रविवार, 27 फ़रवरी 2022

स्वर


स्वर-

स्वर

संगीत में वह शब्द जिसका कोई निश्चित रूप हो और जिसकी कोमलता या तीव्रता अथवा उतार-चढ़ाव आदि का, सुनते ही, सहज में अनुमान हो सके, स्वर कहलाता है।

 भारतीय संगीत में सात स्वर (notes of the scale) हैं, जिनके नाम हैं - षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद।

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यों तो स्वरों की कोई संख्या बतलाई ही नहीं जा सकती, परंतु फिर भी सुविधा के लिये सभी देशों और सभी कालों में सात स्वर नियत किए गए हैं। भारत में इन सातों स्वरों के नाम क्रम से षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद रखे गए हैं जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं।

वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में २५६ बार कंप होने पर षड्ज, २९८ २/३ बार कंप होने पर ऋषभ, ३२० बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते ४८० बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है। तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है। इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। 

एक सप्तक के उपरांत दूसरा सप्तक चलता है, जिसके स्वरों की कंपनसंख्या इस संख्या से दूनी होती है। इसी प्रकार तीसरा और चौथा सप्तक भी होता है। यदि प्रत्येक स्वर की कपनसंख्या नियत से आधी हो, तो स्वर बराबर नीचे होते जायँगे और उन स्वरों का समूह नीचे का सप्तक कहलाएगा।

भारत में यह भी माना गया है कि ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं, अर्थात् ये सब प्राणी क्रमशः इन्हीं स्वरों में बोलते हैं; और इन्हीं के अनुकरण पर स्वरों की यह संख्या नियत की गई है। भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं। जैसे,—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है।

 जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि।

 ये सब स्वर गले से तो निकलते ही हैं, पर बाजों से भी उसी प्रकार निकलते है

 इन सातों में से सा और प तो शुद्ध स्वर कहलते हैं, क्योंकि इनका कोई भेद नहीं होता; पर शेष पाचों स्वर दो प्रकार के होते हैं - कोमल और तीव्र। प्रत्येक स्वर दो दो, तीन तीन भागों में बंटा रहता हैं, जिनमें से प्रत्येक भाग 'श्रुति' कहलाता है।

परिचयसंपरिचय -पादित करें

विद्वानों ने माना है कि जो ध्वनियाँ निश्चित ताल और लय में होती हैं वहीं संगीत पैदा करती हैं। ध्वनियों के मोटे तौर पर दो प्रकार ‘आहत’ और ‘अनाहत’ ध्वनियाँ हैं. 'अनाहत' ध्वनियां संगीत के लिए उपयोगी नहीं होतीं, इनका अनुभव ध्यान की परावस्था में होता है अतः ‘आहत’ नाद से ही संगीत का जन्म होता है। यह नाद दो वस्तुओं को आपस में रगड़ने, घर्षण या एक पर दूसरी वस्तु के प्रहार में पैदा होता है। ‘आहत’ नाद हम तक कंपन के माध्यम से पहुँचता है। ध्वनि अपनी तरंगों से हवा में हलचल पैदा करती है। ध्वनि तरंगों की चौ़ड़ाई और लम्बाई पर ध्वनि का ऊँचा या नीचा होना तय होता है। संगीत के सात स्वरों में ‘रे’ का नाद ‘सा’ के नाद से ऊँचा है। इसी तरह ‘ग’ का नाद ‘रे’ से ऊँचा है। यह भी कह सकते हैं कि ‘ग’ की ध्वनि में तरंगों की लम्बाई ‘रे’ की ध्वनि–तरंगों से कम है और कम्पनों की संख्या ‘रे’ की तुलना में ज्यादा है। इसके अलावा ध्वनि से सम्बन्धित और भी कई सिद्धान्त हैं जो ध्वनि का भारी या पतला होना, देर या कम देर तक सुनाई देना निश्चित करते हैं। इन्हीं गुणों को ध्यान में रखते हुए संगीत के लिए मुख्यतः सात स्वर निश्चित किये गए। षड्ज, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद स्वर-नामों के पहले अक्षर लेकर इन्हें सा, रे ग, म, प, ध और नि कहा गया। ये सब शुद्ध स्वर है। इनमें ‘सा’ और ‘प’ अचल माने गये हैं क्योंकि ये अपनी जगह से जरा भी नहीं हटते। बाकी पाँच स्वरों को विकृत या विकारी स्वर भी कहते हैं, क्योंकि इनमें अपने स्थान से हटने की गुंजाइश होती है। कोई स्वर अपने नियत स्थान से थो़ड़ा नीचे खिसकता है तो वह कोमल स्वर कहलाता है।


 और ऊपर खिसकता है तो तीव्र स्वर हो जाता है। फिर अपने स्थान पर लौट आने पर ये स्वर शुद्ध कहे जाते हैं। रे, ग, ध, नि जब नीचे खिसकते हैं तब वे कोमल बन जाते हैं और ‘म’ ऊपर पहुँचकर तीव्र बन जाता है। इस तरह सात शुद्ध स्वर, चार कोमल और एक तीव्र मिलकर बारह स्वर तैयार होते हैं।

सात स्वरों को ‘सप्तक’ कहा गया है, लेकिन ध्वनि की ऊँचाई और नीचाई के आधार पर संगीत में तीन तरह के सप्तक माने गये। साधारण ध्वनि को ‘मध्य’, मध्य से ऊपर की ध्वनि को ‘तार’ और मध्य से नीचे की ध्वनि को ‘मन्द्र’ सप्तक कहा जाता है। 

‘तार सप्तक’ में तालू, ‘मध्य सप्तक’ में गला और ‘मन्द्र सप्तक’ में हृदय पर जोर पड़ता है। संगीत के आधुनिक-काल के महान संगीतज्ञों पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर और पण्डित विष्णुनारायण भातखण्डे ने भारतीय संगीत परम्परा को लिखने की पद्धित विकसित की। भातखण्डे जी ने सप्तकों के स्वरों को लिखने के लिए बिन्दु का प्रयोग किया।

 स्वर के ऊपर बिन्दु तार सप्तक, स्वर के नीचे बिन्दु मन्द्र सप्तक और बिन्दु रहित स्वर मध्य सप्तक दर्शाते हैं। इन सप्तकों में कोमल और तीव्र स्वर भी गाये जाते हैं, जिन्हें भातखण्डे लिपि में स्वरों के ऊपर खड़ी पाई (म) लगाकर तीव्र तथा स्वरों के नीचे पट पाई (ग) लगाकर कोमल दर्शाया जाता है। इन स्वरों की ध्वनि का केवल स्तर बदलता है। इनकी कोमलता और तीव्रता बनी रहती है।

संगीत में स्वर को लय में निबद्ध होना पड़ता है। लय भी सप्तकों की तरह तीन स्तर से गुजरती है जैसे सामान्य लय को ‘मध्य लय,’ सामान्य से तेज लय को ‘द्रुत लय’ तथा सामान्य से कम को ‘विलिम्बित लय’ कहा जाता है। संगीत में समय को बराबर मात्राओं में बाँटने पर ‘ताल’ बनता है। ‘ताल’ बार-बार दोहराया जाता है और हर बार अपने अन्तिम टुक़ड़े को पूरा कर समय के जिस टुकड़े से शुरू हुआ था उसी पर आकर मिलता है। हर टुकड़े को ‘मात्रा’ कहा जाता है। संगीत में समय को मात्रा से मापा जाता है। तीन ताल में समय या लय के 16 टुकड़ें या मात्राएँ होती हैं। हर टुकड़े को एक नाम दिया जाता है, जिसे ‘बोल’ कहते हैं। इन्हीं बोलों को जब वाद्य पर बजाया जाता है तो उन्हें ‘ठेका’ कहते हैं। ‘ताल’ की मात्राओं को विभिन्न भागों में बाँटा जाता है, जिससे गाने या बजाने वाले को यह मालूम रहे कि वह कौन सी मात्रा पर है और कितनी मात्राओं के बाद वह ‘सम’ पर पहुँचेगा। तालों में बोलों के छंद के हिसाब से उनके विभाग किए जाते हैं। जहाँ से चक्र दोबारा शुरू होता है उसे ‘सम’ कहा जाता है। ‘ताल’ में ‘खाली’ 'भरी' दो महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। ‘ताल’ के उस भाग को भरी कहते हैं जिस पर बोल के हिसाब से अधिक बल देना है। ‘भरी पर ताली दी जाती हैं। ‘ताल’ में खाली उम भाग को कहते हैं जिस पर ताली नहीं दी जाती और जिससे गायक को सम के आने का आभास हो जाता है। ताल लय को गाँठता है और उसे अपने नियंत्रण में रखता है।

राग'संपादित

जब 12 स्वर खोज लिए गये होंगे तब उन्हें इस्तेमाल करने के तरीके ढूँढ़े गये। 12 स्वरों के मेल से ही कई राग बनाए गये। उनमें से कई रागों में समानता भी थी। कवि लोचन ने ‘राग-तरंगिणी’ ग्रंथ में 16 हजार रागों का उल्लेख किया है, लेकिन इतने सारे रागों में से चलन में केवल 16 राग ही थे। राग उस स्वर समूह को कहा गया जिसमें स्वरों के उतार-चढ़ाव और उनके मेल में बनने वाली रचना सुनने वाले को मुग्ध कर सके। यह जरूरी नहीं कि किसी भी राग में सातों स्वर लगें। यह तो बहुत पहले ही तय कर दिया गया था कि किसी भी राग में कम से कम पाँच स्वरों का होना जरूरी है। ऐसे और भी नियम बनाये गये थे जैसे षड्ज यानी ‘सा’ का हर राग में होना बहुत ही जरूरी है क्योंकि वही तो हर राग का आधार है। कुछ स्वर जो राग में बार-बार आते हैं उन्हें ‘वादी’ कहते हैं और ऐसे स्वर दो ‘वादी’ स्वर से कम लेकिन अन्य स्वरों से अधिक बार आएँ उन्हें ‘संवादी’ कहते हैं। लोचन कवि ने 16 हजार रागों में से कई रागों में समानता पाई तो उन्हें अलग-अलग वर्गों में रखा। उन्होंने 12 वर्ग तैयार किये जिनमें से हर वर्ग में कुछ-कुछ समान स्वर वाले राग शामिल थे। इन वर्गों को ‘मेल’ या ‘थाट’ कहा गया। ‘थाट’ में 7 स्वर अर्थात् ‘सा’, ‘रे,’ ‘ग’, ‘म’, ‘प’,‘ध’, ‘नि’, होने आवश्यक है। यह बात और है कि किसी ‘थाट’ में कोमल और किसी में तीव्र स्वर होंगे या मिले-जुले स्वर होंगे। इन ‘थाटों’ में वही राग रखे गये जिनके स्वर मिलते-जुलते थे। इसके बाद सत्रहवीं शताब्दी में दक्षिण के विद्वान पंडित श्रीनिवास ने सोचा कि रागों को उनके स्वरों की संख्या के सिहाब से ‘मेल’ में रखा जाये यानी जिन रागों में 5 स्वर हों वे एक ‘मेल’ में, छः स्वर वाले दूसरे और 7 स्वर वाले तीसरे ‘मेल’ में। कई विद्वानों में इस बात को लेकर चर्चा होती रही कि रागों का वर्गीकरण ‘मेलों’ में कैसे किया जाये। दक्षिण के ही एक अन्य विद्वान व्यंकटमखी ने गणित का सहारा लेकर कुल 72 ‘मेल’ बताए। उन्होंने दक्षिण के रागों के लिए इनमें से 19 ‘मेल’ चुने। इधर उत्तर भारत में विद्वानों ने सभी रागों के लिए 32 ‘मेल’ चुने। अन्ततः भातखण्डेजी ने यह तय किया कि उत्तर भारतीय संगीत के सभी राग 10 ‘मेलों’ में समा सकते हैं। ये ‘मेल’। कौन-कौन से हैं इन्हें याद रखने के लिए ‘चतुर पण्डित’ ने एक कविता बनाई। चतुर पण्डित कोई और नहीं स्वयं पण्डित भातखण्डे ही थे। इन्होंने कई रचनाएँ ‘मंजरीकार’ और ‘विष्णु शर्मा’ नाम से भी रची है।

यमन, बिलावल और खमाजी, भैरव पूरवि मारव काफी।
आसा भैरवि तोड़ि बखाने, दशमित थाट चतुर गुनि मानें।।

उत्तर भारतीय संगीत में ‘कल्याण थाट’ या ‘यमन थाट’ से भूपाली, हिंडोल, यमन, हमीर, केदार, छायानट व गौड़सारंग, ‘बिलावट थाट’ से बिहाग, देखकार, बिलावल, पहा़ड़ी, दुर्गा व शंकरा, ‘खमाज थाट’ से झिझोटी, तिलंग, खमाज, रागेश्वरी, सोरठ, देश, जयजयवन्ती व तिलक कामोद, ‘भैरव थाट’ से अहीर भैरव, गुणकली, भैरव, जोगिया व मेघरंजनी, ‘पूर्वी थाट’ से पूरियाधनाश्री, वसंत व पूर्वी, ‘काफी थाट’ से भीमपलासी, पीलू, काफी, बागेश्वरी, बहार, वृंदावनी सारंग, शुद्ध मल्लाह, मेघ व मियां की मल्हार, ‘आसावरी थाट’ से जौनपुरी, दरबारी कान्हड़ा, आसावरी व अड़ाना, ‘भैरवी थाट’ से मालकौंस, बिलासखानी तोड़ी व भैरवी, ‘तोड़ी थाट’ से 14 प्रकार की तोड़ी व मुल्तानी और ‘मारवा थाट’ से भटियार, विभास, मारवा, ललित व सोहनी आगि राग पैदा हुए। आज भी संगीतज्ञ इन्हीं दस ‘‘थाटों’ की मदद से नये-नये राग बना रहे हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि हर ‘थाट’ का नाम उससे पैदा होने वाले किसी विशेष राग के नाम पर ही दिया जाता है। इस राग को ‘आश्रय राग’ कहते हैं क्योंकि बाकी रागों में इस राग का थोड़ा-बहुत अंश तो दिखाई ही देता है।

‘राग’ शब्द संस्कृत की धातु 'रंज' से बना है। रंज् का अर्थ है - रंगना। जिस तरह एक चित्रकार तस्वीर में रंग भरकर उसे सुंदर बनाता है, उसी तरह संगीतज्ञ मन और शरीर को संगीत के सुरों से रंगता ही तो हैं। रंग में रंग जाना मुहावरे का अर्थ ही है कि सब कुछ भुलाकर मगन हो जाना या लीन हो जाना। संगीत का भी यही असर होता है। जो रचना मनुष्य के मन को आनंद के रंग से रंग दे वही काग कहलाती है। हर राग का अपना एक रूप, एक व्यक्तित्व होता है जो उसमें लगने वाले स्वरों और लय पर निर्भर करता है। किसी राग की जाति इस बात से निर्धारित होती हैं कि उसमें कितने स्वर हैं। आरोह का अर्थ है चढना और अवरोह का उतरना। संगीत में स्वरों को क्रम उनकी ऊँचाई-निचाई के आधार पर तय किया गया है। ‘सा’ से ऊँची ध्वनि ‘रे’ की, ‘रे’ से ऊँची ध्वनि ‘ग’ की और ‘नि’ की ध्वनि सबसे अधिक ऊँची होती है। जिस तरह हम एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए किसी मकान की ऊपरी मंजिल तक पहुँचते हैं उसी तरह गायक सा-रे-ग-म-प-ध-नि-सां का सफर तय करते हैं। इसी को 'आरोह' कहते हैं। इसके विपरीत ऊपर से नीचे आने को 'अवरोह' कहते हैं। तब स्वरों का क्रम ऊँची ध्वनि से नीची ध्वनि की ओर होता है जैसे सां-नि-ध-प-म-ग-रे-सा। आरोह-अवरोह में सातों स्वर होने पर राग ‘सम्पूर्ण जाति’ का कहलाता है। पाँच स्वर लगने पर राग ‘औडव’ और छह स्वर लगने पर ‘षाडव’ राग कहलाता है। यदि आरोह में सात और अवरोह में पाँच स्वर हैं तो राग ‘सम्पूर्ण औडव’ कहलाएगा। इस तरह कुल 9 जातियाँ तैयार हो सकती हैं जिन्हें राग की उपजातियाँ भी कहते हैं। साधारण गणित के हिसाब से देखें तो एक ‘थाट’ के सात स्वरों में 484 राग तैयार हो सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर कोई डे़ढ़ सौ राग ही प्रचलित हैं। मामला बहुत पेचीदा लगता है लेकिन यह केवल साधारण गणित की बात है। आरोह में 7 और अवरोह में भी 7 स्वर होने पर ‘सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति’ बनती है जिससे केवल एक ही राग बन सकता है। वहीं आरोह में 7 और अवरोग में 6 स्वर होने पर ‘सम्पूर्ण षाडव जाति’ बनती है।

इन्हें भी देखेंसं(  )पादित करें

उदात्त आदि तीन स्वरों से संगीत को सात स्वर     निकलते हैं ।
  • "षडज"

    संगीत के सात स्वरों में से चौथा स्वर। विशेष—यह गदहे के स्वर से मिलता जुलता माना गया है। 
  • इसके उच्चारणस्थान छह् कहे गए हैं—नासा, कंठ, उर, तालु, जिह्ना और दंत; इसी से इसका नाम षड्ज पड़ा।
  •  मूल स्थान दंत और अंत स्थान कंठ है। देवता इसके अग्नि हैं। 
  • वर्ण रक्त, आकृति ब्रह्मा की, ऋतु हिम, वार रविवार, छंद अनुष्टुप् और संतति इसकी भैरव राग है। 
  • कुछ के मतानुसार यह प्रथम स्वर है और मोर के स्वर से मिलता जुलता है।
संगीत के सात स्वरों में से दूसरा विशेष—इसकी तीन श्रृतियाँ हैं—दयावती, रंजनी और रतिका । इसकी जाति क्षत्रिय, वर्ण पीला, देवता ब्रह्मा, ऋतु शिशिर, वार सोम, छंद गायत्री तथा पुत्र मालकोश है ।
यह स्वर बैल के समान कहा जाता हैं पर कोई इसे चातक के स्वर के समान मानते हैं। 
नाभि से उठकर कंठ और शीर्ष को जाती हुई वायु से इसकी उत्पत्ति होती है ।
ऋषभ (कोमल) के स्वरग्राम बनाने से विकृत स्वर इस प्रकार होते हैं— ऋषभ स्वर । गांधार—ऋषभ । तीव्र मध्यम—गांधार । पंचम—मध्यम । धैवत—पंचम । निषाद—धैवत । कोमल ऋषभ—निषाद

संगीत में सात स्वरों में तीसरा स्वर । विशेष—इसकी दो श्रृतियाँ है—रौद्री और क्रोधा । इसकी जाति वैश्य, वर्ण, सुनहला, देवता, सरस्वती, ऋषि चंद्रमा, छंद त्रिष्टुभ, वार मगल; ऋतु वसंत और स्थान दोनों हाथ हैं।
इसकी आकृति अग्नि की और संतान हिंडोल राग है । इसका अधिकार शाल्मली द्वीप में है । इसका प्रयोग करुण रस में होता है । 
नाभि से उठकर कंठ और शीर्ष में लगकर अनेक गंधों को ले जानेवाली वायु से इसकी उत्पत्ति होती है ।
यह स्वर बकरे की बोली से लिया गया है । इसके दो भेद होते हैं— शुद्ध और कोमल । इस स्वर का ग्रहस्वर बनाने से निम्न- लिखित प्रकार से स्वरग्राम होता है ।—गांधार—स्वर । तीव्र मध्यम—ऋषभ । कोमल धैवत—गांधार । धैवत—मध्यम । निषाद—पंचम । कोमल ऋषभ—धैवत । कोमल गांधार— निषाद । कोमल गांधार को ग्रहस्वर बनाने से स्वरग्राम इस प्रकार होता है—गांधार कोमल—स्वर । मध्यम—ऋषभ । पंचम ।—गांधार । कोमल धैवतमध्यम । कोमल निषाद— पंचम । स्वर—धैवत । ऋषभ—निषाद । 
संगीत के तीन स्वरग्रामों में से एक । विशेष—इसमें नंदा, विविशाखा, सुमुषी, विचित्रा, रोहिणी, सुषा और आलापिनी ये सात मूर्च्छनाएँ हैं और जिसका व्यवहार स्वर्गलोक में नारद द्वारा होता है  इसके अधिष्ठाता देवता शिव कहे गए


संगीत के सात स्वरों में से चौथा स्वर। विशेष—इसका मूलस्थान नासिका , अतःस्थान कंठ और शरीर में उत्पत्तिस्थान वक्ष:स्थल माना जाता है। कहते हैं, यह मयूर का स्वर है, इसके अधिकारी देवता महादेव आकृति विष्णु की संतान दीपक राग, वर्ण नील, जाति शूद्र, ऋतु ग्रीष्म, बार बुध और छंद बृहती है और इसका अधिकार कुश द्वीप में है।
संक्षेप में इसे 'म' कहते या लिखते है। 
यह साधारण और तीव्र दो प्रकार का होता है। इसको स्वर (षड़ज) बनाने से सप्तक इस प्रकार होता है—मध्यम स्वर पंचम ऋषभ, धैवत गांधार, कोमल निषाद। मध्यग, स्वर (षड़ज) पंचम ऋषभ, धँवत, गांधार निषाद तीव्र मध्यम को स्वर (षड़ज) बनाने से सप्तक इस प्रकार होता है—तीव्र मध्यम स्वर, कोमल धेवत ऋषभ, कोमल निषाद गांधार, निषाद मध्यम, कोमल, ऋषभ पंचम, कोमल गांधार धैवत, मध्यम, निषाद।


संगीत के सात स्वरों में से छठा स्वर जो मध्यम के आगे खींचा जाता है। विशेष—नारदीय शिक्षा के अनुसार घोड़े के हिनहिनाने के समान जो स्वर निकले वह धैवत है। तानसेन ने इस स्वर को मेढ़क के स्वर के समान कहा है। संगीतदामोदर के मत से जो स्वर नाभि के नीचे जाकर बस्ति स्थान से फिर ऊपर दौड़ता हुआ कंठ तक पहुँचे वह धैवत है। संगीतदर्पण के मत से यह स्वर ऋषिकुल में उत्पन्न और क्षत्रिय वर्ण का है। इसका वर्ण पीत, जन्मस्थान श्वेतद्वीप, ऋषि तुंबरु, देवता गणेश और छंद उष्णिक् (मतांतर से जगती) माना गया हैं। यह षाड़व जाति का स्वर माना गया हैं। इसकी ७२० तानें मानी गई हैं जिनमें प्रत्येक के ४८ भेद होने से सब ३४,५६० तानें हुईं। श्रुतियाँ इसकी तीन हैं—रम्या, रोहिणी और मदती।


सात स्वरों में पाँचवाँ स्वर। विशेष—यह स्वर पिक या कोकिल के अनुरूप माना गया है। संगीत शास्त्र में इस स्वर का वर्ण ब्राह्मण, रंग श्याम, देवता महादेव, रूप इंद्र के समान और स्थान क्रौंच द्वीप लिखा है। यमली, निर्मली और कोमली नाम की इसकी तीन मूर्च्छनाएँ मानी गई हैं। भरत के अनुसार इसके उच्चारण में वायु नाभि, उरु, हृदय, कंठ और मूर्धा नामक पाँच स्थानों में लगती है, इसलिये इसे 'पंचम' कहते हैं। संगीत दामोदर का मत है कि इसमें प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान एक साथ लगते हैं इसिलिये यह 'पंचम' कहलाता है। स्वरग्राम में इसका संकेत 'प' होता है। २. एक राग जो छह प्रधान रागों में तीसरा है। विशेष—कोई इसे हिंडोल राग का पुत्र का और कोई भैरव का पुत्र बतलाते हैं। कुछ लोग इसे ललित और वसंत के योग से बना हुआ मानते हैं और कुछ लोग हिंडोल, गांधार और मनोहर के मेल से। सोमेश्वर के मत से इसके गाने का समय शरदऋतु और प्रातःकाल है और विभाषा, भूपाली, कर्णाटी, वडहंसिका, मालश्री, पटमंजरी नाम की इसकी छह रागिनियाँ हैं, पर कल्लिनाथ त्रिवेणी, स्तंभतीर्था, आभीरी, ककुभ, वरारी और सौवीरी को इसकी रागिनियाँ बतलाते हैं। कुछ लोग इसे ओडव जाति का राग मानते हैं और ऋषभ, कोमल पंचम और गांधार स्वरों को इसमें वर्जित बताते हैं। ३. वर्ग का पाँचवाँ अक्षर—ङ, ञ, ण, न और म। ४. ़

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