अहीरों की स्त्रीयाँ वीरांगना होती थी ।
उन्होने कभी को जौहर नहीं किया ।
उनसे वीरों के सामने कभी कोई टिक नहीं पाता था।
करौली के पाल अहीरों की जौहर करने की आँशिक घटनाऐं ।
भारोपीय वर्ग की भाषाओं में ज्वल् ज्वर दीप्तौ दाहे च
के रूप में है जिसके रूप जौहर जहूर जाहिर जैसे सैमेटिक अरबी हिब्र आदि भाषाओं के शब्द हैं ।
जौहर शब्द हिन्दी में एक सामान्यत शब्द है ।
वैसे जौहरी जिसका मतलब होता है रत्न व्यवसायी।
प्रकारांतर से इसका एक अर्थ पारखी भी होता है।
जिसे कीमती पत्थरों (हीरा, माणिक , पन्ना, मोती वगैरह) की परख हो।
यह एक व्यवसाय सूचक ( जाति सूचक नहीं ) शब्द भी है इसीलिए वणिकों का एक वर्ग जौहरी कहलाया ।
जौहरी को मराठी में रत्नपारखी कहते हैं और ये जाति से ब्राह्मण होते हैं।
प्रायः हर शहर में जौहरी बाज़ार होता है जहां सोने-चांदी और गहनों का कारोबार होता है।
जौहरी बना है जौहर से जो मूल रूप से फ़ारसी के गौहर का अरबी रूपान्तर है जिसका मतलब भी रत्न ही है।
धुर पश्चिम में तुर्की से लेकर सुदूर पूर्व में मलेशिया तक समूचे एशिया में यह शब्द खूब इस्तेमाल होता है। गौरतलब है ये दोनों ही शब्द स्त्रीवाची हैं ।
जौहर शब्द में गुण, दक्षता, कला, हुनर , होशियारी जैसे भाव भी बाद में समा गए।
जौहर में सिर्फ ज वर्ण की जगह ग वर्ण के प्रयोग से बने गौहर का मतलब भी रत्न ही है।
जौहर का बहुवचन हुआ जवाहिर हुआ।
जवाहिरात को भी कई लोग बहुवचन की तरह इस्तेमाल करते हैं ,
jewelry
l juelrye "precious ornaments, jewel work," from Old French juelerye, from jouel ( jewel).
In modern use it probably is a new formation and can be analyzed as jewel -पुरानी फ्रांसीसी ज्यूलरी से, जूल से (गहना )
आधुनिक उपयोग में यह संभवतः एक नया गठन है और इसका विश्लेषण गहना (जौहरी)
सती प्रथा भी मुगलों के काल की है ।
उन पर ना तो किसी का दवाब था और ना ही वो मेवाड़ राजघराने की किसी प्रथा के वश में थीं।
राजघराने की रानियों का जौहर भारतवर्ष में सैकड़ों साल पहले की सती प्रथा की याद दिलाता है।
हालांकि जौहर और सती प्रथा एक-दूसरे से जरा भी मेल नहीं खाते।
लोग सती प्रथा को सिर्फ सतही तौर पर जानते हैं लेकिन वो इस प्रथा के पीछे छिपे पूरे तथ्य से अनभिज्ञ हैं। पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता के साथ जलना सती प्रथा है और दुश्मनों के चंगुल में फंसे अपने वीर पतियों के स्वाभिमान की रक्षा के लिए आत्मदाह करना जौहर है। दोनों को समझने के लिए इतिहास के कुछ पन्ने पलटने की जरूरत है।
सती प्रथा
सनातन धर्म यानि हिंदू धर्म जिसमें कई तरह की जातियां, जनजातियां हैं।
किसी भी धर्म में रीति रिवाज, समाज को जोड़ने के लिए बनाए गए।
हिंदू धर्म में भी ऐसे कई रिवाज हैं जिनका जन्म समाज की कुरीतियों को मिटाने और मनुष्य में भाईचारा बढ़ाने के लिए किया गया लेकिन क्या आप जानते हैं कि सती प्रथा जैसी कोई भी प्रथा हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है। हिंदू धर्म के चारों वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी स्त्री को सती करने की प्रथा का कहीं जिक्र तक नहीं है। तो फिर सती प्रथा का जन्म कैसे हुआ?
सती एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है वो स्त्री जो सिर्फ अपने पति की है। वो पत्नी जो पतिव्रता है और उसका अपने पति के अलग किसी गैर पुरुष से संबंध नहीं है लेकिन एक ऐसा भी समय था जबकि भारतीय समाज में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को अपनी पवित्रता और प्रेम साबित करने के लिए पति की चिता के साथ ही जिंदा जला दिया जाता था। कई स्त्रियां इसे प्रेम से करती थीं लेकिन कई स्त्रियों को सिर्फ प्रथा के नाम पर आग में जिंदा जलने के लिए झोंक दिया जाता था। उनकी चीखें, दर्द सब कुछ इस प्रथा की आड़ में छिप जाते थे।
वेद-पुराणों के किस्से और सती प्रथा
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव की पत्नी का नाम सती था। सती से भगवान शिव अत्यधिक प्रेम करते थे। सती के पिता दक्ष ने भगवान शिव का तिरस्कार किया और इसी से आहत होकर सती ने आत्मदाह कर लिया। सती का पति के लिए किया गया आत्मदाह सती प्रथा नहीं थी क्योंकि भगवान शिव जीवित थे।
महाभारत काल में सती के प्रमाण मिलते हैं। पांचों पांडवों के पिता पाण्डु को एक ऋषि ने श्राप दिया था कि उन्होंने अगर कभी किसी स्त्री से शारीरिक सबंध बनाए तो उनकी मौत निश्चित है। यही वजह थी कि युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन दुर्वासा ऋषि के वरदान से कुंती को मिले और माद्री को नकुल सहदेव इसी वरदान के द्वारा प्राप्त हुए। पाण्डु को पांच पुत्रों की प्राप्ति हुई लेकिन विधाता ने उनकी किस्मत में कुछ और ही लिखा था। पाण्डु ने एक दिन श्राप भूलकर माद्री के साथ शारीरिक संबंध बना लिए और यही उनकी मौत का कारण बन गया। माद्री गहरे शोक में थीं। पाण्डु की मौत के लिए स्वयं को जिम्मेदार ठहराते हुए माद्री ने पाण्डु की जलती हुई चिता पर सती होने का निर्णय लिया। हालांकि महाभारत के इस किस्से में भी कहीं भी किसी प्रथा का वर्णन नहीं है जो स्त्रियों को पति की मृत्यु के बाद जिंदा जलने की सीख देता हो।
सती प्रथा का जन्म
गुप्तकाल में 510 ईसवीं के दौरान सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य देखा गया। इस अभिलेख में महाराज भानुगुप्त का वर्णन किया गया है जिनके साथ युद्ध में गोपराज भी मौजूद थे। गोपराज युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए और उनकी पत्नी ने पति वियोग में सती होकर अपने प्राण त्याग दिए। इसी लेख के सहारे भारत में सती प्रथा जैसी कुरीति को आगे बढ़ाया गया और फिर धीरे-धीरे इस प्रथा ने पूरे भारत में पैर पसार लिए। एक वक्त ऐसा भी आ गया जब लोग मृतक की जमीन पर कब्जा करने के लिए पत्नियों को जबरदस्ती जलती चिता में झोंक देते थे।
सती प्रथा पर रोक
सदियों से चली आ रही इस प्रथा का अंग्रेजों ने भी विरोध किया। हालांकि इस प्रथा को धर्म से जोड़कर पेश करने वालों के आगे उनकी एक ना चली लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने इसका प्रभाव कम करने की पूरी कोशिश की। 19वीं शताब्दी में सती प्रथा को रोकने के लिए तेज हवा बहने लगी। इसके बाद औरतों के लिए वरदान बनकर आए राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी और देश के लिए नासूर बन गई इस प्रथा को जड़ से समाप्त किया।
राजा राम मोहन राय ने विधवा पुर्नविवाह पर भी जोर दिया। राजा राममोहन राय ने घर-घर घूमकर लोगों को जगाया, इस कुरीति के खिलाफ आवाज बुलंद करने का हौसला दिया।
पति की मृत्यु के बाद पत्नी का चिता के साथ जिंदा जल जाना सती प्रथा जैसी कुरीति थी लेकिन जौहर क्या था?
इसे समझने के लिए आपको पहले जानना होगा कि जौहर शब्द कहां से आया? जौहर शब्द फारसी शब्द का अरबी अनुवाद है।
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