बुधवार, 10 अगस्त 2022

मन्दिरों में घण्टा प्रथा-


विशेष— देवदासी प्रथा  जगन्नाथ से लेकर दक्षिण के प्रायः सब मंदिरों में प्रचलित है। ये देवदासींयाँ नाचती गाती हैं और वेश्यावृत्ति करती हैं  ।

इनके माता, पिता बचपन ही में उन्हें मंदिर को दान कर देते हैं, जहाँ उस्ताद लोग इन्हें नाचना गाना सिखाते हैं। 

चेंगलपट्टु ज़िला भारत के तमिल नाडु राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय चेंगलपट्टु है।

 तमलनाडू को ही मद्रास कहा जा है ।इसके चेंगलपट्टु जिले  के कोरियों कोलों (कपड़ा बुननेवालों) में यह रीति हैं कि वे अपनी सबसे बड़ी लड़की को किसी मंदिर को दान कर देते हैं ।

इस प्रकार की दान की हुई कुमारियों की महाराष्ट्र देश में 'मुरली' और तैलंग देश में 'वसवा' कहते हैं 

इन्हें मंदिरों से गुजारा मिलता है । 

मरने पर इनका उत्तराधिकारी पुत्र नहीं होता, कन्या होती है ।

 मंदिरों में देवदासियाँ रखने की प्रथा प्राचीन है। कालिदास के मेधदूत में महाकाल के मंदिर में वेश्याओं के नृत्य करने की बात लिखी है।

 मिस्र, यूनान, बैबिलोन आदि के प्राचीन देव- मंदिरों में भी देवनर्तकियाँ होती थीं। 

देवदासी’ एक हिन्दू धर्म की प्राचीन प्रथा है। भारत के कुछ क्षेत्रों में खास कर दक्षिण भारत में महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर शोषण किया गया। 

सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हुईं। 

 देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं। देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। 

इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है।

धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई।

 उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया।

मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं। 

देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज कराते रहे।

सामान्य सामाजिक अवधारणा में देवदासी ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मंदिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है।

पहले समाज में इनका उच्च स्थान प्राप्त होता था, बाद में हालात बदतर हो गये। 

देवदासियां परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। 

यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। 

बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। अंग्रेज तथा मुसलमानो ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की।

कुछ समझे....? मंदिर में लगाया हुवा घंटा कुछ और नहीं ब्राह्मणों को एलर्ट करने के लिए लगाया हुवा डोरबेल है बस
 प्राय: देवदासियों की नियुक्ति मासिक अथवा वार्षिक वेतन पर की जाती थी।

देवदासी प्रथा मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और ओडिशा में फली-फूली। देवदासी प्रथा यूं तो भारत में हजारों साल पुरानी है, पर वक्त के साथ इसका मूल रूप बदलता गया।

 कानूनी तौर पर रोक के बावजूद कई इलाकों में इसके जारी रहने की खबरें आती ही रहती हैं। हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों को एक आदेश जारी कर इसे पूरी तरह रोकने को कहा है।

आखिर क्या है ये प्रथा. ? 

माना जाता है कि ये प्रथा छठी सदी में शुरू हुई थी।

इस प्रथा के तहत कुंवारी लड़कियों को धर्म के नाम पर ईश्वर के साथ ब्याह कराकर मंदिरों को दान कर दिया जाता था।

माता-पिता अपनी बेटी का विवाह देवता या मंदिर के साथ कर देते थे।

परिवारों द्वारा कोई मुराद पूरी होने के बाद ऐसा किया जाता था। 

देवता से ब्याही इन महिलाओं को ही देवदासी कहा जाता है। 

उन्हें जीवनभर इसी तरह रहना पड़ता था। कहते हैं कि इस दौरान उनका सेक्शुअल हैरेसमेंट भी किया जाता था।

मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी प्रथा का उल्लेख मिलता है। 

एक बात और मन्दिरों में घण्टा कैसे पहुँचा।

घण्टा अथवा सायरन अथवा तुरही प्राचीन काल में जनता को सावधान करने के उपकरण थे ।
परन्तु मन्दिरों में घण्टे का विधान किस कारण से हुआ यह विचारणीय है।

वैदिक काल में घण्टे का कोई विधान नहीं मिलता पौराणिक काल में ही पुरोहित वर्ग के स्वार्थी और लोलुप हो जाने के कारण धर्म के नाम पर कर्म काण्डों की बहुलता और अनेक आडम्बरों का विस्तार हुआ।

ब्राह्मणों ने समाज में स्वयं को सर्वोच्च रूप में स्वीकार किया मानकर मन्दिरों को अपने व्यवसाय और रोजी का मरकज निश्चित कर लिया।
दक्षिण भारत में मन्दिर जब  पुजारीयों के विलासिता के अड्डे बन गये।
ब्राह्मणो को सतर्क करने का प्रतीक है 

यानि मंदिर मे बनाया गया खुफिया तहखाना।जिसमें ब्राह्मणों के अलावा कोई प्रवेश नहीं कर सकता था।
आप सदियों से मंदिर के बहार लटकाए घंटे को देख रहे हैं , और मंदिर में प्रवेश करने से पहले उसे बजाते आये हैं।।

आप मंदिर के प्रवेशद्वार पर लटकाए हुए घंटा के बारे में क्या जानते है ?

मंदिर मे लटकाएं हुवे घंटे के बारे में हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में कुछ नहीं लिखा गया.. क्यों..?

भगवान और मंदिर के घंटे का क्या संबध है किसी को कुछ नहीं पता तो आखिरकार ये घंटा मंदिर में कर क्या रहा है ?

आज आपको मैं मंदिर के प्रवेश द्वार पर लटकाए हुवे घंटे के इतिहास के बारे में बताता हुँ....।

सन् 1947 से बहुत पहले से यानी जब से मनुस्मृति लागू हुई थी तब से लेकर जारी थी 
देवदासी प्रथा जिसके अनुसार मंदिर में रखी हुई देवदासी की शादी ब्राह्मण अपने ही मंदिर के भगवान (पत्थर की मूरत) से करवाते थे।

"उससे पैदा हुए बच्चों को कहते थे हरिजन"*  यह उन बच्चों को नाम दिया जाता था जो देवदासी से भौतिक रूप से मतलब वास्तव में पैदा होते थे...

जब भगवान पत्थर के होते हैं और थे तो देवदासी के बच्चे कैसे पैदा होते थे।

इसी बात पर गहनचर्चा करने के बाद भारत के सभी मंदिरों/पुजारियों और देवदासी के इतिहास की विस्तृत जानकारी से पता चला है कि ...

ब्राह्मण अपनी शारीरिक तृष्णा को संतुष्ट करने  के लिए कोरियो या नीचीं समझी जाने वाली जातियों की लड़कीयों को देवदासी बनाके मंदिर में रखते थे, और उसके साथ शारिरिक संबध बनाते थे...

देवदासी को गर्भगृह में लेजाकर के जब उसके साथ मंदिर का पुजारी शारीरिक संबंध बनाता था तब अगर कोई ना कोई दर्शनार्थी पुजारी को ढूढ़ते हुवे मंदिर केगर्भगृह में अचानक पहुंच जाता था और पुजारी को शारीरिक संबंध बनाते हुवे देख लेता था, तो पुजारी पकड़ा जाता था।
मंदिर का नाम खराब होता था, और मंदिर की आवक में भी गहरी कमी आजाती थी..

इसी बात को ध्यान में रखते हुवे चितपावन् ब्राह्मणों ने तुरंत ही एक सभा का आयोजन किया जिसमें यह निर्णय लिया गया कि मंदिर के प्रवेशद्वार पर एक घंटा लगाया जाए, और भगवान के दर्शन करने के लिए आने वाले दर्शानार्थीयों को मंदिर प्रवेश से पहले घंटा  बजाने को कहा जाए घंटा बजाना एक प्रथा बनाई जाए...

👆 इस निर्णय को तुरंत अमल में लाया गया।और ब्राह्मणों का यह प्रयोग सफल रहा...

प्रथा-अनुसार जब ब्राह्मण पुजारी देवदासी कोगर्भगृह में भोग रहे होते थे  तब बाहर मंदिर में कोई दशार्नार्थी आता था तो वे भगवान के दर्शन से पहले दो-तीन बार घंटा बजाता है, जिससेगर्भगृह में देवदासी को भोग रहे पुजारी को तुरंत पता चल जाता कि मंदिर में कोई आया है और तुरंत वे अपनी धोती ठीक करके बहार आ जाता था।
और इस तरह से आज भी यह घंटा बजाने का सिलसिला प्रथा के नाम पर जारी है।

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