सोमवार, 29 जनवरी 2024

अंशावतार नहुष की पत्नी भी कोई साधारण स्त्री नहीं बन सकती है। यह गोलोक में कृष्ण की एक पत्नी विरजा ही है भूलोक पर अज्यप ऋषि की पुत्री हुई हैं। अज्यप गोपों ( गोपों ) के पितर हैं।

अंशावतार नहुष की पत्नी भी कोई साधारण  स्त्री नहीं  बन सकती है। यह गोलोक में कृष्ण की एक पत्नी विरजा  ही है भूलोक पर अज्यप ऋषि की पुत्री हुई हैं। अज्यप  गोपों ( गोपों ) के पितर हैं। 


नहुष की पत्नी विरजा का पूर्व नाम भी विरजा है;  ये गोलोक में कृष्ण की पत्नी हैं।

अनुवाद:- राधा,  श्रीविरजा, और भूदेवी कृष्ण की गोलोक में तीन पत्नियाँ हैं। उनमें राधा सबसे प्रिय श्रीकृष्ण की पत्नी हैं।४।
सन्दर्भ:-श्रीगर्गसंहिता -
वृन्दावनखण्ड अध्यायः॥२६ ॥

भूलोक पर भी कृष्ण के अंशावतार नहुष की पत्नी हैं भी यही विरजा' अज्यप नामक पितर की पुत्री बनकर अवतरित होती हैं।

क्योंकि कृष्ण के अशावतार नहुष की पत्नी  कोई साधारण  स्त्री कैसे  बन सकती है ? कृष्ण गोलोक में  स्वराट् विष्णु के रूप में विद्यमान रहते हैं जिनकी गोपेश्वर श्रीकृष्ण नाम से उपस्थिति होती है।

भूलोक पर कृष्ण अपने लीला अवतरण स्वरूप से पहले ही  पूर्व व्यवस्था की भूमिका के निर्वहन के लिए अपने अंशों को सबसे पहले अवतरित करते हैं। 

विदित हो कि नहुष की विरजा ही अज्यप ऋषि  की पुत्री हैं। अज्यप गोपालन और कृषि वृति करने वालों के एक पितर हैं।  

पद्मपुराण-भूमि खण्ड में  पार्वती ने पारिजात वृक्ष से भी प्राकृतिक रूपधारिका "विरजा" का आह्वान सांसारिक शोक निवारण करने वाली सबसे सुन्दर अशोक सुन्दरी नामक कन्या के रूप में किया ।

तब से यही विरजा अशोक सुन्दरी नाम से भी नामित पार्वती की भी पुत्री है।
अब पार्वती और शिव की पुत्री विरजा-(जो विना रज( पाप) - के उत्पन्न हुई  थी) का पति भी कोई साधारण देवता अथवा दैत्य कैसे हो सकता है? इस विरजा के पति तो स्वराट-विष्णु (कृष्ण) के अंशावतार नहुष ही हो सकते हैं।

क्योंकि पार्वती भी गोलोक में कृष्ण से उत्पन्न उन्हीं कृष्ण की एक आद्या सहचरी भी हैं।

  "अंशांशकांशकलयाभिरुताभिराम-
     मावेशपूर्णनिचयाभिरतीव युक्तः।
विश्वं बिभर्षि रसरासमलंकरोषि
     "वृन्दावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥२४॥
सन्दर्भ:-
(गर्गसंहिता वृन्‍दावनखण्ड- अध्याय- 25/ 21-26।
अनुवाद:-
वास्तव में हे कृष्ण! आप परात्पर परमात्मा ही हैं। अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण-समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रासमण्‍डल को भी अलंकृत करते हैं।
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                 'श्रीनारद उवाच -
"इत्थं ते मातृशापेन धरणीं वै समागताः ।
प्रियव्रतरथांगानां परिखासु समास्थिताः॥२३॥

"लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवाः ।
बभूवुः सप्त ते राजन्नक्षोभ्याश्च दुरत्ययाः॥२४॥

"दुर्विगाह्याश्च गम्भीरा आयामं लक्षयोजनात् ।
द्विगुणं द्विगुणं जातं द्वीपे द्वीपे पृथक् पृथक॥२५॥

"अथ पुत्रेषु यातेषु पुत्रस्नेहातिविह्वला ।
स्वप्रियां तां विरहिणीमेत्य कृष्णो वरं ददौ ॥२६॥

"कदा न ते मे विच्छेदो मयि भीरु भविष्यति ।
स्वतेजसा स्वपुत्राणां सदा रक्षां करिष्यसि ॥२७।।
सन्दर्भ:-
(श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ 
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श्रीकृष्ण की गोलोक में तीन प्रसिद्ध पत्‍नी हैं राधा, विरजा और भूदेवी -गोलोक में स्वराट विष्णु  का विरजा के साथ विहार; श्रीराधा के भय से विरजा का नदी रूप में परिवर्तित ( बदलना हुआ)  होना, उसके कृष्ण से उत्पन्न सात पुत्रों का उसी के शाप से सात समुद्रों का अधिष्ठात्री  होने का प्रसंग गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के (26) वें अध्याय में है। देखें निम्नलिखित प्रसंग-

श्री नारद जी बोले- महामते नरेश ! यह पूर्वकाल में घटित गोलोक का वृत्तांत है, जिसे मैंने भगवान नारायण के मुख से सुना था।
यह सर्वपापहारी पुण्य-प्रसंग तुम मुझसे सुनो। 

श्रीहरि के तीन पत्नियाँ हुई- श्रीराधा, विजया (विरजा) और भूदेवी। 

इन तीनों में महात्मा श्रीकृष्ण को श्रीराधा ही अधिक प्रिय हैं। राजन! एक दिन भगवान श्रीकृष्ण एकांत कुंज में कोटि चन्द्रमाओं की-सी कांति वाली तथा श्रीराधिका-सदृश सुन्दरी विरजा के साथ विहार कर रहे थे।

सखी के मुख से यह सुनकर कि श्रीकृष्ण मेरी सौत के साथ हैं, श्रीराधा मन-ही-मन अत्यंत खिन्न हो उठी। सपत्नी के सौख्य से उनको दु:ख हुआ, 
तब भगवान-प्रिया श्रीराधा सौ योजन विस्तृत, सौ योजन ऊँचे और करोड़ों अश्विनियों से जुते सूर्य तुल्य कांतिमान रथ पर-जो करोड़ों पताकाओं और सुवर्ण-कलशों से मण्डित था तथा जिसमें विचित्र रंग के रत्नों, सुवर्ण और मोतियों की लड़ियाँ लटक रही थीं-आरूढ़ हो, दस अरब वेत्रधारिणी सखियों के साथ तत्काल श्रीहरि को देखने के लिये गयीं।
उस निकुंज के द्वार पर श्रीहरि के द्वारा नियुक्त महाबली श्रीदामा पहरा दे रहा था। उसे देखकर श्रीराधा ने बहुत फटकारा और सखीजनों द्वारा बेंत से पिटवाकर सहसा कुंजद्वार के भीतर जाने को उद्यत हुईं। सखियों का कोलाहल सुनकर श्रीहरि वहाँ से अंतर्धान हो गये ।

श्रीराधा के भय से विरजा सहसा नदी के रूप में परिणत हो, कोटियोजन विस्तृत गोलोक में उसके चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए है, उसी प्रकार विरजा नदी सहसा गोलोक को अपने घेरे में लेकर बहने लगीं। 

रत्नमय पुष्पों से विचित्र अंगों वाली वह नदी विविध प्रकार के फूलों की छाप से अंकित उष्णीष वस्त्र की भाँति शोभा पाने लगीं- ‘श्रीहरि चले गये और विरजा नदी रूप में परिणत हो गयी’- यह देख श्रीराधिका अपने कुंज को लौट गयीं। नृपेश्वर !

"तदनन्तर नदी रूप में परिणत हुई विरजा को श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही अपने वर के प्रभाव से मूर्तिमती एवं विमल वस्त्राभूषणों से विभूषित दिव्य नारी बना दिया।

 इसके बाद वे विरजा-तटवर्ती वन में वृन्दावन के निकुंज में विरजा के साथ स्वयं रास करने लगे। 


सन्दर्भ:-
गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26

पितृ-वंश

दिव्य पितरों के सात देवताओं में से प्रत्येक की एक मानसी कन्या थी। हिमवत पर्वतराज की पत्नी मैना, वायु की बेटी थी । अच्छोदा , नदी अग्निश्वता की बेटी थी। ऋषि शुक की पत्नी पिवारी बर्हिषद की बेटी थी । नामकरण , नदी सोमापा की बेटी थी। यशोदा हविश्मन की बेटी, विश्वमहंत की पत्नी और दिलीप की माँ थीं। विराजा, राजा नहुष की पत्नी अज्यप की बेटी थी और गो या एकश्रृंगा , ऋषि शुक्र की पत्नी मनसा की बेटी थी । 

  1. अज्यप पितर इसी तरह पश्चिमी क्षेत्र की रक्षा करें),
पितर (पितृ).—पितर देवताओं का एक समूह हैं।ब्रह्मा के पुत्र मनुप्रजापति से मरीचि जैसे सप्तर्षि उत्पन्न हुए और उन्होंने पितरों की रचना की।मारीचि और उनके समूह के अलावा 

विराट पुरुष और ब्रह्मा जैसे कई अन्य लोगों ने पितरों की रचना की है। 
कुछ पुराणों में कहा गया है कि पितृ दैनिक सृजन के होते हैं। प्रारंभ में ब्रह्मा ने आकार वाले पितरों के तीन और तेज वाले चार समूह बनाए, इस प्रकार सात समूह बनाए। शरीरधारी पितरों के तीन समूह अग्निष्वत, बर्हिषद और सोमपास हैं।

 और चार उज्ज्वल पितर यम, अनल, सोम और आर्यमान हैं ।
( देखें दसवां स्कंध, देवी भागवत पुराण)।

सोमपा ब्राह्मणों के पितर हैं।
हविष्मत क्षत्रियों के पितर हैं।
अज्यप   ( गोपालन और कृषि वृति वाले) गोपों  के पितर हैं।
और सुकालीन शूद्रों के पितर हैं।

मनुस्मृति चारों वर्णों में से प्रत्येक के पूर्वजों की वंशावली का भी वर्णन करती है। इसे कहते हैं,

सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविर्भुजः। वैश्याणां अज्यपा नाम शूद्राणां तु सुकालिनाः || 3.197 ||

सोमपास्तु कवेः पुत्रा हविषमन्तोऽङगिरहसुताः।पुलस्त्यस्याज्यपाः पुत्रा वसिष्ठस्य सुकालिनाः || 3.198 ||

सोमपा नाम विप्रणाम क्षत्रियानाम हविर्भुज:। वैश्यानाम अज्यपा नाम शुद्राणाम तु सुकालिनाः।3.197 |

सोमपस्तु कवेः पुत्रा हविष्मन्तोङ्गिरःसुताः।पुलस्त्यस्यज्यपः पुत्र वसिष्ठस्य सुकालिनाः || 3.198 ||

अर्थ: सोमप ब्राह्मणों के, हविर्भुज क्षत्रियों के, अज्यप वैश्यों के और सुकलिन शूद्रों के पूर्वज हैं।

 सोमप भृगु के पुत्र हैं, हविष्मंत अंगिरा की संतान हैं, अज्यप पुलस्त्य की संतान हैं और सुकलिन वशिष्ठ की संतान हैं (मनुस्मृति 3.197 )और 3.198)। इसमें आगे कहा गया है कि अग्निदग्धा, अनग्निदग्धा, काव्य, बर्हिषद, अग्निश्वत्त और सौम्य, ब्राह्मणों के पूर्वज हैं (मनुस्मृति 3.199) और, ये पूर्वजों के कुछ कुल हैं और उनमें मौजूद हैं इस संसार में इन पूर्वजों के अनगिनत पुत्र और पौत्र हैं। (मनुस्मृति 3.200)।


परन्तु अज्यप ऋषि विराट परुष से उत्पन्न हैं। इन्हें  पुलस्त्य के पुत्र रूप में स्वीकार किया ़।

नहुष (नहुष)।—आयु (स्वर्भानु) और प्रभा के पांच पुत्रों में से प्रथम; अज्यप पितरों की मानस पुत्री विराजा से विवाह; उनके छह  मत्स्य-पुराण के अनुसार-) गोलोक में कृष्ण से उत्पन्न ये वही सात पुत्र नहुष के हैं। जिसमें यति सबसे बड़ा था। किन्हीं पुराणों में नहुष के पाँच पुत्र तो किसी में छ: और किसी पुराण सातवाँ ध्रुव बताया है।

विरजा ने अपने सबसे छोटे पुत्र को पहले शाप दिया था  अत: छ: पुत्रों के बहुत बाद में सातवें पुत्र ने भी विरजा से पुन: नहुष के पुत्रों के रूप में जन्म लिया।

वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26

सती विरजा पुत्र को आश्वासन दे उसे दुलारने लगी। उस समय साक्षात भगवान वहाँ से अंतर्धान हो गये। 

तब श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल हो, रोष से अपने उस छोटे  पुत्र को विरजा ने शाप देते हुए  कहा- ‘दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्ण से वियोग कराने वाला है, अत: जल हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें।’ 

फिर उसने बड़ों को शाप देते हुए कहा-‘तुम सब-के-सब झगड़ालू हो; अत: पृथ्वी पर जाओ 

मत्स्य पुराण (आलोचनात्मक अध्ययन)

कुशल कलिता द्वारा | 2018 | 74,766 शब्द | आईएसबीएन-13: 9788171103058

यह पृष्ठ मत्स्य-पुराण पर अंग्रेजी अध्ययन के 'शिव के विभिन्न नाम' से संबंधित है: 14,000 से अधिक छंदों में प्राचीन भारतीय शास्त्रों और किंवदंतियों को संरक्षित करने वाला एक संस्कृत पाठ लिखा गया है। इस अध्ययन में मत्स्यपुराण की पृष्ठभूमि और सामग्री में प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास के विरुद्ध धर्म, राजनीति, भूगोल और स्थापत्य का संदर्भ दिया गया है। इसमें यह बताया गया है कि विश्वकोश का चरित्र पाठ मानव सभ्यता के लिए लगभग सभी नामों से कैसे प्रेरित होता है।

शुक्राचार्य ने शिव के विभिन्न वास्तुशिल्पियों और विशिष्टताओं का उल्लेख करते हुए उनको अज्यप" और आज्यप" नाम से भी  स्तुति की । 

                 "शुक्र उवाच'
गिरिशाय नमोऽर्काय बलिने आज्यपाय च ।
सुतृप्ताय सुवस्त्राय धन्विने भार्गवाय च ।132 ।

सोमपाय, अज्यपाय एव धूमपायोष्मपाय च ।
शुचये परिधानाय सद्योजाताय मृत्यवे ।145 ।

अनुवाद :-
शुक्राचार्यने कहा— जब शिव की स्तुति करते हैं तब वे उन्हें आज्यप और अज्यप कहकर सम्बोधित करते हैं।
अज्यप- का अर्थ  अजा के दूध से निर्मित घी आदि पीने वाला- अथवा एक विशिष्ट पितरस्वरूप है।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽसुरशापो नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ।47।

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