मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

पाणिनीयशिक्षा –★ हिन्दी अनुवाद सहित-

            पाणिनीयशिक्षा -खण्डः  १~
                  पाणिनीयशिक्षा

         "अथ पाणिनीयशिक्षा प्रारम्भ" 
अनुवाद-
(शाब्दिक मंगलाचरण करते हुए  अब जिस प्रकार पाणिनि के अनुयायियों का मत है। उस प्रकार मैं शिक्षा नामक वेदांग का कथन करूँगा। वह (शिक्षा शास्त्र) लोक और वेद दोनों में जाना जाय।१।

अनुवाद-
लोक में प्रसिद्ध प्राप्त भी शब्दार्थ बुद्धि हीनों को अज्ञात रहता है। वाणी के उच्चारण में शास्त्र विहित विधि को पुन: व्यक्त करूँगा।२।

अनुवाद-
प्राकृत और संस्कृत भाषा में भी तिरेसठ अथवा चौंसठ वर्ण भगवान शिव के मत में मान्य हैं। स्वयंभू ब्रह्मा द्वारा स्वयं भी कहे गये हैं।३।

अनुवाद-
स्वर इक्कीस और (क्) से (म्) पर्यन्त स्पर्श व्यञ्जन वर्णों के पच्चीस भेद हैं ; और यकार से हकार तक आठ ही स्मरण किए गये अथवा कहे गये हैं और यम चार कहे गये हैं;।४।

व्याख्या भाग-
संस्कृत वर्णमाला 
में पाणिनीय शिक्षा के अनुसार कुल वर्ण – 63/64 माने गए हैं "त्रिषष्टिश्चतु:षष्टिर्वा वर्णा:।
 जिसमें कुल 21 या 22 स्वर व 42 व्यञ्जन माने जाते हैं |
माहेश्वर सूत्रों के अनुसार संस्कृत वर्णमाला का विभाजन :-
स्वर (अच् ) – 9 अ ,  इ ,  उ , ऋ , लृ , ए , ऐ , ओ , औ
व्यञ्जन ( हल् ) – 33 ह् , य् , व् , र् , ल्  आदि
कुल वर्ण – 42
व्यंजनों में स्पर्श वर्ण 25 "इन्हें उदित वर्ण भी कहा जाता है
कु –  कवर्ग { क् , ख् , ग् , घ् , ङ्  }
चु –  चवर्ग { च् , छ् , ज् ,  झ् , ञ् |}
टु – टवर्ग { ट् , ठ् , ड् , ढ् ,  ण् }
तु – तवर्ग { त् , थ् , द् , ध् , न्  }
पु – पवर्ग { प् , फ् , ब् ,  भ् , म् }
कु , चु , टु , तु , पु में ‘ उ ‘ की इत्संज्ञा (लोप)होती है | अत: इन्हें उदित ‘ वर्ण भी कहा जाता है। इन 25 वर्णों के उच्चारण
स्थानों स्पर्श होता है।अत: इन्हें स्पर्श वर्ण कहा
जाता है |
ऊष्म वर्ण – 4 श् , ष् , स् , ह्  { इनके उच्चारण में मुख से ऊष्मा का निकास
होता है , अत: इन्हें ऊष्म वर्ण कहा जाता है |
अन्त:स्थ वर्ण – 4 इनके उच्चारण में वायु मुख से बाहर न निकलकर , अन्दर
ही विद्यमान रहती है  और ये स्अवर और व्यञ्जन को अन्त:(मध्य) स्थित होने से अन्त:स्थ वर्ण कहे जाते हैं |
सयुंक्त वर्ण { पाणिनि ने तीन निश्चित किए हैं परन्तु श्+र=श्र् और द्+य=द्य भी हैं  पाणिनि मत से तीन हैं -}
     क्ष् –  क् +  ष्
     त्र् –  त् + र्
     ज्ञ् – ज् + ञ्
पाणिनीय शिक्षा के अनुसार कुल वर्ण – 63/64 माने गए हैं | ( त्रिषष्टिश्चतु:षष्टिर्वा वर्णा: )
जिसमें कुल 21 या 22 स्वर व 42 व्यञ्जन माने जाते हैं 

 
स्वर { 21/22 } अ , इ , उ , ऋ { ह्रस्व , दीर्घ , प्लुत 4 x 3 = 12 }
लृ { केवल प्लुत } या ह्रस्व और प्लुत { 1 या 2 }
ए , ओ , ऐ , औ { केवल दीर्घ और प्लुत } 4 x 2 = 8
व्यञ्जन { 42 } 25 स्पर्श वर्ण { कु , चु , टु , तु , पु / उदित वर्ण }
4  ऊष्म वर्ण { श् , ष् , स् , ह् }
4  अन्त:स्थ वर्ण { य् , व् , र् , ल् }
4  यम् –अनुस्वार {1}
       विसर्ग {1}
       जिह्वामूलीय {1}
       उपध्मानीय {1}
       दु:स्पृष्ट {1} ठ्ठ

यम–वर्ग के प्रारम्भिक चार वर्णों में से किसी भी एक के आगे , किसी भी वर्ग के पंचम वर्ण { ङ , ञ , ण , न , म } के रहने पर , पहले के जैसे द्वितीय वर्ण को यम कहते हैं ।
जैसे – ‘ पलिक्क्नी ‘ में द्वितीय ‘ क् ‘ यम है |
‘ चख्ख्नतु ‘ में द्वितीय ‘ ख् ‘ यम है |
‘ अग्ग्नि: ‘ में द्वितीय ‘ ग् ‘ यम है यम का अर्थ युगल अथवा जोड़ा है ।

जिह्वामुलीय – ‘ क ‘ और ‘ ख ‘ से पहले विद्यमान अर्ध – विसर्ग { आधा विसर्ग } जिह्वामुलीय कहलाता है |
संस्कृत वर्णमाला 

अनुवाद-
अनुस्वार विसर्ग जिह्वामूलीय और उपध्मानीय– ये चार दूसरे वर्णों के उच्चारण पर आश्रित हैं। और वेद में प्रयुक्त लकार एक है और ऌकार का प्लुत भी कहा जाता है ।५।

                ★ पाणिनीयशिक्षा
                        खण्डः २ →

अनुवाद-
शरीरस्थ चेतन तत्व( आत्मा) बुद्धि द्वारा सांसारिक अर्थों को एकत्रित कर बोलने की इच्छा से मन को योग प्राप्त करती है और मन जठराग्नि को आहत अथवा प्रदीप्त करता है। और जठराग्नि मारुत( प्राण वायु )को प्रेरित करता है।६।
अनुवाद-
मारुत हृदय में विचरण करता हुआ प्रात: सवन-योग को गायत्री छन्द पर आश्रित उस मन्द्र स्वर को उत्पन्न करता है।७।
अनुवाद-
कण्ठ में आकर मध्यन्दिन सेवन के लिए उपयोगी त्रैष्टुभ छन्द का अनुगमन करने वाले मध्यम स्वर को शिर: प्रदेश में विचरण करने वाली वायु को तृतीय सायन्तन -सवन के योग्य जगती छन्द के अनुकर्ता तार( उच्चस्वर) को जन्म जानना चाहिए ।८।
अनुवाद-
वह ऊर्ध्व गामी मारुत मूर्धा में टकराकर मुख में पहुँच कर वर्णों को उत्पन्न करता है उनका विभाजन पाँच प्रकार से शास्त्रों में कहा गया है।९।
 अनुवाद-
स्वर से " काल से" ताल्वादि स्थानों से आभ्यन्तर प्रयत्न और बाह्य प्रयत्न से इस विभाग को वर्णविद् शिक्षा शास्त्रीयों ने निपुण रूप से कहा है उनको जानो ।१०।
उच्चस्वर "नीचस्वर और स्वरित( समाहार स्वर) इति (इस प्रकार ये ) तीन स्वर हैं । हृस्व दीर्घ और प्लुत ये अच(स्वरविषयक) कालानुसारी नियम हैं।११।
अनुवाद-
उदात्त स्वर में निषाद और गांधार आते हैं अनुदात्त स्वर में  ऋषभ और धैवत स्वर आते हैं। षडज् मध्यम और पञ्चम ये तीन स्वरित से उत्पन्न हैं।।१२।
अनुवाद-
वर्णों के आठ उच्चारण स्थान हैं उर(हृदय) शिर( मूर्द्धा ) कण्ठ" जिह्वामूल "दन्त "नासिका "ओष्ठ और "तालु ।१३।
अनुवाद-
ऊष्म विसर्जनीय वर्णो की आठ प्रकार की गति है।ओकार भाव हो जाना विवृति ( सन्ध्यभाव) और श" ष "स" और रेफ  तथा जिह्वामूल और। उपध्मानीय वर्णों में परिणत हो जाना है।१४।
अनुवाद-
यदि उकारादि स्वर के रूप में उकार से युक्त पद ओकार भाव का ज्ञापक हो वैसा प्रसन्धान स्वरान्त होगा।१५।

            
अनुवाद
वर्गों के पञ्चम् वर्णों से युक्त और अन्त:स्थ वर्णों से युक्त "हकार" को उरस्य जाना जाए।१६।
अनुवाद
अहौ- अ" वर्ण और ह" वर्ण कण्ठ स्थानीय हैं
इचुयशा:- इ" स्वर च" वर्ग और  य"-वर्ण और श"वर्ण तालु स्थानीय हैं ; ओष्ठज वर्ण हैं "उ" और पवर्ग और मूर्धा स्थानीय वर्ण ऋ" टवर्ग र" और ष" वर्ण हों। दन्त्या- ऌ तवर्ग ल" और स" वर्ण हैं।१७।
अनुवाद-
जिह्वामूले तो "कवर्ग" बतलाया गया है दन्त्योष्ठ व" और ए"ऐ को तो कण्ठ-तालव्य कहा गया है "ओ और औ" को कण्ठोष्ठज कहा गया है।१८।
अनुवाद-
एकार और ऐकार में कण्ठास्थानीय तो            अर्द्ध मात्रा अत:संवृत होती है । ओकार और औ कार में मात्रा विवृत संवृत होता है ।१९।
अनुवाद
संवृतं वर्ण एक मात्रिक जानना चाहिए और दोमात्राओं से युक्त वर्ण को  विवृत जाना जाये।२०।

    (पाणिनीय-शिक्षा खण्डः५  → ) 

 "स्वराणामूष्मणां चैव विवृतं करणं स्मृतम् ।
अनुवाद- स्वरों और ऊष्म वर्णों का
विवार नामक करण( आभ्यन्तर-प्रयत्न) कहा गया है। उनके भी (एड्•)एकार और ओकार विवार नामक प्रयत्न से युक्त हैं। और इसी प्रकार (ऐच्)ऐकार और औकार भी हैं।२१।

अनुस्वार यमानां च नासिका स्थानमुच्यते ।
अयोगवाहा विज्ञेया आश्रयस्थानभागिनः॥ २२॥
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अनुस्वार युक्त ध्वनियों का नासिक स्थान कहा गया है। अयोगवाहों को आश्रय-स्थान भागिन जानना चाहिए २२।

अलाबुवीणानिर्घोषो दन्तमूल्यस्वराननु 
अनुस्वारस्तु कर्तव्यो नित्यम् होः शषसेषु च ।२३।

अनुवाद-
अलाबु( तुम्बीफल या लौकी) से निर्मित वीणा का स्वर दन्तमूलीय होता है। स्वर को बाद उच्चार्यमाण अनुस्वार तो( ह्री) हकार और रेफ और शषस परे होने पर नित्य करना चाहिए ।२३।

अनुस्वारे विवृत्यां तु विरामे चाक्षरद्वये ।
द्विरोष्ठ्यौ तु विगृह्णीयाद्यत्रोकारवकारयोः ।२४।

अनुवाद-
जहाँ ओकार तथा वकार से पूर्व  अनुस्वार" विवृत्ति" विराम अथवा अक्षरों कि द्वित्व हो तो उस स्थिति मैं औष्ठ्य वर्णों का उच्चारण करने में ओष्ठों को दो वार पृथक् करना चाहिए वैसे ओकार और वक्र दौनों द्वि-स्थानीय हैं।
 ओकार कि उच्चारण स्थान कण्ठोष्ठ है तो वकार का दन्तोष्ठ; किन्तु उपर्युक्त अनुस्वार आदि को सानिध्य में वे ओष्ठ्य ही होंगे और उनके उच्चारण में ओष्ठों कि दो बार विग्रह करना पड़ेगा उदाहरण संव्वाद: पद अनुस्वार और वकार की सन्धि से बना है किन्तु इसमें वकार का उच्चारण ओष्ठ्य होगाऔर उस उच्चारण में द्वित्व होगा।२४।

व्याघ्री यथा हरेत्पुत्रान्दन्ताभ्यां न तु पीडयेत् ।
भीता पतनभेदाभ्यां तद्वद्वर्णान्प्रयोजयेत् ।२५।

अनुवाद-जिस प्रकार बाघिनी बच्चों के गिर जाने और दाँत लग जाने को भय से डरी हुई अपने शावकों को (ऊपरी और नीचे के) दौनों दाँतों से ले जाए किन्तु उन्हें पीड़ा न पहुँचाए उसीप्रकार वर्णों का प्रयोग किया जाना चाहिए ।२५।

            पाणिनीयशिक्षा खण्डः६  →
अनुवाद-
जिस प्रकार गुजरात प्रान्त को सूरत की (यादव-अहीरिणी )नारि तक्र ( मट्ठा) बेचती है; तक्र कहकर बोलती हुई इसी प्रकार रङ्गाः(नासिक्य) वर्ण प्रयोग किया जाना चाहिए जिस प्रकार  खे अराꣳ इव खेदया ( जिस प्रकार वेद में (खे अराँ) इत्यादि में उच्चारण किया जाता है।२६। ___________________

अनुवाद-(रङ्गवर्णं )-अनुस्वार युक्त वर्ण का इस प्रकार प्रयोग करें जिससे वह पूर्व अक्षर को स्पर्श या ग्रसित न करे नासिक्य स्वर को दीर्घ स्वर के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए पश्चात नासिक्य ध्वनि का उच्चारण करना चाहिए।२७।

अनुवाद-
हृदय में एक मात्र मूर्धा में अर्द्धमात्रा
और नासिका में अर्द्ध मात्रा–इस प्रकार नासिका में आधी मात्रा और रंग वर्ण कि दो मात्रता( दो मात्राओं) का सदाभाव सिद्ध होता है ।२८।

अनुवाद-
हृदय से ऊर्ध्व भाग में स्थित होते हुए काँस्य पात्र को समान स्वर करता हुआ(रङ्गवर्णं)मृदुता और द्विमात्रा को प्राप्त करता है। वेद का
 जघन्वाँ  पद इसका उदाहरण है।

अनुवाद-कम्प स्वर तो उच्चारण को मध्य में कल्पित होना चाहिए आदि और अन्त को दौनों पार्श्वो( बगलों) में समान होना चाहिए कम्पनी वर्ण में सरंग कम्पन होना चाहिए । वेद का "रथीव" पद इसका उदाहरण है ।३०।

__________
एवं वर्णाः प्रयोक्तव्या नाव्यक्ता न च पीडिताः ।
 सम्यग्वर्णप्रयोगेन ब्रह्मलोके महीयते ॥ ३१॥ 

अनुवाद-
इस प्रकार वर्णों का प्रयोग किया जाना चाहिए वे न तो अव्यक्त ( अस्पष्ट उच्चारण वाले) और न पीड़ित( कर्कश ध्वनि युक्त) सम्यक ( समुचित-पूर्ण-) वर्णों के प्रयोग द्वारा मनुष्य ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित होता है।३१।

  

"गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाथकः। 
अनुवाद-
गा -गाकर पढ़ने वाला जल्दी जल्दी पढ़ने वाला लिखे हुए को पढ़ने वाला शिरकम्पी( सिर हिला हिला कर पढ़ने वाल शब्द के वास्तविक अर्थ को न जानने वाला और अल्प
स्वर युक्त कण्ठवाला- ये छ: अधम पाठक हैं।३२।

माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।
अनुवाद-
मधुरता वेद की। ऋचाओं के प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण पदों का विभाग सुन्दर स्वर धीरता और वेद मन्त्र में लय उत्पन्न करने का सामर्थ्य ये छ: तो उत्तम पाठक हैं ।
३३।

अनुवाद-
शंकायुक्त, भययुक्त उच्च ध्वनि अस्पष्ट अनुनासिकता युक्त कौए जैसा स्वर शिर पर चढ़ा हुआ स्वस्थान से विवर्जित ( हठा हुआ)।३४।

अनुवाद-
अत्यंत मन्द स्वर से उच्चरित तुरन्त अर्थात् मुँह से अस्पष्ट रूप से जल्दी जल्दी बोला हुआ। अथवा देर से उच्चरित शिथिल कण्ठ से उच्चरित गाते हुए अपने को अत्यधिक पीड़ित करते हुए ग्रस्तपदाक्षरम्= ग्रस्त{भक्षिते लुप्तवर्णपदे -असंपूर्णोच्चारितशब्दे  अमरःकोश अर्थात् पद को सभी अक्षरों को न बोलते हुए दीनता पूर्ण और और निरानुनासिक को भी अनुनासिक नहीं बोलना चाहिए ।३५।

अनुवाद-
प्रत:काल उर( हृदय) में स्थित स्वर को द्वारा जो शार्दूल( सिंह) से उपमा रखने वाला होता है; उससे और मध्याह्न में चक्रवात के कूँजन से साम्य रखने वाले कण्ठ में स्थित स्वर के द्वारा नित्य-पाठ करना चाहिए.।३६।  

अनुवाद-तृतीय सवन(सवनकाल) = आहुति देने, तर्पण आदि का समय। सवनक्रम = जो यज्ञादि के विभिन्न कृत्यों का क्रम होता है। तो तीव्र स्वर का होना चाहिए और उसको मयूर हंस और कोकिल को स्वरों को समान शिर स्थित नाद के द्वारा सदा प्रयोग करना चाहिए ।३६

अनुवाद-
ईषत् स्पृष्ट शल् (शषसह)प्रत्याहार को वर्ण अर्द्ध स्पर्श कहे गये हैं शेष हल( व्यञ्जन स्पर्श कहे गये हैं वक्ष्यमाण अनुप्रदान(बाह्य प्रयत्न) से वर्णों का बोध करो।३८।

अनुवाद-
ञम:=ञ"म"ड•"ण"न" अनुनासिका: हैं।न ह्रौ= हकार और रेल नहीं हैं  "ह" "झ" और "ष" नाद प्रयत्न वाले हैं। यण: जश्च=यवरलऔर ज ईषद् नाद हैं। खफादयस्तु श्वासिन:= खफछठऔरथ श्वांस प्रयत्न युक्त हैं।३९।

_______________
अनुवाद-
चर:=(च"ट"त"क"प"श"ष" और "स" ईषत् श्वास वर्ण हैं। एतत् गोर्धाम इस गाय रूपी वाणी के धाम को पणी(फॉनिसियन) दाक्षीपुत्र पाणिनि  के द्वारा  इस वाणी को संसार में व्याप्त कर दिया गया।
विशेष- संसार में भाषा को जनक पणी(प्यूनिक) लोग थे । जिनके वंशज
ही आज के बनिया (वणिक) हैं।

अनुवाद-
छन्दशास्त्र तो वेद को चरण हैं और कल्प शास्त्र वेदों के हाथों को रूप में पढ़ा जाता हैं नक्षत्रों के अयन रूप ज्योतिष-शास्त्र वेद का नेत्र है। निरुक्त वेद का श्रवण( (कान) कहा गया है।  ।४१।

अनुवाद-
शिक्षा शास्त्र वेद सी नासिका है। और व्याकरण मुख कहा गया है।  इसलिए इन छ: अंगों सहित अध्ययन करके ही   मनुष्य ब्रह्मलोक में मण्डित होता है। ४२।  

अनुवाद-
ङ्गुलीनांवृष=अंगुलियों में श्रेष्ठ अर्थात् अंगुष्ठ तरनी_ के मूल में अग्रभाग को निविष्ट करता हुआ उदात्त स्वर को आख्यान ( व्यक्त) करता है। उपान्त_ 
अनामिका के मध्य में सम्बन्धित होता हुआ। द्रुतम् ( शीघ्रता पूर्वक)स्वरित को व्यक्त करता है। कनिष्ठिका के मध्य में सम्बद्ध होकर अनुदात्त स्वर को अभिव्यक्त करता है ।४३।

        पाणिनीय-शिक्षा

उदात्तं प्रदेशिनीं विद्यात्प्रचयो मध्यतोङ्गुलीम् ।निहतं तु कनिष्ठिक्यां स्वरितोपकनिष्ठिकाम् । ४४।

उदात्त स्वर प्रदेशनी(तर्जनी) में प्रचय स्वर=वेदपाठ विधि में एक प्रकार का स्वर जिसके उच्चारण के विधानानुसार पाठक को अपना हाथ नाक के पास ले जाने की आवश्यकता पड़ती है।  मध्यमा अंगुलि में (निहतं)=अनुदात्त स्वर कनिष्ठिका में और स्वरित उपकनिष्ठिका (अनामिका)में विद्यमान रहता है।४४।

अन्तोदात्तमाद्युदत्तमुदात्तमनुदातं नीचस्वरितम् ।मध्योदात्तं स्वरितं द्व्युदात्तं त्र्युदात्तमिति नवपदशय्या। ४५।

अन्तोदात्तम्=वह पद जिसका अन्तिम स्वर उदात्त हो आद्युदात्तम्= वह पद जिसका आदि स्वर उदात्त हो। उदात्तम्= उदात्त स्वर। अनुदात्तस्वर।नीचस्वरित।मध्योदात्त=वह स्वर जिसका मध्य पद उदात्त हो। स्वरितयुक्त। द्वयुदात्तम्= दो उदात्त स्वरों से युक्त।त्र्युदात्तम्=तीनों उदात्त स्वरों से युक्त इति=इस प्रकार।नवधा पदशय्या है ।।४५।

अग्निः सोमः प्र वो वीर्यं हविषां स्वर्बृहस्पतिरिन्द्राबृहस्पती ।अग्निरित्यन्तोदात्तं सोम इत्याद्युदत्तं व प्रेत्युदात्तं वीर्यं नीचस्वरितम् ।४६।

अग्नि पद अन्तोदात्त है। सोमपद आदि-उदात्त है ।प्र-उदात्त है व:-अनुदात्त है। वीर्य नीच त्वरित पद है । ४६।

हविषां मध्योदात्तंस्वरिति स्वरितं बृहस्पतिरिति । द्व्युदात्तमिन्द्राबृहस्पती इति त्रुदात्तम् ।४७।

हविषां मध्योदात्त स्वर है ।स्व: पद स्वरित है।बृहस्पति पद द्वयुदात्त पद है ‌। इन्द्राबृहस्पति त्र्युदात्त पद है ।४७।

अनुदात्तो हृदि ज्ञेयो मूर्ध्न्युदात्त उदाहृतः ।स्वरितः कर्णमूलीयः सर्वास्ये प्रचयः स्मृतः। ४८।    

अनुदात्त स्वर हृदय में जानना चाहिए
उदात्त स्वर कहा गया है स्वरित का स्थान कर्णमूल और प्रचयस्वर सभी मुख प्रदेश में बताया गया है ४८।

_______

         (पाणिनीय-शिक्षा)

"चाषस्तु वदते मारां द्विमात्रो चैव वायसः। 
चाष(नीलकण्ठ एक मात्रा बोलता है।
वायस=कौआ दो मात्रा ही बोलता है। मयूर तीन मात्रा में (रौति) बोलता है और नेवला अर्द्ध मात्रा में बोलता है।४९।

कुतीर्थ=दुष्टाचरणयुक्त गुरु आदि से प्राप्त दग्ध-जला हुआ अपवर्णम्-अशुद्ध अक्षर युक्त अत्यंत अस्पष्टता युक्त उस मन्त्र के पाठ में ।पापा हे: इव= सूर्य कि भाँति मोक्ष नहीं मिलता है।  किल्विषात्-पाप से-।५०।

सुतीर्थ( सदाचारी गुरु से प्राप्त व्यक्तं= स्पष्ट । सुन्दर-आम्नाय( सम्प्रदाय) से सम्बद्ध ।अक्षरादि कि दृष्टि से पूर्णत: व्यवस्थित ।स्वर को द्वारा सुन्दर वक्त्र को द्वारा प्रयुक्त ( उच्चरित वेद-मन्त्र शोभा देता है ।५१।

स्वर से अथवा वर्ण से हीन अशुद्ध प्रयोग किया गया मन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता है वह वाणी रूप वज्र होकर यजमान को मारता है। जैसे स्वर से अपराध के कारण वृत्रासुर रूपी यजमान का विनाश कर दिया था । इन्द्रशत्रु: पद के अशुद्ध स्वर के प्रयोग ने।५२।

अक्षर रहित मन्त्रोचारण- आयु का विनाशक व्याधि सी पीड़ा देने वाला ।विस्वरं=बेसुरा। वज्र होकर।अमोघ शस्त्र को रूप में यजमान को मस्तक पर पड़ता है।५३।

य: तु=जो पाठक ।हस्तहीनम्=  हस्त संचालन के बिना। स्वरवर्णों से रहित अध्ययन करता है। ऋग्यजु: सामभि: दग्ध:=ऋग यजु और साम अग्नियों से जलकर अधम योनि को प्रप्त होता है ।

           पाणिनीयशिक्षा- खण्डः११- 
जो पाठक स्वर वर्ण और अर्थ को साथ वेद को हाथ के द्वारा संचालन करता हुआ वेद को पढ़ता है वह ऋग् यजुर् और साम वेदत्रयी द्वारा पवित्र होकर ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है ।५५।
____________   

        (पाणिनीय-शिक्षा)

शंकर भगवान ने सभी वेद-वाङ्मय से कल्याणी देवीवाणी को एकत्रित करके बुद्धि मानों को लिए दाक्षीपुत्र पाणिनि को प्रदान किया यह वस्तुस्थिति है।५६।

जिसके द्वारा महेश्वर से अक्षर-समाम्नाय( वर्ण-समूह) को प्राप्तकर कृत्स्नम्-(सम्पूर्ण) व्याकरण शास्त्र को कहा गया है उन पाणिनि को मेरा नमस्कार है ।५७।

जिनके द्वारा निर्मल शब्द रूपी जल से मनुष्यों कि वाणी पवित्र कर दी गयी। और अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार भेदन कर दिया गया मैं उन पाणिनि को नमस्कार करता हूँ।५८।

"अज्ञानान्धस्य लोक सम  ज्ञानाञ्जन शलाकया।चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै पाणिनये नम:।।५९।
जिनके ज्ञान रूपी काजल कि शलाई सेअज्ञानान्ध
से ग्रस्त लोक को नेत्र खोल दिए उन महर्षि पाणिनि को मैं प्रणाम करता है ।५९।

जो द्विज-वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय इस लोक में भगवान शिव को मुख से नि:सृत इस वाणी को सदा प्रयत्न पूर्वक पढ़ता है। वह धन-धान्य पशु और कीर्ति से सम्पन्न होता है।।६०।।
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