श्रीमद्भागवत महापुराण का मंगलाचरण के प्रथम स्कन्ध के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक-
१-जन्माद्यस्य यतः - जनमाद्+यस्य+यत:। जन्म से जिसका जहाँ से। अर्थात् जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, २-य ब्रह्म - वह जो ब्रह्म है, ३-इतरतः - अन्य स्थान से- ४-अन्वयात् –सम्बन्ध से- पीछे से ( परोक्ष रूप से /अन्तर्यामी भाव से), ५-अर्थेषु – सासांरिक वस्तुओं में । ६-अभिज्ञः – जानने वाला है। ७-च – और, ८-स्वराट् -स्वयंप्रकाश ९-इ – आश्चर्य १०-तेन – उसके द्वारा, ११-हृदा – हृदय से संकल्प से , १२-आदिकवये – आदिकवि ब्रह्मा के लिए (ज्ञान दिया गया है )। १३-यत्सूरयः–जिससे बड़े-बड़े विद्वान भी, १४-मुह्यन्ति –मोहित हो जाते हैं ।१५-यथा –जैसे, १६-तेजोवारिमृदां विनिमयो - तेजोमय सूर्यरश्मी (तेज) में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम (विनिमय आदान-प्रदान) होता है, १७-यत्र- जहाँ। १८-त्रिसर्गोऽमृषा - , तीनों लोक मिथ्या होने पर भी हीं, १९-धाम्ना स्वेन - अपने धाम के द्वारा/ स्वयंप्रकाश से, २०-सदा –सर्वदा, ।२१-निरस्तकुहकं - माया रूप कोहरा से पूर्णतः मुक्त रहनेवाले को। २२-परं सत्यम् - परम सत्य( परमात्मा) को २३-धीमहि - हम सब ध्यान करते हैं ।
भावार्थ-
जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं- क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड़ नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयं प्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेद ज्ञान का दान दिया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्य रश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्य रूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।
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