सोमवार, 1 जनवरी 2024

"गाथा गोपों की"

  • गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण- तथा "शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य" और क्रमश: "ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन भारतीय शास्त्रों में वर्णित हुआ है।

दर-असल ये भारतीय प्राचीन शास्त्र संस्कृत भाषा में लिखे हुए थे और संस्कृत भाषा आज को दौर में अधिक प्रचलित नहीं हैं।

आधिकारिक रूप से इस भाषा के विशेषज्ञ भी बहुत कम हैं। कुछ पुरोहित वर्गीय जाति विशेष लोगों ने संस्कृत के उन उन अँशों का अनुवाद करना और समाज में उनका विज्ञापन करना उचित नहीं समझा जिससे आभीर जाति की महिमा का वर्णन था।

पुरोहित वर्ग को अनुमान था कि कहीं उनकी प्रतिष्ठा अथवा वर्चस्व किसी अन्य जाति से कम आकलन  हो गयी तो लोग हमारी सेवा करना छोड़ देंगे-

शास्त्रों के हवाले से हम आपको बता दें कि "स्वयं भगवान विष्णु 'आभीर' जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" "दुर्गा" "गायत्री" और "उर्वशी" आदि को भी इन्हीं अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषण-पद गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी भगवान्- विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स (श्रोत) और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने का भाव सूचित करता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही भगवान्- विष्णु को गोप कहा गया है।

  • "त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ 
  • (ऋग्वेद १/२२/१८)

भावार्थ-(अदाभ्यः) -सोमरस अथवा अन्न आदि रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्)- धारण करता हुआ । (गोपाः)- गोपालकों के रूप, (विष्णुः)- संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि)- तीन (पदानि)- क़दमो से (विचक्रमे)- गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि)- धर्मों को धारण करते हैं॥18॥

विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।

आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।

और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया।वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।

  • ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।

पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।

  1. "धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।_______________________________
  1. "अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
  2. युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
  3. "अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
  • अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।

हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।

निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ (अच्छे व्रतों को जानने वाला) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।

गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।

गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट (included ) किया गया है।

  1. "पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।

अनुवाद:-तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।

ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।

  1. "सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे। उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
  2. तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
  3. कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
  4. त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
  5. कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।। नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
  6. श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।

अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुस्कराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।

मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।

  1. ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)

निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

___________________

  1. "ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
  • अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।

उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।

विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥

देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः

(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।

इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।

  1. तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
    दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।

पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।

इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।

उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥

अर्थानुवाद:-

(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥

ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥

(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि) इच्छा करते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) बैल हैं (परमम्) जो उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अवभाति) प्रकाशमान होता है (तत्) उस स्थान को (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६ ॥

ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४/५-६

(गोपाः)गायों के पालक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा:) कदम अथवा लोक [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) गमन किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों काे (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥१८॥

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥

' (ऋग्वेद १/२२/१८) अथर्वेद-७/२६/५

तात्पर्य:- तीनों लोकों में गमन करने वाले भगवान विष्णु हिंसा से रहित और धर्म को धारण करने वाले हैं।

'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।

ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है।

इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है - जो भगवत् का भक्त है वह भागवत्। श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है 'परब्रह्म तु कृष्णो हि'(सिद्धान्त मुक्तावलली-( ३ )वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।

भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम. से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।

वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ।

तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध.ये चार व्यूह( समूह) माने गये हैं।

लौकिक मान्यताओं में राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं।

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है।

  1. तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।

भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।

  1. गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।

गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे

  1. मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।

"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं‌। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।

  1. किसी के द्वारा दिए गये शाप को समाप्त कर समान्य करना और समान्य को फिर वरदान में बदल देना अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा ही सम्भव हो सका ।  

अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।

  1. अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।

"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विप्रादि वर्णों के मन्त्र का पुर: सर( अगुआ) ब्रह्मा ही हैं।

अनुवाद:-सावित्री ने कहा कि किसी वर्ण का मनुष्य मन्त्र विधि से ब्रह्मा का पूजन कभी न करे।८।

  1. ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु समये धरणीतले ॥ न ब्रह्मणा विना किंचित्कृत्यं सिद्धिमुपैष्यति ॥९॥

"अनुवाद:-फिर भी मैं गायत्री कहती हूँ। सम्पूर्ण पृथ्वी पर ब्रह्मा के बिना ब्राह्मण आदि वर्णों का कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।

  • कृष्णार्चने च यत्पुण्यं यत्पुण्यं लिंग पूजने॥ तत्फलं कोटिगुणितं सदा वै ब्रह्मदर्शनात्॥ भविष्यति न सन्देहो विशेषात्सर्वपर्वसु।१०।

"अनुवाद:-कृष्ण ( विष्णु) अर्चना और लिंगार्चना से जो पुण्य मिलता है। ब्रह्मा के दर्शन मात्र से उसका करोड़ों गुना फल मिलेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। विशेष कर पर्वों पर तो दर्शन जनित अत्यधिक फल लाभ होगा।१०।

  1. त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥ तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥

"अनुवाद:-हे विष्णु आपको जो उस सावित्री के द्वारा यह शाप दिया कि मृत्युलोक में जन्म लेकर अन्य के दास होंगे ।११।

  1. तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि॥ यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः।
  2. "अनुवाद:- तो इस सम्बन्ध में आपको सावित्री द्वारा जो यह शाप दिया है उसका मैं निवारण करती हूँ।

कि आपके दो रूप होंगे ! मुझ गायत्री को सावित्री ने गोप कुल में उत्पन्न कहा है इस सन्दर्भ में मेरा यह कथन है। कि हे विष्णु आप भी गोप कुल को पवित्र करने के लिए मेरे ही गोपकुल में जन्म लेंगे।८-१२।


हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व में यादवों के गोप होने का वर्णन है ।

यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् । तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।१७।                             

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः । अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।।२६।।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः।।२८।।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः। मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्। लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।

इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा।स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।।३३।।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः। गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।

अनुवाद:-

ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह ! अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में किस जाति में प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा। ? ।१६-१७।

विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।

यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।

तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ कर ली हैं।२३।

यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।

प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।

देव! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौनबलपूर्वक रोक सकता है?।२६।

ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।

लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।

इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।

इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण (ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।

गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।

अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ(ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।

महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।

वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।

गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।

जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।

गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।

जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।

कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।

श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।५५।।


देवीभागवत महापुराण में भी कुछ इसी प्रकार की कथा है।

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।


तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥



कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥


"कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।

अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२॥

___________

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥              


                  "राजोवाच

किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥


कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥


निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।

नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६ ॥


स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥


प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥


कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥


दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।

पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥


लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।

एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।

 "भगवान् हरि  अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं। 

इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।

_____

हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।

हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।

हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।

राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यपने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।। 44 ll

वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।।

सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47। 

भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म मेंअनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 । 

काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ । 49-51।


"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन  और प्राचीन है।


 "पिता के मृत्यु के पश्चात  -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए "

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।

माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥


तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥


वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥


अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ


सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।


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कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।

गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥


कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।

अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२ ॥


देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।

वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।


                    "राजोवाच

किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।

सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥


कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।

वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥


निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।

नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।


श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ 

चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।


("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-)

स्कन्ध 4, अध्याय 3 - वसुदेव और देवकी केपूर्वजन्मकी कथा" देवीभागवतपुराणम्‎  स्कन्धः ०४  

               "व्यास उवाच

कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल । सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः।देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम्॥ २॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥३॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः॥ ४॥

किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम्।शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः॥६॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥

                  "व्यास उवाच

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥८॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते।१०।

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा।कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना॥१४॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥१५॥

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले।भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि॥१६॥

                   "व्यास उवाच

एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा।अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥१७॥

तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै॥१८॥

                 "जनमेजय उवाच

कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम।१९।

                    "सूत उवाच

पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः।राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः।२०।


                   "व्यास उवाच

राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥

अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् । तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥

पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥

तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते।व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः॥२४॥

सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम्॥२५॥

भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा । पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥२६॥

एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।

मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः ।दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।

इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी।शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान्।२९॥

उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च।उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन॥३०॥

वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्‍नीभावमास्थिताम् दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥३१॥

राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्‌रिपुः।तस्मादङ्कुरितं हन्याद्‌बुद्धिमानहितं किल।३२।

लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥

सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।

                    "व्यास उवाच

श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥

ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥

                      "इन्द्र उवाच

मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥

पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥३८॥

न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥

संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।

तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥

उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥४२॥

रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा । मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥४३॥

शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥

तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम्इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥४५॥

भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥

यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु॥४७॥

यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥

तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः। कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥४९।

अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।

                 "व्यास उवाच

इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥५०॥

उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव । मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥

भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥

अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥

उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।

                    "व्यास उवाच 

पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४॥

नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥

अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

↑ इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२

इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।

त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥

अनुवाद:

“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान   वृषभ  तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।

______________________

हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः  “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां=त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण=  स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः॥

(वाम्) युवाम्  (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति    (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां  (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥

 हिन्दी अनुवाद:-व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2।

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥

तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥

हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो! लोभ की ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥

संसार में लोभ से बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभ से स्नेह करने के कारण दुराचार में लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादा की रक्षा के लिये ब्रह्मा जी ने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वी पर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे।। 15-16।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यप की भार्या दिति ने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥

जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19॥

सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21॥

जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥

उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥

तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥

कश्यपमुनिकी बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओजसे सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रताका सदा ध्यान रखती थी। 

इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥

[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥

इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।

मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥32 ॥

हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा-॥ 35-36 ।।

इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।

पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥

दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥

इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥

उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थशिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥

तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये।44।

उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥

यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। 

जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और  मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी।

अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। 

वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा।

उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। 

इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥


व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥


जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम- 

___________________

  1. एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥

"अनुवाद:- तब पृथ्वी पर जन्म लेने वाले आपके एक शरीर का नाम कृष्ण तथा दूसरे शरीर का नाम अर्जुन होगा। अपने उस दूसरे अर्जुन शरीर के लिए तुम सारथि बनोगे।

विशेष :- अहीर अथवा गोप जाति प्राचीनतम है मत्स्य पुराण में उर्वशी अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित पद्मसेन आभीर की पुत्री है । जिसने कल्याणनी नामक कठोर व्रत का सम्पादन किया और जो अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बन गयी यही कल्याणनि व्रत का फल था।

  1. उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष: (घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
  • पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे ।

इसी लिए रूद्रयामलतन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

  • अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है।
  • परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्णन आभीर तथा गोष (घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है।
  • इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे । जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए 

अहीर अथवा गोप ही आज के किसान हैं। जिसमें कुछ कबीला जाटों में समाहित हुए कुछ गुर्जरों में भी समाहित हुए है।

राजपूत भी एक जातीयों का संघ है। जिसका विकास बहुत बाद में भारत में ६०६ ई से ६४७ ईस्वी के समय से हुआ। और चरम विकास १६ वीं सदी तक हुआ ।

सम्भवत: इनमें भी अहीरों जाटों और गुर्जरो से निकल कर कुछ शाखाएं आज समाहित हो गयीं है।

जैसे अहीरों से निकले राजपूत जादौन, चुडासमा , और जड़ेजा भाटी आदि - परन्तु ये राजपूत अब स्वयं को अहीरों से अलग मानने का राग आलाप रहे हैं।

अहीर अथवा गोप शब्द कई उतार-चढ़ावों के बाद आज तक समाज में यदुवंश को समाहित किए हुए है। यदुवंश के मूल प्रवर्तक यदु एक गोप अथवा पशपालक होकर भी लोकतान्त्रिक राजा थे।

यद्यपि यदु के अन्य भाई जैसे तुर्वसु और पुरु को भी शास्त्र पशु पालक के रूप में वर्णित करते हैं।

भारतीय पौराणिक कथा-कोश लक्षीनारायण संहिता" में कुरुक्षेत्र का वर्णन करते हुए पुरु के वंशज कुरु को पशु पालक कहा है ।

गायत्री द्वारा विष्णु को गोप रूप में दो शरीर (कृष्ण और अर्जुन ) के रूप में उत्पन्न होने को कहना भी अर्जुन का गोपालक रूप है।

कौसललिया अहीर स्वयं को पाण्डु का वंशज मानते हैं। परन्तु शास्त्र तथा समाज में आभीर शब्द केवल यदुवंश के गोपों के ही लिए रूढ़ हो गया।

अर्जुन को पञ्चनद प्रदेश ( पंजाब) में परास्त करने वाले नारायणी सेना से सम्बन्धित वृष्णि कुल के आभीर थे । जिन्हें नारायणी सेना के गोप कहा गया है।

यादवों के लिए ही आभीर शब्द रूढ़ हो गया दरअसल आभीर एक जाति है जिसमें यदु वंश पुरु वंश और तुर्वशु वंश भी समाहित थे।

इस स्थान पर हम यह सिद्ध करेंगे कि जाट "गूजर और अहीरों का रक्त सम्बन्ध अधिक सन्निकट है ।

यद्यपि गूजर और जाटों के कुछ कबीले सपना सम्बन्ध सूर्यवंश से भी जोड़ रहे हैं।

फिर भी इनमें स्वयं को यदुवंश से जोड़ने वाले कबीलों का जैनेटिक मिलान अहीरों से है।

तीनों ही जातियों में गोत्र भी बहुत से समान हैं। सबसे बड़ी बात इनका ( डी॰ एन॰ ए॰)-जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तन्तुनुमा अणु हैं जिनको( डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल) या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं।

इसमें अनुवांशिक कूट( कोड) निबद्ध रहता है। इसी लिए गूजर जाट और अहीरों की प्रवृत्ति समान होती है ।

परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए की अहीर जाति सबसे प्राचीनतम है। जब गुर्जर और जाट जैसे शब्द भी नहीं थे तब आभीर थे ।

इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं।

कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं

तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।

  • "यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।

अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।

  1. यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप। जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
  2. कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्। सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।

"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने के पांच कारण होते हैं १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा ( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।

  • श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः। तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

  1. भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम। इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।

"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

  1. देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम। कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७। 

"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा मैं हरि का सदैव भजन करूँगा।७७।

_________________

  1. कः पिता कोऽत्र वै माता सर्वे स्वार्थपरा भुवि। न कांक्षे तव राज्यं वै न दास्ये यौवनं मम ।७८।

"अनुवाद:-कौन पिता है कौन माता है यहाँ सब स्वार्थ में रत हैं इस संसार में न मैं अब तुम्हारे राज्य की इच्छा करता हूँ और ना ही अपने यौवन की ही इच्छा करता हूँ यह बात पुरु ने अपने पिता ययाति से कही ।७८।

  1. इत्युक्त्वा पितरं नत्वा हिमालयवनं ययौ।तत्र तेपे तपश्चापि वैष्णवो धर्मभक्तिमान् ।७९।

"अनुवाद:- इस प्रकार कहकर पिता को नमन कर पुरु हिमालय के वन को चला गया और वहाँ तप किया और वैष्णव धर्म का अनुयायी बन भक्ति को प्राप्त किया।७९।

  • कृषिं चकार धर्मात्मा सप्तक्रोशमितक्षितेः । हलेन कर्षयामास महिषेण वृषेण च ।८०।

"अनुवाद:-उस धर्मात्मा ने पृथ्वी को सात कोश नाप कर वहाँ हल के द्वारा कृषि कार्य भैंसा और बैल के द्वारा भी किया।८०।

आतिथ्यं सर्वदा चक्रे नूत्नधान्यादिभिः सदा ।विष्णुर्विप्रस्वरूपेण ययौ कुरोः कृषिं प्रति ।८१।

"अनुवाद:-:- नवीन धन धान्य से वह सब प्रकार से अतिथियों का सत्कार करता तभी एक बार विष्णु भगवान विप्र के रूप धारण कर कुरु के पास गये और उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। ८१।

  1. आतिथ्यं च गृहीत्वैव मोक्षपदं ददौ ततः कुरुक्षेत्रं च तन्नाम्ना कृतं नारायणेन ह ।।८२।।

"अनुवाद:-तब भगवान् विष्णु ने कुरु का आतिथ्य सत्कार ग्रहण कर उसे मोक्ष पद प्रदान किया उस क्षेत्र का नाम नारायण के द्वारा कुरुक्षेत्र कर दिया गया।८२।

कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती लोग सदीयों से कृषि और पशुपालन कार्य करते चले आ रहे हैं। आज कल ये लोग जाट " गूजर और अहीरों के रूप में वर्तमान में भी इस कृषि और पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।८२।

  • ""सन्दर्भ:-

श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७३ ।।

  • जाट इतिहास के महान अध्येता

राम स्वरूपजून (झज्जर , हरियाणा के प्रतिष्ठित जाट इतिहासकार थे । वह जाटों के इतिहास नामक पुस्तक के लेखक हैं ।

उनका जन्म हरियाणा के झज्जर जिले के नूना मजरा गांव में हुआ था ।

राम सरूप जून लिखते हैं कि ....

" उन्होंने 1900 ईस्वी में अपना पाठ शुरू किया जब वह उस क्षेत्र में पढ़ने वाले पहले स्कूलों में एक दशक में थे।

राम स्वरूप जून जाटों का रक्त सम्बन्ध अहीरों से निश्चित करते हैं।

वे लिखते हैं कि आज के अहीर ययाति की यदु शाखा के हैं । वे यदु के दूसरे पुत्र सत्जित के वंशज हैं जबकि सभी गोत्र, अहीरों के जाटों में भी पाए जाते हैं । दूसरे शब्दों में जाट और अहीर बहुत निकट संबंधी हैं।

उनके गोत्रों को मिलाकर, जाट गोत्रों की कुल संख्या बढ़कर 700 हो जाती है। उत्तर पश्चिमी अहीरों में केवल 97 गोत्र हैं जिनमें 20 प्रतिशत जाट गोत्र भी शामिल हैं ।

  • अलवरूनी ने तहकीके हिन्द में वसुदेव को पशुपालक जाट कहकर वर्णित किया है।

वर्तमान में जाट और गुर्जर संघ हैं जिनमें अनेक देशी विदेशी जातियों का समावेश है। जो स्वयं को सूर्य वंशी या चन्द्र वंशी लिखते कुछ स्वयं को अग्नि वंशी भी लिखते हैं।

परन्तु अहीर आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान हैं अहीरों के विषय में गोप रूप में यह वर्णन समीचीन ही है।

स्कन्दपुराण- (नागरखण्डः) के अध्यायः 193 में वर्णन है कि

  • "यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः॥ तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥१२॥
  • एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥
  • "तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम्॥सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

"अनुवाद:-उनके द्वारा किए गये कार्यों में तुम्हारे रक्त सम्बन्धी सजातीय ये गोप प्रशंसा को प्राप्त करेंगे।१४।

  • यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वं शप्रभवानराः ॥ तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥

विशेषत :- सावित्री के शाप का निवारण करते हुए आभीर कन्या गायत्री ने कहा था।

सभी लोकों और देवों में भी

जहाँ जहाँ मेरे वंश जाति के अहीर लोग निवास करेंगे वहीं वहीं लक्ष्मी निवास करेगी चाहें वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१३-१४-१५।

___________________

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः।

  • छ ी ित     ििं ा ि िष ो ी िक त.     य    िं ो ित ि ि िी ो में िख ी 

पुष्यमित्र सुंग ई०पू० (184) के समय में लिखित सुमित भार्गव के द्वारा मनु-स्मृति में अहीरों का जन्म ब्राह्मण के द्वारा अम्बष्ठ कन्या से वर्णित किया गया। क्योंकि अहीर तो ब्राह्मणों से भी अधि पूज्य हुए जा रहे हैं। और यह व्यभिचार में संलग्न पुष्यमित्र सुंग ई०पू० (184) के अनुयायी ब्राह्मणों को सहन नही था।

तब उन्होंने मनु का विधान बता कर मनु-स्मृति में अहीरों का जन्म इस प्रकार दर्शाया।

"ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।10/15 (मनुस्मृति)

यद्यपि शैलीगत-आधार पर मनुस्मृति में विधानात्मकता होना चाहिए। परन्तु यहाँ ऐतिहासिक शैली को अपनाया जा रहा है। यहाँ पर जो मनु-स्मृति के श्लोक हैं वे ऐैतिहासिक शैली में होने से प्रक्षिप्त है ।

इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए— "कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।(10/34)

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43) पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)

द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)

अतः इस ऐतिहासिक शैली में वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल अर्थात् -ई०पू० (184) के समकक्ष पुष्यमित्र सुंग के द्वारा संरक्षित ब्राह्मणों के ये श्लोक है!

  • अवान्तरविरोध होने से ये प्रक्षिप्त( नकली) श्लोक हैं। 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है मनु-स्मृति कार ने 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिख डाले हैं ।
  • 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है ।
  • 33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है
  • और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है ।
  • 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है।
  • जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।
  • 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्भोग से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है ।
  • यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनु के कथन कदापि नही हो सकते हैं ।

स्मृतियों में काल्पनिक मनगड़न्त जाति-उत्पत्ति पूर्ववर्ती शास्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं।

लक्ष्मीनारायणी संहिता, गर्गसंहिता और ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों की उत्पत्ति चातुर्यवर्णव्यवस्था से पृथक विष्णु से बतायी गयी है।

  1. कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
    आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव -च तत्सम: ।।41।
    (ब्रह्म- वैवर्त पुराण अध्याय- 5)
    कृष्ण के लोम- रूपों से गोपों की उत्पत्ति हुई , --जो रूप और वेश में कृष्ण के समान थे ।

योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णे चकार स: ।।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण)
भगवान् जब गोलोेक को गये तो अपने साथ गोप - गोपियाँ को ले जाने लगे तब अमृत दृष्टि द्वारा दूसरे गोपों से गोकुल पूर्ण किया ।।

  • जाति-भाष्कर का ब्राह्मण लेखक ज्वालाप्रसाद मिश्र
    स्मृतियों के हबाले से आभीर जनजाति की उत्पत्ति का काल्पनिक व शास्त्रीय सिद्धान्त विहीन विधि से लिखता है ।👇

_______________________________________

  1. महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम्।
    आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् ।।128।।
  2. तेषां संघो वसेद् घोषे बहुशस्यजलाशये।।
    आविकं गोमहिष्यादि पोषयेत् तृण वारिणा ।।129।
  3. दुग्धं दधि घृतं तक्रं विक्रयीत धनाय च ।
    विशूद्रेभ्यो न्यूनतो धर्मे तस्य सर्वस्य विश्रुता ।।130।
  • अनुवादित रूप:- महिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है 'वह आभीर है ।
  1. और ब्राह्मण द्वारा आभीर की स्त्री में आभीर ही उत्पन्न होता है । इनका समूह घोष (गो-आवास) में 
  2. रहता है ।  
  3. जहाँ 'बहुत सी घास तृण हो तथा समीप में जल हो वहाँ निवास होता है भेड़ ,बकरी ,गो ,भैंस आदि को चराना इनका काम है । तथा दूध, दही मट्ठा ये धन के लिए बैचें यह धर्म में शूद्रों से कुछ हीन हैं। 

मनु-स्मृति कार अब इस सिद्धान्त के विपरीत लिखता है कि "अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण से आभीर की उत्पत्ति मानते हैं ।👇

  1. ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15 
  • अहीर जाति सतयुग के प्रारम्भ में थी जब आभीर कन्या गायत्री से ब्रह्मा का विवाह भगवान विष्णु यज्ञ सत्र के सम्पादन हेतु करते हैं।
  • उस समय मनु आदि प्रजापति भी सावित्री द्वारा उत्पन्न नहीं हुए थे।

शैलीगत-आधार द्वारा प्रमाण -👇

मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक होनी चाहिए! परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है विधानात्मक नहीं।
इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—

कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।

  1. वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
    पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)
  2. द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)

अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक
समायोजित किए गये हैं।
5. अवान्तरविरोध- ही इनके प्रक्षिप्त होने को प्रमाणित करता है 👇

(1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे हैं ।
(2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है तो
33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है ।

किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है

(3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है ।
जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।

(4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।

अतः दौनों परस्पर विरोधाभासी होने से काल्पनिक व मनगड़न्त हैं'' अत: अहीरों की उत्पत्ति केवल वैष्णवी ही है।

  1. लेखक:- यादव योगेश कुमार रोहि-अठारह पुराण एक सौ आठ उपनिषद, स्मृतियाँ षड्दर्शन महाभारत वाल्मीकि रामायण श्रीमद्भगवद्गीता तथा चारो वेद ब्राह्मण आरण्यक आदि ग्रन्थों को अध्येता भाषावैज्ञानिक व्याकरणविद् - तथा

परास्नातक- संस्कृत हिन्दी तथा अंग्रेज़ी

सम्पर्क सूत्र:- 8077160219

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