सोमवार, 9 सितंबर 2019

कृष्ण चरित्र को पतित करने का दुषुपक्रम ... नवीन संस्करण

महानुभाव ! 
 षड्यन्त्र प्रत्यक्ष प्रशंसात्मक क्रिया है । 
जिसे जन साधारण  निष्ठामूलक अनुष्ठान समझ कर भ्रमित होता रहता है ।

 यही कृष्ण के साथ पुष्य-मित्र सुँग कालीन ब्राह्मणों ने किया इसी लिए कृष्ण चरित्र को पतित करने के लिए श्रृँगार के कींचड़ में डुबो दिया गया ।

 श्रृँगार  वैराग्य का सनातन प्रतिद्वन्द्वी भाव है. इसी लिए कृष्ण जैसे आध्यात्मिकता के शिखर पर आरूढ महामानव को श्रृँगार रस में डुबाने की रूढ़िवादी पुरोहितों ने कुछ सीमा तक सफल चेष्टा की है ।

ये पुरोहित इन्द्र का स्तवन करने वाले वर्ण व्यवस्था वादी थे । इन्द्र का चरित्र वेदों से लेकर पुराणों तक में एक लम्पट और कामुक देवता का है ।

क्योंकि कृष्ण दुनियाँ के सबसे बड़े योगदृष्टा योगेश्वर और युग पुरुष और आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित तत्ववेत्ता थे । 
 यह भी सर्वविदित है कि कृष्ण ने देवों के राजा इन्द्र से युद्ध किया और देव संस्कृति को
 कभी उन्नत नहीं समझा !

 इसके ऋग्वेद के अष्टम मण्डल को आप देख सकते हैं । यहाँं तक कि पुराणों में भी वैदिक प्रतिध्वनि निनादित होती रही है ।
 पुराणों का सृजन किंवदन्तियों पर हुआ है और ये अठारवीं सदी तक लिखें जाते रहे हैं। 
 यदि आप ब्राह्मण वाद की दासता के पैरोकार हैं ; तो आप कृष्ण को केवल पुराणों तक ही जान पायेंगे ____________________________________________ 
 और सत्य पूछा जाय तो कृष्ण पुराणों के पात्र नहीं हैं अपितु वेदों ,उपनिषदों और पुराणों से भी पूर्व कौषीतकी ब्राह्मण आदि के पात्र हैं ।

 ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में एक स्थान पर स्पष्ट वासुदेव कृष्ण "शब्द के द्वारा कृष्ण का ही वर्णन है । 
 परन्तु प्रक्षिप्त रूप से "वसुदेवाय कृष्व" शब्द वैदिक ऋचाओं में सम्पादित किया जाता रहा है । 

वेदों में कृष्ण नामक चरावाह इन्द्र का परम शत्रु है । परन्तु अधिकतर पुराणों में कृष्ण का चरित्र एक कामुक के रूप में प्रस्तुत किया गया हैं ।

 और सत्य तो यही है कि पुराणों का सृजन ही कृष्ण- चरित्र का हनन करने के लिए ही उन पुरोहितों ने किया जो देव संस्कृति के अनुयायी और इन्द्र के आराधक थे । क्योंकि कृष्ण इन्द्र के चिर प्रति द्वन्द्वी है ।

और कृष्ण चरित्र को दूषित व कामुक रूप में वर्णित करने वाले इन्द्र उपासक पुरोहितों का कृत्य है ।

 वेदों से लेकर पुराणों तक में यही कृष्ण और इन्द्र की शत्रुता परिलक्षित है ।

 ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं (13,14,15,) में असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
 आप दुनियाँ की ऋग्वेद की किसी भी प्रति में देख सकते हैं । ________________________________________ " आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त । द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि । वो वृषणो युध्य ताजौ ।14। 

 अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। ______________________________________ ऋग्वेद में वर्णित है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ गाय चराते हुए रहता है । उन चरती हुईं गायों केेेे साथ को  कृष्ण को (चरन्तम्) इन्द्र ने अपने बुद्धि -बल से खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
 इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक अदेव( जो देवताओं को नहीं मानता) को मैंने देख लिया है । जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाय चराते हुए रहता  है ।
सायण ने असुर अर्थ अदेवी: शब्द को अर्थ गत करते हुए ही किया है । जो कि असंगत ही है 

 वास्तव में चरन्तम् क्रिया पद विचारणीय तथ्य है ।
 इस ऋचा "चरन्तम् " क्रिया पद दो बार आया है ; जो चरावाहे का वाचक है । 
फिर अब आप ही बताऐंगे ! की इन्द्र के भक्तों द्वारा इन्द्र के शत्रु कृष्ण का किस प्रकार प्रतिष्ठा स्थापन हो सकता है ?
कृष्ण के चरित्र -हनन के लिए अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त पौराणिक कथाओं का सृजन हुआ है ।
और पुराणों का सृजन बारहवीं सदी से लेकर अठारवीं सदी तक हुआ है ।
 यह बात इतर है कि ... 

भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में "संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का निरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था ।
 इन्हीं सन्दर्भों में हम राधा और कृष्ण का जीवन चरित अपनी विवेचना का विषय बनाते हैं। सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में वेदों की मान्यता पुराणों से भिन्न है ।
 इस पर कुछ प्रकाशन देखें । ____________________________________________
 राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी । यह शब्द वेदों में भी आया है ।
 वैसे भी व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा शब्द - स्त्रीलिंग रूप में है जैसे- (राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् + अच् + टाप् ):- राधा । अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है । वह शक्ति राधा है । 
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है । और कृष्ण राधा के पति हैं । ________________________________________ 
 इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते | 
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! 
यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है । वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो। 
___________________________________
 विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ . २ २. ७) _______________________________________ 
 सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों मध्य में से ले गए ; वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें। ______________________________________

त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) _______________________________________ अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें । जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो । वेदों में ही अन्यत्र कृष्ण के विषय में लिखा ।

 त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : 
कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि ।
 वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) _____________________________________ अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले हैं ।
 ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे ।
 इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है ।
 जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही तो राधा के पिता थे। वेदों के अतिरिक्त उपनिषदों में राधा और कृष्ण का पवित्र वर्णन है ।
 यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद ) राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत् चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में वासुदेव कृष्ण का वर्णन:- _________________________________________ ऋग्वेद के प्रथम मण्डल अध्याय दश सूक्त चौउवन 1/54/ 6-7-8-9- वी ऋचाओं तक यदु और तुर्वशु का वर्णन है । और इसी सूक्त में राधा तथा वासुदेव कृष्ण आदि का वर्णन है ।
 परन्तु यहाँ भी परम्परागत रूप से देव संस्कृतियों के पुरोहितों ने गलत भाष्य किया है । 

पेश है एक नमूना - 👇 त्वमाविथ नर्यं तुर्वशुं यदुं त्वं तुर्वीतिं(तूर्वति इति तुर्वी )वय्यं शतक्रतो । त्वं रथमेतशं कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव ।16। 
 अन्वय:- त्वं नर्यं आविथ शतक्रतो ; त्वं यदु और तुर्वशु को मारने वाले (तुर्वी )(इति :- इस प्रकार हो वय्यं (गति को) । त्वं रथमेतशं (तुम रथ को गति देने वाले )शम् ( कल्याण) कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव अर्थ:- हे सौ कर्म करने वाले इन्द्र ! तुम नरौं के रक्षक हो तुम तुर्वशु और यदु का तुर्वन ( दमन ) करने वाले तुर्वी इति - इस प्रकार से हो ! तुम वय्यं ( गति को ) भी दमन करने वाले हो ।
 तुम रथ और एतश ( अश्व) को बचाने वाले हो तुम शम्बर के निन्यानवै पुरो को नष्ट करने वाले हो ।6। 

 स घा राजा सत्पति : शूशुवज्जनो रातहव्य: प्रति य:शासमिन्वति। उक्था वायो अभिगृणाति राधसा दानुरस्मा उपरा पिन्वते दिव: ।।7।
 साहसी राजा सत् का स्वामी होता है । वह राधा मेरे उरस् (हृदय में ) ज्ञान देती हैं (अभिगृणाति- ज्ञान देती हैं । सा- वह राधा । (दान - उरस् -मा ) तब ऊपर प्रकाश पिनहता है । 

 विशेष:- यहाँं राधस्-अन्न अर्थ न होकर राधा सा रूप है (वह राधा) असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे ।
ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति मही क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च ।8। सोम पायी इन्द्र हमारे पास सीमा रहित -बल और बुद्धि हो हम तुम्हें नमन करते हैं ।
 हे इन्द्र उषा काल में जो दान देते हैं वे बढ़ते हैं । 
 उनकी पृथ्वी और शक्ति बढ़ती है। 
जैसे वृद्ध वृष्णि वंशीयों की शक्ति और बल बढ़ा था । तुभ्येत् एते बहुला अद्रि दुग्धाश्च चमूषदश्चमसा इन्द्रपाना: व्यश्नुहि तर्पया काममेषा मथा मनो वसुदेवाय कृष्व(वासुदेवाय कृष्ण)।।8।
 हे वासुदेव कृष्ण ! पाषाणों से कूटकर और छानकर यह पेय सोम इन्द्र के लिए था । 
 परन्तु हे कृष्ण इसका भोग आप करो यह तुम्हारे ही निमित्त हैं ! अपनी इच्छा तृप्त करने के पश्चात् फिर हमको देने की बात सोचो।8।

 विशेष :- यद्यपि कृष्ण सोम पान नहीं करते थे ।

परन्तु मन्त्र कार कृष्ण के शक्ति प्रभाव से प्रभावित होकर उन्हें भी इन्द्र के समान सोम समर्पण करना प्रलोभित करना चाहता है । 

 क्यों कि सोम मादक पेय पदार्थ था ।
 ईरानी मिथकों में होम शब्द सोम का ही प्रतिरूप है । विशेष:- एतश: (इण्--तशन् ) १ ब्राह्मण २ अश्व निरुक्त कोश । “येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पतिः” ऋ० १०, ५३, ९ । “यत्रैतशोऽभिधीयसे” यजु० ४, ३२ । “सजूः सूर एतशेन” १२, ७४ । एतशेनाश्वेनेति” “उभे चक्रं न वर्त्येतशस्” ऋ० ८, ६, ३८ । हिंसार्थाः तूर्वति तुतूर्व तूर्विता तुतूर्विषति तोतूर्व्यते ) पुराणों में श्री राधा जी का वर्णन कर पुराण कारों ने उसे अश्लीलताओं से पूर्ण कर अपनी काम प्रवृत्तियों का ही प्रकाशन किया है ।

श्रीमद्भागवत पुराण के रचयिता के अलावा १७ और अन्य पुराण रचने वालों ने राधा का वर्णन नहीं किया है । इनमें स केवल छ :में श्री राधा का उल्लेख है। यथा " राधा प्रिया विष्णो : (पद्म पुराण ) राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण ) तत्रापि राधिका शाश्वत (आदि पुराण ) रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने । (मत्स्य पुराण १३. ३७) (साध्नोति साधयति सकलान् कामान् यया राधा प्रकीर्तिता: ) (देवी भागवत पुराण ) राधोपनिषद में श्री राधा जी के २८ नामों का उल्लेख है।
 गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : (श्रीमदभागवत ) हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ). यहाँ "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है ।

 महालक्ष्मी के लिए नहीं। क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं। वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ? अत: यह भी प्रक्षिप्त अंश है । रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स्वप्रतिबिम्ब विभाति " -(श्रीमदभागवतम १०/ ३३/१ ६ ) कृष्ण रमा के संग विहार करते हैं। 
 यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है। रमा का मतलब लक्ष्मी भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास प्रयोजन नहीं है.। लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं। रास तो लीलापुरुष घनश्याम ही करते हैं।
 आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य -(श्रीमदभागवतम १०. ३०.२ ) जब श्री कृष्ण महारास के मध्यअप्रकट(दृष्टि ओझल ,अगोचर ) हो गए गोपियाँ प्रलाप करते हुए मोहभाव को प्राप्त हुईं। वे रमापति (रमा के पति ) के रास का अनुकरण करने लगीं।

 स्वांग भरने लगीं। यहाँ भी रमा का अर्थ राधा ही है । लक्ष्मी नहीं हो सकता क्योंकि विष्णु रास रचाने वाले नहीं थे । कृष्ण जीवन को कलंकित करने वाले षड्यन्त्र कारक पक्ष- जिनका सृजन कृष्ण को चरित्र हीन बनाकर देवसंस्कृति के अनुयायी पुरोहितों ने किया !
 परिचय :-- यादव योगेश कुमार 'रोहि' सम्पर्क सूत्र,8877160219
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 कृष्ण को कामी वासनामयी मलिन हृदय ब्राह्मणी संस्कृति ने हिन्दूधर्म के नाम पर अहीर अथवा गोपों को कृष्ण नामक कथित भगवान का रूप देकर भी एक कामी और भोगी पुरुष बना कर केवल समाज को व्यभिचार की प्रेरणाऐं दी है । 
 और परोक्ष रूप से कृष्ण का प्रतिष्ठा को धूमिल किया गया पुराणों क ब्रह्मवैवर्तपुराण ने अश्लीलता की सारी हदे पार कर दी है पुराण कारों ने कहा है कि:- "चतुर्णमपि वेदानां पाठादपि वरम् फलम् " (कृष्णजन्म खण्ड अध्याय-133) अर्थात- चारो वेद पढ़ने से भी अधिक श्रेष्ठ फल इस पुराण पढ़ने से होगा। 

 इस पुराण में अश्लीलता की सम्पूर्ण सीमा उल्लंघित होती है । 
 ब्रह्मा विश्वम् विनिर्माणाय सावित्र्यां वर योषिति। 
 चकार वीर्यधानम् च कामुक्या कामुको यथा।। 
 सा दिव्यं शतवर्ष च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् ।।
 सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरात् ।। 
(ब्रह्मखण्ड अध्याय-9/1-2) अर्थात-ब्रह्मा ने विश्व का निर्माण करने के लिए सावित्री में उसी प्रकार वीर्यस्थापन किया जैसे एक कामुक पुरुष कामुक स्त्री में करता है, तब सावित्री ने दिव्य सौ वर्षो के बाद चारो वेदों को जन्म दिया ! ___________________________________________
 इस पुराण में वेद भी सावित्री के गर्भ से पैदा हुआ है ! जबकि अन्यत्र वैदों की अधिष्ठात्री गायत्री को कहा है । पाखण्डी पुरोहितों ने धर्म की आड़ में समाज को वासना मूलक प्रेरणात्मक दी इन मूर्खों ने पृथ्वी को भी नहीं बख्सा .. प्रकृतिखण्ड अध्याय-8/29 मे लिखा है कि विष्णु ने वाराह रूप मे पृथ्वी से सम्भोग किया और बेचारी पृथ्वी बेहोश हो गयी! 

अब पृथ्वी को ही संभोग से बेहोश कर दिया इन कामुक व्यभिचारी पुरोहितों ने. यहाँ ब्रह्मा और सावित्री क्रमश: विलास पुरुष स्त्रीयों के रूप में वर्णित हैं। 

पृथ्वी का प्रातःस्मरणीय श्लोक भी यही कहता है:- अब विष्णु हैं यद्यपि सुमेरियन पिक्स-नु देवता परन्तु इस ! 
सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित देव का विष्णु को यही नही छोड़ा और तुलसी (वृन्दा) से भी सहवास का दोषी बताया।
   "शङ्खचूङस्य रूपेण जगाम तुलसी प्रति।
 गत्वा तस्यां मायया च वीर्यधानं चकार।।" (प्रकृतिखण्ड-20/12) 
अर्थात्- तुलसी भी जान गयी थी कि मेरे पति का रूपधारण करके कोई अन्य पुरुष (विष्णु) मेरे साथ सहवास कर रहा है ! 

शिव को भी इस पुराण ने नही छोड़ा, शिव का सती के साथ अश्लील वर्णन इस पुराण में है! सती के मरने के बाद भी जो श्लोक लिखे गये जरा उस पर नजर डालो- 

 "अधरे चाधरं दत्वा वक्षो वक्षसि शङ्कर:। 
 पुनः पुनः समाश्लिपुनर्मूछामवाप सः।।

 " अर्थात्- अधरो पर अधर और वक्ष पर वक्ष मिला कर शंकर ने उस मृतक शरीर का आलिंगन किया! अब जब ब्रह्मा,विष्णु और शिव नही बचे तो भला कृष्ण कहाँ से बचते ! 
इस पुराण ने कृष्ण की इज्जत उतारने मे कोई कसर नही छोड़ी। कृष्ण अथवा अन्य देवी देवताओं के ऊपर आरोपित काल्पनिक मनगढ़न्त पौराणिक कथाओं के माध्यम से तत्कालीन पुरोहितों ने अपनी वासना मूलक कामुक वृत्तियों को तुष्ट किया है ।

क्योंकि जिन राजाओं के दरवारी संरक्षण में ये लिखें गये वे स्वयं विलासी और कामुक थे ।

 कृष्ण को पूर्ण रूपेण अश्लीलता की प्रति मूर्ति बना दिया गया यह एक परोक्ष षड्यन्त्र था कृष्ण चरित्र को पतित करने का ..

 तनिक इस पुराण के प्रकृतिखण्ड के कुछ श्लोक भी देखिये-
  "करे घृत्वा च तां कृष्णः स्थापयामास वक्षसि। 
 चकार शिथिल वस्त्रं चुम्बन च चतुर्विधम् ।।
 बभूव रतियुद्धेन विच्छिन्नां क्षुद्रघण्टिका। चुम्बननोष्ठेंरागश्च ह्याश्लेषेण च पत्रकम् ।। 
 मूर्छामवाप सा राधा बुपुधेन दिवानिषम् ।।" 

 अर्थात- कृष्ण ने राधा का हाथ पकड़कर वक्ष से लगा लिया,और उसके वस्त्र हटाकर चतुर्विध चुम्बन किया! फिर जो रतियुद्ध हुआ उससे राधा की करधनी टूट गयी और चुम्बन से होठों का रंग उड़ गया, तथा इस संगम से राधा मूर्छित हो गयी और उसे रात-दिन तक होश नही आया। 
 ऐसा लगता है कि जब राधा और कृष्ण का यह क्रिया इन कामुक व्यभिचारी पुरोहितों ने अपनी आँखों से देखी हो अपनी कामुक प्रवृत्ति को इन पुरोहितों ने कृष्ण को आधार बनाकर पुराणों में उकेरा है । कृष्ण की इज्जत उतारने में इन व्यभिचारीयों ने कोई कस़र नहीं छोड़ी । __________________________________________ 
 यही नही कृष्ण जन्मखण्ड (अध्याय-106/22) मे लिखा है कि- "कुब्जा मृता संभोगद्वाससा रजकोमृतः" यहाँ रुक्मि कृष्ण से कहता है कि "तुमने कुब्जा से ऐसा सम्भोग किया कि वह बेचारी मर ही गयी" 
कुब्जा के साथ जन्मखण्ड (अध्याय-72) मे और भी कई अश्लील श्लोक हैं ; जिसमें नाना प्रकार के सम्भोग का वर्णन है, जिसे शब्दों की मर्यादा में लिखना असम्भव है ! 
 हाँ कृष्ण जन्मखण्ड अध्याय-27/83 श्लोक भी कम अश्लील नही है- "प्रजग्मुर्गोपिका नग्नाः योनिमाच्छाद्व पाणानि" भागवतपुराण के दशम स्कन्ध में भी यही वर्णन कर दिया। यहाँ बताते हैं कि गोपिकाऐं अपनी हाथ से योनि को ढ़ककर पानी के बाहर निकली! 
 वैसे इस अध्याय के सारे श्लोक अति अश्लील है, जिसे लिखना सम्भव नही। 

 अस्तु ! कृष्ण का गुणगान तो और भी है, जन्मखण्ड (अध्याय-3/59-62) मे लिखा है कि गोलोक मे कृष्ण विरजा नाम की एक महिला से सहवास कर रहे थे, तभी राधा ने पकड़ लिया और फटकारते हुये कहा कि- "हे कृष्ण तू पराई औरत मे व्यभिचार करते हो, तुम चंचल और लम्पट हो, तुम मनुष्यो की भाँति मैथुन करते हो! तुम मेरे सामने से चले जाओ, और तुम्हे श्राप देती हूँ कि तुम्हे मनुष्य योनि मिले" पुराणकर्ता यही नही रुके, गणपतिखण्ड (अध्याय-20/44-46) मे इन्द्र और रम्भा के सम्भोग का ऐसा वृतान्त है कि कोई पोर्न फिल्मकार भी शर्म से लाल हो जाऐ! ये -पुराण मुगलों के समय रीति काल में लिखे गये उसी समय वात्स्यायन ने कामशास्त्र लिखा ।

 ब्रह्मखण्ड (अध्याय-10/85-87) मे विश्वकर्मा और घृताची के सम्भोग का अति अश्लील वर्णन है

, आगे इसी अध्याय के श्लोक-127-128 मे एक ब्राह्मणी से अश्विनीकुमार के बालात्कार ऐसा वर्णन है कि कोई कामशास्त्र भी प्रभाव हीन पड़ जाऐ यह सम्पूर्ण पुराण ही अश्लीलता से परिपूर्ण है, कई प्रकरण तो ऐसे हैं कि लगता है कि यह पुराण न होकर वात्स्यायन का काम शास्त्र है ।

पुराणों में जिस महापुरुष की सर्वाधिक इज्ज़त उतारी गयी है वह है "श्रीकृष्ण" 

श्रीकृष्ण से पौराणिक न जाने क्यों इतने चिढ़े थे कि उनके साथ-साथ उनके परिवार वालों पर भी आक्षेप लगाने से नहीं चूके...

लेकिन राम के बारे में तो इन हिन्दू धर्म शास्त्रों में एक बार भी हनन नहीं किया गया लेकिन सिर्फ़ श्री कृष्ण का इतना हनन क्यों??

सरस्वतीकण्ठाभरणम्  /परिच्छेदः (२)

सरस्वतीकण्ठाभरणम्
परिच्छेदः २
भोजराजः
_______
यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।
नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।
तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।
हल्लीसकं च रासं च षट्‌प्रकारं प्रचक्षते ।। २.१४३ ।।
____________________
मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् ।
तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४)
अर्थ-
मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक  कह लाता है ।
उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।

अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।
षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः ।। २.१५७ ।। (२.१४५)

चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।
शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)
____________________
इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कारनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।

 नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है 
 विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। 
यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।

मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
इसी को नामान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।
फिर रास में केवल श्रृंगार रस को आप्लावित कर उसे कामुकता का वाचक बना दिया।
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पहले रासलीला की अश्लीलता से कृष्ण को बदनाम किया, फिर उनके पुत्र साम्ब से उनकी तमाम पत्नियों के सम्बन्ध बताकर उनके परिवार पर भी लांक्षन लगा दिया !

भविष्यपुराणम्  पर्व (१) (ब्राह्मपर्व) अध्यायः (७३)
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 भविष्यपुराणम् ‎ | पर्व (१) (ब्राह्मपर्व)
साम्बकृतसूर्याराधनवर्णनम्

                  सुमन्तुरुवाच
एतस्मिन्नेव काले तु नारदो भगवानृषिः।
ब्रह्मणो मानसः पुत्रस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः। १।

सर्वलोकचरः सोऽथ अटमानः समन्ततः।
वासुदेवं स वै द्रष्टुं नित्यं द्वारवतीं पुरीम् ।२।

आयाति ऋषिभिः सार्धं क्रोधनो मुनिसत्तमः।
अथागच्छति तस्मिंस्तु सर्वे यदुकुमारकाः।३।

प्रद्युम्नप्रभृतयो ये प्रह्वाश्चावनताः स्थिताः।
अभिवाद्यार्घ्यपाद्याभ्यां पूजां चक्रुः समन्ततः।४।

साम्बस्त्ववश्यभावित्वात्तस्य शापस्य कारणम् ।
अवज्ञां कुरूते नित्यं नारदस्य महात्मनः ।५।
_______
रतः क्रीडासु वै नित्यं रूपयौवनगर्वितः।
अविनीतं तु तं दृष्ट्वा चिन्तयामास नारदः।६।

अस्याहमविनीतस्य करिष्ये विनयं शुभम् ।
एवं सञ्चिन्तयित्या तु वासुदेवमथाब्रवीत् ।७।
_____
इमाः षोडशसाहस्र्यः स्त्रियो यादवसत्तम ।
सर्वासां हि सदा साम्बे भावो देव समाश्रितः।८।
_______

रूपेणाप्रतिमः साम्बो लोकेस्मिन्सचराचरे ।
सदा हीच्छन्ति तास्तस्य दर्शनं चापि हि स्त्रियः। ९।

श्रुत्वैवं नारदाद्वाक्यं चिन्तयामास केशवः।
यदेतन्नारदेनोक्तमन्यदत्र तु किं भवेत् ।1.73.१०।
_________
वचनं श्रूयते लोके चापल्यं स्त्रीषु विद्यते ।
श्लोकौ चेमौ पुरा गीतौ चित्तज्ञैर्योषितां द्विजैः।११।

पौंश्चल्याच्चलचित्तत्वान्नैः स्नेह्याच्च स्वभावतः ।
रक्षिताः सर्वतो ह्येता विकुर्वन्ति हि भर्तृषु।१२।

नैता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि निश्चयः ।
सुरूपं वा विरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते।१३।

मनसा चिन्तयन्नेव कृष्णो नारदमब्रवीत् ।
न ह्यहं श्रद्दधाम्येतद्यदेतद्भाषितं त्वया ।१४।

ब्रुवाणमेवं देवं तु नारदो वाक्यमब्रवीत्।
तथाहं तत्करिष्यामि यथा श्रद्धास्यते भवान् ।१५।

एवमुक्त्वा ययौ स्वर्गं नारदस्तु यथागतः ।
ततः कतिपयाहोभिर्द्वारकां पुनरभ्यगात् ।१६।

तस्मिन्नहनि देवोऽपि सहान्तःपुरिकैर्जनैः।
अनुभूय जलक्रीडां पानमासेवते रहः।१७।

रम्यरैवतकोद्याने नानाद्रुमविभूषिते।
सर्वर्तुकुसुमैर्नित्यं वासिते सर्वकानने ।१८।

नानाजलजफुल्लाभिर्दीर्घिकाभिरलङ्कृते ।
हंससारससंघुष्टे चक्रवाकोपशोभिते ।१९।
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तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
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एतस्मिन्नन्तरे बुद्ध्वा मद्यपानात्ततः स्त्रियः ।
उवाच नारदः साम्बं साम्बोत्तिष्ठ कुमारक। २२।

त्वां समाह्वायते देवो न युक्तं स्थातुमत्र ते।
तद्वाक्यार्थमबुद्धैव नारदेनाथ चोदितः ।२३।

गत्वा तु सत्वरं साम्बः प्रणाममकरोत्प्रभोः।
साष्टाङ्गं च हरेः साम्बो विधिवद्वल्लभस्य च। २४।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र यास्तु वै स्वल्पसात्त्विकाः।
तं दृष्ट्वा सुन्दरं साम्बं सर्वाश्चुक्षुभिरे स्त्रियः।२५।

न स दृष्टः पुरा याभिरन्तःपुरनिवासिभिः।
मद्यदोषात्ततस्तासां स्मृतिलोपात्तथा नृप ।२६।

स्वभावतोल्पसत्त्वानां जघनानि विसुस्रुवुः ।
श्रूयते चाप्ययं श्लोकः पुराणप्रथितः क्षितौ ।२७।
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ब्रह्मचर्येऽपि वर्तन्त्याः साध्व्या ह्यपि च श्रूयते ।
हृद्यं हि पुरुषं दृष्ट्वा योनिः संक्लिद्यते स्त्रियाः ।२८।
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लोकेऽपि दृश्यते ह्येतन्मद्यस्यात्यर्थसेवनात् ।
लज्जां मुञ्चन्ति निःशङ्का ह्रीमत्यो ह्यपि हि स्त्रियः । । २९।
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समांसैर्भोजनैः स्निग्धैः यानैः सीधुसुरासवैः।
गन्धैर्मनोज्ञैर्वस्त्रैश्च कामः स्त्रीषु विजृम्भते । 1.73.३०

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सीधुप्रयुक्तं शुक्रेण सततं साधु हीच्छता ।
मद्यं न पेयमत्यर्थ पुरुषेण विपश्चिता ।३१।

नारदोप्यथ तं साम्बं प्रेषयित्वा त्वरान्वितः।
आजगामाथ तत्रैव साम्बस्यानुपदेन तु ।३२।

आयान्तं ताश्च तं दृष्ट्वा प्रियं सौमनसमृषिम् ।
सहसैवोत्थिताः सर्वाः स्त्रियस्तं मदविह्वलाः।३३।

तासामथोत्थितानां तु वासुदेवस्य पश्यतः ।
भित्त्वा वासांसि शुभ्राणि पत्रेषु पतितानि तु ।३४।

ता दृष्ट्वा तु हरिः क्रुद्धः सर्वास्ता शप्तवान्स्त्रियः ।
यस्माद्गतानि चेतांसि मां मुक्त्वान्यत्र च स्त्रियः। ३५।

तस्मात्पतिकृताँल्लोकानायुषोंन्ते न यास्यथ ।
पतिलोकपरिभ्रष्टाः स्वर्गमार्गात्तथैव च ।३६।

भूत्वा चाशरणा यूयं दस्युहस्तं गमिष्यथ ।३७।

                     सुमन्तुरुवाच
शापदोषात्ततस्तस्मात्ताः स्त्रियः स्वर्गते हरौ।
हृताः पाञ्जनदैश्चौरैरर्जुनस्य तु पश्यतः  ।
अल्पसत्त्वास्तु यास्त्वासन्गतास्ता दूषणं स्त्रियः ।३८।
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रुक्मिणी सत्यभामा च तथा जाम्बवती प्रिया ।
नैता गता दस्युहस्तं स्वेन सत्त्वेन रक्षिताः ।३९।
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शप्त्वैव ताः स्त्रियः कृष्णः साम्बमप्यशपत्ततः ।
यस्मादतीव ते कान्तं रूपं दृष्ट्वा इमाः स्त्रियः । । 1.73.४०

क्षुब्धाः सर्वा यतस्तस्मात्कुष्ठरोगमवाप्नुहि 
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा साम्बः कृष्णस्य भारत ।४१।

उवाच प्रहसन्राजन्संस्मरन्नृषिभाषितम् ।
अनिमित्तमहं तात भावदोषविवर्जितः।
शप्तो न मेऽत्र वै क्रुद्धो दुर्वासा अन्यथा वदेत्  । ।४२।

                   सुमन्तुरुवाच
अस्मिच्छप्तेऽनिमित्तेऽसौ पित्रा जाम्बवतीसुतः ।
प्राप्तवान्कुष्ठरोगित्वं विरूपत्वं च भारत ।४३।

साम्बेन पुनरप्येव दुर्वासाः कोपितो मुनिः ।
तच्छापान्मुसलं जातं कुलं येनास्य घातितम् ।४४।

श्रुत्वा ह्यविनयाद्दोषान्साम्बेनाप्तान्क्षमाधिप ।
नित्यं भाव्यं विनीतेन गुरुदेवद्विजातिषु । ४५।

प्रियं च वाक्यं वक्तव्यं सर्वप्रीतिकरं विभो ।
किं त्वया न श्रुतौ श्लोकौ यावुक्तौ वेधसा पुरा । ।
शृण्वतो देवदेवस्य व्योमकेशस्य भारत ।४६।

यो धर्मशीलो जितमानरोषो विद्याविनीतो न परोपतापी 
स्वदारतुष्टः परदारवर्जितो न तस्य लोके भयमस्ति किञ्चित् ।४७।

न तथा शीतलसलिलं न चन्दनरसो न शीतला छाया 
प्रह्लादयति च पुरुषं यथा मधुरभाषिणी वाणी । ४८।

ततः शापाभिभूतेन सम्यगाराध्य भास्करम् ।
साम्बेनाप्तं तथारोग्यं रूपं च परमं पुनः ।४९।

रूपमाप्य तथाऽऽरोग्यं भास्कराद्धरिसूनुना ।
निवेशितो रविर्भक्त्या स्वनाम्ना क्ष्माधिपेश्वर । 1.73.५०
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इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि सप्तमीकल्पे साम्बकृतसूर्याराधनवर्णनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः । ७३ ।

कि एक बार नारद कृष्ण के पास आये और बोले कि प्रभु मैं आपको एकान्त मे कुछ बताना चाहता हूँ। 

आपके नवयुवक पुत्र साम्ब से आपकी पत्नियों को क्षोभ है, और वो उसको देखकर भी क्षुब्ध हो जाती है!
हे प्रभु! इस कारण सत्यलोक मे आपकी बड़ी निन्दा हो रही है!

नारद ने यह भी कहा कि आप अगर चाहो तो साम्ब और अपनी पत्नियों को बुलाकर इसका परीक्षण भी कर लो...

श्री कृष्ण ने नारद की बात मान ली, और अपनी पत्नियों तथा साम्ब को अपने पास बुलाया! 

इसके बाद कृष्ण ने देखा कि उनकी पत्नियाँ उनके सामने ही साम्ब को देखकर मतवाली होने लगी!
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फिर क्रोध में आकर कृष्ण ने अपने ही पुत्र साम्ब को श्राप दिया कि तू अभी रूपहीन हो जाये, तुझे कुष्ठरोग हो जाये।

 भविष्यपुराण ( ब्रह्मपर्व,) अध्याय-73  में मिलती है!
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एक दिन की बात है, नारद ने कृष्ण से कहा कि हे प्रभु! आपकी 16 हजार पत्नियां आपके ही पुत्र साम्ब से प्रेम करती है।

श्री कृष्ण ने सोचा कि नारद की बात तो झूठ नहीं हो सकती! वैसे भी स्त्रियों का मन चंचल होता ही है, अतः मुझे इसका परीक्षण करना चाहिये। 
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हे कुमार! तुम्हे श्रीकृष्ण बुला रहे हैं, तुम अभी सरोवर के पास जाओ।

साम्ब बिना कुछ सोचे सरोवर के पास पहुँच गया, जहाँ कृष्ण और उनकी पत्नियाँ मद्यपान करके क्रीड़ा कर रही थी।

साम्ब सरोवर पर पहुँचा, और रूपवान साम्ब को देखकर कृष्ण की पत्नियों की योनि तर (भीग) हो गयी,।
 और जब वो खड़ी हुई तो उनका वीर्य (रज) स्खलित हो गया, तथा कुछ बूँदे पत्तों पर गिर पड़ी!
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यह देखकर कृष्ण क्रोधित हो गये और उन्होने अपनी पत्नियों को श्राप दिया कि तुमने मुझे त्यागकर पर-पुरुष की कामना की! 

मैं तुम सबको श्राप देता हूँ कि तुम्हे पतिलोक और स्वर्ग से भ्रष्ट होकर चौरों के अधीन रहना पड़ेगा,और वैश्यावृत्ति भी करनी पड़ेगी।

श्री कृष्ण ने साम्ब को भी कुरूप होने और कुष्ठरोगी होने का श्राप दे दिया!

श्री कृष्ण के श्राप के कारण ही जब श्रीकृष्ण स्वर्गवासी हुये, तब अर्जुन से चौरों ने लड़कर कृष्ण की पत्नियों का हरण कर लिया था!

अब जरा स्वयं विचार करें कि लिखने वाले ने इस पुराण में किस तरह चुनकर अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया है!

कहानी यहीं नहीं खत्म होती है, आगे भी कृष्ण ने कहा है कि तुम लोग वैश्या बनकर जब प्रतिदिन अपने ग्राहक में मेरा ही चिंतन करके उसे संतुष्ट करोगी, तब मरणोपरान्त तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी!

ऐसी ही न जाने कितनी अश्लील बातें इस पुराण में लिखी है। 

लोग पुराणों का कितना आदर करते हैं यह तो मैं नहीं जानता, पर मैं पुराणों का सदैव खण्डन करता रहूँगा।
पुराण का अर्थ पुराना होता है अवश्य ही प्रारम्भ में पुराण इतिहास का रूप रहे होंगे 
परन्तु द्वेष वादी और यदुवंश को निकृष्ट रूप में दिखाने वाले इन्द्रोपासक पुरोहित कृष्ण और उनकी जाति आभीर और वंश यादव को समाज

 निम्न दर्शाने के लिए बहुत कुछ काल्पनिक कामुकता पूर्ण गल्प कृष्ण को आरोपित करके लिखते रहे हैं ।
भविष्य पुराण का विस्तार उन्नीसवीं सदी तक होता रहा है ।

यह सर्वविदित है ही और अधिकांश पुराण भी दूसरे प्राचीन पुराणों की नकल या कॉपी हैं ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड प्राचीनतम है परन्तु उसमें भी कालान्तर में और कथाऐं जोड़ी गयीं  स्कन्द पुराण को और पद्म पुराण से भी विशाल रूप कर दिया गया ।
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तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
उपर्युक्त श्लोक एक दिन श्रीकृष्ण अपनी तमाम पत्नियों के साथ सरोवर में जलक्रीडा़ कर रहे थे ! 

कृष्ण ने पहले खुद भी मदिरा पिया और बाद में अपनी पत्नियों को भी मदिरा पिलाया! 
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 पुराणों में बड़ी कुशलता से रास लीला के नाम पर यादवों के महानायक कृष्ण की इज्जत उतारी गयी है। 

आगे इसी सन्दर्भों में कुछ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए कृष्ण के वास्तविक जीवन पर भी प्रकाशन किया गया है अमरकोश में क्षत्रिय के पर्याय वाची रूप हैं ।
2।8।1।1।4 मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्. राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः॥ 

 और पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के शासन काल में जाति मूलक वर्ण -व्यवस्था को अधिक परिपुुष्ट करने हेतु अनेक ग्रन्थ वैदिक साहित्य में समायोजित किए गये जैसे पुरुष सूक्त की निम्न ऋचा है ।

 ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।। (ऋग्वेद १०/९०/१२) फिर प्राय : अधिकतर पुराणों में कृष्ण चरित्र को षड्यन्त्र पूर्वक भ्रष्ट करने की ही कुचेष्टा की है । 
 यद्यपि हरिवंश पुराण इन सभी परम्पराओं से पृथक कृष्ण के यथार्थोन्मुख गोप चरित् की व्याख्या करता है परन्तु भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व काल्पनिकता की मर्यादा ही भंग कर दी है । भागवतपुराणकार की बाते कहाँ तक संगत हैं -- बुद्धि जीवि पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकता है । 
 पहले तो कृष्ण को यदु वंश का होने से क्षत्रिय( राजा) के रूप में निषिद्ध घोषित करता है ।
 परन्तु यदु वंश का होने पर भी उग्रसेन को राजा के रूप में मान्य किया जाता है । 

 एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:। 
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२ ।
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
 ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।। १३ श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय _________________________________________ देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२। 
 और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं। 
 आप हम लोगो पर शासन कीजिए क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
 यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है।
 भागवतपुराण की प्राचीनता व प्रमाणिकता भी सन्दिग्ध है कि यादव राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है । 
 और दास का अर्थ असुर है ।
 लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया। 
 एक तथ्य और किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय नहीं कहा गया है। 
 क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है । 
 और स्वयं वैदिक ऋचाओं में यदु को दास अर्थात् शूद्र के रूप वर्णन ही प्रमाण है ।
 और यदुवंशी अपने को क्षत्रिय घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है। 
 और भारतीय पुराणों में प्राय: कथाओं का सृजन वेदों के अर्थ -अनुमानों से ही किया गया है । फिर आप अहीरों को किस रूप में मानते हो ?
 आप भी बताऐं ! श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं । जिनका सम्बन्ध असीरियन तथा द्रविड सभ्यता से भी है ।
 द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है। कहीं कहीं अहीरों को ब्राह्मणों ने उनकी अालौकिकताओं से प्रभावित होकर ब्राह्मण भी स्वीकार कर लिया है । परन्तु द्वेष फिर भी वरकरार रहा ।
 कृष्ण को इतिहास कारों ने द्रविड संस्कृति का नायक स्वीकार किया है।
 कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 

छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 ) कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः _________________________________________ कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी ! जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं। यह पाँचवीं सदी में श्रीमद्भागवत् गीता में जोड़ी गयीं। जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:" तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई। परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है । 
 ---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये ।

 द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है । एक साम्य दौनों का है । ☺
 कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।। 

 जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |
(6)  

यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
 कि
न्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।। 
 नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। 
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।। 

 उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।
 -------------------------------------------------------------- आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
 जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
 जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
 पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ... इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं । 
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 Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean " _______________________________________
 The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है ,
 ------------------------------------------------------------ Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. __________________________________

 कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है । 
 ( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन) अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस ) "पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धांत को कहा: "गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं । कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।" सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिंदु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है । ( मेटेमस्पर्शिसिस)। सीज़र ने लिखा: अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के संबंध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है । जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धांत द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है । इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं। - जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13 इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic) थे । 

 ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे ।
 जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है ।
 परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे । तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है । 
और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है । 
 सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं । तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत ..

 कृष्ण के जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत आदि पुराणों का है; और वह ऐतिहासिक कम, काल्पनिक अधिक हैं; और यह बात ग्रन्थ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है।

 भागवत पुराण बारहवीं सदी की रचना है । 
 जिसका निर्माण दक्षिणात्य के उन ब्राह्मणों ने किया जो वात्स्यायन के कामशास्त्र से अनुप्रेरित थे।
 खजुराहो मध्य प्रदेश के मन्दिर काम शास्त्रीय पद्धति पर आरेखित प्रस्तुत चित्र हैं । 
 अधिकांश पुराण इसी काल की रचनाऐं हैं । आइए देखें--- उनमे ध्वनित अश्लीलता भागवतपुराण को सन्दर्भित करते हुए।👇

 दक्षिणावर्तलिंगश्च नरो वै पुत्रवान् भवेत | 
 वामावर्ते तथा लिंगे नर: कन्या प्रसूयते ||१||

 स्थूले: शिरालेर्वीषमैर्लिंगै­र्दारिद्र्यमादिशेत् | ऋजुभिर्वर्तुलाकारे: पुरुषा: पुत्रभागिन: ||२|| 
 - 
भविष्यपुराण ब्राह्म. अध्याय २५ अर्थ –जिस आदमी का लिंग दायी तरफ झुका हुआ हो वह पुत्र पैदा करने वाला होता है| जिसका लिंग बायीं तरफ झुका हो उसके कन्या पैदा होती है ||१|| 

 मोटे रंगोवाले ,टेढ़े रंगोवाले ,टेड़े लिंगो से दरिद्रता होती है जिन पुरुषो के लिंग सीधे ,गोल होवे ,वे पुत्रो के भागी होते है ||२|| 

 कटुतेल भल्लातन्क बृहतीफलदाडिमम् ||१७ ||
 कल्के: साधितैर्लिंप्त लिंग तेन विवर्द्धते ||१८|| -
गरुडपुराण .आचार. अध्याय १७६ अर्थ –कडवा तेल ,भिलावा ,बहेड़ा तथा अनार, इसकी चटनी के लेप करने से लिंग बढ़ता है | 

 कर्पुर देवदारु च मधुना सह योजयेत | 
लिंगलेपाच्च तेनैव वशीकुर्यात स्त्रिय किल ||२|| -
 -गरुडपुराण .आचार .अध्याय १८० अर्थ – कपूर ,देवदारु को शहद के साथ मिलाकर लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है|

 सैन्धव च महादेव पारावतमल मधु | 
 एभिर्लिंप्ते तु लिंगे वे कामिनीवशकृद भवेत ||१६|| - गरुडपुराण. आचार.अध्याय १८५ 

अर्थ –हे महादेव ! नमक और कबूतर की बीठ शहद में मिलाकर यदि लिंग के लेप करे तो स्त्री
 वश में हो जाती है | 

 ब्रह्मचर्येsपि वर्तनत्या: साध्व्या ह्मपि च श्रूयते | 
 ह्रद्ंय हि पुरुष दृष्टवा योनि: संक्लिद्यते स्त्रिया: ||२८|| - 

भविष्यपुराण. ब्राह्म. अ. ७३ । 
 ब्रह्मचर्य में रहती साध्वी स्त्री की योनि भी सुन्दर पुरुष को देख कर टपकने लगती है | 
बभूव काममत्ताया योनौ कंडूयन जलम् ||२४|| 

 - ब्रह्मवैवर्तपुराण खण्ड ४ अध्याय २३ । 
रोमाञ्चित हुई धर्मयुक्त स्त्री के भी काम में मत्त होने पर योनि में खुजली तथा जल टपकने लगता है २४। 
कर्पुरमदनफलमधुकै: पूरित: शिव |
 योनि: शुभा स्याद वृध्दाया युवत्या: कि पुनर्हर||१६||
 - गरुड़पुराण आचार. अ. २०२ । 
हे शिव ! यदि योनि को कपूर ,मैनफल तथा शहद से भर दिया जावे तो बूढी स्त्री की योनि भी बढिया हो जाती है जवान का तो कहना ही क्या || इसके अलावा बहुत से ऐसी बाते पुराणों में है| ऐसा लगता है कि जेसे ये पुराण नही बल्कि कोई यौवनचिकित्सा शास्त्रीय या कामशास्त्रीय ग्रन्थ हों । ये -पुराण राजपूत- काल राजाऔं कि विलासी प्रवृत्ति के द्योदस हैं ________________________________________
 भागवतपुराणकार ने भी काम (सेक्स) को केन्द्रित करके इस पुराण की रचना की है । 
वस्तुतः भागवत में सृष्टि की सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन काल्पनिक और कामात्मक (रास लीला परक रूप )में कराया गया है। 

 ग्रन्थ के पूर्वार्ध (स्कन्ध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कन्ध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है।
 यद्यपि कहीं कहीं सांख्य दर्शन की गम्भीरता तो कहीं वेदान्त दर्शन के अद्वैत वाद की गरिमा भी है ।
 भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहुचानने का यहाँ प्रयास किया गया है। 
जो कि उस काल की प्रवृत्ति रही है । 
 भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन् हुआ था ।
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 परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है सम्भवतः इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो ।

 परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है । 
और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है। महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है । 
क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है। 
 बुद्ध का समय ई०पू० 563के समकक्ष है । 

 छान्दोग्य उपनिषद का अनुमान कृष्ण से सम्बद्ध है, जो 8 वीं और 6 वीं शताब्दी ई.पू. के बीच कुछ समय में रचित हुआ था, प्राचीन भारत में कृष्ण के बारे में अटकलों का एक और स्रोत रहा है। 

भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरम्भ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारम्भ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था। एेसा आनुमानिक रूप से माना है। परन्तु यह तथ्य प्रमाण रूप नहीं हैं । 
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 पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई०पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा।
ईसा० पूर्व नवम सदी का समय अधिक सत्य के करीब है ।
 इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है , 
जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे। 

पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।

 इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं ।
 वैसे भी अहीरों (गोपों)में कृष्ण का जन्म हुआ ; 
 और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) समन्वय स्थापित करते हैं। _________________________________________ इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है। द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू० समय तक निर्धारित हैं। इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है।

 ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है 🎠🎠 विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है देखें--- अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् । सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र । सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० । अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० । पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है । ___________________________________________ " आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त । 
 द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि । 
 वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
 अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। ______________________________________ ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था । उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
 इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाय चराते हुए रहता है ।
 चरन्तम् क्रिया पद दो वार आया है ; जो चरावाहे का वाचक है । 
 पुराणों में कृष्ण को प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है। 
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था । 
बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को विलास पुरुष बना दिया ।" _________________________________________ कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है । अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से जिनमें गुर्जर गौश्चर:(गा: चारयति येन सो गौश्चर: इतिभाषायां गुर्जर) जाट तथा दलित और पिछड़ी जन-जातियाँ हैं। पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह यदुवंशजों के विरुद्ध चलता रहा ।

 सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई- जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं । 
--------------------------------------------------------------- इस्लाम को मानने वाले जो बहुपत्नीवाद में विश्वास करते हैं । सदा कृष्ण जी महाराज पर १६००० रानी रखने का आरोप लगा कर उनका माखोल करते हैं| उनके लिए विरोध करने का यह सम्बल ही है यह रास लीला। और ऐसे कई उदाहरण आपको कृष्ण के नाम पर मिल जाएँगे.. श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का अाधार क्या हैं?

 इन अश्लील आरोपों का आधार हैं पुराण विशेषत: भागवतपुराण -ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा विष्णु आदि। हरिवंश पुराण ---जो महाभारत का खिल-भाग ( अवशिष्ट) है । उसमे कृष्ण का गोप रूप कुछ वास्तविक व उज्ज्वल रूप है। आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं| पुराणों में गोपियों से कृष्ण का रमण करना । 
------------------------------------------------------------------
 विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं :- "गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी " कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे. कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं । 
 भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे. जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :- _________________________________________ " नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्। रेमे तत्तरलान्दकुमुदा मोदवायुना ।।४५। 
 बाहु प्रसार परिरम्भकरालकोरू- नीवीस्तनाल - भननर्नमनखाग्रपातै: । 
 क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रज सुन्दरीणा- मुत्तभयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार।।४६ __________________________________________ कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया.। 
 वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था. वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण करने के लिए बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना , उनकी चोटी पकड़ना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत यौनोत्तेजित करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय सम्भोग) किया ।

 ऐसे अभद्र व अश्लीलता पूर्णविचार कृष्ण को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं । 

 राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं. महाभारत में राधा का वर्णन नहीं मिलता. राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यन्त अशोभनिय वृतान्त का वर्णन करते हुए मिलता हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ श्लोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं । 

 "की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकड़ लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया हैं।

 तू मेरे घर से चला जा. तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं "श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का अाधार क्या हैं? 

 इन अश्लील आरोपों का आधार हैं पुराण विशेषत: भागवतपुराण -ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा विष्णु आदि। हरिवंश पुराण ---जो महाभारत का खिल-भाग
 ( अवशिष्ट) है । 
 उसमे कृष्ण का गोप रूप कुछ वास्तविक व उज्ज्वल रूप है। 
आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं| पुराणों में गोपियों से कृष्ण का रमण करना । 
------------------------------------------------------------------ विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं :- "गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी " कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे. कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे ! 
 पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं ।

 ऐसा लगता है कि ये धूर्त पुरोहित राधा और कृष्ण की रति -लीला उनके विस्तर (शैय्या) पर बैठ कर देखते थे ये कृष्ण के परोक्ष शत्रु कभी कृष्ण की आध्यात्मिक उपलब्धियों का इस प्रकार वर्णन नहीं करते हैं! 

 भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे.जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं । 
 वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :- _________________________________________ " नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्।
 रेमे तत्तरलान्दकुमुदा मोदवायुना ।।४५। 

 बाहु प्रसार परिरम्भकरालकोरू- 
 नीवीस्तनाल - भननर्नमनखाग्रपातै: । क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रज सुन्दरीणा-
 मुत्तभयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार।।४६ __________________________________________ कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया.।

 वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था. वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण करने के लिए बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना , उनकी चोटी पकड़ना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत यौनोत्तेजित करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय सम्भोग) किया । 

 ऐसे अभद्र विचार कृष्ण को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं ।
 राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं.

 महाभारत में राधा का वर्णन नहीं मिलता.
'परन्तु महाभारत के खिल-भाग हरिवंशपुराण में राजा का वर्णन है ।
भागवत महात्म्य में राधा वर्णन है ।
 यद्यपि महाभारत कार ने कृष्ण के आध्यात्मिक चरित्र को शान्ति पर्व की अपेक्षा भीष्म पर्व में समायोजित करने का उपक्रम किया । 

 राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यन्त अशोभनिय वृतान्त का वर्णन करते हुए मिलता हैं। 
 ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ श्लोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं । 

 "की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकड़ लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया हैं। तू मेरे घर से चला जा. तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं, तुझे मनुष्यों की योनि मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा. हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावते, ! 

 यह कृष्ण धूर्त हैं इसे निकाल कर बहार करो, इसका यहाँ कोई काम नहीं. ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय १५ में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यन्त अश्लील वर्णन लिखा हैं जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए हम यहाँ और विस्तार से वर्णन नहीं कर सकते हैं ।

 ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ७२ में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यन्त अश्लील रूप में वर्णित हैं ।
 राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक हैं ।
 राधा कृष्ण के वामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी ।
 समान वृषभानु गोप की कन्या थी । राधा का रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी। चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था; इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यशोदा का भाई था ।
 इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई| यद्यपि राधा गायत्री के समान वृषभानु गोप की कन्या रूप में वर्णित है। 
 कृष्ण की गोपिओं कौन थी? 
 पदम् पुराण उत्तर खंड अध्याय २४५ कलकत्ता से प्रकाशित में लिखा हैं :- 
की रामचंद्र जी दंडक -अरण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुंदर स्वरुप को देखकर वहां के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे । उन सारे ऋषिओं ने द्वापर के अन्त में गोपियों के रूप में जन्म लिया और राम , कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने सम्भोग किया ।

 रास यूनानी शब्द है।
 क्योंकि रास, रति तथा काम जैसे श्रृंगारिक शब्द ग्रीक भाषा के हैं। अर्थात् एरॉस( Eros) एरेटॉ erotes god of love, from Greek eros (plural erotes), "god or personification of love," literally "love," 
 ___________________________________ 

 प्रस्तुति करण यादव योगेश कुमार "रोहि"

आप ब्राह्मण वाद की दासता के पैरोकार हैं ; आपने कृष्ण को केवल पुराणों तक ही जान पाये और सत्य पूछा जाय तो कृष्ण पुराणों का पात्र नहीं अपितु वेदों उपनिषदों और पुराणों से पूर्व कौषीतकी ब्राह्मण में भी कृष्ण का वर्णन है । 

 पुराणों का सृजन ही कृष्ण चरित्र का हनन करने के लिए उन पुरोहितों ने किया जो देव संस्कृति के अनुयायी और इन्द्र के आराधक थे ।
 कृष्ण जबकि भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का विरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था । 
 इन्हीं सन्दर्भों में राधा और कृष्ण का जीवन चरित हमारी विवेचना का विषय है । 
सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में - ____________________________________________
भागवत धर्म यादवों का  'परन्तु उसे आत्मसात करके इन्द्र के उपासक पुरोहितों'ने कृष्ण के चरित्र को दूषित इस प्रकार किया ...

श्रीमद्भागवतपुराणम्/ दशम स्कन्धः /पूर्वार्धः/अध्यायः तैईसँ

                   श्रीगोपा ऊचुः - 
राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण । 
एषा वै बाधते क्षुत् नः तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः ॥ १ ॥ 
  
                    श्रीशुक उवाच - 
  इति विज्ञापितो गोपैः भगवान् देवकीसुतः । 
  भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन् इदमब्रवीत् ॥ २ ॥ 

  प्रयात देवयजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः । 
  सत्रं आङ्‌गिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया ॥ ३ ॥ 

  तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद् विसर्जिताः । 
  कीर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम् ॥ ४ ॥ 

  इत्यादिष्टा भगवता गत्वा याचन्त ते तथा । 
  कृताञ्जलिपुटा विप्रान् दण्डवत् पतिता भुवि ॥ ५ ॥

 हे भूमिदेवाः श्रृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः । 
 प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान् नो रामचोदितान् ॥ ६ ॥ 
           

गाश्चारयतौ अविदूर ओदनं ,रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ । 
तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः ॥ ७ ॥ 

           
           दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः । 
            अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति॥८ ॥ 
           
  इति ते भगवद् याच्ञां शृण्वन्तोऽपि न शुश्रुवुक्शा सुरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः ॥ ९ ॥ 
            
   देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः । 
                देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ १० ॥ 
               
  तं ब्रह्म परमं साक्षाद् भगवन्तं अधोक्षजम् । 
                मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे ॥ ११ ॥

न ते यदोमिति प्रोचुः न नेति च परन्तप । 
              गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्णरामयोः ॥ १२ ॥
                    
 तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः । 
               व्याजहार पुनर्गोपान् दर्शयँलौकिकीं गतिम् ॥ १३ ॥ 
                      
 मां ज्ञापयत पत्‍नीभ्यः ससङ्‌कर्षणमागतम् । 
         दास्यन्ति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया ॥ १४ ॥

गत्वाथ पत्‍नीशालायां दृष्ट्वासीनाः स्वलङ्‌कृताः । 
 नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन् ॥ १५ ॥ 
  
नमो वो विप्रपत्‍नीभ्यो निबोधत वचांसि नः । 
   इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम् ॥ १६ ॥ 
    
गाश्चारयन् स गोपालैः सरामो दूरमागतः । 
     बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम् ॥ १७ ॥ 
    
  श्रुत्वाच्युतं उपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः । 
       तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमाः ॥ १८ ॥ 
      
  चतुर्विधं बहुगुणं अन्नमादाय भाजनैः । 
         अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः ॥ १९ ॥ 
        
  निषिध्यमानाः पतिभिः भ्रातृभिर्बन्धुभिः सुतैः । 
           भगवति उत्तमश्लोके दीर्घश्रुत धृताशयाः ॥ २० ॥ 
        यमुनोपवनेऽशोक नवपल्लवमण्डिते । 
 विचरन्तं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः ॥ २१॥ 
( वसंततिलका )

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह 
     धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे । 
 विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं 
     कर्णोत्पलालक कपोलमुखाब्जहासम् ॥ २२ ॥ 

 प्रायःश्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरैः 
     यस्मिन् निमग्नमनसः तं अथाक्षिरंध्रैः । 
 अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं 
     प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र ॥ २३ ॥ 
( अनुष्टुप् )

तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया । 
 विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः ॥ २४ ॥ 

 स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम् । 
 यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः ॥ २५ ॥ 

 नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शिनः । 
 अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा ॥ २६ ॥

    प्राणबुद्धिमनःस्वात्म दारापत्यधनादयः । 
 यत्सम्पर्कात् प्रिया आसन् ततः को न्वपरः प्रियः ॥ २७ ॥ 
   
  तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः । 
        स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिनः ॥ २८ ॥ 
                   
  श्रीपत्‍न्य ऊचुः । 
               
               मैवं विभोऽर्हति भवान्गदितुं नृशंसं 
                      सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम् । 

              प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं 
                     केशैर्निवोढुमतिलङ्‌घ्य समस्तबन्धून् ॥ २९ ॥ 
                              
   गृह्णन्ति नो न पतयः पितरौ सुता वा 
                   न भ्रातृबन्धुसुहृदः कुत एव चान्ये । 
                        तस्माद् भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो 
               नान्या भवेद् गतिररिन्दम तद् विधेहि ॥३० ॥

श्रीभगवानुवाच - 
पतयो नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादयः । 
 लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते ॥ ३१ ॥ 
 
 न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्‌गसङ्‌गो नृणामिह । 
  तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान् मामवाप्स्यथ ॥ ३२ ॥ 
   
श्रीशुक उवाच - 
   इत्युक्ता द्विजपत्‍न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः । 
    ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन् ॥ ३३ ॥
    
 तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवन्तं यथाश्रुतम् । 
      हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम् ॥ ३४ ॥ 
       
भगवानपि गोविन्दः तेनैवान्नेन गोपकान् । 
        चतुर्विधेनाशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः ॥ ३५ ॥ 
       
  एवं लीलानरवपुः नृलोकमनुशीलयन् । 
          रेमे गोगोपगोपीनां रमयन्रूपवाक्कृतैः ॥ ३६ ॥ 
          
 अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः । 
   यद् विश्वेश्वरयोर्याच्ञां अहन्म नृविडम्बयोः ॥ ३७ ॥ 
           
  दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम् । 
     आत्मानं च तया हीनं अनुतप्ता व्यगर्हयन् ॥ ३८ ॥

धिग्जन्म नः त्रिवृत् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।  धिक्कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥ ३९ ॥

नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी । 
 यस् वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः ॥ ४० ॥ 
  
अहो पश्यत नारीणां अपि कृष्णे जगद्‍गुरौ । 
   दुरन्तभावं योऽविध्यन् मृत्युपाशान् गृहाभिधान् ॥ ४१ ॥ 
    
नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि ।
  न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः ॥ ४२ ॥ 
    
  तथापि ह्युत्तमःश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे । 
       भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि ॥ ४३ ॥ 
      
  ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया । 
     अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः ॥ ४४ ॥ 
        
  अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्यशिषां प  ईशितव्यैः किमस्माभिः ईशस्यैतद् विडम्बनम् ॥ ४५ ॥ 
          
  हित्वान्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशया सकृत् । 
            स्वात्मदोषापवर्गेण तद्याच्ञा जनमोहिनी ॥ ४
            
  देशः कालः पृथग्द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः । 
            देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ ४७ ॥ 
              
  स एष भगवान् साक्षाद् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः । 
     जातो यदुष्वित्याश्रृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे ॥ ४८ ॥ 
                  
अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः । 
  भक्त्या यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ ॥ ४९ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे । 
 यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु ॥ ५० ॥ 
 
 स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम् । 
   अविज्ञतानुभावानां क्षन्तुमर्हत्यतिक्रमम् ॥ ५१ ॥ 
   
 इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः । 
     दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद्‍भीता न चाचलन् ॥ ५२ ॥ 
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हिन्दीअनुवाद 
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ग्वालबालों ने कहा - नयनाभिराम बलराम! 
तुम बड़े पराक्रमी हो। 
हमारे चितचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। 
उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है।
 अतः तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो। 
श्री शुकदेव जी ने कहा - राजन् परीक्षित ! जब ग्वालबालों ने देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना की तब उन्होंने मथुरा की अपनी भक्त ब्राह्मण पत्नियों पर अनुग्रह करने के लिये यह बात कही - ‘मेरे प्यारे मित्रों! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से आंगिरस नाम का यज्ञ कर रहे हैं। 
तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ ग्वालबालों मेरे भेजने से वहाँ जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोडा-सा भात-भोजन की सामग्री माँग लाओ’ जब भगवान ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राह्मणों की यज्ञशाला में गये और उनसे भगवान की आज्ञा के अनुसार ही अन्न माँगा।

पहले उन्होंने पृथ्वी पर गिरकर दण्डवत प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर कहा - ‘पृथ्वी के मूर्तिमान देवता ब्राह्मणों ! आपका कल्याण हो!
 आपसे निवेदन है कि हम व्रज के ग्वाले हैं।
 भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा से हम आपके पास आये हैं। आप हमारी बात सुनें।
 भगवान बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँ से थोड़े ही दूर पर आये हुए हैं।
 उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आप लोग उन्हें थोडा-सा भात दे दें।
 ब्राह्मणों! आप धर्म का मर्म जानते हैं। 
यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियों के लिये कुछ भात दे दीजिये। 

सज्जनों! जिस यज्ञदीक्षा में पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञ में दीक्षित पुरुष का अन्न नहीं खाना चाहिये। 
इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञ में दीक्षित पुरुष का भी अन्न खाने में में कोई दोष नहीं है।
 परीक्षित! इस प्रकार भगवान के अन्न माँगने की बात सुनकर भी उन ब्राह्मणों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञान की दृष्टि से थे बालक की, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे।

परीक्षित! देश, काल अनेक प्रकार की सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज-ब्रह्मा आदि यज्ञ कराने वाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, और धर्म - इन सब रूपों में एकमात्र भगवान ही प्रकट हो रहे हैं।
 वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालों के द्वारा भात माँग रहे हैं।
 परन्तु इन मूर्खों ने, जो अपने को शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया। परीक्षित! जब उन ब्राह्मणों ने ‘हाँ’ या ‘ना’ - कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालों की आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँ की सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलराम से कह दी।
 उनकी बात सुनकर सारे जगत के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे।
 उन्होंने ग्वालबालों को समझाया कि संसार में असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहने से सफलता मिल ही जाती है।’

फिर उनसे कहा - ‘मेरे प्यारे ग्वालबालों! इस बार तुम लोग उनकी पत्नियों के पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। 
तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। 
वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है।'
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अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशाला में गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणों की पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और गहनों से सज-धजकर बैठी हैं। 
उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही - ‘आप विप्रपत्नियों को हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। 
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ से थोड़ी ही दूर पर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है। 
वे ग्वालबाल और बलराम जी के साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं।
 इस समय उन्हें और उनके साथियों को भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें।'

परीक्षित! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनों से भगवान की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। 
उनका मन उनमें लग चुका था।
 वे सदा-सर्वदा इस बात के लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्ण के दर्शन हो जायँ।
 श्रीकृष्ण के आने की बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं। उन्होंने बर्तनों में अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लह्य और चोष्य - चारों प्रकार की भोजन-सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रों के रोकते रहने पर भी अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के पास जाने के लिये घर से निकल पड़ी - ठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्र के लिये। 
क्यों न हो; न जाने कितने दिनों से पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदि का वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणों पर अपना हृदय निछावर कर दिया था।

ब्राह्मण पत्नियों ने जाकर देखा कि यमुना के तटपर नये-नये कोंपलों से शोभायमान अशोक-वन में ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं।

उनके साँवले शरीर पर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। 
गले में वनमाला लटक रही है। 
मस्तक पर मोरपंख का मुकुट है। 
अंग-अंग में रंगीन धातुओं से चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलों के गुच्छे शरीर में लगाकर नट का-सा वेष बना रखा है। 
एक हाथ अपने सखा ग्वालबाल के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथ से कमल का फूल नचा रहे हैं। कानों में कमल कुण्डल हैं, कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुस्कान की रेखा से प्रफुल्लित हो रहा है।

परीक्षित! अब तक अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के गुण और लीलाएँ अपने कानों से सुन-सुनकर उन्होंने अपने मन को उन्हीं के प्रेम में रँग में डाला था, उसी में सराबोर कर दिया था।
 अब नेत्रों के मार्ग से उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देर तक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदय की जलन शान्त की - ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत और स्वप्न-अवस्थाओं की वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भाव से जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्था में उसके अभिमानी प्राज्ञ को पाकर उसी में लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है।

प्रिय परीक्षित! भगवान सबके हृदय की बात जानते हैं, सबकी बुद्धियों के साक्षी है। 
उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मण पत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रों के रोकने पर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयों की आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शन की लालसा से ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्द पर हास्य की तरंगें अठखेलियाँ कर रही थीं।

भगवान ने कहा - ‘महाभाग्यवती देवियों! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो, कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें? 
तुम लोग हमारे दर्शन की इच्छा से यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालों के योग्य ही है।
 इसमें सन्देह नहीं कि संसार में अपनी सच्ची भलाई को समझने वाले जितने भी बुद्धिमान पुरुष हैं, वे अपने प्रियतम के समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकार की कामना नहीं रहती, जिसमें किसी प्रकार का व्यवधान, संकोच, छिपावा, दुविधा या द्वैत नहीं होता।
 प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसार की सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैं, उस आत्मा से, परमात्मा से, मुझ श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है। इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है।

 मैं तुम्हारे प्रेम का अभिनन्दन करता हूँ। परन्तु अब तुम लोग मेरा दर्शन कर चुकीं। 
अब अपने यज्ञशाला में लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे।'

ब्राह्मण पत्नियों ने कहा - अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरता से पूर्ण है।
 आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। 
श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता। 
आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये।

 हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियों की आज्ञा का उल्लंघन करके आपके चरणों में इसलिये आयी हैं कि आपके चरणों से गिरी हुई तुलसी की माला अपने केशों में धारण करें। 
स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणों में आ पड़ी हैं। हमें और किसी का सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - देवियों! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु - कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा।
 इसका कारण है, अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बात का अनुमोदन कर रहे हैं। देवियों! इस संसार में मेरा अंग-संग ही मनुष्यों में मेरी प्रीति या अनुराग का कारण नहीं है। 
इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी। 

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मण पत्नियाँ यज्ञशाला में लौट गयीं। उन ब्राह्मणों ने अपनी स्त्रियों में तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की।
 उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया।

उन स्त्रियों में से एक को आने के समय ही उसके पति ने बलपूर्वक रोक लिया था।
 इस पर उस ब्राह्मण पत्नी ने भगवान के वैसे ही स्वरूप का ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनों से सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान का आलिंगन करके उसके कर्म के द्वारा बने हुए अपने शरीर को छोड़ दिया।
 इधर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया। परीक्षित! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य की-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मों से गौएँ, ग्वालबालों और गोपियों को आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरस का आस्वादन करके आनन्दित हुए।

परीक्षित! इधर जब ब्राह्मणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। 
वे तो मनुष्य की-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं। जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियों के हृदय तो भगवान के लिए अलौकिक प्रेम है और हम लोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे। वे कहते लगे - हाय! हम भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुल में हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परन्तु वह सब किस काम का? धिक्कार है! धिक्कार है! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञता को धिक्कार है!

ऊँचे वंश में जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण होना किसी काम न आया। 
इन्हें बार-बार धिक्कार है। निश्चय ही, भगवान की माया बड़े-बड़े योगियों को भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्यों के गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ के विषय में बिलकुल भूले हुए हैं। कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही - यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसी से इन्होंने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती।

इनके न तो द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुल में ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्ध में ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही। फिर भी समस्त योगेश्वरों के ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुल में निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसंधान किया है, पवित्रता का निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है।

सच्ची बात यह है कि हम लोग गृहस्थी के काम-धंधों में मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराई को बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभु ने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी। भगवान स्वयं पूर्ण काम हैं और कैवल्यमोक्ष पर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करने वाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवों से प्रयोजन ही क्या हो सकता था?

अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्य से माँगने का बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगने की भला क्या आवश्यकता थी? स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओं को छोड़कर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषों का परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसी से भोजन की याचना करें, यह लोगों को मोहित करने के लिये नहीं तो और क्या है?

देश, काल, पृथक-पृथक सामग्रियाँ, उन-उन कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यज्ञमान, यज्ञ और धर्म - सब भगवान के ही स्वरूप हैं।
 वे ही योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान विष्णु स्वयं श्रीकृष्ण के रूप में यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ़ हैं कि उन्हें पहचान न सके।
 यह सब होने पर भी हम धन्याति धन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। 
तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्ति से हमारी बुद्धि भी भगवान श्रीकृष्ण के अविचल प्रेम से युक्त हो गयी है।

प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है।
 आपकी ही माया से हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मों के पचड़े में भटक रहे हैं। 
हम आपको नमस्कार करते हैं। वे आदि पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण हमारे इस अपराध को क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी माया से मोहित हो रही है और हम उनके प्रभाव को न जानने वाले अज्ञानी हैं।

परीक्षित! उन ब्राह्मणों ने श्रीकृष्ण का तिरस्कार किया था। अतः उन्हें अपने अपराध की स्मृति से बड़ा पश्चाताप हुआ और उनके हृदय में श्रीकृष्ण-बलराम के दर्शन की बड़ी इच्छा भी हुई; परन्तु कंस के डर के मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके।

इति_श्रीमद्‍भागवते_महापुराणे_पारमहंस्यां 
#संहितायां_दशमस्कन्धे_पूर्वार्धे_त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ 23 ________

 कामी वासनामयी मलिन हृदय ब्राह्मणी संस्कृति ने हिन्दूधर्म के नाम पर अहीर अथवा गोपों को कृष्ण नामक कथित भगवान का रूप देकर भी एक कामी और भोगी पुरुष बना कर केवल समाज को व्यभिचार की प्रेरणाऐं दी है ।

 और परोक्ष रूप से कृष्ण का प्रतिष्ठा को धूमिल किया गया 🍉..... 
ब्रह्मवैवर्तपुराण ने अश्लीलता की सारी हदे पार कर दी है पुराण कारों ने कहा है कि:-
 "चतुर्णमपि वेदानां पाठादपि वरम् फलम् " 
(कृष्णजन्म खण्ड अध्याय-133) अर्थात- चारो वेद पठने से भी अधिक श्रेष्ठ फल इस पुराण पढ़ने से होगा।
 इस पुराण में अश्लीलता की सम्पूर्ण सीमा उल्लंघित होती है ।
 ब्रह्मा विश्वम् विनिर्माणाय सावित्र्यां वर योषिति। 
 चकार वीर्यधानम् च कामुक्या कामुको यथा।।  

सा दिव्यं शतवर्ष च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् ।। 
 सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरात् ।।
 (ब्रह्मखण्ड अध्याय-9/1-2) 
अर्थात-ब्रह्मा ने विश्व का निर्माण करने के लिए सावित्री में उसी प्रकार वीर्यस्थापन किया जैसे एक कामुक पुरुष कामुक स्त्री में करता है, तब सावित्री ने दिव्य सौ वर्षो के बाद चारो वेदों को जन्म दिया ! ___________________________________________ इस पुराण में वेद भी सावित्री के गर्भ से पैदा हुआ है ! जबकि अन्यत्र वैदों की अधिष्ठात्री गायत्री है । 
 पाखण्डी पुरोहितों ने धर्म की आड़ में समाज को वासना मूलक प्रेरणात्मक दी इन मूर्खों ने पृथ्वी को भी नहीं बख्सा .. प्रकृतिखण्ड अध्याय-8/29 मे लिखा है कि विष्णु ने वाराह रूप मे पृथ्वी से सम्भोग किया और बेचारी पृथ्वी बेहोश हो गयी ।

 इसलिये पृथ्वी विष्णु की पत्नि कही गयी! यहाँ ब्रह्मा और सावित्री विलास पुरुष स्त्रीयों के रूप में वर्णित हैं।
 पृथ्वी का प्रातःस्मरणीय श्लोक भी यही कहता है:- अब विष्णु हैं यद्यपि सुमेरियन पिक्स-नु देवता परन्तु इस सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित देव का विष्णु को यही नही छोड़ा और तुलसी (वृन्दा) से भी सहवास का दोषी बताया। 
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 "शङ्खचूङस्य रूपेण जगाम तुलसी प्रति।
 गत्वा तस्यां मायया च वीर्यधानं चकार।।" (प्रकृतिखण्ड-20/12) अर्थात्- तुलसी भी जान गयी थी कि मेरे पति का रूपधारण करके कोई अन्य पुरुष (विष्णु) मेरे साथ सहवास कर रहा है !
 शिव को भी इस पुराण ने नही छोड़ा, 
शिव का सती के साथ अश्लील वर्णन इस पुराण में है! 
सती के मरने के बाद भी जो श्लोक लिखे गये जरा उस पर नजर डालो-
 "अधरे चाधरं दत्वा वक्षो वक्षसि शङ्कर:।
 पुनः पुनः समाश्लिपुनर्मूछामवाप सः।।" 
 अर्थात्- अधरो पर अधर और वक्ष पर वक्ष मिला कर शंकर ने उस मृतक शरीर का आलिंगन किया! 
 अब जब ब्रह्मा,विष्णु और शिव नही बचे तो भला कृष्ण कहाँ से बचते ! 
 इस पुराण ने कृष्ण की इज्जत उतारने मे कोई कसर नही छोड़ी।
 कृष्ण को पूर्ण रूपेण अश्लीलता की प्रति मूर्ति बना दिया जरा इस पुराण के प्रकृतिखण्ड के कुछ श्लोक देखिये- 👇
 "करे घृत्वा च तां कृष्णः स्थापयामास वक्षसि।
 चकार शिथिल वस्त्रं चुम्बन च चतुर्विधम् ।।

 बभूव रतियुद्धेन विच्छिन्नां क्षुद्रघण्टिका। 
 चुम्बननोष्ठेंरागश्च ह्याश्लेषेण च पत्रकम् ।। 

 मूर्छामवाप सा राधा बुपुधेन दिवानिषम् ।।"
 अर्थात- कृष्ण ने राधा का हाथ पकड़कर वक्ष से लगा लिया,और उसके वस्त्र हटाकर चतुर्विध चुम्बन किया! फिर जो रतियुद्ध हुआ उससे राधा की करधनी टूट गयी और चुम्बन से होठों का रंग उड़ गया, तथा इस संगम से राधा मूर्छित हो गयी और उसे रात-दिन तक होश नही आया। 
 ऐसा लगता है कि जब राधा और कृष्ण का यह क्रिया इन कामुक व्यभिचारी पुरोहितों ने अपनी आँखों से देखी हो अपनी कामुक प्रवृत्ति को इन पुरोहितों ने कृष्ण को आधार बनाकर पुराणों में उकेरा है । 

कृष्ण की इज्जत उतारने में इन व्यभिचारीयों ने कोई कस़र नहीं छोड़ी । __________________________________________ और पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के शासन काल में जाति मूलक वर्ण -व्यवस्था को अधिक परिपुुष्ट करने हेतु अनेक ग्रन्थ वैदिक साहित्य में समायोजित किए गये जैसे पुरुष सूक्त की निम्न ऋचा
" ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।। 
(ऋग्वेद १०/९०/१२)

 फिर प्राय : अधिकतर पुराणों में कृष्ण चरित्र को षड्यन्त्र पूर्वक भ्रष्ट करने की ही कुचेष्टा की है । यद्यपि हरिवंश पुराण इन सभी परम्पराओं से पृथक कृष्ण के यथार्थोन्मुख गोप चरित् की व्याख्या करता है परन्तु भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व काल्पनिकता की मर्यादा ही भंग कर दी है ।

 भागवतपुराणकार की बाते कहाँ तक संगत हैं -- 
बुद्धि जीवि पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकता है । 
 पहले तो कृष्ण को यदु वंश का होने से क्षत्रिय( राजा) के रूप में निषिद्ध घोषित करता है ।
 परन्तु यदु वंश का होने पर भी उग्रसेन को राजा के रूप में मान्य किया जाता है । 
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
 मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२ 
 आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
 ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३ श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय _________________________________________ देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
 और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं। 
आप हम लोगो पर शासन कीजिए क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
 यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। 
भागवतपुराण की प्राचीनता व प्रमाणिकता भी सन्दिग्ध है । 
कि यादव राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।

 कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है । 
 और दास का अर्थ असुर है । 
लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया। एक तथ्य और किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय नहीं कहा गया है। 
क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है । 

 और स्वयं वैदिक ऋचाओं में यदु को दास अर्थात् शूद्र के रूप वर्णन ही प्रमाण है और यदुवंशी अपने को क्षत्रिय घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है। 
 और भारतीय पुराणों में प्राय: कथाओं का सृजन वेदों के अर्थ -अनुमानों से ही किया गया है । 

 मान लें कि ब्राह्मणों ने कृष्ण का गुण गान किया तो फिर उनके दोषों को क्यों वर्णित किया । 
क्योंकि किसी का गुणगान  भी आत्मीयता से प्रेरित होकर उसकी बुराई में अच्छाईयों का रोपण करता है ।
 कृष्ण योगी और आध्यात्मिकता के शिखर पर आरूढ थे तो उन्हें श्रृँगार
 की कींचड़ में क्यों गिराया ? 

 क्या यही कृष्ण का गुण गान था । 
 ऐसा गुण गान तो चालाक शत्रु भी अपने नासमझ प्रतिद्वन्द्वी की करते हैं । 

 कृष्ण के योग सिद्धान्तों और आध्यात्मिक उपलब्धियों को क्यों नहीं जन साधारण में प्रसारित किया गया ?
 पुराणों में कृष्ण का आध्यात्मिक स्वरूप न के बरावर है अपितु उन्हें श्रृँगार पुरुष और  रति पण्डा बनाया गया है ।

 इससे ज्यादा बुरी उन्हें क्या गाली दी जा सकती है ? सत्य तो यह है कि यदि धूर्त व्यक्ति के हाथ में कोई अच्छी वस्तु दे दी जाय तो वह 
भी दूषित हो जाती है ।

श्रीमद्भागवत पुराण या अन्य ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रभृति पुराणों में भी 'चीरहरण लीला' और 'रासलीला' के प्रसंग जोड़ने के पीछे निश्चित ही 'जननायक' श्रीकृष्ण का चरित्र पतन या ह्रास  करना ही रहा होगा।

यह नीति कुटिल से भरी पुचकारकर गाली देने जैसी है ।
 क्योंकि, स्वयं श्रीमद्भागवत में ही एक तरफ लिखा है👇

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।। 9/23/19
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः। 9/23/20
भावार्थ-  हे परीक्षित!
 अब मैं परम पवित्र उस "यदुवंश" का वर्णन करता हूँ जिसे सुनकर मनुष्य सारे पापों से मुक्त हो जाता है और जिसमें स्वयं परमात्मा भगवान ने मनुष्यरूप में अवतार लिया।

'परन्तु यहांँ तो कृष्णा को कामुक,व्यभिचारी के रूप में प्रतिष्ठित करना क्या ?

    इन्द्र आदि देवताओं के व्यसन और बलात्कार संबन्धी कदाचरण की कहानियों का उल्लेख तो वेद, , पुराण आदि में यत्र-तत्र बहुत मिलता है। 

किन्तु कृष्ण के जीवनचरित के सबसे पुख्ता और प्राचीन प्रमाण, 'छान्दोग्योपनिषद'  कौषीतकी आदि में, कहीं भी उनके जीवन के अश्लील पहलू का लेशमात्र भी उल्लेख नहीं मिलता।
    भक्ति के वहाने किस तरह श्रीकृष्ण के बेदाग चरित्र को दागदार करने की  षड्यन्त्र की गए हैै। 

जिसका उदाहरण देकर आज भी सन्त या व्यास वेषधारी 'धूर्त' कामुक कथा -बेचक नाबालिग बच्चियों को बहकाकर अपनी वासनापूर्ति कर रहे हैं।

गुरु देव भीष्म पाल भी सजग समाज के बैनर तले समाज में जागृति अवश्य कर रहे हैं 'परन्तु रूढ़िवादीयों के वे निसाने पर हैं ।

देखिए कथित चीरहरण लीला के कुछ अंश👇
जिन्हें हम पूर्व में भी वर्णित कर चुके हैं ।

नद्यां कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत्।
वासांसि कृष्णं गायन्त्यो विजह्रुः सलिले मुदा।। 10/22/7
अर्थ- एक दिन सब कुमारियों ने प्रतिदिन की भाति यमुना  के तट पर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिकृष्ण के गुणों का गान करती हुईं बड़े आनंद से जल क्रीड़ा करने लगी।

तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः।
हसद्भिः प्रहसन् बालैः परिहासमुवाच ह।। 10/22/9
अर्थ- उन्होंने अकेले ही उन गोपियों के सारे वस्त्र उठालिए और बड़ी फुर्ती से एक कदम के वृक्ष पर चढ़ गए साथी  बालकों के साथ ठटाठटा कर हंसने लगे और स्वयं श्री कृष्ण भी हंसते हुए गोपियों से हंसी की बात कहने लगे।

भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ।
अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छन्तु शुचिस्मिताः।। 10/22/16
अर्थ- अरी कुमारियो! तुम्हारी मुस्कान पवित्रता और प्रेम से भरी है। देखो जब तुम अपने को मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञा का पालन करना चाहती हो तो यहां आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो।

ततो जलाशयात् सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः।
पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरुः शीतकर्शिताः।। 10/22/17
अर्थ- तब, सब कुमारियाँ अपने दोनों हाथों से अपनी योनियों को छिपाकर जल से बाहर निकल कर ठंड से काँपने लगीं।

आगे के श्लोकों में कृष्ण उनसे कहते हैं कि, तुमने वरुण देवता का अपमान किया है अतः सिर के ऊपर अपने दोनों हाथ  जोड़कर उन्हें प्रणाम करो, और गोपियों ने वैसा ही किया।

तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान् देवकीसुतः।
वासांसि ताभ्यः प्रायच्छत् करुणस्तेन तोषितः।। 10/22/21
अर्थ- उनको वैसे ही प्रणाम करता देखकर भगवान देवकीनन्दन प्रसन्न हुए और उन पर करुणा करते हुए वस्त्र वापस कर दिए।

अब प्रश्न यह है कि, द्रौपदी का चीरहरण करनेवाले दुःशासन की भुजा के रक्त से द्रौपदी के खुले केश धुलवाने वाला क्या स्वयं गोपियों का चीरहरण करेगा? 
यदि आप 'कहें' कि चार हर तो बचपन 'ने किया था ।
और चीरकरण युवा अवस्था में 'परन्तु तो एक कामुक व्यक्ति का चरित्र वर्णन है ।

क्या यहाँ वरुण प्रणिधान  के बहाने लेखक का उद्देश्य, गोपियों के हाथ उनके गुप्तांगों से हटवाना नहीं लगता?
क्या इस तरह की अश्लीलता योगीराज कृष्ण के साथ सद्भावना से जोड़ी गई होगी?
क्या यह उन पुरोहितों का षड्यन्त्र नहीं जो भागवत धर्म का पतन करने के लिए स्वयं भागवताचार्य बने ।

    रही-सही कसर तो आगे रासलीला का प्रसंग जोड़ते हुए पूरी करदी।
 देखिए! मर्यादा की सारी सीमाओं को तोड़ता उसका यह श्लोक👇🌸
बाहु प्रसार परिरम्भकरालकोरू- 
 नीवीस्तनाल - भननर्नमनखाग्रपातै: । क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रज सुन्दरीणा-
 मुत्तभयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार।।४६ 
(श्रीमद्भागवत पुराणों 10/29/46)

भावार्थ- हाथ फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, जाँघ, नीवी  और स्तन आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुसकाना-- 
इन क्रियाओं के द्वारा गोपियों के दिव्य कामरस को परमोज्जवल प्रेमभाव को उत्तेजित करते हुए उन्हें क्रीड़ा द्वारा आनंदित करने लगे।

नीवी का खोलने का अर्थ --नाड़े की गाँठ खोलना
यह कृत्य कामुक और  अय्याश और भोगी करते हैं।
कृष्ण जैसा योगी नहीं

 _________________________________________ उपनिषदों में विशेषत: छान्दोग्य-उपनिषद में कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
 जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। 
 श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। 
परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं। 

 यह पाँचवीं सदी में श्रीमद्भागवत् गीता में जोड़ी गयीं। जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:" 
तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई। 

 परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
 ---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये ।
 द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है ।

 एक साम्य दौनों का👇
" कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।। 
 जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6) 
 यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। 
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।। किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।। नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।। 
 उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18। 
-------------------------------------------------------------- आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं । जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे । जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे । पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ... इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
 ------------------------------------------------------------ Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis l 
 यह शोध मूलक सन्देश यादव योगेश कुमार रोहि के द्वारा अन्वेषण किया गया है । 
 This research-oriented message" has been explored by Yadav Yogesh Kumar "Rohi" . Rohi  has risen above Puranas and researched Krishna character in Vedas and Upanishads.

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