विशेष— देवदासी प्रथा जगन्नाथ से लेकर दक्षिण के प्रायः सब मंदिरों में प्रचलित है। ये देवदासींयाँ नाचती गाती हैं और वेश्यावृत्ति करती हैं ।
इनके माता, पिता बचपन ही में उन्हें मंदिर को दान कर देते हैं, जहाँ उस्ताद लोग इन्हें नाचना गाना सिखाते हैं।
चेंगलपट्टु ज़िला भारत के तमिल नाडु राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय चेंगलपट्टु है।
तमलनाडू को ही मद्रास कहा जा है ।इसके चेंगलपट्टु जिले के कोरियों कोलों (कपड़ा बुननेवालों) में यह रीति हैं कि वे अपनी सबसे बड़ी लड़की को किसी मंदिर को दान कर देते हैं ।
इस प्रकार की दान की हुई कुमारियों की महाराष्ट्र देश में 'मुरली' और तैलंग देश में 'वसवा' कहते हैं
इन्हें मंदिरों से गुजारा मिलता है ।
मरने पर इनका उत्तराधिकारी पुत्र नहीं होता, कन्या होती है ।
मंदिरों में देवदासियाँ रखने की प्रथा प्राचीन है। कालिदास के मेधदूत में महाकाल के मंदिर में वेश्याओं के नृत्य करने की बात लिखी है।
मिस्र, यूनान, बैबिलोन आदि के प्राचीन देव- मंदिरों में भी देवनर्तकियाँ होती थीं।
देवदासी’ एक हिन्दू धर्म की प्राचीन प्रथा है। भारत के कुछ क्षेत्रों में खास कर दक्षिण भारत में महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर शोषण किया गया।
सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हुईं।
देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं। देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं।
इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है।
धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई।
उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया।
मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं।
देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज कराते रहे।
सामान्य सामाजिक अवधारणा में देवदासी ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मंदिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है।
पहले समाज में इनका उच्च स्थान प्राप्त होता था, बाद में हालात बदतर हो गये।
देवदासियां परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है।
यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था।
बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। अंग्रेज तथा मुसलमानो ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की।
देवदासी प्रथा मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और ओडिशा में फली-फूली। देवदासी प्रथा यूं तो भारत में हजारों साल पुरानी है, पर वक्त के साथ इसका मूल रूप बदलता गया।
कानूनी तौर पर रोक के बावजूद कई इलाकों में इसके जारी रहने की खबरें आती ही रहती हैं। हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों को एक आदेश जारी कर इसे पूरी तरह रोकने को कहा है।
आखिर क्या है ये प्रथा. ?
माना जाता है कि ये प्रथा छठी सदी में शुरू हुई थी।
इस प्रथा के तहत कुंवारी लड़कियों को धर्म के नाम पर ईश्वर के साथ ब्याह कराकर मंदिरों को दान कर दिया जाता था।
माता-पिता अपनी बेटी का विवाह देवता या मंदिर के साथ कर देते थे।
परिवारों द्वारा कोई मुराद पूरी होने के बाद ऐसा किया जाता था।
देवता से ब्याही इन महिलाओं को ही देवदासी कहा जाता है।
उन्हें जीवनभर इसी तरह रहना पड़ता था। कहते हैं कि इस दौरान उनका सेक्शुअल हैरेसमेंट भी किया जाता था।
मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी प्रथा का उल्लेख मिलता है।
एक बात और मन्दिरों में घण्टा कैसे पहुँचा।
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