★-"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2022


★-"अहीरों की उत्पत्ति की पौराणिक दास्तान यादव योगेश कुमार "रोहि" की मसिधर से † 

पुराणों में यादवों का गोप और आभीर पर्याय वाची  रूपों में वर्णन मिलता है। पद्म-पुराण के सृष्टि-खण्ड , अग्नि पुराण  "लक्ष्मीनारायण संहिता"  नान्दीपुराण स्कन्दपुराण आदि ग्रन्थों में प्राचीन वर्णन है। 




गोपों अथवा अहीरों के साथ परवर्ती  भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान किए गये ।

कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया है । यह सब परिवर्तन क्रमोत्तर रूप से होता हुआ आज तक विद्यमान है। यद्यपि ये सब बातें अस्तित्व हीन ही हैं। 

और अस्तित्व हीन बातों को उद्धृत करना शास्त्रीय विद्वित्ता नहीं है।
_____________________________________
नन्द जी को तो कथावाचक और भागवत आदि पुराण "गोप" कहते हैं। परन्तु  
कृष्ण और वसुदेव को भी प्राचीन पुराणों में "गोप" ही कहा गया है। , देवीभागवत पुराण तथा हरिवशं पुराण  गर्गसंहिता आदि  में  वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है।

"हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा।

___________________

"गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु:गोपत्वम् आगत।९। 

 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 

अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। 
हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२ 
हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०

< हरिवंशपुराणम्‎ | पर्व १ (हरिवंशपर्व)
हरिवंशपुराणम्
अध्यायः ४०

जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा
चत्वारिंशोऽध्यायः

_________________________________________स्कन्दपुराणम् ‎ | खण्डः ७ (प्रभासखण्डःअध्याय ९-)  प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम् ★

"गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ।
स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः।२६।
26. (ऐसा कैसे है ?) भगवान विष्णु, गोपों के घर जन्म लेने वाले होकर जो पूरे विश्व में सार्वभौमिक सुरक्षा प्रदान करते हैं,वह कैसे भगवान् विष्णु हैं  जिन्होंने प्रभासक्षेत्र का आसरा ले लिया ?
_________________________________
"तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है। 

देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
 
                    "ब्रह्मोवाच"
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।
•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 
भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।

"यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।
•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।


"तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।२०।।

•–तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !
–२०

"पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।

•– विष्णो ! पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 
जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।

"अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।

•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ उनकी नीयत खराब हो गयी।।२२।

"ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

•–तब वरुण मेरे पास आये और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।
__________________________________
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।

•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।


"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५।
•– मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं। तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।

"कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।

•–हे  देव !  जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।

"प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।
त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।

•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं
क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।

"यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।
•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।

"यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।मम गाव: प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।
•–इस कार्य का जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए तभी मैं समुद्र को  जाऊँगा ।।२९।

____________________




 
    



















प्रस्तुतकर्ता ★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★ पर 10:06 pm
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