क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ या शूद्र थे ? बताऐं विचार करें !
इतना ही नहीं जादौन बंजारा समाज के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गो पालक न मानकर परम्परागत रूप से कहा करते हैं कि कृष्ण का पालन गोपों के घर और जन्म क्षत्रिय रै़ाजपूत वसुदेव के घर हुआ।
और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक जोड़ दिए भी । परन्तु अन्य प्र चीन ग्रन्थों में द्वेष वादियों की मान्यता को खण्डित ही कर दिया।
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देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में जिनका खण्डन-
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यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७। यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है ।
निवारण-👇★
परन्तु गर्ग आचार्य शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था। उससे पहले तो घोर आंगिरस कुल पुरोहित थे।
यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे।
यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र शतानन्द थे।
अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है।
परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं । और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________
परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में इस प्रकार का वर्णन है ।
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।
वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान करते थे निम्न श्लोकों में यही तथ्य है
गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षाच्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।
सुविस्मिताः पूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥ १ ॥
नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।
यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थंसमुत्सको गर्गयुतःप्रसन्नः ।२।
श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्दनन्दन की यह बात सुनकर श्रीनन्द और सन्नन्द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होनें पहले का निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया।
मिथिलेश्वर ! नन्दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
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( भागवत पुराण में वर्णन है कि )
गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत।नन्द:कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।१९।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे ,तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के
अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।। ____________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः । उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०। अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !
वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।
पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?
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