अत्रि-
टिप्पणी : जब तक हम मनोमय कोश तक सीमित रहते हैं, तब तक हमारी चेतना के तीन रूप होते हैं – भावनामय, क्रियामय और ज्ञानमय। मनोमय से ऊपर उठने पर, विज्ञानमय कोश में पहुँचने पर चेतना सिमट कर एकाकार हो जाती है। वही अ+त्रि= अत्रि है। अत्रि को सबका अत्ता (खाने वाला) भी कहा जाता है और उसकी निष्पत्ति अद् धातु से की जाती है
ऋग्वेद के पाँचवें मण्डल के ऋषि अत्रि व उनके पुत्र हैं। अत्रि ऋषि की प्रकृति को समझने के लिए वैदिक व पौराणिक साहित्य में विभिन्न प्रयास किए गए हैं।
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महाभारत अनुशासन पर्व ९३./८२ में अत्रि अपने नाम की निरुक्ति करते हुए कहते हैं कि जो अत्रि है, वही अत्रि है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे तुरीया अवस्था को अत्रि कह सकते हैं।
तब यह तीन से परे की अवस्था अत्रि कहलाएगी। पुराणों में अरात्रि की इस अवस्था की व्याख्या अत्रि-पत्नी अनसूया के रूप में की गई है। अनसूया अर्थात् अन्-असूर्या। अत्रि को तुरीयावस्था से सम्बन्धित करने की कल्पना की पुष्टि ऋग्वेद ५.४०.६ की ऋचा से होती है जहाँ अत्रि तुरीय ब्रह्म द्वारा राहु/स्वर्भानु से विद्ध सूर्य को प्राप्त करते हैं।
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वेदों में अत्रि को अग्नि के रूप में वर्णन किया गया है-
जो अवेस्ता ए जैंद में अतर" नाम से है।
देखें वेदों की निम्नलिखित ऋचाऐं-
यत्त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः।
अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः॥५॥
स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन् ।
गूळ्हं सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण ब्रह्मणाविन्ददत्रिः ॥६॥
ग्राव्णो ब्रह्मा युयुजानः सपर्यन्कीरिणा देवान्नमसोपशिक्षन् ।
अत्रिः सूर्यस्य दिवि चक्षुराधात्स्वर्भानोरप माया अघुक्षत् ॥८॥
यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः ।
अत्रयस्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥९॥
(ऋग्वेद 5/4/5-6-8-9)
अनुवाद:
अनुवाद:-जब असुर स्वर्भानु के द्वारा सूर्यदेव तुम्हारे ऊपर अंधकार फैला दिया, तब सारे लोक ऐसे दिखाई देने लगे, जैसे कोई अपने बहुत से स्वरूपों न जानते हुए भी मोहग्रस्त हो गया हो।५।
सायण-
इन चार प्रारम्भिक ऋचाओं में अत्रि के कर्म की प्रशंसा कि गयी है।
हे सूर्य ! तुमको असुर स्वर्भानु ने अन्धकार के द्वारा आच्छादित कर दिया ( ढ़क दिया) तब सभी लोक इस प्रकार दिखाई देने लगे जैसे सभी लोग अपने स्वरूपों को न जानते हुए मूढ़ता को प्राप्त हो गये हों५।
जब असुर स्वर्भानु के पुत्र सूर्य ने तुम्हारे ऊपर अंधकार फैला दिया, तब सारे लोक ऐसे दिखाई देने लगे, जैसे कोई अपना बहुवचन स्वरूप न जानते हुए भी मोहग्रस्त हो गया हो।'५।
विशेष:-
स्वर्भानु: राहु का एक नाम है , जो आरोही प्रवृत्ति का है, जो ग्रहण का कारण बनता है; वह कश्यप का पुत्र था, जो दानवों या असुरों की माता दनु से उत्पन्न हुआ था; एक अन्य संबंधपरक रूप से उसे हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका से उत्पन्न विप्रचिति का पुत्र माना जाता है।५।
जब हे इन्द्र , आप सूर्य के नीचे फैले स्वर्भानु की माया को दूर कर रहे थे , तब अत्रि ने अपनी चौथी पवित्र प्रार्थना द्वारा अंधकार में छिपे सूर्य को खोज लिया, जिससे इन्द्र के कार्यों में बाधा उत्पन्न हो रही थी।६।
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अनुवाद:- तब यज्ञ का एक ऋत्विक जो चार वेदों का जाननेवाला और पूरे कर्म का निरीक्षण करनेवाला होता उसके रूप में ( अत्रि ) ने मणियों को जोड़कर, देवताओं की स्तुति करके, उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके, आकाश में सूर्य का नेत्र स्थापित किया; उन्होंने स्वर्भानु के मोह को नष्ट कर दिया ।८।
अनुवाद:-सूर्य को, जिसे असुर स्वर्भानु ने अंधकार से ढक दिया था, बाद में अत्रि के पुत्रों ने पुनः प्राप्त कर लिया; अन्य कोई भी उसे मुक्त कराने में समर्थ नहीं हो सका।९।
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अत्रि ऋषि की एक निरुक्ति शतपथ ब्राह्मण १.४.५.१३ में की गई है जिसका निहितार्थ विचारणीय है। यहाँ प्रजापति द्वारा मन और वाक् के बीच मन को श्रेष्ठ घोषित करने पर वाक् के गर्भ का पतन हो जाता है जो अत्रि बनता है।
चूंकि वाक् मुख से निकलती है, अतः अत्रि को मुख से सम्बन्धित माना गया है जो सर्व प्रकार के अन्न का भक्षण करता है।
जैमिनीय ब्राह्मण २.२१९ में अत्रि व अन्य ऋषियों की प्रकृति की व्याख्या के प्रयास में कहा गया है कि अत्रि की कामना है कि उनकी प्रजा भूयिष्ठ हो। गोपथ ब्राह्मण १.२.१७ इत्यादि में उल्लेख है कि राहु द्वारा ग्रस्त सूर्य की रक्षा केवल अत्रि ही कर पाए, जिसके बदले में उन्होंने अपनी प्रजा को दक्षिणा प्राप्ति का अधिकार दिलाया।
अतः यज्ञ में सर्वप्रथम आत्रेय को हिरण्य दिया जाता है।
जैमिनीय ब्राह्मण २.२८१ के अनुसार पहले चार(अन्नमय, प्राणमय, मनोमय व विज्ञानमय कोश?) मिथुन हैं। यह बृहद् और रथन्तर (बहिर्मुखी व अन्तर्मुखी चेतना?) के दिव्य मिथुन हैं। पांचवें हिरण्यय कोश का मिथुन नहीं होता। अत्रि की कामना है कि यह चार कोश में वीर्य बन जाएं। वही वीर्य है जो आत्मा के वीर्य के अनुदिश वीर्य है।
ऋग्वेद ५.४० में अत्रि द्वारा राहु/स्वर्भानु से विद्ध( आच्छादित) सूर्य की रक्षा करने का उल्लेख है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस आख्यान का सार्वत्रिक उल्लेख है( जैमिनीय ब्राह्मण १.८०, शतपथ ब्राह्मण ४.३.४.२१, ताण्ड्य ब्राह्मण ६.६.८ व १४.११.१५ इत्यादि)। इस आख्यान में अत्रि द्वारा सूर्य से तम( अन्धकार) का अपाहन (निवारण) करने पर प्रथम बार कृष्णा अवि , दूसरी बार धूम्रा अवि और तीसरी बार फल्गु अवि की उत्पत्ति हुई। ताण्ड्य ब्राह्मण १४.११.१५ के अनुसार यज्ञ में जिन दिनों को छन्दोम कहा जाता है, वही तम का रूप हैं। यहां जिस अवि का उल्लेख है, उसकी व्याख्या उपनिषदों में अविमुक्त/वाराणसी के रूप में की गई है। जाबालोपनिषद २ व ५ तथा रामोत्तरतापिन्युपनिषद ३.१ में उल्लेख है कि अत्रि ने याज्ञवल्क्य से अनन्त, अव्यक्त, परिपूर्णानन्द आत्मा को जानने का उपाय पूछा। याज्ञवल्क्य ने उन्हें उत्तर के रूप में अविमुक्त क्षेत्र की महिमा के रूप में असि और वरणा नदियों के बीच भ्रूमध्य में स्थिति वाराणसी की महिमा बताई।
ऋग्वेद १.११६.८ इत्यादि में असुरों द्वारा ऋबीस? में बद्ध अत्रि की अश्विनौ द्वारा रक्षा करने का उल्लेख है। ऋग्वेद १.११२.७, १.११८.७ तथा १.१८०.४ इत्यादि के उल्लेख के अनुसार अत्रि जिस घर्म से परितप्त हो रहे थे, अश्विनौ ने उस घर्म को ओमान, मधुमान् बना दिया, अथवा उसे शीतल बना दिया(घर्म का एक रूप मनुष्य के अन्दर सर्वदा सुनाई देने वाली घॄं प्रकार की ध्वनि है। यह ओम का रूप बन जाए, यही अभीष्ट है।
ऋग्वेद की ५.७.८ इत्यादि कईं ऋचाओं में अग्नि से अत्रिवत् होकर आने की कामना की गई है। जैसे अत्रि सब कुछ भक्षण कर जाते हैं, वैसे ही अग्नि भी सब कुछ भक्षण कर जाती है।
ईरानी धर्मग्रन्थ अवेस्ता में अत्रि शब्द अतर के रूप में -अग्नि का वाचक है ।
जो वैदिक ऋचाओं में उद्धृत अत्रि अंगि है और वशिष्ठ का सहवर्ती है।।
वशिष्ठ को ईरानी धर्मग्रन्थ अवेस्ता में "वहिश्त" तथा अंगिरा को 'अंग्र' और यम को यिम कहा गय है।
ब्रह्माण्ड पुराण में अत्रि की वंशावली ब्राह्मणों की वंशावली के रूप में वर्णित है।
परन्तु अनुसूया नामक उनकी पत्नी का पता ही है
अनुसूया के माता पिता प्रजापति कर्दम और देवहूति थे। जबकि अत्रि की दश पत्नीयाँ घृताक्षी अप्सरा और भद्राश्व गन्धर्व की कन्याऐं हैं। निम्नलिखित श्लोकों में उनका वर्णन है।
अत्रि की मद्रा नाम की पत्नी से सोम उत्पन्न हुआ है।
अध्याय- (8) अत्रि का वंश- ब्रह्माण्ड पुराण मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद-
अत्रि का वंश- ब्रह्माण्ड पुराण मध्यभाग तृतीय उपोद्धातपाद-
अत्रेर्वशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः॥२/८/७३॥
मैं तीसरे प्रजापति अत्रि के वंश का वर्णन करूँगा।७३।
तस्य पत्न्यस्तु सुन्दर्यों दशैवासन्पतिव्रताः।
भद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः॥ २/८/७४॥
उन अत्रि की दस सुन्दर पत्नियाँ थीं जो पतिव्रता थीं। वे सभी दस दिव्य कन्या घृतासी से उत्पन्न भद्राश्व की संतान थे।७४।
भद्रा शूद्रा च मद्रा च शालभा मलदा तथा ।
बला हला च सप्तैता या च गोचपलाः स्मृताः ॥ २/८/७५॥
१-भद्रा , २-शूद्रा , ३-मद्रा ४-, शालभा , ५-मलदा , ६-बला और ७- हला । ये सात (बहुत महत्वपूर्ण थीं) और उनके जैसे अन्य। ८-गोचपला ।७५।
तथा तामरसा चैव रत्नकूटा च तादृशः ।
तत्र यो वंशकृच्चासौ तस्य नाम प्रभाकरः ॥ २/८/७६ ॥
९-ताम्रसा और १०- रत्नकुटा भी उसी प्रकार से अत्रि की दश पत्नीयाँ थीं उनके वंश को कायम रखने वाले उनके पुत्रों में प्रभाकर नामका एक वंशज भी हुआ ।७६।
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मद्रायां जनयामास सोमं पुत्रं यशस्विनम् ।
स्वर्भानुना हते सूर्ये पतमाने दिवो महीम् ॥ २/८/७७॥
उन प्रभाकर अत्रि ने मद्रा नामक पत्नी से प्रसिद्ध पुत्र सोम (चंद्रमा) को जन्म दिया। जब सूर्य पर स्वर्भानु ( राहु ) का प्रहार हुआ, जब वह सूर्य स्वर्ग से पृथ्वी पर गिर रहे था।77।
तमोऽभिभूते लोकेऽस्मिन्प्रभा येन प्रवर्त्तिता।
स्वस्ति तेस्त्विति चोक्तो वै पतन्निह दिवाकरः॥ २/८/७८॥
और जब यह संसार अंधकार से घिर गया, तब उन्हीं (अर्थात् अत्रि) के द्वारा ही प्रकाश (प्रभा) उत्पन्न हुआ। डूबते हुए सूरज को भी कहा गया “तुम्हारा कल्याण हो।78।
ब्रह्मर्षेर्वचनात्तस्य न पपात दिवो महीम् ।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः॥ २/८/७९॥
उस ब्राह्मण ऋषि के कथन के कारण, वह (सूर्य) स्वर्ग से पृथ्वी पर नहीं गिरा। जिनके द्वारा गोत्रों में श्रेष्ठ गोत्र अत्रि का प्रारम्भ हुआ।79।
यज्ञेष्वनिधनं चैव सुरैर्यस्य प्रवर्तितम् ।
स तासु जनयामास पुत्रानात्मसमानकान् ॥ २/८/८० ॥
उन्होंने ही यज्ञ के दौरान सुरों की मृत्यु का निवारण किया । उन्होंने उन प्रभाकर अत्रि ने (दस अप्सराओं) से अपने समान अनेक पुत्र उत्पन्न किए।८०।
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दश तान्वै सुमहता तपसा भावितः प्रभुः ।
स्वस्त्यात्रेया इति ख्याता ऋषयो वेदपारगाः ॥ २/८/८१।।
महान तप से पवित्र हुए भगवान ने दस पुत्र उत्पन्न किये। वे स्वस्त्यात्रेय नाम से विख्यात ऋषिगण वेदों में पारंगत थे।।८१।
तेषां द्वौ ख्यातयशसौ ब्रह्मिष्ठौ सुमहौजसौ ।
दत्तो ह्यनुमतो ज्येष्ठो दुर्वासास्तस्य चानुजः ॥ २/८/८२॥
उनमें दो बहुत प्रसिद्ध थे। वे ब्रह्मज्ञान में बहुत रुचि रखते थे और महान आध्यात्मिक शक्ति वाले थे।दत्त को सबसे बड़ा माना जाता है, दुर्वासा उनके छोटे भाई थे। ८२।
यवीयसी सुता तेषामबला ब्रह्मवादिनी ।
अत्राप्युदाहरन्तीमं श्लोकं पौराणिकाः पुरा ॥ २/८/८३॥
सबसे छोटी एक पुत्री थी जिसने ब्रह्मज्ञान की व्याख्या की थी। इस संदर्भ में पुराणों के जानकार लोग इस श्लोक का हवाला देते हैं।८३।
अत्रेः पुत्रं महात्मानं शान्तात्मानमकल्मषम् ।
दत्तात्रेयं तनुं विष्णोः पुराणज्ञाः प्रचक्षते ॥२/८/८४॥
पुराणों के जानकार कहते हैं कि अत्रि के महान् पुत्र दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। वे अपने हृदय में शान्त और पापों से मुक्त हैं।८४।
तस्य गोत्रान्वयाज्जाताश्चत्वारः प्रथिता भुवि ।
श्यावाश्वा मुद्गलाश्चैव वाग्भूतकगविस्थिराः ॥ २/८/८५॥
उनके (अत्रि) वंशजों में चार लोग पृथ्वी पर विख्यात हैं - श्यावाश्व , मुद्गल , वाग्भूतक और गविष्ठिर ।८५।
एतेऽत्रीणां तु चत्वारः स्मृताः पक्षा महौजसः।
काश्यपो नारदश्चैव पर्वतोऽरुन्धती तथा ॥ २/८/८६॥
निम्नलिखित चार भी अत्रि वंश के ही माने जाते हैं । वे बहुत शक्तिशाली हैं। वे हैं कश्यप , नारद , पर्वत और अरुन्धति ।८६।
सन्दर्भ:-
श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय उपोद्धातपादे ऋषिवंशवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोवाले, प्रज्वलित अग्नि के समान मुखोंवाले और अपने तेजसे संसारको संतप्त करते हुए देख रहा हूँ।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥६॥
ऋग्वेदः सूक्तं १०.९०-५-६-७
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥
सायण-भाष्य-
विष्वङ् व्यक्रामदिति यदुक्तं तदेवात्र प्रपञ्च्यते । “तस्मात् आदिपुरुषात् “विराट् ब्रह्माण्डदेहः “अजायत उत्पन्नः । विविधानि राजन्ते वस्तून्यत्रेति विराट् । “विराजोऽधि विराड्देहस्योपरि तमेव देहमधिकरणं कृत्वा “पुरुषः तद्देहाभिमानी कश्चित् पुमान् अजायत । सोऽयं सर्ववेदान्तवेद्यः परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया मायया विराड्देहं ब्रह्माण्डरूपं सृष्ट्वा तत्र जीवरूपेण प्रविश्य ब्रह्माण्डाभिमानी देवतात्मा जीवोऽभवत् । एतच्चाथर्वणिका उत्तरतापनीये विस्पष्टमामनन्ति---- स वा एष भूतानीन्द्रियाणि विराजं देवताः कोशांश्च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढो मूढ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव' (नृ. ता. २. १, ९) इति । “स “जातः विराट् पुरुषः “अत्यरिच्यत अतिरिक्तोऽभूत् । विराड्व्यतिरिक्तो देवतिर्यङ्मनुष्यादिरूपोऽभूत् । “पश्चात् देवादिजीवभावादूर्ध्वं “भूमिं ससर्जेति शेषः । “अथो भूमिसृष्टेरनन्तरं तेषां जीवानां “पुरः ससर्ज । पूर्यन्ते सप्तभिर्धातुभिरिति पुरः शरीराणि ॥॥१७॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥६॥
सायणभाष्य-
यत् यदा पूर्वोक्तक्रमेणैव शरीरेषुत्पन्नेषु सत्सु "देवाः उत्तरसृष्टिसिद्धयर्थं बाह्यद्रव्यस्यानुत्पन्नत्वेन हविरन्तरसंभवात् पुरुषस्वरूपमेव मनसा हविष्ट्वेन संकल्प्य “पुरुषेण पुरुषाख्येन “हविषा मानसं यज्ञम् “अतन्वत अन्वतिष्ठन् तदानीम् “अस्य यज्ञस्य “वसन्तः वसन्तर्तुरेव “आज्यम् “आसीत् अभूत् । तमेवाज्यत्वेन संकल्पितवन्त इत्यर्थः । एवं “ग्रीष्म “इध्मः आसीत्। तमेवेध्मत्वेन संकल्पितवन्त इत्यर्थः। तथा “शरद्धविः आसीत् । तामेव पुरोडाशादिहविष्ट्वेन संकल्पितवन्त इत्यर्थः । पूर्वं पुरुषस्य हविःसामान्यरूपत्वेन संकल्पः । अनन्तरं वसन्तादीनामाज्यादिविशेषरूपत्वेन संकल्प इति द्रष्टव्यम् ॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥७॥
सायणभाष्य-
विष्वङ् व्यक्रामदिति यदुक्तं तदेवात्र प्रपञ्च्यते । “तस्मात् आदिपुरुषात् “विराट् ब्रह्माण्डदेहः “अजायत उत्पन्नः । विविधानि राजन्ते वस्तून्यत्रेति विराट् । “विराजोऽधि विराड्देहस्योपरि तमेव देहमधिकरणं कृत्वा “पुरुषः तद्देहाभिमानी कश्चित् पुमान् अजायत । सोऽयं सर्ववेदान्तवेद्यः परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया मायया विराड्देहं ब्रह्माण्डरूपं सृष्ट्वा तत्र जीवरूपेण प्रविश्य ब्रह्माण्डाभिमानी देवतात्मा जीवोऽभवत् । एतच्चाथर्वणिका उत्तरतापनीये विस्पष्टमामनन्ति---- स वा एष भूतानीन्द्रियाणि विराजं देवताः कोशांश्च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढो मूढ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव' (नृ. ता. २. १, ९) इति । “स “जातः विराट् पुरुषः “अत्यरिच्यत अतिरिक्तोऽभूत् । विराड्व्यतिरिक्तो देवतिर्यङ्मनुष्यादिरूपोऽभूत् । “पश्चात् देवादिजीवभावादूर्ध्वं “भूमिं ससर्जेति शेषः । “अथो भूमिसृष्टेरनन्तरं तेषां जीवानां “पुरः ससर्ज । पूर्यन्ते सप्तभिर्धातुभिरिति पुरः शरीराणि ॥॥१७॥
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अब प्रमाणित करेंगे कि-
बुध की चन्द्रमा से उत्पत्ति भी पूर्णत: कुछ पुराणों में काल्पनिक थ्योरी पर आधारित है जो बाद में जोड़ी गयी है।
पुराणों में एक काल्पनिक कहानी बनाकर जोड़ी गयी ---"चंद्रमा के गुरु थे देवगुरु बृहस्पति। बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्रमा की सुन्दरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी।
तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास भी कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया।
बृहस्पति के वापस बुलाने पर उसने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया।
इस युद्ध में असुर गुरु शुक्राचार्य चंद्रमा की ओर हो गये और अन्य देवता बृहस्पति के साथ हो लिये। अब युद्ध बड़े स्तर पर होने लगा।
क्योंकि यह युद्ध तारा की कामना से हुआ था, अतः यह तारकाम्यम कहलाया।
इस वृहत स्तरीय युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि ये कहीं पूरी सृष्टि को ही नष्ट न कर जाए, तो वे बीच बचाव कर इस युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे।
उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चन्द्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंपा।
इस बीच तारा के एक सुन्दर पुत्र जन्मा जो बुध कहलाया।
चंद्र और बृहस्पति दोनों ही इसे अपना बताने लगे और स्वयं को इसका पिता बताने लगे यद्यपि तारा चुप ही रही।
माता की चुप्पी से अशांत व क्रोधित होकर स्वयं बुध ने माता से सत्य बताने को कहा। तब तारा ने बुध का पिता चन्द्र को बताया।
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दूसरे मत से तारा बृहस्पति की पत्नी थी। चंद्र उनके सौंदर्य से मोहित होकर विवाह प्रस्ताव दिया तो तारा ने उसे ठुकरा दिया। इससे चंद्र क्रोधित हो परे और बलपूर्वक उनका बलात्कार किया। इस बलात्कार के कारण तारा गर्भवती हुई और बुध का जन्म हुआ।
निष्कर्ष- चन्द्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह है
इसका द्रव्यमान पृथ्वी के द्रव्यमान का 1.2% है और इसका व्यास 3,474 किमी (2,159 मील) है, जो पृथ्वी के व्यास का लगभग एक-चौथाई है
बुध का व्यास चंद्रमा के व्यास से लगभग 40% अधिक है। बुध का व्यास 4,879 किलोमीटर है, जबकि चंद्रमा का व्यास 3,475 किलोमीटर है.
अर्थात 1,404 किलोमीटर व्यास बुध का ज्यादा होने से भी वह चन्द्रमा से बड़ा है।
अत:चन्दमा से बुध की उत्पत
_ भी सम्भव नहीं है।_______________________________
"अब इला की काल्पनिक सिद्धान्त हीन थ्योरी भी सुने
जो उसे सैद्धान्तिक रूप से इला को बुध की पत्नी नहीं बनाती हैं क्योंकि गर्भवास की पूर्ण अवधि नौ महीने होती है । और नौ महीनों तक इला का स्त्री बने रहना सम्भव नहीं- क्यों कि उन्हें एक महीना स्त्री और एक महीना पुरुष होना पड़ता है। *********************
इस प्रकार उनका न तो स्त्रीत्व ही सुरक्षित है और न पुरुषत्व ही ।
पुराणों के इसी आख्यान को हम निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत करते हैं जो मनगड़न्त है।
वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
अध्याय एक – राजा सुद्युम्न का स्त्री बनना (9.1)
1 राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु श्रील शुकदेव गोस्वामी, आप विभिन्न मनुओं से सारे कालों का विस्तार से वर्णन कर चुके हैं और उनमें असीम शक्तिमान पूर्ण भगवान के अद्भुत कार्यकलापों का भी वर्णन कर चुके हैं। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने आपसे ये सारी बातें सुनीं।
2-3 द्रविड़ देश के साधु सदृश राजा सत्यव्रत को भगवतकृपा से गत कल्प के अन्त में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और वह अगले मन्वन्तर में विवस्वान का पुत्र वैवस्वत मनु बना। मुझे इसका ज्ञान आपसे प्राप्त हुआ है। मैंने यह भी जाना कि इक्ष्वाकु इत्यादि राजा उसके पुत्र थे, जैसा कि आप पहले बतला चुके हैं।
4 हे परम भाग्यशाली श्रील शुकदेव गोस्वामी, हे महान ब्राह्मण, कृपा करके हमको उन सारे राजाओं के वंशों तथा गुणों का पृथक-पृथक वर्णन कीजिये, क्योंकि हम आपसे ऐसे विषयों को सुनने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं।
5 कृपा करके हमें वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न उन समस्त विख्यात राजाओं के पराक्रम के विषय में बतलायें जो पहले हो चुके हैं, जो भविष्य में होंगे तथा जो इस समय विद्यमान हैं।
6 सूत गोस्वामी ने कहा: जब वैदिक ज्ञान के पण्डितों की सभा में सर्वश्रेष्ठ धर्मज्ञ श्रील शुकदेव गोस्वामी से महाराज परीक्षित ने इस प्रकार से प्रार्थना की, तो वे इस प्रकार बोले।
7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे शत्रुओं का दमन करने वाले राजा, अब तुम मुझसे मनु के वंश के विषय में विस्तार से सुनो। मैं यथासम्भव तुम्हें बतलाऊँगा, यद्यपि सौ वर्षों में भी उसके विषय में पूरी तरह नहीं बतलाया जा सकता।
8 जीवन की उच्च तथा निम्न अवस्थाओं में पाये जाने वाले जीवों के परमात्मा दिव्य परम पुरुष कल्प के अन्त में विद्यमान थे, जब न तो यह ब्रह्माण्ड था, न अन्य कुछ था। तब केवल वे ही विद्यमान थे।
9 हे राजा परीक्षित, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की नाभि से एक सुनहला कमल उत्पन्न हुआ, जिस पर चार मुखों वाले ब्रह्माजी ने जन्म लिया।
10 ब्रह्माजी के मन से मरीचि ने जन्म लिया। दक्ष महाराज की कन्या और मरीचि के संयोग से कश्यप प्रकट हुए। कश्यप द्वारा अदिति के गर्भ से विवस्वान ने जन्म लिया।
11-12 हे भारतवंश के श्रेष्ठ राजा, संज्ञा के गर्भ से विवस्वान को श्राद्धदेव मनु प्राप्त हुए। श्राद्धदेव मनु ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था। उन्हें अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र प्राप्त हुए। इन पुत्रों के नाम थे – इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करुषक, पृषध्र, नभग तथा कवि।
13 आरम्भ में मनु को एक भी पुत्र नहीं था। अतएव आध्यात्मिक ज्ञान में अत्यन्त शक्ति सम्पन्न महर्षि वसिष्ठ ने (उसको पुत्र प्राप्ति के लिए) मित्र तथा वरुण देवताओं को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ सम्पन्न किया।
14 उस यज्ञ के दौरान मनु की पत्नी श्रद्धा, जो केवल दूध पीकर जीवित रहने का व्रत कर रही थी, यज्ञ करने वाले पुरोहित के निकट गई, उन्हें प्रणाम किया और उनसे एक पुत्री की याचना की।
15 प्रधान पुरोहित द्वारा यह कहे जाने पर "अब आहुति डालो" आहुति डालने वाले (होता) ने आहुति डालने के लिए घी लिया। तब उसे मनु की पत्नी की याचना स्मरण हो आई और उसने वषट शब्दोच्चार करते हुए यज्ञ सम्पन्न किया।
16 मनु ने वह यज्ञ पुत्र प्राप्ति के लिए प्रारम्भ किया था, किन्तु मनु की पत्नी के अनुरोध पर पुरोहित के विपथ होने से इला नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। इस पुत्री को देखकर मनु अधिक प्रसन्न नहीं हुए। अतएव वे अपने गुरु वसिष्ठ से इस प्रकार बोले।
17 हे प्रभु, आप लोग वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पटु हैं। तो फिर वांछित फल से विपरीत फल क्यों निकला? यही मेरे लिए शोक का विषय है। वैदिक मंत्रों का ऐसा उल्टा प्रभाव नहीं होना चाहिए था।
18 आप सभी संयमित, मन से संतुलित तथा परम सत्य से परिचित हो। आप सबने अपनी तपस्याओं के द्वारा सारे भौतिक कल्मषों से अपने आप को पूरी तरह स्वच्छ कर लिया है। आप सबके वचन देवताओं के वचनों की तरह कभी मिथ्या नहीं होते। तो फिर यह कैसे सम्भव हुआ कि आप सबका संकल्प विफल हो गया?
19 मनु के इन वचनों को सुनकर अत्यन्त शक्तिसम्पन्न प्रपितामह वसिष्ठ पुरोहित की त्रुटि को समझ गए। अतः वे सूर्यपुत्र से इस प्रकार बोले।
20 तुम्हारे पुरोहित द्वारा मूल उद्देश्य में विचलन के कारण लक्ष्य में यह त्रुटि हुई है। फिर भी मैं अपने पराक्रम से तुम्हें एक अच्छा पुत्र प्रदान करूँगा।
21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, अत्यन्त सुविख्यात एवं शक्तिसम्पन्न वसिष्ठ ने यह निर्णय लेने के बाद, परम पुरुष भगवान विष्णु से इला को पुरुष में परिणत करने के लिए प्रार्थना की।
22 परम नियन्ता परमेश्वर ने वसिष्ठ से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वरदान दिया। इस तरह इला सुद्युम्न नामक एक सुन्दर पुरुष में परिणत हो गई।
23-24 हे राजा परीक्षित, एक बार वीर सुद्युम्न अपने कुछ मंत्रियों और साथियों के साथ, सिंधुप्रदेश से लाये गये घोड़े पर सवार होकर शिकार करने जंगल में गया। वह कवच पहने था और धनुष-बाण से सुसज्जित था। वह अत्यन्त सुन्दर था। वह पशुओं का पीछा करते हुए तथा उनको मारते हुए जंगल के उत्तरी भाग में पहुँच गया।
25 वहाँ उत्तर में मेरु पर्वत की तलहटी में सुकुमार नामक एक वन है जहाँ शिवजी सदैव उमा के साथ आनन्द-विहार करते हैं। सुद्युम्न उस वन में प्रविष्ट हुआ।
26 हे राजा परीक्षित, ज्योंही अपने शत्रुओं को दमन करने में निपुण सुद्युम्न उस जंगल में प्रविष्ट हुआ, त्योंही उसने देखा कि वह एक स्त्री में और उसका घोड़ा एक घोड़ी में परिणत हो गये हैं।
27 जब उसके साथियों ने भी अपने स्वरूपों एवं अपने लिंग को विपरीत लिंग में परिणत हुआ देखा, तो वे सभी अत्यन्त खिन्न हो गये और एक दूसरे की ओर देखते रह गये।
28 महाराज परीक्षित ने कहा: हे सर्वश्रेष्ठ शक्तिसम्पन्न ब्राह्मण, यह स्थान इतना शक्तिशाली क्यों था और किसने इसे इतना शक्तिशाली बनाया था? कृपा करके इस प्रश्न का उत्तर दीजिये, क्योंकि मैं इसके विषय में जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।
29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार आध्यात्मिक अनुष्ठानों का दृढ़ता से पालन करने वाले महान साधु पुरुष उस जंगल में शिवजी का दर्शन करने आए। उनके तेज से समस्त दिशाओं का सारा अंधकार दूर हो गया।
30-31 जब देवी अम्बिका ने इन महान साधु पुरुषों को देखा, तो वे अत्यधिक लज्जित हुईं। साधु पुरुषों ने देखा कि गौरीशंकर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिए वे वहाँ से लौट गए और नर-नारायण आश्रम की ओर चल पड़े।
32 तत्पश्चात अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने कहा, “कोई भी पुरुष इस स्थान में प्रवेश करते ही तुरन्त स्त्री बन जाएगा।”
33 उस समय से कोई भी पुरुष ने उस जंगल में प्रवेश नहीं किया था। किन्तु अब राजा सुद्युम्न स्त्री रूप में परिणत होकर अपने साथियों समेत एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमने लगा।
34 सुद्युम्न सर्वोत्तम सुन्दर स्त्री रूप में परिणत कर दिया गया था और वह अन्य स्त्रियों से घिरी हुई थी। चन्द्रमा के पुत्र बुध को इस सुन्दरी को अपने आश्रम के निकट विचरण करते देखकर उसके साथ भोग करने की चाहत हुई।
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35 उस सुन्दर स्त्री ने भी चन्द्रमा के राजकुमार बुध को अपना पति बनाना चाहा। इस तरह बुध ने उसके गर्भ से पुरूरवा नामक एक पुत्र प्राप्त किया।
36 मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरु वसिष्ठ का स्मरण किया।
37 सुद्युम्न की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए। उन्होंने सुद्युम्न को उसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से फिर से शिवजी की पूजा प्रारम्भ कर दी।
38-39 हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हुए। अतएव शिवजी ने उन्हें संतुष्ट करने तथा पार्वती को दिये गये अपने वचन को रखने के उद्देश्य से उस सन्त पुरुष से कहा, “
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आपका शिष्य सुद्युम्न एक मास तक नर रहेगा और दूसरे मास नारी होगा। इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन कर सकेगा।
मासं पुमान् स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः ।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम् ॥ ३९ ॥
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40 इस प्रकार गुरु की कृपा पाकर शिवजी के वचनों के अनुसार सुद्युम्न को प्रत्येक दूसरे मास में उसका इच्छित पुरुषत्व फिर से प्राप्त हो जाता था और इस तरह उसने राज्य पर शासन चलाया, यद्यपि नागरिक इससे संतुष्ट नहीं थे।
तस्योत्कलो गयो राजन् विमलश्च सुतास्त्रयः ।
दक्षिणापथराजानो बभूवुः धर्मवत्सलाः ॥ ४१॥
41 हे राजन, सुद्युम्न के तीन अत्यन्त पवित्र पुत्र हुए जिनके नाम थे उत्कल, गय तथा विमल, जो दक्षिणा-पथ के राजा बने।
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( पुरूरवा या गोप रूप में वर्णन-)
ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम् ॥ ४२॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे प्रथमोध्याऽयः ॥१॥
42 तत्पश्चात, समय आने पर जब जगत का राजा सुद्युम्न काफी वृद्ध हो गया, तो उसने अपने गो समुदाय को अपने पुत्र पुरूरवा को सौंपकर और स्वयं जंगल में चला गया।
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वेदाभ्यासरतस्यास्य प्रजाकामस्य मानसाः।
मनसः पूर्वसृष्टा वै जातायत्तेन मानसाः।। ३.५ ।।
मरीचिरभवत् पूर्व ततोऽत्रिर्भगवान् ऋषिः।
अङिगराश्चाभवत्पश्चात् पुलस्त्यस्तदनन्तरम्।३.६।
मत्स्यपुराण /अध्यायः (३)
बह्मा के मन से केवल मरीचि उत्पन्न हुए है। इस लिए वे ही मानस पुत्र कहलाए!
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परावरेषां भूतानां आत्मा यः पुरुषः परः।
स एवासीद् इदं विश्वं कल्पान्ते अन्यत् न किञ्चन ॥८॥
तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोषो हिरण्मयः ।
तस्मिन् जज्ञे महाराज स्वयंभूः चतुराननः ॥९॥
मरीचिः मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः ।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वान् अभवत् सुतः ॥१०॥
(भागवत पुराण स्कन्ध 9/1-अध्याय )
अनुवाद-
8 जीवन की उच्च तथा निम्न अवस्थाओं में पाये जाने वाले जीवों के परमात्मा दिव्य परम पुरुष कल्प के अन्त में विद्यमान थे, जब न तो यह ब्रह्माण्ड था, न अन्य कुछ था। तब केवल वे ही विद्यमान थे।
9 हे राजा परीक्षित, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की नाभि से एक सुनहला कमल उत्पन्न हुआ, जिस पर चार मुखों वाले ब्रह्माजी ने जन्म लिया।
ब्रह्माजी के मनसे मरीचि और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदितिसे विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ॥ 10।
इला शब्द के वैदिक अर्थ हैं।
इला - पृथ्वी । बुद्धिमती स्त्री । गाय। वाणी- (काव्यत्व शक्ति)। आदि-
कृत्वा स्त्रीरूपमात्मानमुमेशो गोपतिध्वजः ।
देव्याः प्रियचिकीर्षुः संस्तस्मिन्पर्वतनिर्झरे । ७.८७.१२ ।
ये तु तत्र वनोद्देशे सत्त्वाः पुरुषवादिनः ।
वृक्षाः पुरुषनामानस्तेऽभवन् स्त्रीजनास्तदा । ७.८७.१३ ।
यच्च किञ्चन तत्सर्वं नारीसञ्ज्ञं बभूव ह ।एतस्मिन्नन्तरे राजा स इलः कर्दमात्मजः ।निघ्नन्मृगसहस्राणि तं देशमुपचक्रमे । ७.८७.१४।
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स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्यालमृगपक्षकम् ।आत्मनं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन ।। ७.८७.१५ ।।
( वाल्मीकि रामायण में इला की अन्य पुराणों से भिन्न कथा- )
अनुवाद:-
अध्याय 87 - इला की कहानी
यच्च किञ्चन तत्सर्वं नारीसञ्ज्ञं बभूव ह ।एतस्मिन्नन्तरे राजा स इलः कर्दमात्मजः।निघ्नन्मृगसहस्राणि तं देशमुपचक्रमे । ७.८७.१४।
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स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्यालमृगपक्षकम् ।आत्मनं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन ।। ७.८७.१५ ।।
इला ( संस्कृत : इल ) या इला ( किंवदंतियों में एक देवता है , जो अपनी लिंग परिवर्तन के लिए जाना जाता है। पुरुष के रूप में उन्हें इला या सुद्युम्न के नाम से जाना जाता है और महिला के रूप में उन्हें इला कहा जाता है। इला को भारतीय राजवंश के चंद्र वंश का मुख्य पूर्वज माना जाता है - जिसे इला ("इला के वंशज") के रूप में भी जाना जाता है।
इला/इला | |
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![]() बुध (बुध) पत्नी इला के साथ | |
देवनागरी | इल/इला |
संस्कृत लिप्यंतरण | इला/इला |
संबंध | देवी |
धाम | बुधलोक |
मंत्र | ॐ इल्ली नमः |
व्यक्तिगत जानकारी | |
अभिभावक |
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भाई-बहन | इक्ष्वाकु और 9 अन्य |
बातचीत करना | बुद्ध (एक महिला के रूप में) |
बच्चा | पुरुरवा (स्त्री के रूप में पुत्र) उत्कल, गया और विनताश्व (पुरुष के रूप में पुत्र) |
जबकि कहानी के कई संस्करण मौजूद हैं, इला को आम तौर पर वैवस्वत मनु की बेटी या बेटे के रूप में वर्णित किया गया है और इस प्रकार सौर राजवंश के संस्थापक इक्ष्वाकु के भाई-बहन के रूप में वर्णित किया गया है। जिन वर्जन में इला का जन्म महिला के रूप में हुआ है, वह अपने जन्म के तुरन्त बाद दैवीय प्रभाव से पुरुष के रूप में परिवर्तित हो गई है। गलती से एक वयस्क के रूप में पवित्र उपवन में प्रवेश करने के बाद, इला को या तो हर महीने लिंग निर्धारण या एक महिला बनने का शाप दिया जाता है। एक महिला के रूप में, इला ने बुध ग्रह के देवता और चंद्र देवता चंद्र (सोम) के पुत्र बुध से विवाह किया, और उनके चंद्र वंश के पिता पुरुरवा ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुरुरवा के जन्म के बाद इला ने फिर एक आदमी की जगह ले ली और तीन बेटों को जन्म दिया।
वेदों में , इला की इदा ( संस्कृत : इड़ा ), वाणी की देवी के रूप में प्रशंसा की गई है, और इसे पुरुरवा की माँ के रूप में वर्णित किया गया है।
इला के महाकाव्य की कहानी पुराणों के साथ-साथ भारतीय महाकाव्यों , रामायण और महाभारत में भी वर्णित है।
जन्म
लिंग पुराणऔरमहाभारतके अनुसार , इला का जन्म मानव जाति के पूर्वज वैवस्वत मनु और उनकी पत्नी श्रद्धा की सबसे बड़ी बेटी के रूप में हुआ था।हालाँकि, माता-पिता एक बेटे की इच्छा रखते थे और इसलिए मित्रऔरवरुणदेवताओं को प्रणाम करने के लिए प्रार्थना और तपस्या की मांग की गई , इला का लिंग बदल दिया गया। लड़के का नाम सुद्युम्मन रखा गया। [1] [2] भागवतपुराण,देवी-भागवत पुराण, [3] कूर्मपुराण,हरिवंश,मार्कंडेय पुराणऔरपद्म पुराण(आदि भागवत पुराण आदि ग्रंथों के रूप में) एक प्रकार का वर्णन करते हैं : इला के माता-पिता को लंबे समय तक कोई सन्तान नहीं हुआ और उन्होंने समाधान के लिएअगस्त्य ऋषि के पास पहुंचे। ऋषि ने दंपत्ति के लिए पुत्रप्राप्ति के लिए मित्रा और वरुण ने एक को समर्पित किया यज्ञ (अग्नि यज्ञ) किया। या तो अनुष्ठान में त्रुटि के कारण या बलिदान में विफलता के कारण, मित्रा और वरुण ने एक बेटी को भेजा। एक संस्करण में, इसमें देवताओं से प्रार्थना की, प्रार्थना इला का लिंग बदल दिया गया। दूसरे संस्करण में, यह परिवर्तन तब होता है जब त्रुटिपूर्ण मंत्रों में सुधार किया जाता है और पुत्र को दोष दिया जाता है। [2] [4] [5] [6] एक प्रकार के अनुसार, श्रद्धा एक बेटी की कामना करती थी; यज्ञ समयवशिष्ठ ने उनकी इच्छा पर ध्यान दिया और इस प्रकार, एक बेटी का जन्म हुआ। हालाँकि, मनु एक बेटे की इच्छा रखते थे इसलिए श्रद्धा ने विष्णु से अपनी बेटी के लिंग परिवर्तन की अपील की। इला का नाम महिमा सुद्युम्न रखा गया। [7] वृत्तांतों में इला को मनु की सबसे बड़ी या सबसे छोटी संतान के बारे में बताया गया है। मनु के संत के रूप में इला के नौ भाई थे, जिनमें सबसे उल्लेखनीय सौर वंश के संस्थापक इक्ष्वाकुथे। [8] [9] [10] मनु के पुत्र के रूप में इला सूर्य के स्थान हैं । [11] वायु पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण में एक अन्य वृत्तान्त के अनुसार इला का जन्म स्त्री से हुआ था और वह स्त्री ही बनी रही। [10]
रामायणइला का जन्म भगवान ब्रह्मा की छाया से हुआप्रजापतिकर्दम के पुत्र के रूप में हुआ है। इला की कहानी रामायण के उत्तर कांड अध्याय में अश्वमेध -घोड़े के बलिदान की महिमा का वर्णन बताया गया है। [5] [12]
बुध को श्राप और विवाह

रामन ,लिंग पुराणऔरमहाभारतमें , इला बहलिका का राजा बन जाता है । एक जंगल में शिकार करते समय, इला ने गलती से श्रवण ("नरकट का जंगल"), जो भगवान शिव की पत्नी देवी थीपार्वती का पवित्र उपवन था, में व्यवस्था कर ली । श्रवण में प्रवेश करने पर, शिव को ठीक करने के लिए सभी पुरुष, जिनमें पेड़ और जानवर भी शामिल हैं, महिलाओं को बदल दिया जाता है। [टिप्पणियाँ 1]
एक किंवदंती है कि एक मादा यक्षिणी ने अपने पति को राजा से बचाने के लिए खुद को हिरण के रूप में प्रच्छन्न किया और इला को उपवन में ले लिया। [11] लिंग पुराण और महाभारत में इल के लिंग परिवर्तन से चंद्र वंश प्रारंभ होने के लिए शिव का एक रेखांकित कार्य बताया गया है। [1] भागवत पुराण और अन्य। पाठ हैं कि इला के पूरे दल ने, साथ ही उसके घोड़ों ने भी अपना लिंग बदल लिया। [4]
रामायणके अनुसार , जब इला मदद के लिएशिवके पास समुद्री डाकू, तो शिव ने हँसी उड़ाई, लेकिन प्यारी पार्वती ने श्राप को कम कर दिया और इला को हर महीने लिंग परिवर्तन की लंबाई दी। हालाँकि, एक पुरुष के रूप में, वह एक महिला के रूप में अपने जीवन को याद नहीं करती और इसके विपरीत। जब इला अपनी महिला परिचारिका के साथ अपने नए रूप में जंगल में घूम रही थी,बुध ग्रहचंद्रमा और देव के देवताचंद्रके पुत्र बुद्ध ने उस पर ध्यान दिया।हालाँकि वह तपस्याकर रहा था , लेकिन इला की स्वाभाविकता के कारण उसकी पहली नजर उसी से प्यार हो गई। बुद्ध ने इला के परिचारकों कोकिम्पुरुष(उभयलिंगी, अर्थात् "क्या यह एक आदमी है?") में बदल दिया गया और उन्हें भाग जाने का आदेश दिया गया, यह वादा करता है कि वे इला के समान मित्र की तलाश करते हैं। [14]
इला ने बुध से विवाह किया और उसके साथ पूरा एक महीना बिताया और विवाह संपन्न किया। हालाँकि, इला एक सुबह सुद्युम्न के रूप में उठी और उसे पिछले महीने के बारे में कुछ भी याद नहीं था। बुद्ध ने इला को बताया कि उसके अनुचर पत्थरों की बारिश में मारे गए हैं और इला को एक साल तक उसके साथ रहने के लिए मना लिया। एक महिला के रूप में बिताए प्रत्येक महीने के दौरान, इला ने बुद्ध के साथ अच्छा समय बिताया। एक पुरुष के रूप में प्रत्येक महीने के दौरान, इला ने पवित्र तरीकों की ओर रुख किया और बुद्ध के मार्गदर्शन में तपस्या की। नौवें महीने में इला ने पुरुरवा को जन्म दिया , जो बड़े होकर चंद्र वंश के पहले राजा बने। तब, बुध और इला के पिता कर्दम की सलाह के अनुसार, इला ने शिव को प्रसन्न किया और शिव ने इला का पुरुषत्व स्थायी रूप से बहाल कर दिया। [5] [14]
विष्णु पुराण की एक अन्य किंवदंती में विष्णु को सुद्युम्मा के रूप में इला की मर्दानगी बहाल करने का श्रेय दिया गया है। [2] [15] भागवत पुराण और अन्य। ग्रंथों से पता चलता है कि पुरुरवा के जन्म के बाद, इला के नौ भाइयों - घोड़े की बलि से - या ऋषि वशिष्ठ - इला के पारिवारिक पुजारी - ने शिव को प्रसन्न किया और उन्हें इला को एक महीने के पुरुषत्व का वरदान देने के लिए मजबूर किया, जिससे वह किम्पुरुष में बदल गया। . [3] [4] [9] लिंग पुराण और महाभारत में पुरुरवा के जन्म का वर्णन है, लेकिन इला की वैकल्पिक लिंग स्थिति के अंत का वर्णन नहीं किया गया है। वास्तव में, महाभारत में इला को पुरुरवा की माता और पिता दोनों बताया गया है। [16] वायु पुराण और ब्रह्मांड पुराण में पाए गए एक अन्य वृत्तांत के अनुसार , इला का जन्म महिला से हुआ था, उसने बुध से शादी की, फिर सुद्युम्न नामक एक पुरुष में बदल गई। तब सुद्युम्न को पार्वती ने श्राप दिया और वह एक बार फिर स्त्री में बदल गया, लेकिन शिव के वरदान से वह एक बार फिर पुरुष बन गया। [10]
कहानी के लगभग सभी संस्करणों में, इला एक पुरुष के रूप में रहना चाहती है, लेकिन स्कंद पुराण में , इला एक महिला बनना चाहती है। राजा इला (इला) ने सहया पर्वत पर पार्वती के उपवन में प्रवेश किया और इला स्त्री बन गयी। इला एक महिला बनकर रहना चाहती थी और गंगा नदी की देवी पार्वती (गौरी) और गंगा की सेवा करना चाहती थी। हालाँकि, देवी-देवताओं ने उसे मना कर दिया। इला ने एक पवित्र कुंड में स्नान किया और इला के रूप में लौट आई, दाढ़ी वाली और गहरी आवाज वाली। [5] [17]
बाद का जीवन और वंशज
पुरुरवाके माध्यम से इला के वंशजों को इला के बाद ऐलास याचंद्र-देवता चंद्र के पुत्र बुद्ध से उनके वंश को चंद्र वंश (चंद्रवंश) के रूप में जाना जाता है। [18] [5] कहानी के अधिकांश संस्करण इला को ऐलास के पिता और माता भी कहते हैं। [19] लिंगपुराणऔरमहाभारत, जिसमें सुद्युम्मा का श्राप समाप्त नहीं हुआ है, में कहा गया है कि एक पुरुष के रूप में, सुद्युम्मा ने उत्कल दिया, औरविनताश्व(जिन्हें हरितश्व और विनता के नाम से भी जाना जाता है) तीन पुत्रों को जन्म दिया। [10] त्रिपुत्रों ने अपने पिता के लिए राज्य पर शासन किया क्योंकि सुद्युम्मा अपने बाल लिंग के कारण स्वयं ऐसा करने में अक्षम थी। पुत्रों और रियासतों को सौद्युम्न कहते हैं। उत्कल, गया और विनाश ने क्रमशःउत्कलदेश,गयाऔर उत्तरकौरवों सहित पूर्वी क्षेत्रों पर शासन किया। [20] [21] पारिवारिक पुजारी वसिष्ठ की सहायता से सुद्युम्मा ने पूरे राज्य पर फिर से नियंत्रण हासिल कर लिया। उनका उत्तराधिकारी पुरुरवा ने किया। [1]
मत्स्य पुराणमें , इला को स्त्री या किंपुरुष बनने के बाद वंशावली से शुरू किया गया था। इला के पिता ने अपनी विरासत सीधे पुरुरवा को दे दी, इला-सुद्युम्मा के पुरुष के रूप में जन्मे तीन पुत्रियों को जन्म दिया गया। पुरुरवा ने प्रतिष्ठानपुरा (वर्तमान)इलाहाबाद) से शासित, जहां इला उनके साथ रही। [9] [22] रामायण में कहा गया है कि मर्दानगी में वापसी के बाद, इला ने प्रतिष्ठा पर शासन किया, जबकि उनके पुत्र शशबिंदु ने बहलिका पर शासन किया ।किया।। [14] देवी -भागवत पुराण में बताया गया है कि एक पुरुष के रूप में सुद्युम्मा ने राज्य पर शासन किया था और एक महिला के रूप में वह घर के अंदर रहती थी। उनका पेज उनके लिंग परिवर्तन से संबंधित था और उनका अब पहले जैसा सम्मान नहीं था। जब पुरुरवा वयस्क हो गया, तो सुद्युम्मा ने अपना राज्य पुरुरवा पर विजय प्राप्त कर ली और तपस्या के लिए जंगल में चली गई। ऋषिनारदने सुद्युम्मा को नौ पेपर वालामंत्र, नवाक्षर , निर्देशित , जोसर्वोच्च देवी कोइच्छा । उनकी तपस्या से अभिनीत, देवी सुद्युम्मा के रूप में प्रकट हुईं, जो उनकी महिला के रूप में इला में थीं। सुद्युम्मा ने देवी की स्तुति की, राजा की आत्मा को अपने साथ मिला लिया और इस प्रकार, इला को मोक्ष प्राप्त हुआ। [3]
भागवत पुराण , देवी-भागवत पुराण और लिंग पुराण में यह घोषणा की गई है कि इला पुरुष और महिला दोनों की शारीरिक रचना के साथ स्वर्ग में व्याख्या की गई है। [19] इला को पुरुरवा के माध्यम से चंद्र राजवंश का और उनके भाई इक्ष्वाकु और पुत्रों का उत्कल, और विन्तश्व के माध्यम से सौर राजवंश का मुख्य पूर्वज माना जाता है। [9] [23] सूर्य की संतान इला और चंद्रमा के पुत्र बुद्ध का विवाह, शास्त्रों में दर्ज सूर्य और चंद्र के पुत्र का पहला मिलन है। [11]
"वैदिक साहित्य में इला-
वैदिक साहित्य इला को इदा के नाम से भी जाना जाता है।ऋग्वेद इदा में भोजन और जलपान का प्रतीक है, जिसे वाणी की देवी के रूप में जाना जाता है। [24] इला-इदा का संबंध ज्ञान की देवी से हैसरस्वती से भी है। [6] इला-इदा का उल्लेखऋग्वेदमें कई बार किया गया है, ज्यादातरअप्रसूक्त नामकभजनों में । उनका उल्लेख अक्सर सरस्वती और भारती (या माही) के साथ किया जाता है और पुरुरवा को उनके पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। [25] इडा अनुष्ठानिक यज्ञ करने में मनु के प्रशिक्षक हैं। वेदों के भाष्यकारसयानाके अनुसार - वह पृथ्वी की राजधानी है। [24] ऋग्वेद 3.123.4 में उल्लेख है कि "इला की भूमि" सरस्वती नदी के किनारे स्थित थी। [26] ऋग्वेद 3.29.3 में अग्नि को इला का पुत्र बताया गया है। [27]
शतपथ ब्राह्मणमें ,मनु नेसंतमूर्ति के लिए अग्नि-यज्ञ किया गया था। इदा यज्ञ से प्रकट हुई। उस परमित्र-वरुणने दावा किया था, लेकिन वह मनु के साथ रहे और उन्होंने मनु की रचना की शुरुआत की। [24] [28] इस पाठ में, इडा बलि के भोजन की देवी है। उन्हें मानवी (मनु की बेटी) और घृतपदी (घीटपकाने वाले पैर वाली) के रूप में वर्णित है और एक यज्ञ के दौरान उनके प्रतिनिधि एक गायक द्वारा किया जाता है, जिसे इडा भी कहा जाता है। [29] [30] पाठ में पुरुरवा का उल्लेख इला के पुत्र के रूप में किया गया है। [31]
यादवों की गोप जाति की उत्पत्ति गोप सम्राट पुरूरवा और आभीर कन्या उर्वशी से हुई-
सन्दर्भ- मत्स्य पुराण , पद्म पुराण और ऋग्वेद-
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सृष्टि सर्जन खण्ड)
"यादवों के आदि पूर्वज पुरूरवा गोप और गोप जातीय कन्या उर्वशी का वैदिक तथा पौराणिक विवरण और उनकी सन्तानों का परिचय-
सर्वप्रथम ऋग्वेद के मण्डल (१०) सूक्त (९०) की ऋचा संख्या- १३-१४ में पुरूरवा के आदि श्रोत चन्द्रमा( ) की उत्पत्ति विराट विष्णु ( विराट पुरुष ) से कही गयी है।
📚: उधर इसी ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥३॥ (ऋग्वेद-10/95/3)
गोषा -गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु विट् प्रत्यय। अर्थात् --जो गाय की सेवा करता है वह गोष: है। । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” “ शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः”
ऋग्वेद- ६।३३ ।५। अत्र “घरूपेत्यादि” पाणिनि- सूत्र गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
गोषन् (गोष:)गां सनोति सन--विच् । “सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्वपदात् वा षत्वम् । गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” (ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।)
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।
उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा शब्द गोसेवक के वाचक हैं। लौकिक भाषा में यही घोष रूप में यादवों की गोपालन वृत्ति को सूचित करने लगा ।
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पुरूरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
वही उर्वशी जिसे पुराणों में ललित कलाओं की विशेषज्ञा अप्सराओं ( संगीत विशेषज्ञ गन्धर्वों की सहवर्ती ) की स्वामिनी बताया गया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में अपनी विभूति भगवान श्रीकृष्ण ने उर्वशी को बताया है।
पुरूरवा यदि कवि है तो उसके काव्य की प्रेरणा उर्वशी है। उर्वशी के लिए समभाषी शब्द उरणवशी भी मिलता है । यह भेड़ों को अधिक प्रिया थी।
यदि पुरूरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो ग्रह और स्त्री का मिलन बेमेल होने से इला नाम कि स्त्री की ऐतिहासिकता भी सन्दिग्ध है।
इला का उल्लेख वाणी के रूप में ऋग्वेद में वर्णित है।
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ऋग्वेद में इला को अन्न और पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी माना गया है, साथ ही उन्हें ज्ञान और वाणी की देवी सरस्वती से भी जोड़ा गया है। ऋग्वेद में इला को इडा के नाम से भी जाना जाता है और अक्सर सरस्वती और भारती के साथ उनका उल्लेख किया जाता है. इला को मनु को यज्ञ का मार्गदर्शन करने वाली और पृथ्वी पर यज्ञ को व्यवस्थित करने वाली भी कहा गया है।
इला का उल्लेख ऋग्वेद में कई बार हुआ है, खासकर श्री सूक्तों में, जो भजनों का एक समूह है. वह मनु की यज्ञ में मदद करने वाली और पृथ्वी की अध्यक्षता करने वाली मानी जाती हैं.
इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद 3.123.4 में, "इला की भूमि" को सरस्वती नदी के तट पर स्थित बताया गया है. इला का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्हें बुध की पत्नी और पुरूरवा की माता माना जाता है.
कुछ ग्रन्थों में, इला को मनु की पुत्री के रूप में भी दर्शाया गया है, जिसे मित्रावरुण के आशीर्वाद से प्राप्त किया गया था. बाद में, वह पुरुष बन जाती है और सुद्युम्न के नाम से जानी जाती है, और तीन पुत्रों को जन्म देती है.
परन्तु पुराणों में वैदिक इला को ही अनेक रूपकों में व्याख्यायित करने का ही प्रयास किया गया है।
*इला गोलोके राधायाः कलेवराद् भूता प्रसूता । बुधेन सह पुरूरवसित नाम्ना बुधः स्वरात: बुद्धिपतेः प्रजायते लौकिकोपमासु बुधेले च ज्ञानवाक्शक्तेश्च प्रतिनिधे *।
इला गोलोक में राधा जी की अंशरूपा गोपी है।और बुध को बुद्धि का अधिष्ठाता स्वराट से उत्पन्न बताया गया है। लौकिक उपमानों में बुध और इला ज्ञान और वाक्शक्ति के प्रतिनिधि हैं।
इन दोनों से पुरूरवा का प्रादुर्भाव एक आदि कवि के रूप में हुआ ।
इला पिन्वते विश्वदानीम् ( ऋग्वेद4/50/8)
इला विश्व का पोषण करती है।
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इस प्रकार, ऋग्वेद में इला का एक बहुआयामी चरित्र है, जो अन्न, पृथ्वी, ज्ञान, और वाणी से संबंधित है, साथ ही यज्ञों और पारिवारिक सम्बन्धों में भी उनकी भूमिका है. ।
परन्तु पुरूरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरूरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
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"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरूरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरूरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
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वेदों में भी पुरूरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- विदित ही हैं । पुरूरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष (घोष) अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
(पुरु प्रचुरं रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।
अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।
इतिहास में दर्ज है कि आर्य पशु-पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का परवर्ती सम्प्रसारण है।
उर्वशी:- उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुत सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।
"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।
"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस
सृष्टि नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरूरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (95) वें सूक्त में (18) ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पूछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
इस प्रकार पुरूरवा पृथ्वी के सबसे बुद्धि सम्पन्न अत्यधिक स्तुति करने वाले, प्रथम सम्राट थे जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य था।
इनकी पत्नी का नाम उर्वशी था जो अत्यधिक सुन्दर थीं। उनकी सुन्दता से प्रभावित अथवा प्रेरित होकर प्रेम के सौन्दर्य मूलक काव्य की प्रथम सृष्टि उर्वशी को आधार मानकर की गयी
उर्वशी का शाब्दिक अर्थ- निरूपित किया जाय तो उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति (उरसे वष्टि इति उर्वशी)- जो हृदय में इच्छा उत्पन्न करती है। और ये उर्वशी भी यथार्थ उन पुरुरवा के हृदय में काव्य रूप वसती थी।
किन्तु वह उर्वशी वास्तव में मानवीय रूप में भी विद्यमान थी जिनका जन्म एक आभीर परिवार में हुआ था जिनके पिता "पद्मसेन" आभीर ही थे जो वद्रिका वन के पास आभीरपल्लि में रहते थे।
इस बात कि पुष्टि मत्स्य पुराण तथा लक्ष्मी, नारायणीय- संहिता से होती है। इसके अतिरिक्त
उर्वशी के विषय में शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ प्राप्त हैं कि ये स्वर्ग की समस्त अप्सराओं की स्वामिनी और सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी थी। और जानकारी के अनुसार सौन्दर्य ही कविता का जनक है । इसका विस्तृत विवरण उर्वशी प्रकरण में दिया गया है।
अब इसी क्रम में में पुरूरवा जो उर्वशी के पति हैं। उनका भी गोप होने की पुष्टि ऋग्वेद
तथा भागवत पुराण से होती है।
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इस प्रकार से देखा जाए तो प्रथम गोप सम्राट और उनकी पत्नी उर्वशी आभीर जाति सम्बन्धित थे। और इन दोनों से सृष्टि सञ्चालित हुई जिसमें इन दोनों से छ: पुत्र-आयुष् (आयु ),मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु आदि उत्पन्न हुए । इसकी पुष्टि भागवत पुराण हरिवंश हरिवंश पर्व महाभारत आदिपर्व और अन्य शास्त्रों में मिलती है।
पुरूरवा के छ: पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं-
आयु, धीमान, अमावसु, दृढ़ायु, वनायु और शतायु।
ये सभी उर्वशी के पुत्र हैं।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।
सन्दर्भ:-
महाभारत आदि पर्व अध्याय -(75)
" और हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व-
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।११।
अर्थ:- धर्मात्मा विश्वायु और श्रुतायु,तथा और अन्य दृढायु, वनायुऔर शतायु उर्वशी द्वारा उत्पन्न उर्वशी के पुत्र थे।११।
सन्दर्भ:- हरिवंश पुराण( हरिवंश - पर्व) अध्याय - (27)
अध्याय- 26 - पुरूरवा का विवरण-
पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः।
षडविंशोऽध्यायः
"वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।
अनुवाद:-
1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।
ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।
अनुवाद:-
2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।
सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।
अनुवाद:-
3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।
तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।
अनुवाद:-
4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।
अनुवाद:-
5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे
सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।
8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।
अनुवाद:-
9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
अनुवाद:-
10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।
अनुवाद:-
11-धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।
सन्दर्भ:-(श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ऐलोत्पत्तिर्नाम षड्विंशोऽध्यायः।। २६ ।।)
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं।
"सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।
उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।
आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।
उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।
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(सृष्टि सर्जन खण्ड)
पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष और आयुष पुत्र नहुष का वैष्णव धर्म के उत्थान में योगदान करना-व स्वयं भगवान विष्णु का नहुष के रूप में गोपों में अंशावतार लेना" तथा यदु का वैष्णव धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए लोक भ्रमण और गोपालन करना"
पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले हुए, जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२। नामक प्रकरण में समायोजित किया गया ।
फिर इसी गोप आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचान करने वाली हुईं।
पुरूरवा और उर्वशी दोनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।
पुरूरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती स्वर्भानु गोप की पुत्री थी परन्तु कुछ परवर्ती पुराण स्वर्भानु नामक दानव को इन्दुमती का पिता वर्णन करते हैं जो सत्य नहीं है । नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पालन करते थे।।
कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम मत्स्यपुराण अग्निपुराण लिंग पुराण आदि में "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना।
प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में मिलता है। परन्तु अशोक सुन्दरी ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के अशोक सुन्दरी में अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और (कृति) अथवा (ध्रुव) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1
ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव ( कृति) प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।
सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं। और आयुष की पत्नी पद्मपुराण भूमिखण्ड में इन्दुमती नाम से है और लिंगपुराण में स्वर्भानु की पुत्री प्रभा के नाम से है। लिंगपुराण में नहुष की पत्नी पितृकन्या विरजा को बताया है। जबकि पद्मपुराण में पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी को बताया है।
"सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।
उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपःश्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गन्धर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।
आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।
उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः।६६।
विशेष:- विरजा एक गोलोक की गोपी है और स्वर्भानु गोलोक के गोप हैं। जिनकी पुत्री प्रभा है। वही स्वर्भानु गोप जाति में समयानुसार अवतरण लेते है।
श्रीमद-भागवतम् (भागवत पुराण) » स्कन्ध 9: » अध्याय सत्रह
"श्रीवादरायणिरुवाच
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।
अनेना इति राजपुत्र श्रृणु क्षत्रियवृधोऽन्वयम्।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः॥2॥
अनुवाद:-
शुकदेव ने कहा: पुरुरवा से आयु उत्पन्न हुआ, जिससे अत्यंत शक्तिशाली पुत्र नहुष, क्षत्रियवृद्ध, रजि, राभ और अनेना उत्पन्न हुए थे। हे परिक्षित, अब क्षत्रिय वंश के बारे में सुनो।
क्षत्रियवृद्ध के पुत्र सुहोत्र थे, काश्य, कुश और गृत्समद नाम के तीन पुत्र थे। गृत्समद से शुनक पैदा हुए, और उनके शुनक, महान संत, ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता, पैदा हुए।
पुरूरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-
वंशावली-
विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ उस क्रम में उतरते हुए -चंद्र-बुध- पुरूरवा -'आयुष-।
आयुष का जन्म उर्वशी में पुरूरवा से हुआ था . नहुष का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानवी से हुआ इसका नाम इन्दुमती भी था।
आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).
पुरुरवा के छ: पुत्र-
१-आयुष् (आयु), मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु हम पूर्व में ही दे चुके हैं । पुरुरवा स्वयं परम वैष्णव था।
आयुष की पत्नी स्वर्भानु गोप की पुत्री प्रभा -( इन्दुमती) और नहुष की पत्नी पितर कन्या विरजा अथवा पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी का होना-
नीचे लिंगपुराण में पुरूरवा के आयु,: मायु:, अमायु,: विश्वायु:, श्रुतायु: ,शतायु: ,और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।
"सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।
उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गन्धर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८।
आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।
उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।
नहुष का विष्णु के अवतार- रूप में वर्णन-
📚: " दत्तात्रेय उवाच-।
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।
राजा च सार्वभौमश्च इंद्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।
नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म -गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
"श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-
पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।
पुरुरवा पुत्र आयुष को दत्तात्रेय का वरदान है कि आयुष के नहुष नाम से विष्णु का अंशावतार पुत्र होगा। नीचे के श्लोकों में यही वर्णन है।
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।
देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।
दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।
अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।
देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।
अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन् ! यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।
"दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।
एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।
एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
"विष्णु का नहुष के रूप में अवतरित होना"
"दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
___________
श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।
📚: नहुष और ययाति का गोपालक होना -और
नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का महाभारत में प्राचीन प्रसंग है।
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय -(51) में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
सन्दर्भ:-
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय -(51) श्लोक- 1-20
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-38
एकाशीतितम (81) अध्याय अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद-
गौओं का माहात्म्य तथा व्यासजी के द्वारा शुकदेव से गौओं की, गोलोक की और गोदान की महत्ता का वर्णन करना:-
"युधिष्ठिर उवाच।
पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्।
पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।।1
"भीष्म उवाच।
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्।
धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।2।
न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम।
एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।3।
देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै।
दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।4।
मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।5।
गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।6।
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। संसार में जो वस्तु पवित्रों में भी पवित्र तथा लोक में पवित्र कहकर अनुमोदित एवं परम पावन हो, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।
भीष्म जी नें कहा- राजन। गौऐं महान प्रयोजन सिद्ध करने वाली तथा परम पवित्र हैं। ये मनुष्यों को तारने वाली हैं और अपने दूध-घी से प्रजावर्ग के जीवन की रक्षा करती हैं। भरतश्रेष्ठ !गौओ से बढ़कर परम पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ये पुण्यजनक, पवित्र तथा तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है। गौऐं देवताओ से भी ऊपर के लोकों में निवास करती हैं। जो मनीषी पुरुष इनका दान करते हैं, वे अपने-आपको तारते हैं और स्वर्ग में जाते हैं।
युवनाश्व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये।
महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 21-47 में गोलोक का भी वर्णन है।
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितमो अध्याय: श्लोक 21-47 का हिन्दी अनुवाद:-
गोलोक का वर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्मपितामह ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर से करते हुए कहते हैं।
वहां के जलाशय लाल कमल और वनों से तथा प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रकाशमान मणिजनित सुवर्णमय सोपानों से सुशोभित होते हैं। वहां की भूमि कितने ही सरावरों से शोभा पाती है। उन सरावरों में नीलोत्पल मिश्रित बहुत से कमल खिले रहते हैं। उन कमलों के दल बहुमूल्य मणि में होते हैं और उनके केसर अपनी सुवर्णमयी प्रभा से प्रकाशित होते हैं। उस लोक में बहुत-सी नदियां हैं, जिनके तटों पर खिले हुए कनेरों के वन तथा विकसित संतानक (कल्पवृक्ष विशेष) के वन एवं अनान्य वृक्ष उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे वृक्ष और वन अपने मूल भाग में सहस्रो आवर्तों से घिरे हुए हैं। उन नदियों के तटों पर निर्मल मोती, अत्यन्त प्रकाशमान मणिरत्न तथा सुवर्ण प्रकट होते हैं । कितने ही उत्तम वृक्ष अपने मूलभाग के द्वारा उन नदियों के जल में प्रविष्ट दिखाई देते हैं। वे सर्वरत्नमय विचित्र देखे जाते हैं। कितने ही सुवर्णमय होते हैं और दूसरे बहुत से वृक्ष प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होते हैं। वहां सोने पर्वत तथा मणि और रत्नों के शैल समूह हैं, जो अपने मनोहर, ऊंचे तथा सर्व रत्नमय शिखरों से सुशोभित होते हैं। भरतश्रेष्ठ। वहां के वृक्षों में सदा ही फूल और फल लगे रहते हैं। वे वृक्ष पक्षियों से भरे होते हैं तथा उनके फूलों और फलों में दिव्य सुगंध और दिव्य रस होते हैं। युधिष्ठिर। वहां पुण्यात्मा पुरुष ही सदा निवास करते हैं। गोलोकवासी शोक और क्रोध से रहित, पूर्ण काम एवं सफल मनोरथ होते हैं। भरतनन्दन ! वहां के यशस्वी एवं पुण्यकर्मा मनुष्य विचित्र एवं रमणीय विमानों में बैठकर यथेष्ठ विहार करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं। राजन ! उनके साथ सुन्दर अप्सराऐं क्रीड़ा करती हैं। युधिष्ठिर ! गोपालन करके मनुष्य इन्हीं लोकों में जाते हैं। नरेन्द्र! शक्तिशाली सूर्य और वलवान वायु जिन लोकों के अधिपति हैं, एवं राजा वरुण जिन लोकों के एश्वर्य पर प्रतिष्ठित हैं, मनुष्य गोदान करके उन्हीं लोकों में जाता है।
गायें (सुरभी की सन्तानें) युगन्धरा एवं स्वरूपा, बहुरूपा, विश्वरूपा तथा सबकी माताऐं हैं। शुकदेव। मनुष्य संयम-नियम के साथ रहकर गौओं के इन प्रजापति कथित नामों का प्रतिदिन जप करे।
जो पुरुष गौओं की सेवा और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है, उस पर संतुष्ट होकर गौऐं उसे अत्यन्त दुर्लभ वर प्रदान करती हैं। गौओं के साथ मन से कभी द्रोह न करें, उन्हें सदा सुख पहुंचाऐं उनका यथोचित सत्कार करें और नमस्कार आदि के द्वारा उनका पूजन करते रहें। जो मनुष्य जितेन्द्रिय और प्रसन्नचित्त होकर नित्य गौओं की सेवा करता है, वह समृद्वि का भागी होता है।
मनुष्य तीन दिनों तक गरम गोमूत्र का आचमन कर रहे, फिर तीन दिनों तक गरम गोदुग्ध पीकर रहे । गरम गोदुग्ध पीने के पश्चात तीन दिनों तक गरम-गरम गोघृत पीयें। तीन दिन तक गरम घी पीकर फिर तीन दिनों तक वह वायु पीकर रहे।
देवगण भी जिस पवित्र घृत के प्रभाव से उत्तम-उत्तम लोक का पालन करते हैं तथा जो पवित्र वस्तुओं में सबसे बढ़कर पवित्र है, यह है कि गौओं की आराधना करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है।
गौऐं मनुष्यों द्वारा सेवित और संतुष्ट होकर उन्हें सबकुछ देती हैं, इसमें संशय नहीं है।
इस प्रकार ये महाभाग्यशालिनी गौऐं यज्ञ का प्रधान अंग हैं और सबको सम्पूर्ण कामनाऐं देने वाली हैं।
तुम इन्हें रोहिणी समझो।
इनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है।
युधिष्ठिर! अपने महात्मा पिता व्यासजी के ऐसा कहने पर महातेजस्वी शुकदेवजी प्रतिदिन गौ की सेवा-पूजा करने लगे; इसलिये तुम भी गौओं की सेवा-पूजा करो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गौओं की उत्पत्ति व गोदान विषयक गीता प्रेस संस्करण महाभारत के अनुशासन पर्व का इक्यासीवाँ( बम्वई संस्करण में 116 वाँ अध्याय
आयुष ने गोपालन द्वारा दीर्घ आयु को प्राप्त किया और उसके नाम की सार्थकता सिद्ध हुई।
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 51
में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है
गायों का दान। एक बार जब राजा ययाति अपनी प्रजा के साथ थे, तो एक ब्राह्मण उनके पास गुरुदक्षिणा मांगने आया । ययाति ने तुरन्त उसे 1,000 गायों का दान दिया। (महाभारत वन पर्व, अध्याय 195)
अहिर्बुध्न्यसंहिता के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पंचरात्र परम्परा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है। -तदनुसार, "राजा को क्षेत्र, विजय, धन प्राप्त होगा।" लम्बी आयुष और रोगों से मुक्ति। जो राजा नियमित रूप से पूजा करता है, वह सातों खंडों और समुद्र के वस्त्र सहित इस पूरी पृथ्वी को जीत लेगा।
पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।
गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।
पुरुरवा को अपनी पत्नी उर्वशी से आयुस, श्रुतायुस,सत्यायुस,राया,विजयाऔर जया छह पुत्र कहे गए ।
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।
"सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।
उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।
तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।
आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।
आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।
नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।
उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।
विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।
ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।
देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।
उनमें से सबसे बड़े पुत्र आयुस के भी पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंशऔरपुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।
नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।
नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
"श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-
श्रीपार्वती ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।
पुरूरवा पुत्र आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि आषुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश और अवतार होगा। नीचे के श्लोकों में यही है।
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।
देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।
दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।
अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।
देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।
अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।
"दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।
एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।
एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
"अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दोनों माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति ने यदु को शाप दिया ।
आगे की वंशावली -++
" टिप्पणियाँ-
- ^ श्रवण ("नरकट का जंगल") को उस स्थान के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ शिव के पुत्र हैं स्कंद का जन्म हुआ था। देवी -भागवत पुराण में बताया गया है कि एक बार ऋषियों ने शिव और पार्वती के प्रेम-प्रसंग में हस्तक्षेप किया, इसलिए शिव ने जंगल को शाप दिया कि इसमें प्रवेश करने वाले सभी पुरुष महिलाएं बदल जाएंगी।
( सन्दर्भ-)
- ऋग्वेद I.13.9, I.142.9, I.188.8, II.3.8, III.4.8, VII.2.8, X.70.8 और X.110.8 के लिए भजन देखें
- पुरुरवा की माता के लिए, ऋग्वेद X.95,18
- ^ "इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः
बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः ॥९॥ऋग्वेद I.13.9,
इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञियाः ॥९॥ I.142.9,
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