आज कल टीवी चैनल वाले चाहे जिस पौंगा पण्डित को पकड़ लाते हैं और उसका परिचय धर्मगुरू अथवा शंकराचार्य कहकर सारी दुनियाँ से कराते हैं।
उनकी बकवास सुनकर बुद्धिजीवी वर्ग को शर्म आती है। माथे पर त्रिपुण्ड लगाने, गले में रुद्राक्ष की बड़ी बड़ी मालाऐं और भगवा उत्तरीय डाल लेने,अथवा गैरिकवस्त्र ओढ़ लेने मात्र से ही इन टीवी चैनल वालों की निगाह में वह कोई धर्मगुरु हो जाता है।
वास्तव में धर्म जैसी कोई चीज़ जब उनकी निगाह में नहीं है तब धर्मगुरु कैसा है ? वह तो धर्म की आचरण गत परिभाषा भी नहीं जानता!
धर्मगुरु वैसे तो कभी नहीं होते जिस प्रकार टीवी स्टूडियो में नज़र आते हैं।
जैसे टीवी वालों को शब्द और अर्थ की समझ नहीं, वैसे ही धर्म और गुरु की भी समझ नहीं होती।
इसी प्रसंग में बात करते चले हिन्दी में 'पोंगा' शब्द की जो रूढ़िवादी और आँख बन्द कर परम्पराओं का बोझ ठोने वाले पुरोहित के अर्थ में प्रयोग होता है।
पोंगा में खाली, रिक्त, खोखलापन का भाव हैं। अनेक भाषाशास्त्रीय साक्ष्य हैं जिनसे पता चलता है कि "पोंगा शब्द संस्कृत के 'पुंगव' शब्द का विकास क्रम है ।
जिसमें अर्थापकर्ष की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। पुंगव का मूल अर्थ है।
अभिधेय रूप में (पुमान् गौः कर्म + षच् समास रूप में ) अर्थात् गाय का पुल्लिंग रूप- वृषभ है। अब वृषभ तो पौरुष पूर्ण होता है परन्तु बद्द ( भद्र) के अण्डकोष निकाल कर उसे खस्सी कर दिया जाता है जो उसके खोखलेपन की स्थिति है।
शब्द कोशों तथा संस्कृत शास्त्रों में भी पुंगव का अर्थ - वृष २ ऋष ३औषधि आदि है ।
यथा नरः पुङ्गव इव उपमितसमासवाक्यम् । नरपुङ्गव =नरश्रेष्ठार्थ । यहाँ नरपुङ्गव में उत्तरपद श्रेष्ठवाचकः ।
जैसे भगवद्गीता के अध्याय प्रथम का पञ्चम् श्लोक
धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान् |पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव: || 5||
हिन्दी में अनुवाद-
इनके साथ ही धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, वीर्यवान पुरुजित्, कुन्तिभोज तथा ( नरपुङ्गव= मनुष्यों में श्रेष्ठ) शैब्य जैसे योद्धा भी हैं ||5||
गौरतलब है यहाँ नरपुङ्गव- का अर्थ है नर-श्रेष्ठ।
अक्सर होता यह है कि जब समाज अपने आदर्शों को फ़िसलते देखता है तब उस शब्द के मायने भी बदल देता है। इसे अर्थापकर्ष अथवा अर्थावनति भी कहा जाता है ।
जैसे बुद्ध का मूल अभिधेय अर्थ =बोधयुक्त अथवा जागा हुआ होता है " परन्तु उसीसे निकला शब्द "बुद्धू आज विपरीतार्थी मूर्ख या जड़बुद्धि का वाचक हो गया।
यह सब तब होता है जब शब्दों के धारक अपना आचरण पतित कर लेते हैं।
तो उनके साथ शब्दों के अर्थ भी पतित हो जाते हैं।
दिखावटी समाज में जब मूर्ख लोग गाल बजाने लगें, हिटलर जैसे लोग नायक होने लगें और सन्तों के आचरण न करने वाले ऐश-ओ आराम की जिन्दगी में केवल (लबादे) पहनावे में ही सन्त दिखने लगे और योैनदुराचार के जुल्म में जेल में भी जाने लगे तब पुंगव का अर्थ पोंगा हो जाता है।
सरल शब्दों में " जिसकी लुंगी उतर कर पुंगी बज जाय वही पौंगा है।
पुंगव से पहले पोंगा बना फिर पुंगी और पोंगली जैसे शब्द भी बन गए जिसका अर्थ नली, खोखल आदि होता है।
पुंगी एक किस्म की पीपनी को भी कहते हैं।
जिसमें हवा फूँकने से बड़ी तेज पौं पौं की आवाज़ होती है। ये पुरोहित इसी प्रकार विवेक शून्य होकर पौं -पौंकरते रहते हैं।
यह इस पुँगी शब्द की ध्वनि- अनुकरण मूलक देशी व्युत्पत्ति है।
आज इतना ही .....
प्रस्तुति करण- यादव
योगेश कुमार रोहि"
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