सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

सरल संस्कृत व्याकरणम्-


वचन-

संस्कृत में तीन वचन होते हैं- एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन।

संख्या में एक होने पर एकवचन का, दो होने पर द्विवचन का तथा दो से अधिक होने पर बहुवचन का प्रयोग किया जाता है।

जैसे- एक वचन -- एकः बालक: क्रीडति।

द्विवचन -- द्वौ बालकौ क्रीडतः।

बहुवचन -- त्रयः बालकाः क्रीडन्ति।

_______________________________

लिंग-′पुल्लिंग- जिस शब्द में पुरुष जाति का बोध होता है, उसे पुलिंग कहते हैं।

  • (जैसे रामः, बालकः, सः आदि)
  • स: बालकः अस्ति।- वह बालक है।
  • तौ बालकौ स्तः‌।- वे दोनों बालक हैं।
  • ते बालकाः सन्ति। -वे सब बालक हैं।
_____________________
स्त्रीलिंग- जिस शब्द से स्त्री( महिला) जाति का बोध होता है, उसे स्त्रीलिंग कहते हैं। (जैसे रमा, बालिका, शीला , सा  आदि)
  • सा बालिका अस्ति। वह बालिका है ।
  • ते बालिके स्तः। वे दो बालिका हैं।
  • ताः बालिकाः सन्ति। वे सब बालिका हैं।-
__________
नपुंसकलिंग (जैसे: फलम् , गृहम्, पुस्तकम् , तत् आदि)
  • तत् फलम् अस्ति | वह फल है ।
  • ते फले स्त: |वे दो फल हैं।
  • तानि फलानि सन्ति | वे सब फल हैं।

      "संस्कृत के पुरुष"

    पुरुषएकव०द्विव०बहुव०
    उत्तमपुरुषअहम्(मैं)आवाम्(हमदोनों) वयम्-(हमसब)

    मध्यमपुरुषत्वम्(तू)युवाम्(तुम दोनों)यूयम्(तुम सब)
    प्रथम/अन्य पुरुषस:/सा/तत् (वह)तौ/ते/ते (वे   दोनों    
    ते/ता:/तानि (वे सब)
    • अन्य पुरुष एकवचन मे 'स:' पुल्लिङ्ग के लिये , 'सा' स्त्रीलिङ्ग के लिये और 'तत्' नपुन्सकलिङ्ग के लिये है।
    • क्रमश: द्विवचन और बहुवचन के लिए भी यही रीति है |
    • उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष मे लिङ्ग के भेद नही है ।
    कारक नाम - वाक्य के अन्दर उपस्थित पहचान-चिह्न से समन्वित क्रिया से सम्बन्धित पदों का नाम कारक है

    कर्ता - ने (रामः) गीतं गायति।)

    कर्म - को (to) (बालकः (विद्यालयं) गच्छति।)

    करण - से (by /With), द्वारा (सः (हस्तेन) फलं खादति।

    सम्प्रदान -को , के लिये (for) (निर्धनाय) धनं देयं।

    अपादान - से (from) अलगाव (वृक्षात् )पत्राणि पतन्ति।

    सम्बन्ध - का, की, के (of) (राम: (दशरथस्य पुत्रः) आसीत्। 

    अधिकरण - में, पे, पर (in/on) यस्य (गृहे) माता नास्ति,)

    सम्बोधन - हे!,भो !,अरे !, (हे राजन्) !अहं निर्दोषः।

    भवत् स्त्रील्लिंग शब्द के रूप – 

    भवत् स्त्रील्लिंग शब्द रूप: “भवत् शब्द” नाम का 

    भवत् (भवती = आप स्त्री) अन्यपुरुष, स्त्री० – 

    विभक्ति एकवचन द्विवचन बहुवचन
    प्रथमा भवती=
    आप एक स्त्री ने  
     भवत्यौ=आप दौनों स्त्रीयों ने भवत्यः=
    आप 
    सब स्त्रीयों ने
    द्वितीया भवतीम्=
    आप एक स्त्री को
     भवत्यौ=आप दौनों स्त्रियों को भवत्यः=
    आप 
    सब स्त्रीयों को
    तृतीया भवत्या=
    आप एक स्त्री को द्वारा
     भवतीभ्याम्= 
    आप दौंनो स्त्रियों के द्वारा
     भवतीभिः=
    आप सब स्त्रियों के द्वारा
    चतुर्थी भवत्यै=
    आप एक 
    स्त्री के लिए
     भवतीभ्याम्=
    आप दौंनो स्त्रियों के लिए
     भवतीभ्यः=
    आप सब स्त्रीयों के लिए
    पञ्चमी भवत्याः=
    आप एक स्त्री से
     भवतीभ्याम्=
    आप दौनों स्त्रीयों से
     भवतीभ्यः=
    आप सब स्त्रीयों से
    षष्ठी भवत्याः=
    आप एक स्त्री का
     भवत्योः=
    आप दौंनो
    स्त्रियों का

     भवतीनाम्=
    आप सब स्त्रीयों का
    सप्तमी भवत्याम्=
    आप एक स्त्री में
     भवत्योः= आप दौनों स्त्रीयों में भवतीषु= आप सब स्त्रीयों में
    सम्बोधन हे भवति हे भवत्यौ हे भवत्यः


    ___________________

    "भवत्" सर्वनामपद  के रूप तीनों लिंगों में सदैव  अन्य पुरुष के क्रियापद का प्रयोग होता है।

                    "डवतुप्रत्ययान्तपुल्लिङ्गः

    भवत् शब्दः

                        (भवत् -पुल्लिङ्गः)

    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रथमाभवान्=
    आप एक ने
    भवन्तौ=
    आप दौनों
    ने
    भवन्तः=
    आप सब
    ने 
    द्वितीयाभवन्तम्=
    आप एक 
    को 
    भवन्तौ=
    आप दौनों
    को
    भवतः=
    आप सब
    को 
    तृतीयाभवता=
    आप एक 
    को द्वारा-
    भवद्भ्याम्
    =आप दौनों को 
    द्वारा 

    भवद्भिः=
    आप सब
    को द्वारा
    चतुर्थीभवते=
    आप एक के लिए
    भवद्भ्याम्
    =आप दौनों
    के लिए
    भवद्भ्यः=
    आप सब
    को लिए
    पञ्चमीभवतः=
    आप एक से
    भवद्भ्याम्
    आप दौनों
    से
    भवद्भ्यः=
    आप सब से
    षष्ठीभवतः=
    आप एक का
    भवतोः=
    आप दौंनो का
    भवताम्=
    आप सब 
    का
    सप्तमीभवति=
    आप एक में
    भवतोः= आप दौनों मेंभवत्सु= आप सब में
    सम्बोधनहे भवान्हे भवन्तौहे भवन्तः

    "वाच्य"-

    संस्कृत में तीन वाच्य होते हैं- कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य।

    • कर्तृवाच्य में कर्तापद में प्रथमा विभक्ति का होता है। 
    • (छात्रः) श्लोकं पठति- यहाँ (छात्रः) कर्ता है और प्रथमा विभक्ति में है।
    • कर्मवाच्य में कर्तापद में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है और कर्म में प्रथमा विभक्ति का। 
    • जैसे, छात्रेण (श्लोकः) पठ्यते। यहाँ छात्रेण तृतीया विभक्ति में और कर्म-श्लोक: में प्रथमा विभक्ति  है।
    • अकर्मक क्रिया में कर्म नहीं होने के कारण क्रिया की प्रधानता होने से भाववाच्य के प्रयोग सिद्ध होते हैं।
    • कर्ता की प्रधानता होने से कर्तृवाच्य प्रयोग सिद्ध होते हैं। भाववाच्य एवं कर्मवाच्य में क्रियारूप एक जैसे ही रहते हैं।

    कर्तृवाच्य. से-भाववाच्य
    1.पु०भवान् तिष्ठतु -आप बैठो।
    भवता स्थीयताम्आ=प के द्वारा बैठा जाए-

    2.स्त्री०भवती नृत्यतु आप नाचो-भवत्या नृत्यताम्आ=प के द्वारा नाचा जाए-

    3.त्वं वर्धस्वत्वया वर्ध्यताम् =आपके द्वारा बढ़ा जाए-   

    4.पु०भवन्तः न खिद्यन्ताम्भवद्भिः न खिद्यताम् =आप सबके द्वारा दु:खी न हुआ जाए-
    5.स्त्री०भवत्यः उत्तिष्ठन्तुभवतीभिः उत्थीयताम् =आपके सबके द्वारा उठा जाए

    6.

    यूयं संचरत

    युष्माभिःसंचर्यताम्= आप सबके द्वारा चरा जाए

     
    7.पु०

    भवन्तौ रुदिताम्
    भवद्भयां रुद्यताम् =आप सबके द्वारा रोया जाए.

    8.स्त्री० 

    भवत्यौ हसताम्भवतीभ्यां हस्यताम्  आप दौनों के द्वारा हसा जाए. 
        
    9.विमानम् उड्डयताम्विमानेन उड्डयताम् विमान के द्वारा उड़ा जाए.
    10सर्वे उपविशन्तु
    सर्वै: उपविश्यताम् -सबके द्वारा बैठा जाए-    

    उपर्युक्त वाक्यों में क्रिया अन्य पुरुष, एक वचन और आत्मनेपदीय में रूप में है।

    ___________________

    उप+ विश् धातुरूपाणि -लोट् लकारःविशँ प्रवेशने तुदादिःगणीय- परस्मैपदीय व आत्मनेपदीय रूप-

     "उप+विश्-बैठना।
      कर्तरि प्रयोगः परस्मैपदीय रूप-

    प्रथमपु०-एकव०उपविशतात् / उपविशताद् / उपविशतु।
    द्विव०उपविशताम्।
    बहुव०उपविशन्तु।

    मध्यम पु०-एकव०-उपविश।
     द्विव-उपविशतम्।
    बहुव०-उपविशत।

    उत्तम पु०
    एकव०- उपविशानि।
    द्विव ०- उपविशाव।
     बहुव० - उपविशाम।
    _______________________

    ________
    प्रथमपु०
    एकव०-उपविश्यताम्
    द्विव० -उपविश्येताम्
    बहुव०-उपविश्यन्ताम्
    _______
    मध्यम
    एकव०-उपविश्यस्व
    द्विव० - उपविश्येथाम्
    बहुव०-उपविश्यध्वम्
    _____
    उत्तम
    एकव०-उपविश्यै
    द्विव०-उपविश्यावहै
    बहुव०-उपविश्यामहै
    _____________________

    रूपिम-(Morpheme) भाषा उच्चारण की लघुत्तम अर्थवान् इकाई है।

    रूपिम स्वनिमों (ध्वनि समूहों)का ऐसा न्यूनतम अनुक्रम है जो व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है।

    स्वनिम के बाद रूपिम भाषा का महत्वपूर्ण तत्व व अंग है। 

    (रूपिम को 'रूपग्राम' और 'पदग्राम' भी कहते हैं। जिस प्रकार स्वन-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई स्वनिम (ध्वनि है

    उसी प्रकार रूप-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई रूपिम है। 

    रूपिमवाक्य-रचना और अर्थ-अभिव्यक्ति की सहायक इकाई है।

    स्वनिम -भाषा की अर्थहीन इकाई है, किन्तु इसमें अर्थभेदक क्षमता होती है।

    _________________________________________

    (रूपिम- लघुत्तम अर्थवान इकाई है, किन्तु रूपिम को अर्थिम का पर्याय नहीं मान सकते हैं;

    यथा-" परमात्मा" एक अर्थिम पद है, जबकि इसमें ‘परम’ और ‘आत्मा’ दो रूपिम पद हैं।

    परिभाषा - विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों ने रूपिम को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों के अनुसार  पदग्राम पदों का समूह (रूपिम) वस्तुतः परिपूरक वितरण या मुक्त वितरण मे आये हुए सहपदों (शब्दों) का समूह है। रूप भाषा की लघुतम अर्थपूर्ण इकाई होती है जिसमें एक अथवा अनेक ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।
    डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के मतानुसार, भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई रूपग्राम है।
    डॉ॰ जगदेव सिंह ने लिखा है, रूप-अर्थ से संश्लिष्ट भाषा की लघुतम इकाई को रूपिम कहते हैं।


    पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ:-

    "ब्लॉक का रूपिम के विषय में विचार है- कोई भी भाषिक रूप, चाहे मुक्त अथवा आबद्ध हो और जिसे अल्पतम या न्यूनतम अर्थमुक्त (सार्थक) रूप में खण्डित न किया जा सके, रूपिम होता है।
    "ग्लीसन का विचार है- रूपिम न्यूनतम उपयुक्त व्याकरणिक अर्थवान रूप है।
    "आर. एच. रोबिन्स ने व्याकरणिक संदर्भ में रूपिम को इस प्रकार परिभाषित किया है- न्यूनतम व्याकरणिक इकाईयों को रूपिम कहा जाता है। 

    स्वरूप- रूपिम के स्वरूप को उसकी अर्थ-भेदक संरचना के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं। 

    प्रत्येक भाषा में रूपिम व्यवस्था उसकी अर्थ-प्रवृति के आधार पर होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूपिमों में भिन्नता होना स्वभाविक है।
    ____________________________________

     "वाक्य विज्ञान --
    दो या दो से अधिक पदों के सार्थक समूह जिसका पूरा अर्थ निकलता है, उसे वाक्य कहते हैं।

                         -- 

    उदाहरण के लिए 'सत्य की विजय होती है।'
    यह एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु 'सत्य विजय होता।' परन्तु यइस प्रकार यह वाक्य नहीं है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है।

    शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से --

    वह पद -समूह जिससे श्रोता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो।
    भाषा के भाषा-वैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है और क्रिया का होना भी आवश्यक है। 

    क्रियापद और कारक पद से युक्त सेच्छिक ( इच्छा-सहित) अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। जो उद्देश्यांश और विधेयांश वाले सार्थक पदों का समूह हो 

    विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार वाक्य में

    (१) आकांक्षा,
    (२) योग्यता और
    (३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए।
    'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्य अथवा इच्छा का बोध कराते हों। 

    जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा।
    जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। क्यों कि इसमें ऐच्छिकता का क्रमिक अन्वय( सम्बन्ध) है।

    'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो।
    जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा क्योंकि पानी में हाथ जलाने की योग्यता का अभाव है।
    'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का  अधिक व्यवधान अथवा दूरी न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है।
    इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा।
    काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है।

    दर्शनशास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद मानते हैं- 

    "विधि-वाक्य, अनुवाद वाक्य और अर्थवाद -वाक्य किए गए हैं ; इनमें अंतिम के चार भेद- १-स्तुति, २-निंदा, ३-परकृति और ४-पुराकल्प बताए गए हैं। 

    (वक्ता का अभिप्रेत अथवा वक्तव्य की अबाधकता वाक्य का मुख्य उद्देश्य माना गया है।इसी की पृष्ठ भूमि में संस्कृत वैयाकरणों ने वाक्यस्फोट की उद्भावना की है।वाक्यपदोयकार द्वारा स्फोटात्मक वाक्य की अखंड सत्ता स्वीकृत है।

    भाषावैज्ञानिकों की द्दष्टि में वाक्य संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक तत्व होते हैं।

    "शब्दाकृतिमूलक वाक्य के शब्द-भेदानुसार चार भेद हैं—१-समासप्रधान, २-व्यासप्रधान, ३-प्रत्ययप्रधान और ४-विभक्तिप्रधान।
    इन्हीं के आधार पर भाषाओं का भी वर्गीकरण विद्वानों ने किया है। 

    आधुनिक व्याकरण की दृष्टि से वाक्य के संरचना के आधार पर तीन भेद होते हैं—

      १-सरल वाक्य. 

    २-मिश्रित वाक्य और 

    ३-संयुक्त वाक्य।

    तथा अर्थ की दृष्टि से वाक्यों के आठ भेद होते हैं ।________________________________________

    वाक्य – अर्थ की दृष्टि से वाक्य के प्रकार |

    वाक्य किसे कहते हैं?

    सार्थक शब्दों का ऐसा समूह जो व्यवस्थित हो तथा पूरा आशय प्रकट करता हो, वाक्य कहलाता है।

    उदाहरण– 1. सोहन विद्यालय जाता है।

    2. आप की इच्छा क्या है ?

    वाक्यों के प्रकार के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ें और रेखांकित वाक्य पर गौर करें।

    शुभम के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।

     शुभम् उनसे मिलने राजनगर गया। 

    अचानक शुभम् को देखकर अशोक ने कहा- अरे ! शुभम् तुम ! शुभम् ने बताया कि आपसे मिलने का मन हुआ तो चला आया। 

    अशोक ने पूछा- क्या तुम आज ही वापस जाओगे ? शुभम ने उत्तर दिया- मैं आज नहीं जाऊँगा। अशोक ने कहा ठीक है। शायद आज मैं देर से लौटू। तुम बाजार चले जाओ लो ये पैसे, माया के लिए एक अच्छा सूट खरीद लेना। अशोक ने शुभम के साथ भोजन किया और अपने काम पर चला गया। 

    शुभम् बाजार गया।

     उसने एक छोर से दूसरे छोर तक बाजार का चक्कर लगाया किन्तु उसे कपड़ों को कोई अच्छी दुकान दिखाई नहीं दी। आखिरकार एक कोने में उसे कपड़े की एक दुकान नजर आई। 

    उसने वहाँ से माया के लिए एक सूट खरीदा और लौट आया। शाम को अशोक ने बताया कि कल उसकी छुट्टी रहेगी।

     शुभम् ने उसे अपना लाया हुआ मोबाइल दिखाया। 

    अमित ने कहा- मैं चाहता हूँ कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

     मेरे साथ ढेर सारा सामान है। 

    अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी। शुभम् ने कहा- कल हम साथ ही घर चलेंगे।

    ______________ 

    जैसे– शुभम् के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।

    यह शब्द समूह सार्थक है, व्याकरण के नियमों के अनुरूप व्यवस्थित है तथा पूरा आशय प्रकट कर रहा है। अतः यह एक वाक्य है।


    अब रेखांकित वाक्यों को देखें।

    रेखांकित वाक्य अर्थ की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं। 

    _________  

    सामान्यतः वाक्य भेद दो दृष्टियों से किया जाता है -

    1. अर्थ की दृष्टि से

    2. रचना की दृष्टि से

    __________

    हिन्दी व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।

    1. 'ज' का अर्थ, द्विज का अर्थ

    2. भिज्ञ और अभिज्ञ में अन्तर

    3. किन्तु और परन्तु में अन्तर

    4. आरंभ और प्रारंभ में अन्तर

    5. सन्सार, सन्मेलन जैसे शब्द शुद्ध नहीं हैं क्यों

    6. उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, वाचक शब्द क्या है.

    7. 'र' के विभिन्न रूप- रकार, ऋकार, रेफ

    8. सर्वनाम और उसके प्रकार

    __________________

    अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–

    अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं।

    (अ) विधानवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    अशोक राजनगर में रहता है।

    (ब) निषेधवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं।

     इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    मैं आज नहीं जाऊंगा।

    (स) प्रश्नवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    क्या तुम आज ही वापस जाओगे?

    (द) विस्मयादिवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    अरे! शुभम् तुम!!

    इन प्रकरणों 👇 को भी पढ़ें।

    1. हिंदी गद्य साहित्य की विधाएँ

    2. हिंदी गद्य साहित्य की गौण (लघु) विधाएँ

    3. हिन्दी साहित्य का इतिहास चार काल

    4. काव्य के प्रकार

    5. कवि परिचय हिन्दी साहित्य

    6. हिन्दी के लेखकोंका परिचय

    7. हिंदी भाषा के उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचंद

    (ई) आज्ञावाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    तुम बाजार चले जाओ।

    (फ) इच्छावाचक वाक्य– वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    मैं चाहता कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

    (ग) संदेहवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में कार्य के होने में सन्देह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    शायद मैं आज देर से लौटूँ।

    (ह) संकेतवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।

    ___________________________

    अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन–

    आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

    जैसे– उपरोक्त अनुच्छेद का विधानवाचक वाक्य–

    "अशोक राजनगर में रहता है।" को लेते हैं– इस वाक्य को सभी प्रकार के वाक्यों में निम्नानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।

    _________

    1. विधानवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में रहता है।

    2. विस्मयादिवाचक वाक्य - अरे! अशोक राजनगर में रहता है।

    3. प्रश्नवाचक वाक्य - क्या अशोक राजनगर में रहता है?

    4. निषेधवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में नहीं रहता है।

    5. संदेहवाचक वाक्य - शायद अशोक राजनगर में रहता है।

    6. आज्ञावाचक वाक्य - अशोक! तुम राजनगर में रहो।

    7. इच्छावाचक वाक्य- काश, अशोक राजनगर में रहता!।

    8. संकेतवाचक वाक्य - यदि अशोक राजनगर में रहना चाहता है तो रह सकता है।


    वाक्यांश--
    शब्दों के ऐसे समूह को जिसका अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता, वाक्यांश (Phrase) कहते हैं। उदाहरण -

    'दरवाजे पर', 'कोने में', 'वृक्ष के नीचे' आदि का अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता इसलिये ये वाक्यांश हैं।
    __________________________________________
    कर्ता और क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद करें
    वाक्य के दो भेद होते हैं-

    उद्देश्य और
    विधेय
    वाक्य में जिसके बारे में कुछ बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं।
    और जो बात उद्देश्य के वाले में की जाय  उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग में रहता है'।
    इसमें उद्देश्य है - 'मोहन' , और विधेय है - 'प्रयाग में रहता है।'
    ________________________________________
    वाक्य के भेद

    वाक्य -भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-

    १- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
    २- रचना के आधार पर वाक्य भेद
    अर्थ के आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं ।
    अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-

     1-विधान वाचक वाक्य,
    2- निषेधवाचक वाक्य,
    3- प्रश्नवाचक वाक्य,
    4- विस्म्यादिवाचक वाक्य,
    5- आज्ञावाचक वाक्य,
    6- इच्छावाचक वाक्य,
    7-संकेतवाचक वाक्य,
    8-संदेहवाचक वाक्य।

    विधानवाचक सूचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है,
    वह विधानवाचक वाक्य कहलाता है।
    उदाहरण -
    भारत एक देश है।
    राम के पिता का नाम दशरथ है।
    दशरथ अयोध्या के राजा हैं।

    निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से कार्य न होने का भाव प्रकट होता है, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। जैसे-
    मैंने दूध नहीं पिया।
    मैंने खाना नहीं खाया।

    प्रश्नवाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार प्रश्न किया जाता है, वह प्रश्नवाचक वाक्य कहलाता है।
    उदाहरण -
    भारत क्या है?
    राम के पिता कौन है?
    दशरथ कहाँ के राजा है?

    आज्ञावाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार की आज्ञा दी जाती है या प्रार्थना की जाती है, वह आज्ञा वाचक वाक्य कहलाता हैं।
    उदाहरण -
    बैठो।
    बैठिये।
    कृपया बैठ जाइये।
    शांत रहो।
    कृपया शांति बनाये रखें।
    इस प्रकार के हिन्दी वाक्यों के अन्त में ओ अथवा ए की ध्वनि निकलती है ।

    विस्मयादिवाचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की गहरी अनुभूति का प्रदर्शन किया जाता है, वह विस्मयादिवाचक वाक्य कहलाता हैं।
    उदाहरण -
    अहा! कितना सुन्दर उपवन है।
    ओह! कितनी ठंडी रात है।
    बल्ले! हम जीत गये।

    इच्छावाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में किसी इच्छा, आकांक्षा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
    उदाहरण- भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
    नववर्ष मंगलमय हो।

    संकेतवाचक वाक्य- जिन वाक्यों में किसी संकेत का बोध होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। उदाहरण-
    राम का मकान उधर है।
    सोनु उधर रहता है।

    संदेहवाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में सन्देह का बोध होता है, उन्हें सन्देह वाचक वाक्य कहते हैं।
    उदाहरण-
    क्या वह यहाँ आ गया ?
    क्या उसने काम कर लिया ?
    रचना के आधार पर वाक्य के भेद---

    रचना के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-'

    (१)सरल वाक्य/साधारण वाक्य :-
    जिनमें एक ही विधेय होता है, उन्हें सरल वाक्य या साधारण वाक्य कहते हैं, इन वाक्यों में एक ही क्रिया होती है;
    जैसे- मुकेश पढ़ता है।
    राकेश ने भोजन किया।

    (२) संयुक्त वाक्य - जिन वाक्यों में दो-या दो से अधिक सरल वाक्य समुच्चयबोधक अव्ययों से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है;
    जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया।
    प्रिय बोलो पर असत्य नहीं।

    (३) मिश्रित/मिश्र वाक्य - जिन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान वाक्य हो और अन्य आश्रित उपवाक्य हों, उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।

    इनमें एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं।

    जैसे - ज्यों ही उसने औषधि सेवन किया, वह सो गया।
    यदि परिश्रम करोगे तो, उत्तीर्ण हो जाओगे।
    मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कार्यअच्छे नहीं होते।

    प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि" संस्कृत में काल गत वाक्य निरूपण के लिए लकार हैं।

    रूपिम-(Morpheme) भाषा उच्चारण की लघुत्तम अर्थवान् इकाई है।

    रूपिम स्वनिमों (ध्वनि समूहों)का ऐसा न्यूनतम अनुक्रम है जो व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है।

    स्वनिम के बाद रूपिम भाषा का महत्वपूर्ण तत्व व अंग है। 

    (रूपिम को 'रूपग्राम' और 'पदग्राम' भी कहते हैं। जिस प्रकार स्वन-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई स्वनिम (ध्वनि है

    उसी प्रकार रूप-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई रूपिम है। 

    रूपिमवाक्य-रचना और अर्थ-अभिव्यक्ति की सहायक इकाई है।

    स्वनिम -भाषा की अर्थहीन इकाई है, किन्तु इसमें अर्थभेदक क्षमता होती है।

    _________________________________________

    (रूपिम- लघुत्तम अर्थवान इकाई है, किन्तु रूपिम को अर्थिम का पर्याय नहीं मान सकते हैं;

    यथा-" परमात्मा" एक अर्थिम पद है, जबकि इसमें ‘परम’ और ‘आत्मा’ दो रूपिम पद हैं।

    परिभाषा - विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों ने रूपिम को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों के अनुसार  पदग्राम पदों का समूह (रूपिम) वस्तुतः परिपूरक वितरण या मुक्त वितरण मे आये हुए सहपदों (शब्दों) का समूह है। रूप भाषा की लघुतम अर्थपूर्ण इकाई होती है जिसमें एक अथवा अनेक ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।
    डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के मतानुसार, भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई रूपग्राम है।
    डॉ॰ जगदेव सिंह ने लिखा है, रूप-अर्थ से संश्लिष्ट भाषा की लघुतम इकाई को रूपिम कहते हैं।


    पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ:-

    "ब्लॉक का रूपिम के विषय में विचार है- कोई भी भाषिक रूप, चाहे मुक्त अथवा आबद्ध हो और जिसे अल्पतम या न्यूनतम अर्थमुक्त (सार्थक) रूप में खण्डित न किया जा सके, रूपिम होता है।
    "ग्लीसन का विचार है- रूपिम न्यूनतम उपयुक्त व्याकरणिक अर्थवान रूप है।
    "आर. एच. रोबिन्स ने व्याकरणिक संदर्भ में रूपिम को इस प्रकार परिभाषित किया है- न्यूनतम व्याकरणिक इकाईयों को रूपिम कहा जाता है। 

    स्वरूप- रूपिम के स्वरूप को उसकी अर्थ-भेदक संरचना के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं। 

    प्रत्येक भाषा में रूपिम व्यवस्था उसकी अर्थ-प्रवृति के आधार पर होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूपिमों में भिन्नता होना स्वभाविक है।
    ____________________________________

     "वाक्य विज्ञान --
    दो या दो से अधिक पदों के सार्थक समूह जिसका पूरा अर्थ निकलता है, उसे वाक्य कहते हैं।

                         -- 

    उदाहरण के लिए 'सत्य की विजय होती है।'
    यह एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु 'सत्य विजय होता।' परन्तु यइस प्रकार यह वाक्य नहीं है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है।

    शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से --

    वह पद -समूह जिससे श्रोता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो।
    भाषा के भाषा-वैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है और क्रिया का होना भी आवश्यक है। 

    क्रियापद और कारक पद से युक्त सेच्छिक ( इच्छा-सहित) अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। जो उद्देश्यांश और विधेयांश वाले सार्थक पदों का समूह हो 

    विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार वाक्य में

    (१) आकांक्षा,
    (२) योग्यता और
    (३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए।
    'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्य अथवा इच्छा का बोध कराते हों। 

    जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा।
    जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। क्यों कि इसमें ऐच्छिकता का क्रमिक अन्वय( सम्बन्ध) है।

    'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो।
    जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा क्योंकि पानी में हाथ जलाने की योग्यता का अभाव है।
    'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का  अधिक व्यवधान अथवा दूरी न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है।
    इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा।
    काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है।

    दर्शनशास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद मानते हैं- 

    "विधि-वाक्य, अनुवाद वाक्य और अर्थवाद -वाक्य किए गए हैं ; इनमें अंतिम के चार भेद- १-स्तुति, २-निंदा, ३-परकृति और ४-पुराकल्प बताए गए हैं। 

    (वक्ता का अभिप्रेत अथवा वक्तव्य की अबाधकता वाक्य का मुख्य उद्देश्य माना गया है।इसी की पृष्ठ भूमि में संस्कृत वैयाकरणों ने वाक्यस्फोट की उद्भावना की है।वाक्यपदोयकार द्वारा स्फोटात्मक वाक्य की अखंड सत्ता स्वीकृत है।

    भाषावैज्ञानिकों की द्दष्टि में वाक्य संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक तत्व होते हैं।

    "शब्दाकृतिमूलक वाक्य के शब्द-भेदानुसार चार भेद हैं—१-समासप्रधान, २-व्यासप्रधान, ३-प्रत्ययप्रधान और ४-विभक्तिप्रधान।
    इन्हीं के आधार पर भाषाओं का भी वर्गीकरण विद्वानों ने किया है। 

    आधुनिक व्याकरण की दृष्टि से वाक्य के संरचना के आधार पर तीन भेद होते हैं—

      १-सरल वाक्य. 

    २-मिश्रित वाक्य और 

    ३-संयुक्त वाक्य।

    तथा अर्थ की दृष्टि से वाक्यों के आठ भेद होते हैं ।________________________________________

    वाक्य – अर्थ की दृष्टि से वाक्य के प्रकार |

    वाक्य किसे कहते हैं?

    सार्थक शब्दों का ऐसा समूह जो व्यवस्थित हो तथा पूरा आशय प्रकट करता हो, वाक्य कहलाता है।

    उदाहरण– 1. सोहन विद्यालय जाता है।

    2. आप की इच्छा क्या है ?

    वाक्यों के प्रकार के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ें और रेखांकित वाक्य पर गौर करें।

    शुभम के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।

     शुभम् उनसे मिलने राजनगर गया। 

    अचानक शुभम् को देखकर अशोक ने कहा- अरे ! शुभम् तुम ! शुभम् ने बताया कि आपसे मिलने का मन हुआ तो चला आया। 

    अशोक ने पूछा- क्या तुम आज ही वापस जाओगे ? शुभम ने उत्तर दिया- मैं आज नहीं जाऊँगा। अशोक ने कहा ठीक है। शायद आज मैं देर से लौटू। तुम बाजार चले जाओ लो ये पैसे, माया के लिए एक अच्छा सूट खरीद लेना। अशोक ने शुभम के साथ भोजन किया और अपने काम पर चला गया। 

    शुभम् बाजार गया।

     उसने एक छोर से दूसरे छोर तक बाजार का चक्कर लगाया किन्तु उसे कपड़ों को कोई अच्छी दुकान दिखाई नहीं दी। आखिरकार एक कोने में उसे कपड़े की एक दुकान नजर आई। 

    उसने वहाँ से माया के लिए एक सूट खरीदा और लौट आया। शाम को अशोक ने बताया कि कल उसकी छुट्टी रहेगी।

     शुभम् ने उसे अपना लाया हुआ मोबाइल दिखाया। 

    अमित ने कहा- मैं चाहता हूँ कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

     मेरे साथ ढेर सारा सामान है। 

    अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी। शुभम् ने कहा- कल हम साथ ही घर चलेंगे।

    ______________ 

    जैसे– शुभम् के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।

    यह शब्द समूह सार्थक है, व्याकरण के नियमों के अनुरूप व्यवस्थित है तथा पूरा आशय प्रकट कर रहा है। अतः यह एक वाक्य है।


    अब रेखांकित वाक्यों को देखें।

    रेखांकित वाक्य अर्थ की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं। 

    _________  

    सामान्यतः वाक्य भेद दो दृष्टियों से किया जाता है -

    1. अर्थ की दृष्टि से

    2. रचना की दृष्टि से

    __________

    हिन्दी व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।

    1. 'ज' का अर्थ, द्विज का अर्थ

    2. भिज्ञ और अभिज्ञ में अन्तर

    3. किन्तु और परन्तु में अन्तर

    4. आरंभ और प्रारंभ में अन्तर

    5. सन्सार, सन्मेलन जैसे शब्द शुद्ध नहीं हैं क्यों

    6. उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, वाचक शब्द क्या है.

    7. 'र' के विभिन्न रूप- रकार, ऋकार, रेफ

    8. सर्वनाम और उसके प्रकार

    __________________

    अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–

    अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं।

    (अ) विधानवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    अशोक राजनगर में रहता है।

    (ब) निषेधवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं।

     इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    मैं आज नहीं जाऊंगा।

    (स) प्रश्नवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    क्या तुम आज ही वापस जाओगे?

    (द) विस्मयादिवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    अरे! शुभम् तुम!!

    इन प्रकरणों 👇 को भी पढ़ें।

    1. हिंदी गद्य साहित्य की विधाएँ

    2. हिंदी गद्य साहित्य की गौण (लघु) विधाएँ

    3. हिन्दी साहित्य का इतिहास चार काल

    4. काव्य के प्रकार

    5. कवि परिचय हिन्दी साहित्य

    6. हिन्दी के लेखकोंका परिचय

    7. हिंदी भाषा के उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचंद

    (ई) आज्ञावाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    तुम बाजार चले जाओ।

    (फ) इच्छावाचक वाक्य– वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    मैं चाहता कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।

    (ग) संदेहवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में कार्य के होने में सन्देह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    शायद मैं आज देर से लौटूँ।

    (ह) संकेतवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।

    ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –

    अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।

    ___________________________

    अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन–

    आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

    जैसे– उपरोक्त अनुच्छेद का विधानवाचक वाक्य–

    "अशोक राजनगर में रहता है।" को लेते हैं– इस वाक्य को सभी प्रकार के वाक्यों में निम्नानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।

    _________

    1. विधानवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में रहता है।

    2. विस्मयादिवाचक वाक्य - अरे! अशोक राजनगर में रहता है।

    3. प्रश्नवाचक वाक्य - क्या अशोक राजनगर में रहता है?

    4. निषेधवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में नहीं रहता है।

    5. संदेहवाचक वाक्य - शायद अशोक राजनगर में रहता है।

    6. आज्ञावाचक वाक्य - अशोक! तुम राजनगर में रहो।

    7. इच्छावाचक वाक्य- काश, अशोक राजनगर में रहता!।

    8. संकेतवाचक वाक्य - यदि अशोक राजनगर में रहना चाहता है तो रह सकता है।


    वाक्यांश--
    शब्दों के ऐसे समूह को जिसका अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता, वाक्यांश (Phrase) कहते हैं। उदाहरण -

    'दरवाजे पर', 'कोने में', 'वृक्ष के नीचे' आदि का अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता इसलिये ये वाक्यांश हैं।
    __________________________________________
    कर्ता और क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद करें
    वाक्य के दो भेद होते हैं-

    उद्देश्य और
    विधेय
    वाक्य में जिसके बारे में कुछ बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं।
    और जो बात उद्देश्य के वाले में की जाय  उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग में रहता है'।
    इसमें उद्देश्य है - 'मोहन' , और विधेय है - 'प्रयाग में रहता है।'
    ________________________________________
    वाक्य के भेद

    वाक्य -भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-

    १- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
    २- रचना के आधार पर वाक्य भेद
    अर्थ के आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं ।
    अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-

     1-विधान वाचक वाक्य,
    2- निषेधवाचक वाक्य,
    3- प्रश्नवाचक वाक्य,
    4- विस्म्यादिवाचक वाक्य,
    5- आज्ञावाचक वाक्य,
    6- इच्छावाचक वाक्य,
    7-संकेतवाचक वाक्य,
    8-संदेहवाचक वाक्य।

    विधानवाचक सूचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है,
    वह विधानवाचक वाक्य कहलाता है।
    उदाहरण -
    भारत एक देश है।
    राम के पिता का नाम दशरथ है।
    दशरथ अयोध्या के राजा हैं।

    निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से कार्य न होने का भाव प्रकट होता है, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। जैसे-
    मैंने दूध नहीं पिया।
    मैंने खाना नहीं खाया।

    प्रश्नवाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार प्रश्न किया जाता है, वह प्रश्नवाचक वाक्य कहलाता है।
    उदाहरण -
    भारत क्या है?
    राम के पिता कौन है?
    दशरथ कहाँ के राजा है?

    आज्ञावाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार की आज्ञा दी जाती है या प्रार्थना की जाती है, वह आज्ञा वाचक वाक्य कहलाता हैं।
    उदाहरण -
    बैठो।
    बैठिये।
    कृपया बैठ जाइये।
    शांत रहो।
    कृपया शांति बनाये रखें।
    इस प्रकार के हिन्दी वाक्यों के अन्त में ओ अथवा ए की ध्वनि निकलती है ।

    विस्मयादिवाचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की गहरी अनुभूति का प्रदर्शन किया जाता है, वह विस्मयादिवाचक वाक्य कहलाता हैं।
    उदाहरण -
    अहा! कितना सुन्दर उपवन है।
    ओह! कितनी ठंडी रात है।
    बल्ले! हम जीत गये।

    इच्छावाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में किसी इच्छा, आकांक्षा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
    उदाहरण- भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
    नववर्ष मंगलमय हो।

    संकेतवाचक वाक्य- जिन वाक्यों में किसी संकेत का बोध होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। उदाहरण-
    राम का मकान उधर है।
    सोनु उधर रहता है।

    संदेहवाचक वाक्य - जिन वाक्य‌ों में सन्देह का बोध होता है, उन्हें सन्देह वाचक वाक्य कहते हैं।
    उदाहरण-
    क्या वह यहाँ आ गया ?
    क्या उसने काम कर लिया ?
    रचना के आधार पर वाक्य के भेद---

    रचना के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-

    (१)सरल वाक्य/साधारण वाक्य :-
    जिनमें एक ही विधेय होता है, उन्हें सरल वाक्य या साधारण वाक्य कहते हैं, इन वाक्यों में एक ही क्रिया होती है;
    जैसे- मुकेश पढ़ता है।
    राकेश ने भोजन किया।

    (२) संयुक्त वाक्य - जिन वाक्यों में दो-या दो से अधिक सरल वाक्य समुच्चयबोधक अव्ययों से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है;
    जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया।
    प्रिय बोलो पर असत्य नहीं।

    (३) मिश्रित/मिश्र वाक्य - जिन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान वाक्य हो और अन्य आश्रित उपवाक्य हों, उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।

    इनमें एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं।

    जैसे - ज्यों ही उसने औषधि सेवन किया, वह सो गया।
    यदि परिश्रम करोगे तो, उत्तीर्ण हो जाओगे।
    मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कार्यअच्छे नहीं होते।

    प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"

    संस्कृत में लकार — एक चिन्तन → 

    उससे निकली देवनागरी वर्णमाला के वर्णों की विभिन्न ध्वनियाँ ( स्वर ) और वे वर्ण जो इन ध्वनियों से अभिव्यञ्जित हुए — व्यञ्जन 

     इन सभी स्वर और व्यञ्जन में एक ऐसा वर्ण भी था जो न पूर्ण स्वर था और न पूर्ण व्यञ्जन ।

     वह वर्ण था — ल् । 


    पहले किसी पोस्ट पर मैंने कहा था कि सृष्टि के पूर्व अखिल ब्रह्माण्ड में एक ही स्वर गुञ्जायमान था — ॐ ! देवनागरी वर्णमाला के जो वर्ण महादेव के डमरू-निनाद से प्रकट हुए, यह उनमें भी नहीं था क्योंकि यह तो अनादिकाल से ब्रह्माण्ड में था ही, सतत सनातन ध्वनि । जब ब्रह्म में सृष्टि की उत्पत्ति की स्फुरणा हुई तो प्रकृति ने ब्रह्म की अध्यक्षता में त्रिविध गुणमयी सृष्टि की रचना की, वह ब्रह्म निमित्त होकर भी अपनी ही स्वभावभूता प्रकृति के संयोग से संसार के रूप में प्रकट भासने लग गया ।

     वह ही भासने लग गया, यह कहने का तात्पर्य है कि वह ही इस सम्पूर्ण दृश्यमान सृजन का उपादान कारण था, सृष्टि में समाया हुआ होकर भी सृष्टि का संचालक नियामक । 

    क्रिया का आरोपण तो प्रकृति पर गया परन्तु वह भी उस चेतना रूपी ब्रह्म के बिना संचालित नहीं थी ।

     – स्वर अर्थात् ध्वनियाँ सीधे-सीधे ब्रह्म की द्योतक हैं और व्यञ्जन प्रकृति के द्योतक ।

    बिना स्वर के प्रकृति कैसे अपने को व्यक्त कर पाती ।

     बिना स्वर के प्रकृति के कार्य-व्यापार कैसे संचालित हो पाते । 

    प्रकृति तो ब्रह्म के बिना सर्वथा अधूरी थी । इसलिए स्वर-स्वरूप ब्रह्म के संयोग से ही प्रकृति-स्वरूप व्यञ्जन अपने को व्यञ्जित कर पाए । तभी तो सारे व्यञ्जन हलन्त ( हल् + अन्त ) हैं । पाणिनि के माहेश्वर सूत्र से व्युत्पन्न प्रत्याहार ‘हल्’ में आने वाले समस्त वर्ण जो बिना स्वर-संयोग के उच्चारण नहीं किये जा सकते थे, हलन्त अर्थात् व्यञ्जन कहलाए ।

      — ल् , जो स्वर भी था और व्यञ्जन भी । अत: प्रकृति के कार्य-व्यापार के संचालन को निर्देशित करने के लिए ‘ल्’ ( लकार ) का प्रयोग सर्वथा सम्यक् प्रतीत हुआ ।

    संस्कृत में क्रिया के Mood को बताने के लिए 10 लकार नियत किये गये । इसमें छ: लकार ‘ट्’–अन्त्यक हैं, लट्, लृट्, लोट्, लिट्, लुट् और लेट् — ये छ: लकार । ट् वर्ण धनुष् की टंकार का वाचक है । टंकार से संकल्प ध्वनित होता है और बिना संकल्प के क्रिया हो नहीं सकती है । ट्-अन्त्यक लकार क्रियाओं में संकल्प को ध्वनित करते हैं । 

    शेष चार लकार ‘ङ्’–अन्त्यक हैं, लङ्, लिङ्, लृङ् और लुङ् — ये चार लकार । ङ् वर्ण इच्छा का बोधक है । किसी इच्छा या इच्छा के भाव ( अपूर्णतार्थ में ) को निर्देशित करने के लिए ‘ङ्’ का उपयोग समीचीन और सम्यक् है ।

     इस प्रकार संकल्प और विषयेच्छा से सृष्टि की समस्त क्रियाएँ संचालित हैं । 

    "लकार -"

    संस्कृत में लट् , लिट् , लुट् , लृट् , लेट् , लोट् , लङ् , लिङ् , लुङ् , लृङ् – ये दस लकार होते हैं। वास्तव में ये दस प्रत्यय ही हैं जो धातुओं में जोड़े जाते हैं।

    इन दसों प्रत्ययों के प्रारम्भ में 'ल' है इसलिए इन्हें 'लकार' कहते हैं ।

    इन दस लकारों में से आरम्भ के छः लकारों के अन्त में 'ट्' है- लट् लिट् लुट् आदि इसलिए ये टित् लकार कहे जाते हैं ।

    और अन्त के चार लकार (ङित् )कहे जाते हैं क्योंकि उनके अन्त में 'ङ्' है। 

    व्याकरणशास्त्र में जब धातुओं से पिबति, खादति आदि रूप सिद्ध किये जाते हैं तब इन टित्" और ङित् "शब्दों का बहुत बार प्रयोग किया जाता है।

    इन लकारों का प्रयोग विभिन्न कालों की क्रिया बताने के लिए किया जाता है। 

    जैसे – जब वर्तमान काल की क्रिया बतानी हो तो धातु से 'लट् लकार' जोड़ देंगे, अनद्यतन परोक्ष भूतकाल की क्रिया बतानी हो तो लिट् लकार जोड़ेंगे।

    (१) लट् लकार (= वर्तमान काल) जैसे :- श्यामः खेलति । ( श्याम खेलता है।)

    (२) लिट् लकार (= अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो । जैसे :-- रामः रावणं ममार। ( राम ने रावण को मारा ।)

    (३) लुट् लकार (= अनद्यतन भविष्यत् काल) जो आज का दिन छोड़ कर आगे होने वाला हो । जैसे :-- सः श्वः विद्यालयं गन्ता। ( वह कल विद्यालय जायेगा ।)

    (४) लृट् लकार (= अद्यतन भविष्यत् काल - सामान्य भविष्य काल) जो आने वाले किसी भी समय में होने वाला हो आज से लेकर कभी भी । जैसे :--रामः इदं कार्यं करिष्यति । (राम यह कार्य करेगा।)

    (५) लेट् लकार (= यह लकार केवल वेद में प्रयोग होता है, ईश्वर की प्रार्थना के लिए, क्योंकि वह किसी काल में बंधा नहीं है।)

    (६) लोट् लकार (= ये लकार आज्ञा, अनुमति लेना, प्रशंसा करना,प्रार्थना आदि में प्रयोग होता है ।) जैसे :-भवान् गच्छतु । (आप जाइए ) ; सः क्रीडतु । (वह खेले) ; त्वं खाद । (तुम खाओ ) ;  अहं किं वदानि । ( मैं क्या बोलूँ ?)

    (७) लङ् लकार (= अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- भवान् तस्मिन् दिने भोजनमपचत् । (आपने उस दिन भोजन पकाया था।)

    (८) लिङ् लकार = इसमें दो प्रकार के लकार होते हैं :--

    (क) आशीर्लिङ् (= किसी को आशीर्वाद देना हो) जैसे :- भवान् जीव्यात् (आप जीओ ) ; त्वं सुखी भूयात् । (तुम सुखी रहो।)


    _________________________________

    लकारों के क्रम में लिङ् लकार के विषय में समझाते हुए हमने इसके दो भेदों का उल्लेख किया था- विधिलिङ् और आशीर्लिङ्। विधिलिङ् लकार के प्रयोग के नियम तो आपने जान लिये। अब आशीर्लिङ् के विषय में बताते हैं। आपने यह वेदमन्त्र तो कभी न कभी सुना ही होगा –

    "मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
    वाचा वदामि मधुमद् ‘भूयासं’ मधुसंदृशः॥

    ( मेरा जाना मधुर हो, मेरा आना मधुर हो। मैं मधुर वाणी बोलूँ, मैं मधु के सदृश हो जाऊँ। अथर्ववेद १।३४।३॥ )

    इसमें जो ‘भूयासम्’ शब्द है, वह भू धातु के आशीर्लिङ् के उत्तमपुरुष एकवचन का रूप है। भू धातु के आशीर्लिङ् में रूप देखिए –___________________________

    भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः
    भूयाः भूयास्तम् भूयास्त
    भूयासम् भूयास्व भूयास्म

    १) इस लकार का प्रयोग केवल आशीर्वाद अर्थ में ही होता है। इसके सन्दर्भ में पाणिनि  ने एक सूत्र लिखा है – “आशिषि लिङ्लोटौ।३।३।१७२॥” अर्थात् आशीर्वाद अर्थ में आशीर्लिङ् लकार और लोट् लकार का प्रयोग करते हैं। जैसे – सः चिरञ्जीवी भूयात् = वह चिरञ्जीवी हो।

    २) इस लकार के प्रयोग बहुत कम दिखाई पड़ते हैं, और जो दिखते भी हैं वे बहुधा भू धातु के ही होते हैं। अतः आपको भू धातु के ही रूप स्मरण कर लेना है।
    ________________________________________

    शब्दकोश :

    ‘गर्भवती’ के पर्यायवाची शब्द –
    (१) आपन्नसत्त्वा
    (२) गुर्विणी
    (३) अन्तर्वत्नी
    (४) गर्भिणी
    (५) गर्भवती

    पतिव्रता स्त्री के पर्यायवाची-
    (१) सुचरित्रा
    (२) सती
    (३) साध्वी
    (४) पतिव्रता

    स्वयं पति चुनने वाली स्त्री के लिए संस्कृत शब्द –
    (१) स्वयंवरा
    (२) पतिंवरा
    (३) वर्या

    वीरप्रसविनी – वीर पुत्र को जन्म देने वाली
    बुधप्रसविनी – विद्वान् को जन्म देने वाली

    उपर्युक्त सभी शब्द स्त्रीलिंग में होते हैं।
    ________________________________________

    वाक्य अभ्यास प्रयोग-:

    यह गर्भिणी वीर पुत्र को उत्पन्न करने वाली हो !
    = एषा आपन्नसत्त्वा वीरप्रसविनी भूयात्।

    ये सभी स्त्रियाँ पतिव्रताएँ हों!
    = एताः सर्वाः योषिताः सुचरित्राः भूयासुः।

    ये दोनों पतिव्रताएँ प्रसन्न रहें!
    = एते सुचरित्रे मुदिते भूयास्ताम्।

    हे स्वयं पति चुनने वाली पुत्री ! तू पति की प्रिय होवे।
    = हे पतिंवरे पुत्रि ! त्वं भर्तुः प्रिया भूयाः।

    तुम दोनों पतिव्रताएँ होवो ।
    = युवां सत्यौ भूयास्तम् ।

    वशिष्ठ ने दशरथ की रानियों से कहा –
    = वशिष्ठः दशरथस्य राज्ञीः उवाच –

    तुम सब वीरप्रसविनी होओ।
    = यूयं वीरप्रसविन्यः भूयास्त ।

    मैं मधुर बोलने वाला होऊँ।
    = अहं मधुरवक्ता भूयासम्।

    सावित्री ने कहा –
    सावित्री उवाच

    मैं स्वयं पति चुनने वाली होऊँ।
    = अहं वर्या भूयासम्।

    माद्री और कुन्ती ने कहा –
    माद्री च पृथा च ऊचतुः –

    हम दोनों वीरप्रसविनी होवें।
    = आवां वीरप्रसविन्यौ भूयास्व ।

    हम सब राष्ट्रभक्त हों।
    वयं राष्ट्रभक्ताः भूयास्म ।

    हम सब चिरञ्जीवी हों।
    = वयं चिरञ्जीविनः भूयास्म।
    _______________________________________

    श्लोक :

    एकः स्वादु न भुञ्जीत नैकः सुप्तेषु जागृयात्।
    एको न गच्छेत् अध्वानं नैकः चार्थान् प्रचिन्तयेत्॥
    (पञ्चतन्त्र)

    स्वादिष्ट भोजन अकेले नहीं खाना चाहिए, सोते हुए लोगों में अकेले नहीं जागना चाहिए, यात्रा में अकेले नहीं जाना चाहिए और गूढ़ विषयों पर अकेले विचार नहीं करना चाहिए।

    इस श्लोक में जितने भी क्रियापद हैं वे सभी विधिलिङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन के हैं।



    (ख) विधिलिङ् (= किसी को विधि बतानी हो ।) जैसे :- भवान् पठेत् । (आपको पढ़ना चाहिए।) ; अहं गच्छेयम् । (मुझे जाना चाहिए।

    (९) लुङ् लकार (= अद्यतन भूत काल) आज का भूत काल) जो आज कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- अहं भोजनम् अभक्षत् । (मैंने खाना खाया।)

    (१०) लृङ् लकार हेतुहेतुमद्भविष्य काल(= ऐसा भविष्य काल जिसका प्रभाव वर्तमान तक हो  जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो । जैसे :- यदि त्वम् अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् भवितुम् अर्हिष्यत् । (यदि तुम पढ़गे तो विद्वान् बनोगे।)

    इस बात को स्मरण रखने के लिए कि धातु से कब किस लकार को जोड़ेंगे, निम्नलिखित श्लोक स्मरण कर लीजिए-

    लट् -वर्तमाने लेट् -वेदे भूते- लुङ् लङ् लिटस्‍तथा ।
    विध्‍याशिषोर्लिङ् लोटौ च लुट् लृट् लृङ् च भविष्‍यति ॥
    (अर्थात् लट् लकार वर्तमान काल में, लेट् लकार केवल वेद में, भूतकाल में लुङ् लङ् और लिट्, विधि और आशीर्वाद में लिङ् और लोट् लकार तथा भविष्यत् काल में लुट् लृट् और लृङ् लकारों का प्रयोग किया जाता है।)
    लकारों के नाम याद रखने की विधि-

    ल् में प्रत्याहार के क्रम से ( अ इ उ ऋ ए ओ ) जोड़ दें और क्रमानुसार 'ट' जोड़ते जाऐं । फिर बाद में 'ङ्' जोड़ते जाऐं जब तक कि दश लकार पूरे न हो जाएँ । जैसे लट् लिट् लुट् लृट् लेट् लोट् लङ् लिङ् लुङ् लृङ् ॥ इनमें लेट् लकार केवल वेद में प्रयुक्त होता है । लोक के लिए नौ लकार शेष रहे|

    "समास:"

    १) द्वन्द्व

    २) तत्पुरुष

    ३) कर्मधारय

    ४) बहुव्रीहि

    ५) अव्ययीभाव

    ६) द्विगु समास क्रिया पदों में नहीं होता। समास के पहले पद को 'पूर्व पद' कहते हैं, बाकी सभी को 'उत्तर पद' कहते हैं।

    समास मुख्य क्रियापद में नहीं होता गौण क्रियापद में होता है। समास के पहले पद को 'पूर्व पद' कहते हैं, बाकी सभी को 'उत्तर पद' कहते हैं।

    समास के तोड़ने को विग्रह कहते हैं, जैसे -- "रामश्यामौ" यह समास है और रामः च श्यामः च (राम और श्याम) इसका विग्रह है।

    संस्कृत व्याकरण शब्दावली-

    संस्कृत शब्दतुल्य अंग्रेजीपाणिनि द्वारा प्रयुक्त शब्द
    विशेषण/ क्रिया विशेषण-adjective
    adverb
    agreement
    महाप्राणaspirated
    आत्मनेपदātmanepada
    विभक्ति/
     कारक
    case
    प्रथमाcase 1 (subject)
    द्वितीयाcase 2 (object)
    तृतीयाcase 3 ("with")
    चतुर्थीcase 4 ("for")
    पञ्चमीcase 5 ("from")
    षष्ठीcase 6 ("of")
    सप्तमीcase 7 ("in")
    संबोधनcase 8 (address)
    causal verbणिजन्त
    आज्ञाcommand moodलोट्
    समासcompound (word)
    संध्यक्षरcompound vowelएच्
    संकेतconditional moodलृङ्
    व्यञ्जनconsonantहल्
    desiderativeसन्नन्त
    अनद्यतनdistant future tenseलुट्
    परोक्षभूतdistant past tenseलिट्
    अभ्यासdoubling
    द्विवचनdual (number)
    द्वन्द्वdvandva
    स्त्रीलिङ्गfeminine gender
    उत्तमfirst person
    लिङ्गgender
    gerundक्त्वान्त
    grammatical case
    व्याकरणgrammar
    तालुhard palate
    गुरुheavy (syllable)
    intensiveयणन्त
    लघुlight (syllable)
    ओष्ठlip
    दीर्घlong vowel
    पुंलिङ्गmasculine gender
    गुणmedium vowel
    अनुनासिकnasal
    नपुंसकलिङ्गneuter gender
    noun endingसुप्
    नामधातुnoun from verb
    nounसुबन्त
    वचनnumber
    कर्मन्object
    विधिoption moodलिङ्
    भविष्यन्ordinary future tense
    अनद्यतनभूतordinary past tenseलङ्
    परस्मैपदparasmaipada
    participle
    पुरुषpersonपुरुष
    बहुवचनplural (number)
    स्थानpoint of pronunciation
    prefix
    वर्तमानpresent tenseलट्
    कृत्primary (suffix)
    सर्वनामन्pronoun
    भूतrecent past tenseलुङ्
    ऊष्मन्"s"-sound
    sandhi
    मध्यमsecond personमध्यम
    तद्धितsecondary (suffix)
    अन्तःस्थsemivowel
    ह्रस्वshort vowel
    समानाक्षरsimple vowel
    एकवचनsingular (number)
    कण्ठsoft palate
    प्रातिपदिकstem (of a noun)
    अङ्गstem (of any word)
    स्पर्शstop
    वृद्धिstrong vowel
    कर्तृsubject
    प्रत्ययsuffix
    अक्षरsyllable
    प्रथमthird person
    दन्तtooth
    उभयपदubhayapada
    अल्पप्राणunaspirated
    अव्ययuninflected wordअव्यय
    अघोषunvoiced
    गणverb class
    verb endingतिङ्
    उपसर्गverb prefixउपसर्ग
    धातुverb root
    verbतिङन्त
    verbless sentence
    घोषवत्voiced
    स्वरvowelअच्

    _________________________
    "गम्=जाना"
    लट्(वर्तमान)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०गच्छतिगच्छतःगच्छन्ति
    मपु०गच्छसिगच्छथःगच्छथ
    उप०गच्छामिगच्छावःगच्छामः
    लिट्-(अनद्यतनपरोक्षभूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०जगामजग्मतुःजग्मुः
    मपु०जगमिथ/जगन्थजग्मथुःजगम
    उपु०जगम/जगामजग्मिवजग्मिम
    लुट्(जो आज का भविष्य न हो-अनद्यतन भविष्यत्काल)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०गन्तागन्तारौगन्तारः
    मपु०गन्तासिगन्तास्थःगन्तास्थ
    उपु०गन्तास्मिगन्तास्वःगन्तास्मः
    लृट्लकार(आज का -अद्यतन भविष्यत्)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०गमिष्यतिगमिष्यतःगमिष्यन्ति
    मपु०गमिष्यसिगमिष्यथःगमिष्यथ
    उपु०गमिष्यामिगमिष्यावःगमिष्यामः
    लोट् लकार(आज्ञार्थ)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०गच्छतु/गच्छतात्गच्छताम्गच्छन्तु
    मपु०गच्छ/गच्छतात्गच्छतम्गच्छत
    उपु०गच्छानिगच्छावगच्छाम
    लङ्(जो आज का भूत न हो।=अनद्यतन भूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अगच्छत्अगच्छताम्अगच्छन्
    मपु०अगच्छःअगच्छतम्अगच्छत
    उपु०अगच्छम्अगच्छावअगच्छाम
    विधिलिङ् लकार-
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०गच्छेत्गच्छेताम्गच्छेयुः
    मपु०गच्छेःगच्छेतम्गच्छेत
    उपु०गच्छेयम्गच्छेवगच्छेम
    आशीर्लिङ् लकार-
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०गम्यात्गम्यास्ताम्गम्यासुः
    मपु०गम्याःगम्यास्तम्गम्यास्त
    उपु०गम्यासम्गम्यास्वगम्यास्म
    लुङ्(आज का-अद्यतन भूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अगमत्अगमताम्अगमन्
    मपु०अगमःअगमतम्अगमत
    उपु०अगमम्अगमावअगमाम

    लृङ्(हेतुहेतुमद्भविष्यत्)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अगमिष्यत्अगमिष्यताम्अगमिष्यन्
    मपु०अगमिष्यःअगमिष्यतम्अगमिष्यत
    उपु०अगमिष्यम्अगमिष्यावअगमिष्याम
    संस्कृत भाषा में लकार कुल दस होते हैं।
    • लट् लकार (Present Tense)
    • लोट् लकार (Imperative Mood)
    • लङ्ग् लकार (Past Tense)
    • लृट् लकार (Second Future Tense)
    • विधिलिङ्ग् लकार (Potential Mood)
    • आशीर्लिङ् लकार (Benedictive Mood)
    • लिट् लकार (Past Perfect Tense)
    • लुट् लकार (First Future Tense or Periphrastic)
    • लृङ् लकार (Conditional Mood)
    • लुङ् लकार (Perfect Tense)

    उनमें से सबसे मुख्य पाँच लकार होते हैं। (लट् लकार, लङ् लकार, लोट् लकार, लृट् लकार तथा विधि लिङ् लकार) ही प्रचलन में है और इन्ही संस्कृत लाकर का सबसे ज्यादा प्रयोग भी किया जाता है।

    इस बात को स्मरण रखने के लिए कि धातु से कब किस लकार को जोड़ेंगे, निम्न श्लोक स्मरण कर लीजिए-

    "लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूते लुङ् लङ् लिटस्‍तथा 
    विध्‍याशिषोर्लिङ् लोटौ च लुट् लृट् लृङ् च भविष्‍यति ॥

    अर्थात् लट् लकार वर्तमान काल में, लेट् लकार केवल वेद में, भूतकाल में लुङ् लङ् और लिट्, विधि और आशीर्वाद में लिङ् और लोट् लकार तथा भविष्यत् काल में लुट् लृट् और लृङ् लकारों का प्रयोग किया जाता है

    लट् लकार (Present Tense)

    लट् लकार – (वर्तमान काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत वर्तमान काल में लट् लकार का प्रयोग होता है। क्रिया के जिस रूप से कार्य का वर्तमान समय में होना पाया जाता है, उसे वर्तमान काल कहते हैं, जैसे- राम घर जाता है- रामः गृहं गच्छति। इस वाक्य में ‘जाना’ क्रिया का प्रारम्भ होना तो पाया जाता है, लेकिन समाप्त होने का संकेत नहीं मिल रहा है। ‘जाना’ क्रिया निरन्तर चल रही है। अतः यहाँ वर्तमान काल है। क्रिया सदैव अपने कर्ता के अनुसार ही प्रयुक्त होती है। कर्त्ता जिस पुरुष, वचन तथा काल का होता है, क्रिया भी उसी पुरुष, वचन तथा काल की ही प्रयुक्त होती है। यह स्पष्ट ही किया जा चुका है कि मध्यम पुरुष में युष्मद् शब्द (त्वम्) के रूप तथा उत्तम पुरुष में अस्मद् शब्द (अहम्) के रूप ही प्रयुक्त होते हैं। शेष जितने भी संज्ञा या सर्वनाम के रूप हैं, वे सब प्रथम पुरुष में ही प्रयोग किये जाते हैं।

    1. युष्मद् तथा अस्मद् के रूप स्त्रीलिंग तथा पुल्लिंग में एक समान ही होते हैं।

    2. वर्तमान काल की क्रिया के आगे ‘स्म‘ जोड़ देने पर वह भूतकाल की हो जाती है, जैसे– रामः गच्छति। (राम जाता है), वर्तमान काल- रामः गच्छति स्म। (राम गया था) भूत काल।

    लोट् लकार (Imperative Mood)

    लोट् लकार – (आज्ञार्थक), वाक्य, उदाहरण, अर्थ, आज्ञा, प्रार्थना अनुमति, आशीर्वाद आदि का बोध कराने के लिये लोट् लकार का प्रयोग किया जाता है।

    लङ् लकार (Past Tense)

    लङ् लकार – (अनद्यतन भूत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. अनद्यतन भूत में लङ् लकार होता है, जो कार्य आज से पूर्व हो चुका है अर्थात् क्रिया आज समाप्त नहीं हुई बल्कि कल या उससे भी पूर्व हो चुकी है, वह अनद्यतन भूत-काल होता है।

    लृट् लकार (Second Future Tense)

    लृट् लकार – (सामान्य भविष्यत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. सामान्य भविष्यत काल में ‘लुट् लकार’ का प्रयोग किया जाता है। क्रिया के जिस रूप से उसके भविष्य में सामान्य रूप से होने का पता चले, उसे ‘सामान्य भविष्यत काल’ कहते हैं; जैसे – विमला पुस्तकं पठिष्यति। (विमला पुस्तक पढ़ेगी।)

    विधिलिङ् लकार (Potential Mood)

    विधिलिङ् लकार – (चाहिए के अर्थ में), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत विधि (चाहिये)निमन्त्रण, आदेश, विधान, उपदेश, प्रश्न तथा प्रार्थना आदि अर्थों का बोध कराने के लिये विधि लिङ् लकार का प्रयोग किया जाता है ।

    आशीर्लिङ्लकार (Benedictive Mood)

    आशीर्लिङ्-लकार – (आशीर्वादात्मक), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. आशीर्वाद के अर्थ में आशीलिङ् लकार का प्रयोग किया जाता है, जैसे– रामः विजीयात्। (राम विजयी हो।) 

    लिट् लकार (Past Perfect Tense)

    लिट् लकार –(परोक्ष अनद्यतन भूत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ –संस्कृत. ‘परोक्ष भूत काल’ में लिट् लकार का प्रयोग होता है। जो कार्य आँखों के सामने पारित न होता है, उसे परोक्ष भूतकाल कहते हैं।

    ______________________________

    उत्तम पुरुष में लिट् लकार का प्रयोग केवल स्वप्न या उन्मत्त अवस्था में ही होता है; जैसे– सुप्तोऽहं किल विललाप। (मैंने सोते में विलाप किया।)
    या जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो । जैसे :– रामः रावणं ममार । ( राम ने रावण को मारा ।)

    लुट् लकार (First Future Tense or Periphrastic)

    लुट् लकार – (अनद्यतन भविष्यत काल) में लुट् लकार का प्रयोग होता है। बीती हुई रात्रि के बारह बजे से, आने वाली रात के बारह बजे तक के समय को ‘अद्यतन’ (आज का समय) कहा जाता है। 

    आने वाली रात्रि के बारह बजे के बाद का जो समय होता है उसे अनद्यतन भविष्यत काल कहते हैं; जैसे – अहं श्व: गमिष्यामि। (मैं कल जाऊँगा)यद्यपि यह वाक्य व्याकरण की दृष्टि से सम्यक् नहीं हैं।

    लृङ् लकार (Conditional Mood)

    लृङ् लकार – (हेतु हेतुमद भूतकाल/ भविष्य काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. क्रियातिपत्ति में लृङ् लकार होता है। जहाँ पर भूतकाल की एक क्रिया दूसरी क्रिया पर आश्रित होती है, वहाँ पर हेतु हेतुमद भूतकाल होता है। इस काल के वाक्यों में एक शर्त सी लगी होती है; जैसे– यदि अहम् अपठिष्यम् तर्हि विद्वान अभविष्यम्। (यदि मैं पढ़ता तो विद्वान् हो जाता।). जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो । जैसे :- यदि त्वम् अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् भवितुम् अर्हिष्यत् । (यदि तू पढ़ता तो विद्वान् बनता।)

    लुङ् लकार (Perfect Tense)

    लुङ् लकार – (सामान्य भूत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. लुङ् लकार में सामान्य भूत काल का प्रयोग होता है। क्रिया के जिस रूप में भूतकाल के साधारण रूप का बोध होता है, उसे सामान्य भूत काल कहते हैं। सामान्य भूत काल का प्रयोग प्रायः सभी अतीत कालों के लिये किया जाता है; जैसे– अहं पुस्तकम् अपाठिषम्। (मैंने पुस्तक पढ़ी।)

    लट्(वर्तमान) डी =विहायसा गतौ-
    आत्मनेपदीय
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०डयतेडयेतेडयन्ते
    मपु०डयसेडयेथेडयध्वे
    उपु०डयेडयावहेडयामहे
    लिट्(परोक्ष अनद्यतनभूत काल)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०डिड्येडिड्यातेडिड्यिरे
    मपु०डिड्यिषेडिड्याथेडिड्यिध्वे/डिड्यिढ्वे
    उपु०डिड्येडिड्यिवहेडिड्यिमहे
    लुट्(अनद्यतन भविष्यत्)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०डयिताडयितारौडयितारः
    मपु०यितासेडयितासाथेडयिताध्वे
    उपु०डयिताहेडयितास्वहेडयितास्महे
    लृट्(अद्यतन भविष्यत्)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०डयिष्यतेडयिष्येतेडयिष्यन्ते
    मपु०डयिष्यसेडयिष्येथेडयिष्यध्वे
    उपु०डयिष्येडयिष्यावहेडयिष्यामहे
    लोट्(आज्ञार्थ)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०(डयताम्)(डयेताम्)डयन्ताम्
    मपु०डयस्वडयेथाम्डयध्वम्
    उपु०डयैडयावहैडयामहै
    लङ्(अनद्यतन भूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अडयतअडयेताम्अडयन्त
    मपु०अडयथाःअडयेथाम्अडयध्वम्
    उपु०अडयेअडयावहिअडयामहि
    विधिलिङ्
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०डयेतडयेयाताम्डयेरन्
    मपु०डयेथाःडयेयाथाम्डयेध्वम्
    उपु०डयेयडयेवहिडयेमहि
    आशीर्लिङ्
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०डयिषीष्टडयिषीयास्ताम्डयिषीरन्
    मपु०डयिषीष्ठाःडयिषीयास्थाम्डयिषीढ्वम्/डयिषीध्वम्
    उपु०डयिषीयडयिषीवहिडयिषीमहि
    लुङ्(अद्यतन भूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अडयिष्टअडयिषाताम्अडयिषत
    मपु०अडयिष्ठाःअडयिषाथाम्अडयिध्वम्/अडयिढ्वम्
    उपु०अडयिषिअडयिष्वहिअडयिष्महि
    लृङ्(हेतुहेतमद्-भविष्यत्काल)
    एकवद्विवबहुव
    प्रपु०अडयिष्यतअडयिष्येताम्अडयिष्यन्त
    मपु०अडयिष्यथाःअडयिष्येथाम्अडयिष्यध्वम्
    उपु०अडयिष्येअडयिष्यावहिअडयिष्यामहि

    ★-हे बालक तुम कल विद्यालय जाओगे।

    -भो बालक: ! त्वं श्व: विद्यालयं गन्तासि।

    ★-हे मित्र हम कल वृन्दावन में सन्तों के पास जाऐंगे-

    -भो मित्र! वयं श्वो वृन्दावने सताम् समीपं गन्तास्म:

    सत् -साधुओं की परिभाषा में वह संप्रदायमुक्त साधु या संत जो विवाह करके गृहस्थ बन गया हो। यद्यपि सन्त: शब्द  "सत् का बहुवचन रूप है।संस्कृत भाषा तथा कोशों में सन्त: शब्द मूल रूप से नहीं है । सम्मान देने के लिए बहुवचन का ही प्रयोग होता है।

    सन्त:=१-संहतलः अथवा अञ्जलि।  इति शब्दचन्द्रिका ॥  २-सच्छब्दस्य ( सत्-शब्दस्य) प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥ (यथा रघुःवंश महाकाव्यं। १ । १० ।

    रघुवंशमहाकाव्यं-१.१०

    तं सन्तःश्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः। हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥

    पदविभागः-
    तं सन्तः श्रोतुम् अर्हन्ति सद्-असद्-व्यक्तिहेतवः । हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिःश्यामिकाअपि वा॥

    अन्वयःकर्तृवाच्य-
    सदसद्व्यक्ति-हेतवः (सन्तः तं श्रोतुम् अर्हन्ति) हि (यतः) हेम्नः विशुद्धिः वा श्यामिका अपि अग्नौ संलक्ष्यते ॥1.10॥

    वाच्यपरिवर्तनम्-कर्मवाच्य-
    सदसद्व्यक्तिहेतुभिः (सद्भिः स श्रोतुं अर्हते)। हि हेम्नः विशुद्धि वा श्यामिकाम् अपि अग्नौ (जनाः) संलक्षयन्ति ॥

    सरलार्थः
    यथा हि सुवर्णस्योत्कृष्टता वह्नितापेन निर्णीयते तथा काव्यस्य गुणो दोषो वा सहृदयानां पण्डितानां विचारेणैव निर्णीयते। अत एव मदीयं काव्यमिदं सहृदयैः सद्भिरेव श्रोतव्यम्। हेमतुल्यं काव्यं वह्नितुल्ये सहृदयहृदये परीक्षणीयम् ॥

    तात्पर्यम्
    उस वंश को सुनने को सत्य- असत्य का निर्णय करने वाले (सन्त ही योग्य होते हैं)। सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥
            ★– सरल संस्कृत व्याकरणम्- प्रस्तुतिकरण-यादव योगेश कुमार "रोहि"


    saint (n.)early 12c. as an adjective, seinte, "holy, divinely inspired, worthy of worship," used before proper names (Sainte Marian Magdalene, etc.), 

    from Old French saint, seinte "holy, pious, devout,"

    from Latin sanctus "holy, consecrated," past participle of sancire!

     "consecrate" (see -sacred). 

    It displaced or altered Old Englishsanct, which is directly from Latin sanctus.

    From an adjective prefixed to the name of a canonized person, it came to be used in English by c. 1200 as a noun, 

    "a specific canonized Christian," also "one of the elect, a member of the body of Christ, one consecrated or set apart to the service of God," also in an Old Testament sense "a pre-Christian prophet."

    It is attested by late 13c. as "moral or virtuous person, one who is pure or upright in heart and life."

    The adjectives also were used as nouns in Late Latin and Old French: "a saint; a holy relic.

    _________

    "The Latin word also is the source of Spanish santo, santa, Italian san, etc.,

    __________

    and also ultimately the source of the word in most Germanic languages (Old Frisian sankt, Dutch sint, German Sanct).

    Perhaps you have imagined that this humility in the saints is a pious illusion at which God smiles. 

    _______

    That is a most dangerous error. It is theoretically dangerous, because it makes you identify a virtue (i.e., a perfection) with an illusion (i.e., an imperfection), which must be nonsense. It is practically dangerous because it encourages a man to mistake his first insights into his own corruption for the first beginnings of a halo round his own silly head. No, depend upon it; when the saints say that they—even they—are vile, they are recording truth with scientific accuracy. [C.S. Lewis, "The Problem of Pain," 1940]

    saint (v.)

    _______

    "to enroll (someone) among the saints," c. 1200, in beon isontet "be sainted," from saint (n.) or from Old French santir. Related: Sainted; sainting.

    Entries linking to saint

    sacred (adj.)

    late 14c., "hallowed, consecrated, or made holy by association with divinity or divine things or by religious ceremony or sanction," past-participle adjective from a now-obsolete verb sacren "to make holy" (c. 1200), from Old French sacrer "consecrate, anoint, dedicate" (12c.) or directly from Latin sacrare= "to make sacred, consecrate; hold sacred; immortalize; set apart, dedicate," from sacer (genitive sacri) "sacred, dedicated, holy, accursed." OED writes that, in sacred, "the original ppl. 

    notion (as pronunciation indicates) disappeared from the use of the word, which is now nearly synonymous with L. sacer."

    This is from Old Latin saceres, from PIE root *sak= "to sanctify." Buck groups it with Oscan sakrim, Umbrian sacra and calls it "a distinctive Italic group, without any clear outside connections." De Vaan has it from a PIE root =*shnk- "to make sacred, sanctify," and finds cognates in Hittite= šaklai "custom, rites," zankila "to fine, punish." Related: Sacredness. The Latin nasalized form is sancire "make sacred, confirm, ratify, ordain" (as in saint, sanction). 

    An Old English word for "sacred" was godcund.

    The meaning "of or pertaining to religion or divine things" (opposed to secular or profane) is by c. 1600. 

    The transferred sense of "entitled to respect or reverence" is from 1550s. Sacred cow as an object of Hindu veneration is by 1793; 

    its figurative sense of "one who or that which must not be criticized" is in use by 1910 in U.S. journalism, reflecting Western views of Hinduism. Sacred Heart "the heart of Jesus as an object of religious veneration" is by 1823, short for Sacred Heart of Jesus or Mary.

    sainthood (n.)

    "state or condition of being a saint," 1540s, from saint (n.) + -hood. Saintship is attested from c. 1600; saintdom from 1842 (Tennyson).

    saintly

    sanctification

    sanctify

    sanctimony

    sanction

    sanctitude

    sanctity

    sanctuary

    sanctum

    Sanctus

    sangrail

    santa

    See all related words (14) >

    Others are reading

    ______________

    Definitions of saint

    saint (n.)

    a person who has died and has been declared a saint by canonization;

    saint (n.)

    ___

    person of exceptional holiness;

    Synonyms: holy man / holy person / angel

    saint (n.)

    model of excellence or perfection of a kind; one having no equal;

    Synonyms: ideal / paragon / nonpareil / apotheosis / nonesuch / nonsuch

    2

    saint (v.)

    hold sacred;

    Synonyms: enshrine

    saint (v.)

    declare (a dead person) to be a saint;

    Synonyms: canonize / canonise

    From wordnet.princeton.edu

    Dictionary entries near saint

    sail-cloth

    _____________

    संत (सं.)

    12 सदी की शुरुआत एक विशेषण के रूप में, seinte,शब्द "पवित्र, दैवीय रूप से प्रेरित, पूजा के योग्य," उचित नामों से पहले उपयोग किया जाता है (जैसे-सैंट मैरियन मैग्डलीन, आदि),

    पुराने फ्रांसीसी संत, सिन्ते से इसका विकास हुआ जिसका अर्थ है । "पवित्र, भक्त," 

    लैटिन सैंक्टस से "पवित्र," पवित्रता के पिछले कृदंत!

    "पवित्र" (पवित्र देखें)।

    यह विस्थापित या पुरानी अंग्रेज़ी में बदल दिया, जो सीधे लैटिन अभयारण्य से है।

    एक विहित व्यक्ति के नाम से पहले संज्ञा के रूप में  एक विशेषण , यह अंग्रेजी में 1200 सदी के द्वारा उपयोग किया जाने लगा। 

    "एक विशिष्ट विहित ईसाई," भी "चुने हुए लोगों में से एक, मसीह के शरीर का एक सदस्य, एक पवित्रा या भगवान की सेवा के लिए अलग किया गया ," एक पुराने नियम के अर्थ में "एक पूर्व-ईसाई भविष्यवक्ता।" को सन्त कहा गया है ।

    यह देर से 13 वीं सदी द्वारा प्रमाणित है। "नैतिक या गुणी व्यक्ति के रूप में, जो दिल और जीवन में शुद्ध या सीधा है। वह सन्त है"

    देर से लैटिन और पुरानी फ्रांसीसी में विशेषणों को संज्ञा के रूप में भी इस्तेमाल किया गया था: "एक संत; एक पवित्र अवशेष।

    _________

    "लैटिन शब्द भी स्पेनिश सैंटो, सांता, इटालियन सान, आदि का स्रोत है,

    __________

    और अंततः अधिकांश जर्मनिक भाषाओं में शब्द का स्रोत (ओल्ड फ़्रिसियाई सांक्ट, डच सिंट, जर्मन सैंक्ट) है।

    शायद आपने सोचा होगा कि संतों में यह विनम्रता एक पवित्र भ्रम है जिस पर भगवान मुस्कुराते हैं।

    _______

    यह सबसे खतरनाक त्रुटि है। यह सैद्धांतिक रूप से खतरनाक है, क्योंकि यह आपको एक भ्रम (यानी, एक अपूर्णता) के साथ एक गुण (यानी, एक पूर्णता) की पहचान कराता है, जो बकवास होना चाहिए। यह व्यावहारिक रूप से खतरनाक है क्योंकि यह एक व्यक्ति को अपने स्वयं के मूर्ख सिर के चारों ओर एक प्रभामंडल की पहली शुरुआत के लिए अपने स्वयं के भ्रष्टाचार में अपनी पहली अंतर्दृष्टि को गलती करने के लिए प्रोत्साहित करता है ऐसा  नहीं है।, 

    इस पर निर्भर; जब संत कहते हैं कि वे—यहां तक ​​कि—वे भी नीच हैं, वे वैज्ञानिक सटीकता के साथ सत्य को दर्ज कर रहे हैं।सन्दर्भ [सी.एस. लुईस, "द प्रॉब्लम ऑफ़ पेन," 1940]

    संत (वि.)

    _______

    "संतों के बीच (किसी को) नामांकन करने के लिए, 1200,वी सदी में बीन आइसोनेट में "बी संत", संत (एन.) से या पुराने फ्रांसीसी संतिर से। संबंधित: संत; 

    संत से जुड़ने वाली प्रविष्टियां

    पवित्र (सं.)

    देर से 14वी सदी  "पवित्र,  या दिव्यता या दैवीय चीजों के साथ या धार्मिक समारोह या स्वीकृति के द्वारा पवित्र बनाया गया," अतीत-कृदंत विशेषण अब-अप्रचलित क्रिया पवित्र से "पवित्र बनाने के लिए"  1200)वी सदी, से पुराने फ्रांसीसी संत "अभिषेक, , समर्पण" (12 सी।) या सीधे से लैटिन सेकर-sacrare = "पवित्र बनाने के लिए, पवित्र करना; पवित्र रखना; अमर करना; अलग करना, समर्पित करना,"  (यौगिक पवित्र) "पवित्र, समर्पित, पवित्र, शापित।" ओईडी लिखता है कि, पवित्र में, "मूल पीपीएल।

    धारणा (जैसा कि उच्चारण इंगित करता है) शब्द के उपयोग से गायब हो गया, जो अब लगभग एल सेसर का पर्याय बन गया है।"

    यह पुराने लैटिन सेसेरेस से है, पीआईई रूट *sak= "पवित्रीकरण" से। buck इसे Oscan sakrim, Umbrian sacra के साथ समूहित करता है और इसे "एक विशिष्ट इटैलिक समूह, बिना किसी स्पष्ट बाहरी कनेक्शन के" कहता है। दे वान ने इसे एक पीआईई रूट = * शंक- "पवित्र, पवित्र बनाने के लिए" से प्राप्त किया है और हित्ती = aklai "कस्टम, संस्कार," ज़ंकिला "ठीक करने, दंडित करने के लिए" में संज्ञेय पाता है। 

    संबंधित: पवित्रता। लैटिन नासिकाकृत रूप पवित्र है "पवित्र बनाओ, पुष्टि करें,  आदेश दें" (संत, स्वीकृति के रूप में)।

    "पवित्र" के लिए एक पुराना अंग्रेज़ी शब्द गॉडकुंड था।

    अर्थ "या धर्म या दैवीय चीजों से संबंधित" (धर्मनिरपेक्ष या अपवित्र के विपरीत)1600 वी सदी द्वारा है। .

    "सम्मान या सम्मान के हकदार" की स्थानांतरित भावना 1550 के दशक से है। हिंदू पूजा की वस्तु के रूप में पवित्र गाय 1793 तक है;

    _______________________

    1910 तक अमेरिकी पत्रकारिता में " सन्त वह है जो या जिसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए" का लाक्षणिक अर्थ हिंदू धर्म के पश्चिमी विचारों को दर्शाता है। 

    पवित्र हृदय "धार्मिक पूजा की वस्तु के रूप में यीशु का हृदय" 1823 तक, यीशु या मैरी के पवित्र हृदय के लिए छोटा है।

    ______________________________

    संत की परिभाषा

    संत (सं.)

    एक व्यक्ति जो मर गया है और संत घोषित कर दिया गया है

    ___

    असाधारण पवित्रता के व्यक्ति;

    समानार्थी: पवित्र व्यक्ति / पवित्र व्यक्ति / देवदूत

    संत (सं.)

    एक प्रकार की उत्कृष्टता या पूर्णता का मॉडल; जिसका कोई समाना न हो;

    __________________________________________

    ( लुङ् लकार )

    लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूते लुङ् लङ् लिटस्तथा 
    विध्याशिषोस्तु लिङ्लोटौ लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥

    इस श्लोक को आप ठीक से स्मरण रखिए। वर्तमान काल के लिए प्रयुक्त होने वाले (लट् लकार) के विषय में बता दिया गया। 

    लेट् लकार केवल और केवल वेद में ही पाया जाता है ।

    अब भूतकाल के लिए प्रयुक्त होने वाले लकारों के विषय में समझते हैं। 

    भूतकाल के लिए तीन लकार प्रयुक्त होते हैं- “भूते लुङ् लङ् लिटस्तथा”

    सबसे पहला है लुङ् लकार, इसी के विषय पहले चर्चा करते हैं। सामान्य रूप से आप भूतकाल के लिए इन तीनों में से किसी का भी प्रयोग कर सकते हैं किन्तु कुछ विशेष नियम जान लीजिए जिससे भाषा में उत्कृष्टता आ जाएगी। 

    ___________

    भू (होना), लुङ् लकार
    अभूत् (वह हुआ)/ अभूताम् (वे दोनों हुए) /अभूवन् (वे सब हुए)
    अभूः (तू हुआ)/ अभूतम् ( तुम दोनों हुए)/ अभूत (तुम सब हुए)
    अभूवम् (मैं हुआ)/ अभूव (हम दोनों हुए)/ अभूम (हम सब हुए)

    __________________________

    लुङ् लकार के विषय में निम्नलिखित नियम स्मरण रखिए –

    (१) सबसे पहली बात तो यह स्मरण रखिए कि लुङ् लकार का प्रयोग ‘सामान्य भूतकाल’ के लिए होता है।

    ______________________

     -लकार का प्रयोग होगा

    ___________


    ____________________________________

    अनद्यतन' इत्युक्ते यत् अद्यतन न, तत् । अनद्यतनकाले भविष्यमाणां क्रियां दर्शयितुम् लुट्-लकारः प्रयुज्यते । 
    यथा - 
    १-सः (श्वः) विद्यालयं गन्ता ।
    २-अहं (अग्रिमसप्ताहे) व्याकरणम् पठितास्मि । 
    ३-ते (अग्रिमवर्षे)स्नातकाः भवितारः ।

    ज्ञातव्यम् - एतत् सूत्रम् लृट् शेषे च ( ३.३.१३ ) इत्यस्य अपवादरूपेण आगच्छति । 

    (लृट्-शेषे च इत्यनेन शुद्ध-भविष्यकालार्थम् सर्वत्र लृट्-प्रत्ययः विधीयते । 

    तस्य बाधकरूपेण अनेन सूत्रेण अनद्यतन-भविष्यकालार्थम् लुट्-लकारः पाठ्यते ।

    "अतः यदि क्रियायाः 'अनद्यनत्वम्' वाक्ये स्पष्टमस्ति, तर्हि लुट्-लकारस्यैव प्रयोगः करणीयः, लृट्-लकारस्य न ।

    (यदि क्रिया का "अनद्यनत्वम् वाक्य में स्पष्ट है तब लुट् लकार का ही प्रयोग करना चाहिए नकि लृट् लकार का

    अतः 'सः श्वः विद्यालयं गमिष्यति' इति वाक्यम् व्याकरणदृष्ट्या असाधु अस्ति ।

    ________     ________________________

    "यत्र कालः स्पष्टः नास्ति, तत्र तु लृट्-लकारः एव प्रयोक्तव्यः ★–

    जहाँ समय स्पष्ट न हो वहाँ लृट् लकार का प्रयोग करना चाहिए और जहाँ समय( दिन)की अवधि निश्चित हो  जैसे कल" परसौं अथवा एक सप्ताह एक वर्ष तो वहाँ लुट् लकार का प्रयोग होता है।

    यथा - सः विद्यालयं गमिष्यति । सः अद्य श्वः वा विद्यालयं गमिष्यति । 

    वह विद्यालय जाएग। वह आज या कल विद्यालय जाएगा।

    __________________________  

    लकार

    ______________

    "ल्यप्" और "त्य" प्रत्यय के विधान-

    यदि धातु के पूर्व उपसर्ग जुड़ा हो और यदि ह्रस्व स्वरांत धातु है, तो धातु में "ल्यप्" प्रत्यय जोड़ते समय केवल ‘त्य’ आगम होकर जुड़ता है। 

    (2.) इसका भूतकाल में ही प्रयोग होता है ।
    (3.) इसका भी अर्थ “करके” होता है।
    (4.) वाक्य में इसका प्रयोग भी प्रथम पूर्वकालिक और गौण क्रिया के साथ ही होता है।
    (5.) यह भी दो वाक्यों को जोड़ने का काम करता है ।
    (6.) इसका केवल एक ही परिस्थिति में प्रयोग होता है, जो महत्त्वपूर्ण है, और वह यह है कि जब धातु से पूर्व कोई उपसर्ग आ जाए तो “क्त्वा” के स्थान पर इस  (ल्यप्) प्रयोग उसी अर्थ में होता है ।

    क्त्वा का प्रयोगः—जब हम "हस्" धातु के साथ क्त्वा का प्रयोग करते हैं तो हसित्वा बनता है—
    हस्+क्त्वा  हसित्वा
    अब इसी "हस् धातु से पूर्व “वि” उपसर्ग लाते हैं तो “विहस्य” बनेगाः–
    वि +हस् +ल्यप्–विहस्य

    हसित्वा और विहस्य इन दोनों शब्दों का अर्थ समान हैः–“हँस करके”
    विहस्य केशव: उवाच= हंसकर के केशव बोले

    क्त्वा+

    पठित्वा

    ल्यप्+
    सम्पठ्य

    क्त्वा+
    स्नात्वा

    ल्यप्+
    प्रस्नाय

    क्त्वा+
    जित्वा 

    ल्यप्+
    विजित्य

    क्त्वा+
    त्यक्त्वा

    ल्यप्+
    परित्यज्यः—

    _________________________________
    यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
    ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।.

    विशेष-

    नञ् अव्यय यदि क्त्वा-प्रत्ययान्त शब्द के पूर्व में आयेगा तो क्त्वा के स्थान पर ल्यप् नहीं होगा—“समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्—7.1.35

    उदा–पठित्वा—पढ़ करके
    अपठित्वा–न पढ करके

    इदम् औषधं माम् अनुक्त्वा खलु ना भोक्ता ।

    (यह दवाई मुझे विना बताये  नहीं खाना।

    पाठं सम्पठ्य बालकोऽत्रागतः।
    (बालक पाठ पढ करके यहाँ आया)

    लेखम् उल्लिख्य रामः गतः ।

    ( लेख लिखकर राम गया)
    रामम् आहूय गुरुः पृष्टवान् ।

    (राम को बुलाकर गुरु ने पूछा)
    आरुणिः वेदम् अधीत्य अत्र आगतः ।

    (आरुणि वेद को पढ़कर यहाँ आया)
    परीक्षाम् उत्तीर्य शिष्यः गृहम् आगतवान् ।

    (परीक्षा को पास करके शिष्य घर को आया)


    जलम् आनीय गुरुम् प्रयच्छ।=
    (जल लाकर गुरु को दो)

    शोकम् परित्यज्य वार्ताम् कुरु।=(शोक को त्याग कर बात करो)

    वाक्यम् अनूद्य लिख।=वाक्य को अनुवाद कर लिख

    वाक्यम् प्रोच्य हृषीकेशः उवाच।=वाक्य को बोलकर  हृषीकेश बोला-

    धनं संगृह्य अत्रागच्छ। = (धन का संगृह करके यहाँ आओ )


    (2.) गम् धातु से दो रूप बनेंगे—आगम्य और आगत्य । परन्तु आगत्य ही शुद्ध व्याकरणिक प्रयोग है ।

    इसी प्रकार—प्रणम्य और प्रणत्य।


    विषयः—  प्रणम्य/प्रणत्य

    प्रश्नः

    उत्तरम्‌

    "देवं प्रणम्य" अथवा "देवं प्रणत्य" - उभौ अपि साधू प्रयोगौ स्तः |

    उपसर्गरहित नम्-धातोः क्त्वाप्रत्यये परे नम् + क्त्वा -> नत्वा इति क्त्वान्त-रूपम् |

    - प्र-उपसर्गपूर्वकस्य नम्-धातोः क्त्वाप्रत्यये परे ल्यबादेशः भवति "समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्‌" इति सूत्रेण |

    - अतः  प्र + नम् + क्त्वा -> प्र + नम् + ल्यप् | इत्संज्ञानां लोपानन्तरं प्र + नम् + य |

    - सम्प्रति "वा ल्यपि" इति सूत्रेण विकल्पेन अनुनासिकस्य लोपः ल्यपि परे | तस्मात् नम्-धातोः मकारस्य लोपः विकल्पेन | तदा प्र  + न + य |

    - "ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्" इत्यनेन तुगागामः -> प्र + न  + त्  + य |

    - नस्य णत्वं भूत्वा प्र + ण + त् + य -> प्रणत्य इति रूपम् सिध्यति |

    प्र + नम् + य इत्यस्यां स्तिथौ अनुनासिकस्य लोपः विकलेपेन एव भवति इत्यतः मकारस्य लोपाभावे प्रणम्य इति अपि रूपं भवितुम् अर्हति 

    तस्मात् प्रणम्य प्रणत्य इति रूपद्वयेपि नास्ति दोषः

    तथैव अवगम्य-अवगत्य, प्रयम्य-प्रयत्य, प्ररम्य-प्ररत्य अपि | एषां चतुर्णां धातूनां (गम्,यम्,रम्,नम्) ल्यपि समाना व्यवस्था |

    शिष्यम् आहूय गुरुः उक्तवान्।
    मातापितरौ प्रणम्य पुत्रः विदेशं गच्छति।
    छात्राः पुस्तकानि अधीत्य पाठं स्मरन्ति।
    भक्तः शिवं सम्पूज्य सुखं लभते।
    सेवकः स्वामिनं प्रशस्य सुखं लभते।
    मालिनी सुरेखायै पुष्पगुच्छं प्रदाय जन्मदिने वर्धापनम् अर्पयति ।

    __________________   

    (3.) ल्यप् प्रत्यय भी दो वाक्यों को जोडता हैः—
    (क) शिष्यः विद्यालयं प्रविशति । सः गुरुं प्रणमति।

    शिष्यः विद्यालयं प्रविश्य गुरुं प्रणमति।

    (ख) छात्रा खटिकाम् आनयति । सा श्यामपट्टे लिखति ।
    छात्रा खटिकाम् आनीय श्यामपट्टे लिखति।

    (ग) वानरः वृक्षम् आरोहति । सः जम्बुफलानि पातयति ।
    वानरः वृक्षम् आरुह्य जम्बुफलानि पातयति।

    (घ) आरक्षकाः सीमाप्रदेशं प्राप्नुवन्ति । ते देशं रक्षन्ति ।
    आरक्षकाः सीमाप्रदेशम् प्राप्य देशं रक्षन्ति 

    (ङ) देशभक्ताः मातृभूमिं प्रणमन्ति । ते सुखं लभन्ते ।
    देशभक्ताः मातृभूमिं प्रणम्य सुखं लभन्ते ।

    -तुमुन् प्रत्यय – संस्कृत

    संस्कृत भाषा में तुमुन् एक कृदन्त प्रत्यय है। अर्थात् यह प्रत्यय धातुओं से होता है। इस प्रत्यय के बारे में संस्कृत ग्रन्थों मे कहा गया है –क्रियार्थायां क्रियायाम् उपपदे भविष्यति अर्थे। यानी जब एक कर्ता दो क्रिया करें, उनमें से पहली वर्तमान काल में और दूसरी भविष्यकाल में हो, तो दूसरी क्रिया को संस्कृत भाषा में तुमुन् प्रत्यय लगा सकते हैं।

    कई शिक्षक इस प्रत्यय को आसानी से समझाने के लिए धातुओं की चतुर्थी विभक्ति भी कहते हैं। क्योंकि हिन्दी में अनुवाद करते समय तुमुन् प्रत्यय का अर्थ – के लिए ऐसा लेते हैं।

    जैसे कि –

    • पठितुम् – पढ़ने के लिए
    • चलितुम् – चलने के लिए
    • दातुम् – देने के लिए
    • वक्तुम् – बोलने के लिए
    • द्रष्टुम् – देखने के लिए
    _______________    

    तुमुन् प्रत्यय (संस्कृत) के बारे में विस्तार से जानने के लिए इस लेख को पढ़ना जारी रखिए।

    तुमुन् प्रत्यय का अर्थ

    तुमुन् प्रत्यय का अर्थ होता है –

    • के लिए
    • for

    इस अर्थ को देख कर लगता है कि यह तो चतुर्थी विभक्ति का अर्थ है।

    जैसे कि –

    • बालकाय – बालक के लिए
    • रामाय – राम के लिए

    परन्तु तुमुन् प्रत्यय धातु के लिए होता है।

    • पठति
      • पठ् + तुमुन्
      • पठितुम्
    • पठितुम् – पढ़ने के लिए

    यह हुआ सामान्य अर्थ। लेकिन मूलतः संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थो में तुमुन् प्रत्यय को इस प्रकार से दिखाया है –

    जब कोई एक कर्ता दो क्रिया करें, जिसमें पहली क्रिया वर्तमान (लट् लकार) में हो, और दूसरी क्रिया भविष्यकाल (लृट् लकार) में हो, तो भविष्यकाल की क्रिया को तुमुन् प्रत्यय होता है।

    क्रियार्था क्रिया

    जैसे कि –

    1. बालकः गच्छति।
    2. बालकः खेलिष्यति।
      • बालकः खेलितुम् गच्छति।

    यहाँ पहले तो बालक जा रहा है। और जाने के बाद बालक खेलेंगा। अर्थात् बालक खेलने के लिए जा रहा है। इस अर्थ में खेल् धातु से तुमुन् प्रत्यय हो कर खेलितुम् ऐसा रूप बनता है।

    तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग कैसे करते हैं?

    किसी भी धातु से तुमुन् प्रत्यय करने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना पड़ता है –

    1. अनुबन्धलोप
    2. इडागम
    3. गुण

    1. तुमुन् प्रत्यय का अनुबन्धलोप-

    वैसे तो हम इस प्रत्यय को – तुमुन् ऐसे लिखते हैं। परन्तु इसका असली नाम तुमुँन् यह है। इस प्रत्यय के नाम में कुल पाँच वर्ण हैं। त् + उ + म् + उँ + न् । इनमें से दो वर्ण – उँ + न् ये दोनों अनुबन्ध कहलाते हैं।

     इनका लोप करना होता है। लोप करने का अर्थ होता है गुप्त करना। यानी तुमुन् प्रत्यय में अनुबन्ध लोप करने के बाद केवल त् + उ + म् ये तीन वर्ण बाकी बचते हैं। इस बात को इस प्रकार से समझते हैं –

    तुमुन् प्रत्यय के क्या बाकी बचता है?

    तुमुन् इस नाम में पांच वर्ण हैं –

    • त् + उ + म् + उ + न्
    • त् + उ + म् + उ + न्
    • त् + उ + म्
    • तुम्

    अर्थात् तुमुन् प्रत्यय में तुम् इतना ही भाग बाकी बचता है।

    2. तुमुन् प्रत्यय में इडागम

    तुमुन् प्रत्यय की प्रक्रिया में प्रायः इडागम होता है।

    इडागम क्या है?

    प्रकृति और प्रत्यय के बीच जो आता है उसे आगम कहते हैं। तुमुन् प्रत्यय की प्रक्रिया में इट् नाम का आगम आता है। इसे ही इडागम कहते हैं। (इट् + आगम – इडागम) यह इट् धातु और प्रत्यय के बीच आता है।

    इडागम का अनुबन्धलोप

    इट् इस आगम में दो वर्ण हैं –

    • इ + ट्
    • इ + ट्

    यानी सिर्फ इ बचता है।

    कुछ कुछ धातुओं में इडागम नहीं होता है।

    कुछ कुछ धातु ऐसे भी होते हैं जिन में इडागम नहीं होता है। छात्रों को चाहिए की ऐसे धातुओं को स्मरण (याद) रखे।

    ऐसे धातुओं को उदाहरण में पढिए।

    तुमुन् प्रत्यय का उदाहरण

    पढ़ने के लिए = पठ् + तुमुन्

    • पठ् + तुमुन्
    • पठ् + तुम् …. अनुबन्धलोप
    • पठ् + इट् + तुम् …. इडागम
    • पठ् + इ + तुम् …. इडागम का अनुबन्धलोप
    • पठितुम्

    बालकाः पठितुं विद्यालयं गचछन्ति।

    चलने के लिए – चल् + तुमुन्

    • चल् + तुमुन्
    • चल् + तुम्
    • चल् + इट् + तुम्
    • चल् + इ + तुम्
    • चलितुम्

    शिशुः चलितुं न जानाति।

    बालकाः चलितुम् उत्तिष्ठन्ति।

    इडागम न होनेवाले धातु

    गम् – गन्तुम्

    • अहं गन्तुम् इच्छामि।

    वच् – वक्तुम्

    • छात्रः उत्तरं वक्तुम् हस्तं उपरि करोति।

    प्रच्छ् – प्रष्टुम् (to ask)

    • छात्रः प्रश्नं प्रष्टुं शिक्षकस्य गृहं गच्छति।

    दृश् – द्रष्टुम् (to look)

    • जनाः नाटकं द्रष्टं नाट्यगृहं गच्छन्ति।

    कृ – कर्तुम्

    • सैनिकाः युद्धं कर्तुम् इच्छन्ति।

    दा – दातुम् (to give)

    • धनिकः याचकेभ्यः धनं दातुं मन्दिरं गच्छति।

    पा – पातुम् (to drink)

    • प्राणिनः जलं पातुं जलाशयं गच्छन्ति।

    तुमुन् प्रत्यय का अभ्यास-

    यहाँ हम तुमुन् प्रत्यय के प्रयोग से कुछ वाक्य बना रहे हैं। तुमुन् प्रत्यय के इन उदाहरणों से आप का बहुत अच्छा अभ्यास होगा।

    • छात्रः विद्यालयं गच्छति। छात्र विद्यालय जाता है।
    • छात्रः विद्यालये पठिष्यति। छात्र विद्यालय में पढ़ता है।
      • छात्रः पठितुं विद्यालयं गच्छति। छात्र पढ़ने के लिए विद्यालय जाता है।
    • छात्रः लिखति। छात्र लिखता है।
    • छात्रः लेखनीं स्वीकरिष्यति। छात्र कलम लेगा।
      • छात्रः लिखितुं लेखनीं स्वीकरोति। छात्र लिखने के लिए कलम लेता है।
    • छात्रः विद्यालयं गच्छति। छात्रः विद्यालय जाता है।
    • छात्रः द्विचक्रिकां क्रेक्ष्यति। छात्र साईकल खरीदेगा।
      • छात्रः विद्यालयं गन्तुं द्विचक्रिकां क्रीणाति। छात्र विद्यालय जाने के लिए साईकल खरीदता है।
    • शिक्षकः पुस्तकस्य प्रयोगं करोति। शिक्षक पुस्तक का प्रयोग करता है।
    • शिक्षकः पाठयिष्यति। शिक्षक पढ़ाएगा।
      • शिक्षकः पाठयितुं पुस्तकस्य प्रयोगं करोति। शिक्षक पढाने के लिए पुस्तक का प्रयोग करता है।
    • बालकः इच्छति। बालक चाहता है।
    • बालकः रोटिकां खादिष्यति। बालक रोटी खाएंगा।
      • बालकः रोटिकां खादितुं इच्छति। बालक रोटी खाना चाहता है।

    श्लोक में तुमुन् के उदाहरण

    हम यहाँ एक ऐसा श्लोक दे रहे हैं जिसमें बहुत सारे पद तुमुन् प्रत्यय से बने हुए हैं। इनको समझने का प्रयत्न करें।

    श्रोतुं कर्णौ वक्तुम् आस्यं सुहास्यं, 
    घ्रातुं घ्राणं पादयुग्मं विहर्तुम्द्रष्टुं नेत्रे हस्तयुग्मं च दातु, 
    ध्यातुं चित्तं येन सृष्टं स पातु॥

    श्लोक का अर्थ

    सुनने के लिए कान, बोलने के लिए सुहास्य मुख,
    सूंघने के लिए नाक, दो पैर घूमने के लिए
    देखने के लिए आँखे और दो हाथ (दान) देने के लिए,
    ध्यान करने के लिए मन जिसने बनाएं हैं वह (ईश्वर) रक्षा करें (हमारी)॥


    रविवार- 19 फरवरी 2022

    कृदन्त और तद्धित प्रत्यय- एवं संस्कृत व्याकरण के सामान्य नियम-★



    _________________________________
    रम् + घञ् = राम ।।
    रम् धातुना स‍ह कृदन्‍त-घञ् प्रत्‍ययं संयोज्‍य राम-प्रातिपदिक शब्‍द:।
    (रम् धातु से कृदन्‍त घञ् प्रत्‍यय लगाकर राम शब्‍द की निष्‍पत्ति) राम प्रातिपदिक है ;परन्तु राम: एक पद है।

    सूत्रम् - अर्थवदधातुरप्रत्‍यय: प्रातिपदिकम् ।।1/2/45।।

     ़धातुं, प्रत्‍ययं, प्रत्‍ययान्‍तं च विहाय अन्‍येषां सार्थकशब्‍दानां प्रातिपदिकसंज्ञा भवति ।

    (हिन्‍दी - धातु, प्रत्‍यय और प्रत्‍ययान्‍त को छोडकर अन्‍य सार्थक शब्‍दों की प्रातिपदिक संज्ञा होती है अर्थात् उक्‍त को छोडकर अन्‍य को प्रातिपदिक कहते हैं ।

    प्रातिपदिकम् (व्याकरणे -

    क्रियापदानां मूलं धातुः तद्वत् नामपदानां मूलं प्रातिपदिकम् इत्युच्यते।
    धातुं, प्रत्‍ययं, प्रत्‍ययान्‍तं च विहाय अन्‍येषां सार्थकशब्‍दानां प्रातिपदिकसंज्ञा भवति ।

    "अर्थवदधातुरप्रत्‍यय: प्रातिपदिकम्" इति सूत्रे) =अर्थवत् अधातु अप्रत्यय प्रातिपदिकम्

    अर्थात् अर्थसहितं किन्तु धातुः नास्ति प्रत्यय अपि नास्ति। राम: इत्यस्य शब्दस्य प्रातिपदिकम् अस्ति राम इति।

    (पदानां बीजं भवति प्रातिपदिकम्)

    (प्रातिपदिकेन सह सुप् प्रत्ययस्य योजनेन पदं सिध्यति वाक्येषु पदानामेव प्रयोगः भवति, न तु प्रातिपदिकानाम् । ।

     एकः वर्ण अपि अर्थपूर्णः सन् शब्दो भवितुमर्हति यथा ‘ अ ‘ इति विष्णुपर्यायः ।शक्तं पदं इति खलु तत्र प्रातिपदिकस्य तथा प्रत्ययस्य योजनेन शक्तिं प्राप्यते।। 
    प्रातिपदिकम् (व्याकरणे

    संस्कृत व्याकरण के अनुसार वह अर्थवान् शब्द जो धातु न हो जौर न उसकी सिद्बि विभक्ति लगने से हुई हो।

    विद्वान् कीदृग् वचो ब्रूते?
    को रोगी? कश्च नास्तिकः?
    कीदृक्चन्द्रं न पश्यन्ति?
    सूत्रं तत् पाणिनेर्वद ॥
    इति काचन प्रहेलिका प्रसिद्धा।
    ★"अर्थवदधातुरप्रत्ययःप्रातिपदिकम्"★  इत्युत्तरम् 
    १-(विद्वान्) (कीदृग्) वचो ब्रूते ? अर्थवत्।


    २-को (रोगी) ? अधातुः (धातुहीनः) ।

    ३- कश्च नास्तिकः? अप्रत्ययः (प्रत्ययो विश्वासस्तवद् हीन: ) ।


    ४-कीदृक्चन्द्रं न पश्यन्ति ? प्रातिपदिकम् (प्रतिपत्तिथौ वर्तमानम्) । तच्चतुर्योगात् पूर्वोक्तं पाणिनिसूत्रम्।

    लोके प्रातिपदिकशब्दस्य बहवोर्थाः सन्ति। प्रतिपदिति शब्दात् "कालाट्ठञ्" इति सूत्रेण निष्पन्नः प्रातिपदिकशब्दस्त्रिलिङ्गी प्रतिपत्तिथिजातार्थप्रतिपत्तिकरः । तयैव निष्पत्त्या वह्निशब्देपि शक्तिरस्ति शब्दस्यास्य । वैयाकरणास्तु प्रत्ययहीनस्य नामशब्दस्य नाम वदन्ति प्रातिपदिकमिति नपुंसकलिङ्गि। पदं पदं प्रति सम्बन्धात्तस्य तादृङ् नाम। तल्लक्षणं च पाणिनिना सूत्रद्वयेनोक्तम् – *"अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्"" "कृत्तद्धितसमासाश्च"* इति ।तत्र प्रथमेन धात्वन्यः प्रत्ययहीनोर्थवाञ्च्छब्द आम्नातः। धातोस्तिङ्भिन्नप्रत्यययोजनेन निष्पन्नाः पठनगत्यादिशब्दाः, नामशब्देभ्यः प्रत्यययोजनेन निष्पन्ना दाशरथ्यादयो नामान्तरशब्दाः, अनेकपदयोजनानन्तरं सुब्लोपेन निष्पन्ना राजपुरुषादयः समस्तशब्दाश्च द्वितीयेन सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञया सङ्गृह्यन्ते।                      "अपदं न प्रयोक्तव्यम्" इति विधिः।              अतश्च केवलप्रातिपदिकस्य प्रयोगो निषिद्धः ।     किं तर्हि?

    "सुप्तिङन्तं पदम्"।  प्रातिपदिकात् प्रकृतेः सुप्प्रत्यययानां नामशब्दानां धातोः प्रकृतेस्तिङ्प्रत्ययानां च योजनेनार्थवन्ति पदानि सम्भवन्ति।

    अर्थात् प्रातिपदिक से प्रकृति ( मूलशब्द) के सुप् आदि प्रत्ययों का नामशब्दों और धातु की प्रकृति के तिङ् प्रत्यय के जुड़ने के द्वारा अर्थवान् रूपों से पद बनते हैं ।

    प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे स्वौजस्-प्रत्ययास्तद्भिन्नार्थेष्वमादयश्च युज्यन्ते। एवमर्थवन्ति पदानि प्रयोगार्हाणि सम्भवन्ति।

     विशेष—प्रातिपदिक के अंतर्गत ऐसे नाम, सर्वनाम,तद्धिदान्त, कृदन्त और समासांत पद आते हैं जिनमें कारक की विभक्तियाँ न लगाई गई हों।

    संस्कृत- में मूल शब्द या मूल धातु का प्रयोग वाक्यों में नहीं होता है वहाँ मूल शब्द  को प्रातिपदिक कहते हैं। परन्तु जब प्रातिपदिक में सुप् और तिङ् प्रत्यय लगाते हैं तो उनकी पद संज्ञा बन जाती है।

    किन्तु हर मूल शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा (प्रातिपदिक नाम) नहीं होता है। प्रातिपदिक संज्ञा करने के लिए महर्षि पाणिनि ने दो सूत्र लिखे हैं –

    ___________________________________

    (१)-अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् – 

    अर्थात्- वैसे शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा होती है जो अर्थवान् (सार्थक) हो, किन्तु धातु या प्रत्यय नहीं हों।

    (२) -कृत्तद्धितसमासाश्चर -
    —कृत्प्रत्ययान्त (धातु के अन्त में जहाँ ‘तव्यत्’, ‘अनीयर’, ‘ण्वुल्(अक)’, ‘तृच’ आदि कृत्प्रत्यय लगे हों) तथा तद्वितप्रत्ययान्त (शब्द के अन्त में जहाँ ‘घञ्’, ‘अण्’ आदि तद्धित प्रत्यय हों) तथा समास की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है।

    _______________________________________

    इन प्रातिपदिकसंज्ञक शब्दों के अन्त में सु, औ, जस् आदि (२१) सुप् विभक्तियाँ लगती हैं, तब वह सुबन्त होता है और उसकी पदसंज्ञा होती है।

     इन पदों का ही वाक्यों में प्रयोग होता है, क्योंकि जो पद नहीं होता है उसका प्रयोग वाक्यों में नहीं होता है – ‘अपदं न प्रयुञ्जीत’।

    संस्कृत भाषा में  सात विभक्तियाँ होती हैं तथा प्रत्येक विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में अलग-अलग रूप होने पर २१ रूप होते हैं।७×३=२१।

    ये सुप् कहे जाते हैं। सुप में ‘सु’ से आरम्भ कर ‘प्’ तक २१ प्रत्यय (विभक्ति) हैं।

    _________________    

    जिस वर्ण अथवा वर्ण समूह  को शब्द के अन्त में जोड़कर नये शब्दों या निर्माण करते हैं; उसे प्रत्यय कहते हैं।

    जिन प्रत्ययों को धातुओं(शब्द अथवा क्रिया के मूल रूप) )से जोड़कर उनसे "विशेषण" अव्यय और क्रिया विशेषण" बनाए जाते हैं, उन्हें कृत-प्रत्यय कहते हैं, तथा इस प्रकार कृत्-प्रत्ययों से बनने वाले "विशेषण या अव्यय और क्रियाविशेषण" कृदन्त कहलाते हैं।

    (कृदन्त प्रत्ययों के द्वारा - 

    १-अपूर्ण वर्तमान काल, (जिसमें "शतृ" अथवा "शानच्" प्रत्यय द्वारा निर्मित कृदन्तपद "क्रियाविशेषण" की भूमिका का ही निर्वहन करते हैं।)

    २-पूर्वकालिक क्रियात्मक कृदन्त,

    ३-कर्म वाच्य  आदि प्रकार के वाक्य बनाए जाते हैं।

    कृदन्त के प्रमुख प्रकार निम्न हैं-

    • १-पूर्वकालिक क्रियात्मक कृन्दत।
    • २-वर्तमानकालिक क्रियात्मक कृदन्त।
    • ३-भूतकालिक क्रियात्मक कृदन्त।
    • ४-हेतुवाचक कृदन्त।
    • ५-विधिवाचक कृदन्त।
    • पूर्वकालिक क्रियात्मक कृदन्त-★,

    जब काई क्रिया पहले हो चुकी हो और उसके बाद दूसरी क्रिया हो, तब पहल होने वाली क्रिया को पूर्वाकालिक.( (Absolutive Verb)-निरपेक्ष क्रिया Antecedent verb) क्रिया कहते हैं।

    पूर्वकालिक क्रिया को बतलाने के लिए पूर्वकालिक कृदन्त का प्रयोग करते हैं।

    इसका प्रयोग (अव्यय) की तरह होता है। अतः इसके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है।

    (" क्त्वा और ल्यप् पूर्वकालिक कृदन्त के उदाहरण है। ये ‘करके’ के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।

    ___________________

    अनुबन्ध = शब्द का अर्थ है (बंध या सातत्य अथवा संबंध जोड़नेवाला)

    व्याकरण में एक सांकेतिक अक्षर जो किसी शब्द के (स्वर या विभक्ति में किसी विशेषता का द्योतक हो, जिसके साथ वह जुड़ा हुआ हो।

     किसी वर्ण या वर्णसमूह को भी अनुबंध कहा हाता है, किंतु प्रयोग के समय यह, लुप्त हो जाता है। लुप्त होनेवाला भाषातत्व "इत्" कहा जाता है।

    पाणिनि ने जिसे "इत्" कहा है उसका व्याकरण में प्राचीन नाम अनुबंध या इत् है  जिसका प्रयोग व्याकरणिक वर्णन में एकरूपता लाने के लिए किया जाता है।

     प्रातिपदिकों से प्रत्ययों कें अनुबंध में दोनों के योग से नए शब्द की रचना होती है जिसका अर्थ बदल जाता है, यथा स्त्रीलिंग बनाने के लिए 

    १-(टाप्  -अनुबंध में "टकार एवं पकार" का लोप होने से "आ" शेष रह जाता है, जो प्रतिपदिकों में जुड़ता है) के योग से। "अज" (बकरा) शब्द से स्त्रीलिंग बनाने के लिए "टाप्" के सिर्फ "आकार" के साथ योग करना पड़ता है, यथा अज+टाप्=अजा (बकरी)।  

    "" इसी प्रकार -

    अश्व+टाप्=अश्वा, 

    बाल+टाप्=बाला, 

    वत्स+टाप्=वत्सा।

     २-(ङीप् तथा "ङीष्" प्रत्यय का "ई" अंश अनुबंध से पुल्लिंग शब्दों में स्त्रीत्व का बोध कराता है, यथा-

     राजन्+ङीप्‌=राज्ञी

    ,दण्डिन्+ङीप्=दण्डिनी, 

    गोप:+ङीप्‌=गोपी,

     ब्रह्मण:+ङीप्‌=ब्राह्मणी। )

     इसी तरह "पच्" में "ल्युट्" प्रत्यय के अनुबंध में ल्, ट् व्यंजन ध्वनियाँ लुप्त हो जाती है, "उ" बदलकर "अन" आदेश बन जाता है, यथा पच्+ल्युट् =पचनम्। 

    एक ही अर्थ की प्रतीति होने पर भी यह शब्द नपुंसक लि में  होता हैं।  भिन्न प्रत्यय के अनुबंध से लिंगपरिवर्तन हो जाता है।

    जैसे-★

    • ज्ञा + क्त्वा= ज्ञात्वा

    इसमें ‘क’ अनुबंध है, इसलिए जुड़ते समय इसका लोप हो गया। क्त्वा प्रत्यय-‘क्त्वा’ प्रत्यय जोड़ते समय धातु में केवल ‘त्वा’ जुड़ता है।

    जैसे-
    MP Board Class 9th Sanskrit व्याकरण कृदन्त, तद्धित और स्त्री प्रत्यय img-1

    त्वा जोड़ते समय कुछ धातुओं में ‘इकार’ (इ या ई की मात्रा) भी जुड़ता है।
    जैसे-

    (ल्यप् प्रत्यय- यदि धातु के पूर्व में "उपसर्ग" जुड़ा हो, तो धातु में ‘क्त्वा’ के बदले "ल्यप्" प्रत्यय जोड़ा जाता है। धातु में जोड़ते समय केवल ‘य’ शेष रहता है।

    जैसे-

    ________________________________

    जैसे-

    " हेतुवाचक "तुमुन्" कृदन्त प्रत्यय-‘करने के लिए’ या ‘ करने को’ के अर्थ में ‘तुमुन्’ प्रत्यय जोड़ते हैं। ‘तुमुन्’ जोड़ते समय प्रायः ‘तुम’ ही धातुओं में जुड़ता है। ये शब्द अव्यय होते हैं। इनके अंत में ‘म्’ रहता है।

    जैसे-


    (तुमुन्’ प्रत्यय को ऐसे शब्दों के पूर्व भी जोड़ते हैं, जिनका अर्थ ‘चाहना’ या ‘सकना’ होता है।
    ("तुमुन्=करने के लिए)

    जैसे-

    अतः इसका लिंग, वचन और कारक विशेष्य के अनुसार रहता है।

     पुल्लिंग में इसकी कारक रचना "देव:" संज्ञा पद के समान, स्त्रीलिंग में नदी के समान तथा नपुंसकलिंग में फलम् के समान होती है।

    जैसे-

    MP Board Class 9th Sanskrit व्याकरण कृदन्त, तद्धित और स्त्री प्रत्यय img-7

    (भूतकालिक कृदन्त-(क्त और क्त्वतु) प्रत्यय भूतकालिक कृदन्त हैं।

    ‘क्त’ प्रत्यय-धातुओं के साथ कर्तृवाच्य (Active Voice) में तथा भूतकालिक कृदन्त(past participle )का प्रयोग भूतकाल की क्रिया के स्थान पर किया जा सकता है।

     इसका लिंग, कारक और वचन कर्ता के समान होता है। धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जोड़ते समय प्रायः केवल ‘त’ शेष रहता  है।

    जैसे-


    ‘क्त’ प्रत्यय से युक्त शब्द के रूप पुल्लिंग में ‘देव’ शब्द के समान, स्त्रीलिंग में ‘माला’ शब्द के समान और नपुंसकलिंग में ‘जल’ शब्द के समान होते हैं। इनका वाक्यों में प्रयोग निम्नानुसार होता है।

    __________________

    रामः गतः। = राम गया।
    सीता गता। = सीता गई।
    बालकौ गतौ। = दो बालक गये।
    बालिकाः गताः। = सभी बालिका गईं।

    यहाँ गतः, गता, गतौ, गताः शब्द विशेषण हैं। इसीलिए इनके लिंग, वचन वहीं हैं, जो वाक्यों में कर्ता के हैं। संस्कृत में भूतकाल के ये वाक्य बिना क्रिया शब्दों के ही पूरे हो जाते हैं।

    जैसे-
    MP Board Class 9th Sanskrit व्याकरण कृदन्त, तद्धित और स्त्री प्रत्यय img-9

    (क्तवतु’ प्रत्यय से युक्त शब्द के रूप पुल्लिंग में ‘भगवत्’ शब्द के समान, स्त्रीलिंग में ‘नदी’ शब्द की भाँति और नपुंसकलिंग में ‘जगत्’ की भाँति होते हैं।

    इनका वाक्यों में प्रयोग निम्नानुसार होता है-

    • हरीश: ग्रामात् आगतवान्। = हरीश गाँव से आया।
    • मार्जार: मूषक हतवान्। = बिल्लोटे ने चूहे को मार डाला।

    व्याकरण में (क्त) तथा (क्तवतु) प्रत्यय की निष्ठा संज्ञा है। सामान्य रूप से दोनों प्रत्ययों का प्रयोग भूतकाल दर्शाने के लिए होता है। क्तवतु प्रत्यय (कर्तरि वाच्य )में तथा क्त प्रत्यय (कर्म व कतृवाच्य )में प्रयुक्त होता है। 

    (का)★-क्रियारूप में प्रयोग = रामः गतवान्/गतः = राम गया।
    विशेषणरूप में प्रयोग = (गतवन्तं)/गतं रामं शोचति = ( विशेषण- गए हुए राम को )शोक करता है।

    (ख)कर्मवाच्य में (क्त) प्रत्यय =
    यदि (क्त) प्रत्ययान्त शब्द क्रिया के रूप में प्रयुक्त है, तब कर्त्ता में तृतीया, कर्म में प्रथमा तथा क्तान्त क्रिया शब्द के लिङ्ग-वचन-विभक्ति कर्म के अनुसार होंगे, और यदि क्तान्त शब्द के विशेषण होने पर उसके लिङ्ग-वचन-विभक्ति विशेष्य के अनुसार होंगे।)
    ___________________  
    (क्त प्रत्यय कर्मवाच्य की                    क्रियारूप में प्रयोग)★

    अहं पाठं लिखामि = मैं पाठ लिखता हूं। (कतृवाच्य)

    मया पाठः लिखितः = मेरे द्वारा पाठ लिखा गया। (कर्म वाच्य)
    _________________________________

    रामः रोटिकां खादति = राम रोटी खाता है।
    रामेण रोटिका खादिता = राम के द्वारा रोटी खाई गई।

    चित्रकारः चित्रं करोति = चित्रकार चित्र बनाता है।
    चित्रकारेण चित्रं कृतम् = चित्रकार के द्वारा चित्र किया गया।

    (करता हुआ, करते हुए’ आदि अर्थ के लिए धातु में शतृ या शानच् प्रत्यय लगाए जाते हैं।   

    शतृ प्रत्यय-शतृ प्रत्यय-शतृ प्रत्यय का सदैव परस्मैपदी क्रिया पद को रूप में धातुओं में जुड़कर प्रयोग होता है। धातु के साथ जुड़ते समय केवल ‘अत्’ शेष रहता है। इनके रूप "अत्" अंत वाले शब्दों के समान चलते हैं।

    जैसे-

    MP Board Class 9th Sanskrit व्याकरण कृदन्त, तद्धित और स्त्री प्रत्यय img-10

    "शानच् प्रत्यय′★।

    शानच् प्रत्यय आत्मनेदी धातुओं में जोड़े जाते हैं। धातु के साथ जुड़ते समय (शानच् )का केवल ‘आन्’ या ‘मान’  शेष रहता है।

    जैसे-
    MP Board Class 9th Sanskrit व्याकरण कृदन्त, तद्धित और स्त्री प्रत्यय img-11

    शतृ के समान यह भी शानच् प्रत्यय युक्त क्रिया पद भी विशेषण होता है। अतः इसका लिंग, वचन और कारक "विशेष्य" के अनुसार रहता है।

    पुल्लिंग में इसकी कारक रचना "देव के समान, स्त्रीलिंग में "लता के समान तथा नपुंसकलिंग में "फल के समान होती है।

    _______________

    "क्तिन्"  प्रत्यय★-

    इससे भाववाचक संज्ञा पद बनाए जाते हैं। ये पद स्त्रीलिंगी होते हैं। धातु के साथ जुड़ते समय (क्तिन्) का केवल ‘ति’ शेष बचता है।

    जैसे-



    "तद्धित प्रत्यय-★

    संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और अव्यय-पदों में जिन "प्रत्ययों" के योग से नये शब्द बनाए जाते हैं, उन्हें तद्धित प्रत्यय कहते हैं। 

    प्रत्यय के साथ कोष्टक में दिए गए शब्द ही प्रायः शब्दों के साथ जुड़ते हैं।

    जैसे-
    1. अण् (कारः) प्रत्यय-कुंभ + कारः = कुंभकारः
    (इसी प्रकार भाष्यकारः ग्रन्थकारः)

    2. तत् (ता) प्रत्यय-भाव के अर्थ में
    सुन्दर + तल् = सुन्दरता – गुरु + तल् = गुरुता।

    3. तरप् (तर) प्रत्यय-जब दो में से एक को गुण में दूसरे से अधिक या कम बतलाना हो, तो ‘तरप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है।

    यह "विशेषण" की उत्तरावस्था ( तुलनात्मक अवस्था )है। इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘तर’ जुड़ता है।

    जैसे-

    अल्प + तरप् = अल्पतरः (से थोड़ा)
    लघु + तरप् = लघुतरः (से छोटा)
    स्थूल + तरप् = स्थूलतरः (से मोटा)
    कृश + तरप् = कृशतरः (से दुबला)
    दूर + तरप् = दूरतरः (से दूर)

    4. तमप् (तम) प्रत्यय-जब अनेक में से एक के गुण को सबसे अधिक या कम बतलाना हो, तो ‘तमप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है। यह विशेषण की उत्तमावस्था है। इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘तुम’ जुड़ता है।

    जैसे-
    अल्प + तमप् = अल्पतमः (सबसे थोड़ा)
    लघु + तमप् = लघुतमः (सबसे छोटा)
    स्थूल + तमप = स्थूलतमः (सबसे मोटा)
    कृश + तमप् = कृशतमः (सबसे दुबला)
    दूर + तमप् = दूरतमः (सबसे दूर)

    5. मतुप् (मत्, वत्) प्रत्यय-वह इसमें है या वह इसका है-इस अर्थ में मतुप का प्रयोग होता है। मतुप् के पहले ‘अ’ स्वर रहने पर ‘म’ का ‘व’ हो जाता है।

     इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘मान्’ जुड़ता है।

    जैसे-
    अंशु + मतुप् = अंशुमान् (किरणों वाला)
    बुद्धि + मतुप् = बुद्धिमान् (बुद्धि वाला)
    बल + मतुप् = बलवान् (बल वाला)
    गुण + मतुप् = गुणवान् (गुण वाला)

    6. इनि (इन) प्रत्यय-वह इसमें है या वह इसका है-इस अर्थ में इनि का प्रयोग नाम हेतु होता है। इसमें धातु में जोड़ते समय ‘ई’ जुड़ता है।

    जैसे-
    बल + इनि = बली (बलवान)
    गुण + इनि = गुणी (गुणवान)

    स्त्री प्रत्यय
    टाप् (आ) और ङीप् (ई), इका, ई ङीष् (ई), डीन् (ई) प्रत्यय लगाकर रत्रीलिंग शब्द बनाए जाते हैं।
    1. अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में टाप् (आ) प्रत्यय लगाकर
    पंडित + टाप् (आ) = पंडिता
    अज + टाप् (आ) = अजा

    2. पुल्लिंग शब्दों के अंत में अक हो, तो इका हो जाता है।
    जैसे-
    बालक = बालिका, गायक = गायिका

    3. ऋकारान्त पुल्लिंग शब्दों में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
    अभिनेतृ + ङीप् (ई) = अभिनेत्री
    कर्तृ + ङीप् (ई) = की

    4. व्यंजनांत पुल्लिंग शब्दों के अंत में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
    तपस्विन् = तपस्विनी,
    श्रीमत् = श्रीमती
    स्वामिन् = स्वामिनी

    5. उकारांत गुणवाचक पुल्लिंक शब्दों और षित् आदि वाले शब्दों के अंत में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
    नर्तकः = नर्तकी,
    रजकः = रजकी

    6. नु, नर आदि पुल्लिंग शब्दों के अंत में छीन् (ई) प्रत्यय लगाकर
    नृ (ना) + ङीन् = नारी,
    नर (नरः) + ङीन् = नारी
    ब्राह्मण + ङीन् = ब्राह्मणी

    अभ्यास-★

    1. निम्नलिखित में कृत प्रत्यय पहचानिए-
    गत्वा, कृत्वा, दृष्टवा, पठितम्, पुष्टवा, कोपितुम्, नत्वा, नेतुम्, याचितुम्।
    2. निम्नलिखित में धातु और प्रत्यय अलग-अलग कीजिए-
    पठितुम्, करणीयम्, दृष्टवा, पठित्वा, त्यक्तवा, जितुम्, विस्मृत्य, उपकृत्य।
    3. निम्नलिखित उपसर्गयुक्त धातुओं में ल्यप् प्रत्यय जोड़िए-

              प्र + पा,

    • वि + जि,
    • प्र + नृत्,
    • सम् + भाष,
    • प्र + भाष,
    • प्र + नश्,
    • प्र + स्था,
    • प्र + नम्,
    • वि + स्मृ,
    • सम् + कृत,
    • सम् + भू,
    • प्र + हस्,
    • सम् + भ्रम्,
    • वि + हृ,
    • वि + लिख,
    ___________________________________
     व्याकरणम् -प्रकृति-प्रत्यय-विभाग-

      "ष्था"=ठहरना
        धातु(भ्वादिः)
                 परस्मैपदी
    लट्(वर्तमान)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०तिष्ठतितिष्ठतःतिष्ठन्ति
    मपु०तिष्ठसितिष्ठथःतिष्ठथ
    उपु०तिष्ठामितिष्ठावःतिष्ठामः
    लिट्-
    परोक्ष अनद्यतन भूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०तस्थौतस्थतुःतस्थुः
    मपु०तस्थाथ/तस्थिथतस्थथुःतस्थ
    उपु०तस्थौतस्थिवतस्थिम
    लुट्(अनद्यतन भविष्यत्)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०स्थातास्थातारौस्थातारः
    मपु०स्थातासिस्थातास्थःस्थातास्थ
    उपु०स्थातास्मिस्थातास्वःस्थातास्मः
    लृट्(अद्यतन भविष्यत्)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०स्थास्यतिस्थास्यतःस्थास्यन्ति
    मपु०स्थास्यसिस्थास्यथःस्थास्यथ
    उपु०स्थास्यामिस्थास्यावःस्थास्यामः
    लोट्(आज्ञार्थ)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०तिष्ठतु/तिष्ठतात्तिष्ठताम्तिष्ठन्तु
    मपु०तिष्ठ/तिष्ठतात्तिष्ठतम्तिष्ठत
    उपु०तिष्ठानितिष्ठावतिष्ठाम
    लङ्(अनद्यतन भूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अतिष्ठत्अतिष्ठताम्अतिष्ठन्
    मपु०अतिष्ठःअतिष्ठतम्अतिष्ठत
    उपु०अतिष्ठम्अतिष्ठावअतिष्ठाम
    विधिलिङ्
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०तिष्ठेत्तिष्ठेताम्तिष्ठेयुः
    मपु०तिष्ठेःतिष्ठेतम्तिष्ठेत
    उपु०तिष्ठेयम्तिष्ठेवतिष्ठेम
    आशीर्लिङ्
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०स्थेयात्स्थेयास्ताम्स्थेयासुः
    मपु०स्थेयाःस्थेयास्तम्स्थेयास्त
    उपु०स्थेयासम्स्थेयास्वस्थेयास्म
    लुङ्(अद्यतन भूत)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अस्थात्अस्थाताम्अस्थुः
    मपु०अस्थाःअस्थातम्अस्थात
    उपु०अस्थाम्अस्थावअस्थाम
    लृङ्(हेतुहेतुमद्-भविष्यत्)
    एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
    प्रपु०अस्थास्यत्अस्थास्यताम्अस्थास्यन्
    मपु०अस्थास्यःअस्थास्यतम्अस्थास्यत
    उपु०अस्थास्यम्अस्थास्यावअस्थास्याम

       

    (१) आज आपको इदम् और अदस् सर्वनामों के रूप बताते हैं।
    इदम् ( यह, इस, इन आदि)
    अदस् (वह, उस, उन आदि)

    (२) अब आपको एक श्लोक बता देते हैं जिससे आपको यह बात पक्की हो जाएगी कि इदम् , एतद् , अदस् और तद् का प्रयोग कब और कहाँ करना चाहिए।

    इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।
    अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ॥”

    (इदम् अस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति च एतदः रूपम्।
    अदसः तु विप्रकृष्टे तद् इति परोक्षे विजानीयात् ॥)

    अर्थात् –
    १] इदम् = समीपस्थ वस्तु के लिए
    २] एतद् = अत्यन्त समीपस्थ वस्तु के लिए
    ३] अदस् = दूरस्थ वस्तु के लिए
    ४] तद् = परोक्ष अर्थात् जो आपको दिखाई न दे ऐसी वस्तु के लिए।

    इदम् पुँल्लिंग :

    अयम् इमौ इमे।
    इमम् इमौ इमान्।
    अनेन आभ्याम् एभिः।
    अस्मै आभ्याम् एभ्यः।
    अस्मात् आभ्याम् एभ्यः।
    अस्य अनयोः एषाम्।
    अस्मिन् अनयोः एषु।

    ________________________

    इदम् नपुसंकलिंग :★

    इदम् इमे इमानि
    इदम् इमे इमानि (शेष पुँल्लिंगवत्)

    _______________________________

    इदम् स्त्रीलिंग :★

    इयम् इमे इमाः
    इमाम् इमे इमाः
    अनया आभ्याम् आभिः
    अस्यै आभ्याम् आभ्यः
    अस्याः आभ्याम् आभ्यः
    अस्याः अनयोः आसाम्
    अस्याम् अनयोः आसु

    _______________________

    अदस् पुँल्लिंग :★

    असौ अमू अमी
    अमुम् अमू अमून्
    अमुना अमूभ्याम् अमीभिः
    अमुष्मै अमूभ्याम् अमीभ्यः
    अमुष्मात् अमूभ्याम् अमीभ्यः
    अमुष्य अमुयोः अमीषाम्
    अमुष्मिन् अमुयोः अमीषु

    _______________________   

    अदस् नपुसंकलिंग :

    अदः अमू अमूनि
    अदः अमू अमूनि (शेष पुँल्लिंगवत्)

    _____________

    अदस् स्त्रीलिंग :★

    असौ अमू अमूः
    अमुम् अमू अमूः
    अमुया अमूभ्याम् अमूभिः
    अमुष्यै अमूभ्याम् अमूभ्यः
    अमुष्याः अमूभ्याम् अमूभ्यः
    अमुष्याः अमुयोः अमूषाम्
    अमुष्याम् अमुयोः अमूषु

    ★ध्यानपूर्वक देखिए , आप पाएँगे कि स्त्रीलिंग के द्विवचन के सभी रूप पुँल्लिंग की भाँति ही हैं। एकवचन और बहुवचन में भी थोड़ा सा ही अन्तर है।

    ________________________________________

    श्लोक : अयम् = यह (इदम् का पुँल्लिंग एकवचन)

    (१)अब आपको इदम् और अदस् सर्वनामों के रूप बताते हैं।
    इदम् ( यह, इस, इन आदि)
    अदस् (वह, उस, उन आदि)

    (२) अब आपको एक श्लोक बता देते हैं जिससे आपको यह बात परिपक्व हो जाएगा कि इदम् , एतद् , अदस् और तद् का प्रयोग कब और कहाँ करना चाहिए।

    इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।
    अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ॥”

    (इदम् अस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति च एतदः रूपम्।
    अदसः तु विप्रकृष्टे तद् इति परोक्षे विजानीयात् ॥)

    अर्थात् –
    १] इदम् = समीपस्थ वस्तु के लिए
    २] एतद् = अत्यन्त समीपस्थ वस्तु के लिए
    ३] अदस् = दूरस्थ वस्तु के लिए
    ४] तद् = परोक्ष अर्थात् जो आपको दिखाई न दे ऐसी वस्तु के लिए।

    इदम् पुँल्लिंग :

    अयम् इमौ इमे
    इमम् इमौ इमान्
    अनेन आभ्याम् एभिः
    अस्मै आभ्याम् एभ्यः
    अस्मात् आभ्याम् एभ्यः
    अस्य अनयोः एषाम्
    अस्मिन् अनयोः एषु

    इदम् नपुसंकलिंग :

    इदम् इमे इमानि
    इदम् इमे इमानि (शेष पुँल्लिंगवत्)

    इदम् स्त्रीलिंग :

    इयम् इमे इमाः
    इमाम् इमे इमाः
    अनया आभ्याम् आभिः
    अस्यै आभ्याम् आभ्यः
    अस्याः आभ्याम् आभ्यः
    अस्याः अनयोः आसाम्
    अस्याम् अनयोः आसु

    अदस् पुँल्लिंग :

    असौ अमू अमी
    अमुम् अमू अमून्
    अमुना अमूभ्याम् अमीभिः
    अमुष्मै अमूभ्याम् अमीभ्यः
    अमुष्मात् अमूभ्याम् अमीभ्यः
    अमुष्य अमुयोः अमीषाम्
    अमुष्मिन् अमुयोः अमीषु

    अदस् नपुसंकलिंग :

    अदः अमू अमूनि
    अदः अमू अमूनि (शेष पुँल्लिंगवत्)

    अदस् स्त्रीलिंग :

    असौ अमू अमूः
    अमुम् अमू अमूः
    अमुया अमूभ्याम् अमूभिः
    अमुष्यै अमूभ्याम् अमूभ्यः
    अमुष्याः अमूभ्याम् अमूभ्यः
    अमुष्याः अमुयोः अमूषाम्
    अमुष्याम् अमुयोः अमूषु

    ________________________________________

    (१ ) अस्मद् और युष्मद् के रूप तीनों लिंगों में एक जैसे होते हैं ।

    अस्मद्★

    अहम् आवाम् वयम्

    माम्/मा आवाम्/नौ अस्मान्/नः

    मया आवाभ्याम् अस्माभिः

    मह्यम्/मे आवाभ्याम्/नौ अस्मभ्यम्/नः

    मत् आवाभ्याम् अस्मत्

    मम/मे आवयोः/नौ अस्माकम्/नः

    मयि आवयोः अस्मासु

    _______________________________

    युष्मद्★

    त्वम् युवाम् यूयम्

    त्वाम्/त्वा युवाम्/वाम् युष्मान्/वः

    त्वया युवाभ्याम् युष्माभिः

    तुभ्यम्/ते युवाभ्याम्/वाम् युष्मभ्यम्/वः

    त्वत् युवाभ्याम् युष्मत्

    तव/ते युवयोः/वाम् युष्माकम्/वः

    त्वयि युवयोः युष्मासु

    ______________________________________

    मिठाइयाँ, खाद्य /मिष्टान्नानि, खाद्याः

    (1) रसगुल्ला – रसगोलक

    (2) लड्डू – मोदकम्( ल्हादक)

    (3) जलेबी – कुण्डलिका,

    (4) खीर – पायसम्

    (5) बर्फी – हैमी

    (6) रबड़ी – कूर्चिका

    (7) श्रीखंड – श्रीखण्डम्

    ____________________________________

    (१) जब हम किसी धातु से कोई लकार जोड़ते हैं तब उस लकार का लोप हो जाता है और उसके स्थान पर अट्ठारह प्रत्ययों का प्रयोग होता है। 

    इन प्रत्ययों को संक्षेप में तिङ् कहा जाता है। जैसे हम हिन्दी आदि भाषाओं में संक्षिप्त नामों का प्रयोग करते हैं वैसे ही संस्कृतभाषा में भी संक्षिप्त नामों का प्रयोग होता था।

    आप कह सकते हैं कि यह प्रवृत्ति संस्कृत से ही आयी। चूँकि इन अट्ठारह प्रत्ययों में से पहला है ‘तिप्’ और अन्तिम है ‘महिङ्’ तो तिप् का (ति) ले लिया और महिङ् का (ङ्) ले लिया जिससे ‘तिङ्’ यह संक्षिप्त नाम हो गया!

    इन प्रत्ययों का सारा खेल इन तिङ् प्रत्ययों का ही है। कोई भी क्रियापद इन तिङ् प्रत्ययों के बिना नहीं बन सकता।

    धातु के अन्त में तिङ् जोड़ना ही होता है अतः इस प्रकरण को तिङन्त-प्रकरण कहा जाता है। तिङन्त अर्थात् तिङ् प्रत्यय हैं जिनके अन्त में ‘तिङ्+अन्त’।

    ________________________________

    (२) इन अट्ठारह प्रत्ययों के आरम्भिक नौ प्रत्यय ‘परस्मैपद’ और अन्तिम नौ प्रत्यय ‘आत्मनेपद’ कहलाते हैं।

    यह भी स्मरण रखिए कि जिन धातुओं से परस्मैपद प्रत्यय होते हैं उन धातुओं को ‘परस्मैपदी’ कहा जाता है और जिन धातुओं से आत्मनेपद प्रत्यय जुड़ते हैं उन्हें ‘आत्मनेपदी’ कहा जाता है और जिन धातुओं से दोनों प्रकार के प्रत्यय होते हैं उन धातुओं को ‘उभयपदी’ धातु कहा जाता है।

    ______________________________

    परस्मैपद प्रत्यय

    (१) (२) (३)(४)(५…)

    प्रथमपुरुष तिप् तस् झि

    मध्यमपुरुष सिप् थस् थ

    उत्तमपुरुष मिप् वस् मस्

    ____________________________       

    आत्मनेपद प्रत्यय

    (१) (२) (३)(४)(५…)

    प्रथमपुरुष- ता आताम् झ

    मध्यमपुरुष- थास् आथाम् ध्वम्

    उत्तमपुरुष -इट् वहि महिङ्

    पुरुष और वचन के विषय में आपको पहले ही बताया जा चुका है। पुरुष और वचन के अनुसार ही इन प्रत्ययों को धातु से जोड़ा जाता है। यह तो आपको लकार, तिङ् प्रत्ययों और आत्मनेपद परस्मैपद के विषय में समझाया।


    कौन सी धातुएँ आत्मनेपदी होती है और कौन परस्मैपदी अथवा उभयपदी, यह आप तभी जान पायेंगे जब आप धातुपाठ का अध्ययन करेंगे।

    किन्तु जब हम आपको धातुओं के रूपों का अभ्यास करायेंगे तब आपको उस धातु के विषय में यह सभी बातें बताते चलेंगे। 

    अब दसों लकारों के प्रयोग से सम्बन्धित नियमों के विषय में बतायेंगे। सबसे पहला है लट् लकार। इसके विषय में निम्नलिखित
    नियम स्मरण रखिए-
    (१) लट् लकार वर्तमान काल में होता है। क्रिया के आरम्भ से लेकर समाप्ति तक के काल को वर्तमान काल कहते हैं। जब हम कहते हैं कि हरि पुस्तक पढ़ता है या पढ़ रहा है’ तो पढ़ना क्रिया वर्तमान है अर्थात् अभी समाप्त नहीं हुई। 

    और जब कहते हैं कि ‘ हरि ने पुस्तक पढ़ी’ तो पढ़ना क्रिया समाप्त हो चुकी अर्थात् यह भूतकाल की क्रिया हो गयी।

    _____________

    ठहरना

    (२) यदि लट् लकार के रूप के साथ ‘स्म’ लगा दिया जाय तो लट् लकार वाले रूप का प्रयोग भूतकाल के लिए हो जायेगा। जैसे – ‘पठति स्म’ = पढ़ता था।

    (३) सर्वप्रथम हम आपको ‘भू’ धातु के रूप बतायेंगे। ‘भू’ धातु का अर्थ है ‘होना’ , किसी की सत्ता या अस्तित्व को बताने के लिए इस धातु का प्रयोग होता है।

     यह धातु परस्मैपदी है अतः इसमें तिङ् प्रत्ययों में से प्रथम नौ प्रत्यय लगेंगे। 

    देखिए –
    प्रथमपुरुष भू+ तिप् भू+ तस् भू+ झि
    मध्यमपुरुष भू+सिप् भू+थस् भू+ थ
    उत्तमपुरुष भू+मिप् भू+वस् भू+मस्

    __________________________________
    व्याकरणशास्त्र की रूपसिद्धि प्रक्रिया को न बताते हुए आपको सिद्ध रूपों को बतायेंगे। रूपसिद्धि की प्रक्रिया थोड़ी जटिल है। 

    लट् लकार में निम्नलिखित रूप बनेंगे, पुरुष वचन आदि पूर्ववत् रहेंगे-

    भवति भवतः भवन्ति
    भवसि भवथः भवथ
    भवामि भवावः भवामः

    इन रूपों का वाक्यों में अभ्यास करने पर आपको उपर्युक्त नियम अभ्यस्त हो जायेंगे।

    वाक्य अभ्यास 

    :-------
    जब मैं यहाँ होता हूँ तब वह दुष्ट भी यहीं होता है।
    = यदा अहम् अत्र भवामि तदा सः दुष्टः अपि अत्रैव भवति।
    जब हम दोनों विद्यालय में होते हैं…
    = यदा आवां विद्यालये भवावः …
    तब तुम दोनों विद्यालय में क्यों नहीं होते हो ?
    = तदा युवां विद्यालये कथं न भवथः ?
    जब हम सब प्रसन्न होते हैं तब वे भी प्रसन्न होते हैं।
    = यदा वयं प्रसन्नाः भवामः तदा ते अपि प्रसन्नाः भवन्ति।
    प्राचीन काल में हर गाँव में कुएँ होते थे।
    = प्राचीने काले सर्वेषु ग्रामेषु कूपाः भवन्ति स्म।
    सब गाँवों में मन्दिर होते थे।
    = सर्वेषु ग्रामेषु मन्दिराणि भवन्ति स्म।
    मेरे गाँव में उत्सव होता था।
    = मम ग्रामे उत्सवः भवति स्म।
    आजकल मनुष्य दूसरों के सुख से पीड़ित होता है।
    = अद्यत्वे मर्त्यः परेषां सुखेन पीडितः भवति।
    जो परिश्रमी होता है वही सुखी होता है।
    = यः परिश्रमी भवति सः एव सुखी भवति।
    केवल बेटे ही सब कुछ नहीं होते…
    = केवलं पुत्राः एव सर्वं न भवन्ति खलु…
    बेटियाँ बेटों से कम नहीं होतीं।
    = सुताः सुतेभ्यः न्यूनाः न भवन्ति।

    ________________________________

    लङ् लकार अनद्यतन भूतकाल के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ‘अनद्यतन भूतकाल’ अर्थात् ऐसा भूतकाल जो आज से पहले का हो।
    जैसे –
    वह कल हुआ था = सः ह्यः अभवत्।
    वे दोनों परसों हुए थे = तौ परह्यः अभवताम्।
    वे सब गतवर्ष हुए थे = ते गतवर्षे अभवन्।
    जहाँ आज के भूतकाल की बात कही जाए वहाँ लङ् लकार का प्रयोग नहीं करना।

    (२) यदि लङ् लकार के रूप के साथ “मा स्म” का प्रयोग कर दिया जाय तो यह निषेध अर्थ वाला हो जाता है। जैसे – दुःखी मत होओ = खिन्नः मा स्म भवः।


    ध्यान रहे जब “मा स्म” का प्रयोग करेंगे तो लङ् लकार के रूप के अकार का लोप हो जाएगा।

    __________
    प्राचीन ग्रन्थों में “मा स्म” के साथ लुङ् लकार का भी प्रयोग देखा जाता है, जैसे – “क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ” (श्रीमद्भगवद्गीता २.३)

    _____________  
    भू धातु लङ् लकार★
    अभवत् अभवताम् अभवन्
    अभवः अभवतम् अभवत
    अभवम् अभवाव अभवाम
    ____________________________________


    वाक्याभ्यास-
    कल मेरे पैर बहुत थक गए थे।
    = ह्यः मम चरणौ भूरि श्रान्तौ अभवताम्।
    परसों मेरे टखनों में बहुत पीड़ा हुई।
    = परह्यः मम गुल्फयोः महती पीडा अभवत्।
    इस कारण तुम भी दुःखी हुए।
    = अनेन कारणेन त्वम् अपि दुःखी अभवः।
    अब दुःखी मत होओ।
    = सम्प्रति दुःखी मा स्म भवः।
    तुम दोनों बीते वर्ष प्रथमश्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे।
    = युवां व्यतीते वर्षे प्रथमश्रेण्याम् उत्तीर्णौ अभवतम्।
    मैं तो अनुत्तीर्ण हो गया था भाई !!
    = अहं तु अनुत्तीर्णः अभवं भ्रातः !!
    तुम सब प्रसन्न हुए थे,
    = यूयं प्रसन्नाः अभवत,
    हम सब दुःखी हुए थे।
    = वयं खिन्नाः अभवाम।
    मेरे दोनों घुटनों में बहुत दर्द हुआ।
    = मम जान्वोः महती पीडा अभवत्।
    परसों मेरे गायन से सब लोग प्रसन्न हुए थे।
    = परह्यः मम गायनेन सर्वे जनाः प्रसन्नाः अभवन्।

    ___________________________

    लिट् लकाल का प्रयोग-

    आपने कभी न कभी “व्यास उवाच” या गीता के “श्रीभगवान् उवाच” या “अर्जुन उवाच” या “सञ्जय उवाच” आदि वाक्यों को तो सुना ही होगा ? इन वाक्यों में जो ‘उवाच’ शब्द है वह ‘ ब्रू ‘ ( ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि ) धातु के लिट् लकार प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।

     लिट् लकार के रूप पुराणों और इतिहासग्रन्थों में बहुलता से मिलते हैं।

    भू धातु के रूप इस लकार में निम्नलिखित हैं –

    ___________

    बभूव (वह हुआ) बभूवतुः (वे दो हुए) बभूवुः (वे सब हुए)

    बभूविथ (तू हुआ ) बभूवथुः (तुम दोनों हुए) बभूव (तुम सब हुए )

    बभूव (मैं हुआ ) बभूविव (हम दो हुए ) बभूविम(हम सब हुए )


    लिट् लकार के विषय में कुछ स्मरणीय बातें-

    (१) लिट् लकार का प्रयोग परोक्ष भूतकाल के लिए होता है। ऐसा भूतकाल जो वक्ता की आँखों के सामने का न हो। 

    प्रायः बहुत पुरानी घटना को बताने के लिए इसका प्रयोग होता है। जैसे – रामः दशरथस्य पुत्रः बभूव। = राम दशरथ के पुत्र हुए। यह घटना कहने वाले ने देखी नहीं अपितु परम्परा से सुनी है अतः लिट् लकार का प्रयोग हुआ।

    (२) लिट् लकार के प्रथम पुरुष के रूपों का ही प्रयोग बहुधा होता है। आप ढूँढते रह जाएँगे मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष के रूप नहीं मिलेंगे। अतः आपको प्रथमपुरुष के रूप ही याद करना है।

    _________________________________________

    शब्दकोश :

    युवावस्था के नाम –

    (१] तारुण्यम् ( नपुंसकलिंग )

    (२] यौवनम् ( नपुंसकलिंग )


    बुढ़ापे के नाम –

    (१] स्थाविरम् ( नपुंसकलिंग )

    (२] वृद्धत्वम् ( नपुंसकलिंग )

    (३] वार्द्धकम् ( नपुंसकलिंग ) इसका प्रसिद्ध प्रयोग – “वार्द्धके मुनिवृत्तीनाम्” (रघुवंशम्)।

    (४] वार्द्धक्यम् ( नपुंसकलिंग )

    *वार्द्धकम् का अर्थ ‘वृद्धों का समूह’ भी होता है।


    बड़े भाई के नाम-

    (१] पूर्वजः ( पुँल्लिंग )

    (२] अग्रियः ( पुँल्लिंग )

    (३] अग्रजः ( पुँल्लिंग )


    छोटे भाई के नाम –

    (१] जघन्यजः

    (२] कनिष्ठः

    (३] यवीयः

    (४] अवरजः

    (५] अनुजः

    (सभी पुँल्लिंग में)

    _________________

    वाक्य अभ्यास :

    अज के पुत्र दशरथ हुए।= अजस्य पुत्रः दशरथः बभूव।

    वृद्धावस्था में दशरथ के चार पुत्र हुए।= स्थाविरे दशरथस्य चत्वारः सुताः बभूवुः।

    राम सब भाइयों के अग्रज हुए।= रामः सर्वेषां भ्रातॄणाम् अग्रियः बभूव।

    लक्ष्मण और शत्रुघ्न जुड़वा हुए।= लक्ष्मणः च शत्रुघ्नः च यमलौ बभूवतुः।

    युवावस्था में राम और लक्ष्मण अद्भुत धनुर्धर हुए।= यौवने रामः च लक्ष्मणः च अद्भुतौ धनुर्धरौ बभूवतुः।

    भारतवर्ष में आश्वलायन नामक ऋषि हुए थे।= भारतवर्षे आश्वलायनः नामकः ऋषिः बभूव।

    वे शारदामन्त्र के उपदेशक हुए।= सः शारदामन्त्रस्य उपदेशकः बभूव।

    अभिमन्यु तरुणाई में ही महारथी हो गया था।= अभिमन्युः तारुण्ये एव महारथः बभूव।

    एक दुर्वासा नाम वाले ऋषि हुए।= एकः दुर्वासा नामकः ऋषिः बभूव।

    जो अथर्ववेदीय मन्त्रों के उपदेशक हुए।= यः अथर्ववेदीयानां मन्त्राणाम् उपदेशकः बभूव।

    भारत में शंख और लिखित ऋषि हुए।= भारते शंखः च लिखितः च ऋषी बभूवतुः।

    भारत में ही रेखागणितज्ञ बौधायन हुए।= भारते एव रेखागणितज्ञः बौधायनः बभूव।

    भारत में ही शस्त्र और शास्त्र के वेत्ता परशुराम हुए।= भारते एव शस्त्रस्य च शास्त्रस्य च वेत्ता परशुरामः बभूव।

    भारत में ही वैयाकरण पाणिनि और कात्यायन हुए।= भारते एव वैयाकरणौ पाणिनिः च कात्यायनः च बभूवतुः।

    पाणिनि के छोटे भाई पिङ्गल छन्दःशास्त्र के उपदेशक हुए।= पाणिनेः अनुजः पिङ्गलः छन्दःशास्त्रस्य उपदेशकः बभूव।

    धौम्य के बड़े भाई उपमन्यु हुए।= धौम्यस्य अग्रियः उपमन्युः बभूव।

    उपमन्यु शैवागम के उपदेशक हुए।= उपमन्युः शैवागमस्य उपदेशकः बभूव।

    वे कृष्ण के भी गुरु थे।= सः कृष्णस्य अपि गुरुः बभूव

    भारत में ही शिल्पशास्त्र के अट्ठारह उपदेशक हुए।= भारते एव शिल्पशास्त्रस्य अष्टादश उपदेशकाः बभूवुः

    ____________________________

    आज आपको भूतकाल के लिए ही प्रयुक्त होने वाले लिट् लकार के विषय में बतायेंगे। यह लकार बहुत रोचक भी है और सरल भी। आपने कभी न कभी “व्यास उवाच” या गीता के “श्रीभगवान् उवाच” या “अर्जुन उवाच” या “सञ्जय उवाच” आदि वाक्यों को तो सुना ही होगा ?

    इन वाक्यों में जो ‘उवाच’ शब्द है वह ‘ ब्रू ‘ ( ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि ) धातु के लिट् लकार प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।

    लिट् लकार के रूप पुराणों और इतिहासग्रन्थों में बहुलता से मिलते हैं।

    (२) लिट् लकार के प्रथम पुरुष के रूपों का ही प्रयोग बहुधा होता है। आप ढूँढते रह जाएँगे मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष के रूप नहीं मिलेंगे। अतः आपको प्रथमपुरुष के रूप ही याद करना है।

    _________________________________________

    लकारपरिचय: - क्रियारूपाणि दशलकारेषु विभाजितानि सन्ति, अथवा धातो: सर्वेषु वचनेषु, सर्वेषु पुरुषेसु सर्वेषु कालेषु विभाजनम् आहत्‍य दशलकारेषु एव कृतमस्ति । एते लकारा: लादिवर्णात् प्रारभ्‍यन्‍ते अत: लकारा: इति उच्‍यन्‍ते ।
     दशलकारा: सन्ति अधोक्‍ता: । लट् लकार - वर्तमानकाले । लिट् लकार - अनद्यतन-परोक्षभूतकाले । लुट् लकार - अनद्यतनभविष्‍यतकाले । लृट् लकार - अद्यतनभविष्‍यतकाले । लेट् लकार - वेदप्रयोगे । लोट् लकार - आज्ञाप्रयोगे । लड्. लकार - अनद्यतनभूतकाले । लिड्. लकार - विधिनिषेधादिप्रयोग, शुभकामनाशीर्वादवचने । लुड्. लकार - अद्यतनभूतकाले । लृड्. लकार - हेतुहेतुमद्भावप्रयोगे । लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूते लुड्. लड्. लिटस्‍तथा । विध्‍याशिषोर्लिड्. लोटौ च लुट् लृट् लृड्. च भविष्‍यति ।। इति

    लकारों के क्रम में अभी तक आपने लट् लेट् लुङ् लङ् लिट् लिङ् और लोट् लकार के विषय में समझा।


    अब “लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥” अर्थात् लुट् लृट् और लृङ् लकारों के विषय जानना शेष रह गया है। ये तीनों लकार भविष्यत् काल के लिए प्रयुक्त होते हैं।

     किन्तु इनमें थोड़ी थोड़ी विशेषता है। अतः पृथक् पृथक् समझाते हैं। सर्वप्रथम लुट् लकार के विषय में चर्चा करते हैं।

    (१) यह लकार अनद्यतन भविष्यत् काल के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसा भविष्यत् जो आज न हो। कल, परसों या उसके भी आगे। आज वाले कार्यों के लिए इसका प्रयोग प्रायः नहीं होता। जैसे – ” वे कल विद्यालय में होंगे” = ते श्वः विद्यालये भवितारः।

    _______________

    भू धातु , लुट् लकार

    भविता भवितारौ भवितारः

    भवितासि भवितास्थः भवितास्थ

    भवितास्मि भवितास्वः भवितास्मः

    ___________________

    आने वाला कल = श्वः

    आने वाला परसों = परश्वः

    * ये दोनों अव्यय हैं। अव्यय ज्यों के त्यों प्रयोग में लाये जाते हैं। विभक्ति द्वारा इनका रूप नहीं बदलता और न ही किसी लिङ्ग में रूप बदलता है, न ही वचन में।

    ______________

    वाक्य अभ्यास :

    यह मुनि कल उस झोपड़ी में होगा।= अयं मुनिः श्वः तस्यां पर्णशालायां भविता।

    वे दोनों वेदपाठी परसों उस यज्ञभवन में होंगे।= अमू छान्दसौ परश्वः अमुष्मिन् चैत्ये भवितारौ।

    वे वेदपाठी कल इन यज्ञशालाओं में होंगे।= अमी श्रोत्रियाः श्वः एषु आयतनेषु भवितारः।

    तुम परसों अध्यापक के साथ पर्णशाला में होगे।= त्वं परश्वः उपाध्यायेन सह उटजे भवितासि।

    तुम दोनों कल यज्ञशाला में होगे।= युवां श्वः चैत्ये भवितास्थः।

    वहाँ वेदपाठियों का सामगान होगा।= तत्र छान्दसानां सामगानं भविता।

    तुम सब परसों कुटिया में होगे।= यूयं परश्वः उटजे भवितास्थ।

    वहाँ अगदतन्त्र का व्याख्यान होगा।= तत्र अगदतन्त्रस्य व्याख्यानं भविता।

    मैं कल उस कुटी में होऊँगा।= अहं श्वः तस्मिन् उटजे भवितास्मि।

    उसी में दो उपाध्याय होंगे।= तस्मिन् एव द्वौ उपाध्यायौ भवितारौ।

    हम दोनों परसों उस चैत्य में नहीं होंगे।= आवां परश्वः तस्मिन् चैत्ये न भवितास्वः।

    हम सब कल वेदपाठियों की कुटी में होंगे।= वयं श्वः छान्दसानाम् उटजेषु भवितास्मः ।

    वहीं ऋग्वेद का जटापाठ होगा।= तत्र एव ऋग्वेदस्य जटापाठः भविता।

    उपाध्याय लोग भी वहीं होंगे।= अध्यापकाः अपि तत्र एव भवितारः।

    हम लोग भी वहीं होंगे।= वयम् अपि तत्र एव भवितास्मः।

    _____________________________

    आशीर्लिङ् अभ्यास

    भू धातु, आशीर्लिङ्

    भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः

    भूयाः भूयास्तम् भूयास्त

    भूयासम् भूयास्व भूयास्म

    _________________________

    सभी शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं अतः तीनों लिंगों में रूप चलेंगे। स्त्रीलिंग में आयुष्मती, कीर्तिमती, दीर्घजीविनी आदि। 

    शब्दरूप प्रकरण में रूप किस प्रकार चलते हैं यह बतायेंगे, अभी आप लकारों पर ध्यान दीजिए।

    __________________

    वाक्य अभ्यास :

    तेरा पुत्र यशस्वी हो।= तव पुत्रः यशस्वी भूयात्।

    तुम्हारी दोनों पुत्रियाँ यशस्विनी हों।= तव उभे सुते कीर्तिमत्यौ भूयास्ताम्।

    आपके सभी पुत्र दीर्घायु हों।= भवतः सर्वे तनयाः चिरञ्जीविनः भूयासुः।

    तू आयुष्मान् हो।= त्वं जैवातृकः भूयाः।

    तुम दोनों यशस्वी होओ।= युवां समज्ञावन्तौ भूयास्तम्।

    तुम सब दीर्घायु होओ।= यूयं जैवातृकाः भूयास्त।

    मैं दीर्घायु होऊँ।= अहं चिरजीवी भूयासम्।

    हम दोनों यशस्वी होवें।= आवां समज्ञावन्तौ भूयास्व ।

    हम सब आयुष्मान् हों।= वयम् आयुष्मन्तः भूयास्म।

    ______________

    श्लोक :

    पठन् द्विजः वागृषभत्वम् ईयात्

    स्यात् क्षत्त्रियः भूमिपतित्वम् ईयात्।

    वणिग्जनः पण्यफलत्वम् ईयात्

    जनः च शूद्रः अपि महत्त्वम् ईयात्॥

    ( रामायणम् बालकाण्डम् १।७९ )

    ब्राह्मण इस काव्य को पढ़ता हुआ वाणी में निपुणता प्राप्त करे, क्षत्रिय हो तो भूमिपति होवे, वैश्य व्यापार का फल पाये और शूद्र भी महत्त्व को प्राप्त हो।

    ईयात् = इण् गतौ ( जाना ) आशीर्लिङ्, प्रथमपुरुष एकवचन ( ‘प्राप्त हो’ ‘जाये’ ऐसा अर्थ होगा )

    _________

    श्लोक :

    पठन् द्विजः वागृषभत्वम् ईयात्स्यात् क्षत्त्रियः भूमिपतित्वम् ईयात्।

    वणिग्जनः पण्यफलत्वम् ईयात्जनः च शूद्रः अपि महत्त्वम् ईयात्॥

     ( रामायणम् बालकाण्डम् १।७९ )

    ब्राह्मण इस काव्य को पढ़ता हुआ वाणी में निपुणता प्राप्त करे, क्षत्रिय हो तो भूमिपति होवे, वैश्य व्यापार का फल पाये और शूद्र भी महत्त्व को प्राप्त हो।

    ईयात् = इण् गतौ ( जाना ) आशीर्लिङ्, प्रथमपुरुष एकवचन ( ‘प्राप्त हो’ ‘जाये’ ऐसा अर्थ होगा )

    __________

    लृट् लकार 

    आज लृट् लकार की बात करते हैं। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लकार है। सामान्य भविष्यत् काल के लिए लृट् लकार का प्रयोग किया जाता है। जहाँ भविष्यत् काल की कोई विशेषता न कही जाए वहाँ लृट् लकार ही होता है। कल, परसों आदि विशेषण न लगे हों। भले ही घटना दो पल बाद की हो अथवा वर्ष भर बाद की, बिना किसी विशेषण वाले भविष्यत् में लृट् का प्रयोग करना है। ‘आज होगा’ – इस प्रकार के वाक्यों में भी लृट् होगा।

    ____________________________________

    भू धातु, लृट् लकार

    भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति

    भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ

    भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः

    आज मैं विद्यालय में होऊँगा।= अद्य अहं विद्यालये भविष्यामि।

    मैं विद्यालय में होऊँगा।= अहं विद्यालये भविष्यामि।

    कल मैं विद्यालय में होऊँगा।= श्वः अहं विद्यालये भवितास्मि। (लुट् लकार)

    ___________________

    वाक्य अभ्यास :

    आज सन्ध्या को वह उद्यान में होगा।= अद्य सायं सः उद्याने भविष्यति।

    प्रातः वे दोनों मन्दिर में होंगे।= प्राह्णे तौ मन्दिरे भविष्यतः।

    दिन में वे कहाँ होंगे ?= दिवसे ते कुत्र भविष्यन्ति ?

    आज दोपहर तुम कहाँ होगे ?= अद्य मध्याह्ने त्वं कुत्र भविष्यसि ?

    आज दोपहर मैं विद्यालय में होऊँगा ।= अद्य मध्याह्ने अहं विद्यालये भविष्यामि।

    तुम दोनों सायंकाल कहाँ होगे ?= युवां प्रदोषे कुत्र भविष्यथः ?

    हम दोनो तो सन्ध्यावन्दन में होंगे।= आवां तु सन्ध्यावन्दने भविष्यावः।

    क्या तुम वहाँ नहीं होगे ?= किं त्वं तत्र न भविष्यसि ?

    हाँ, मैं भी होऊँगा।= आम्, अहम् अपि भविष्यामि।

    हम सब दिन में वहीं होंगे।= वयं दिवा तत्र एव भविष्यामः।

    तुम सब तो सायंकाल में अपने घर होगे।= यूयं तु रजनीमुखे स्वगृहे भविष्यथ।

    और हम अपने घर होंगे।= वयं च स्वभवने भविष्यामः।

    तो उत्सव कैसे होगा ?= तर्हि उत्सवः कथं भविष्यति ?

    _______________________________

    लृट् लकार अभ्यास

    भू धातु, लृट् लकार
    भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति
    भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ
    भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः

    __________

    वाक्य अभ्यास :

    आप आज दोपहर में कहाँ होंगे ?
    = भवान् अद्य मध्याह्ने कुत्र भविष्यति ?
    आज दोपहर मैं खेल के मैदान में होऊँगा।
    = अद्य मध्याह्ने अहं क्रीडाक्षेत्रे भविष्यामि।
    तुम कहाँ होओगे ?
    = त्वं कुत्र भविष्यसि ?
    मैं भी वहीं होऊँगा।
    = अहम् अपि तत्र एव भविष्यामि।
    वहाँ नटों का खेल होगा।
    = तत्र शैलूषाणां कौतुकं भविष्यति।
    उसके बाद बच्चों का खेल होगा।
    = तत्पश्चात् बालकानां खेला भविष्यति।
    वहाँ तो बहुत से नट होंगे।
    = तत्र तु बहवः रङ्गजीवाः भविष्यन्ति खलु।
    तुम दोनों भी वहाँ होगे कि नहीं ?
    = युवाम् अपि तत्र एव भविष्यथः वा न वा ?
    हाँ हम दोनों भी वहीं होंगे।
    = आम्, आवाम् अपि तत्र एव भविष्यावः।
    हम सब भी अध्यापकों के साथ वहाँ होंगें।
    = वयम् अपि उपाध्यायैः सह तत्र भविष्यामः।
    बच्चों का खेल कब होगा?
    = बालानां कूर्दनं कदा भविष्यति ?
    नटों के खेल के बाद ही होगा।
    = भरतानां कुतकस्य पश्चात् एव भविष्यति।
    तब तो बहुत आनन्द होगा।
    = तर्हि तु भूरि मोदः भविष्यति।
    हाँ, आओ चलते हैं।
    = आम्, एहि चलामः।

    ____________________


    whether (conjuction)
    Old English hwæðer, hweðer
     "which of two, whether," 
    from Proto-Germanic *gihwatharaz (cognates Old Saxon hwedar,
     Old Norse hvarr, Gothic huaþar, 
    Old High German hwedar "which of the two,"
     German weder "neither"),
     from interrogative base *khwa- "who" (from PIE root *kwo-, stem of relative and interrogative pronouns) + comparative suffix *-theraz

     (cognate compounds in Sanskrit katarah, Avestan katara-, Greek poteros, Latin uter
     "which of the two, either of two," Lithuanian katras "which of the two," Old Church Slavonic koteru "which"). Its comparative form is either. 
    Also in Old English as a pronoun and adjective. Phrase whether or not (also whether or no) recorded from 1650s.

    चाहे (समुच्चय बोधक।)
    पुरानी अंग्रेज़ी में लिखा गया है, "प्रोटीओ-जर्मनिक * गहिवथराज़ (पुरानी सैकोन ह्वाडार, पुरानी नोर्स ह्वारैर, गॉथिक हुआउार, ओल्ड हाई जर्मन ह्वाडार" से दो में से "दो का, चाहे", "जर्मन वाडर" न तो) पूछताछ आधार से खावा- "कौन" (पीआईई रूट से * को-, रिश्तेदार और पूछताछ वाले सर्वनामों के स्टेम) + तुलनात्मक प्रत्यय * - थेराज़ (संस्कृत कटारह, आवेस्टान कटारा, ग्रीक पोटरोस, लैटिन लैटर में संगत संयुग्म ') दो, दो में से, दो में से "लिथुआनियाई कास्त्रों", जो "पुराना चर्च स्लावोनिक कोटरू" जो ")। इसकी तुलनात्मक रूप या तो है पुरानी अंग्रेजी में एक सर्वनाम और विशेषण के रूप में भी। वाक्यांश 1650 से रिकॉर्ड किए गए या नहीं (ये भी है या नहीं)।


    लृङ् लकार★

    लृङ् लकार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लकार है। कारण और फल के विवेचन के सम्बन्ध में जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो अर्थात् क्रिया न हो सकी हो तो ऐसे भूतकाल में लृङ् लकार का प्रयोग होता है। “यदि ऐसा होता तो वैसा होता” -इस प्रकार के भविष्यत् के अर्थ में भी इस लकार का प्रयोग होता है।

    जैसे –

    “यदि तू विद्वान् बनता तो सुख पाता।”= यदि त्वं विद्वान् अभविष्यः तर्हि सुखं प्राप्स्यः।

    यदि अच्छी वर्षा होती तो अच्छा अन्न होता।= सुवृष्टिः चेत् अभविष्यत् तर्हि सुभिक्षः अभविष्यत्।

    ____________

    लृङ् लकार भूत या भविष्यत् अर्थ में प्रयुक्त होता है। चन्द्र ऋषि द्वारा बनाये गये व्याकरण को मानने वाले वैयाकरण भविष्यत् काल के लिए लृङ् का प्रयोग नहीं करते अपितु लृट् का ही प्रयोग करते हैं।

    भू धातु , लृङ् लकार★

    अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन्

     अभविष्यः अभविष्यतम् अभविष्यत

    अभविष्यम् अभविष्याव अभविष्याम

    यदि आप ध्यानपूर्वक देखेंगे तो पायेंगे कि ये रूप लङ् लकार की भाँति ही हैं, केवल ‘इष्य’ अधिक जुड़ गया है। तुलना करके देखिए –

    अभवत् अभवताम् अभवन्

    अभवः अभवतम् अभवत

    अभवम् अभवाव अभवाम

    ________________

    भक्ष् (खाना) धातु, लृङ् लकार★

    अभक्षयिष्यत् अभक्षयिष्यताम् अभक्षयिष्यन्

    अभक्षयिष्यः अभक्षयिष्यतम् अभक्षयिष्यत

    अभक्षयिष्यम् अभक्षयिष्याव अभक्षयिष्याम

    ________________________________________

    शब्दकोश :

    फलों के नाम

    कैथा-

    १] कपित्थः

    २] ग्राही

    ३] मन्मथः

    ४] दधिफलः

    ५] पुष्पफलः

    ६] दन्तशठः

    ७] दधित्थः

    गूलर-

    १] उदुम्बरः

    २] हेमदुग्धः

    ३] जन्तुफलः

    ४] यज्ञाङ्गः

    ५] यज्ञयोग्यः

    नींबू-

    १] दन्तशठः

    २] जम्भः

    ३] जम्भीरः

    ४] जम्भलः

    ५] जम्भी

    ६] रोचनकः

    ७] शोधी

    ८] जाड्यारिः

    ९] दन्तहर्षणः

    १०] गम्भीरः

    ११] जम्बिरः

    १२] दन्तकर्षणः

    १३] रेवतः

    १४] वक्त्रशोधी

    १५] दन्तहर्षकः

    ___________________

    वाक्य अभ्यास :

    यदि वह कच्चा कैथा खाता तो कफ न होता।= यदि असौ आम-कपित्थम् अभक्षयिष्यत् तर्हि कफः न अभविष्यत्।

    यदि तुम कैथा खाते तो हिचकी ठीक हो जाती।= यदि त्वं दधित्थम् अभक्षयिष्यः तर्हि हिक्का सुष्ठु अभविष्यत्।

    यदि वे पके गूलर खाते तो उनका दाह ठीक हो जाता।= यदि अमी पक्वान् उदुम्बरान् अभक्षयिष्यन् तर्हि तेषां दाहः सुष्ठु अभविष्यत्।

    यदि तुम गूलर खाते तो पुष्ट हो जाते।= यदि त्वं हेमदुग्धान् अभक्षयिष्यः तर्हि पुष्टः अभविष्यः।

    तुम सब यदि नींबू खाते तो मुँह में दुर्गन्ध न होती।= यूयं यदि जम्भलम् अभक्षयिष्यत तर्हि मुखे दुर्गन्धः न अभविष्यत्।

    यदि मैं नींबू खाता तो मन्दाग्नि न होती।= यदि अहं जम्बीरम् अभक्षयिष्यम् तर्हि मन्दाग्निः न अभविष्यत्।

    यदि तुम दोनों भी नींबू खाते तो हृदयशूल न होता।= यदि युवाम् अपि रेवतम् अभक्षयिष्यतम् तर्हि हृदयशूलः न अभविष्यत्।

    यदि हम दोनों खेत में होते तो कैथे खाते।= यदि आवां क्षेत्रे अभविष्याव तर्हि दधिफलान् अभक्षयिष्याव।

    हम सब वहाँ होते तो गूलर खाते।= वयं तत्र अभविष्याम तर्हि जन्तुफलान् अभक्षयिष्याम।

    तुम होते तो तुम भी खाते।= त्वम् अभविष्यः तर्हि त्वम् अपि अभक्षयिष्यः।

    ___________________

    श्लोक :

    अभक्षयिष्यं यदि दुग्धदाधिकं                          घृतं रसालं ह्यपि हेमभस्मकम्।

    बताभविष्यं न कदापि दुर्बलः                          यथा त्विदानीं तनुविग्रहोऽभवम्॥

    यदि मैंने दूध-लस्सी, घी, रसीले आम और सुवर्णभस्म खाया होता तो हाय ! मैं कभी दुर्बल न होता जैसे आज सुखड़े शरीर वाला मैं हो गया हूँ।

    _________

    लृङ् लकार अभ्यास

    भू धातु , लृङ् लकार

    अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन्
    अभविष्यः अभविष्यतम् अभविष्यत
    अभविष्यम् अभविष्याव अभविष्याम

    भक्ष् (खाना) धातु, लृङ् लकार

    अभक्षयिष्यत् अभक्षयिष्यताम् अभक्षयिष्यन्
    अभक्षयिष्यः अभक्षयिष्यतम् अभक्षयिष्यत
    अभक्षयिष्यम् अभक्षयिष्याव अभक्षयिष्याम

    पा (पीना) धातु, लृङ् लकार

    अपास्यत् अपास्यताम् अपास्यन्
    अपास्यः अपास्यतम् अपास्यत
    अपास्यम् अपास्याव अपास्याम
    ________________________________________

    शब्दकोश :

    ‘दुग्ध’ के पर्यायवाची शब्द –
    १] दुग्धम् (नपुंसकलिंग )
    २] क्षीरम् (नपुंसकलिंग )
    ३] पयस् (नपुंसकलिंग )
    ४] उधस्यम् (नपुंसकलिंग )

    दूध से बनी वस्तुओं का नाम-
    १] पयस्यम् (नपुंसकलिंग )
    घी के पर्यायवाची शब्द –
    १] घृतम् (नपुंसकलिंग )
    २] आज्यम् (नपुंसकलिंग )
    ३] हविः { हविष् } (नपुंसकलिंग )
    ४] सर्पिः { सर्पिष् } (नपुंसकलिंग )

    मक्खन के नाम –
    १] नवनीतम् (नपुंसकलिंग )
    २] नवोद्धृतम् (नपुंसकलिंग )

    एक दिन के बासी दूध से निकाले गए घी का नाम-
    १] हैयङ्गवीनम् (नपुंसकलिङ्ग)
    गोरस (मठ्ठे) के नाम –
    १] दण्डाहतम् (नपुंसकलिंग )
    २] कालशेयम् (नपुंसकलिंग )
    ३] अरिष्टम् (नपुंसकलिंग )
    ४] गोरसः (पुँल्लिंग )
    ५] तक्रम् (नपुंसकलिंग )
    ६] उदश्वित् (नपुंसकलिंग )
    ७] मथितम् (नपुंसकलिंग ).                            ८] मस्तुम्( मट्ठा)(नपुंसकलिंग )

    (मस्यति परिणमतीति ।  मस् +“ सितनिगमिमसिसच्यविधाञ् क्रुशिभ्यस्तुन् । “ उणादि सूत्र -१। ७० ।  इति तुन् । )  दधिभवमण्डम् ।  दधिर मात् इति भाषा ॥  इत्यमरः २ ।  ९ ।  ९४ ॥  दधिजलम् ।  द्विगुणवारियुतं दधि ।  अस्य गुणाः । 

    “ उष्णाम्लं रुचिपित्तदं श्रमहरं बल्यं कषायं सरं भुक्तिच्छन्दकरं तृषोदरगदप्लीहार्शसां नाशनम् । श्रोतःशुद्धिकरं कफानिलहरं विष्टम्भशूलापहं पाण्डुश्वासविकारगुल्मशमनं मस्तु प्रशस्तं लघु ॥ “ इति राजनिर्घण्टः ॥ 

    _____

    अपि च । “ मस्तु क्लमहरं स्वल्पं लघु भुक्ताभिलाषकृत् । श्रोतोविशोधनं ह्लादि कफतृष्णाविलापहम् ॥ अवृष्यं प्रीणनं शीघ्रं भिनत्ति मलसंग्रहम् ॥ “ इति भावप्रकाशः ॥ 

    'Mastu''' in the [[यजुर्वेद|Yajurveda]] Saṃhitās [[तैत्तिरीय|Taittirīya]] Saṃhitā, vi. 1, 1, 4;
    [[काठक|Kāṭhaka]] Saṃhitā, xxxvi. 1.
     and the Brāhmaṇas Satapatha [[ब्राह्मण|Brāhmaṇa]], i. 8, 1, 7;
    iii. 3, 3, 2, etc.
     denotes ‘sour curds.’

    ______________________________________

    वाक्य अभ्यास :
    ============

    यदि वह दूध पीता तो मोटा हो जाता।
    = यदि असौ क्षीरम् अपास्यत् तर्हि स्थूलः अभविष्यत्।(हेतुहेतुमद्भूत-)

    यदि तुम घी खाते तो बलवान् होते ।
    = यदि त्वं घृतम् अभक्षयिष्यः तर्हि बलवान् अभविष्यः ।

    यदि घर में घी होता तो मैं खाता।
    = गृहे आज्यम् अभविष्यत् चेत् तर्हि अभक्षयिष्यम्।

    यदि वे छाछ पीते तो उनका दाह ठीक हो जाता।
    = यदि अमी कालशेयम् अपास्यन् तर्हि तेषां दाहः सुष्ठु अभविष्यत्।
    यदि तुम मक्खन खाते तो पुष्ट हो जाते।
    = यदि त्वं नवनीतम् अभक्षयिष्यः तर्हि पुष्टः अभविष्यः।
    तुम सब यदि दूध पीते तो दुर्बलता न होती।
    = यूयं यदि पयः अपास्यत तर्हि दौर्बल्यं न अभविष्यत्।
    यदि मैं लवण युक्त छाछ पीता तो मन्दाग्नि न होती।
    = यदि अहं लवणान्वितं तक्रम् अपास्यम् तर्हि मन्दाग्निः न अभविष्यत्।
    यदि तुम दोनों भी छाछ पीते तो हृदयशूल न होता।
    = यदि युवाम् अपि गोरसम् अपास्यतम् तर्हि हृदयशूलः न अभविष्यत्।
    हम दोनों के घर गाय होती तो छाछ भी होता।
    = यदि आवयोः गृहे धेनुः अभविष्यत् तर्हि तक्रम् अपि अभविष्यत्।
    यदि हम दोनों घर में होते तो मक्खन खाते।
    = यदि आवां भवने अभविष्याव तर्हि नवोद्धृतम् अभक्षयिष्याव।
    हम सब वहाँ होते तो दूध से बनी वस्तुएँ खाते।
    = वयं तत्र अभविष्याम तर्हि पयस्यम् अभक्षयिष्याम।
    तुम होते तो तुम भी खाते।
    = त्वम् अभविष्यः तर्हि त्वम् अपि अभक्षयिष्यः।
    यदि घर में घी होता तो बच्चे बुद्धिमान् होते।
    = यदि गृहे सर्पिः अभविष्यत् तर्हि बालाः मेधाविनः अभविष्यन्।
    हमारे देश में गोरक्षा होती तो कुपोषण न होता।
    = अस्माकं देशे यदि गोरक्षा अभविष्यत् तर्हि कुपोषणं न अभविष्यत्।
    सोंठ और सेंधा नमक से युक्त छाछ पीते तो वात रोग न होता।
    = शुण्ठीसैन्धवयुतं तक्रम् अपास्यः तर्हि वातरोगः न अभविष्यत्।
    हींग और जीरा युक्त छाछ पीते तो अर्शरोग न होता।
    = हिङ्गुजीरयुतं मथितम् अपास्यः तर्हि अर्शः न अभविष्यत्।
    ________________________________________

    श्लोक :
    =====

    न तक्रसेवी व्यथते कदाचित्
    न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः।
    यथा सुराणाममृतं सुखाय
    तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः ॥

    छाछ का सेवन करने वाला कभी व्यथित नहीं होता, छाछ द्वारा दूर हुए रोग पुनः नहीं होते। जैसे देवताओं के सुख लिए अमृत होता है उसी प्रकार मनुष्यों के लिए धरती पर छाछ को (अमृततुल्य) कहा गया है।

    आत्मनेपदी धातुएँ

    श्रमेण चित्रयोधित्वं श्रमेण प्राप्यते जयः।         तस्माद् गुरुसमक्षं हि श्रमः कार्यो विजानता॥

    श्रम से ही अद्भुत योद्धा बना जा सकता है, श्रम से ही विजय प्राप्त होती है, इसलिए सिद्धान्तों को जानते हुए, गुरु के समक्ष ही अभ्यास करना चाहिए।( सौवाँ श्लोक)

    (1) आपको स्मरण होगा कि प्रारम्भिक पाठों में हमने बताया था कि जब ‘भू’ आदि धातुओं से भवति भवतः भवन्ति आदि क्रियापद बनाते हैं तो उनमें ‘तिङ्’ प्रत्यय जोड़कर ही ये रूप बनते हैं।


    (2) उन तिङ् प्रत्ययों में से पहले नौ प्रत्यय ‘परस्मैपदी’ कहे जाते हैं और अन्तिम नौ प्रत्यय ‘आत्मनेपदी’। यह परस्मैपद और आत्मनेपद महर्षि पाणिनि जी के द्वारा बनाये गये पारिभाषिक शब्द हैं। जैसे पाण्डु के सभी पुत्रों को ‘पाण्डव’ कहकर काम चला लिया जाता है वैसे ही परस्मैपद और आत्मनेपद कहकर नौ नौ प्रत्ययों का नाम ले लिया जाता है, अलग अलग अट्ठारहों प्रत्यय नहीं गिनाना पड़ता।

    (3) परस्मैपद प्रत्ययों के जुड़ने पर जिस प्रकार के रूप बनते हैं वह आपने भू धातु के अभ्यास से जान लिया। भू धातु परस्मैपदी होती है, अतः उसमें परस्मैपद प्रत्यय तिप् तस् झि आदि जुड़े। अब एक धातु आत्मनेपदी बतायेंगे। उसके रूप किस प्रकार से चलते हैं यह आप देख लीजिएगा। ऊपर जो वशिष्ठधनुर्वेद से श्लोक उद्धृत किया है, उसमें ‘प्राप्यते’ क्रियापद आत्मनेपदी है। आत्मनेपद प्रत्यय देख लीजिए –

    ______

    त आताम् झ

    थास् आथाम् ध्वम्

    इट् वहि महिङ्

    ____________

    जब किसी धातु में इन्हें जोड़ते हैं तो इनमें कुछ परिवर्तन हो जाता है, देखिए ये इस प्रकार हो जाते हैं-

    ते एते अन्ते

    असे एथे अध्वे

    ए आवहे आमहे

    मुद् हर्षे (प्रसन्न होना) धातु, आत्मनेपदी

    लट् लकार

    मोदते मोदेते मोदन्ते

    मोदसे मोदेथे मोदध्वे

    मोदे मोदावहे मोदामहे

    लुङ् लकार

    अमोदिष्ट अमोदिषाताम् अमोदिषत

    अमोदिष्ठाः अमोदिषाथाम् अमोदिध्वम्

    अमोदिषि अमोदिष्वहि अमोदिष्महि

    लङ् लकार

    अमोदत अमोदेताम् अमोदन्त

    अमोदथाः अमोदेथाम् अमोदध्वम्

    अमोदे अमोदावहि अमोदामहि


    लिट् लकार (केवल प्रथम पुरुष)

    मुमुदे मुमुदाते मुमुदिरे


    आपको लगता होगा कि हे भगवान् इतने सारे क्लिष्ट उच्चारण वाले रूप कैसे और कितने सारे याद करने पड़ेंगे ? तो डरिये मत ! मा भैषीः ! आपको किसी एक प्रतिनिधि धातु के रूप किसी प्रकार याद कर डालने हैं बाकी सभी आत्मनेपदी धातुओं के रूप इसी प्रकार चलेंगे। यदि आप प्रत्येक रूप पर आधारित कम से कम एक दो वाक्य बनाकर अभ्यास कर डालें तो ये शीघ्र याद हो जाएँगे। फिर तो आपको आनन्द ही आनन्द आयेगा।


    4) आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह कैसे पता चलेगा कि कौन सी धातु परस्मैपदी है और कौन सी आत्मनेपदी अथवा उभयपदी ? तो यह पता चलता है धातुपाठ को पढ़ने से। उभयपदी धातुएँ वे होती हैं जिनके रूप दोनों प्रकार से चलते हैं। अगले पाठों में धातुओं के विषय में यह सब निर्देश कर दिया करेंगे।


    5) आगे के पाठों में हम केवल रूपों का संकेत मात्र कर दिया करेंगे, उसी प्रकार से बहुत सी धातुओं के रूप चलेंगे।

    _____________________________________

    वाक्य अभ्यास :

    ===========

    बच्चे लड्डुओं से प्रसन्न होते हैं।= बालकाः मोदकैः मोदन्ते।


    मैं सेवइयों से प्रसन्न होता हूँ।= अहं सूत्रिकाभिः मोदे।

    तुम किससे प्रसन्न होते हो ?= त्वं केन मोदसे ?

    मुझे देखकर तुम प्रसन्न हुए थे।= मां दृष्ट्वा त्वम् अमोदिष्ठाः।

    मैं भी प्रसन्न हुआ था।= अहम् अपि अमोदिषि।

    वे भी मेरे आगमन से प्रसन्न हुए थे।= ते अपि मम आगमनेन अमोदिषत।

    कल बच्चों का खेल देखकर तुम क्यों प्रसन्न नहीं हुए ?= ह्यः खेलां दृष्ट्वा त्वं कथं न अमोदथाः ?

    मैं तो कल बहुत प्रसन्न हुआ था।= अहं तु ह्यः बहु अमोदे।

    वे बच्चे भी कल बहुत प्रसन्न हुए थे।= ते बालकाः अपि ह्यः बहु अमोदन्त।

    हनुमान् को देखकर सीता प्रसन्न हुईं।= हनूमन्तं दृष्ट्वा सीता मुमुदे।

    राम और लक्ष्मण को देखकर ऋषि प्रसन्न हुए।= रामं लक्ष्मणं दृष्ट्वा ऋषयः मुमुदिरे।

    सैद्धान्तिक प्रयोग-

    __________________

    विषयः--पक्वः/पक्तः

    प्रश्नः

    "पाचकेन तण्डुलः पक्वः" उत "पाचकेन तण्डुलः पक्तः" -- अनयोः कः प्रयोगः साधुः ?

    उत्तरम्

    "पाचकेन तण्डुलः पक्वः"  इत्येव साधुः प्रयोगः |

    - डुपचष् पाके इति भ्वादिगणीयः, अनिट् धातुः | अनुबन्धलोपानन्तरं पच् इति लौकिकधातुः अवशिष्यते |

    - क्त-प्रत्ययः आर्धधातुकः, सेट् च कित् प्रत्ययः | क्तक्तवतू निष्ठा (१.१.२६) इत्यनेन सूत्रेण क्त-प्रत्ययस्य क्तवतु-प्रत्ययस्य च निष्ठासंज्ञा |

    - पच्-धातुतः झलादि-क्त-प्रत्यये विहिते चोः कुः (८.२.३०) इत्यनेन सूत्रेण पच्-धात्वाङ्गे चकारस्य स्थाने ककारादेशः, पच् + क्त → पक् + त |

    - पक् + त इत्यस्यां दशायां पचो वः (८.२.५२) इत्यनेन निष्ठासंज्ञकस्य क्त-प्रत्ययस्य तकारस्य स्थाने वकारादेशः, पक् + त → पक् + व |

    - आहत्य पच्-धातोः क्त-प्रत्यये परे पच् + क्त → पक् + त → पक् + व → पक्व इति प्रातिपदिकं निष्पन्नम्। स्त्रीलिङ्गे पक्वा, पुंलिङ्गे पक्वः, नपुंसकलिङ्गे पक्वम् |

    - अत्र पच् + क्त इति स्थितौ चोः कुः, पचो वः द्वयोः अपि सूत्रयोः युगपत्‌ प्रसक्तिः | द्वे अपि त्रिपादिसूत्रे इत्यतः पूर्वत्रासिद्धम्‌ (८.२.१) इत्यनेन परशास्त्रम् असिद्धं भवति |

    - तस्मात्‌ पूर्वसूत्रस्य, नाम चोः कुः इत्यस्य कार्यं प्रथमम् आयाति |

    - यदि पचो वः इत्यस्य कार्यं प्रथमम् अभविष्यत् तर्हि पच्-धतोः चकारस्य वकारपरत्वात् चोः कुः इति अप्रसक्तम् अभविष्यत्, वकारः झलि नास्ति इत्यतः | अनेन पक्व इति इष्टं रूपं नासेत्स्यत्‌ |

    - अतः पक्व इति इष्टं रूपं साधयितुं चोः कुः इत्यनेन चकारस्य स्थाने ककारः इति सन्धिकार्यं प्रथमं भवति | तदनन्तरम्‌ एव पचो वः इत्यनेन क्त-प्रत्ययस्य तकारस्य वकारदेशः |

    - अनया एव रीत्या पच्-धातुतः निष्ठासंज्ञके क्तवतु-प्रत्यये विहिते पक्ववत् इति प्रातिपदिकम्, स्त्रीलिङ्गे पक्ववती, पुंलिङ्गे पक्ववान् |

    - निष्ठासंज्ञकप्रत्ययौ विहाय अपरेषु प्रत्ययेषु परेषु पचो वः (८.२.५२) इत्यनेन वकारादेशः नास्ति; एषु अपरेषु झलादि-प्रत्ययेषु चोः कुः इत्यनेन च-कारस्य स्थाने क-कारः इति सन्धिकार्यमेव |

    - यथा, पच् + तुमुन् → पक्तुम्, पच् + क्त्वा → पच्‌ + त्वा '→' पक्त्वा, पच् + तव्यत् → पक्तव्य इत्यादीनि रूपाणि |

    __________________________________

    –ग्रहीतुम् /गृहितुम्

    विषयः — ग्रहीतुम् /गृहितुम्  

    प्रश्नः

    "बालकः कन्दुकं ग्रहीतुम् उद्युक्तः" उत "बालकः कन्दुकं गृहितुम् उद्युक्तः" ? कः प्रयोगः साधुः ?

    उत्तरम्

    "बालकः कन्दुकं ग्रहीतुम् उद्युक्तः" इत्येव साधुः प्रयोगः |

    - ग्रह् धातोः तुमुन् प्रत्यये परे ग्रह् + तुमुन्

    - उकार-नकारयोः इत्सज्ञालोपानन्तरं ग्रह् + तुम् | उपदेशेऽजनुनासिक इत् , हलन्त्यम् - इत्यनयोः  उकार-नकारयोः इत्सज्ञा | तस्य लोपः इत्यनेन  इत्सज्ञालोपः  |

    - इडागमे ग्रहोलिटि दीर्घः इत्यनेन इटः दीर्घे ग्रह + ई + तुम्-> ग्रहीतुम् इति भवति न तु ग्रहितुम् इति 

    - गृहीत्वा इत्यादिषु तु सम्प्रसारणेन गृहीत्वा इति भवति | तुमुन्प्रत्यये परे सम्प्रसारणाभावः (तुमुन्‌ न कित्‌ न वा ङित्‌ इति कारणेन) | सम्प्रसारणाभावात्‌ ग्रहीतुम् इत्येव भवति |

    परिशिष्टम्‌

    धातुः -> ग्रह् । तथापि कुत्रचित् गृह् इति दृश्यते (तन्नाम सम्प्रसारणभूतं रूपं पश्यामः , सम्प्रसारणसज्ञाविधेयकं सूत्रं तु इग्यणः सम्प्रसारणम् ) । कदा ग्रह् , कदा गृह् इत्येव प्रश्नः प्रायः बाधते । तदर्थम् अधः किञ्चिद् निरूप्यते ।

    ङिति परे / किति परे च  सम्प्रसारणं (गृह् इति ) भवति । (६।१।१६ ग्रहिज्या...... ) । किति => क्त्वा , क्तवतु , क्तः इत्यादयः ।

    अन्यच्च , सार्वधातुकलकारेष्वपि सम्प्रसारणम् यतः ङित्वद्भादेशः वर्तते । (तत् कथम् ?  सार्वधातुकमपित् इति सूत्रम्) ।  श्ना इति अपित् सार्वधातुकम् अतः ङित्वत् । तस्मात् गृह्णाति इत्यादीनि रूपाणि ।

    सम्भाषणोपयोगिनां मुख्यभूतानां धातूनां सूची अधः वर्तते (धातुसङ्कीर्तनं त्वत्र --> ६।१।१५ , ६।१।१६)

    ____________________________________

    - प्रच्छ् --> पृच्छ्  (पृष्ट्वा , प्रष्टुम्  )

    - वह् --> उह् (निर्वहति किन्तु निरूह्यते [कर्मणि])

    - वस् --> उष् (वसति , वस्तुम् किन्तु उषित्वा )

    - ग्रह् --> गृह् (गृह्णाति / ग्रहीतुम् ) ६।१।१६ इति सूत्रे न सर्वे सम्प्रसारणिधातव उल्लिखिताः ।

    ६।१।१६ इति सूत्रे न सर्वे सम्प्रसारणिधातव उल्लिखिताः ।

    अन्यच्च , श्रु इति परिचितो धातुरेव । अस्यापि शृणोति इति रूपं दृष्ट्वा आशङ्कामहे यत् अस्य धातोरपि ग्र्ह्-धातुवद् रूपाणि भवेयुः किन्तु श्रु इति न सम्प्रसारणिधातुः (न चात्र सम्प्रसारणम्) । अयं विशेषः , केवलं सार्वधातुकलकारेषु (शतृरूपेषु च) शृ इति धात्वादेशः । (३।१।७४ श्रुवः शृ च) ।

    (परिशिष्टं मनीषमहोदयेन विरचितम्‌)(परिशिष्टं मनीषमहोदयेन विरचितम्‌)

    ______________________________________

    विषयः - अवगत्य / अवगम्य

    प्रश्नः

    "बालकः पठित्वा विषयम्‌ अवगत्य परीक्षायाम्‌ उत्तीर्णः अभूत्‌" उत "बालकः पठित्वा विषयम्‌ अवगम्य परीक्षायाम्‌ उत्तीर्णः अभूत्‌" -- अनयोः कः प्रयोगः साधुः?

    उत्तरम्

    "बालकः पठित्वा विषयम्‌ अवगत्य परीक्षायाम्‌ उत्तीर्णः अभूत्‌" च "बालकः पठित्वा विषयम्‌ अवगम्य परीक्षायाम्‌ उत्तीर्णः अभूत्‌" -- उभौ प्रयोगौ साधू स्तः |

    - गम्लृ गतौ इति भ्वादिगणीयः सकर्मकः परस्मैपदी अनिट् धातुः | अनुबन्धलोपानन्तरं गम् इति अनुनासिकान्तः लौकिकधातुः निष्पन्नः |

    - अव-उपसर्गसहित-गम्-धातुतः समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्‌ (७.१.३७) इत्यनेन ल्यपि विहिते अवगत्य च अवगम्य इति रूपद्वयस्यापि सिद्धता |

    - अव + गम् + ल्यप् इत्यस्यां दशायां वा ल्यपि (६.४.३८) इत्यनेन सूत्रेण अनुनासिकान्तस्य गम्-धातोः अनुनासिकलोपः भवति विकल्पेन |

    - अनुनासिकस्य मकारस्य लोपः न भवति चेत्, अव + गम् + ल्यप् → अव + गम् + य → अवगम्य इति ल्यबन्तं रूपं सिद्धम् |

    - अयं वैकल्पिकः अनुनासिकलोपः भवति चेत्, अव + गम् + ल्यप् → अव + ग + य इति स्तिथिः 

    - तदा ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्‌ (६.१.७०) इत्यनेन ह्रस्वस्वरस्य तुक्-आगमः | ल्यप्-प्रत्ययः कृत् च पित् प्रत्ययः |

    - अतः ल्यपि परे ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्‌ इत्यनेन अव + ग + य →  अव + ग् अ + य → अव + ग् अ त् + य → अवगत्य इति सिध्यति |

    - अनेन अव-उपसर्गपूर्वकस्य गम्-धातोः अवगत्य च अवगम्य इति रूपद्व्यमपि साधु | तथैव, आगत्य च आगम्य इत्यनयोः सिद्धत्वम् |

    - गम्-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते गम् + क्त्वा इत्यस्यां दशायाम्‌, अनुदात्तोपदेश-वनति-तनोत्यादीना-मनुनासिकलोपो झलि क्ङिति (६.४.३७) इत्यनेन अनुनासिकलोपे सति गत्वा इति क्त्वान्तं रूपम्

    - धेयं यत् 'अनुदात्तोपदेश-वनति-तनोत्यादीना-मनुनासिकलोपो झलि क्ङिति' (६.४.३७) इत्यस्य कार्यं किति, ङिति, झलादि प्रत्यये परे एव | यथा, गम् + क्तवतु → ग + तवत्‌ → गतवान्/गतवती, गम् + क्त → ग + त → गतः/गता |

    - ल्यप्-प्रत्ययः कित्-ङित्-भिन्नः, न झलादिः | अतः उपरितनेन सूत्रेण नित्यानुनासिकलोपो न भवति | अपि तु वा ल्यपि (६.४.३८) इत्यनेन ल्यपि परे गम्-धातोः अनुनासिकलोपः वैकल्पिकः | अस्मिन् 'अनुनासिकलोपो' इत्यस्य अनुवृत्तिः तस्मादेव पूर्वसूत्रात् ।


    ––––––––––––––

    'विषयः-'उषित्वा/वसित्वा/वस्त्वा

    प्रश्नः"छात्रः विदेशे उषित्वा विद्याभ्यासं करोति", "छात्रः विदेशे वसित्वा विद्याभ्यासं करोति", "छात्रः विदेशे वस्त्वा विद्याभ्यासं करोति" -- एषु प्रयोगेषु कः साधुः ?

    उत्तरम्

    "छात्रः विदेशे उषित्वा विद्याभ्यासं करोति" इत्येव साधुः प्रयोगः |

    वस्-धातोः किति प्रत्यये परे इडागमः, सम्प्रसारणं च

    - वस्-धातुः भ्वादिगणीयः, अकर्मकः, अनिट् धातुः | तस्य लटि वसति, वसतः, वसन्ति इत्यादीनि रूपाणि |

    - वस्-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये परे वस् + क्त्वा इत्यस्यां दशायाम्‌ इडागमस्य विचारः करणीयः |

    - क्त्वा-प्रत्ययः वलादिः, आर्धधातुकः प्रत्ययः; अतः आर्धधातुकस्येड्वलादेः (७.२.३५) इत्यनेन सूत्रेण तस्य इडागमः विधीयते |

    - क्त-प्रत्ययोऽपि, क्तवतु-प्रत्ययोऽपि च वलादी, अतः अनयोः अपि प्रत्यययोः आर्धधातुकस्येड्वलादेः (७.२.३५) इत्यनेन सूत्रेण इडागमः विधीयते |

    - वस्-धातुः अनिट् इत्यतः इडानुकूल्यम् अस्य धातोः नास्ति | यत्र धातु-प्रत्यययोः मध्ये एकोऽपि इडनुकूलो नास्ति, तत्र इडागमो न भवति |  

    - किन्तु वस्-धातोः क्त्वा-प्रत्यये परे उषित्वा, क्त-प्रत्यये परे उषितः, क्तवतु-प्रत्यये परे उषितवान्‌, इति इडागमघटितानि रूपाणि सन्ति |

    - वस्-धातुः इडननुकूलः | तथापि इडनुकूलेषु क्त्वा, क्त, क्तवतु इत्यादिषु प्रत्ययेषु परेषु इडागमः दृश्यते |  

    - अस्य कारणं किम् इति प्रश्ने कृते उत्तरम् अधः |

    - वसतिक्षुधोरिट्‌ (७.२.५२) इत्यनेन वस्-धतूत्तरस्य क्त्वा, क्त, क्तवतु इत्येषाम्‌ इडागमः नित्यः | अनेन वस्-धातुः अनिट्‌ चेदपि एषाम्‌ इडागमो भवति |

    - वस् + क्त्वा → वस् + इ + क्त्वा, वस् + क्त → वस् + इ + क्त, वस् + क्तवतु → वस् + इ + क्तवतु |

    - क्त्वा, क्त, क्तवतु -- एते प्रत्ययाः कितः | क् इत् यस्य सः कित् | कित्-प्रत्यये परे वस्‌-धातोः सम्प्रसारणं विधीयते |

    - किति प्रत्यये परे वस्-धातौ वचिस्वपियजादीनां किति (६.१.१५) इत्यनेन सूत्रेण सम्प्रसारणं भवति |

    - सम्प्रसारणं नाम यणः स्थाने इक्‌-आदेशः | वस्‌-धातोः यत्र सम्प्रसारणं भवति, तत्र वस्‌ → उस्‌ इति परिवर्तनं विद्यते |

    - वस् + इ + क्त्वा → उस् + इ + क्त्वा, वस् + इ + क्त → उस् + इ + क्त, वस् + इ + क्तवतु → उस् + इ + क्तवतु |

    - सम्प्रसारणे जाते, शासिवसिघसीनाम्‌ च (८.३.६०) इत्यनेन वस्‌-धातोः इण्‌-प्रत्याहारे स्थितस्य उकारोत्तरस्य सकारस्य षत्वम्‌ |

    - उष् + इ + क्त्वा → उषित्वा, उष् + इ + क्त → उषितः, उष् + इ + क्तवतु → उषितवान् |

    - कर्मणि प्रयोगे यः यक्-प्रत्ययः, सोऽपि कित्; कित्त्वात्‌ सम्प्रसारणम्‌ | अस्य इडागमः किन्तु न भवति, यतोहि प्रथमतया यक्‌-प्रत्ययः वलादिः एव नास्ति |

    - ततः अग्रे च यक्कृते किमपि अपवादभूतसूत्रं नास्ति | (वसतिक्षुधोरिट्‌ (७.२.५२) इति सूत्रेण वस्-धतूत्तरस्य क्त्वा, क्त, क्तवतु इत्येषाम्‌ एव इडागमः |)

    - अतः यकि परे केवलं सम्प्रसारणं, षत्वं च | वस् + यक् + ते → उस् + य + ते → उष्यते |

    क्त्वा-प्रत्यये विहिते प्रक्रिया काचित् भिन्ना

    - वस्-धातोः विहितस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य वसतिक्षुधोरिट्‌ (७.२.५२) इत्यनेन सूत्रेण इडागमः नित्यः |

    - न क्त्वा सेट्‌ (१.२.१८) इत्यनेन यदा क्त्वा सेट्‌, नाम यदा तस्य इडागमो भवति, तदा अयं क्त्वा कित्‌ नास्ति इति आरोपो भवति | इदम् अतिदेशसूत्रम्‌ |

    - किमर्थम्‌ इदं कृतम्‌ इति चेत्‌, यत्र इडागमो नास्ति तत्र क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वम्‌ अपेक्षितं गुणस्य निवारणार्थम्‌ | कृ → कृत्वा, हु → हुत्वा |

    - किन्तु यत्र क्त्वा-प्रत्ययस्य इडागमो भवति, तत्र गुणः अपेक्षितः | गुणस्य रक्षणार्थं कित्त्वं बाधितं न क्त्वा सेट्‌ (१.२.१८) इत्यनेन सूत्रेण |

    - उदाहरणत्वेन एषु प्रसङ्गेषु गुणः अपेक्षितः, कित्त्वं बाधितं च -- स्विद्‌ → स्वेदित्वा | दिव्‌ → देवित्वा | वृत्‌ → वर्तित्वा | **

    - किन्तु मृड-मृद-गुध-कुष-क्लिश-वद-वसः क्त्वा (१.२.७) इत्यनेन इडागमे विहितेऽपि क्त्वा-प्रत्यये कित्त्वम् आरोपितम् |

    - कित्त्वम् आरोपितम् येन वचिस्वपियजादीनां किति (६.१.१५) इत्यनेन सूत्रेण किति प्रत्यये परे वस्-धातौ सम्प्रसारणं स्यात्‌ |

    - सम्प्रसारणे जाते, उकारोत्तरवर्तिनः सकारस्य शासिवसिघसीनाम्‌ च (८.३.६०) इत्यनेन षत्वम्‌ |

    - वस् + क्त्वा → वस् + इ + त्वा → उस् + इ + त्वा → उष् + इ + त्वा → उषित्वा |

    - आहत्य वस्-धातोः क्त्वान्तरूपम्‌ उषित्वा इति | न तु वसित्वा, वस्त्वा वा |

    - पुनः कुत्रचित्‌ इदं कित्त्वं वैकल्पिकम्‌ | रलो व्युपधाद्‌ हलादेः संश्च (१.२.२६) इत्यनेन हलन्तधातोः उपधायाम्‌ इकारः अथवा उकारः चेत्‌, अपि च अन्ते यकारं वकारं वर्जयित्वा कोऽपि हल्‌-वर्णः चेत्‌, तस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं, गुणकार्यं च वैकल्पिकम्‌ | यथा लिख्‌-धातुतः क्त्वा-प्रत्ययः एकवारं कित्‌, एकवारं च अकित्‌ | अनेन रूपद्वयं सिध्यति, लिखित्वा, लेखित्वा च |

    ______

    विषयः -हित्वा' कस्य धातोः?'

    ______________________

    प्रश्नः

    "लोभं हित्वा सुखी भवेत्" -- अस्मिन् 'हित्वा' इति कस्य धातोः रूपम्‌, अर्थश्च कः ?

    उत्तरम्- हित्वा इति क्त्वान्तरूपं द्वयोः धात्वोः भवति-- हा-धातोः, धा-धातोः च | उभयत्र अर्थः भिन्नः, अतः सावधानतया इदं रूपं प्रयोक्तव्यम्‌ |

    - उपरितने वाक्ये 'हित्वा' इति हा-धातोः क्त्वान्तरूपम् | 'ओहाक् त्यागे' इति जुहोत्यादिगणीयः परस्मैपदी, अनिट् धातुः | अनुबन्धलोपे हा अवशिष्यते |

    - लट्-लकारे अस्य जहाति, जहीतः, जहति इत्यादीनि रूपाणि | वाक्ये प्रयोगः -- सज्जनः दुर्जनसंसर्गं जहाति (त्यजति) |

    - हा-धातोः क्त्वा-प्रत्यये विहिते, हा + क्त्वा → हा + त्वा | समानकर्तृकयोः पूर्वकाले (३.४.२१) इति क्त्वा-विधायकं सूत्रम् |

    - हा + त्वा इत्यस्यां दशायां जहातेश्च क्त्वि (७.४.४३) इत्यस्मात् हा-धातोः हि-आदेशः भवति क्त्वा-प्रत्यये परे |

    - अनेन, हा + क्त्वा → हा + त्वा → हि + क्त्वा → हित्वा इति हा-धातोः क्त्वान्तरूपं निष्पन्नम् |

    - 'हित्वा' इति जुहोत्यादिगणीयस्य 'डुधाञ् धारणपोषणयोः' इत्यस्य धातोः अपि क्त्वान्तरूपम् |

    - 'डुधाञ्' इत्यस्य अनुबन्धलोपानन्तरं धा इति अवशिष्यते | दधाति, धत्तः, दधति इत्यादीनि लटि रूपाणि |

    - धा-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते दधातेर्हि (७.४.४२) इत्यनेन धा-धातोः हि-आदेशः तकारादि-किति प्रत्यये परे |

    - अनेन,  धा + क्त्वा → धा + त्वा → हि + त्वा → हित्वा इति धा-धातोः क्त्वान्तरूपं निष्पन्नम् |

    - धा-धातोः हि-आदेशो भवति कस्मिन्नपि तकारादि-किति प्रत्येये परे, अतः वि-उपसर्गपूर्वक-क्तान्तरूपं भवति 'विहितः' |

    - यथा-- 'कृ-धातोः यदा तृच्‌-प्रत्ययः विहितः तदा कर्तृ इति तृजन्तरूपं निष्पद्यते' इति प्रयोगः |

    - दधातेर्हि (७.४.४२) इति सूत्रात् एव 'हि' इति अनुवर्तते जहातेश्च क्त्वि (७.४.४३) इत्यस्मिन् |

    - उभयोः धात्वोः हि-आदेशो भवति क्त्वान्तरूपस्य निर्माणस्य समये येन रूपसाम्यम् अस्ति |

    - अतः वाक्ये हित्वा इति पदस्य प्रयोगं परिशील्य, वाक्यार्थस्य बलेन अस्य अर्थः निर्णेतव्यः |

    - "लोभं हित्वा सुखी भवेत्" इत्यस्य "लोभं त्यक्त्वा सुखी भवेत्" इति अर्थः |

    - त्यक्त्वा इति अर्थः चेत् हा-धातोः एव क्त्वान्तरूपम् अस्ति न तु धा-धातोः |

    ___________________________          

    विषयः - अकृत्वा / अकृत्य

    प्रश्नः

    "बालकः भोजनम् अकृत्वा शालां गतवान्" उत "बालकः भोजनम् अकृत्य शालां गतवान्" उत्तरम्

    उत्तरम्

    "बालकः भोजनम् अकृत्वा शालां गतवान्" इत्येव साधुः प्रयोगः | - कृ-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते कृत्वा इति सुबन्तपदं निष्पन्नं भवति | *

    - कृ-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते कृत्वा इति सुबन्तपदं निष्पन्नं भवति | *

    - नञ् (२.२.६) इत्यनेन सूत्रेण नञ् इति अव्ययं सुबन्तेन सह समस्यते | अयं नञ्-समासः |

    - नञा सह समासे जाते नञः नकारस्य लोपः भवति समस्तपदे नलोपो नञः (६.३.७३) इत्यनेन; अकारः अवशिष्यते |

    - उदाहरणत्वेन, नञ् + धर्मः → न + धर्मः → अ + धर्मः → अधर्मः इति नञ्-तत्पुरुषः समासः |

    - एवमेव, नञ् + कृत्वा → न + कृत्वा → अ + कृत्वा → अकृत्वा इति नञ्-तत्पुरुषः समासः |

    - अत्र प्रश्नः उदेति यत् अ-पूर्वक-कृ-धातोः क्त्वा-विवक्षायां ल्यप्-प्रत्ययः किमर्थं न स्यात् इति |

    - यथा, आनी + ल्यप् → आनीय, विस्मृ + ल्यप् → विस्मृत्य, प्रपठ् + ल्यप् → प्रपठ्य, स्वीकृ + ल्यप् → स्वीकृत्य |

    - अव्ययपूर्वकाणां धातूनां समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्‌ (७.१.३७) इत्यनेन क्त्वा-स्थाने ल्यप् विधीयते | धेयं यत् उपसर्गाः अपि अव्ययानि |

    - किन्तु समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्‌ इत्यस्मिन् 'अनञ्पूर्वे' इत्यस्य विद्यमानत्वात् नञ्-समासे ल्यप् न विधीयते | समासस्य पूर्वपदं नञ्-भिन्न-अव्ययं चेदेव ल्यपः विधानम्‌ |

    - अकृत्वा इत्यस्मिन् कृत्वा इत्यस्मात् पूर्वं यः अकारः दृश्यते सः नकारस्य लोपानन्तरं नञः अवशेषः, न तु नञ्-भिन्नम् अव्ययम् |

    - अनेन अस्मात् ल्यपः विधानं निषिद्धम् | अकृत्य इति रूपं न सिध्यति | अकृत्वा इति क्त्वान्तरूपमेव साधु |

    - एवमेव अश्रुत्वा, अज्ञात्वा, अदृष्ट्वा, अपृष्ट्वा, अलिखित्वा इत्यादीनि नञ्-समासानां क्त्वान्तरूपाणि सिध्यन्ति |

    - कृत्वा इति अव्ययं वस्तुतः सुबन्तमेव | 'कृत्वा' कृदन्तम्‌ इति कारणतः कृत्तद्धितसमासाश्च (१.२.४६) इत्यनेन तस्य प्रातिपदिकसंज्ञा |

    - ङ्याप्प्रातिपदिकात्‌ (४.१.१) इत्यनेन यस्य प्रातिपदिकसंज्ञा, तस्मात्‌ स्वौजस... (४.१.२) इत्यनेन सु, औ, जस्‌ इत्यादयः सुप्‌-प्रत्ययाः विधीयन्ते |

    - क्त्वातोसुन्कसुनः (१.१.४०) इत्यनेन क्त्वान्तपदम्‌ अव्ययं भवति | तदा अव्ययादाप्सुपः (२.४.८२) इत्यनेन अव्ययपदात्‌ सुप्‌-प्रत्ययस्य लुक् (लोपः) |

    - लोपे सत्यपि प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्‌ (१.१.६२) इत्यनेन लुप्त-प्रत्ययस्य लक्षणं मत्वा तस्य (सुप्‌-प्रत्ययस्य) द्वारा विहितं कार्यं भवति |

    - कार्यं किम्‌ ? सुबन्तं मत्वा सुप्तिङ्गन्तं पदम् (१.४.१४) इत्यनेन पद-संज्ञा |  

    - अत्र धेयं यत्‌ 'कृत्वा + सु' इति स्थितौ सुप्तिङ्गन्तं पदम् (१.४.१४) इत्यनेन यत्‌ कार्यं विधीयते, तत्‌ अङ्गकार्यं नास्ति यतोहि "सुप्‌ निमित्तीकृत्य पूर्वविद्यमाने अङ्गे कार्यम्‌" इति स्थितिः नास्ति |

    - अपि तु 'कृत्वा + सु' इति समग्रसमुदाये नामकरणं नाम्ना कार्यम्‌ | इत्युक्तौ अत्र "सुप्‌-प्रत्ययः निमित्तं मत्वा कार्यात्‌ परः" इति नास्ति अपि तु स्वयं कार्ये भागी |

    - तस्मात्‌ न लुमताऽङ्गस्य (१.१.६३) इत्यनेन प्रत्ययलक्षणस्य निषेधो नास्ति | अङ्गकार्ये एव 'लुक्‌' इत्यनेन प्रत्ययलक्षणं निषिद्धम्‌; अत्र अङ्गकार्यं नास्ति अपि तु समुदायकार्यम्‌ अतः प्रत्ययलक्षणम्‌ अस्ति |

    - तदर्थं 'कृत्वा' इति प्रातिपदिकात् सुप्-विहिते सुप्तिङ्गन्तं पदम् (१.४.१४) इत्यनेन सुपः लुक्‌ चेदपि 'कृत्वा' इति सुबन्तम् |

    - अतः 'कृत्वा' सुबन्तं, येन नञा सह समस्यते |

    _________________

     विषयः--अधेतुम् /अध्येतुम् /अधीतुम्

    प्रश्नः"छात्रा व्याकरणम् अधीतुम् इच्छति", "छात्रा व्याकरणम् अध्येतुम् इच्छति", "छात्रा व्याकरणम् अधेतुम् इच्छति" -- एषु कः प्रयोगः साधुः ?

    उत्तरम्

    "छात्रा व्याकरणम् अध्येतुम् इच्छति" इत्येव साधुः प्रयोगः |

    - इङ् अध्ययने इति अदादिगणीयः, अनिट् धातुः | अयं नित्यम् अधि-उपसर्गपूर्वकः धातुः |

    - अस्मात् धातोः तुमुन् प्रत्यये परे, अधि + इ + तुमुन् → अधी + तुम् → अधेतुम् इति रूपं स्यात्, इति शङ्का उदेति |

    - पुनश्च अधीतावान्/अधीतवती, अधीतः/अधीता इत्यादिषु कित्-प्रत्ययान्तेषु इकारस्य दैर्घ्यं दृष्ट्वा अधीतुम् इति तुमुनन्तरूपम् इत्यपि सन्देहः स्यात् |

    - वस्तुतः व्याकरणे अङ्गकार्यं क्रियते प्रथमं, तदा उपसर्गस्य संयोजनम्‌ | अनेन अधि + इ + तुमुन् इत्यस्यां दशायां तुमुन्-प्रत्ययनिमित्तिकम् अङ्गकार्यं प्रथमम् |

    - तुमुन्-प्रत्ययस्य आर्धधातुकत्वात् धात्वाङ्गे सार्वधातुकार्धधातुकयोः (७.३.८४) इत्यनेन गुणकार्यम् | अधि + इ + तुमुन् → अधि + ए + तुमुन् |

    - अधुना उपसर्गस्य संयोजनम् | अधि + ए + तुमुन्, इत्यस्यां स्थित्याम्‌ इको यणचि (६.१.७७) इत्यनेन उपसर्ग-अङ्गयोः मध्ये यण्-सन्धिः, अधि + ए + तुमुन् → अध्ये + तुम् → अध्येतुम् |

    - अपरेषु तुमुन्-भिन्न-प्रसङ्गेषु, यत्र गुणः निषिद्धः तत्र उपसर्ग-अङ्गयोः मध्ये अकः सवर्णे दीर्घः (६.१.१०१) इत्यनेन सवर्णदीर्घ-सन्धिः भवति |

    - यथा, अधि + इ + क्तवतु; अत्र क्तवतु-प्रत्ययस्य कित्त्वात् गुणः निषिध्यते | अनेन इ-धातुः यथावत्‌ तिष्ठति, अधि + इ + क्तवतु → अधी + तवत् → अधीतवान्/अधीतवती इति रूपम् |

    - तथैव क्त-प्रत्यये परे अपि गुणनिषेधः, सवर्णदीर्घसन्धिः च | अधि + इ + क्त → अधी + त → अधीतः/अधीता/अधीतम्‌ इति दीर्घ-इकारयुक्तं रूपम् |

    - अयं धातुः नित्यम् उपसर्गपूर्वकः इत्यतः अस्य क्त्वान्त-रूपम् नास्ति | ल्यपि अधीत्य इति रूपम् 

    ––––––––––––––

    : विषयः—  आपाय/आपीय

    प्रश्न

    "सः जलम् आपाय रोटिकां खादति" इति प्रयोगः उत "सः जलम् आपीय रोटिकां खादति" इति प्रयोगः साधुः ?

    उत्तरम्‌

    भ्वादिगणीयस्य पा-धातोः आपाय इति ल्यबन्तरूपम् | दिवादिगणीयस्य पीङ्-धातोः आपीय इति ल्यबन्तरूपम् |

    आपाय-आपीययोः मध्ये अर्थकृद्भेदः न | एकः भ्वादिगणीयः पा पाने अपरः दिवादिगणीयः पीङ् पाने | अतः उभौ प्रयोगौ साधू स्तः |

    आङ्-उपसर्गपूर्वकस्य भ्वादिगणस्थस्य पा-धातोः क्त्वाप्रत्यये परे क्त्वास्थाने ल्यप्-आदेशः "समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्‌" इति सूत्रेण |

    ल्यपि परे इत्साज्ञानां लोपानन्तरं आ + पा + य |

    "घुमास्थागापाजहातिसां हलि" इति सूत्रेण पाधातोः आकारस्य ईकारादेशः भवति स्म | यथा कर्मणि प्रयोगे पीयते |

    किन्तु "न ल्यपि" इति सूत्रात् ईकारादेशस्य निषेधः | तेन आपाय इत्येव भवति भ्वादिगणीयस्य पा-धातोः न तु आपीय इति  |

    अपरः एकः धातुः अस्ति दिवादिगणे | दिवादिगणस्थस्य पानार्थक-पीङ्-धातोः ल्यबन्तरूपम् आपीय इत्येव भवति | अत्र ईकारः धातौ एव | ईकारस्य आदेशः नास्ति|अपरः एकः धातुः अस्ति दिवादिगणे | दिवादिगणस्थस्य पानार्थक-पीङ्-धातोः ल्यबन्तरूपम् आपीय इत्येव भवति | अत्र ईकारः धातौ एव | ईकारस्य आदेशः नास्ति|

    : ______________

    विषयः— सततम्, सन्ततम्

    प्रश्नः

    "सः सततं कार्यं करोति" उत "सः सन्ततं कार्यं करोति"? कः प्रयोगः साधुः?

    उत्तरम्

    - सततम् इति प्रयोक्तव्यम् उत सन्ततम् इति संशये सति उभयथापि प्रयोगः नैव दोषाय |

     उभयत्र च अर्थः समानः-- "सः निरन्तरं कार्यं करोति" |

    - सम् + तत इति दशायां समो वा हितततयोः इति वार्तिकेन 'तत' परे विकल्पेन मलोपः | तेन सतत इति भवति |

    - मलोपाभावे सम् + तत इति दशायां मस्य अनुस्वारः नश्चापदान्तस्य झलि (८.३.२४) सूत्रेण | सम् + तत -> संतत |

    - तदनन्तरं परसवर्णादेशः च अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः (८.४.५८) सूत्रेण | संतत -> सन्तत इति भवति |

    - अतः उभयथापि प्रयोगे नास्ति क्लेशः | "सः सततं कार्यं करोति" च "सः सन्ततं कार्यं करोति" उभावपि साधू प्रयोगौ |

    - धेयं यत् सतत, सन्तत इति पदद्वयं विषेष्यनिघ्नम् | अतः त्रिषु लिङ्गेषु, त्रिषु वचनेषु, सप्तसु विभक्तिषु च रूपाणि भवन्ति |

       किन्तु 'सः सततं कार्यं करोति' इत्यस्मिन् वाक्ये सततं-पदं क्रियाविशेषणत्वात्‌ अव्ययम्‌ 

    –––––––––––––––

    : _________________     

    विषयः--लिखित्वा/लेखित्वा

    प्रश्नः

    "सः भाषणं लिखित्वा पठति" उत "सः भाषणं लेखित्वा पठति" -- अनयोः कः साधुः ?

    उत्तरम्

    "सः भाषणं लिखित्वा पठति", "सः भाषणं लेखित्वा पठति" -- उभौ प्रयोगौ साधू स्तः |

    - लिख्-धातुः, अक्षरविन्यासे इति तुदादिगणीयः, सेट् धातुः | अयं हलादिः, रलन्तः, इदुपधः धातुः च 

    - क्त्वा-प्रत्ययः वलादिः, आर्धधातुकः प्रत्ययः; अतः आर्धधातुकस्येड्वलादेः (७.२.३५) इत्यनेन तस्य इडागमः विधीयते |

    - क्त्वा-प्रत्ययः कित्; अस्य कित्त्वात् क्त्वा-प्रत्यये परे धात्वङ्गे गुणस्य निषेधः भवति इति सामान्यः नियमः |

    - अधुना लिख् + क्त्वा इत्यस्यां दशायां लिख् सेट्, क्त्वा अपि सेट् इत्यतः इडनुकूलता वर्तते | लिख् + क्त्वा → लिख् + इ + त्वा |

    - इडनुकूलतायां सत्यां न क्त्वा सेट्‌ (१.२.१८) इत्यनेन 'क्त्वा कित्‌ नास्ति' इति आरोपो भवति | इदम् अतिदेशसूत्रम्‌ |

    - यत्र क्त्वा-प्रत्ययस्य इडागमो भवति, तत्र गुणः अपेक्षितः | गुणस्य रक्षणार्थं कित्त्वं बाधितं न क्त्वा सेट्‌ इत्यनेन सूत्रेण |

    - यथा, स्विद्‌ → स्वेदित्वा, दिव्‌ → देवित्वा, वृत्‌ → वर्तित्वा - एषु इडागमः विहितः, गुणः इष्टः च | अतः क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं बाधितम् |

    - एवं रीत्या लिख्‌ सेट्‌ अतः न क्त्वा सेट्‌ इत्यनेन क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्वाभावे लिख्-धातौ अपि गुणः सम्भवति पुगन्तलघूपधस्य च (७.३.८६) इत्यनेन | लिख् + इ + क्त्वा → लेखित्वा |

    - पुनः, केषुचित् स्थलेषु इदं गुणकार्यं वैकल्पिकं भवति रलो व्युपधाद्‌ हलादेः संश्च (१.२.२६) इत्यस्य सूत्रस्य कारणेन |

    - रलो व्युपधाद्‌ हलादेः संश्च इत्यनेन इकारोपधात् उकारोपधात् च हलादेः रलन्तात् धातोः परस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं वैकल्पिकम् |

    - अनेन हलादि-इदुपध-रलनत-लिख्-धातूत्तरस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं वैकल्पिकम् | लिख्-धातुतः विहितः क्त्वा-प्रत्ययः विकल्पेन कित् |

    - कित्त्वं न बाधितं चेत् गुणकार्यं बाधितम् | तदा लिख् + इ + क्त्वा → लिखित्वा इति रूपम् | कित्त्वं बाधितम् चेत् गुणत्वात्‌ लेखित्वा इति रूपम् |

    - अतः लिख्-धातोः लिखित्वा-लेखित्वा इति क्त्वान्तरूपद्वयं सिध्यति | उभे रूपे सधू स्तः |

    - कृ-धातुः सेट्‌ नास्ति इत्यतः न क्त्वा सेट्‌ (१.२.१८) इत्यस्य प्रसक्तिर्नास्ति; कित्त्वात्‌ गुणनिषेधः | कृ + क्त्वा → कृत्वा |

    - लिख्‌-धातुतः क्तवतु-प्रत्यये परे, यद्यपि लिख्‌-धातुः सेट्‌, किन्तु क्तवतौ न क्त्वा सेट्‌ (१.२.१८) इत्यस्य प्रसक्तिर्नास्ति; कित्त्वात्‌ गुणनिषेधः | लिख्‌ + इ + क्तवतु → लिखितवान्‌ |

    - तुमुन्-प्रत्यये परे तु गुणः न निषिध्यते यतोहि तुमुन् कित् नास्त्येव | लिख् + तुमुन् → लिख् + इ + तुमुन् → लेखितुम् |

    –––––––––––––––––––––––––––

    विषयः— कुर्वती / कुर्वन्ती

    प्रश्नः

    "सा कार्यं कुर्वती भाषते |" उत "सा कार्यं कुर्वन्ती भाषते |" कः प्रयोगः साधुः ?

    उत्तरम्

    "सा कार्यं कुर्वती भाषते |" इत्येव साधुः प्रयोगः |

    - डुकृृञ् करणे इति धातोः शतृप्रत्यये परे कृ + शतृ -> कुर्वत् इति प्रातिपदिकं निष्पन्नम् |

    - स्त्रीलिङ्गस्य विवक्षायाम् उगितश्च (४.१.६) इति सूत्रेण उगित्‌-प्रातिपदिकेभ्यः ङीप्-प्रत्यये विहिते कुर्वत् + ङीप् |

    - उक् इत् यस्य तत् प्रातिपदिकम् उगित् | उक् प्रत्याहारे उ, ऋ, लृ एते वर्णाः अन्तर्भूताः | अतः शतृ प्रत्ययेन निर्मितं प्रातिपदिकम् अपि उगित् |

    - अग्रे ङीप्-प्रत्ययस्य ङकार-पकारयोः इत्संज्ञा लोपानन्तरं कुर्वत् + ई -> कुर्वती |

    - सम्प्रति आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) इति सूत्रेण नुमागमं कृत्वा "कुर्वन्ती" इति रूपं साधयन्ति जनाः सामान्यतया परन्तु नुमागमः न कार्यः अस्मिन् प्रसङ्गे |

    - यतोहि अवर्णान्तानाम् एव नुमागमो भवति | शतृप्रत्यययोजनात् पूर्वं ये अवर्णान्ता: (अ, आ) भवन्ति तेषामेव नुमागमः आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) सूत्रेण |

     यथा - तुद + शतृ , वद + शतृ  इत्यादीनि | अकारान्तानाम्‌ अङ्गे एव नुमागमः कार्यः |

    - अत्र शतृप्रत्ययस्य योजनात् पूर्वं 'तुद' व 'वद' अकारान्तमस्तीति कारणेन ङीप्-प्रत्यये परे नुमागमः भवति आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) इति सूत्रेण |

    - कृ-धातुः तु तनादिगणीयः | 'उ' विकरणप्रत्ययः अस्य गणस्य | कृ + शतृ -> कृ +उ + शतृ -> कुरु + शतृ इति कार्यम् | शतृ-प्रत्ययात् पूर्वं 'कुरु' इति उकारान्तम् अङ्गम् भवति |

    - तस्मात् कृ-धातोः ङीप्-प्रत्यये परे नुमागो न भवति | अतः कुर्वती इत्येव तस्य शत्रन्तस्त्रीलिङ्गरूपं न तु कुर्वन्ती इति | शत्रन्तपदनिर्माणे नुमागम-व्यवस्था एवं भवति

    शत्रन्तपदनिर्माणे नुमागम-व्यवस्था एवं भवति

    - शप्-विकरणप्रत्ययः येषां धातूनां (भ्वादिगणे, चुरादिगणे च) भवति तेषां नित्यः नुमागमः शप्-श्यनोर्नित्यम् (७.१.८१) इति सूत्रेण स्त्रीत्वस्य विवक्षायाम् 

       यथा - भवन्ती, गच्छन्ती, पिबन्ती, चोरयन्ती इत्यादीनि.

    - श्यन्-विकरणप्रत्ययः येषां धातूनां (दिवादिगणे) भवति तेषां नित्यः नुमागमः शप्-श्यनोर्नित्यम् (७.१.८१) इति सूत्रेण स्त्रीत्वस्य विवक्षायाम् |

     यथा - दीव्यन्ती, सीव्यन्ती,ष्ठीव्यन्ती इत्यादीनि |

    - अन्येषामवर्णान्तानाम् अङ्गानां ङीप्-प्रत्यये परे नुमागमः विकल्पः भवति आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) इति सूत्रेण |

      ते च तुदादीयाः अदादीयाः (१४ आकारान्तः धातवः अदादिगणे) च अकारान्ताः धातवः | तेषां वैकल्पिकः नुमागमः | यथा - तुदती/तुदन्ती (तुदादिगणे), याती/यान्ती (अदादिगणे) इत्यादीनि।


                पाणिनीयशिक्षा -खण्डः  १~
                      पाणिनीयशिक्षा

             "अथ पाणिनीयशिक्षा प्रारम्भ" 
    अनुवाद-
    (शाब्दिक मंगलाचरण करते हुए  अब जिस प्रकार पाणिनि के अनुयायियों का मत है। उस प्रकार मैं शिक्षा नामक वेदांग का कथन करूँगा। वह (शिक्षा शास्त्र) लोक और वेद दोनों में जाना जाय।१।

    अनुवाद-
    लोक में प्रसिद्ध प्राप्त भी शब्दार्थ बुद्धि हीनों को अज्ञात रहता है। वाणी के उच्चारण में शास्त्र विहित विधि को पुन: व्यक्त करूँगा।२।

    अनुवाद-
    प्राकृत और संस्कृत भाषा में भी तिरेसठ अथवा चौंसठ वर्ण भगवान शिव के मत में मान्य हैं। स्वयंभू ब्रह्मा द्वारा स्वयं भी कहे गये हैं।३।

    अनुवाद-
    स्वर इक्कीस और (क्) से (म्) पर्यन्त स्पर्श व्यञ्जन वर्णों के पच्चीस भेद हैं ; और यकार से हकार तक आठ ही स्मरण किए गये अथवा कहे गये हैं और यम चार कहे गये हैं;।४।

    व्याख्या भाग-
    संस्कृत वर्णमाला 
    में पाणिनीय शिक्षा के अनुसार कुल वर्ण – 63/64 माने गए हैं "त्रिषष्टिश्चतु:षष्टिर्वा वर्णा:।
     जिसमें कुल 21 या 22 स्वर व 42 व्यञ्जन माने जाते हैं |
    माहेश्वर सूत्रों के अनुसार संस्कृत वर्णमाला का विभाजन :-
    स्वर (अच् ) – 9 अ ,  इ ,  उ , ऋ , लृ , ए , ऐ , ओ , औ
    व्यञ्जन ( हल् ) – 33 ह् , य् , व् , र् , ल्  आदि
    कुल वर्ण – 42
    व्यंजनों में स्पर्श वर्ण 25 "इन्हें उदित वर्ण भी कहा जाता है
    कु –  कवर्ग { क् , ख् , ग् , घ् , ङ्  }
    चु –  चवर्ग { च् , छ् , ज् ,  झ् , ञ् |}
    टु – टवर्ग { ट् , ठ् , ड् , ढ् ,  ण् }
    तु – तवर्ग { त् , थ् , द् , ध् , न्  }
    पु – पवर्ग { प् , फ् , ब् ,  भ् , म् }
    कु , चु , टु , तु , पु में ‘ उ ‘ की इत्संज्ञा (लोप)होती है | अत: इन्हें उदित ‘ वर्ण भी कहा जाता है। इन 25 वर्णों के उच्चारण
    स्थानों स्पर्श होता है।अत: इन्हें स्पर्श वर्ण कहा
    जाता है |
    ऊष्म वर्ण – 4 श् , ष् , स् , ह्  { इनके उच्चारण में मुख से ऊष्मा का निकास
    होता है , अत: इन्हें ऊष्म वर्ण कहा जाता है |
    अन्त:स्थ वर्ण – 4 इनके उच्चारण में वायु मुख से बाहर न निकलकर , अन्दर
    ही विद्यमान रहती है  और ये स्अवर और व्यञ्जन को अन्त:(मध्य) स्थित होने से अन्त:स्थ वर्ण कहे जाते हैं |
    सयुंक्त वर्ण { पाणिनि ने तीन निश्चित किए हैं परन्तु श्+र=श्र् और द्+य=द्य भी हैं  पाणिनि मत से तीन हैं -}
         क्ष् –  क् +  ष्
         त्र् –  त् + र्
         ज्ञ् – ज् + ञ्
    पाणिनीय शिक्षा के अनुसार कुल वर्ण – 63/64 माने गए हैं | ( त्रिषष्टिश्चतु:षष्टिर्वा वर्णा: )
    जिसमें कुल 21 या 22 स्वर व 42 व्यञ्जन माने जाते हैं 

     
    स्वर { 21/22 } अ , इ , उ , ऋ { ह्रस्व , दीर्घ , प्लुत 4 x 3 = 12 }
    लृ { केवल प्लुत } या ह्रस्व और प्लुत { 1 या 2 }
    ए , ओ , ऐ , औ { केवल दीर्घ और प्लुत } 4 x 2 = 8
    व्यञ्जन { 42 } 25 स्पर्श वर्ण { कु , चु , टु , तु , पु / उदित वर्ण }
    4  ऊष्म वर्ण { श् , ष् , स् , ह् }
    4  अन्त:स्थ वर्ण { य् , व् , र् , ल् }
    4  यम् –अनुस्वार {1}
           विसर्ग {1}
           जिह्वामूलीय {1}
           उपध्मानीय {1}
           दु:स्पृष्ट {1} ठ्ठ

    यम–वर्ग के प्रारम्भिक चार वर्णों में से किसी भी एक के आगे , किसी भी वर्ग के पंचम वर्ण { ङ , ञ , ण , न , म } के रहने पर , पहले के जैसे द्वितीय वर्ण को यम कहते हैं ।
    जैसे – ‘ पलिक्क्नी ‘ में द्वितीय ‘ क् ‘ यम है |
    ‘ चख्ख्नतु ‘ में द्वितीय ‘ ख् ‘ यम है |
    ‘ अग्ग्नि: ‘ में द्वितीय ‘ ग् ‘ यम है यम का अर्थ युगल अथवा जोड़ा है ।

    जिह्वामुलीय – ‘ क ‘ और ‘ ख ‘ से पहले विद्यमान अर्ध – विसर्ग { आधा विसर्ग } जिह्वामुलीय कहलाता है |
    संस्कृत वर्णमाला 

    अनुवाद-
    अनुस्वार विसर्ग जिह्वामूलीय और उपध्मानीय– ये चार दूसरे वर्णों के उच्चारण पर आश्रित हैं। और वेद में प्रयुक्त लकार एक है और ऌकार का प्लुत भी कहा जाता है ।५।

                    ★ पाणिनीयशिक्षा
                            खण्डः २ →

    अनुवाद-
    शरीरस्थ चेतन तत्व( आत्मा) बुद्धि द्वारा सांसारिक अर्थों को एकत्रित कर बोलने की इच्छा से मन को योग प्राप्त करती है और मन जठराग्नि को आहत अथवा प्रदीप्त करता है। और जठराग्नि मारुत( प्राण वायु )को प्रेरित करता है।६।
    अनुवाद-
    मारुत हृदय में विचरण करता हुआ प्रात: सवन-योग को गायत्री छन्द पर आश्रित उस मन्द्र स्वर को उत्पन्न करता है।७।
    अनुवाद-
    कण्ठ में आकर मध्यन्दिन सेवन के लिए उपयोगी त्रैष्टुभ छन्द का अनुगमन करने वाले मध्यम स्वर को शिर: प्रदेश में विचरण करने वाली वायु को तृतीय सायन्तन -सवन के योग्य जगती छन्द के अनुकर्ता तार( उच्चस्वर) को जन्म जानना चाहिए ।८।
    अनुवाद-
    वह ऊर्ध्व गामी मारुत मूर्धा में टकराकर मुख में पहुँच कर वर्णों को उत्पन्न करता है उनका विभाजन पाँच प्रकार से शास्त्रों में कहा गया है।९।
     अनुवाद-
    स्वर से " काल से" ताल्वादि स्थानों से आभ्यन्तर प्रयत्न और बाह्य प्रयत्न से इस विभाग को वर्णविद् शिक्षा शास्त्रीयों ने निपुण रूप से कहा है उनको जानो ।१०।
    उच्चस्वर "नीचस्वर और स्वरित( समाहार स्वर) इति (इस प्रकार ये ) तीन स्वर हैं । हृस्व दीर्घ और प्लुत ये अच(स्वरविषयक) कालानुसारी नियम हैं।११।
    अनुवाद-
    उदात्त स्वर में निषाद और गांधार आते हैं अनुदात्त स्वर में  ऋषभ और धैवत स्वर आते हैं। षडज् मध्यम और पञ्चम ये तीन स्वरित से उत्पन्न हैं।।१२।
    अनुवाद-
    वर्णों के आठ उच्चारण स्थान हैं उर(हृदय) शिर( मूर्द्धा ) कण्ठ" जिह्वामूल "दन्त "नासिका "ओष्ठ और "तालु ।१३।
    अनुवाद-
    ऊष्म विसर्जनीय वर्णो की आठ प्रकार की गति है।ओकार भाव हो जाना विवृति ( सन्ध्यभाव) और श" ष "स" और रेफ  तथा जिह्वामूल और। उपध्मानीय वर्णों में परिणत हो जाना है।१४।
    अनुवाद-
    यदि उकारादि स्वर के रूप में उकार से युक्त पद ओकार भाव का ज्ञापक हो वैसा प्रसन्धान स्वरान्त होगा।१५।

                
    अनुवाद
    वर्गों के पञ्चम् वर्णों से युक्त और अन्त:स्थ वर्णों से युक्त "हकार" को उरस्य जाना जाए।१६।
    अनुवाद
    अहौ- अ" वर्ण और ह" वर्ण कण्ठ स्थानीय हैं
    इचुयशा:- इ" स्वर च" वर्ग और  य"-वर्ण और श"वर्ण तालु स्थानीय हैं ; ओष्ठज वर्ण हैं "उ" और पवर्ग और मूर्धा स्थानीय वर्ण ऋ" टवर्ग र" और ष" वर्ण हों। दन्त्या- ऌ तवर्ग ल" और स" वर्ण हैं।१७।
    अनुवाद-
    जिह्वामूले तो "कवर्ग" बतलाया गया है दन्त्योष्ठ व" और ए"ऐ को तो कण्ठ-तालव्य कहा गया है "ओ और औ" को कण्ठोष्ठज कहा गया है।१८।
    अनुवाद-
    एकार और ऐकार में कण्ठास्थानीय तो            अर्द्ध मात्रा अत:संवृत होती है । ओकार और औ कार में मात्रा विवृत संवृत होता है ।१९।
    अनुवाद
    संवृतं वर्ण एक मात्रिक जानना चाहिए और दोमात्राओं से युक्त वर्ण को  विवृत जाना जाये।२०।

        (पाणिनीय-शिक्षा खण्डः५  → ) 

     "स्वराणामूष्मणां चैव विवृतं करणं स्मृतम् ।
    अनुवाद- स्वरों और ऊष्म वर्णों का
    विवार नामक करण( आभ्यन्तर-प्रयत्न) कहा गया है। उनके भी (एड्•)एकार और ओकार विवार नामक प्रयत्न से युक्त हैं। और इसी प्रकार (ऐच्)ऐकार और औकार भी हैं।२१।

    अनुस्वार यमानां च नासिका स्थानमुच्यते ।
    अयोगवाहा विज्ञेया आश्रयस्थानभागिनः॥ २२॥
    _____


    _______________________________

    अनुस्वार युक्त ध्वनियों का नासिक स्थान कहा गया है। अयोगवाहों को आश्रय-स्थान भागिन जानना चाहिए २२।

    अलाबुवीणानिर्घोषो दन्तमूल्यस्वराननु 
    अनुस्वारस्तु कर्तव्यो नित्यम् होः शषसेषु च ।२३।

    अनुवाद-
    अलाबु( तुम्बीफल या लौकी) से निर्मित वीणा का स्वर दन्तमूलीय होता है। स्वर को बाद उच्चार्यमाण अनुस्वार तो( ह्री) हकार और रेफ और शषस परे होने पर नित्य करना चाहिए ।२३।

    अनुस्वारे विवृत्यां तु विरामे चाक्षरद्वये ।
    द्विरोष्ठ्यौ तु विगृह्णीयाद्यत्रोकारवकारयोः ।२४।

    अनुवाद-
    जहाँ ओकार तथा वकार से पूर्व  अनुस्वार" विवृत्ति" विराम अथवा अक्षरों कि द्वित्व हो तो उस स्थिति मैं औष्ठ्य वर्णों का उच्चारण करने में ओष्ठों को दो वार पृथक् करना चाहिए वैसे ओकार और वक्र दौनों द्वि-स्थानीय हैं।
     ओकार कि उच्चारण स्थान कण्ठोष्ठ है तो वकार का दन्तोष्ठ; किन्तु उपर्युक्त अनुस्वार आदि को सानिध्य में वे ओष्ठ्य ही होंगे और उनके उच्चारण में ओष्ठों कि दो बार विग्रह करना पड़ेगा उदाहरण संव्वाद: पद अनुस्वार और वकार की सन्धि से बना है किन्तु इसमें वकार का उच्चारण ओष्ठ्य होगाऔर उस उच्चारण में द्वित्व होगा।२४।

    व्याघ्री यथा हरेत्पुत्रान्दन्ताभ्यां न तु पीडयेत् ।
    भीता पतनभेदाभ्यां तद्वद्वर्णान्प्रयोजयेत् ।२५।

    अनुवाद-जिस प्रकार बाघिनी बच्चों के गिर जाने और दाँत लग जाने को भय से डरी हुई अपने शावकों को (ऊपरी और नीचे के) दौनों दाँतों से ले जाए किन्तु उन्हें पीड़ा न पहुँचाए उसीप्रकार वर्णों का प्रयोग किया जाना चाहिए ।२५।

                पाणिनीयशिक्षा खण्डः६  →
    अनुवाद-
    जिस प्रकार गुजरात प्रान्त को सूरत की (यादव-अहीरिणी )नारि तक्र ( मट्ठा) बेचती है; तक्र कहकर बोलती हुई इसी प्रकार रङ्गाः(नासिक्य) वर्ण प्रयोग किया जाना चाहिए जिस प्रकार  खे अराꣳ इव खेदया ( जिस प्रकार वेद में (खे अराँ) इत्यादि में उच्चारण किया जाता है।२६। ___________________

    अनुवाद-(रङ्गवर्णं )-अनुस्वार युक्त वर्ण का इस प्रकार प्रयोग करें जिससे वह पूर्व अक्षर को स्पर्श या ग्रसित न करे नासिक्य स्वर को दीर्घ स्वर के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए पश्चात नासिक्य ध्वनि का उच्चारण करना चाहिए।२७।

    अनुवाद-
    हृदय में एक मात्र मूर्धा में अर्द्धमात्रा
    और नासिका में अर्द्ध मात्रा–इस प्रकार नासिका में आधी मात्रा और रंग वर्ण कि दो मात्रता( दो मात्राओं) का सदाभाव सिद्ध होता है ।२८।

    अनुवाद-
    हृदय से ऊर्ध्व भाग में स्थित होते हुए काँस्य पात्र को समान स्वर करता हुआ(रङ्गवर्णं)मृदुता और द्विमात्रा को प्राप्त करता है। वेद का
     जघन्वाँ  पद इसका उदाहरण है।

    अनुवाद-कम्प स्वर तो उच्चारण को मध्य में कल्पित होना चाहिए आदि और अन्त को दौनों पार्श्वो( बगलों) में समान होना चाहिए कम्पनी वर्ण में सरंग कम्पन होना चाहिए । वेद का "रथीव" पद इसका उदाहरण है ।३०।

    __________एवं वर्णाः प्रयोक्तव्या नाव्यक्ता न च पीडिताः । सम्यग्वर्णप्रयोगेन ब्रह्मलोके महीयते ॥ ३१॥ 

    अनुवाद-
    इस प्रकार वर्णों का प्रयोग किया जाना चाहिए वे न तो अव्यक्त ( अस्पष्ट उच्चारण वाले) और न पीड़ित( कर्कश ध्वनि युक्त) सम्यक ( समुचित-पूर्ण-) वर्णों के प्रयोग द्वारा मनुष्य ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित होता है।३१।

      

    "गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाथकः। 
    अनुवाद-
    गा -गाकर पढ़ने वाला जल्दी जल्दी पढ़ने वाला लिखे हुए को पढ़ने वाला शिरकम्पी( सिर हिला हिला कर पढ़ने वाल शब्द के वास्तविक अर्थ को न जानने वाला और अल्प
    स्वर युक्त कण्ठवाला- ये छ: अधम पाठक हैं।३२।

    माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।
    अनुवाद-
    मधुरता वेद की। ऋचाओं के प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण पदों का विभाग सुन्दर स्वर धीरता और वेद मन्त्र में लय उत्पन्न करने का सामर्थ्य ये छ: तो उत्तम पाठक हैं ।
    ३३।

    अनुवाद-
    शंकायुक्त, भययुक्त उच्च ध्वनि अस्पष्ट अनुनासिकता युक्त कौए जैसा स्वर शिर पर चढ़ा हुआ स्वस्थान से विवर्जित ( हठा हुआ)।३४।

    अनुवाद-
    अत्यंत मन्द स्वर से उच्चरित तुरन्त अर्थात् मुँह से अस्पष्ट रूप से जल्दी जल्दी बोला हुआ। अथवा देर से उच्चरित शिथिल कण्ठ से उच्चरित गाते हुए अपने को अत्यधिक पीड़ित करते हुए ग्रस्तपदाक्षरम्= ग्रस्त{भक्षिते लुप्तवर्णपदे -असंपूर्णोच्चारितशब्दे  अमरःकोश अर्थात् पद को सभी अक्षरों को न बोलते हुए दीनता पूर्ण और और निरानुनासिक को भी अनुनासिक नहीं बोलना चाहिए ।३५।

    अनुवाद-
    प्रत:काल उर( हृदय) में स्थित स्वर को द्वारा जो शार्दूल( सिंह) से उपमा रखने वाला होता है; उससे और मध्याह्न में चक्रवात के कूँजन से साम्य रखने वाले कण्ठ में स्थित स्वर के द्वारा नित्य-पाठ करना चाहिए.।३६।  

    अनुवाद-तृतीय सवन(सवनकाल) = आहुति देने, तर्पण आदि का समय। सवनक्रम = जो यज्ञादि के विभिन्न कृत्यों का क्रम होता है। तो तीव्र स्वर का होना चाहिए और उसको मयूर हंस और कोकिल को स्वरों को समान शिर स्थित नाद के द्वारा सदा प्रयोग करना चाहिए ।३६

    अनुवाद-
    ईषत् स्पृष्ट शल् (शषसह)प्रत्याहार को वर्ण अर्द्ध स्पर्श कहे गये हैं शेष हल( व्यञ्जन स्पर्श कहे गये हैं वक्ष्यमाण अनुप्रदान(बाह्य प्रयत्न) से वर्णों का बोध करो।३८।

    अनुवाद-
    ञम:=ञ"म"ड•"ण"न" अनुनासिका: हैं।न ह्रौ= हकार और रेल नहीं हैं  "ह" "झ" और "ष" नाद प्रयत्न वाले हैं। यण: जश्च=यवरलऔर ज ईषद् नाद हैं। खफादयस्तु श्वासिन:= खफछठऔरथ श्वांस प्रयत्न युक्त हैं।३९।

    _______________
    अनुवाद-
    चर:=(च"ट"त"क"प"श"ष" और "स" ईषत् श्वास वर्ण हैं। एतत् गोर्धाम इस गाय रूपी वाणी के धाम को पणी(फॉनिसियन) दाक्षीपुत्र पाणिनि  के द्वारा  इस वाणी को संसार में व्याप्त कर दिया गया।
    विशेष- संसार में भाषा को जनक पणी(प्यूनिक) लोग थे । जिनके वंशज
    ही आज के बनिया (वणिक) हैं।

    अनुवाद-
    छन्दशास्त्र तो वेद को चरण हैं और कल्प शास्त्र वेदों के हाथों को रूप में पढ़ा जाता हैं नक्षत्रों के अयन रूप ज्योतिष-शास्त्र वेद का नेत्र है। निरुक्त वेद का श्रवण( (कान) कहा गया है।  ।४१।

    अनुवाद-
    शिक्षा शास्त्र वेद सी नासिका है। और व्याकरण मुख कहा गया है।  इसलिए इन छ: अंगों सहित अध्ययन करके ही   मनुष्य ब्रह्मलोक में मण्डित होता है। ४२।  

    अनुवाद-
    ङ्गुलीनांवृष=अंगुलियों में श्रेष्ठ अर्थात् अंगुष्ठ तरनी_ के मूल में अग्रभाग को निविष्ट करता हुआ उदात्त स्वर को आख्यान ( व्यक्त) करता है। उपान्त_ 
    अनामिका के मध्य में सम्बन्धित होता हुआ। द्रुतम् ( शीघ्रता पूर्वक)स्वरित को व्यक्त करता है। कनिष्ठिका के मध्य में सम्बद्ध होकर अनुदात्त स्वर को अभिव्यक्त करता है ।४३।

            पाणिनीय-शिक्षा

    उदात्तं प्रदेशिनीं विद्यात्प्रचयो मध्यतोङ्गुलीम् ।निहतं तु कनिष्ठिक्यां स्वरितोपकनिष्ठिकाम् । ४४।

    उदात्त स्वर प्रदेशनी(तर्जनी) में प्रचय स्वर=वेदपाठ विधि में एक प्रकार का स्वर जिसके उच्चारण के विधानानुसार पाठक को अपना हाथ नाक के पास ले जाने की आवश्यकता पड़ती है।  मध्यमा अंगुलि में (निहतं)=अनुदात्त स्वर कनिष्ठिका में और स्वरित उपकनिष्ठिका (अनामिका)में विद्यमान रहता है।४४।

    अन्तोदात्तमाद्युदत्तमुदात्तमनुदातं नीचस्वरितम् ।मध्योदात्तं स्वरितं द्व्युदात्तं त्र्युदात्तमिति नवपदशय्या। ४५।

    अन्तोदात्तम्=वह पद जिसका अन्तिम स्वर उदात्त हो आद्युदात्तम्= वह पद जिसका आदि स्वर उदात्त हो। उदात्तम्= उदात्त स्वर। अनुदात्तस्वर।नीचस्वरित।मध्योदात्त=वह स्वर जिसका मध्य पद उदात्त हो। स्वरितयुक्त। द्वयुदात्तम्= दो उदात्त स्वरों से युक्त।त्र्युदात्तम्=तीनों उदात्त स्वरों से युक्त इति=इस प्रकार।नवधा पदशय्या है ।।४५।

    अग्निः सोमः प्र वो वीर्यं हविषां स्वर्बृहस्पतिरिन्द्राबृहस्पती ।अग्निरित्यन्तोदात्तं सोम इत्याद्युदत्तं व प्रेत्युदात्तं वीर्यं नीचस्वरितम् ।४६।

    अग्नि पद अन्तोदात्त है। सोमपद आदि-उदात्त है ।प्र-उदात्त है व:-अनुदात्त है। वीर्य नीच त्वरित पद है । ४६।

    हविषां मध्योदात्तंस्वरिति स्वरितं बृहस्पतिरिति । द्व्युदात्तमिन्द्राबृहस्पती इति त्रुदात्तम् ।४७।

    हविषां मध्योदात्त स्वर है ।स्व: पद स्वरित है।बृहस्पति पद द्वयुदात्त पद है ‌। इन्द्राबृहस्पति त्र्युदात्त पद है ।४७।

    अनुदात्तो हृदि ज्ञेयो मूर्ध्न्युदात्त उदाहृतः ।स्वरितः कर्णमूलीयः सर्वास्ये प्रचयः स्मृतः। ४८।    

    अनुदात्त स्वर हृदय में जानना चाहिए
    उदात्त स्वर कहा गया है स्वरित का स्थान कर्णमूल और प्रचयस्वर सभी मुख प्रदेश में बताया गया है ४८।

    _______

             (पाणिनीय-शिक्षा)

    "चाषस्तु वदते मारां द्विमात्रो चैव वायसः। 
    चाष(नीलकण्ठ एक मात्रा बोलता है।
    वायस=कौआ दो मात्रा ही बोलता है। मयूर तीन मात्रा में (रौति) बोलता है और नेवला अर्द्ध मात्रा में बोलता है।४९।

    कुतीर्थ=दुष्टाचरणयुक्त गुरु आदि से प्राप्त दग्ध-जला हुआ अपवर्णम्-अशुद्ध अक्षर युक्त अत्यंत अस्पष्टता युक्त उस मन्त्र के पाठ में ।पापा हे: इव= सूर्य कि भाँति मोक्ष नहीं मिलता है।  किल्विषात्-पाप से-।५०।

    सुतीर्थ( सदाचारी गुरु से प्राप्त व्यक्तं= स्पष्ट । सुन्दर-आम्नाय( सम्प्रदाय) से सम्बद्ध ।अक्षरादि कि दृष्टि से पूर्णत: व्यवस्थित ।स्वर को द्वारा सुन्दर वक्त्र को द्वारा प्रयुक्त ( उच्चरित वेद-मन्त्र शोभा देता है ।५१।

    स्वर से अथवा वर्ण से हीन अशुद्ध प्रयोग किया गया मन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता है वह वाणी रूप वज्र होकर यजमान को मारता है। जैसे स्वर से अपराध के कारण वृत्रासुर रूपी यजमान का विनाश कर दिया था । इन्द्रशत्रु: पद के अशुद्ध स्वर के प्रयोग ने।५२।

    अक्षर रहित मन्त्रोचारण- आयु का विनाशक व्याधि सी पीड़ा देने वाला ।विस्वरं=बेसुरा। वज्र होकर।अमोघ शस्त्र को रूप में यजमान को मस्तक पर पड़ता है।५३।

    य: तु=जो पाठक ।हस्तहीनम्=  हस्त संचालन के बिना। स्वरवर्णों से रहित अध्ययन करता है। ऋग्यजु: सामभि: दग्ध:=ऋग यजु और साम अग्नियों से जलकर अधम योनि को प्रप्त होता है ।

               पाणिनीयशिक्षा- खण्डः११- 
    जो पाठक स्वर वर्ण और अर्थ को साथ वेद को हाथ के द्वारा संचालन करता हुआ वेद को पढ़ता है वह ऋग् यजुर् और साम वेदत्रयी द्वारा पवित्र होकर ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है ।५५।
    ____________   

            (पाणिनीय-शिक्षा)

    शंकर भगवान ने सभी वेद-वाङ्मय से कल्याणी देवीवाणी को एकत्रित करके बुद्धि मानों को लिए दाक्षीपुत्र पाणिनि को प्रदान किया यह वस्तुस्थिति है।५६।

    जिसके द्वारा महेश्वर से अक्षर-समाम्नाय( वर्ण-समूह) को प्राप्तकर कृत्स्नम्-(सम्पूर्ण) व्याकरण शास्त्र को कहा गया है उन पाणिनि को मेरा नमस्कार है ।५७।

    जिनके द्वारा निर्मल शब्द रूपी जल से मनुष्यों कि वाणी पवित्र कर दी गयी। और अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार भेदन कर दिया गया मैं उन पाणिनि को नमस्कार करता हूँ।५८।

    "अज्ञानान्धस्य लोक सम  ज्ञानाञ्जन शलाकया।चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै पाणिनये नम:।।५९।
    जिनके ज्ञान रूपी काजल कि शलाई सेअज्ञानान्ध
    से ग्रस्त लोक को नेत्र खोल दिए उन महर्षि पाणिनि को मैं प्रणाम करता है ।५९।

    जो द्विज-वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय इस लोक में भगवान शिव को मुख से नि:सृत इस वाणी को सदा प्रयत्न पूर्वक पढ़ता है। वह धन-धान्य पशु और कीर्ति से सम्पन्न होता है।।६०।।
                    ____________

    कोई टिप्पणी नहीं:

    एक टिप्पणी भेजें