रविवार, 14 अगस्त 2022

देव-संहिता और महाभारत के कर्णपर्व में हूण किरात यवनों की तर्ज पर जाटों की काल्पनिक उत्पत्ति-



(देवसंहिता और महाभारत के कर्ण-पर्व से --)

देवा संहिता गोरख सिन्हा द्वारा मध्य काल में लिखा हुआ संस्कृत श्लोकों का एक संग्रह है। जिसमे जाट जाति का जन्म, कर्म एवं जाटों की उत्पति का काल्पनिक उल्लेख शिव और पार्वती के संवाद के रूप में किया गया है।

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मनोरंजक कथा कही जाती है। महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया।

पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है।

और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए.

JAT ZAMINDARS HINDOOS RAJPOOTANA 1874
JAT ZAMINDARS HINDOOS RAJPOOTANA 1874

ठाकुर देशराज[1] लिखते हैं कि जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कथा कही जाती है। महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया। पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया।

 वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया.

 यह केवल किंवदंती ही नहीं बल्कि संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गयी है।

जो देवसंहिता के नाम से जानी जाती है। इसमें लिखा है कि विष्णु ने आकर शिवाजी को प्रसन्न करके उनके वरदान से दक्ष को जीवित किया और दक्ष और शिवाजी में समझोता कराने के बाद शिवाजी से प्रार्थना की कि महाराज आप अपने मतानुयाई 'जाटों' का यज्ञोपवीत संस्कार क्यों नहीं करवा लेते ? ताकि हमारे भक्त वैष्णव और आपके भक्तों में कोई झगड़ा न रहे. 

लेकिन शिवाजी ने विष्णु की इस प्रार्थना पर यह उत्तर दिया कि मेरे अनुयाई भी प्रधान हैं।

देवसंहिता के कुछ श्लोक निम्न प्रकार हैं-

पार्वत्युवाचः
भगवन् सर्व भूतेश सर्व धर्म विशारद: कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम्।। 12।।

अर्थ- हे भगवन! हे भूतेश ! हे सर्व धर्म विशारदों में श्रेष्ठ! हे स्वामिन! आप कृपा करके मेरे लिए जाट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिये।। 12।।

का च माता पिता ह्वेषां का जाति वद किंकुलं।कस्मिन् काले शुभे जाता प्रश्नानेतान् वद प्रभो।। 13।।

अर्थ- हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है ?।। 13।।

श्री महादेव उवाच:
श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते।जाटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं।। 14।।

अर्थ- महादेवजी पार्वती का अभिप्राय जानकर बोले कि जगन्माता भगवती ! जाट जाति का जन्म कर्म मैं तुम्हारी ताईं सत्य-सत्य कथन करता हूँ कि जो आज पर्यंत किसी ने न श्रवण किया है और न कथन किया है।। 14।।

महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः।सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: ||15||

अर्थ- शिवजी बोले कि जाट महाबली हैं, महा वीर्यवान और बड़े पराक्रमी हैं क्षत्रिय प्रभृति क्षितिपालों के पूर्व काल में यह जाति ही पृथ्वी पर राजे-महाराजे रहीं। जाट जाति देव-जाति से श्रेष्ठ है और दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं || 15 ||

श्रृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित:।कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी|16 |

अर्थ- शंकरजी बोले हे भगवती ! सृष्टि के आदि में वीरभद्रजी की योगमाया के प्रभाव से उत्पन्न जो पुरूष उनके द्वारा और ब्रह्मपुत्र दक्ष महाराज की कन्या गणी से जाट जाति उत्पन्न होती भई, सो आगे स्पष्ट होवेगा || 16 ||

गर्व खर्चोत्र विग्राणां देवानां च महेश्वरी।विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै सांगीपितं || 17 ||

अर्थ- शंकरजी बोले हे देवि ! जाट जाति की उत्पत्ति का जो इतिहास है सो अत्यन्त आश्चर्यमय है। इस इतिहास में विप्र जाति एवं देव जाति का गर्व खर्च होता है। इस कारण इतिहास वर्णनकर्ता कविगणों ने जाट जाति के इतिहास को प्रकाश नहीं किया है || 17 ||

इसी प्रकार 

कालान्तर में जाटों की उत्पत्ति भी शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव, चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की तर्ज पर महादेव की जटाओं से पुरोहितों ने कर डाली ।
हूणों की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत प्राच्य और पाश्चात्य इतिहासकारों के हवाले से...


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हूणों की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत-

शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव, चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व्युत्पत्तियाँ- महाभारत ,वाल्मीकि रामायण तथा पुराणों के सन्दर्भों से उद्धृत करते हुए चीन के इतिहास से भी कुछ प्रकाशन किया है।

यद्यपि ब्राह्मणों द्वारा लिखे गये पुराण, महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि -ग्रन्थों पर सभी पुष्यमित्र सुंग की रूढ़ि वादी परम्पराओं के अनुयायी ब्राह्मणों ने ठप्पा (मौहर) लेखन की दृष्टि से व्यास जी की लगाई है। 

जैसे कि कृष्ण द्वैपायन व्यास ने सारे ग्रन्थ लिखे हों। 

व्यास- का मिलन ईरानी धर्म संस्थापक जुरथुस्त्र से ई०पू० अष्टम सदी के समकक्ष ईरानी ग्रन्थों में दर्शाया है ।

वास्तव पुष्य-मित्र सुंग कालीन पुरोहितों ने अनेक काल्पनिक वंश व्युत्पत्ति कर डाली। -जब उन्हें किसी जन-जाति के वंश और जन्म स्थान का ज्ञान न हुआ तो ! 

हम सब लोग जानते हैं कि झूँठ अस्वाभाविक व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।

और सत्य निर्विकल्प सदैव एकरूप ! परन्तु पुराणों तथा महाभारत का लेखन अनेक व्यक्तियों द्वारा किया गया है। 

ये किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं हैं । क्यों कि इनमें विरोधाभास है ।

कोई एक व्यक्ति यथार्थ के धरातल पर खड़ा होकर परस्पर विरोधी व भिन्न-भिन्न बातें नहीं कहेगा। जैसा कि पुराणों में अध्याय अध्याय पर हैं। सत्य केवल एक रूप है उसका कोई विकल्प नहीं जबकि झूँठ ( मिथ्या) है 'वह अनेक रूप धारणाओं करने वाला बहुरूपिया है । ऐतिहासिक श्लोकों के रूप में केवल ऋग्वेद के प्रथम और दशम मण्डल को छोड़कर अन्य सभी मण्डल प्राचीनत्तम हैं। 

परन्तु पुराण तो बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड की रचनाऐं हैं। महाभारत का नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।

क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन  इस प्रकार है। देखें👇
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दानवांस्तु  वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।          सर्गस्य  रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।

अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन:  बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।

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हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्‍छांस्तुरगवाहन:।धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।

जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्‍छों का वध करेंगे उन कल्कि  रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

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( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।

                ।भीष्म उवाच।
नारदः परिप्रपच्छ भगवन्तं जनार्दनम्।
एकार्णवे महाघोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे।१।

        "श्रीगवानुवाच"

    शृणु नारद तत्वेन                    प्रादुर्भावान्महामुने।

     मत्स्यः कूर्मो वराहश्च               नरसिंहोऽथ वामनः।

  रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः            कल्कीति ते दश।।२।

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ततः कलियुगस्यादौ द्विजराजतरुं श्रितः।
भीषया मागधेनैव धर्मराजगृहे वसन्।।४२।

काषायवस्रसंवीतो मुण्डितः शुक्लदन्तवान्।
शुद्धोदनसुतो बुद्धो मोहयिष्यामि मानवान्।।४३।
शूद्राः सुद्धेषु भुज्यन्ते मयि बुद्धत्वमागते।
भविष्यन्ति नराः सर्वे बुद्धाः काषायसंवृताः।।४४।

अनध्याया भविष्यन्ति विप्रा यागविवर्जिताः।
अग्निहोत्राणि सीदन्ति गुरुपूजा च नश्यति।।४५।

न शृण्वन्ति पितुः पुत्रा न स्नुषा नैव भ्रातरः।
न पौत्रा न कलत्रा वा वर्तन्तेऽप्यधमोत्तमाः।।४६।

एवंभूतं जगत्सर्वं श्रुतिस्मृतिविवर्जितम्।
भविष्यति कलौ पूर्णे ह्यशुद्धो धर्मसंकरः।।४७।

तेषां सकाशाद्धर्मज्ञा देवब्रह्मविदो नराः।
भविष्यन्ति ह्यशुद्धाश्च न्यायच्छलविभाषिणः।।४८।

ये नष्टधर्मश्रोतारस्ते समाः पापनिश्चये।
तस्मादेता न संभाष्या न स्पृश्या च हितार्थिभिः।
उपवासत्रयं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये।।४९।

ततः कलियुगस्यान्ते ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः।
कल्किर्विष्णुयशःपुत्रो याज्ञवल्क्यःपुरोहितः।५०।

तस्मिन्नाशे वनग्रामे तिष्ठेत्सोन्नासिमो हयः।
सहया ब्राह्मणाः सर्वे तैरहं सहितः पुनः।
म्लेच्छानुत्सादयिष्यामि पाषण्‍डांश्चैव सर्वशः।५१।

पाषण्डश्च कलौ तत्र माययैव विनश्यते।
पाषण्‍डकांश्चैव हत्वा तत्रान्तं प्रलये ह्यहम्।।५२।
     
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ही कुछ श्लोक जो वाल्मीकि रामायण के ‘आयोध्या-काण्ड’ में आये है ।
यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के  लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से  ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए,
राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत नास्तिक और अपमान-जनक अपमानजनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं , जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण से कर सकते हैं ।

इसी लिए इनकी कथाओं में परस्पर विरोधाभासी रूप भी होने से असत्य हैं।

पुराण इत्यादि तत्कालीन किंवदन्तियों पर आधारित रचनाऐं हैं। --जो वेदौं की व्याख्या व प्रति छाया के रूप में उद्भासित हुए । 

पुराणों में तो शब्द व्युत्पत्ति भी मिथ्या व काल्पनिक हैं । भाषाओं के शब्दों का ऐैतिहासिक व्युत्पत्ति मूलक विश्लेषण भी इतिहास का सम्पूरक रूप है। अब हिन्दु धर्मावलम्बी महाभारत को गणेश जी के द्वारा लिखित रचना मानते हैं । परन्तु महाभारत में यूनानी शब्दों का बहुतायत से प्रयोग हुआ है ।

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महाभारत में सुरंग शब्द का आगमन ई०पू० 323 में आगत यूनानीयों की भाषा से है । महाभारत में सुरुंगा शब्द यूनानीयों का-- तथा पाषण्ड शब्द बौद्ध कालीन शब्द है । बाद में पाषण्ड का रूप पाखण्ड होगया ।

इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों की उत्पत्ति का -जब ज्ञान नहीं प्राप्त कर पायी तो यूनानीयों को नन्दनी गाय की यौनि से ही उत्पन्न बता डाला है।👇 

 "असृजत् पह्लवान् पुच्छात् प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान् (द्रविडान् शकान्)।                     योनिदेशाच्च यवनान् शकृत: शबरान् बहून् ।३६।

मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: । पौण्ड्रान् किरातान् यवनान् सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७।)

यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की उत्पति वसिष्ठ की नन्दनी गाय के शरीर के विभिन्न अंगो से कर डाली --जो पूर्ण रूपेण काल्पनिक व्युत्पत्ति है । ____________________________________नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।  तथा धनों से द्रविड और शकों को। यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर जन-जाति उत्पन्न हुई। कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र,( पुण्ढ़ीर), किरात ,यवन ,सिंहल (सैंगर )बर्बर (बरवारा) और खसों की -सृष्टि हुई ।३७।

ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते ! तो उनके विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते । अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की भी कर डाली गयी है देखें--नीचे👇

"चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्। ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८। 

इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक ,पुलिन्द, चीन ,हूण केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई । 

(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय) ____________________________________

 "भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् । दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् । 

तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है । महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय ।

इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड के चौवनवे सर्ग में वर्णन है कि 👇

 जब विश्वामित्र वशिष्ठ की गो को बलपूर्वक ले जाने के लिए प्रणबद्ध हुए तो इसका सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक ,यवन आदि जन-जाति के लोगउत्पन्न होते हैं । ____________________________________

अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं। 👴... आगे पहलवों की उत्पत्ति की कथाऐं सूत जी सौनक जी को सुनाते हैं ।

"तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभि: सासृजत् तदा । तस्या हंभारवोत्सृष्टा: पह्लवा: शतशो नृप।।18। 

राजकुमार उनका 'वह आदेश सुनकर उस गाय ने उस समय वैसा ही किया उसकी हुंकार करते ही सैकड़ो "पह्लव" जाति के वीर उत्पन्न हो गये।18। 

'पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि। विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा।20।

भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रतान् । तैरासीत् संवृता भूमि: शकैर्यवनमिश्रतै:।21। 

उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय नन्दनी की पुत्री उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहां की सारी पृथ्वी भर गई श्लोक संख्या- 20। -21

 "ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह। तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृता ।23।

 तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे श्लोक :-23 अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में देखें---

कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं और गोबर से शक उत्पन्न हुए। 

"योनिदेशाच्च यवना: शकृतदेशाच्छका: स्मृता। रोमकूपेषु म्लेच्‍छाश्च हरीता सकिरातका:।3।

यौनि देश से यवन, शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए रोम कूपों से म्लेच्‍छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3। 

यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है। 

कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया. माना जाता है कि वी बोयांग ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली. बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया. परन्तु पुराणों तथा स्मृतियों में भुशुण्डी , अग्नि अस्त्र का वर्णन है ।

 --जो बारूद से सम्बद्ध हैं । बारूद के विषय में कहा जाता है कि 300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए प्रयोग किया. इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया ।

ब्रह्म-पुराण के पाँचवें अध्याय" सूर्य्यः वंश वर्णन" में एक प्रसंग है हूणों यवनों तथा शकों आदि जन-जातियों के विषय में। 👇 

'बाहोर्व्यसनिन : पूर्व्वं हृतं राज्यमभूत् किल। हैहयैंस्तालजंघैश्च शकै: सार्द्ध द्विजोत्तमा: ।35।यवना: पारदाश्चैव काम्बोजा : पह्लवास्तथा। एते ह्यपि गणा: पञ्च हैहयार्थे पराक्रमम् ।36।

लोमहर्षण जी ने कहा हे ब्राहमणों यह बाहू राजा पहले बहुत ही व्यसनशील था ।

इसलिए शकों के साथ हैहय यादवों और तालजंघो ने इसका राज्य से छीन लिया ।

यवन ,पारद, कम्बोज और पह्लव यह भी पांच गण थे जो हैहय यादवों के लिए अपना पराक्रम दिखाया करते थे । 

अर्थात्‌ उनके सहायक थे । ब्रह्म पुराण के इसी अध्याय में आगे वर्णन है कि 

"शका यवन कम्बोजा: पारदाश्च द्विजोत्म।      कोणि सर्पा माहिषिका दर्वाश्चोला: सकेरला:।50।

 सर्वे ते क्षत्रिया विप्रा धर्म्मस्तेषां निरीकृत: ।     वसिष्ठ वचनाद्राज्ञा सगरेण महात्मना।51।

(ब्रह्म-पुराण के पाँचवें अध्याय सूर्य्यः वंश वर्णन में) शक यवन कांबोज पारद कोणि सर्प माहिषक दर्व: चोल केरल यह है विप्रो क्षत्रिय ही रहे हैं कि उनका धर्म निराकृत कर दिया गया था और क्योंकि यह सभी अपने प्राणों की रक्षा के लिए वशिष्ठ जी की शरण में चले गए थे ।

इसलिए वसिष्ठ जी के वचनों से महात्मा सगर ने फिर इन्हें मारा नहीं था केवल उनके धर्म को परिवर्तित कराकर क्षत्रिय ही बना रहने दिया था श्लोक संख्या-50-51

 "तोमरा हंसमार्गाश्च काश्मीरा: करुणास्तथा। शूलिका : कहकाश्चैव मागधाश्च तथैव च।50।

एते देशा उदीच्यास्तु प्राच्यान् देशान्निवोधत। अंधा वाम अंग कुरावाश्च वल्लकाश्च मखान्तका: 51।

तथापरे जनपदा प्रोक्ता दक्षिणापथवासिन: । पूर्णाश्च केरलाश्चैव मोलांगूलास्तथैव च ।54।

ऋषिका मुषिकाश्चैव कुमारा रामठा शका: । महाराष्टा माहिषका कलिंंगाश्चैव सर्व्वश:।55।

आभीरा: शहवैसिक्या अटव्या सरवाश्च ये । पुलिन्दश्चैव मौलेया वैदर्भा दन्तकै: सह ।56। 

तोमर हंस मार्ग कश्मीर करुण शूलिक कुहक, मगध यह सब देश उदीच्य हैं अर्थात उत्तर दिशा में होने वाले हैं आप जो देश प्राच्य अर्थात्‌ पूर्व दिशा में हैं उनको भी समझ लो आंध्र वामांग कुराव, बल्लक , मखान्तक 51।

तथा दूसरे जनपद दक्षिणा पथ गामी हैं पूर्ण, केरल गोलंगमून ऋषिक मुषिक ,कुमार रामठ, शक ,महाराष्ट्र माहिषक ,शक कलिंग ,वैशिकी के सहित आभीर अटव्य,सरव, पुलिन्द,मोलैय और दंतको के सहित वेदर्भ यह सब दक्षिण दिशा के भाग में जनपद हैं। 54-55-56

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महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-19

चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण के द्वारा मद्र ओद बाल्हीक देश वासियों की निन्दा

शल्य बोले- कर्ण ! तुम दूसरों के प्रति जो आक्षेप करते हो, ये तुम्हारे प्रलाप मात्र हैं। तुम जैसे हजारों कर्ण न रहे तो भी युद्ध स्थल में शत्रुओं पर विजय पायी जा सकती है। संजय कहते हैं- राजन ! ऐसी कठोर बात बोलते हुए मद्रराज शल्य से कर्ण ने पुनः दूनी कठोरता लिये अप्रिय वचन कहना आरम्भ किया। कर्ण कहते हैं- मद्र नरेश ! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरी ये बातें सुनो। राजा धृतराष्ट्र के समीप कही जाती हुई इन सब बातों को मैंने सुना था। एक दिन महाराज धृतराष्ट्र के घर में बहुत से ब्राह्मण आ-आकर नाना प्रकार के विचित्र देशों तथा पूर्ववर्ती भूपालों के वृतान्त सुना रहे थे। 

वहीं किसी वृद्ध एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण ने बाहीक और मद्र देश की निन्दा करते हुए वहाँ की पूर्व घटित बातें कही थीं- जो प्रदेश हिमालयगंगासरस्वतीयमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर हैं तथा जो सतलज, व्यास, रावी, चिनाब, और झेलम- इन पाँचों एवं सिंधु नदी के बीच में स्थित है, उन्हें बाहीक कहते हैं। 

उन्हें त्याग देना चाहिये। गोवर्धन नामक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा- ये दोनों वहाँ के राजभवन के द्वार पर स्थित हैं, जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता हूँ। मैं अत्यन्त गुप्त कार्यवश कुछ दिनों तक बाहीक देश में रहा था। 

इससे वहाँ के निवासियों के सम्पर्क में आकर मैंने उनके आचार-व्यवहार की बहुत सी बातें जान ली थीं। 

वहाँ शाकल नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है,।

(जहाँ जर्तिका नाम जाति वाले बाहीक निवास करते हैं।

 उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है। वे भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं। पूआ, मांस और वाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार शून्य हैं

(वहाँ की स्त्रियाँ बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करके मतवाली तथा नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदिवारियों के पास गाती और नाचती हैं। 

वे गदहों के रेंकने और ऊँटों के बलबलाने की सी आवाज से मतवाले पन में ही भाँति-भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन-काल में भी परदे के भीतर नहीं रहती हैं। 

वे सब-के-सब सर्वथा स्वेच्छाचारिणी होती हैं। मद से उनत्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वे एक दूसरे को 'ओ घायल की हुई ! ओ किसी की मारी हुई! 

हे पतिमर्दिते! इत्यादि कहकर पुकारती और नृत्य करती हैं।

 पर्वों और त्यौहारों के अवसर पर तो उन संस्कारहीन रमणीयों के संयम का बाँध और भी टूट जाता है। 

उन्हीं बाहीक देशी मदमत्त एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई सम्बन्धी वहाँ से आकर कुरुजांगल प्रदेश में निवास करता था।

 वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था- "निश्चय ही वह लंबी, गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ बाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी। 

मैं कब सतलज और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुँचकर शंख की बनी हुई मोटी-मोटी चूडि़यों को धारण करने वाली वहाँ की सुन्दरी स्त्रियों को देखूँगा।

 जिनके नेत्रों के प्रान्त भाग मैनसिल के आलेप से उज्ज्वल हैं, दोनों नेत्र और ललाट अंजन से सुशोभित हैं तथा जिनके सारे अंग कम्बल और मुगचर्म से आवृत हैं, वे गोरे रंगवाली प्रियदर्शना (परम सुन्दरी) रमणियाँ मृदंग, ढोल, शंख  और मर्दल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ-साथ कब नृत्य करती दिखायी देंगी।और मर्दल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ-साथ कब नृत्य करती दिखायी देंगी )

प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"

सन्दर्भ-

  1.  ठाकुर देशराज: जाट इतिहास, महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षा संस्थान, दिल्ली, 1934, पेज 87-88.

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