राम के फर्जी वंशज -☣⬆⬇
एक लेखक अनिरुद्ध जोशी राम के वंशजों के बिषय में लिखते हैं ।
कि भरत के दो पुत्र थे- तार्क्ष और पुष्कर।
और लक्ष्मण के पुत्र- चित्रांगद और चन्द्रकेतु और शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन थे।
इनके अनुसार मथुरा का नाम पहले शूरसेन था।
और ये शूरसेन शत्रुघ्न के पौत्र थे ।🚮
लव और कुश राम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे।
जब राम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्याभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने।
अत: दक्षिण कोसल प्रदेश (छत्तीसगढ़) में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया।
राम ने कुश को दक्षिण कौशल, कुशस्थली (कुशावती) और अयोध्या राज्य सौंपा ।
तो लव को पंजाब दिया !
लव ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।
आज के तक्षशिला में तब भरत पुत्र तक्ष और पुष्करावती (पेशावर) में पुष्कर सिंहासनारुढ़ थे।
हिमाचल में लक्ष्मण पुत्रों अंगद का अंगदपुर और चंद्रकेतु का चंद्रावती में शासन था।
मथुरा में शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु का तथा दूसरे पुत्र शत्रुघाती का भेलसा (विदिशा) में शासन था।
राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था।
कालिदास के रघुवंश अनुसार राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। शरावती को श्रावस्ती मानें तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था।
और कुश का राज्य दक्षिण कोसल में।
कुश की राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी।
कोसला को राम की माता कौशल्या कगी जन्मभूमि माना जाता है।
रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिए विंध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोसल में ही था।
राजा लव से राघव राजपूतों का जन्म हुआ जिनमें बड़गुजर, जयास और सिकरवारों का वंश चला।
इसकी दूसरी शाखा थी सिसोदिया राजपूत वंश की जिनमें बैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) वंश के राजा हुए।
कुश से कुशवाह राजपूतों का वंश चला।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार लव ने लवपुरी नगर की स्थापना की थी, जो वर्तमान में पाकिस्तान स्थित शहर लाहौर है।
यहां के एक किले में लव का एक मंदिर भी बना हुआ है।
लवपुरी को बाद में लौहपुरी कहा जाने लगा।
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश लाओस, थाई नगर लोबपुरी, दोनों ही के नाम पर रखे गए स्थान हैं।
कुश के वंशज कौन?
राम के दोनों पुत्रों में कुश का वंश आगे बढ़ा तो कुश से अतिथि और अतिथि से, निषधन से, नभ से, पुण्डरीक से, क्षेमन्धवा से, देवानीक से, अहीनक से, रुरु से, पारियात्र से, दल से, छल से, उक्थ से, वज्रनाभ से, गण से, व्युषिताश्व से, विश्वसह से, हिरण्यनाभ से, पुष्य से, ध्रुवसंधि से, सुदर्शन से, अग्रिवर्ण से, पद्मवर्ण से, शीघ्र से, मरु से, प्रयुश्रुत से, उदावसु से, नंदिवर्धन से, सकेतु से, देवरात से, बृहदुक्थ से, महावीर्य से, सुधृति से, धृष्टकेतु से, हर्यव से, मरु से, प्रतीन्धक से, कुतिरथ से, देवमीढ़ से, विबुध से, महाधृति से, कीर्तिरात
से, महारोमा से, स्वर्णरोमा से और ह्रस्वरोमा से सीरध्वज का जन्म हुआ।
कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई।
सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ जिसने योग मार्ग का रास्ता अपनाया था।
कुश वंश से ही कुशवाह, मौर्य, सैनी, शाक्य संप्रदाय की स्थापना मानी जाती है।
एक शोधानुसार कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे।♿
यह इसकी गणना की जाए तो कुश महाभारतकाल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व।
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इसके अलावा शल्य के बाद बहत्क्षय, ऊरुक्षय, बत्सद्रोह, प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, ध्रुवाश्च, भानुरथ, प्रतीताश्व, सुप्रतीप, मरुदेव, सुनक्षत्र, किन्नराश्रव, अन्तरिक्ष, सुषेण, सुमित्र, बृहद्रज, धर्म, कृतज्जय, व्रात, रणज्जय, संजय, शाक्य, शुद्धोधन, सिद्धार्थ, राहुल, प्रसेनजित, क्षुद्रक, कुलक, सुरथ, सुमित्र हुए।
माना जाता है कि जो लोग खुद को शाक्यवंशी कहते हैं वे भी श्रीराम के वंशज हैं। ♿
तो यह सिद्ध हुआ कि वर्तमान में जो सिसोदिया, कुशवाह (कछवाह), मौर्य, शाक्य, बैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) आदि जो राजपूत वंश हैं वे सभी श्रीराम के वंशज है।
जयपूर राजघराने की महारानी पद्मिनी और उनके परिवार के लोग की राम के पुत्र कुश के वंशज है।♿
महारानी पद्मिनी ने एक अंग्रेजी चैनल को दिए में कहा था कि उनके पति भवानी सिंह कुश के 309वें वंशज थे।
इस घराने के इतिहास की बात करें तो 21 अगस्त 1921 को जन्में महाराज मानसिंह ने तीन शादियां की थी। मानसिंह की पहली पत्नी मरुधर कंवर, दूसरी पत्नी का नाम किशोर कंवर था और माननसिंह ने तीसरी शादी गायत्री देवी से की थी।
महाराजा मानसिंह और उनकी पहली पत्नी से जन्में पुत्र का नाम भवानी सिंह था।
भवानी सिंह का विवाह राजकुमारी पद्मिनी से हुआ। लेकिन दोनों का कोई बेटा नहीं है एक बेटी है जिसका नाम दीया है और जिसका विवाह नरेंद्र सिंह के साथ हुआ है।
दीया के बड़े बेटे का नाम पद्मनाभ सिंह और छोटे बेटे का नाम लक्ष्यराज सिंह है।
मुसलमान भी राम के वंशज हैं?
हालांकि ऐसे कई राजा और महाराजा हैं जिनके पूर्वज श्रीराम थे।
राजस्थान में कुछ मुस्लिम समूह कुशवाह वंश से ताल्लुक रखते हैं।
मुगल काल में इन सभी को धर्म परिवर्तन करना पड़ा लेकिन ये सभी आज भी खुद को प्रभु श्रीराम का वंशज ही मानते हैं।
इसी तरह मेवात में दहंगल गोत्र के लोग भगवान राम के वंशज हैं और छिरकलोत गोत्र के मुस्लिम यदुवंशी माने जाते हैं।
राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि जगहों पर ऐसे कई मुस्लिम गांव या समूह हैं जो राम के वंश से संबंध रखने का दाबा करते हैं।
🛄 डीएनए शोधाधुसार उत्तर प्रदेश के 65 प्रतिशत मुस्लिम ब्राह्मण बाकी राजपूत, कायस्थ, खत्री, वैश्य और दलित वंश से ताल्लुक रखते हैं।
लखनऊ के एसजीपीजीआई के वैज्ञानिकों ने फ्लोरिडा और स्पेन के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर किए गए अनुवांशिकी शोध के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था।
परन्तु निष्कर्ष सन्तोष जनक नहीं रहा ..
शंका - लेखक कहता है कि शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन थे।
इनके अनुसार मथुरा का नाम पहले शूरसेन था।
और ये शूरसेन शत्रुघ्न के पौत्र थे ।🚮
परन्तु शौरसैनी प्राकृत जिससे व्रज भाषा विकसित हुई
यदु वंशी राजा देवमीढ़ के पुत्र थे । ☣⬆⬇
लेखक कहता है कि पुष्करावती ही पेशाहोगयी परन्तु यह मान्यता गलत है- ।
क्योंकि पुरुष पुर ही पेशावर
आज के तक्षशिला में तब भरत पुत्र तक्ष और पुष्करावती (पेशावर) में पुष्कर सिंहासनारुढ़ थे।☣⬆⬇
अनिरुद्ध जोशी राजपूतों की वंशावली के हबाले से बताते हैं कि
कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई।
जिनकी विवाह राम से हुआ।
सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ जिसने योग मार्ग का रास्ता अपनाया था।
अब समस्या यह है कि सीता कुश की पौत्री थी या कुश सीता का पुत्र ।☣⬆⬇
जब कुश के वंश से
कुश वंश से ही कुशवाह, मौर्य, सैनी, शाक्य संप्रदाय की स्थापना मानी जाती है।
तो वाल्मीकि-रामायण रामायण में राम तथागत बुद्ध को चौर और नास्तिक कहकर गालियाँ क्यों देते हैं ।.⬇
ऐसे ही कुछ श्लोक जो ‘आयोध्या-कांड’ में आये है।
यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए,
राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत नास्तिक और अपमान-जनक अपमानजनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं , जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण से कर सकते हैं ।
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:- उग्र तेज वाले नृपनन्दन श्रीरामचन्द्र, जावालि ऋषि के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे फिर बोले :-
“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
– अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।।
• सरलार्थ :- हे जावालि!
मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ।
कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।।
क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक - मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।
देखें राम बुद्ध के विषय में क्या कहते हैं ।
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“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्धस्तथागतं।
नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धियः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् ।।
” -(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / पृष्ठों संख्या
गीता पेरेस गोरख पुर :1678)
सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है ।
‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।
इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे।
इससे स्पष्ट है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है न कि बुद्ध से 7000 साल पहले की रचना
कुछ विद्वान 2000 वर्ष पुरातन भी मानते हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के तृतीय सूक्त के तृतीय ऋचा में राम कथा का विवरण है :---
आचार्य नीलकण्ठ चतुर्धर
जोकि (सत्रहवीं सदी ईस्वी) के संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार और भाष्य कार भी हैं ।
जो सम्पूर्ण महाभारत की टीका के लिए विशेष प्रख्यात हैं ।
आचार्य नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के दशम मण्डल के अन्तर्गत तृतीय सूक्त की तृतीय ऋचा में राम और सीता के होने का वर्णन क्या है।☣⬇
देखें---ऋग्वेद में सीता को लिए स्वसार (स्वसृ ) शब्द का प्रयोग- __________________________________________
भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥ _________________________________________
(ऋग्वेद १०।३।३) भावार्थ: श्री रामभद्र (भद्र) सीता जी के साथ (भद्रया) [ वनवास के लिए ] तैयार होते हुए (सचमान ) दण्डकारण्य वन (स्वसारं) यहाँ पत्नी अर्थ में अथवा -बहिन ) दौनों अर्थों में ।
जब आये थे (आगात्) , तब (पश्चात ) कपट वेष में कामुक (जारो) रावण सीता जी का हरण करने के लिए आता है (अभ्येति ), उस समय अग्नि देव हीं सीता जी के साथ थे ।
( अर्थात स्वयं सीता अग्नि में स्थित हो चुकी थी राम के कथन के अनुसार), अब रावण वध के पश्चात, देदीप्यमान तथा लोहितादी वर्णों वाली ज्वालाओं से युक्त स्वयं अग्नि देव हीं (सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि:) शुभ-लक्षणों से युक्त कान्तिमयी सीता जी के साथ [सीता जी का निर्दोषत्व सिद्ध करने के लिए] श्री राम के सम्मुख उपस्थित हुए (राममस्थात्) | ________________________________________
उपर्युक्त ऋचा में सीता के लिए स्वसा शब्द है;
जो राम और सीता को भाई-बहिन मानने के लिए भ्रमित करता है ।
और यह वैदिक ऋचाओं में प्राचीनत्तम हैं मिश्र की पुरातन कथाओं में रेमेशिस तथा सीतामुन शब्द राम और सीता का ही रूपान्तरण हैं ।
शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण :-
भद्र:- प्रथमा विभक्ति कर्ता कारक( भजनीयो ) ।
भद्रया - तृतीय विभक्ति करण कारक( भजनीयया-सीतया)सीता के द्वारा ।
सचमान:- सच् धातु आत्मनेपदीय रूप में शानच् प्रत्यय (विवाह विधिना संगतो वनं प्रति अनुगम्यमानश्च - विवाह विधि द्वारा संयुक्त होकर वन गमन के लिए अनुगामी ) ।
आगात:- गम् धातु लुंगलकार ( तेषु वनेषु विचरन् पञ्चवट्यां समागत:(चित्रकूटआदि अनेक वनों में वितरण करते हुए पञ्चवटी आ पहुँचे) ।
पश्चात् -( रामे लक्ष्मणे च मायामृग व्याजेन स्थानान्तरिते)
माया मृग मारीच द्वारा राम और लक्ष्मण दौंनों के स्थानान्तरित हो जाने के बाद ) ।
जार :- ( परस्त्री दूषक: ( परायी स्त्रीयों का सतीत्व भंग करने वाला अर्थात् रावण)
स्वसारं :- ( भगिनीं)बहिन अथवा पत्नी !
रामाश्रमम् :-(राम के आश्रम में अभ्येति:-( प्रप्नोति) पहुँचता है ।
सुप्रकेतैर्द्युभि:- तृतीय विभक्ति बहुवचन ( समुज्जवल तेजोभिरुपलक्षिता सीताम्
( पातिव्रत्य की तेजस्विता से देदीप्यमान सीता के लेकर )
उषद्भिर्वर्णै: तृतीय विभक्ति बहुवचन कान्तियुक्तवर्णोपलक्षित: (कान्ति युक्त वर्ण से युक्त )
अग्नि : अग्नि ने ।
रामम् अभ्यस्थात् -( राम के सामने उपस्थित हुए
भाष्य कार के अनुसार ऋग्वेद के दशम मण्डल के अन्तर्गत निन्यानवैं वें सूक्त में भी विशद रूप में राम कथा का वर्णन है!
इस सूक्त के द्रष्टा "वग्रा" ऋषि हैं ।
जिनका ही दूसरा नाम वाल्मीकि है ।
भाष्य कार ने उक्त सूक्त की व्याख्या राम के चरित्र से सम्बद्ध की है ।
ऋग्वेद 10/99/2 के अनुसार राम चरित्र इस प्रकार है ।⚛⏬
स हिद्युता विद्युता वेति सामं पृथुयोनिम् असुरत्व आससाद।
स सनीडेभि: प्रहसनो अस्य भर्तुर्नऋते सप्तथस्य माया:।। ऋग्वेद 10/99/2
(स हि ):- वही राम (द्युता) :- द्योतमान अपनी अभिव्यक्ति के द्वारा ( विद्युता :- विशेष प्रकाशमान माया शक्ति से ( सामम् :- राक्षसीय उपद्रवों के समन के लिए ) वा एति - बहुलता से अवतरित होता है (रावण) ।
असुरत्वात् - आसुरी यौनि के कारण !
पृथुयोनिम् -( पृथ्वी से उत्पन्न होने वाली सीता को )
आससाद ( उड़ा ले गया ) ।
स: वह राम ।
सनीडेभि: - समान लोक वासीयों को
( अस्यभर्तु: ) इनके स्वामीयों सहित ।
प्रसहान: -कष्टों को सहन करते हुए ।
सप्तथस्य - विष्णु परम्परा में समावेशित ब्रह्मा, कश्यप, मरीचि, पुलस्त्य, विश्रवा और रावण।
सातवें व्यक्ति की (माया ) कूटनीति का प्रभाव (ऋते -सत्य पर ।
न - नहीं हुआ।
ऋग्वेद संहिता 10/99/5 के अनुसार आचार्य नीलकण्ठ चतुर्धर का भाष्य इस प्रकार है ⏬
स रूद्रेभिरशस्तवार ऋभ्वा हित्वी गयमारे अवद्य आगत् वम्रस्य मन्ये मिथुना विक्त्री अन्नमभीत्यारोदयन् मुषायन् ।।
अर्थ:- स: (वह राम ) रूद्रेभिर् ( रूद्र अंश हनुमान आदि की सहायता से )
आरे अवद्य- अग्नि अग्नि परीक्षा द्वारा ।
ऋभ्वा - सत्य से भासमान सीता सहित।
गयम् - अपने गन्तव्य को ।
आगात - आगये ।
पश्चात् -अस्तवारो हित्वी - रजक निन्दा के कारण त्याग दी गयी ।
वम्रस्य - वाल्मीकि के ।
मिथुने - यमल शिष्य लव- कुश ।
विक्त्री - (रामायण ग्रन्थ के) विवरण करने वाले हुए। मन्ये - ऐसा मानता हूँ।
मुषायन् :- तस्कर रावण ने चुराते हुए ।अन्नम् - भूमिजा सीता को ।
अभीत्य - जाकर चुराया ।
एैसे मिथ्या अपवाद के कारण सीता परित्यक्ता सीता ।अरोदयत् - रुदन करता थी ।
यह व्याकरणिक विश्लेषण से समन्वित व्याख्या है ।
इसे पढ़े ।
भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं
जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि
राममस्थात्॥
उपर्युक्त्त ऋचा में सीता राम की बहिन( स्वसार) है ।
वैसे भी वैदिक सन्दर्भों के उपजीवि सुमेरियन सभ्यता के पारतन पात्र हैं ।
🚷🚱
कुशवाह शब्द शाक्यों की एक कबीलाई शाखा के रूप में है ।
शाक्यों का सम्बन्ध शाक -सब्जी से रहा और ये कृषि जीवि थे ही अत: कृषि से जीवन निर्वहन करने के कारण ये कृषिवाह कहलाए कालान्तरण में प्राकृत भाषा में कुशवाह रूप हो गया ।
राम का समय और शासन काल भी अनिश्चितताओं से पूर्ण है तो कैसे कोई स्वयं को राम का वंशज बता सकता है ।
जैसा कि महारानी पद्मिनी ने एक अंग्रेजी चैनल को दिए में कहा था कि उनके पति भवानी सिंह कुश के 309वें वंशज थे।
महाभारत में शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व 121वें अध्याय में में वर्णन है कि👇
इतरेष्वागमाद् धर्म: पादश्त्ववरोप्यते।
चौर्यकानृतमायाभिरधर्मश्चोपचीयते ।।24।
अन्य युगों में शास्त्रोक्त धर्म का क्रमशः एक-एक चरण क्षीण होता है और चोरी , असत्य,तथा छल कपट आदि के द्वारा अधर्म की वृद्धि होने लगती है।24।
अरोगा: सर्वसिद्धार्थश्चतुर्वर्षशतायुष:।
कृते त्रेतायुगे त्वेषां पादशो ह्रसते वय:।25।
"सतयुग में मनुष्य निरोग होते हैं उनकी संपूर्ण कामनाएं सिद्ध होती हैं तथा वे चार सौ(400)वर्षों की आयु वाले होते हैं ।
त्रेता युग आने पर उनकी आयु एक चौथाई घटकर तीन सौ (300) वर्षों की रह जाती है। इस प्रकार द्वापर में दो सौ (200) और कलयुग में (100 )वर्षों की आयु होती है।
अब आश्रम व्यवस्था का विधान केवल 100 वर्ष के
लिए है ।
उपनिषदों तथा वेदों मे ध्वनित शतंसमा भी सौवर्ष की निर्धारक है ।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे
(ईशावास्योपनिषद)
अर्थात् मनुष्यों को कर्म करते हुए 100वर्ष जीना चाहिए!
यहाँं 200 या 300 वर्षो की तो बात ही नहीं है ।
अब बात यह है कि "शतं समा" ( सौ वर्ष) जाने की बात वेद में होती है तो 'वह किस युग की है ।
कल युग की
यदि हम सब मानते हैं कि वेदों का प्रादुर्भाव सतयुग में हुआ ।
और सतयुग में समान्य व्यक्ति चार सौ वर्ष जीवन व्यतीत करता था ।
तो वेदों के केवल जीवन सौ वर्ष क्यों माने गये हैं
जैसे-
पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।
(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)
हम सौ शरदों तक देखें (१)।
सौ वर्षों तक हम जीवित रहें (२)।
सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे(३);
सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें, हमारी उन्नति होती रहे (४); सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें(५);
हम सौ वर्षों तक बने रहें (६);
सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें (७);
सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें (८)।
उपर्युक्त ऋचाओं में केवल सौ वर्ष की ही कामना की है -जैसे या तीन सौ वर्ष की नहीं।
अब आप बताओ कि महाभारत प्राचीनत्तम या वेद
अब राम के विषय में भी किंवदन्तियों पर आधारित ग्रन्थों का प्रणयन हुआ ।
क्यों राम की कथाऐं सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों में भी प्राप्त होती है ।
सुमेरियन शहर( एजेद ) का रूपान्तरण अयोध्या है ।
और थाइलेण्ड मे अजोदा है ।जिसकी एकरूपता अयोध्या से है ।
महाभारत या भारतीय रामायण आदि ग्रन्थों में राम का वर्णन किंवदन्तियों पर आधारित है ।
राम के विषय में अस्वाभाविक व कल्पना पूर्ण
वर्णन भारतीय पुराणों व महाभारत आदि में हैं
-जैसे महाभारत में राम के विषय में वर्णन है कि
सहस्रपुत्रा पुरुषा दशवर्षशतायुष:।19।
न च ज्येष्ठा निष्ठेभ्यस्तदा श्राद्धन्कारयन्।।
श्री राम के राज्य काल में एक एक मनुष्य के हजार हजार पुत्र होते थे;
और उनकी आयु भी एक एक हजार (1000) वर्षों की होती थी बड़ों को अपने से छोटो का श्राद्ध नहीं करना पड़ता था।19।
अब इस प्रकार से तो जनसंख्या विस्फोट हो जाता ।
दशवर्ष सहस्राणि दशवर्षशतानि च।21।
सर्वभूत मन:कान्तो रामो राज्यमकारयत्।
राम की कांति समस्त प्राणियों के मन को मोह लेने वाली थी उन्होंने ग्यारह हजार वर्ष (11000) वर्षों तक राज्य किया था।21।
अब राम ग्यारह हजार वर्ष राज्य करना भी अस्वाभाविक व कल्पना पूर्ण है।
त्यजेत् क्षुधार्ताः जननी स्वपुत्रं
खादेत् क्षुधार्ताः भुजगी स्वमण्डम् ।
वुभुक्षितः किं न करोति पापं
क्षीणा जनाः निष्करुणा भवन्ति।।
(चाणक्य नीति (संस्कृत सुभाषितानि )
भावार्थ - भूख से व्याकुल एक मां (अपने प्राण बचाने के लिये ) अपने पुत्र
को भी त्याग देती है , और एक भूखी सर्पणि स्वयं अपने ही अण्डो को खा जाती है। इसी लिये कहा गया है कि एक भूखा व्यक्ति कोई भी पाप (निषिद्ध
कार्य) कर सकता है तथा कमजोर व्यक्ति भी ऐसी परिस्थिति में निर्दय हो जाते हैं |
–राम-लक्ष्मण द्वारा वनवास काल के दौरान, मृग मारकर खाने और सीता को खिलाते हैं यह वाल्मीकि रामायण मे वर्णन है।
माना कि जीवित रहने के लिए आहार अनिवार्य है, तो भी दूसरे निर्दोष प्राणियों को मारकर अपनी उदर पूर्ति करना कोई महानता का गुण नहीं । जंगल ते फल फूल कन्इदमूल भी खाये जासकते हैं ।
तौतत्र हत्वा चतुरो महामृगान्
वराहमृष्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ
वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्।।
अयोध्या काण्ड 53/102
अर्थ- वहाँ वे दोनों (राम-लक्ष्मण), भूख लगने पर तुरन्त वराह, ऋष्य, पृषत और महारुरु नाम के चार महामृगों को मारकर उनका चर्बीयुक्त मांस लेकर, सायंकाल ठहरने के लिए पेड़ों के नीचे चले गये।
क्रोशमात्रं ततो गत्वा
भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
बहून मेध्यान मृगान
हत्वा चेरतुर्यमुनावने।।
अयो. काण्ड 55/32
अर्थ- कोसभर यात्रा करके दोनों भाई राम-लक्ष्मण, बहुत से चर्बीयुक्त मृगों को मारकर यमुना के तटीय वन में विचरण करने लगे।
निषसाद गिरिप्रस्थे
सीतां मांसेन छंदयन।
इदं मेद्यमिदं स्वादु
निष्टप्तमिदमग्निना।
अयो.काण्ड 96/1-2
अर्थ-राम, पर्वत की चौरस भूमि पर बैठकर दुःखी सीता का, मांस से, मन बहलाने लगे। यह कहते हुए कि, यह चर्बीयुक्त है, यह स्वादिष्ट है, इसे आग पर अच्छी तरह भूना गया है।
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महाभारत के शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या –4278 ।
राम जन्म भूमि को लेकर सुप्रीम कोर्ट में लगातार हो रही सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह पूछ कर कि क्या राम का वंशज अयोध्या या दुनिया में कही है? एक बार फिर पौराणिक दंत कथाओं व ऐतिहासिक तथ्यों को खंगाल कर सच्चाई जानने का मौका दिया है। विदित हो कि
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ईस्वी सन् 1556 में आमेर राज्य की स्थापना से ही आमेर का राजा भारमल तथा इसके वंशज खुद को श्री राम के तथाकथित वंशज कहते आ रहे हैं।
अकबर ने राजस्थान के ढूंढार क्षेत्र के ठिकानेदार भारमल की पौत्री से अपने वैवाहिक संबंध स्थापित किए तब अकबर ने आमेर को नया राज्य स्थापित कर भारमल को सौंपा।
तब भारमल ने अपने राजकवि तुलसीदास से कहा कि हमारा इतिहास लिखो।
तुलसीदास ने भारमल से कहा कि अभी इस वैवाहिक संबंध के कारण अन्य हिंदू रियासतों में इस वैवाहिक संबंध की निन्दा हो रही है ऐसे में इतिहास लिखना उचित नहीं।
इस बात पर भारमल ने कहा कि हम रामचंद्र जी के वंशज हैं उन पर तो लिखा जा सकता है। तब तुलसीदास ने भारमल के कहने पर रामचरितमानस की रचना की।
इसमें तुलसीदास ने इस विवादित राम जन्मभूमि का कहीं भी उल्लेख नहीं किया।
बादशाह फर्रूखसियर ने जयसिंह के आमेर राज्य को जब्त कर एक किला फतह करने के लिए भेजा जब जयसिंह ने किला फतह कर लिया तब बादशाह ने खुश होकर उसे सवाई की उपाधि व एक गांव अल्तम्गाह जागीर के तौर पर दिया। इस एक गांव की जागीर मिलने पर जयसिंह ने बादशाह से कहा कि जहांपनाह जब आपने मुझे सवाई की उपाधि ही दे दी तो कम से कम सवा गांव जागीर आप मुझे दें।
जय सिंह के मांग ही लेने पर बादशाह ने दी जागीर से लगता हुआ चौथाई गांव और दे दिया। उस जागीर में जयसिंह ने अपने नाम से 1725 में जयपुर राज्य की नींव रखी।
अब सुप्रीम कोर्ट के ये पूछे जाने पर कि क्या कोई श्री राम का वंशज इस दुनिया में है इस पर फिर जयपुर राजघराना तथाकथित वंशज बन ये कहकर सामने आया है कि हम श्री राम के बड़े पुत्र कुश की संतान हैं।
इस दावे पर भी अगर हम बाल्मीकि रामायण को खंगाले तो श्री राम के बड़े पुत्र कुश नहीं लव थे।
बाल्मीकि रामायण कहती है कि जब सीता जी बाल्मीकि आश्रम में रहने के दौरान सीता जी पानी लेने कुए पर गई तब लव उनके साथ चला गया।
बाल्मीकि जी ने जब कुटिया में देखा तो वहां लव नहीं था उन्होंने सोचा कि कहीं जंगली जानवर तो लव को नहीं ले गए सीता आएंगी और विलाप करेंगी। बाल्मीकि जी ने आश्रम में जमीन से कुशा (दूब) को उखाड़कर अपनी शक्ति से लव का हमशक्ल बच्चा बनाकर कुटिया में सुला दिया।
सीता जी जब लव के साथ कुएं से पानी लेकर कुटिया में आई तो लव जैसा हमशक्ल बच्चा सोता देख अचंभित रह गई।
वह बच्चा श्री राम की दूसरी संतान के रूप में जाना जाता है।
अति उत्तम तथ्यपरक तर्कपूर्ण जानकारी देने का प्रयास किया है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
Bhaiya ye farji h ya asli....topic Ka naam to Tumne farzi krke likhya h
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट का लेखक शायद कम पढ़़ा लिखा अंबेडकरवादी है क्योंकि इस मूर्ख को ये ही नहीं पता कि राम पहले हुए या बुद्ध,अबे मूर्ख जब बुद्ध पैदा ही नहीं हुआ तो राम उसका विरोध कैसे कर सकते थे?
जवाब देंहटाएंSaini morya Sakya Kushwaha
जवाब देंहटाएंसैनी मोर्य शाक्य कुशवाहा श्री राम के वंशज हैं
जवाब देंहटाएंअबे chutiye तुझे इतना भी ज्ञान नहीं कि बुद्ध राम का वंशज है
जवाब देंहटाएंककुत्स्थ क्षत्रिय समाज के बारे में बताये
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