क्या रामायण दशरथ जातक की नकल है?

 

 प्रिय पाठकों! आज हम नवबौद्धों द्वारा फैलाये एक और झूठ का भंडाफोड़ करने जा रहे हैं। 

नवबौद्धों का यह दावा है कि वाल्मीकि रामायण को दशरथ जातक से नकल करके बनाया गया था। आज उनके इस दावें की पडताल हम इस लेख में करेगें। 

सर्वप्रथम दशरथ जातक की कथा को देखते हैं - 

यह कथा जातक संख्या 461 पर है, यहां हम इस जातक का भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं - 

- दसरथ जातक 461, पृष्ठ संख्या 325, जातक चतुर्थ खंड 

यहां जातक कथा के अनुसार निम्न कथन सामने आते हैं - 
(1) दशरथ को वाराणसी का राजा बतलाया गया है। जबकि रामायण में वे अयोध्या के राजा थे। 
(2) यहां दशरथ की 16000 पत्नियां बतायी हैं तथा राम लक्ष्मण और सीता जी का जन्म उनकी एक पटरानी से हुआ था। 
(3) श्रीराम की माता की मृत्यु उनके बचपन में ही हो जाती हैं। 
(4) राम - सीता को भाई - बहन बताया गया है। 

अधिकतर जातक कथाओं में स्थान वाराणसी ही बताया गया है, इसलिए इसमें भी स्थान वाराणसी है। अधिकतर जातक कथाओं में वाराणसी का राजा ब्रह्मदत्त बताया गया है, किंतु यहां राजा ब्रह्म दत्त से दसरथ हो गये हैं। राजा ब्रह्मदत्त की भी जगह - जगह सौलह हजार रानियां बतायी हैं किंतु यहां जब ब्रह्मदत्त की जगह दसरथ आ गये हैं तो यहां दसरथ की सौलह हजार रानियां कर दी गयी। यहां इससे पता चलता है कि दसरथ जातक को बाल्मीकि की रामायण से बनाया गया था, इसी कारण यहां ब्रह्मदत्त का स्थान दसरथ ने ले लिया। 

अब अगला पृष्ठ देखते हैं - 

- दसरथ जातक 461, पृष्ठ संख्या 326, जातक चतुर्थ खंड 

यहां कुछ और बातें हमें पता चलती हैं - 
(1) भरत रामायण की तरह ही दसरथ की दूसरी रानी के पुत्र थे। 
(2) यहां भी रानी ने भरत के लिए राज्य मांगा था। 
(3) यहां श्री राम जी निष्कासन के समय हिमालय गये थे जबकि बाल्मीकि रामायण में वे दण्डकारण्य गये थे। 

अब हम कुछ अन्य जातकों की गाथाओं को देखते हैं, जिनमें श्री राम के उदाहरण दिये गये हैं, इससे हम ज्ञात कर सकते हैं कि दसरथ जातक से हटकर अन्य जातकों से श्री राम के बारे में क्या जानकारी प्राप्त होती है। 

यहां हम जयसिद्द जातक जो कि जातक सं 513 है, में आयी हुई श्री राम से सम्बंधित एक गाथा का प्रमाण देते हैं - 


- जयसिद्द जातक 513, पृष्ठ सं. 117 - 118, जातक पञ्चम खंड 

जयसिद्द की माता द्वारा यह गाथा कही गयी है, इस गाथा में एक बात निकल कर आती है कि - 
यहां राम को दण्डकारण्य जाना बताया गया है तथा उनके दण्डकारण्य जाते समय उनकी माता द्वारा उनके कल्याण की बात की गई है। जबकि इससे पूर्व दसरथ जातक में हमने पढा है कि वहां राम हिमालय को जाते हैं और उनकी माता की मृत्यु उनके निष्कासन से पूर्व ही बचपन में हो जाती है। राम का दण्डकारण्य और उनकी माता द्वारा उनके कल्याण की बात जो कि इस गाथा में कही गयी है वो बाल्मीकि रामायण में आती है। जबकि इन दोनों बातों का दसरथ जातक से पूर्णतः विरोध देखा जा सकता है। इस गाथा से पता चलता है कि जातकों का वक्ता/लेखक बाल्मीकि रामायण से भी परिचित था। इसलिए उसके द्वारा दिये गये उदाहरण दसरथ जातक से न होकर बाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाओं से है। 

अब दूसरी गाथा से उदाहरण देखते हैं - 

यह जातक 547 महावेस्सन्तर जातक से है - 


- महावेस्सन्तर जातक 547, पृष्ठ सं. 576, जातक षष्ठ खंड

इस जातक में वेस्संतर की भार्या ने यह गाथा कही है, यहां इस जातक में वेस्संतर की पत्नि ने स्वयं की तुलना सीता जी से की है। क्योंकि जिस प्रकार श्री राम को राज्य से निष्कासन मिला था उसी तरह वेस्संतर को भी निष्कासन मिला था। जिस प्रकार श्री राम की पत्नि सीता ने उनका वनवास समय साथ दिया उसी प्रकार वेस्संतर की पत्नि वेस्संतर का साथ देती है। इससे पूर्व हमने दसरथ जातक में देखा था कि निष्कासन के समय राम - सीता सगे भाई - बहन थे न कि पति - पत्नि, किंतु इस जातक की गाथा में पति - पत्नि बताये गये हैं। इससे भी पता चलता है कि दसरथ जातक से हटकर अन्य जगहों पर जातक का रचनाकार रामायण के उदाहरण देता है, न कि दसरथ जातक कथा के। अत: हम कह सकते हैं कि जातकों का रचनाकार रामायण से परिचित था और जातकों की रचना के दौरान उसके दिमाग में बाल्मीकि रामायण भी थी। इसलिए दिमाग में बाल्मीकि रामायण होने के कारण उसने दसरथ जातक में तो साम्प्रदायिक परिवर्तन कर दिये किंतु अन्य जगहों पर वो रामायण के ही उदाहरण दे सका है। इससे रामायण का जातकों से पूर्व होने में कोई संदेह नहीं रह जाता है। 
इन दो जातक गाथाओं के अलावा भी हम कुछ अन्य तथ्यों को देखते हैं - 

भूरिदत्त जातक में आयी गाथाओं में रामायण - महाभारत में आये राजाओं को वैदिक और यज्ञ करने वाला बताना - 


- भूरिदत्त जातक 543, पृष्ठ संख्या 213 - 214, जातक षष्ठ खंड

इस जातक में सगर, लोमपाद, अर्जुन, भीम, सहस्त्रार्जुन, दिलीप, मुलिचंद, आदि ऐसे राजाओं का नाम है, जिनका नाम महाभारत और रामायण में मिलता है। इस जातक में इन्हें यज्ञ करने वाला बताया गया है। इससे पता चलता है कि जातकों की रचना से पूर्व भी ये राजा वैदिक अनुयायी के रूप में प्रसिद्ध थे। इससे महाभारत और रामायण की जातकों से प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार रामायण - महाभारत के पात्रों के उदाहरण अन्य जातकों की गाथाओं में भी मिलते है, इनमें से कई पात्रों पर पृथक् जातक कथायें भी नहीं है, इससे ज्ञात होता है कि रामायण - महाभारत की कथाऐं, आख्यान तथा अन्य वैदिक इतिहास, काव्य, ब्राह्मण आख्यान ये सब जातकों की रचना से बहुत पहले प्रचलित और प्रसिद्ध था। इसीलिए इनके उदाहरण जातकों में प्राप्त हो जाते हैं। इस भूरिदत्त जातक की प्रमाणिकता का सबसे बडा प्रमाण यह है कि इस कथा का एक दृश्य बौद्ध स्तूप अमरावती में भी है - 

- The Amaravati mode of sculpture (Bulletin of the madras government museum), plate no. XVII

इस फलक में भूरिदत्त को नागराज के साथ दिखाया गया है। इससे इस जातक के प्रक्षेप या मिलावटी कहने का रास्ता भी नवबौद्धों के पास खत्म हो जाता है। 

त्रिपिटकों में वेदों के साथ इतिहास का भी उल्लेख मिलना - 

त्रिपिटक साहित्य में अनेकों जगह ब्राह्मणों के साथ तिवेदज्ञ और पंचमो इतिहास शब्द मिलता है। जो कि ऋग्, यजु और साम तथा पंचम इतिहास को दर्शाता है। इसके कुछ उदाहरण हम आपको दिखाते हैं - 
- 33 सेल- सुत्त, पृष्ठ. 118, सुत्तनिपात

यहां सेल नामक ब्राह्मण को तीन वेद पारंगत और पांचवे इतिहास में निपुण बताया है। वैदिक मान्यताओं में पांचवें इतिहास से तात्पर्य महाभारत - रामायण, पुराण, ब्राह्मण आख्यानों आदि से होता है। अधिकतर महाभारत को पांचवें वेद के रूप में देखा जाता है। 
छांदोग्य उपनिषद 7.1.2 में भी इतिहास पुराण को पंचम कहा है - 
"ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं ​​चतुर्थ मिहासपुराणं पंञ्चमं " - छांदोग्य.उप. 7.1.2 

मज्झिम निकाय के ब्रह्मायु सुत्तन्त में ब्रह्मायु ब्राह्मण को भी त्रिवेदज्ञ और पांचवें इतिहास में निपुण बताया है - 

- 91 ब्रह्मायु सुत्तन्त, पृ.373, मज्झिम निकाय

आगे अस्सलायण सुत्तन्त में भी अस्सलायण ब्राह्मण को भी तीन वेदों और पांचवें इतिहास में निपुण बताया है - 


- 93 अस्सलायण सुत्तन्त, पृष्ठ.383, मज्झिम निकाय 

इसको पाठक अंग्रेजी अनुवाद से भी मिला सकते हैं - 

- 93 Assalayana sutta, page no. 763, The middle Length Discourses of the buddha(A new translation of the Majjhima - Nikaya) 

संगारव सुत्तन्त में संगारव ब्राह्मण के लिए भी ऐसे ही शब्द हैं - 

- 100 संगारव सुत्तन्त, पृष्ठ. 421, मज्झिम निकाय 

इस प्रकार अनेकों जगह तिपिटकों में तिण्ण वेद और इतिहास पंचमों शब्द आया है। दीघनिकाय की अट्ठकथा टीका में भी तीन वेदों को ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तथा चतुर्थ अथर्ववेद और पांचवे इतिहास से पुराण अर्थ बताया गया है। 

- अम्बट्ठमाणवकथा, सीलक्खन्धवग्ग - अट्ठकथा, दीघनिकाय (अट्ठकथा) 


यहां देखा जा सकता है कि त्रिपिटक के टीकाकार ने तिण्ण वेद का अर्थ - इरुवेद, यजुवेद, सामवेद और इतिहास को पुराणकथा अर्थ किया है। अत: कोई भी नवबौद्ध इन प्रकरणों को न तो प्रक्षिप्त कह सकता है और न ही अर्थ को गलत कह सकता है क्योंकि हमने अंग्रेजी अनुवाद और अट्ठकथा टीका से भी अर्थों को प्रमाणित कर दिया है। 

इन संदर्भों से ज्ञात होता है कि त्रिपिटकों की रचना से पूर्व ही इतिहास - पुराण और आख्यान प्रचलित तथा प्रसिद्ध हो चुके थे। क्योंकि जातक कथाएँ त्रिपिटकों के ही अंतर्गत हैं, अतः वेद, पुराण, वैदिक आख्यान, इतिहास ग्रंथ (महाभारत - रामायण) की रचना इनसे पहले सिद्ध होती है। 
अतः हम यहां निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि जातकों का निर्माण महाभारत - रामायण और वैदिक आख्यानों के पात्रों से हुआ है। न कि जातकों के पात्रों से रामायण - महाभारत या वैदिक आख्यानों का निर्माण, क्योंकि हमने जातकों और त्रिपिटकों के अन्त: साक्ष्यों से ही इस बात को सिद्ध कर दिया है कि ये सब ग्रंथ इनसे (जातक और त्रिपिटक) से पूर्व अस्तित्वमान थे। 

एक अभिलेख पर दृष्टि - 

ये हम सब जानते हैं कि प्राचीन बौद्ध स्तूपों का अधिकांश भाग सातवाहन राजाओं के समय बना है। ऐसे में दशरथ जातक व अन्य जातकों का चित्रण भी उन स्तूपों पर है। इसलिए हम आपकी नजर सातवाहन राजा वासिठीपुत्त पुलुमावि के नासिक लयण अभिलेख पर डलवाते हैं। इस अभिलेख में वासिठीपुत्त पुलुमावि ने अपने पिता गौत्तमीपुत्त सातकर्णी की तुलना निम्न पात्रों से की है - 


- प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख भाग 1, पृ. 184

यहां आप अभिलेख की आठवीं पंक्ति में राम (बलराम), नाभाग, नहुस, जनमेजय, सगर, ययाति, राम, अम्बरीष का उल्लेख देख सकते हैं। हम इस अभिलेख की असली छाप भी देते हैं - 


- Epigraphia indica vol. VIII, page no. 60ff, plate no. I

यहां हमने मूलछाप में "राम" शब्द को विशेष रुप से दर्शाया भी है। 


इस अभिलेख में आये ये सब नाम महाभारत और रामायण के पात्रों से हैं। पूर्व के नाम - राम, केसव, अर्जुन, भीम ये महाभारत और बाद के नभागा, नहुस, जनमेजय, सगर, ययाति, राम, अम्बरीष में जनमेजय को छोड़कर सभी रामायण से तथा श्री राम के पूर्वजों और सूर्यवंश के राजाओं के हैं। इस अभिलेख में हमें न केवल श्री राम बल्कि उनके पूर्वजों का भी उल्लेख प्राप्त हो जाता है। इस अभिलेख में श्री राम का जो उल्लेख प्राप्त होता है, वो सूर्यवंशी राजाओं की श्रृंखला के अंतर्गत प्राप्त होता है, जो कि हमें रामायण में ही प्राप्त होता है जबकि दशरथ जातक में न तो श्री राम के अंतर्गत ऐसी परम्परा मिलती है और न ही दशरथ जातक में इन राजाओं का नाम आया है। जबकि अभिलेख से स्पष्ट है कि उस समय भी श्री राम और उनके पूर्वजों से समाज परिचित था। अत: हम कह सकते हैं कि जिस समय जातकों का चित्रण स्तूपों पर हो रहा था, उस काल में भी लोग रामायण से परिचित थे। इसी कारण इस अभिलेख पर भी हमें रामायण और महाभारत की परम्परा का ही प्रभाव दिखायी देता है। 

नागार्जुन कौंडा के इस अभिलेख को भी देखिये - 

नागार्जुन कौंडा के स्तूप इक्ष्वाकु वंश के राजाओं के समकालीन है। उन पर इन राजाओं के नाम तथा दानदाताओं के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। 
इक्ष्वाकु वंश के राजा हवल चंतमूल के पुत्र वीरपुरुषदत्त का एक अभिलेख नागार्जुन कौंडा संग्रहालय में है। इस अभिलेख में उसने अपने पिता हवल चंतमूल की तुलना सगर, दिलीप, अम्बरीष, युधिष्ठिर और राम से की है। 

- Uttankita Sanskrit Vidya Aranya Epigraphs Vol. II (Prakrit and Sanskrit Epigraphs 257 B. C. to 320 A.D.) page no. 437, Inscription no. 203

इस अभिलेख पर इन शब्दों को अभिलेख की मूल छाप पर भी देखिये - 


- Epigraphia Indica, Vol. XXXIV, page no. 20ff, fig. 1

इस अभिलेख में आप देख सकते हैं कि इसमें ब्राह्मी लिपि में सगर, दिलीप, अम्बरीष, युधिष्ठिर और राम का नाम है। यहां श्री राम के साथ 
जो नाम दिये गये हैं, वो रामायण और महाभारत में दिये राजाओं के नामों में से है। यहां युधिष्ठिर को छोड़कर शेष सभी नाम सूर्य वंशी राजाओं और श्री राम के पूर्वजों के है। इस अभिलेख पर कोई भी नाम जातकों के मुख्य पात्रों अथवा बोधिसत्वों के नहीं है। अत: श्रीराम के साथ उनके पूर्वज और साथ ही युधिष्ठिर का नाम इस बात का संकेत करता है कि नागार्जुन कौंडा में जब स्तूपों का निर्माण हो रहा था, तब भी लोग जातकों से पृथक रामायण - महाभारत और उसके पात्रों से परिचित थे। इसीलिए स्तूप पर दशरथ जातक उकेरने पर भी अभिलेखों में दी उपमायें रामायण और महाभारत के पात्रों से ली गई है। 

प्राचीन अभिलेख पर श्री राम को नारायण के रुप में वर्णित करना - 

- Proceedings Of The Indian History Congress , 1990, 
Vol. 51, page no. 840

कौशाम्बी से प्राप्त लगभग दूसरी शताब्दी ईस्वी प्राचीन इस अभिलेख का अजय मित्र शास्त्री जी ने आंग्लालिप्यन्तरण इस प्रकार किया है -


- Journal Of The Epigraphical Society Of India, Vol. 20 : 1994, page no. 1

इस अभिलेख खंड की अंतिम पंक्ति है - "भगवतो राम नारायणा " 

इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में श्रीराम जी की मान्यता वाल्मीकि रामायण अथवा हिंदू मतानुसार ही थी, क्योंकि श्री राम जी को नारायण अवतार की मान्यता हिन्दू मत में है, न कि बौद्ध जातकों में, अत: इससे सिद्ध है कि श्री राम की प्रसिद्धि हिंदू मान्यताओं के अनुसार ही समाज में थी जबकि जातकों का प्रचार केवल कुछ भी बौद्ध संघ तक में सीमित था। 

प्राचीनतम पांडुलिपि पर रामकथा - 

इस संदर्भ में कुषाण कालीन लगभग 100 ईस्वी की पांडुलिपि का उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है। यह पांडुलिपि स्पिट्जर नाम से उपलब्ध है। इसमें रामायण का संक्षिप्त सारांश है। 

इस पांडुलिपि में वर्णित रामकथा के अंशों में रावण, वानरराज, सीता और राम का उल्लेख है। इसमें रावण को लंकेश्वर से भी सम्बोधित किया है। 


- Journal of the American Oriental Society, Vol 89, No. 2 (Apr - Jun. ,1969) , page no. 334 

उपरोक्त अंश Dieter Schlingloff ने The Oldest Extant Parvan-List of the Mahābhārata  नाम से प्रकाशित किया था। इसमें संक्षिप्त रामायण कथा का सारांश भी दिया है। जिसमें रावण, सीता का उल्लेख है। इसमें रावण को लंकेश्वर तथा सीता को अपहरण करने वाला बताया है। ये लिप्यन्तरण 1927 में मार्तिज स्पिट्जर के द्वारा किये गये लिप्यन्तरण के आधार पर था। जिसमें से कुछ अंश कालक्रम के प्रवाह में नष्ट हो गये। जो स्पिट्जर के समय पढने योग्य थे, वे बाद में नष्ट होते गये। फिर भी शेष अंशों में भी राम, लंकेश्वर रावण, सीता, वानरराज का उल्लेख देखा जा सकता है। ये अंश Eli Franco ने प्रकाशित किये थे - 

- The Spitzer Manuscript :The Oldest Philosophical Manuscript in Sanskrit, Vol. 1, fol. no. 336b , page no. 198

उपरोक्त अंश में कुषाण कालीन ब्राह्मी लिपि में " अ///(ल) ङ्केश्वरेण रावणे (नापहर्ता सीता) " लिखा है। इसमें कुछ अध्याहार के साथ लंकेश्वर रावण शब्द स्पष्ट है। कुछ अन्य शब्द स्पिट्जर के समय स्पष्ट थे। 

- The Spitzer Manuscript :The Oldest Philosophical Manuscript in Sanskrit, Vol.1, Fol. no. 435a, page no. 222

उपरोक्त मातृका अंश में "(व) भ्याम् सीताप(हरा) " वाक्य है। इसमें सीता जी का उल्लेख है। 


- The Spitzer Manuscript :The Oldest Philosophical Manuscript in Sanskrit, Vol. 1, fol. 656b, page no. 277

इस अंश में "रामस्य रा... /// (3) (पौलोम्) " लिखा है। यहां श्री राम का स्पष्ट उल्लेख है। 


- The Spitzer Manuscript :The Oldest Philosophical Manuscript in Sanskrit, Vol. 1, fol. no. 656a, page no. 277

 इस अंश में " 1) (भा?) र्तृपरिते (शा?) ////2) (वा) नरराजं" लिखा है। इसमें वानरराज सुग्रीव का उल्लेख है। 

इस प्राचीन पांडुलिपि में रामकथा सम्बंधित जितने भी अंश है। उनसे स्पष्ट है कि उस समय भी वाल्मीकि रामायण का ही प्रभाव था। इस कारण इसमें रावण को लंकेश्वर, सीता का अपहरण और वानरराज सुग्रीव का उल्लेख हुआ है, जिनका दशरथ जातक में सर्वदा अभाव देखा जा सकता है। यदि पांडुलिपि में वाल्मीकि आधारित रामकथा का उल्लेख 100 ईस्वी अथवा कुषाण कालीन है तो वाल्मीकि रामायण निश्चित ही इससे भी प्राचीन सिद्ध हो जाती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि दशरथ जातक से पूर्व या जिस समय जातक प्रचलित हो रहे थे, उस समय भी वाल्मीकि रामायण का ही प्रभाव था। इसकी पुष्टि अन्य पुरातात्विक प्रमाणों के साथ - साथ इस पांडुलिपि से भी होती है। 

अतः हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि दशरथ जातक वास्तव में रामायण का भ्रष्ट रुप है। जिसमें बौद्ध मान्यताओं के अनुरूप रामकथा को दर्शाने का प्रयास किया गया है। जैसे कि बौद्ध सिद्धांतों में शोक न करने की बात है, उसी मान्यता को पूर्व प्रचलित श्री राम की कथा में बदलाव करके दसरथ जातक में बताया गया है। 

कुछ विद्वानों के तथ्य जिन्होंने रामायण को दसरथ जातक से प्राचीन माना है - 

 कपिलदेव द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक "संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास" में रामायण के बौद्ध मत से प्राचीन होने के कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं। यह तथ्य वास्तव में मेकडोनैल ने अपनी पुस्तक "A History Of Sanskrit Literature" के पृष्ठ संख्या 307 - 310 तक में किया था। उन्ही का हिंदी भावार्थ कपिलदेव जी की पुस्तक से देखिये - 



- संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, पृष्ठ संख्या 108 - 109


यहां हम पाठक गणों पर छोडते है ं कि वे इन तथ्यों को कितना पुष्ट समझते हैं। लेकिन इतना तो प्रमाणित हो चुका है कि रामायण बौद्ध साहित्य से प्राचीनतम है। 

अब हम देखेगें कि बौद्धों ने रामायण के शुद्ध रूप को न देकर, उसका भ्रष्ट रूप दसरथ जातक क्यों दिया? 

इसका जो कारण है कि बौद्ध लोग रामायण और महाभारत को व्यर्थ कथा मानने लगे थे और जहाँ इसका पाठ हो वहां जाने का निषेध करने लगे थे। क्योंकि बुद्ध ने ब्रह्मजाल सुत्त में ऐसी कथाओं को सुनने और कहने का निषेध किया है, जिनमें युद्ध, प्रलाप आदि हो। दीघनिकाय की अट्ठकथा टीका "सुमङ्गलविलासिनी" में हमें इस बात के प्रमाण मिलते हैं - 

- चूळसीलवण्णना 9, ब्रह्मजालसुत्तवण्णना, सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा, दीघनिकाय अट्ठकथा, पृष्ठ 45

यह विपश्यना रिसर्च इंस्टीट्यूट से प्रकाशित (यह ओनलाइन भी पढ सकते हैं) संस्करण है। हम इसकी प्रमाणिकता को पुष्ट करने के लिए दूसरा संस्करण भी प्रस्तुत करते हैं - 

- D. 1.1.9. The Sumangala - Vilasini ,  Buddhaghosa's commentary on the Digha - Nikaya, part I, page no. 76

 यह "Pali text society" से प्रकाशित संस्करण है, जिसमें मूल अट्ठकथा को रोमन लिपि में प्रकाशित किया है। यहां अट्ठकथा टीकाकार ने सम्फप्पलाप शब्द की व्याख्या में निरत्थककथा के उदाहरण में महाभारत अर्थात् भारत युद्ध और सीताहरण अर्थात रामायण का नाम लिया है। अर्थात प्राचीनकाल में बौद्ध इनको निर्थक कथा मानते थे। इसलिए हम देखते हैं कि दसरथ जातक में भी "सीता हरण" वाला प्रकरण हटा दिया है। क्योंकि उस जगह श्री राम का शोक करना देखा जा सकता है। जबकि दसरथ जातक में राम को बोधिसत्व दिखाया है जो कि पिता की मृत्यु पर भी शोक नहीं करते हैं।

इससे आगे अट्ठकथा में लिखा है कि महाभारत और रामायण अक्खान है। जहां भी इनका पाठ हो वहां नहीं जाना चाहिए। 


- मज्झिमसीलवण्णना 13, ब्रह्मजालसुत्तवण्णना, सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा, दीघनिकाय अट्ठकथा, पृष्ठ 49

Pali text society के संस्करण में "भारतयुज्झनादिकं" के स्थान पर पाठभेद "अक्खानं ति भारत-रामायणादि" है। 



-  D. 1.1.13, The Sumangala - Vilasini ,  Buddhaghosa's commentary on the Digha - Nikaya, part I, page no. 84

इससे पता चलता है कि बौद्ध इन्हें व्यर्थ प्रलाप, निरर्थक मानते थे। इसीलिए दसरथ जातक में रामायण की मूल कथा न देकर साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह के कारण अलग कथा दी गई है। 

अत: निष्कर्ष निकलता है कि रामायण का अस्तित्व दसरथ जातक की रचना से भी पूर्व था। बुद्ध युद्ध, शोक वाली कथाओं को निरर्थक, व्यर्थ मानते थे। इसीलिए रामायण की मूल कथा से रावण युद्ध, सीता हरण आदि प्रकरण हटाकर और अपनी मान्यताओं के अनुकूल कथा को ढालकर दसरथ जातक नामक कथा की रचना हुई। जिसमें बोधिसत्व राम को शोक रहित दिखाकर शोक न करने की शिक्षा दी है। क्योंकि जातकों में समाज प्रचलित कथाओं को बुद्ध ने अपने पुर्वजन्म की घटना के रूप में बताया था, उसी प्रकार दसरथ जातक को भी रामायण कथा से बदलाव के साथ पूर्व जन्म की कथा के रूप में बताया गया है। 
इन सब अकाट्य प्रमाणों से नवबौद्धों का यह दावा रेत के महल की तरह ढह जाता है कि रामायण दसरथ जातक की नकल है। 

संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तकें - 

1) जातक [चतुर्थ खंड ] - अनु. भदन्त आनन्द कौसल्यायन

2) जातक [ पञ्चम खंड ] - अनु. भदन्त आनन्द कौसल्यायन

3) जातक [ षष्ठ खंड ] - अनु. भदन्त आनन्द कौसल्यायन

4) The Amaravati mode of sculpture (Bulletin of the madras government museum) - Ed. by C. Sivaramamurti 

5) सुत्तनिपात - अनु. भिक्षु धर्मरत्न 

6) छांदोग्य उपनिषद - विकीस्रोस से 

7) मज्झिम निकाय - अनु. त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन 

8) The middle Length Discourses of the buddha(A new translation of the Majjhima - Nikaya)  - Trans. by Bhikkhu Nanamoli and Bhikkhu Bodhi 

9) दीघनिकाय (अट्ठकथा) - palitripitak site से 

10) प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख भाग 1 - डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त 

11) Epigraphia indica vol. VIII

12) A History Of Sanskrit Literature -  Arthur A. Macdonell

13) संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास - डॉ. कपिलदेव द्विवेदी 

14) The Sumangala - Vilasini , Buddhaghosa's commentary on the Digha - Nikaya, Part - I - Ed. by T. W. Rhys Davids and J. Estlin Carpenter

15) Uttankita Sanskrit Vidya Aranya Epigraphs Vol. II (Prakrit and Sanskrit Epigraphs 257 B. C. to 320 A.D.) - Ed. by K. G. Krishnan

16) Epigraphia Indica, Vol. XXXIV

17) Journal of the American Oriental Society, Vol 89, No. 2 (Apr - Jun. ,1969)

18) The Spitzer Manuscript :The Oldest Philosophical Manuscript in Sanskrit, Volume 1 - Eli Franco 

19) Proceedings Of The Indian History Congress , 1990, Vol. 51

20) Journal Of The Epigraphical Society Of India, Vol. 20 : 1994

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