- "देवीभागवत पुराण "हरिवंशपुराण" "मार्कण्डेय पुराण "स्कन्द पुराण नारद पुराण "और गर्गसंहिता"आदि ग्रन्थ वसुदेव के गोप जीवन के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं ।
- सूत जी बोले – हे मुनियों पुराणवेत्ता वाणीविशारद सत्यवतीपुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित्- पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन बोले ।।१=१/२।।_____________________________
- व्यास जी बोले- हे राजन इस विषय में क्या कहा जाय !
- कर्मों की बड़ी गहन गति होती है।
- कर्मों की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं ।
- तो मानवों की तो बात ही क्या ! जब इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती चली आ रही है ।।
- आदि-(प्रारम्भ) और अन्त से रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्म रूपी बीज से संसार में जन्मते- और मरते हैं वे प्राणी अनेक प्रकार की योनियों( शरीरों) में बार-बार पैंदा होते और मरते हैं । कर्म से रहित जीव का देह संयोग कभी भी सम्भव नहीं है।।२-५।।
- "शुभाशुभैस्तथा मिश्रैः कर्मभिर्वेष्टितं त्विदम् ।त्रिविधानि हि तान्याहुर्बुधास्तत्त्वविदश्च ये।६॥सञ्चितानि भविष्यन्ति प्रारब्धानि तथा पुनः।
- शुभ अशुभ और मिश्र -इन कर्मों से यह संसार सदैव व्याप्त रहता है।
- तत्वों के ज्ञाता जो विद्वान हैं उन्होंने संचित प्रारब्ध और क्रियमाण( वर्तमान में किए गये कर्म) ये तीन प्रकार के कर्म हैं। इन कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है।६-७।।
- हे राजन् !–ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशीभूत होते हैं । सुख-दु:ख और वृद्धावस्था मृत्यु , हर्ष, शोक काम( स्त्रीमिलन की कामना) क्रोध लोभ आदि ये सभी शारीरिक गुण हैं। हे राजन् !
- ये भाग्य के अधीन होकर सभी प्राणीयों को प्राप्त होते हैं ।८-९।।
- राग-द्वेष भाव स्वर्ग में भी होते हैं ।
- और इस प्रकार के भाव देवों, मनुष्यों और पशु- पक्षीयों में भी विद्यमान रहते हैं ।१०।
- पूर्वजन्म में किए गये वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार सदा ही शरीर के साथ लगे रहते हैं ।११।
- सभी जीवों की उत्पत्ति कर्म के विना तो हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है।
- ( विदित हो कि सूर्य भी आकाश गंगा का परिक्रमण करता है) चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है। १२।।
- अपने कर्मो के प्रभाव से ही रूद्र को कपाल धारण करना पड़ता है। इसमें कोई सन्देह नहीं !! आदि और अन्त रहित वह कर्म ही जगत् की उत्पत्ति का कारण है।१३।।
- स्थावर( अचल) और जंगम( चलायवान्) यह सम्पूर्ण शाश्वत जगत् उसी कर्म के प्रभाव में नियन्त्रित है।
- सभी मुनिगण इस कर्म मय जगत कि नित्यता और अनित्यता के विचार में सदैव डूबे रहते हैं ।।
- फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत नित्य है अथवा अनित्य। जब तक माया ( अज्ञान) विद्यमान रहती है तब तक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है।१४-१५।।
- "कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर "कार्य ता अभाव कैसे कहा जा सकता है।
- यह माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है।१६।।
- इसलिए ही कर्म-बीज की अनित्यता पर विद्वान पुरुषों को सदैव विचार करना चाहिए!
- हे राजन् ! सम्पूर्ण जगत कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर परिवर्तित होता रहता है।१७।।
- हे राजन् असीमित तेज वाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से पृथ्वी पर जन्म लेने में स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार की योनियों में अनेक प्रकार के धर्म -कर्म के अनुसार युगों में तथा अनेक प्रकार की निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ?
- अनेक प्रकार के सुख-भोगों तथा वैकुण्ठपुरी का निवास त्याग कर मल मूत्र वाले स्थान ( उदर ) में भला कौन रहना चाहेगा ?
- फूल चुनने की क्रीडा ,जल विहार और सुख -दायक आसन का त्याग कर कौन बुद्धिमान गर्भगृह में वास करना चाहेगा ?
- कोमल रुई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या को छोड़कर गर्भ में औंधे-(ऊर्ध्व-मुख) पड़ा रहना भला कौन विद्वान पुरुष पसन्द कर सकता है ?
- अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत वाद्य तथा नृत्य का परित्याग करके गर्भ रूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ?
- ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के " अत्यंत कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मल-मूत्र का कीचड़(दूषित रस) पीने की इच्छा करेगा।
- " इसलिए तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरक रूप अन्य कोई स्थल नहीं है।
- गर्भ वास ( जन्म-मरण) से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी जिस गर्भवास से डरकर राज्य और सुख का परित्याग करके वन को चले जाते थे।
- ऐसा कौन मूर्ख होगा ? जो इसके सेवन की इच्छा करेगा।।१८–२५=१/२।।
- गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि तपाती है। हे राजन् ! उस समय शरीर में अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मज्जा( Marrow) लगा रहता है तो फिर वह कौन सा सुख है ?
- कारागार में रहना और बेड़ीयों में बँधे रहना अच्छा है किन्तु एक क्षण के अल्पकाल तक गर्भ में रहना कभी भी शुभ नहीं होता, गर्भ वास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है।
- वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अत्यंत दारुण( भयंकर) योनि -यन्त्र से बाहर आने पर महान यातना प्राप्त होती है।
- तत्पश्चात् बाल्यावस्था में अज्ञान का तथा बोल न पाने के कारण बहुत कष्ट प्राप्त होता है ।
- दूसरे के अधीन अत्यंत भयभीत बालक भूख-और प्यास की।
- पीड़ा के कारण कमजोर रहता है।
- भूखे बालकों को रोता हुआ देखकर माता( रोने का कारण जानने के लिए) चिन्ता ग्रस्त हो उठती है।
- और पुन: किसी बड़े रोग-जनित कष्ट का अनुभव करके उसे औषधि पिलाने की।
- इच्छा करती है। इस प्रकार बाल्यकाल में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं ।
- तब विवेकी पुरुष किस दु:ख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा करते हैं।२६-३१=१/२।।
- कौन ऐसा मूर्ख होगा जो देवताओं के साथ रहते हुए सुख भोग का त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करने कि इच्छा करेगा।
- "हे श्रेष्ठ राजन् ! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी अपने किए हुए कर्मों के परिणाम स्वरूप दु:ख-सुख प्राप्त करते हैं ।
- हे श्रेष्ठ राजन् ! सभी देहधारी जीव चाहें वे मनुष्य , देवता अथवा पशु पक्षी हों अपने अपने कर्मों का शुभ-अशुभ पाते हैं।।३२-३४।।
- मनुष्य तप यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्र पद को प्राप्त हो जाता है।
- और पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्र का भी स्वर्ग से पतन हो जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं!३५।।
- श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
- में प्रस्तुत है वह वर्णन -
- _______________________________कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा।
- -प्राचीन समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधु का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवण नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
- (उसके पिता का नाम मधु ) था वह वरदान पाकर वह पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ;
- हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ (उसी के नाम पर )मथुरा (मधुपुरा) नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
- उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई।_______________________________
- तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहाँ की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ !
- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए
- और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेैश्य-वृति (कृषि व गोपालन आदि कार्यों ) से गोप (आभीर रूप में ) अपना जीवन निर्वहन किया।
- उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे !
- वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
- "उग्रसेन के पुरोहित काशी में रहने वाले "काश्य" नाम से थे।
- और शूरसेन के पुरोहित उसी काल में एक बार सभी शूर के सभासदों द्वारा ज्योतिष् के जानकार गर्गाचार्य नियुक्त किए गये थे।
- अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
- वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
- श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥२०॥
- प्रस्तुतिकरण:- यादव
- योगेश कुमार रोहि-
ऋग्वेद 1.22.18
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्॥18।।
१६७० सामवेद-॥
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥१६७१
पदपाठ —
त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः। अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥( ऋग्वेद-1.22.18)
देवता — विष्णुः ; छन्द — पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
★-सायण भाष्य के आधार पर
18. विष्णु गायों के पालन करने वाले गोप हैं , उनको हनन करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने सभी धर्मों का धारण करते हुए विश्व का तीन पैरों से परिक्रमण किया।
(ऋषि: - मेधातिथिः)(देवता - विष्णुः)(छन्दः - गायत्री) (सूक्तम् - विष्णु सूक्त))
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। इ॒तो धर्मा॑णि धा॒रय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठ-★त्रीणि॑ । प॒दा । वि । च॒क्र॒मे॒ । विष्णु॑: । गो॒पा: । अदा॑भ्य: । इ॒त: । धर्मा॑णि । धा॒रय॑न् ॥७.२६.५॥
त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥
पदार्थ -
(गोपाः) गायों का पालक गोप-(अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा) जानने योग्य वा पाने योग्य पदार्थों [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) समर्थ [शरीरधारी] किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों वा धारण करनेवाले [पृथिवी आदि] को (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥५॥
भावार्थ - जो परमेश्वर नानाविध जगत् को रचकर धारण कर रहा है, उसी की उपासना सब मनुष्य नित्य किया करें ॥५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१८; यजु० ३४।४३; और साम० उ० ८।२।५।
टिप्पणी -
५−(त्रीणि) (पदा) पदानि ज्ञातव्यानि प्राप्तव्यानि वा कारणस्थूलसूक्ष्मरूपाणि, अथवा भूम्यन्तरिक्षद्युलोकरूपाणि पदार्थजातानि (वि चक्रमे) विक्रान्तवान्। समर्थानि सावयवानि कृतवान् (विष्णुः) अन्तर्यामीश्वरः (गोपाः) अ० ५।९।८। गोपायिता। रक्षकः (अदाभ्यः) अ० ३।२१।४। अहिंस्यः। अजेयः (इतः) अस्मात्कारणात् (धर्म्माणि) धर्मान् धारकाणि पृथिव्यादीनि या (धारयन्) पोषयन्। वर्धयन् वर्तत इति शेषः ॥
विष्णु सूक्त || Vishnu Sukta
|| विष्णु सूक्त ||
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥17॥
पदपाठ — देवनागरी
इ॒दम्। विष्णुः॑। वि। च॒क्र॒मे॒। त्रे॒धा। नि। द॒धे॒। प॒दम्। सम्ऽऊ॑ळ्हम्। अ॒स्य॒। पां॒सु॒रे॥ 1.22.17 ऋग्वेद-
17. विष्णु ने इस जगत् की परिक्रमा की, उन्होंने तीन प्रकार से, अपने पैर रखे और उनके धूलियुक्त पैर से जगत् छिप-सा गया।
परो मात्रया तन्वा वृधान न ते महित्वमन्वश्नुवन्ति ।
उभे ते विद्म रजसी पृथिव्या विष्णो देव त्वं परमस्य वित्से ॥१॥
न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप ।
उदस्तभ्ना नाकमृष्वं बृहन्तं दाधर्थ प्राचीं ककुभं पृथिव्याः ॥२॥
इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या।
व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ॥३॥
यह पृथ्वी सबके कल्याणार्थ अन्न और गाय से युक्त, खाद्य-पदार्थ देने वाली तथा हित के साधनों को देने वाली है। हे विष्णुदेव ! आपने इस पृथ्वी को अपनी किरणों के द्वारा सब ओर अच्छी प्रकार से धारण कर रखा है। हम आपके लिये आहुति प्रदान करते हैं।
देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम् । स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् पृथिव्याः ॥ ३ ॥
आप देवसभा में प्रसिद्ध विद्वानों में यह कहें :- इस यज्ञ के समर्थन में पूर्व दिशा में जाकर यज्ञ को उच्च बनायें, अध:पतित न करें। देवस्थान में रहने वाले अपनी गोशाला में निवास करें। जब तक आयु है, तब तक धनादि से सम्पन्न बनायें। संततियों पर अनुग्रह करें। इस सुखप्रद स्थान में आप सदैव निवास करें।
विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि य: अस्कभायदुत्तर सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगाय:॥ ४ ॥
दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात् । उभा हि हस्ता वसुना पृणस्वा प्र यच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा ॥ ५ ॥
हे विष्णु! आप अपने अनुग्रह से समस्त जगत को सुखों से पूर्ण कीजिये और भूमि से उत्पन्न पदार्थ और अन्तरिक्ष से प्राप्त द्रव्यों से सभी सुख निश्चय ही प्रदान करें। हे सर्वान्तर्यामी प्रभु! दोनों हाथों से समस्त सुखों को प्रदान करनेवाले विष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं।
प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ ६ ॥
भयंकर सिंह के समान पर्वतों में विचरण करने वाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आप अतुलित पराक्रम के कारण स्तुति-योग्य हैं। सर्वव्यापक विष्णु देव के तीनों स्थानों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।
विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रे स्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्धुवोऽसि। वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ७ ॥ [शुक्ल यजुर्वेद ५ । १५-२१]
इस विश्व में व्यापक देव विष्णु का प्रकाश निरन्तर फैल रहा है । विष्णु के द्वारा ही यह विश्व स्थिर है तथा इनसे ही इस जगत् का विस्तार हुआ है और कण-कण में ये ही प्रभु व्याप्त हैं । जगत् की उत्पत्ति करनेवाले हे प्रभु ! हम आपकी अर्चना करते हैं ॥ ७ ॥
यहाँ इस विष्णु सूक्त के अलावा भी अन्य और विष्णु सूक्त दिया जा रहा है-
|| विष्णु सूक्त(१) ||
विष्णोः नु कं वीर्याणि प्र वोचं, यः प्रार्थिवाणि विममे रजांसि ।यो अस्कभायदुत्तरं सद्यस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ।
अर्थ- अब मै उस विष्णु के वीर कर्मो को प्रस्थापित करुगाँ , जिसने पृथ्वी सम्बन्धी स्थानों को नाप लिया है । तथा तीन प्रकार से पाद न्यास करते हुऐ विशाल गतिशील जिसने उर्ध्वस्थ सह निवास स्थान को स्थिर कर दिया है ।
प्र तद्विष्णु; स्तवते वीर्येण, मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठा । यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ।
अर्थ- विष्णु जिसके विशाल तीन कदमों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते है, अपने उन वीरतायुक्त कार्य के कारण स्तुति किया जाता है, जिस प्रकार पर्वत पर रहने वाला तथा अपनी इच्छानुकुल विचरण करने वाला भयानक पशु ।
अर्थ- (मेरी) शक्तिशाली प्रार्थना, ऊँचे लोको में निवास करने वाले, विशाल कदमों वाले इच्छाओं की पुर्ति करने वाले, विष्णु के पास जावें, जिसने इस बड़े अतिविस्तृत (पवित्रात्माओं) के मिलन स्थान को अकेले तीन पदों से नापा था ।
यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्य अक्षीयमाना स्वधया मदन्ति । य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्याम् एको दाधार भुवनानि विश्वा ।तदस्य प्रियमपि पाथो अस्मां नरो यत्र देवयवो मदन्ति ।उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था , विष्णोः प्रदे परमे मध्व उत्स ।
अर्थ- इस विष्णु के उस प्रिय लोक को मै प्राप्त करुँ जहाँ पर देवताओं के इच्छुक मनुष्य आनन्द करते है । विशाल गतिवाले विष्णु के श्रेष्ठ लोक में मधु का एक सरोवर है । इस प्रकार निश्चित ही वह (सबका) मित्र है ।
ता वां वास्तुन्युष्मति गमध्यै यत्र गावो भूरिश्रवा अयासं ।अत्राह तदुरुगावस्य वृष्ण; , परमं पदमव भाति भूरिं ।
अर्थ– तुम दोनों को उन स्थानों पर जाने के लिये मै इच्छा करता हूँ । जहाँ पर बहुत सींग वाली (अत्यधिक प्रकाशवाली) हमेशा गतिशील रहनेवाली गायें (किरणें) है । यही पर विशाल गतिवाले इच्छाओं की पूर्ति करने वाले (विष्णु) का उस प्रकार का परमधाम नीचे (हमारी तरफ) अत्यधिक रुप से प्रकाशित हो रहा है ।
इति श्रीविष्णुसूक्तं -१ समाप्तम् ॥
|| श्रीविष्णुसूक्तम् २ ||
युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्राछिप्रस्य बृहतोविपश्चितो-विहोत्रादधेवयुनाविदेक इन्महीदेवस्य सवितुः परिष्टुतिः स्वाहा॥ १॥
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदं समूढमस्य पाँ सुरे स्वाहा ॥ २॥
इरावती धेनुमती हि भूतँ सूयबसिनीम सरसस्तोत्रसारसङ्ग्रहः नवेदशस्या।व्यस्कब्म्नारोदसी विष्णवे ते दाधर्थपृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा॥ ३॥
वेदश्रुतौ देवेष्वाघोषतम्प्राचीप्रेतमध्वरं कल्पयन्तीऊर्ध्वं यज्ञन्नयतम्माजिह्वरतमस्वङ्गोष्टमावदतन्देवीदुर्ये त्रायुर्म्मा निर्वादिष्टम्प्रजाम्मा निर्वादिष्टमत्ररमेथाम्वर्ष्मन्पृथिव्याः॥ ४॥
विष्णोर्न्नुकं वीर्य्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजाँसि योअरकभायदुत्तरँ सधस्थं इविचक्रमाणस्स्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा॥ ५॥
दिवोवा विष्णऽ उत वापृथिव्यामहोवा विष्ण उरोरन्तरिक्षातउभाहिहस्तावसुना पृणस्वा प्रयच्छदक्षिणादोतसव्या विष्णवेत्वा ॥ ६॥
प्रतद्विष्णुः स्तवते वीर्य्येण मृगोनभीमः कुचरोगिरिष्टाःयस्योरुषु त्रिषु विक्रम्णेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ ७॥
विष्णोरराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोऽर्धुवोसिवैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ८॥
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यांआददेनार्यसीदमहँ रक्षसाङ्ग्रीवा अपिकृन्तामि बृहन्नसिबृहद्रवा बृहतीमीन्ध्रय वाचं वद ॥ ९॥
विष्णोः कर्म्याणि पश्यत यतो व्रतानि पश्यसे इन्द्रस्य युज्यस्सखा ॥ १०॥
तद्विष्णोः परमं पदँ सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीवन्वक्षुराततम् ॥ ११॥
इति श्रीविष्णुसूक्तं २ समाप्तम् ॥
|| श्रीविष्णुसूक्तम् ||
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें