बुधवार, 1 अप्रैल 2020

भागवत पुराण में यादवों का वंश व इतिहास प्रक्षिप्त करने के लिए अनेक निरर्थक प्रयास द्वेष वादीयों ने किए प्रस्तुत हैं उसके कुछ नमूने...


भागवत पुराण में यादवों का वंश व इतिहास प्रक्षिप्त करने के लिए अनेक निरर्थक प्रयास द्वेष वादीयों ने किए
प्रस्तुत हैं उसके कुछ नमूने ...
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ये श्लोक माधवाचार्य की भागवत टीका पर आधरित हैं 
जिसमें गोपों को ही यादव और अहीर भी बताया है ।👇
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देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवु: महामता: ।
अश्मिकासतप्रभाश्च गुणवत्य:राज्ञ्यो रूपाभि:।१।

अर्थ:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ  रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं ।
अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती नाम और  रूप के अनुसार थीं।१।

अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।
सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।

अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया
और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया।

गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् 
अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य: यशस्विना।३।

अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए 
अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।

पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।
 ये गोपालनं  कर्तृभ्यः लोके गोपारुच्यन्ते।। ४।

अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए 
ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।

 गौपालनेन गोपा: निर्भीकेभ्यश्च  आभीरा ।
यादवा लोकेषु वृत्तिभि: प्रवृत्तिभिश्च ब्रुवन्ति ।५।।

गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर
यादव ही लोगों में गोप और आभीर कहलाते हैं 

आ समन्तात् भियं राति ददीति शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति 
ते गौश्चरा गोपा पाला गोैपाला गौपालनेन कथ्यन्ति।।
 ।६। 
शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।
ये गौचारण, पालन करने से ये गोप , गौश्चर पाल और गोपाल कहलाते हैं ।

अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।
वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर: बभूव ।।७।

अरि ( वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है )उससे आर्य्य शब्द हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर से आवीर और उससे ही आभीर शब्द हुआ।

ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति ।
भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यन्तु  ।।
अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का 
ईश्वर के रूप में वर्णन करता है ।
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"यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:|९ 
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अर्थात्-- जो अरि इस  सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है ,
जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है ,
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१)
देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है 
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अपिच :-
" विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,
               ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् 
              स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।।
ऋग्वेद--१०/२८/१
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ऋषि पत्नी कहती है !  कि   देवता  निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,)
परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )

प्रस्तुत सूक्त में अरि: युद्ध के देव वाचक है ।
देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी ।

सैमेटिक संस्कृति में "एल " एलोहिम तथा इलाह इसी के  विकसित है ।

यूनानी पुराणों में अरीज् युद्ध का ही देवता है ।
हिब्रूू बाइबिल में यहुदह् "Yahuda" के पिता को अबीर कहा गया है और अबीर शब्द ईश्वर का  बाचक है हिब्रूू बाइबिल में ...
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विशेष :- लौकिक संस्कृत भाषा में अरि शब्द के अर्थ १-शत्रु २- पहिए का अरा ३- घर भी है ।
जबकि वैदिक कालीन भाषा में अरि का अर्थ ईश्वर और घर ही है ।

(अर् )ऋ--इन् :-१ शत्रौ 

२ रथाङ्गे, चक्रे,

 ३ विट्खदिरे, 

४ कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्येषु षट्सु, तत्संख्यासाम्यात् 

५ षट्संख्यायां, 

६ ज्योतिषप्रसिद्धे लग्नावधिके षष्ठस्थाने 

७ ईश्वरे च वेदेषु ।

संस्कृत विद्वान उपर्युक्त तथ्यों का विश्लेषण स्वं कर सकते  हैं ...

हरिवंशपुराण तथा अन्य पुराणों में वर्णन मिलता है कि
इक्ष्वाकु वंश का विलय यदुवंश में हो गया 
हर्यश्व ने यदु को अपना दत्तक पुत्र मान लिया 

'परन्तु हर्यश्व की पत्नी मधुमती के गर्भ से यदु का जन्म होना एक प्रक्षेप उत्पन्न करता है ।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय 
श्लोक संख्या ४६ पर वर्णित है 👇

तस्यैव च सुवृत्तस्य पुत्रकामस्य धीमत:।
मधुमत्यां सुतो जज्ञे यदुर्नाम महायशा ।४४।

पुत्र की इच्छा रखने वाले उन्हीं सदाचारी एवं बुद्धि मान हर्यश्व के मधुवती के गर्भ से महायशस्वी यदु का जन्म हुआ ।४४।
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यदुर्नामाभवत् पुत्रो राजलक्षणपूजित: ।
यथास्य पूर्वजो राजा पुरुषों: स सुमहायशा: ।।४६।

हर्यश्व का वह पुत्र यदु नाम से ही हुआ।
यदु राजोचित लक्षणों से समन्वित होकर दिनों दिन बढ़ने लगे शत्रुओं के लिए वे सर्वथा अजेय थे ।४६।

वस्तुतः उपर्युक्त श्लोकों में प्रसव क्रिया द्वारा मधुमती के गर्भ से यदु के उत्पन्न होने का वर्णन है ।
दत्तक पुत्र की ये विशेषताऐं नहीं होता हैं ।
ये सब यादवों का इतिहास ध्वंश करने का उपक्रम है ।

पुराणों की टीका करने वाले  पण्डितों 'ने इस प्रक्षेपों का निराकरण 
इस प्रकार करते हैं कि ययाति पुत्र यदु ही योग-बल से हर्यश्व के पुत्र रूप में प्रकट हुए ।

'परन्तु यह बात प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध ही है ।
सृष्टि- की यह 'परम्परा सदीयों से रही यग केवल और केवल  यादवों का इतिहास 'न जानना या बिगाड़ना है ।
ताकि उनका स्वाभिमान भी खण्डित 'न हो जाय  हरिवंशपुराण के  विष्णुपर्व में वर्णित किया गया है

 इसी सैंतीसवें अध्याय में श्लोक संख्या (४६) पर 
जब एक वीर हर्यश्व पुत्र यदु महासागर में जल क्रीडा कर रहे थे ; तभी सर्पों के राजा धूम्रवर्ण 'ने अपने लोक समुद्र की गहराईयों में वहाँ अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप में यदु को दी और कहा कि तुम्हारे पिता 'ने इस वंश की नींम डालकर तुम जैसे तेजस्वी पुत्र को जन्म  दिया  यदु पुं़तुम्हारे नाम से यह वंश यादव कहलाएगा ।
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सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇

 " भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय 

जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम  और वृष्णि के नाम वाले प्रसिद्ध होंगे ।

इन नागकन्याओं से पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-महाबाहुमुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा राजा हरित ये पाँच पुत्र थे ।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत)
 अध्याय 38 श्लोक 1-5
        हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 1-5

तासु नागकन्यासु कालेन महता नृप:।
जनयामास विक्रान्तान् पंचपुत्रानकुलोद्वहान्।।1।।

मुचुकुन्दं महाबाहुं पद्मवर्णं तथैव च।
माधवं सारसं चैव हरितं चैव पार्थिवम्।।2।।

एतान् पंच सुतान् राजा पंञ्चभूतोपमान भुवि।
ईक्षमाणो नृप: प्रीतिं जगामातुलविक्रम:।।3।।

ते प्राप्तृवयस: सर्वे स्थिता: पंच यथाद्रय:।
तेजिता बलदर्पाभ्यामूचु: पितरमग्रत:।।4।।

तात युक्ता: स्म वयसा बले महति संस्थिता:।
क्षिपमाज्ञप्तुभमिच्छाम: किं कर्मस्तव शासनात्।।5।।_____

राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।

माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।

सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । 
इनके वंशज भैम कहलाये जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था । तब इसका समय मधु पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला ।३९।

 और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न'ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।

तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।

'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी के नाना मधु की नगरी थी ।

भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए । ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।

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  एवमिक्ष्वाकुवंशात् तु यदुवंशो विनि:सृत:।
चतुर्धा यदुपुत्रैस्तुं चतुर्भिर्भिद्यते पुन:।।35।।

अर्थ:- इस प्रकार यह यदुवंश इक्ष्वाकु वंश से निकला ; फिर यदु के चार छोटे पुत्रों द्वारा चार शाखाओं में बँट गया ।35।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40

स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।

वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य देकर इस भूतल पर शरीर त्यागकर ही स्वर्ग को चले गये ।36।


बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।

माधव का पराक्रमी पुत्र सत्त्वत  नाम से विख्यात हुआ वे गुणवान राजा सत्वत राजोचित्र गुणों में प्रतिष्ठित थे ; और सदा सात्विक वृत्ति से रहते थे ।37।

सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।

सत्वत के राजा  पुत्रवान् राजा भीम हुए जिसमें भावी पीढ़ी के लोग भैम कहलाए सत्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको सात्त्वत  भी माना गया है ।।38।

राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।

जब राजा भीम आनर्त प्रदेश के राज्य पर आसीन थे उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान राम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे; उनके राज्य काल में शत्रुघ्न ने मधु के पुत्र लवण को मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला ।।।39।
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तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।

उसी मधुवन के स्थान में सुमित्रा का आनंद बढ़ाने वाले प्रभावशाली शत्रुघ्न ने उस मथुरा पुरी को बसाया था ।40।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 41-45
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पर्यये चैव रामस्यव भरतस्यू तथैव च।
सुमित्रासुतयोश्चैवव स्थानप्राप्तं च वैष्णेवम्।।41।।

भीमेनेयं पुरी तेन राज्यसम्बन्धकारणात्।
स्ववशे स्थापिता पूर्वं स्वयमध्यारसिता तथा।।42।।

जब श्री राम के अवतार का उपसंहार हुआ और श्री राम भरत लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न सभी परम धाम को पधारे तब  सात्त्वत पुत्र  भीम ने इस वैष्णव स्थान यानी मथुरा को प्राप्त किया क्योंकि लवण के मारे जाने पर उस राज्य से उन्हीं का लगा रह गया था।

(और वे वही उत्तराधिकारी होने के योग्य थे💥 
कारण यह था कि  यादव भीम ने इस पूरी को अपने वंश में किया और वह स्वयं भी यहीं आकर रहने लगे ।।41-42।
💥 हर्यश्व के ही दत्तक पुत्र यदु मधु की पुत्री मधुमति के गर्भ से भीम उत्पन्न हुए थे ;

इसलिए वे मधु के दौहित्र थे नाना के कोई पुत्र ना हो तो उनकी संपत्ति दौहित्र को ही प्राप्त होनी चाहिए ! यह शास्त्र का नियम है।
 अतः लवणासुर के मारे जाने पर यदु के पौत्र ( नाती  भीम ही उस समय उस राज्य के अधिकारी हुए
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तत: कुशे स्थिते राज्ये लवे तु युवराजनि।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।

अर्थ:-तदनंतर जब अयोध्या के राज्य पर कुश प्रतिष्ठित हुए और लव युवराज बन गई तब मथुरा में भीम के पुत्र अंधक राज्य करने लगे ।43।

अन्धकस्य सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।
(इसके मथुरा पुरी में ) अंधक के पुत्र राजा रेवत हुए रेवत से पर्वत के रमणीय शिखर पर ऋक्ष का जन्म हुआ  इस प्रकार उनसे रेवत यानी ऋक्ष की उत्पत्ति हुई उस समय समुद्र के तट की भूमि पर जो विशाल भूधर था वह उसी रेवतक के नाम पर रेवतक पर्वत के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।।44-45।।

ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।


हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50

रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:।
बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।

रेवत अर्थात ऋक्ष के पुत्र महा यशस्वी राजा विश्वकर्म ( देवमीढ) हुए जो इस पृथ्वी पर प्रसिद्ध और प्रभावशाली भूमि पाल थे ।46।

तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।

उनके नाम इस प्रकार हैं  वसु ,वभ्रु सुषेण ,और बलवान् सभाक्ष यह यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे ।48।

वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्।
यदुप्रवीरा: प्रख्या्ता लोकपाला इवापरे।।48।।

श्री कृष्ण राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से संपन्न कर दिया जिनके साथ इस संसार में बहुत से संतानवान् नरेश हैं ;  वसु से (जिनका दूसरा नाम शूरसेन था ) वसुदेव उत्पन्न हुए  यह बसु पुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं ।

वसुदेव की उत्पत्ति के अनंतर वसु ने दो  कन्याओं को जन्म दिया जो  पृथा यानी कुंती और श्रुति श्रवा नाम से विख्यात हुई इनमें से पृथा कुन्त देश में राजा कुंत भोज की दत्तक पुत्री के रूप में रहती थी 

कुंती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी महाराज पांडु की महारानी हुई  तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशिका होने वाली चेदिराज दमघोष की पत्नी हुई 49से 51

तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:।
यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।

श्री कृष्ण यह मैंने तुमसे अपने यादव वंश की उत्पत्ति बताई है इसे मैंने पहले कृष्ण द्वैपायन व्यास जी से सुना था ।52।
वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:।
तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 51-55

कुन्तीं च पाण्डोर्महिषीं देवतामिव भूचरीम्।
भार्यां च दमघोषस्य चेदिराजस्य सुप्रभाम।।51।।

एष ते स्वस्य‍ वंशस्य प्रभव: सम्प्रकीर्तित:।
श्रुतो मया पुरा कृष्ण कृष्णद्वैपायनान्तिकात्।।52।।

त्वंत त्विदानीं प्रणष्टऽस्मिन् वंशे वंशभृतां वर।
स्वंयम्भूरिव सम्प्राप्तो् भवायास्मशज्जयाय च।।53।।

न तु त्वां पौरमात्रेण शक्ता‍ गूहयितुं वयम्।
देगुह्येष्वपि भवान् सर्वज्ञ: सर्वभावन:।।54।।

शक्तहश्चाापि जरासंधं नृपं योधयितुं विभो।
त्वतद्बुद्धिवशगा: सर्वे वयं योधव्रते स्थिता:।।55।।
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इति महाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि विकद्रुवाक्यं नामाष्टात्रिंशो८ध्याय: ।।38।।
(महाभारत खिलभाग हरिवशं पर्व के अन्तर्गत विकद्रु का वाक्य विषयक अड़तालीसवाँ अध्याय)

गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या 453से 454 तक के श्लोक देखें 
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राजपूत और पण्डित तिलकधर शर्मा आदि सभी 
अहीरों के खिलाफ भौंकने से पहले माधवाचार्य की भागवत टीका से सम्बद्ध उपर्युक्त  श्लोकांशों को पढ लें ...
कालान्तरण में भागवत पुराण में अनेक प्रक्षेपों का समावेश द्वेष वादीयों ने कर दिया जिन्हें निम्नलिखित श्लोकों में देखें -👇

"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: आख्यास्यते राम इति।।
 बलाधिक्याद् बलं विदु:।।

यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२।।

विशेष :- वश् =
( कान्तौ चमकने में) धातु
लट्लकार के रूप निम्नलिखित हैं 
 (प्रथमपुरुषः वष्टि उष्टः उशन्ति)
(मध्यमपुरुषः वक्षि उष्टः उष्ट)
(उत्तमपुरुषः वश्मि उश्वः उश्मः)
और कृष् =विलेखने ( खींचने में )

यहाँ उशन्ति क्रिया पद अनावश्यक ही है ।
वह भी लट्लकार( वर्तमान काल में )
और बहुवचन 

यदि यह श्लोक सही होता तो कृष् धातु का  लृटलकार (भविष्यत् काल का क्रिया पद "क्रक्ष्यति" होना चाहिए वह भी अलग करने के अर्थ में नकि जोड़ने के अर्थ में ..

( झूँठ प्रारम्भ में प्रभाव शाली हो सकता है 'परन्तु 
कुछ समयोपरान्त उसका बजूद भी मिट जाता है ।)

अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। 
इस लिए इसका नाम रौहिणेय होगा  यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा। 

इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है।।

'परन्तु  यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।
( यह सम्पूर्ण उपर्युक्त संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अंश प्रक्षिप्त है ।

क्यों  सङ्कर्षण शब्द की व्युत्पत्ति 
सम् उपसर्ग में कृष् धातु में ल्युट्(अन) तद्धित करने पर होता है ।
जिसका अर्थ है सम्यक् रूप से कर्षण ( जुताई करने वाला ) 
आपको पता ही है कि बलराम का  शस्त्र  जुताई का यन्त्र हल ही था । वस्तुतः कृष्ण और संकृष्ण ( संकर्षण) दौनों ही गोप या चरावाहे थे 
और कृषि का विकास भी चरावाहों ने किया ।

हरिवंशपुराण में सम्यग् रूपेण संकृष्यते गर्भात् गर्भान्तरं नीयतेऽसौ इति. सङ्कर्षण ।
 (सम् + कृष्ल्युट् )= सङ्कर्षण
२ आकर्षणे ३ स्थानान्तरनयने च न० ।
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तत्कथा हरिवश पुराण०  विष्णुपर्व  द्वित्तीय अध्याय पर देखें👇
(गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या 281)

 “सप्तमो देवकीगर्भो योऽंशः सौम्यो ममाग्रजः । 
स संक्रामयितव्यस्ते सप्तमे मासि रोहिणीम् । ३१।

 सङ्कर्षणात्तु गर्भस्य स तु सङ्कर्षणो युवा ।
 भविष्यत्यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शनः” ।३२।
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 देवकी का जो सातवां गर्व होगा वह मेरा ही सौम्य अंश होगा और मुझसे पहले अवतरित  होने के कारण मेरा बड़ा भाई होगा वह गर्भ जब सात महीने का हो जाय , तब उसे खींचकर रोहिणी देवी के गर्भ में स्थापित कर देना ।31। 
गर्भ का संकर्षण होने से वह वीर संकर्षण नाम से प्रसिद्ध होगा , चन्द्र के समान गोल वर्ण से सुशोभित दिखाई देगा तथा वह मेरा बड़ा भाई होगा ।32।

इसके विपरीत भागवत पुराण में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक व मनगड़न्त रूप से जोड़ी गयी कि यादव और गोपों को अलग दर्शाया जा सके ....

सत्य और यथार्थ यद्यपि समानार्थक प्रतीत होने वाले नाम हैं ।
'परन्तु सत्य हमारी कल्याण मूलक अवधारणाओं पर अवलम्बित है ।
इसमें हमारी मान्यताओं का पूर्वाग्रह समायोजित है
समय , परिस्थिति और देश के अनुकूलता पर जो उचित है- वही सत्य है ।
'परन्तु यह सर्वकालिक व शाश्वत नहीं है 

सत्य मे यद्यपि कल्याण का भाव विद्यमान है।
जबकि यथार्थ में नहीं...
यथार्थ नंगा सच हो सकता है ।
यथार्थ को पुराण कार व्यक्त न कर सके ।
इसी लिए तत्कालीन पुरोहित समाज ने गोपों से असंतुष्ट होकर उन्हें शूद्र भी घोषित करने की दुश्चेष्टा की कारण वर्ण व्यवस्था को स्वीकार न करना ।
जो सबको अच्छा नहीं लग सकता है ।
..
इसका प्रमाण है 
भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें ।

देखें--- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।
जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में भी हैं 👇__________________________________________

यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: । 
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७। 

अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ । 
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७। 

समाहार :-यद्यपि प्रत्येक कुल का एक ही पुरोहित हो यह तथ्य तर्कसंगत नहीं 
नन्द के पुरोहित शाण्डिल्य कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ के पुरोहित क्यों बने ? 
यदि वे नन्द के पुरोहित थे तो ...

दूसरा श्लोक और देखें---
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"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: । 
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:।
यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२

अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। 
इस लिए इसका नाम रौहिणेय यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।
 

इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है। 
यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।

परन्तु भागवतपुराण में ही परस्पर विरोधाभासी श्लोक हैं देखें--- 
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" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत ।
नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९। 

वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०। 

अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।

जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।
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और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ। 

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 

और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है । ____________________________________________ 
वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। 
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः। 

यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । 
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा । 

स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२ 
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। 
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४ 

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५। 

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:। 
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६। 

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। 
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। __________________________________________

गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।

उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१।
 
कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है । 

उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३। 

इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों का पालन करेंगे ...
_____
सत्य और यथार्थ यद्यपि समानार्थक प्रतीत होने वाले नाम हैं ।

'परन्तु सत्य हमारी कल्याण मूलक अवधारणाओं पर अवलम्बित है ।
समय , परिस्थिति और देश के अनुकूलता पर जो उचित है- वही सत्य है ।

सत्य मे यद्यपि कल्याण का भाव विद्यमान है।
यथार्थ में नहीं...

यथार्थ को पुराण कार व्यक्त न कर सके ।
इसी लिए तत्कालीन पुरोहित समाज ने गोपों से असंतुष्ट होकर उन्हें शूद्र भी घोषित करने की दुश्चेष्टा की ! 
कारण उनकी बनायी वर्ण -व्यवस्था को स्वीकार न करना ..
इसका प्रमाण है 
भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें ।

देखें--- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।
जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में 

इन श्लोकांशों को पुन: इस लिए प्रस्तुत किया जा रहा है कि मनीषियों का ध्यान इन के विश्लेषण में संलग्न हो !
__________________________________________

यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: । 
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७। 

अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ । 
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७। 
दूसरा श्लोक और देखें---
________________________ 

"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: । 
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:।
यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२

अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। 
इस लिए इसका नाम रौहिणेय यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा। 

इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है। यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।
परन्तु भागवतपुराण में ही परस्पर विरोधाभासी श्लोक हैं देखें--- 
______________________ 

" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत ।
नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९। 

वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०। 

अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।

जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।

और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।

 महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 

और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है । ____________________________________________

वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। 
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः। 

यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )

"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । 
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा । 

स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२ 
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। 
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४ 

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५। 

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:। 
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६। 

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। 
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। __________________________________________


गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।


उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१।

कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है । 

उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३। 

इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।

मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। 

कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं २४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ --) 
यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित--- पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है। ______________________________

गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । 
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४
(ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य . तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है । 

गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । _________________________________________

" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । 
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले !और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।। 
कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है । 

जैसे ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि " नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप : अर्थात् नन्द क्षत्रिय गोपलन करने से ही गोप कहलाते हैं । ( इति ब्रह्म पुराण) 
और भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है कि 

वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् । 
पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47। 

भा०10/5/20/22 यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है । 
और नन्द से वसुदेवअनामय शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63। 
अथवा ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64। 

संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है ;
कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ । " नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65। 
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है ।

यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु । 
पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।

प्रसिद्ध यदु वंशी पर्जन्य गोप के प्राणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे ; जिसमें नन्द राय मुख्य थे । 
अब इस प्रकार तो गोप और यादव एक हुए ।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि 

" जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68।

अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक उत्पन्न हुए थे ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अ०13,38,39,में सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर: पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।। 

तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94। 
जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ;

 तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है।

 और माता का नाम पद्मावती सती है 
तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो! _________________________________________ 

परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित करता है ।

अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ।
स्मृति-ग्रन्थों की रचना काशी में में बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में लिखीं गयी ।
गोपों में हीन भावना भलने के लिए उन्हें शूद्र कन्या में क्षत्रिय से उत्पन्न कर दिया । 
-------------------------------------------------------------
" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: । 
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:

 ----------------------------------------------------------------- 
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।

और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....

फिर पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..गोप अर्थात् अहीर शूद्र हैं ।
__________________________________________

वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । 
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद।
चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। 

एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: 
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। -----------------------------------------------------------------
वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
____________________________

अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। 
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। 
(व्यास-स्मृति)

नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। __________________________________________

(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) 
------------------------------------------------------------------
स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
_________________________________________ 

" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । 
पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
__________________________________________

अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
--------------------------------------------------------------
 
निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।

परन्तु स्वयं वही संस्कृत -ग्रन्थों में गोपों को परम यौद्धा अथवा वीर के रूप में वर्णन किया है । 
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं । 
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर गर्गसंहिता के हबाले से लिखा है कि 👇 __________________________________________

अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे । 
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
 मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102। _______________________

अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं । 

जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है । 
वह समग्र पाप -तापों से मुक्त हो जाता है ।।102।

फिर यह कहना पागलपन है कि कृष्ण यादव थे नन्द गोप थे ।
भागवतपुराण में वर्णित यह विरोधाभासी बकवास स्वयं ही खण्डित हो जाती है । 
भागवतपुराण बारहवीं सदी की पुनारचना है । 
और इसे लिखने वाले कामी व भोग विलास -प्रिय ब्राह्मण थे । पुष्यमित्र सुंग के विधानों का प्रकाशन करने वाला है। 
अब कोई बताएे कि गोप ही गोपिकाओं को लूटने वाले कैसे हो सकते हैं ?
 यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है । ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है । __________________________________________ 
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
 गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/) 

विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है । 

क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए) स्मद्दिष्टी स्मत् दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला । 
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।

ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है । 
____________________________________ 

प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:। नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) ________________________________________ 

हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। 
अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो । 
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो । _______________________________________ 

और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।... देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । 
अवाहन् नवतीर्नव ।१। 
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२। (ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२) 
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १। 

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।

यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे। असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया । 

यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी ____________________________________ 
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । 
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७) _______________________________________

हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला । अर्थात् उनका हनन कर डाला । 

अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । 
निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश "बहुतायतकिम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
 अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/ हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । 
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
तुम मुझे क्षीण न करो । ________________________________________ 
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।

यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है । 

अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।

यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है 
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है। 

यदु एेसे स्थान पर रहते थे।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।

 (ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् ।
“हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् 
देखें-ऋग्वेद में 
________________________________________

शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् । 
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७। 

यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६ अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
 यहाँ एक तथ्य विचारणीय है कि असुर शब्द का पर्याय वैदिक सन्दर्भों में दास शब्द है ।

दास शब्द देव संस्कृति के विरुद्ध रहने वाले दाहिस्तान Dagestan को निवासीयों का विशेषण है 
---जो ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी तथा अहुर-मज्दा (असुर महत्) में आस्था रखने वाले हैं ।

पुराणों में भी कहीं गोपों को क्षत्रिय कहा गया है; तो स्मृति-ग्रन्थों में उन्हीं गोपो को शूद्र रूप में वर्णित कर दिया है । 

भारतीय पुराणों में द्रविडों को शूद्र रूप में परिगणित किया है। और कृष्ण को भी क्षत्रिय घोषित नहीं किया ।

पुराणों का कथ्य है कि यदु दास अथवा असुर होने से शूद्र हुए अत: वे राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। राजा और क्षत्रिय परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। 

अमरकोश में क्षत्रिय के पर्याय वाची रूप हैं
( 2।8।1।1।4 )
मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्. राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः॥ 

मूर्धाभिषिक्त, राजन्य, बाहुज,क्षत्रिय,विराट,राजा,राट् , पार्थिव, क्ष्माभृत् , नृप, भूप , तथा महिक्षित। 
वेद में राजन्य शब्द क्षत्रिय का वाचक है देखें--- ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।। (ऋग्वेद १०/९०/१२) परन्तु
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भागवतपुराणकार की बातें इस आधार पर भी संगत नहीं हैं ।
यहाँ देखिए -- 💥
"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।

आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।

श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय

अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।

और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; 
आप हम लोगो पर शासन कीजिए ! "क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।

अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। 
कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। 

भागवतपुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है वह कहता है कि " ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।
तो फिर उग्र सेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं 

हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं ।

ययाति का शाप उन पर लागू क्यों नहीं हुआ ?
देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं!👇

यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च । 
“अन्धकञ्च महाबाहुं वृष्णिञ्च यदुनन्दनम्” 
इत्युपक्रम्य “अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभ- तात्मजान् । 
कुकुरं भजमानञ्च शमं कम्बलबर्हिषम् ।
कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोसु तनयस्तथा । 

कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत् ।
जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः ।
तथा वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल । 

आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ” इत्याहुकोत्- पत्तिमभिधाय “आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबमूवतुः
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देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।
नवोग्रसे- नस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजः” 
(हरिवंश ३८ अध्याय

और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि 
(उग्रा सेना यस्य ) मथुरादेशस्य राजविशेषः ।
स च आहुकपुत्त्रः । 
कंसराजपिता च इति श्रीभागवतम पुराणम् --
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कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है । 
और फिर लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया। 
कि किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय रूप में सम्बोधित नहीं किया गया है। 

क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है ।

और आज ---जो यदुवंशी कहकर अपने को क्षत्रिय अथवा राज पुत्र ( राजपूत) घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है।

अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।

भागवत पुराण का रचनाकाल :-

भागवत पुराण यद्यपि को बोपदेव की कृति नहीं है 
जैसा कि आर्य समाजी मानते हैं ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वतीने श्रीमद्भागवतको १३वीं शती की रचना माना है ।

'परन्तु भागवत पुराण का सूत्र पात गुप्त काल में ही हुआ 
और बारहवीं सदी तक इसमें अनेक श्लोक और स्कन्धों का निर्माण भी हो गया था ।

स्वामी दयानन्द श्रीमद्भागवतको गीतगोविन्दके रचियता जयदेवजीके भाई बोपदेवकी रचना कहा है 

स्वामीजी का ये मत सर्वदा निराधार और असङ्गत है ।

प्रथम तो बोपदेवजी जयदेवजी भाई तो क्या देश-गोत्र-काल एक नहीं पृथक् हैं

बोपदेव द्रविड़ ब्राह्मण थे ।
और उनके कविकल्पद्रुमके अनुसार धनेश्वर-वैद्यके शिष्य केशव-वैद्यके पुत्र थे ;
और इनका उपनाम वेद था ।
जबकि कवि-जयदेव बंगाली ब्राह्मण और तिन्दविल्व-ग्राम के अधिवासी थे । 

गीतगोविन्द ग्रन्थके अनुसार उनके पिताका नाम भोजदेव था और माता रामादेवी ।
जयदेव बंगालके राजा लक्ष्मणसेन (११७८-१२०५ ई ) के राजगुरु थे । 
इधर बोपदेवजी हेमाद्रिके आश्रित थे 
जिनका काल १२९० ई सन् था ।

बोपदेव ने श्रीमद्भागवतकी परमहंसप्रिया नामकी टीका लिखी है ।

अपनी टीकाके साथ भागवतके प्रथम अध्यायके अन्तमें 'इति श्रीमद्भागवते महापुराणे अष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यासहितायां वैयासिक्याम् '
लिखकर व्यासजी का ही नाम दिया है । 
अब बोपदेवजीसे पहले की श्रीमद्भागवतके प्रमाण देता हूँ -
बोपदेवजीसे पूर्व श्रीमाध्वमुनि हुए हैं जिन्होंने अपने बनाये भाष्यादिमें श्रीमद्भागवतके प्रमाण उद्धृत किये हैं ,उनका काल ,स्मृत्यर्थसागरके अनुसार शाके सं० 1122 अर्थात्‌ विक्रम सं० 1257 है ।

इनसे भी पूर्ववर्ती श्रीरामानुजाचार्यजीने अपने रामतापिनी के भाष्य तथा सारसंग्रहमें भागवतके श्लोक लिखे हैं । 

उनसे भी पहले 7वीं 7वीं शतीमें चालुक्य-कलचुरी राजाओं जो वैष्णव थे ने मध्यप्रदेश में अनेकों वैष्णव मन्दिर बनवाए थे जिनकी प्राचीरों पर श्रीमद्भागवतके अनेकों श्लोकोंको अंकित किया है।

ऐसा ही है एक पुरातात्विक प्रमाण 7वीं शती का शहडोल जिला मध्यप्रदेशका वैष्णव मन्दिर जिसपर चार शिलाचित्र अभी भी विद्यमान हैं ।

इन चारों शिलाचित्रों में श्रीमद्भागवतके द्वादश स्कन्धों की सम्पूर्ण लीलाके चित्र बने हुए हैं जो कि बोपदेव से 600 वर्ष प्राचीन हैं । 

उससे भी प्राचीन भारहुत का स्तूप पर श्रीमद्भागवतकी गजेन्द्र-उद्धार लीला चित्र बना हुआ है जो ई पू २ शतीका है जिससे वो चित्र बोपदेव से 1500 वर्ष पहले का सिद्ध होता है । 

उससे भी प्राचीन आदि शङ्कराचार्य महाराज जिनका समय स्वयं स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विक्रमादित्य से 300 वर्ष पूर्व और स्वयं से ( 1875 सत्यार्थ प्रकाश लिखने के समय) से 2200 वर्ष पूर्व लिखा है ।

अर्थात् ई पू 4 वीं शती । 
प्रमाणिक तिथि 507-475 ई पू सिद्ध है । 
आदि शङ्कर भगवत्पादने अपने 
'चतुर्दशमतविवेक' में 'परमहंसधर्मो भागवते पुराणे कृष्णेनोद्धवायोपदिष्ट:' 
अर्थात्‌ इस परमभागवत-धर्मका भागवतपुराणमें श्रीकृष्णने उद्धवके प्रति उपदेश किया है ,ऐसा लिखा है । 

इसके सिवा उन्होंने श्रीविष्णुदिव्यसहस्रनाम के भाष्यमें कई स्थानोंपर भागवतके श्लोक उद्धृत किये हैं ।
409-475 ई ०पू० भगवत्पाद बोपदेव से 1800वर्ष पूर्व के भागवत से परिचित हैं । 

उनके गुरु श्रीगौड़पादचार्यजीने भी 'पञ्चीकरण व्याख्यामें 'जगृहे पौरुषं रूपं भगवान् महदादिभि: ' यह भागवत का श्लोक उद्धृत किया है । 

उनसे भी पूर्ववर्ती भागवत पर हनुमती और चित्सुखी नामकी टीकाएँ हैं , इससे श्रीमद्भागवत बोपदेव से भी 2000 वर्ष पूर्व (बोपदेव 1290-2000) 1290-2000वर्ष पूर्व 700 ई पू ) होना सिद्ध होता है । भागवत 700 ईसा पूर्व विद्यमान होने के प्रमाण मिलते हैं तब श्रीमद्भागवतकी रचना कब हुई ?
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सिंधु-सरस्वती सभ्यता से प्राप्त एक शिलाचित्र जिसमे भगवान् बालकृष्ण दो वृक्षों (यमलार्जुन ) को ऊखल से खीचते हुए दर्शाये गए हैं जो 2600ई पूर्व का है !

जिससे ये सिद्ध होता है कि श्रीमद्भागवत की कथा से लोग 2600 ई पू (4600 वर्ष पूर्व ) में परिचित थे ।

'परन्तु रामायण के समान पुष्य-मित्र सुंग के शासन काल में वाल्मीकि रामायण के समान भागवत पुराण में पाँचवी सदी के बाद से अनेक प्रक्षेप समाहित हो गये।
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नवीनत्तम संस्करण:-
 प्रस्तुति कर्ता -यादव योगेश कुमार 'रोहि'
8077160219...

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