भागवत पुराण लिखने वाला यदु की सन्तानों को म्लेच्छ जाति के रूप में वर्णन करता है तो यह यादवों के नायक कृष्ण का चरित्र हनन क्यों नहीं करेगा।
मगध देश का राजा होगा विश्व-स्फूर्जि। यह पूर्वोक्त पुरंजय के अतिरिक्त द्वितीय पुरंजय कहलायेगा।
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मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३४।
यह ब्रह्माणादि उच्च वर्णों को पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा।
इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाश करके शुद्रप्राय: जनता की रक्षा करेगा ।
यादवों की जाति अहीर थी वही अहीर जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री जी का जन्म हुआ।
गायत्री के युग में आभीर पुण्यजन सदाचरण करने वाले और सुव्रतज्ञ कहे गये हैं।
अत्रि सप्तर्षियों में से एक ब्रह्मा के मानस पुत्र थे और गायत्री ब्रह्मा की पत्नी होते हुए भी कहीं वैष्णवी विन्ध्याचलवासिनी दुर्गा तो कहीं लक्ष्मी स्वरूपा राधा भी हैं ।
अत: अत्रि ऋषि के ऊपर सदैव गायत्री की अहेतुकी कृपा दृष्टि रही ।
गायत्री उपासक पुरुरवा के कुल में आगे होने वाली सन्तानें ययाति से लेकर यदु तक गोपालक रूप में आभीर कहीं जाती रहीं हैं ।
तारानाथ वाचस्पति नें अमीर शब्द की व्युत्पत्ति ""अभिमुखी ईरयति गा = अर्थात सामने मुख करके गायें घेरता है वह अभीर है के रूप में अहीरों की गोपालन वृति को दर्शाया ।
क्यो उस जमाने में गो सें देवों की ही नही अपितु विश्व की माता थीं
गावो विश्वस्य मातरा" के उपनिषदीय वाक्य में गायों दुनिया की जननी कहा गया है।
गाय प्रथम पैल्य पशु है।
और. यही पशु हमारे समाज की आर्थिक रीढ़ रहे हैं।
पेैसा और फीस जैसे मौद्रिक रूपों का विकास भी ग्रीक/लैटिन मूल के पशु ( पाउस) शब्द से ही हुआ है।
तारानाथ वाचस्पति कलकत्ता की जॉन विलियम्स कॉलेज के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष थे ।
जिन्होंने संस्कृत भाषा या सबसे बड़ा शब्द कोश वाचस्पत्यम् " या सम्पादन किया।
अभीर शब्द को उन्होंने अभि-उपसर्ग पूर्वक ईर्=कम्पन करना ( घेरना, बटोरना, हँकना अर्थ के रूप में स्वीकार किया ।
वहीं इनसे पूर्व के शब्दकोशकार "अमर सिंह ने अपने अमरकोष में "आभीर शब्द आ -समन्तात् भीयं राति शत्रूणां हृत्सु के रूप में प्रवृति मूलक दृष्टिकोण से व्युत्पन्न रूप में स्वीकार किया ।
अहीरों की वीरता उनके दुश्मन भी मानते थे।
खेर अहीर सदीयों से गो पालक और वीरता की मिसाल रहे हैं ।
तुलसीदास जैसा कट्टर सांप्रदायिक कवि भी मजबूरी में कहीं अहीरों गाली देते हुए तों कहीं उनकी बहादुरी की ताली देते हुए देखे गये और सुने गयें है।
तुलसी दास ने रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में छन्द १२९ से आगे यह भी लिखा है ।
पाई न केहिं गति पतित पावन
राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध
गजादिखल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस
स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि
पावन होहिं राम नमामि ते।।
भावार्थ: अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्रीराम को भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया।
अभीर,(अहीर) यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पाप से उत्पन्न हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ।।
और इससे पूर्व इसी उत्तर काण्ड में तुलसी दास ने अहीरों को निर्मल और पवित्र मन कह कर जितेन्द्रिय (मन जिसका दास है) कहा है ।
वास्तव में ये दोगली व विरोधाभासी बातें हास्यास्पद ही हैं यो तो पुचकार के मारना ही है।
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे चौपाई लिखते हैं
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।
जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा।
जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।
तेइ तृन हरित चरै जब गाई।
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
निर्मल मन अहीर निज दासा।।
परम धर्ममय पय दुहि भाई।
अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै।
धृति सम जावनु देइ जमावै।।
मुदिताँ मथै बिचार मथानी।
दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता।
बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।
भावार्थ:
श्रीहरि की कृपा से यदि सात्त्विकी श्रद्धारूपी सुन्दर गौ हृदयरूपी घरमें आकर बस जाय; असंख्यों जप, तप, व्रत, यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं,।।
उन्हीं [धर्माचाररूपी] हरे तृणों (घास) को जब वह गौ चरे और आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। तो
निवृत्ति (सांसारिक बिषयोंसे और प्रपंच से हटना) नोई (गौके दुतहे समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी के समान ) है, विश्वास [दूध दूहनेका[] बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वशमें है ), दुहनेवाला अहीर है।।
हे भाई ! इस प्रकार (धर्माचारमें प्रवृत्त सात्त्विकी श्रद्धा रूपी गौ से भाव, निवृत्ति और वश में किये हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्नि पर भलीभाँति औटावे।
फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंढा करे औऱ धैर्य तथा शम (मनका निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावे।
तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्त्वविचाररूपी मथानीसे दम (इन्द्रिय-दमन) के आधार पर (दमरूपी खम्भे आदि के सहारे) सत्य और सुन्दर वाणीरुपी रस्सी लगाकर उसे मथे और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुन्दर और अत्यन्त पवित्र बैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले।
अगर हम समग्र धार्मिक ग्रंथों का सार समझे तो यही है कि ब्राह्मणों ने कहीं कहीं यादवों को क्षत्रिय के रूप में श्रेष्ठ और कहीं कहीं म्लेच्छ आदि रूपों में नीचा भी बताया।
लेकिन यह जो भी विरोधाभासी रूप हैं । ,हमारी प्रभुता के चलते ही कहा गया है वह हमारी कम से कम चर्चा करते हैं।
आश्चर्य कि किसी अन्य दलित जाति की वह पुरोहित इतनी चर्चा भी नही करते हैं।
इससे तो यही सिद्ध होता है कि यादवों में गुणों की कमी नही थी ,चूंकि हम सवर्णों के वंश के नही है और आदिकाल से दबंग क्षत्रिय हैं । भले ही हमें उनकी सवर्ण व्यवस्था ने क्षत्रिय का पूरा प्रमाणपत्र नही दिया तो भी इसका मतलब यह नही कि हम क्षत्रिय नही हैं। हम स्वनाम धन्य वीर और प्रवृत्ति रूप में योद्धा हैं ।
तभी तो तुलसी को यह भी कहना पड़ा।
नोय निर्वृत्त पात्र विश्वासा ,
निर्मल मन अहीर निज दासा ।।
मतलब पवित्र मन का अहीर अपने मन का राजा है वह किसी का गुलाम नही।
इसलिए हमें यादवों को सिर्फ सकारात्मक चीजें ग्रहण करनी चाहिये।
शूद्र मानसिकता वाले यादव इस पोस्ट से दूर रहें।
मनोविज्ञान का मान्य सिद्धांत है कि आप अपने को जो समझोगे आप वैसे ही हो जाओगे।
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सौजन्य से प्रोफेसर डॉ० संतोष यादव
जय श्रीकृष्ण
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