान हैं। क्यों जाति का अर्थ ही जन्म-सम्बन्धी स्थिति से है।

प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियों ( व्यवसायों व नित्य-नैमतिक कर्मों ) से और उसी प्रकार मनुष्य की वृत्तियाँ भी प्रवृत्तियों से  अनुप्रेरित  होती है ।

आनुवांशिक लक्षणों से जातियाँ सुनिश्चित होती हैं। जो किसी जाति में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती रहती हैं।

मनुष्य की वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित- व्यययी (कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों ( व्यवसायी) वाले वाणी-कुशल व  वाचालता से परिपूर्ण होते ही हैं।

समान परिवेश (माहौल) जैसे कोर्ट -कचहरी दिवानी आदि में अधिक बोलकर मुवक्किल के पक्ष में पहल करने वाले  वकील होते हैं। और जैसे लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित वृत्ति वाले होते ही हैं। वैसे ही डॉक्टर आदि की भी वृत्ति उनकी प्रवृतियाँ का निर्माण करती हैं।

"यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।

प्रत्येक प्राणी अपनी जाति अस्तित्व से ही संसार में पहचाना जाता है। 


इसका अर्थ यही है कि हम मनुष्य हैं, वे पशु हैं, पक्षी हैं अथवा जलचर व नभचर हैं, स्थलचर  इत्यादि ये सब विभिन्न जातियाँ हैं।।

 ईश्वर ने यही वर्गीकरण करके प्राणीयों को इस संसार में उत्पादित किया है। 
     
योगशास्त्र में वर्णन है कि:– सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगः अर्थात "पूर्व कर्म के अनुसार प्राणियों को जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं।" 
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा: ।।13।।

शब्दार्थ :- मूले- सति= ( मूल अर्थात मुख्य कारण के रहने में ) तद्विपाक:= ( उसका परिणाम या फल ) जाति=( पुनर्जन्म ) आयुर्भोगा:=( आयु या उम्र और उनका भोग अर्थात भुगतान होते हैं।)

सूत्रार्थ :- जब तक क्लेशों की विद्यमानता रहेगी अर्थात जब तक क्लेश होंगें । तब तक हमें उनके परिणाम ( फल ) के रूप में पुनर्जन्म, उम्र व उसका भोग मिलता रहेगा ।

अतः प्रत्येक प्राणी  जन्म से किसी न किसी जाति का होता है। यहाँ यह अन्तर ध्यान देने योग्य है।
मनुष्य की सभी जातियाँ सामान्यतः प्रसव आकृति और बाह्य अंग ंरंग आदि से समान ही हैं।

परन्तु उनके स्वभाव में निहित प्रवृत्तियों से ही उनकी जातियता सुनिश्चित होती है । जो सभी मानव समुदायों ( समाजों) की भिन्न भिन्न है।

किसी भी धार्मिक शास्त्र में कहीं यह नहीं कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी वर्ण का होता है,- 
वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के प्रवृत्ति गत चुनाव( वरण) से होता है।



 वर्ण  का सम्बन्ध जन्म से  नहीं अपितु वृत्ति पर आधारित है तथा वृत्ति का चयन प्रवृत्ति के अनुरूप ही  होना कल्याणकारी है।

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अब शास्त्रोक्त अर्थ में जाति है क्या? इसका उत्तर न्यायशास्त्र में गौतम ऋषि ने दिया है:– समानप्रसवात्मिका जाति अर्थात "जिसका समान प्रसव( जन्म) हो वह सजाति है।" 

समान प्रसव वह है जिनके संयोग से सन्तान का उत्पन्न होना सम्भव है। उदाहरण स्वरूप बैल, गाय एक जाति के हैं परंतु घोड़ा और कुत्ता भिन्न जाति के हैं क्योंकि इनके परस्पर  मेल से प्रसव धारण सम्भव नहीं है। एक जाति में भी भिन्न भिन्न स्वरूप एवं लक्षण के जीव हो सकते हैं। ये जातिमूलक प्रवृत्तियाँ  उनके आनुवांशिक गुणों की संवाहक हैं।

यह मानव जाति की बात है। जिसमें  जातियाँ समानाकृति ( species )  की तो हैं।
उनकी मनस् प्रवृत्तियों में समानता नहीं है।


 परन्तु पशुओं में भी दो  भिन्न जातियों के मिश्रण से नयी जाति बनाती है।
जिनकी शारीरिक और प्रवृत्ति मूलक भिन्नता होती है। जैसे 

सिंह और बाघ के संयोग से लाइगर, घोड़े–गधे के संयोग से खच्चर इत्यादि मिश्र लक्षण युक्त जीव उत्पन्न होते हैं ।



लाइगर, नर शेर और मादा बाघिन के संकर बच्चे होते हैं. लाइगर, बिल्ली परिवार के सबसे बड़े जानवरों में से एक हैं. ये शेरों की ताकत और बाघों की फुर्ती का मिश्रण होते है।
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व्यक्ति के स्वभाव और प्रवृत्तियों से जातियाँ गुण निर्धारित होते हैं। 

एक कुत्ता का जो स्वभाव और प्रवृत्ति होती है ।
वह सहज परिवर्तित नहीं होती है नीतिकारों ने बताया-
 
शुनकः स्वर्णपरिष्कृतगात्रो नृपपीठे विनिवेशित एव ।
अभिषिक्तश्च जलैः सुमुहूर्ते न जहात्येव गुणं खलु पूर्वम् ॥३७९।
(मुक्तिसूक्तवलि- शुनक: पद्धति  जल्हणकृत )
          '
अनुवाद:-  कुत्ते को स्वर्ण अलंकारों से विभूषित करके राजसिंहासन पर बैठा कर अच्छे मुहुर्त में जल से अभिषेक करने पर भी कुत्ता 
 जातिगुण नहीं छोड़ता। अर्थात उसकी प्रवृति उसके परिवेशीय गुणों से समझौता नहीं करती है।
         
 संसार में परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों बार जन्म लेकर असंख्य बार प्राप्त हुई नीच, ऊँच और मध्यम अवस्थाओं को  जानकर भी कौन बुद्धिमान जातीय निर्धारण नहीं करेगा ? कर्मवश संसारी प्राणी इन्द्रियों की रचना से उत्पन्न होने वाली विभिन्न जातियों में जन्म लेता रहता है। यह भी उसकी प्रवृत्ति सुनिश्चित करती है।

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