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 (न जायते न म्रियते वर्द्धते न च विश्वसृक्।
मूलप्रकृतिरव्यक्ता गीयते वैदिकैरजः।। ३८.७६।

ततो निशायां वृत्तायां सिसृक्षुरखिलञ्जगत्।


‘प्रकृति पुरुषं चौव विद्धयनादी उभावपि’[सन्दर्भ]श्री मद्भगवद्गीता१३/९

प्रकृति एवं पुरुष दोनों ही अनादि हैं। तात्पर्य कि पुरुष अज है तो प्रकृति भी अजा है।

श्वेताशवेतरो- उपनिषद  और साँख्यदर्शन व उसकी प्रतिपादिका सांख्य कारिका में वर्णन है:-

‘अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।
अजोह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोन्य।।

( श्वेताशवेतरोपनिषद्-४/५) 

अजामेकां  लोहितशुक्लकृष्णां                  बह्वीः  प्रजाः  सृजमानां  सरूपाः ।

 अजो  ह्येको  जुषमाणोऽनुशेते     जहात्येनां  भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥४।५॥

(इस ब्रह्माण्ड में) एक अजन्मी, या उपमा से, एक अजा = बकरी  है जिसे सांख्यदर्शन नें (प्रकृति) कहा है जो कि लाल, सफेद और काले रंग (रज, सत्त्व और तम) रंग वाली है । वह अपने जैसे रूप में बहुत प्रजाओं सन्तानों को जन्म देती है।

 एक अज = बकरा जिसे साख्यदर्शन में

 पुरुष( ईश्वर) कहा गया है। वह  उस अजा का भोग करता हुआ लेटता शयन करता  है, जबकि दूसरे एक बकरे (जीवात्मा), ने पहले ही   उस बकरी का भोग करके उसको त्याग दिया है। जहां यह उपमा जीव और प्रकृति के सम्बन्ध में स्पष्ट है ही, वहां यह देखने योग्य है कि विरक्त आत्मा का ब्रह्म से एकत्व नहीं कहा गया है – उसे अलग ही माना गया है । ’अजन्मा’ होने का भी अर्थ है कि आत्मा किन्हीं वस्तुओं के संयोग या परिणाम से नहीं उत्पन्न नहीं हुआ है, परन्तु उसकी सत्ता भी अनादि है। 

यदि जीवात्मा परमात्मा का विकार होता तो उसे जन्म-वाला ही मानना पड़ता, जिस प्रकार प्रकृति के सभी विकारों का ’जन्म’ बताया गया है ।        इसी प्रकार प्रकृति को भी ’अजा’ कहा गया है। 

अन्य एक श्लोक तीनों सत्ताओं में भेद बताता है – 

ज्ञाज्ञौ  द्वावजावीशनीशा –

     वजा  ह्येका  भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता  ।अनन्तश्वात्मा  विश्वरूपो  ह्यकर्ता   त्रयं      यदा  विन्दते  ब्रह्मेतत्॥ १।९ ॥

अर्थात् दो अज हैं, एक तो ज्ञ है – जानने वाला है, सर्वज्ञ है; दूसरा अज्ञ है – कम जानता है ; एक सब पदार्थों का प्रभु है, दूसरा उसके वश में रहता है ; और तीसरी एक अजा भोक्ता के भोग के लिए युक्त होती है । 

जब यह जीव, जो कि अनन्त आत्मा है, अनेक शरीर धारण करने से ’विश्वरूप’ है और अकर्ता है (क्योंकि शरीर ही कर्ता है), इन तीनों सत्ताओं को जान लेता है, तब वह ब्रह्म को पा लेता है । इससे स्पष्ट रूप से और क्या कहा जा सकता है ?

अन्य एक सुप्रसिद्ध श्लोक परमात्मा का स्वरूप बताता है –

 न  तस्य  कार्यं  करणं  च  विद्यते

त्समश्चाभ्यधिकश्च  दृश्यते ।

  परास्य  शक्तिर्विविधैव  श्रूयते     स्वाभाविकी  ज्ञानबलक्रिया च ।६।८।

अर्थात् उस परमात्मा का न कार्य, न करण है । उसके बराबर ही कोई नहीं दिखता, तो उससे अधिक का तो कहना ही क्या ! 

उसकी शक्ति सबसे अधिक है और विविध प्रकार की है, ऐसा वेदादि शब्द प्रमाण हैं । उसमें ज्ञान, बल और क्रिया स्वाभाविक रूप से वर्तमान है । जैसे जीव में प्रकृति के सहारे से ज्ञान, बल और क्रिया होती है, ऐसा परमात्मा के विषय में सत्य नहीं है । इस पूरे ही वर्णन से स्पष्ट है कि जीवात्मा कभी भी परमात्मा का विकार नहीं हो सकता । जिसका कार्य ही नहीं है, तो विकार कैसे मानें ?! 

जिसका कोई सहाय के लिए उपकरण नहीं है, जिसके कोई बराबर नहीं है, जिसकी शक्ति अपार है, जिसका ज्ञान, बल और क्रिया अपने स्वरूप से ही है, वह एक क्षुद्र प्राणी में कैसे संकुचित हो जायेगा ?

तथापि एक श्लोक है जिसमें यह सन्देह होता है कि सम्भवतः अद्वैतवाद का ऋषि समर्थन कर रहे है  –

सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्रण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविशतिर्गणः।। -सांख्यसूत्र।।

(सत्त्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। उस से महत्तत्त्व बुद्धि, उस से अहंकार, उस से पांच तन्मात्र सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्रओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चौबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर हैं। 

इन में से प्रकृति अविकारिणी और महत्तत्त्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य्य और इन्द्रियां मन तथा स्थूलभूतों का कारण है। पुरुष न किसी की प्रकृति उपादान कारण और न किसी का कार्य्य है।______________________________

तं मां वित्त महात्मानं ब्रह्माणं विश्वतो मुखम्।
महान्तं पुरुषं विश्वमपां गर्भमनुत्तमम् ।३८.७८

न तं जानीथ जनकं मोहितास्तस्य मायया ।
देवदेवं महादेवं भूतानामीश्वरं हरम् ।। ३८.७९

एष देवो महादेवो ह्यनादिर्भगवान् हरः ।
विष्णुना सह संयुक्तः करोति विकरोति च ।। ३८.८०

चतुर्वेदश्चतुर्मूर्त्तिस्त्रिमूर्त्तिस्त्रिगुणः परः ।
एकमूर्त्तिरमेयात्मा नारायण इति श्रुतिः ।७५।
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रेतोऽस्य गर्भो भगवानापो मायातनुः प्रभुः ।
स्तूयते विविधैर्मन्त्रैर्ब्राह्मणैर्मोक्षकांक्षिभिः ।। ७६।

संहृत्य सकलं विश्वं कल्पान्ते पुरुषोत्तमः ।
शेते योगामृतं पीत्वा यत् तद् विष्णोः परं पदम् ।।.७७
न जायते न म्रियते वर्द्धते न च विश्वसृक् ।
मूलप्रकृतिरव्यक्ता गीयते वैदिकैरजः ।।७८।।
ततो निशायां वृत्तायां सिसृक्षुरखिलञ्जगत् ।
अजस्य नाभौ तद् बीजं क्षिपत्येष महेश्वरः ।७९।

तं मां वित्त महात्मानं ब्रह्माणं विश्वतो मुखम् ।
महान्तं पुरुषं विश्वमपां गर्भमनुत्तमम् ।८०।

(कूर्मपुराण-उत्तर-भाग).  अध्याय (३८)
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माया से विविध शरीर धारण करने वाले समस्त जगत के जीवन -जल को अपने आयतन( आकार) को रूप नें स्वीकार करने वाले जल स्वरूप भगवान कर्म -फल को एक मात्र अधिष्ठाता हैं।

धर्म और मोक्ष कि इच्छा रखने वाले ब्राह्मण लोग-विविध मन्त्रों के द्वारा उनकी स्तुति करते हैं। कल्पनान्त में समस्त विश्व की प्रलय करने को उपरान्त योगामृत का पान कर वह विष्णु जो परम पद है वहाँ शयन करते हैं। 
विश्व की सृष्टि करने वाले ये महान ईश्वर न तो जन्मते नाही मरते हैं। और न वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वैदिक विद्वान इसी ईश्वर को "अज"  (बकरा) कहते है ।७८-७९।।

प्रलय रूपी रात्रि के बीत जाने पर सम्पूर्ण जगत का सृजन करने की  इच्छा से अज -(बकरे) की नाभि में सृष्टि -बीज  को स्थापित करता है यह महान ईश्वर (महेश्वर)।।८०।

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न तस्य विद्यते कार्यं न तस्माद् विद्यते परम् ।
स वेदान् प्रददौ पूर्वं योगमायातनुर्मम ।। ३८.८१

स मायी मायया सर्वं करोति विकरोति च ।
तमेव मुक्तये ज्ञात्वा व्रजेत शरणं भवम् ।। ३८.८२

इतीरिता भगवता मरीचिप्रमुखा विभुम् ।
प्रणम्य देवं ब्रह्माणं पृच्छन्ति स्म सुदुः खिताः ।। ३८.८३

इति अष्टाचत्वारिंशोध्यायः ॥ 
कूर्मपुराऩउत्तरभाग-
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यदि च छागी याग साधनं भवति तदा अयं मन्त्रः संगताथो भवति नान्यथा