इन दिनों सर्वोच्च न्यायालय में राम जन्मभूमि विवाद को लेकर प्रतिदिन जो सुनवाई चल रही है ।
उसी श्रृँखला में सर्वोच्च न्यायालय ने मामले के पैरोंकारों से पूछा कि क्या राम का कोई वंशज भारत में है।
क्या कोई जीवित उत्तराधिकारी है ?
राम के वंशज के रूप में है ।
तब राम जन्मभूमि न्यास के अधिवक्ता ने अनभिज्ञता जाहिर की ।
तभी कुशवाह समाज के आमेर- राजस्थान के राजघराने से उसके सदस्यों में एक विवाहित कन्या ने राम को अपना पूर्वज माना है व उनका वंशज होने का दावा ठोक दिया है।
आमेर जयपुर राजघराने की राजकुमारी भाजपा सांसद दिया कुमारी ने घोषणा कि वह राम के वंश की दो सौ आठ वीं पीढ़ी में है।
100 वर्ष में इंसानों की तीन पीढ़ियां गुजर जाती है अब आप विचार कीजिए इस हिसाब से भगवान राम का काल महज 6000 वर्ष प्राचीन घोषित होता है जबकि 5200 वर्ष कलयुग को प्रारंभ हुए हो चुके हैं और मर्यादा पुरुषोत्तम राम त्रेता युग में हुए थे अधिक ज्योतिष के अनुसार त्रेता युग की अवधि 864000 वर्ष है आगे आप अनुमान लगा सकते हैं।
वैदिक विद्वानों के अनुसार रघुकुल शिरोमणि राजा राम का उत्पत्ति काल कम से कम 800000 वर्ष प्राचीन हैं।
पीठिका :-किसी विशेष कुल की परंपरा में किसी विशेष व्यक्ति की संतति का क्रमागत स्थान।
किसी कुल या वंश में किसी विशेष व्यक्ति से आरंभ करके उससे ऊपर या नीचे के पुरुषों का निश्चित वर्षों पर आधारित गणनाक्रम में स्थान।
किसी व्यक्ति से या उसकी कुलपरंपरा में किसी विशेष व्यक्ति से आरंभ करके बाप, दादा, परदादे आदि अथवा बेटे, पोते, परपोते आदि के क्रम से पहला, दूसरा, चौथा आदि कोई स्थान। पुश्त।
संस्कृत रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द बनता है। राम का एक ग्रन्थ के अनुसार अर्थ इस सृष्टि का स्वामी भी होता हैं.
योगिनाम ह्रदये रमन्ति इति राम: अर्थात जो योगियों के ह्रदय में रमन्ते हैं और जो योगियों के आराध्य ॐ शव्द से हैं वो राम या श्री राम हैं.
'रम्' धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से सम्बद्ध है। वे श्री राम प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए यह 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें/ उन प्रभु में 'रमण' करते हैं (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं और वो राम हमारे सभी के लिए आदर्श प्रमुख विग्रह हैं इसलिए श्री राम हैं।
'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आदि शंकराचार्य ने पद्मपुराण का हवाला देते हुए कहते है कि जो नित्यानन्दस्वरूप हैं और जिन भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं।
वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है, और कई जगह वेदो में राम को इन्दर कहकर सम्बोधित किया गया है.
कहीं कहीं तो श्री राम को वेद पुरुष, और अनादि और आदि पुरुष और भी कहा गया है.इस कारन जो आन्नद के धाम हैं वो भगवान् श्री राम हैं. इसी कारन भगवान् को आन्नदकंद भी कहा जाता है. श्री राम, श्री विष्णु और श्री कृष्ण को आनंदकंद कहा जाता हैं.
ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है और कई जगह वेदो में राम को इन्दर कहकर सम्बोधित किया गया है।
(१०-३-३ तथा १०-९३-१४)। उनमें से भी एक जगह काले रंग (रात के अंधकार) के अर्थ में कहा गया है. श्री राम को काकुस्थ, इच्छवाकु और कौशलेश, अयोध्या नगरी के राजा इत्यादि नामो से बिभूषित हैं. चारो वेदो में श्री राम का वर्णन हैं.
तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है/ यद्यपि नीलकंठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथापरक अर्थ किये हैं/ ऋग्वेद में एक स्थल पर 'इक्ष्वाकुः' (१०-६०-४) का तथा एक स्थल पर 'दशरथ' (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है।
ब्राह्मण साहित्य में 'राम' शब्द का प्रयोग ऐतरेय ब्राह्मण में दो स्थलों पर (७-५-१{=७-२७} तथा ७-५-८{=७-३४})हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें 'रामो मार्गवेयः' कहा गया है, जिसका अर्थ आचार्य है।
शतपथ ब्राह्मण में एक स्थल परराम' शब्द का प्रयोग हुआ है (४-६-१-७)।
यहाँ 'राम' यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें 'राम औपतपस्विनि' कहा गया है।
नाम-व्युत्पत्ति एवं अर्थ
'रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द निष्पन्न होता है।
'रम्' धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से सम्बद्ध है। वे प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें 'रमण' करते (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं।
'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराण का हवाला देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं।
अवतार रूप में प्राचीनता
वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है।
(१०-३-३ तथा १०-९३-१४)। उनमें से भी एक जगह काले रंग (रात के अंधकार) के अर्थ में तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है
लेकिन वहाँ भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ-पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है। यद्यपि नीलकंठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथापरक अर्थ किये हैं, परन्तु यह उनकी निजी मान्यता है।
स्वयं ऋग्वेद के उन प्रकरणों में प्राप्त किसी संकेत या किसी अन्य भाष्यकार के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर 'इक्ष्वाकुः' (१०-६०-४) का तथा एक स्थल पर 'दशरथ' (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है।
ब्राह्मण साहित्य में 'राम' शब्द का प्रयोग ऐतरेय ब्राह्मण में दो स्थलों पर(७-५-१{=७-२७} तथा ७-५-८{=७-३४})हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें 'रामो मार्गवेयः' कहा गया है, जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार 'मृगवु' नामक स्त्री का पुत्र है।
शतपथ ब्राह्मण में एक स्थल पर'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (४-६-१-७)।
यहाँ 'राम' यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें 'राम औपतपस्विनि' कहा गया है।
तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों की ही देन है।
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आचार्य नीलकण्ठ चतुर्धर
जोकि (सत्रहवीं सदी ईस्वी) के संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार और भाष्य कार भी हैं ।
जो सम्पूर्ण महाभारत की टीका के लिए विशेष प्रख्यात हैं ।
आचार्य नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के दशम मण्डल के अन्तर्गत तृतीय सूक्त की तृतीय ऋचा में राम और सीता के होने का वर्णन क्या है।☣⬇
देखें---ऋग्वेद में सीता को लिए स्वसार (स्वसृ ) शब्द का प्रयोग- __________________________________________
भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥ _________________________________________
(ऋग्वेद १०।३।३) भावार्थ: श्री रामभद्र (भद्र) सीता जी के साथ (भद्रया) [ वनवास के लिए ] तैयार होते हुए (सचमान ) दण्डकारण्य वन (स्वसारं) यहाँ पत्नी अर्थ में अथवा -बहिन ) दौनों अर्थों में ।
जब आये थे (आगात्) , तब (पश्चात ) कपट वेष में कामुक (जारो) रावण सीता जी का हरण करने के लिए आता है (अभ्येति ), उस समय अग्नि देव हीं सीता जी के साथ थे ।
( अर्थात स्वयं सीता अग्नि में स्थित हो चुकी थी राम के कथन के अनुसार), अब रावण वध के पश्चात, देदीप्यमान तथा लोहितादी वर्णों वाली ज्वालाओं से युक्त स्वयं अग्नि देव हीं (सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि:) शुभ-लक्षणों से युक्त कान्तिमयी सीता जी के साथ [सीता जी का निर्दोषत्व सिद्ध करने के लिए] श्री राम के सम्मुख उपस्थित हुए (राममस्थात्) | ________________________________________
उपर्युक्त ऋचा में सीता के लिए स्वसा शब्द है;
जो राम और सीता को भाई-बहिन मानने के लिए भ्रमित करता है ।
और यह वैदिक ऋचाओं में प्राचीनत्तम हैं मिश्र की पुरातन कथाओं में रेमेशिस तथा सीतामुन शब्द राम और सीता का ही रूपान्तरण हैं ।
शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण :-
भद्र:- प्रथमा विभक्ति कर्ता कारक( भजनीयो ) ।
भद्रया - तृतीय विभक्ति करण कारक( भजनीयया-सीतया)सीता के द्वारा ।
सचमान:- सच् धातु आत्मनेपदीय रूप में शानच् प्रत्यय (विवाह विधिना संगतो वनं प्रति अनुगम्यमानश्च - विवाह विधि द्वारा संयुक्त होकर वन गमन के लिए अनुगामी ) ।
आगात:- गम् धातु लुंगलकार ( तेषु वनेषु विचरन् पञ्चवट्यां समागत:(चित्रकूटआदि अनेक वनों में वितरण करते हुए पञ्चवटी आ पहुँचे) ।
पश्चात् -( रामे लक्ष्मणे च मायामृग व्याजेन स्थानान्तरिते)
माया मृग मारीच द्वारा राम और लक्ष्मण दौंनों के स्थानान्तरित हो जाने के बाद ) ।
जार :- ( परस्त्री दूषक: ( परायी स्त्रीयों का सतीत्व भंग करने वाला अर्थात् रावण)
स्वसारं :- ( भगिनीं)बहिन अथवा पत्नी !
रामाश्रमम् :-(राम के आश्रम में अभ्येति:-( प्रप्नोति) पहुँचता है ।
सुप्रकेतैर्द्युभि:- तृतीय विभक्ति बहुवचन ( समुज्जवल तेजोभिरुपलक्षिता सीताम्
( पातिव्रत्य की तेजस्विता से देदीप्यमान सीता के लेकर )
उषद्भिर्वर्णै: तृतीय विभक्ति बहुवचन कान्तियुक्तवर्णोपलक्षित: (कान्ति युक्त वर्ण से युक्त )
अग्नि : अग्नि ने ।
रामम् अभ्यस्थात् -( राम के सामने उपस्थित हुए
भाष्य कार के अनुसार ऋग्वेद के दशम मण्डल के अन्तर्गत निन्यानवैं वें सूक्त में भी विशद रूप में राम कथा का वर्णन है!
इस सूक्त के द्रष्टा "वग्रा" ऋषि हैं ।
जिनका ही दूसरा नाम वाल्मीकि है ।
भाष्य कार ने उक्त सूक्त की व्याख्या राम के चरित्र से सम्बद्ध की है ।
ऋग्वेद 10/99/2 के अनुसार राम चरित्र इस प्रकार है ।⚛⏬
स हिद्युता विद्युता वेति सामं पृथुयोनिम् असुरत्व आससाद।
स सनीडेभि: प्रहसनो अस्य भर्तुर्नऋते सप्तथस्य माया:।। ऋग्वेद 10/99/2
(स हि ):- वही राम (द्युता) :- द्योतमान अपनी अभिव्यक्ति के द्वारा ( विद्युता :- विशेष प्रकाशमान माया शक्ति से ( सामम् :- राक्षसीय उपद्रवों के समन के लिए ) वा एति - बहुलता से अवतरित होता है (रावण) ।
असुरत्वात् - आसुरी यौनि के कारण !
पृथुयोनिम् -( पृथ्वी से उत्पन्न होने वाली सीता को )
आससाद ( उड़ा ले गया ) ।
स: वह राम ।
सनीडेभि: - समान लोक वासीयों को
( अस्यभर्तु: ) इनके स्वामीयों सहित ।
प्रसहान: -कष्टों को सहन करते हुए ।
सप्तथस्य - विष्णु परम्परा में समावेशित ब्रह्मा, कश्यप, मरीचि, पुलस्त्य, विश्रवा और रावण।
सातवें व्यक्ति की (माया ) कूटनीति का प्रभाव (ऋते -सत्य पर ।
न - नहीं हुआ।
ऋग्वेद संहिता 10/99/5 के अनुसार आचार्य नीलकण्ठ चतुर्धर का भाष्य इस प्रकार है ⏬
स रूद्रेभिरशस्तवार ऋभ्वा हित्वी गयमारे अवद्य आगत् वम्रस्य मन्ये मिथुना विक्त्री अन्नमभीत्यारोदयन् मुषायन् ।।
अर्थ:- स: (वह राम ) रूद्रेभिर् ( रूद्र अंश हनुमान आदि की सहायता से )
आरे अवद्य- अग्नि अग्नि परीक्षा द्वारा ।
ऋभ्वा - सत्य से भासमान सीता सहित।
गयम् - अपने गन्तव्य को ।
आगात - आगये ।
पश्चात् -अस्तवारो हित्वी - रजक निन्दा के कारण त्याग दी गयी ।
वम्रस्य - वाल्मीकि के ।
मिथुने - यमल शिष्य लव- कुश ।
विक्त्री - (रामायण ग्रन्थ के) विवरण करने वाले हुए। मन्ये - एेसा मानता हूँ।
मुषायन् :- तस्कर रावण ने चुराते हुए ।अन्नम् - भूमिजा सीता को ।
अभीत्य - जाकर चुराया ।
एैसे मिथ्या अपवाद के कारण सीता परित्यक्ता सीता ।अरोदयत् - रुदन करता थी ।
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