मंगलवार, 4 अक्तूबर 2022

★-"अहीरों की उत्पत्ति की पौराणिक दास्तान " यादव योगेश कुमार "रोहि"की मसिधर से †






पुराणों में यादवों का गोप और आभीर पर्याय वाची  रूपों में वर्णन मिलता है। पद्म-पुराण के सृष्टि-खण्ड , अग्नि पुराण  "लक्ष्मीनारायण संहिता"  नान्दीपुराण स्कन्दपुराण आदि ग्रन्थों में प्राचीन वर्णन है। 




गोपों अथवा अहीरों के साथ परवर्ती  भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान किए गये ।

कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया है । यह सब परिवर्तन क्रमोत्तर रूप से होता हुआ आज तक विद्यमान है। यद्यपि ये सब बातें अस्तित्व हीन ही हैं। 

और अस्तित्व हीन बातों को उद्धृत करना शास्त्रीय विद्वित्ता नहीं है।
_____________________________________
नन्द जी को तो कथावाचक और भागवत आदि पुराण "गोप" कहते हैं। परन्तु  
कृष्ण और वसुदेव को भी प्राचीन पुराणों में "गोप" ही कहा गया है। , देवीभागवत पुराण तथा हरिवशं पुराण  गर्गसंहिता आदि  में  वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है।
___________________

 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 

अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। 
हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२ 
हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०

< हरिवंशपुराणम्‎ | पर्व १ (हरिवंशपर्व)
हरिवंशपुराणम्
अध्यायः ४०

जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा
चत्वारिंशोऽध्यायः


26. (ऐसा कैसे है ?) भगवान विष्णु, गोपों के घर जन्म लेने वाले होकर जो पूरे विश्व में सार्वभौमिक सुरक्षा प्रदान करते हैं,वह कैसे भगवान् विष्णु हैं  जिन्होंने प्रभासक्षेत्र का आसरा ले लिया ?
_________________________________

देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 
भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।

•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।

•–तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !
–२०

•– विष्णो ! पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 
जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।
•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ उनकी नीयत खराब हो गयी।।२२।
•–तब वरुण मेरे पास आये और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।

•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।

•– मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं। तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।

•–हे  देव !  जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।
•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं
क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।

•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।

•–इस कार्य का जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए तभी मैं समुद्र को  जाऊँगा ।।२९।

_______________________________
या आत्मदेवता गावोया:गाव:सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणंस्मृतम्।३०।
•–इन गोऔं के देवता साक्षात् परब्रह्म( विष्णु) परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं 
आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।

त्रातव्या:प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।

•–पहले गोओं की रक्षा करव़नी चाहिए  फिर सुरक्षित हुईं गोऐं ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं 
गोऔं और ब्राह्मणों( ब्रह्मज्ञानीयों) की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।
•– ब्रह्मा जी बोले ! हे  विष्णो : ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।


•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से  वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।

•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ;तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक पर जाऐंगी ।।३४।

★-"ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।
•–गोप(अहीर) के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।



•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो
गोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेंगे जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।

•–जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।
अदिति और सुरभि नाम की उनकी दो पत्नीयाँ होंगी ।३७।
•–बुद्धिमान वसुदेव की देवकी  और रोहिणी 
दो भार्याऐं होंगी । उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।

•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये । ठीक जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बढ़कर विराट् हो गये थे ।३९।

•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।

•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।
आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।

•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।
साथ ही यथासमय गोप कन्याओं को आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।
•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे तो वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।
•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर गोप-(अहीर) बालक के रूप में व्रज में निवास करेंगे ; उस समय सब लोगो आपके बाल- रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे और बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे।४४।
•–कमल नयन ! आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ  गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।

•–जब  आप वन में गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे  ,तथा यमुना जी के जल में गोते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।


•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा "तात" कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।

•–हे विष्णो ! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।

•-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए , हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।
         

•-वैशम्पायन बोले –जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से (उत्तर दिशा )में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।



•–वहाँ मेरु-पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।


•–उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।


(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व' में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।
 
          गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण
__________________________________
स्वयं कई बार कृष्ण ने अपने आप को गोप कहा-

इसी सन्दर्भ में हरिवशं पुराण में एक आख्यानक है ⬇

एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;

तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।

वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।

क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?

'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।

________________________
•– दूसरों को मान देने वाले आप मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से -आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
________
•-मैं क्षात्रवृत्ति या अनुष्ठान करने से क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं मैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।

लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।

•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11

इसी पुराण में एक स्थान पर कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि 
______    

       "गोप- कृष्ण"

___________________________

•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण "भविष्यपर्व" सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
_______

हरिवशं पुराण में ही 'भविष्य पर्व' के सौंवे अध्याय में पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
____________

अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है अलं ( बस करो'  ठहरो !)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे । 26। 
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
____________
गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप पद अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है 
_______________________________
अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥
← अध्यायः १५पद्मपुराणम्
अध्यायः १६
वेदव्यासः
अध्यायः १७ →

________________________________________
                  भीष्म उवाच
यदेतत्कथितं ब्रह्मंस्तीर्थमाहात्म्यमुत्तमम्
कमलस्याभिपातेन तीर्थं जातं धरातले।१।

तत्रस्थेन भगवता विष्णुना शंकरेण च
यत्कृतं मुनिशार्दूल तत्सर्वं परिकीर्त्तय।२।

कथं यज्ञो हि देवेन विभुना तत्र कारितः
के सदस्या ऋत्विजश्च ब्राह्मणाः के समागताः।३।

के भागास्तस्य यज्ञस्य किं द्रव्यं का चदक्षिणा
का वेदी किं प्रमाणं च कृतं तत्र विरंचिना।४।

यो याज्यः सर्वदेवानां वेदैः सर्वत्र पठ्यते
कं च काममभिध्यायन्वेधा यज्ञं चकार ह।५।

यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।

अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।

ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।

तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।

कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।

भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापती।११।।

स्वायंभुवादींश्च मनून्सावित्री समजीजनत्
धर्मपत्नीं तु तां ब्रह्मा पुत्रिणीं ब्रह्मणः प्रियः।१२।

पतिव्रतां महाभागां सुव्रतां चारुहासिनीं
कथं सतीं परित्यज्य भार्यामन्यामविंदत ।१३।

किं नाम्नी किं समाचारा कस्य सा तनया विभोः
क्व सा दृष्टा हि देवेन केन चास्य प्रदर्शिता।१४।

किं रूपा सा तु देवेशी दृष्टा चित्तविमोहिनी
यां तु दृष्ट्वा स देवेशः कामस्य वशमेयिवान् ।१५।

वर्णतो रूपतश्चैव सावित्र्यास्त्वधिका मुने
या मोहितवती देवं सर्वलोकेश्वरं विभुम्।१६।

यथा गृहीतवान्देवो नारीं तां लोकसुंदरीं
यथा प्रवृत्तो यज्ञोसौ तथा सर्वं प्रकीर्तय।१७।

तां दृष्ट्वा ब्रह्मणः पार्श्वे सावित्री किं चकार ह
सावित्र्यां तु तदा ब्रह्मा कां तु वृत्तिमवर्त्तत।१८।

सन्निधौ कानि वाक्यानि सावित्री ब्रह्मणा तदा
उक्ताप्युक्तवती भूयः सर्वं शंसितुमर्हसि।१९।

किं कृतं तत्र युष्माभिः कोपो वाथ क्षमापि वा
यत्कृतं तत्र यद्दृष्टं यत्तवोक्तं मया त्विह।२०।

विस्तरेणेह सर्वाणि कर्माणि परमेष्ठिनः
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण विधेर्यज्ञविधिं पद ।२१।।

कर्मणामानुपूर्व्यं च प्रारंभो होत्रमेव च
होतुर्भक्षो यथाऽचापि प्रथमा कस्य कारिता।२२।

कथं च भगवान्विष्णुः साहाय्यं केन कीदृशं
अमरैर्वा कृतं यच्च तद्भवान्वक्तुमर्हति।२३।

देवलोकं परित्यज्य कथं मर्त्यमुपागतः
गार्हपत्यं च विधिना अन्वाहार्यं च दक्षिणम्।२४।

अग्निमाहवनीयं च वेदीं चैव तथा स्रुवम्
प्रोक्षणीयं स्रुचं चैव आवभृथ्यं तथैव च।२५।

अग्नींस्त्रींश्च यथा चक्रे हव्यभागवहान्हि वै
हव्यादांश्च सुरांश्चक्रे कव्यादांश्च पितॄनपि।२६।

भागार्थं यज्ञविधिना ये यज्ञा यज्ञकर्मणि
यूपान्समित्कुशं सोमं पवित्रं परिधीनपि।२७।

यज्ञियानि च द्रव्याणि यथा ब्रह्मा चकार ह
विबभ्राज पुरा यश्च पारमेष्ठ्येन कर्मणा।२८।

क्षणा निमेषाः काष्ठाश्च कलास्त्रैकाल्यमेव च
मुहूर्तास्तिथयो मासा दिनं संवत्सरस्तथा।२९।

ऋतवः कालयोगाश्च प्रमाणं त्रिविधं पुरा
आयुः क्षेत्राण्यपचयं लक्षणं रूपसौष्ठवम्।३०।

त्रयो वर्णास्त्रयो लोकास्त्रैविद्यं पावकास्त्रयः
त्रैकाल्यं त्रीणि कर्माणि त्रयो वर्णास्त्रयो गुणाः।३१।

सृष्टा लोकाः पराः स्रष्ट्रा ये चान्येनल्पचेतसा
या गतिर्धर्मयुक्तानां या गतिः पापकर्मणां।३२।

चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता
चतुर्विद्यस्य यो वेत्ता चतुराश्रमसंश्रयः।३३।

यः परं श्रूयते ज्योतिर्यः परं श्रूयते तपः
यः परं परतः प्राह परं यः परमात्मवान्।३४।

सेतुर्यो लोकसेतूनां मेध्यो यो मेध्यकर्मणाम्
वेद्यो यो वेदविदुषां यः प्रभुः प्रभवात्मनाम्।३५।

असुभूतश्च भूतानामग्निभूतोग्निवर्चसाम्
मनुष्याणां मनोभूतस्तपोभूतस्तपस्विनाम्।३६।

विनयो नयवृत्तीनां तेजस्तेजस्विनामपि
इत्येतत्सर्वमखिलान्सृजन्लोकपितामहः।३७।

यज्ञाद्गतिं कामन्वैच्छत्कथं यज्ञे मतिः कृता
एष मे संशयो ब्रह्मन्नेष मे संशयः परः।३८।

आश्चर्यः परमो ब्रह्मा देवैर्दैत्यैश्च पठ्यते
कर्मणाश्चर्यभूतोपि तत्त्वतः स इहोच्यते।३९।

             ★"पुलस्त्य उवाच"★
प्रश्नभारो महानेष त्वयोक्तो ब्रह्मणश्च यः
यथाशक्ति तु वक्ष्यामि श्रूयतां तत्परं यशः।४०।

सहस्रास्यं सहस्राक्षं सहस्रचरणं च यम्
सहस्रश्रवणं चैव सहस्रकरमव्ययम्।४१।

सहस्रजिह्वं साहस्रं सहस्रपरमं प्रभुं
सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम्।४२।

हवनं सवनं चैव हव्यं होतारमेव च
पात्राणि च पवित्राणि वेदीं दीक्षां चरुं स्रुवम्।४३

स्रुक्सोममवभृच्चैव प्रोक्षणीं दक्षिणा धनम्
अद्ध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यान्सदनं सदः।४४।

यूपं समित्कुशं दर्वी चमसोलूखलानि च
प्राग्वंशं यज्ञभूमिं च होतारं बन्धनं च यत्।४५।

ह्रस्वान्यतिप्रमाणानि प्रमाणस्थावराणि च
प्रायश्चित्तानि वाजाश्च स्थंडिलानि कुशास्तथा।४६।

मंत्रं यज्ञं च हवनं वह्निभागं भवं च यं
अग्रेभुजं होमभुजं शुभार्चिषमुदायुधं।४७।

आहुर्वेदविदो विप्रा यो यज्ञः शाश्वतः प्रभुः
यां पृच्छसि महाराज पुण्यां दिव्यामिमां कथां।४८।

यदर्थं भगवान्ब्रह्मा भूमौ यज्ञमथाकरोत्
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च।४९।

सप्तर्षियों का गायत्री के विवाह में "होता" "ऋत्विज" आदि पदों पर उपस्थित होना-



"ब्रह्माथ कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च
देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यंबकश्च महायशाः।५० ।

 (1.16.50)खण्ड/अध्याय/श्लोक)

 अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा माँगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहाँ उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। 

मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

 फारसी अतर -संस्कृत-,अत्रि

अतर , अताश , या अजार ( अवेस्तान अतर पवित्र अग्नि की पारसी अवधारणा है ।

जिसे कभी-कभी अमूर्त शब्दों में "जलती हुई और जलती हुई आग" या "दृश्यमान और अदृश्य आग" भी माना जाता है।इसे इसके (मिर्जा, 1987: 389)  रूप में वर्णित किया जाता है।

 इसे यज़ता नाम के माध्यम से अहुरा मज़्दा और उनकी आशा की दृश्यमान उपस्थिति माना जाता है । साल में 1,128 बार आग को शुद्ध करने का अनुष्ठान किया जाता है।

तुर्क शाही राजा तेगिन शाह के एक सिक्के पर ईरानी अग्निदेव अदुर (अतर अत्रि-) , 728  ईस्वी

अवेस्तान भाषा में , अतर गर्मी और प्रकाश के स्रोतों का एक गुण है, जिनमें से नाममात्र का एकवचन रूप अतारी है, जो फारसी अत: (अग्नि) का स्रोत है । एक बार इसे व्युत्पत्ति से संबंधित माना जाता था अवेस्तान अशरौआन / अशौरुन ( वैदिक अथर्वन ), एक प्रकार का पुजारी, लेकिन अब इसे असंभाव्य माना जाता है (बॉयस, 2002:16)। अतर की अंतिम व्युत्पत्ति , जो पहले अज्ञात थी (बॉयस, 2002:1), अब माना जाता है कि यह इंडो-यूरोपीय *h x eh x tr- 'फायर' से है। यह इसे लैटिन ater . से संबंधित बना देगा(काला) और संभवतः अल्बानियाई वातिर , रोमानियाई वात्र और सर्बो-क्रोएशियाई वात्रा (अग्नि) का एक संज्ञेय। [1] रूप है।

बाद के पारसी धर्म में, अतर ( मध्य फ़ारसी : 𐭠𐭲𐭥𐭥𐭩 आदर या आदुर ) प्रतीकात्मक रूप से आग से ही जुड़ा हुआ है, जो मध्य फ़ारसी में अतक्ष है , जो पारसी प्रतीकवाद की प्राथमिक वस्तुओं में से एक है।

"शास्त्र में वर्णन- करना

गाथिक ग्रंथों में-

अतर पहले से ही गाथाओं में स्पष्ट है , जो अवेस्ता के संग्रह का सबसे पुराना ग्रंथ है और माना जाता है कि इसकी रचना स्वयं जोरोस्टर ने की थी । इस मोड़ पर, जैसा कि यस्ना हप्तनघैती (सात-अध्याय का यस्ना जो संरचनात्मक रूप से गाथाओं को बाधित करता है और भाषाई रूप से उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं गत), अतर अभी भी है - केवल एक अपवाद के साथ - एक अमूर्त अवधारणा बस एक साधन, एक माध्यम, निर्माता की और अभी तक गर्मी और प्रकाश की दिव्यता ( यज़ता ) नहीं है कि अतर बाद के ग्रंथों में बनना था।

सबसे प्राचीन ग्रंथों में, अतर एक माध्यम है, एक संकाय, जिसके माध्यम से निर्णय पारित किया जाता है और गर्मी द्वारा परीक्षा के पूर्व-पारसी संस्थान को दर्शाता है (अवेस्तान: गारमो-वराह , गर्मी की परीक्षा; सीएफ। बॉयस 1996: अध्याय 6)। न्याय अतर ( यस्ना 31.3, 34.4, 36.2, 47.2), धधकते हुए अतर (31.19, 51.9) के माध्यम से, अतर की गर्मी के माध्यम से (43.4), धधकते, चमकते, पिघली हुई धातु ( अयंग खशुष्ट , 30.7, 32.7, ) के माध्यम से प्रशासित किया जाता है। 51.9)। 

एक व्यक्ति जिसने अग्नि परीक्षा पास कर ली है, उसने शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति, ज्ञान, सत्य और प्रेम को शांति के साथ प्राप्त किया है (30.7)।

 हालाँकि, सभी संदर्भों के बीचअतर सबसे पुराने ग्रंथों में, इसे केवल एक बार अहुरा मज़्दा से स्वतंत्र रूप से संबोधित किया जाता है। इस अपवाद में, अतर को तीसरे व्यक्ति के मर्दाना एकवचन में कहा जाता है: "वह हाथ से पकड़कर पापियों का पता लगाता है" ( यस्ना 34.4)। 

कुल मिलाकर, "कहा जाता है कि कुल मिलाकर लगभग 30 प्रकार के उग्र परीक्षण हुए हैं।" (बॉयस, 2002:1)

इसके अलावा प्रारंभिक ग्रंथों में, अपराध स्थापित करने में अपनी भूमिका के लिए स्पर्शरेखा, अतर रहस्योद्घाटन का प्रकाश है जिसके माध्यम से जोरोस्टर का चयन अहुरा मज़्दा द्वारा किया जाता है, जरथुस्त्र मैन्यु अथरा ( यस्ना 31.3), अहुरा मज़्दा (43.9) द्वारा विकिरणित, की सजा को प्रभावित करता है "अच्छा उद्देश्य" ( वोहु मनाह , 43.4; अमेशा स्पेंटा भी देखें ), और अपने भीतर के आत्मज्ञान को उजागर करना (46.7)। दिव्य रोशनी की अवधारणा के इस ढांचे के भीतर, अतर "अन्य रोशनी" (31.7), सार (अहुरा मज़्दा का) विकीर्ण करता है, जिससे अंतर्दृष्टि और ज्ञान ब्रह्मांड में व्याप्त है। अत: पारसी की आज्ञा हमेशा अतारो की उपस्थिति में प्रार्थना करने के लिए- या तो सूर्य की ओर, या अपने स्वयं के चूल्हों की ओर - ताकि उनकी भक्ति को आशा, धार्मिकता और उस गुण पर बेहतर ढंग से केंद्रित किया जा सके जिसके लिए प्रयास किया जाना चाहिए ( यस्ना 43.9, बॉयस, 1975: 455 भी देखें)।

"परवर्ती ग्रन्थों में सम्पादन-)

कुषाण शासक हुविष्क (150-180 सीई) के एक सिक्के के पीछे अत्शो (अतर)।

अपराध का पता लगाने के माध्यम के रूप में अतर की गाथिक भूमिका अवेस्ता के बाद के ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट नहीं है, लेकिन धार्मिकता के माध्यम से अंगरा मैन्यु को जलाने और नष्ट करने के एक रूपक के रूप में संशोधित रूप में फिर से प्रकट होता है , "जहां आशा वशिष्ठ की पहचान कई बार की जाती है। चूल्हे पर घर की आग।

"वहां, "पदार्थ और आत्मा के क्षेत्र में पहचान केवल आशा के संबंध में जोरोस्टर की शिक्षाओं के मुख्य सिद्धांतों को प्रमुखता में लाने के लिए कार्य करती है" (ढल्ला, 1938: 170)। वेंडीडाडी में अभी भी गर्मी से अग्नि परीक्षा की प्राचीन संस्था का एक अवशेष मौजूद है4.54-55, जहां सच्चाई के खिलाफ बोलना और वादे की पवित्रता का उल्लंघन करना दंडनीय है और "पानी, धधकते, सुनहरे रंग के, अपराध का पता लगाने की शक्ति रखने वाले" के सेवन से पता चला है। इस मार्ग पर ज़ेंड अनुवाद/टिप्पणी "चमकदार" को "गंधक और सल्फर" के रूप में अनुवादित करती है, और नोट करती है कि इस "अपराध-पहचान तरल" की खपत से निर्दोषता या अपराध स्थापित किया गया था। इसी तरह, डेनकार्ड में , अधारबाद मारस्पंद-ससानीद युग के महायाजक, जिनके लिए अवेस्ता ग्रंथों के संयोजन का श्रेय दिया जाता है- को पवित्र ग्रंथों की सटीकता के प्रमाण के रूप में उनके सीने पर "अनबर्निंग पिघले हुए जस्ता" के नौ उपायों को लागू करने के लिए कहा जाता है। .

कालानुक्रमिक रूप से देखा जाए, तो अतर से निर्णय के वाहन के रूप में अतर यज़ाता में अग्नि की अध्यक्षता करने वाले देवत्व का संक्रमण अचानक होता है । 

जबकि पुराने गैथिक अवेस्टन ग्रंथों में कठोर निर्णय से जुड़ी गर्मी (और इस प्रकार आग) है, छोटे अवेस्तान ग्रंथों में देवत्व अतर पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करता है और आग से ही प्रतिनिधित्व किया जा रहा है; और गर्मी और प्रकाश के साथ जुड़ा हुआ है और विकास के लिए आवश्यक है। हालांकि अतर के साथ आशा वशिष्ठ के जुड़ाव को आगे बढ़ाया गया है, और उनका अक्सर एक साथ उल्लेख किया जाता है ( यस्ना 62.3, न्याशेस)5.9, आदि)। इसलिए संरक्षक के रूप में उनकी भूमिकाओं में भी, "जब दुष्ट आत्मा ने अच्छे सत्य के निर्माण पर आक्रमण किया, तो अच्छे विचार और आग ने हस्तक्षेप किया" ( यश 13.77)

यह बाद के ग्रंथों में है कि अतर को अहुरा मज़्दा (मानक पदवी, यास्ना 25.7 एट अल।) के "पुत्र" के रूप में व्यक्त किया गया है और इसे "महिमा से भरा और उपचार उपचार से भरा" ( न्याश 5.6) कहा जाता है। यस्ना 17.11 में, अतर " घर का स्वामी" है, गाथाओं में चूल्हा की आग की भूमिका को याद करते हुए। वही मार्ग "पाँच प्रकार की आग" की गणना करता है:

  1. अतर बेरेज़ी-सावा , "अत्यधिक लाभकारी अतर " (" ऑक्सीजन " की तुलना करें), ज़ेंड ग्रंथों में "अग्नि जो खाना खाती है लेकिन पानी नहीं पीती" के रूप में योग्य है, और उस तरह की आग जो अताश-बेहराम में जलती है , उच्चतम अग्नि मंदिर का ग्रेड ।
  2. अतर वोहु-फ्रायना , " अच्छे स्नेह का अतर " (" अग्नि " की तुलना करें, भगा और मित्र के साथ संगत ), बाद में "अग्नि फैलाने वाली अच्छाई" और "आग जो पानी और भोजन दोनों को खा जाती है" के रूप में योग्य है।
  3. अतर उर्वजिष्ट , " सबसे बड़ा आनंद का अतर " (" गर्मी की तुलना करें ), बाद में "सुखी जीवन की आग" के रूप में योग्य, और "वह आग जो पानी पीती है लेकिन खाना नहीं खाती"।
  4. अतर वज़िष्ट , " अतर सबसे तेज़" (" विद्युत स्पार्क्स " की तुलना करें), बाद में बादलों में आग के रूप में योग्य, यानी बिजली, और "आग जो न तो पानी पीती है और न ही खाना खाती है"।
  5. अतर स्पीनिष्ट , " अतर सबसे पवित्र", [2] (" एथर ", संज्ञेय बाल्टो-स्लाविक ventas "पवित्र" की तुलना करें) ("ज़ेंड" ग्रंथों में "समृद्धि की आग" के रूप में वर्णित है और ओहर्मुजद से पहले आध्यात्मिक आग जल रही है .

सस्सानीद युग की टिप्पणियों ( ज़ेंड ग्रंथों) में आग का विवरण बुंदाहिशन ("मूल निर्माण", 11 वीं या 12 वीं शताब्दी में पूरा हुआ) में वर्णित लोगों से थोड़ा अलग है । उत्तरार्द्ध में, पहली और आखिरी तरह की आग का वर्णन उलट दिया गया है।

"संस्कृति और परम्पापरा★

एक पारसी - पारसी जश्न समारोह (यहां पुणे , भारत में एक घर का आशीर्वाद )

"देवत्व के रूप में -

देर से अचमेनिद युग के दौरान अदार - यज़ता अदार की सर्वोत्कृष्टता- देवताओं के पारसी पदानुक्रम में शामिल किया गया था। उस स्थिति में, अदार आशा वाहिष्ता ( अवेस्तान, मध्य फ़ारसी : अर्धविष्ट ) की सहायता करता है, जो कि अमेशा स्पेंटा प्रकाशकों के लिए जिम्मेदार है। यज़ातों से जुड़े फूलों में से , अदार का गेंदा ( कैलेंडुला ) ( बुंदाहिशन 27.24) है।

देवत्व का महत्व अदार पारसी कैलेंडर में इकाई के प्रति समर्पण से स्पष्ट होता है : अदार उन पांच यजतों में से एक है जिनके पास एक महीने का नाम समर्पण है। इसके अतिरिक्त, अदार पारसी धार्मिक कैलेंडर में महीने के नौवें दिन का नाम है, और 1925 के नागरिक ईरानी कैलेंडर ( आधुनिक फारसी : अजार ) के वर्ष के नौवें महीने का नाम है, जिसमें महीने के नाम उन लोगों से प्राप्त होते हैं जिनका उपयोग किया जाता है। पारसी कैलेंडर।

पारसी ब्रह्मांड में, अदार भौतिक ब्रह्मांड की सात रचनाओं में से सातवां था। यह केवल अदार की सहायता से है, जो जीवन-शक्ति के रूप में कार्य करता है, कि अन्य छह रचनाएं अपना काम शुरू करती हैं ( बुंदाहिशन 3.7–8; अधिक तार्किक रूप से ज़त्स्प्रम 3.77-83 में समझाया गया है)।

"आग का पथ- करना

हालांकि जोरास्ट्रियन किसी भी रूप में अग्नि का सम्मान करते हैं, मंदिर की आग वस्तुतः अग्नि की श्रद्धा के लिए नहीं है, बल्कि स्वच्छ पानी के साथ ( अबान देखें ), अनुष्ठान शुद्धता का एक एजेंट है। स्वच्छ, सफेद "शुद्धिकरण समारोहों के लिए राख है। को अनुष्ठान जीवन का आधार माना जाता है", जो "अनिवार्य रूप से एक घरेलू आग की प्रवृत्ति के लिए उचित संस्कार हैं, क्योंकि मंदिर पंथ एक नए के लिए उठाए गए चूल्हे की आग है। गंभीरता" (बॉयस, 1975:455)। क्योंकि, "वह व्यक्ति जो हाथ में ईंधन लेकर, हाथ में बेयर्समैन के साथ, हाथ में दूध के साथ, हाथ में पवित्र हाओमा की शाखाओं को कुचलने के लिए मोर्टार के साथ बलिदान करता है, उसे खुशी मिलती है" ( यस्ना 62.1 ) न्याशेस 5.7 )

आग का पारसी पंथ स्पष्ट रूप से पारसी धर्म से बहुत छोटा है और लगभग उसी समय धर्मस्थल पंथ के रूप में प्रकट होता है, जो पहली बार चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में स्पष्ट होता है (लगभग एक देवत्व के रूप में अदार की शुरूआत के साथ समकालीन)। अवेस्ता में मंदिर के आग के पंथ का कोई उचित संकेत नहीं है, और न ही किसी के लिए कोई पुराना फारसी शब्द है। इसके अलावा, बॉयस ने सुझाव दिया कि आग के मंदिर पंथ को छवि / तीर्थ पंथ के विरोध में स्थापित किया गया था और "पार्थियन काल से पहले एक अग्नि मंदिर के वास्तविक खंडहर की पहचान नहीं की गई है" (बॉयस, 1975: 454)।

आग का पंथ एक सैद्धांतिक संशोधन था और प्रारंभिक पारसी धर्म से अनुपस्थित था, यह अभी भी बाद के अताश न्याश में स्पष्ट है : उस मुकदमे के सबसे पुराने अंशों में, यह चूल्हा आग है जो "उन सभी के लिए बोलती है जिनके लिए यह शाम और सुबह बनाती है भोजन", जिसे बॉयस ने देखा, पवित्र अग्नि के अनुरूप नहीं है। मंदिर पंथ एक और भी बाद का विकास है: हेरोडोटस से यह ज्ञात है कि 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में पारसी लोग खुले आकाश में पूजा करते थे, अपनी आग जलाने के लिए चढ़ते हुए टीले ( द हिस्ट्रीज़ , i.131)। स्ट्रैबो इसकी पुष्टि करता है, यह देखते हुए कि 6 वीं शताब्दी में, कप्पाडोसिया में ज़ेला में अभयारण्य एक कृत्रिम टीला था, जिसकी दीवारों से घिरा हुआ था, लेकिन आकाश के लिए खुला था।XI.8.4.512)।

पार्थियन युग (250 ईसा पूर्व -226 सीई) तक , पारसी धर्म में वास्तव में दो प्रकार के पूजा स्थल थे: एक, जाहिरा तौर पर बैगिन या अयाज़ान कहा जाता है, एक विशिष्ट देवत्व को समर्पित अभयारण्य, एक व्यक्ति या परिवार के संरक्षक याजाता के सम्मान में निर्मित और सम्मानित व्यक्ति का एक चिह्न या पुतला शामिल है। दूसरे थे एट्रोशन , "जलती हुई आग के स्थान", जो बॉयस (1997: ch. 3) नोट के रूप में, अधिक से अधिक प्रचलित हो गए क्योंकि आइकोनोक्लास्टिक आंदोलन ने समर्थन प्राप्त किया। सस्सानिद राजवंश के उदय के बाद, यज़ातों के मंदिर मौजूद रहे, मूर्तियों के साथ-कानून द्वारा-या तो खाली अभयारण्यों के रूप में छोड़ दिया गया था, या अग्नि वेदियों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा था (इसलिए मेहर के लिए लोकप्रिय मंदिर भी /मिथ्रा जिसने दरब -ए मेहर- मिथ्रा गेट- का नाम बरकरार रखा, जो आज एक अग्नि मंदिर के लिए पारसी तकनीकी शब्दों में से एक है)।

इसके अलावा, जैसा कि शिपमैन ने देखा (स्थान । सिट। बॉयस, 1975:462), यहां तक ​​​​कि ससानिद युग (226-650 सीई) के दौरान भी इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आग को उनकी पवित्रता के अनुसार वर्गीकृत किया गया था। "ऐसा लगता है कि वस्तुतः केवल दो थे, अर्थात् अताश-ए वहराम [शाब्दिक रूप से: "विजयी आग", जिसे बाद में बहराम की आग के रूप में गलत समझा गया , ग्नोली, 2002: 512 देखें] और कम अताश-ए अदारन , या 'फायर ऑफ फायर', एक पैरिश फायर, जैसा कि एक गांव या शहर के क्वार्टर की सेवा कर रहा था" (बॉयस, 1 9 75: 462; बॉयस 1 9 66: 63)। जाहिरा तौर पर, यह केवल अताश-ए वहराम में था कि आग लगातार जलती रही, अदारानी के साथहर साल रिलिट की जा रही आग। जबकि आग के विशेष नाम थे, संरचनाएं नहीं थीं, और यह सुझाव दिया गया है कि "मध्य फारसी नामों ( कडग , आदमी , और ज़ानाग ) की पेशेवर प्रकृति एक साधारण घर के लिए सभी शब्द हैं) शायद भाग पर एक इच्छा को दर्शाती है उन लोगों में से जिन्होंने मंदिर-पंथ को लंबे समय तक चूल्हा-अग्नि के पुराने पंथ के चरित्र में यथासंभव करीब रखने और विस्तार को हतोत्साहित करने के लिए बढ़ावा दिया" (बॉयस, 2002: 9)।

अंग्रेजी भाषा में "अग्नि-पुजारी" के रूप में अथोर्नन (अवेस्तान भाषा "अथरावन" से व्युत्पन्न) शब्द को प्रस्तुत करने की भारतीय पारसी -पारसी प्रथा गलत धारणा पर आधारित है कि अथरा* उपसर्ग अतर से निकला है (बॉयस, 2002: 16-17)। अथरावन शब्द गाथाओं में प्रकट नहीं होता है, जहां एक पुजारी एक ज़ोतर होता है , और इसके सबसे पुराने प्रमाणित उपयोग ( यस्ना 42.6) में यह शब्द "मिशनरी" का पर्याय प्रतीत होता है। बाद के यश्त 13.94 में, जोरोस्टर खुद को एक अथर्वन कहा जाता है , जो इस संदर्भ में अतर का संदर्भ नहीं हो सकता है।अगर जोरोस्टर के समय में आग का पंथ और उससे जुड़े पौरोहित्य अभी तक मौजूद नहीं थे। इस प्रकार, सभी संभावनाओं में, "अथरावण शब्द की एक अलग व्युत्पत्ति है।" (बॉयस, 2002:17)

पौराणिक कथाओं और लोककथाओं में-

वेंडीदाद 1 में, अदार आकाश के महान अजगर असी दहाका से लड़ता है।

फ़िरदौसी के शाहनामे में , होशंग , पहले आदमी गयोमार्ड का पोता , एक चट्टान में आग का पता लगाता है। वह इसे अहुरा मज़्दा की दिव्य महिमा के रूप में पहचानता है, उसे श्रद्धांजलि देता है, और अपने लोगों को भी ऐसा करने का निर्देश देता है। इसके अलावा शाहनामे में सेवावश की कथा है , जो अपनी बेगुनाही के प्रमाण के रूप में "अग्निमय अग्नि" से गुजरता है।

एक शाही प्रतीक के रूप में-

अर्धशिर I का चांदी का सिक्का जिसके पीछे एक अग्नि वेदी है (180 - 242 ईस्वी)।

ससानिद युग (226-650 सीई) के दौरान, आग का प्रतीक वही भूमिका निभाता है जो पंखों वाले सूरज फरवाहर ने अचमेनिड काल (648-330 ईसा पूर्व) के दौरान किया था। सस्सानिद साम्राज्य के संस्थापक, अर्दाशिर प्रथम के साथ शुरुआत करते हुए, राजवंश के कई राजाओं ने एक या एक से अधिक सिक्के जारी किए, जिनमें आग का प्रतीक था, और आग के प्रतीक के साथ मुहरें और बुल्ले आम थे।

साम्राज्य के पहले चांदी के सिक्कों में अर्धशिर I ( आर। 226-241) या उसके पिता पापक के अग्रभाग पर (आगे की ओर शासक सम्राट का एक आंकड़ा पूरे राजवंश के अनुरूप है), आग के प्रतिनिधित्व के साथ है। वेदी, पौराणिक कथा के साथ अताश मैं अर्तक्षिर , "अर्दशीर की आग", पीछे की तरफ। अर्दाशिर के बेटे, शापुर प्रथम ( आर। 241-272), की छवि बहुत समान है, लेकिन अग्नि वेदी पर दो परिचारकों को जोड़ता है। होर्मिज़द I (जिसे अर्दाशिर II, आर। 272-273 के नाम से भी जाना जाता है) के सिक्कों पर , सम्राट स्वयं एक परिचारक की मदद से आग लगाता है। बहराम II(276-293) स्वयं भी प्रकट होता है, उसके साथ उसकी रानी और पुत्र क्या हो सकता है। नरसेह ( आर. 293-303) भी इस बार अकेले ही आग में शामिल होते हैं। शापुर III ( र. 283-388) के सिक्कों पर अग्नि से एक देवत्व निकलता प्रतीत होता है। यज़्देगर्ड II ( आर। 438–457) के सिक्कों में अग्नि वेदी का आकार वर्तमान अग्नि मंदिरों के समान है। अर्देशिर के तहत पेश की गई किंवदंती पेरोज़ ( आर। 457–484) के तहत एक टकसाल चिह्न और जारी करने के वर्ष की उपज देती है, जो शेष राजवंश के सभी सिक्कों में स्पष्ट है।

यह सभी देखें-

संदर्भ-

  1. ^ मैलोरी, जेपी; एडम्स, डगलस क्यू. (1997)। इंडो-यूरोपीय संस्कृति का विश्वकोश - जेम्स मैलोरी - गूगल बोकेन । आईएसबीएन 9781884964985. 2012-08-27 को लिया गया ।
  2. ^ बॉयस, मैरी (1983), "अम्सा स्पींटा", इनसाइक्लोपीडिया ईरानिका , वॉल्यूम। 1, न्यूयॉर्क: रूटलेज और केगन पॉल, पीपी. 933-936.

_____________________________________

"पुन: गायत्री प्रकरण- के पूरक श्लोक-



सनत्कुमारश्च महानुभावो मनुर्महात्मा भगवान्प्रजापतिः
पुराणदेवोथ तथा प्रचक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजाः।५१।

पुरा कमलजातस्य स्वपतस्तस्य कोटरे
पुष्करे यत्र संभूता देवा ऋषिगणास्तथा।५२।

एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः
पुराणं कथ्यते यत्र वेदस्मृतिसुसंहितं।५३।

वराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भूतो विरिंचिनः
सहायार्थं सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः।५४।

विस्तीर्णं पुष्करे कृत्वा तीर्थं कोकामुखं हि तत्
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुहस्तश्चितीमुखः।५५।

अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदांगः श्रुतिभूषणः।५६।

आज्यनासः स्रुवतुंडः सामघोषस्वनो महान्
सत्यधर्ममयः श्रीमान्कर्मविक्रमसत्कृतः।५७।

प्रायश्चित्तनखो धीरः पशुजानुर्मखाकृतिः
उद्गात्रांत्रो होमलिंगो फलबीजमहौषधिः।५८।

वाय्वंतरात्मा मंत्रास्थिरापस्फिक्सोमशोणितः
वेदस्कंधो हविर्गंधो हव्यकव्यातिवेगवान्।५९।

प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरर्चितः
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान्।६०।

उपाकर्मेष्टिरुचिरः प्रवर्ग्यावर्तभूषणः
छायापत्नीसहायो वै मणिशृंगमिवोच्छ्रितः।६१।

सर्वलोकहितात्मा यो दंष्ट्रयाभ्युज्जहारगाम्
ततः स्वस्थानमानीय पृथिवीं पृथिवीधरः।६२।

ततो जगाम निर्वाणं पृथिवीधारणाद्धरिः
एवमादिवराहेण धृत्वा ब्रह्महितार्थिना।६३।

उद्धृता पुष्करे पृथ्वी सागरांबुगता पुरा
वृतः शमदमाभ्यां यो दिव्ये कोकामुखे स्थितः।६४।

आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैः सह
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः।६५।

दिग्भिर्विदिग्भिः पृथिवी नदीभिः सह सागरैः
चराचरगुरुः श्रीमान्ब्रह्मा ब्रह्मविदांवरः।६६।

उवाच वचनं कोकामुखं तीर्थं त्वया विभो
पालनीयं सदा गोप्यं रक्षा कार्या मखे त्विह।६७।

एवं करिष्ये भगवंस्तदा ब्रह्माणमुक्तवान्
उवाच तं पुनर्ब्रह्मा विष्णुं देवं पुरः स्थितम्।६८।

त्वं हि मे परमो देवस्त्वं हि मे परमो गुरुः
त्वं हि मे परमं धाम शक्रादीनां सुरोत्तम।६९।

उत्फुल्लामलपद्माक्ष शत्रुपक्ष क्षयावह
यथा यज्ञेन मे ध्वंसो दानवैश्च विधीयते ।७०।

तथा त्वया विधातव्यं प्रणतस्य नमोस्तु ते
                 विष्णुरुवाच
भयं त्यजस्व देवेश क्षयं नेष्यामि दानवान्।७१।

ये चान्ते विघ्नकर्तारो यातुधानास्तथाऽसुराः
घातयिष्याम्यहं सर्वान्स्वस्ति तिष्ठ पितामह।७२।

एवमुक्त्वा स्थितस्तत्र साहाय्येन कृतक्षणः
प्रववुश्च शिवा वाताः प्रसन्नाश्च दिशो दश।७३।

सुप्रभाणि च ज्योतींषि चंद्रं चक्रुः प्रदक्षिणम्
न विग्रहं ग्रहाश्चक्रुः प्रसेदुश्चापि सिंधवः।७४।

________________

"नीरजस्का भूमिरासीत्सकला ह्लाददास्त्वपः
जग्मुः स्वमार्गं सरितो नापि  चुक्षुभुरर्णवाः ।७५।

आसन्शुभानींद्रियाणि नराणामंतरात्मनाम्
महर्षयो वीतशोका वेदानुच्चैरवाचयन्।७६।

यज्ञे तस्मिन्हविः पाके शिवा आसंश्च पावकाः
प्रवृत्तधर्मसद्वृत्ता लोका मुदितमानसाः।७७।

विष्णोः सत्यप्रतिज्ञस्य श्रुत्वारिनिधना गिरः
ततो देवाः समायाता दानवा राक्षसैस्सह।७८।

भूतप्रेतपिशाचाश्च सर्वे तत्रागताः क्रमात्
गंधर्वाप्सरसश्चैव नागा विद्याधरागणाः।७९।

वानस्पत्याश्चौषधयो यच्चेहेद्यच्च नेहति
ब्रह्मादेशान्मारुतेन आनीताः सर्वतो दिशः।८०।

यज्ञपर्वतमासाद्य दक्षिणामभितोदिशम्
सुरा उत्तरतः सर्वे मर्यादापर्वते स्थिताः।८१।

गंधर्वाप्सरसश्चैव मुनयो वेदपारगाः
पश्चिमां दिशमास्थाय स्थितास्तत्र महाक्रतौ।८२।

सर्वे देवनिकायाश्च दानवाश्चासुरागणाः
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा सुप्रीतास्ते परस्परम्।८३।

ऋषीन्पर्यचरन्सर्वे शुश्रूषन्ब्राह्मणांस्तथा
ऋषयो ब्रह्मर्षयश्च द्विजा देवर्षयस्तथा।८४।

राजर्षयो मुख्यतमास्समायाताः समंततः
कतमश्च सुरोप्यत्र क्रतौ याज्यो भविष्यति।८५।

पशवः पक्षिणश्चैव तत्र याता दिदृक्षवः
ब्राह्मणा भोक्तुकामाश्च सर्वे वर्णानुपूर्वशः।८६।

स्वयं च वरुणो रत्नं दक्षश्चान्नं स्वयं ददौ
आगत्यवरुणोलोकात्पक्वंचान्नंस्वतोपचत्।८७।

वायुर्भक्षविकारांश्च रसपाची दिवाकरः
अन्नपाचनकृत्सोमो मतिदाता बृहस्पतिः।८८।

धनदानं धनाध्यक्षो वस्त्राणि विविधानि च
सरस्वती नदाध्यक्षो गंगादेवी सनर्मदा।८९

याश्चान्याः सरितः पुण्याः कूपाश्चैव जलाशयाः
पल्वलानि तटाकानि कुंडानि विविधानि च।९०।

प्रस्रवाणि च मुख्यानि देवखातान्यनेकशः
जलाशयानि सर्वाणि समुद्राः सप्तसंख्यकाः।९१।

लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलैः समम्
सप्तलोकाः सपातालाः सप्तद्वीपाः सपत्तनाः।९२।

वृक्षा वल्ल्यः सतृणानि शाकानि च फलानि च
पृथिवीवायुराकाशमापोज्योतिश्च पंचमम्।९३।

सविग्रहाणि भूतानि धर्मशास्त्राणि यानि च
वेदभाष्याणि सूत्राणि ब्रह्मणा निर्मितं च यत्।९४।

अमूर्तं मूर्तमत्यन्तं मूर्तदृश्यं तथाखिलम्
एवं कृते तथास्मिंस्तु यज्ञे पैतामहे तदा।९५।

देवानां संनिधौ तत्र ऋषिभिश्च समागमे
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे स्थितो विष्णुः सनातनः।९६।

वामपार्श्वे स्थितो रुद्रः पिनाकी वरदः प्रभुः
ऋत्विजां चापि वरणं कृतं तत्र महात्मना।९७।

भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।

सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।

ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते।१००। 

 ( 1.खण्ड 16.अध्याय 100 .श्लोक )

___________________________________
अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३।

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।११०।

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।।

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्ता गृहकर्माणि
सख्यो नाभ्यागता यावत्तावन्नागमनं मम।१२६।।

एवमुक्तोस्मि वै देव कालश्चाप्यतिवर्त्तते
यत्तेद्य रुचितं तावत्तत्कुरुष्व पितामह।१२७।।

एवमुक्तस्तदा ब्रह्मा किंचित्कोपसमन्वितः
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय।१२८।।

यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते
तथा शीघ्रं विधित्स्व त्वं नारीं कांचिदुपानय।१२९।।

यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णे त्वां मा कृथा मनः
भूयोपि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौ तु क्रतोरिह।१३०।।।

______________________________________

"(एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।।

 "आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।

न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगनाददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।

 संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।१३४।

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।

तन्मत्तः कृतपुण्योन्यो न देवो भुवि विद्यतेयोषिद्रत्नमिदं सेयं सद्भाग्यायां पितामहः।१३६।

सरागो यदि वा स्यात्तु सफलस्त्वेष मे श्रमःनीलाभ्र कनकांभोज विद्रुमाभां ददर्श तां ।१३७

त्विषं संबिभ्रतीमंगैः केशगंडे क्षणाधरैः
मन्मथाशोकवृक्षस्य प्रोद्भिन्नां कलिकामिव ।।१३८।

प्रदग्धहृच्छयेनैव नेत्रवह्निशिखोत्करैः
धात्रा कथं हि सा सृष्टा प्रतिरूपमपश्यता।१३९।

कल्पिता चेत्स्वयं बुध्या नैपुण्यस्य गतिः परा
उत्तुंगाग्राविमौ सृष्टौ यन्मे संपश्यतः सुखं।१४०।

पयोधरौ नातिचित्रं कस्य संजायते हृदि
रागोपहतदेहोयमधरो यद्यपि स्फुटम्।१४१।

तथापि सेवमानस्य निर्वाणं संप्रयच्छति
वहद्भिरपि कौटिल्यमलकैः सुखमर्प्यते।१४२।

दोषोपि गुणवद्भाति भूरिसौंदर्यमाश्रितः
नेत्रयोर्भूषितावंता वाकर्णाभ्याशमागतौ।१४३।

कारणाद्भावचैतन्यं प्रवदंति हि तद्विदः
कर्णयोर्भूषणे नेत्रे नेत्रयोः श्रवणाविमौ।१४४।।

कुंडलांजनयोरत्र नावकाशोस्ति कश्चन
न तद्युक्तं कटाक्षाणां यद्द्विधाकरणं हृदि।१४५।।

तवसंबंधिनोयेऽत्र कथं ते दुःखभागिनः
सर्वसुंदरतामेति विकारः प्राकृतैर्गुणैः।।१४६।।

वृद्धे क्षणशतानां तु दृष्टमेषा मया धनम्
धात्रा कौशल्यसीमेयं रूपोत्पत्तौ सुदर्शिता।।१४७।।

करोत्येषा मनो नॄणां सस्नेहं कृतिविभ्रमैः
एवं विमृशतस्तस्य तद्रूपापहृतत्विषः।।१४८।।

निरंतरोद्गतैश्छन्नमभवत्पुलकैर्वपुः
तां वीक्ष्य नवहेमाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम् ।।१४९।।

देवानामथ यक्षाणां गंधर्वोरगरक्षसाम्
नाना दृष्टा मया नार्यो नेदृशी रूपसंपदा।१५० 

(1प्रथम सृष्टिखण्ड .अध्याय16.श्लोक 150)


त्रैलोक्यांतर्गतं यद्यद्वस्तुतत्तत्प्रधानतः
समादाय विधात्रास्याः कृता रूपस्य संस्थितिः।१५१।
                    इंद्र उवाच
कासि कस्य कुतश्च त्वमागता सुभ्रु कथ्यताम्
एकाकिनी किमर्थं च वीथीमध्येषु तिष्ठसि।१५२।

यान्येतान्यंगसंस्थानि भूषणानि बिभर्षि च
नैतानि तव भूषायै त्वमेतेषां हि भूषणम्।१५३।

न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी
किन्नरी दृष्टपूर्वा वा यादृशी त्वं सुलोचने।१५४।

उक्ता मयापि बहुशः कस्माद्दत्से हि नोत्तरम्
त्रपान्विता तु सा कन्या शक्रं प्रोवाच वेपती१५५

______

"गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।।१५६।।

दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्।१५७।।

एवमुक्तस्तदा शक्रो गृहीत्वा तां करे दृढम्
अनयत्तां विशालाक्षीं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः।।१५८।

नीयमाना तु सा तेन क्रोशंती पितृमातरौ
हा तात मातर्हा भ्रातर्नयत्येष नरो बलात्।१५९।।

यदि वास्ति मया कार्यं पितरं मे प्रयाचय
स दास्यति हि मां नूनं भवतः सत्यमुच्यते।।१६०।

का हि नाभिलषेत्कन्या भर्तांरं भक्तिवत्सलम्
नादेयमपि ते किंचित्पितुर्मे धर्मवत्सल।१६१।।

प्रसादये तं शिरसा मां स तुष्टः प्रदास्यति
पितुश्चित्तमविज्ञाय यद्यात्मानं ददामि ते ।१६२।।

धर्मो हि विपुलो नश्येत्तेन त्वां न प्रसादये
भविष्यामि वशे तुभ्यं यदि तातः प्रदास्यति ।१६३।।

इत्थमाभाष्यमाणस्तु तदा शक्रोऽनयच्च ताम्
ब्रह्मणः पुरतः स्थाप्य प्राहास्यार्थे मयाऽबले।१६४।

__________________________________

"आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम्।१६५
 

कमलामेव तां मेने पुंडरीकनिभेक्षणाम्
तप्तकांचनसद्भित्ति सदृशा पीनवक्षसम्।१६६।

मत्तेभहस्तवृत्तोरुं रक्तोत्तुंग नखत्विषं
तं दृष्ट्वाऽमन्यतात्मानं सापि मन्मनथचरम्।१६७।

तत्प्राप्तिहेतु क धिया गतचित्तेव लक्ष्यते
प्रभुत्वमात्मनो दाने गोपकन्याप्यमन्यत।१६८।

यद्येष मां सुरूपत्वादिच्छत्यादातुमाग्रहात्
नास्ति सीमंतिनी काचिन्मत्तो धन्यतरा भुवि।१६९।

अनेनाहं समानीता यच्चक्षुर्गोचरं गता
अस्य त्यागे भवेन्मृत्युरत्यागे जीवितं सुखम्।१७०।

भवेयमपमानाच्च धिग्रूपा दुःखदायिनी
दृश्यते चक्षुषानेन यापि योषित्प्रसादतः।१७१।

सापि धन्या न संदेहः किं पुनर्यां परिष्वजेत्
जगद्रूपमशेषं हि पृथक्संचारमाश्रितम्।१७२।

लावण्यं तदिहैकस्थं दर्शितं विश्वयोनिना
अस्योपमा स्मरः साध्वी मन्मथस्य त्विषोपमा।१७३।

तिरस्कृतस्तु शोकोयं पिता माता न कारणम्
यदि मां नैष आदत्ते स्वल्पं मयि न भाषते।१७४।

अस्यानुस्मरणान्मृत्युः प्रभविष्यति शोकजः
अनागसि च पत्न्यां तु क्षिप्रं यातेयमीदृशी।१७५।

कुचयोर्मणिशोभायै शुद्धाम्बुज समद्युतिः
मुखमस्य प्रपश्यंत्या मनो मे ध्यानमागतम्।१७६।

अस्यांगस्पर्शसंयोगान्न चेत्त्वं बहु मन्यसे
स्पृशन्नटसि तर्हि न त्वं शरीरं वितथं परम्।१७७।।

अथवास्य न दोषोस्ति यदृच्छाचारको ह्यसि
मुषितः स्मर नूनं त्वं संरक्ष स्वां प्रियां रतिम्।१७८।।

त्वत्तोपि दृश्यते येन रूपेणायं स्मराधिकः
ममानेन मनोरत्न सर्वस्वं च हृतं दृढम्।१७९।।

शोभा या दृश्यते वक्त्रे सा कुतः शशलक्ष्मणि
नोपमा सकलं कस्य निष्कलंकेन शस्यते।१८०।।

समानभावतां याति पंकजं नास्य नेत्रयोः
कोपमा जलशंखेन प्राप्ता श्रवणशंङ्खयोः।१८१।।

विद्रुमोप्यधरस्यास्य लभते नोपमां ध्रुवम्
आत्मस्थममृतं ह्येष संस्रवंश्चेष्टते ध्रुवम्।१८२।।

यदि किंचिच्छुभं कर्म जन्मांतरशतैः कृतम्
तत्प्रसादात्पुनर्भर्ता भवत्वेष ममेप्सितः।१८३।।

गायत्री नाम तो माता पिता के द्वारा निश्चित था।

"एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यकातावद्  ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।

देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभोएवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्।१८५।।   

तदेनामुद्वहस्वाद्य मया दत्तां जगत्प्रभो
गांधर्वेण विवाहेन विकल्पं मा कृथाश्चिरम्।१८६।

अमुं गृहाण देवाद्य अस्याः पाणिमनाकुलम्
गांधेर्वेण विवाहेन उपयेमे पितामहः।१८७।

तामवाप्य तदा ब्रह्मा जगादाद्ध्वर्युसत्तमम्
कृता पत्नी मया ह्येषा सदने मे निवेशय।१८८।

मृगशृंगधरा बाला क्षौमवस्त्रावगुंठिता
पत्नीशालां तदा नीता ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः।१८९।

औदुंबेरण दंडेन प्रावृतो मृगचर्मणा
महाध्वरे तदा ब्रह्मा धाम्ना स्वेनैव शोभते।१९०।।

प्रारब्धं च ततो होत्रं ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
भृगुणा सहितैः कर्म वेदोक्तं तैः कृतं तदा
तथा युगसहस्रं तु स यज्ञः पुष्करेऽभवत्।१९१।।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः।१६।




और पद्मपुराण गर्गसंहिता आदि ग्रन्थों में गोप को आभीर भी कहा जैसा कि शास्त्रों में नन्द को कहीं "गोप तो कहीं "आभीर कहा है जैसा कि गर्गसंहिता में👇-

(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
(विश्वजितखण्ड अध्याय सप्तम)
____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।। (गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें