बुधवार, 29 अप्रैल 2020

दास शब्द के वैदिक और लौकिक सन्दर्भ गत मायने ...

महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी 
यदि दास शब्द का अर्थ भक्त या सेवक करते हैं
तो शम्बर और वृत्र के लिए दास शब्द का प्रयोग वेदों में बहुतायत से हुआ है ।
और लौकिक ग्रन्थों में दास का अर्थ शूद्र है ।
दास शब्द का अर्थ भक्त तो आज कई उतार-चढ़ावों के बाद  हुआ है वह भी भक्ति काल बारहवीं तेरहवीं सदी से ...

मनीष नन्द जी यदि आप मानते हो कि वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ भक्त ही है 

तो वेदों की इन ऋचाओं में भी शम्बर और वृत्र के लिए भी दास शब्द का अर्थ भक्त ही होना चाहिए 
जिनका देवों के नेता इन्द्र से युद्ध हुआ था ।

महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी वेदो को ईश्वरीय रचना मानते हैं ऋषियों के द्वारा प्रकट 
और ये वेदों में इतिहास नहीं मानते हैं ।

'परन्तु ये सब अनर्थ ही है । 
क्योंकि प्रत्येक प्राचीन तथ्य स्वयं में इतिहास का मानक ही है ।

सबसे नीचे  महर्षि दयान्द की -विचार धारा के अनुयायी पं०  हरिश्चन्द्र सिद्धान्तालंकार
ऋग्वेद के दशम मण्डल की बासठवें  सूक्त की दशवीं ऋचा में दास का अर्थ "भक्त" बता रहे हैं ।
जो कि पूर्ण रूप से असंगत है ।
यह सब भाषा विज्ञान की जानकारी न होना ही है।
उनका अनुवाद भी सायण के भाष्य-पर आधरित है।
👇

 उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) 
सायण ने इस ऋचा का अर्थ किया " कल्याण करने वाले गायें से युक्त यदु और तुर्वसु नामक राजा मनु के भोजन के लिए पशु देतें हैं (सायण अर्थ१०/६२)१०) 

उत अपि च "स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ “दासा दासवत् प्रेष्यवत् स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् ॥
विशेष:- 
लौकिक ग्रन्थों में दास शब्द का अर्थ 
प्रैष्यवत् ( नौकर) है 

प्रैष्यः, पुं, (प्र + इष् + कर्म्मणि ण्यत् । “प्रादू- होढोढ्येषैष्येषु ।” ६ । १ । ८९ । इत्यस्य वार्त्ति- कोक्त्या वृद्धिः ।) प्रेष्यः । इत्यमरटीकायां भरतः ॥ (यथा, कुमारे । ६ । ५८ । “जङ्गमं प्रैष्यभावे वः स्थावरं चरणाङ्कितम् । विभक्तानुग्रहं मन्ये द्विरूपमपि मे वपुः ॥” क्ली, प्रेष्यस्य भावः । दासकर्म्म । यथा, कथा- सरित्सागरे । ३० । ९५ । “गवादिरक्षकान् पुत्त्रान् भार्य्यां कर्म्मकरीं निजाम् । तस्य कृत्वा गृहाभ्यर्णे प्रैष्यं कुर्व्वन्नुवास सः ॥”)

अमरकोशः

प्रैष्य पुं। 

दासः 

समानार्थक:भृत्य,दासेर,दासेय,दास,गोप्यक,चेटक,नियोज्य,किङ्कर,प्रैष्य,भुजिष्य,परिचारक 

2।10।17।2।3 

भृत्ये दासेरदासेयदासगोप्यकचेटकाः। नियोज्यकिङ्करप्रैष्यभुजिष्यपरिचारकाः॥ 

पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः

 वास्तव में उपर्युक्त ऋचा का अर्थ असंगत ही है क्यों की वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ सेवा करने वाला गुलाम या भृत्य नहीं है👇
और भक्त भी नहीं जैसे आज कल तुलसी दास ,या कबीरदास शब्दों में है ।
क्योंकि ये दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम और आधुनिक अर्थ से विपरीत ही हैं ।

 अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇
 उत दासं कौलितरं बृहतः पर्वतादधि ।
 अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥१४॥

 उत दासस्य वर्चिनः सहस्राणि शतावधीः ।
 अधि पञ्च प्रधीँरिव ॥१५॥

 उत त्यं पुत्रमग्रुवः परावृक्तं शतक्रतुः ।
 उक्थेष्विन्द्र आभजत् ॥१६॥

 उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
 इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥

 उत त्या सद्य आर्या सरयोरिन्द्र पारतः ।
 अर्णाचित्ररथावधीः ॥१८॥

 अनु द्वा जहिता नयोऽन्धं श्रोणं च वृत्रहन् ।
 न तत्ते सुम्नमष्टवे ॥१९॥

 शतमश्मन्मयीनां पुरामिन्द्रो व्यास्यत् ।
 दिवोदासाय दाशुषे ॥२०॥

 अस्वापयद्दभीतये सहस्रा त्रिंशतं हथैः ।
 दासानामिन्द्रो मायया ॥२१॥
________
 उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-४ /३० /१४ ________________________________________ 

उपर्युक्त ऋचा में  दास असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ______________________________________

कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे 
अर्थात् कुलितर यो कोलों की सन्तान होने से कौलितर 

“उत दासं कौलितरं वृहतः पर्व्वतादधि । 
अवाहान्निन्द्र” शम्बरम्” ऋ० ४ । ३०। १४ 
कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्” 

अर्थात्‌ इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया ।

 विदित हो कि असुर संस्कृति में दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा कुशल होता है । 
ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में किया है ।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे 
जिनका उपास्य अहुर-मज्दा ( असुर महत्) था ।
फारसी में "स"वर्ण का उच्चारण "ह" वर्ण के रूप में होता है ।
जैसे असुर- अहुर !सोम -होम सप्ताह- हफ्ताह -हुर हुर 
सिन्धु - हिन्दु आदि ...

'परन्तु भारतीय पुराणों या वेदों में ईरानी मिथकों के समान अर्थ नहीं है ।
अपितु इसके विपरीत ही है क्योंकि शत्रुओं कभी भी शत्रुओं की प्रसंशा नहीं करता है ।

 इसी प्रकार असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
 असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है । ____________________________________________

 पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है । __________________________________________ 

परन्तु ये लोग असीरियन ही थे । 
जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन, से सम्बद्ध थे । 
दास देगिस्तान की जन-जाति है । 

यदु और तुर्वसु नामक दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दासों की प्रशंसा करते हैं। 

यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। 
दास का सही अर्थ देव संस्कृति का विरोधी रूप है ।

 ! क्यों कि ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में ।

यदु और तुर्वशु को गोप ही कहा है । 👇
 उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।। 
ऋग्वेद 10/62/10 वे गोप गो-पालन की शक्ति के द्वारा ( गोप: ईनसा सन्धि संक्रमण से वर्त्स्य नकार का मूर्धन्य णकार होने से गोपरीणसा रूप सिद्ध होता है ) अर्थात् यदु और तुर्वशु --जो दास अथवा असुर संस्कृति के अनुयायी हैं वे गोप गायों से घिरे हुए हैं । 

--जो मुस्कराहट पूर्ण दृष्टि वाले हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं ।। ऋग्वेद 10/62/10 
__________
 कुछ ग्रन्थों की सन्दर्भ सूची यहांँ है जो दास का अर्थ असुर या शूद्र करते हैं↑ यह गिनती विश्वबंधु शास्त्री के वैदिक कोश पर आधारित है। 
↑ व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु
 केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I, पृष्ठ 8. व्हीलर की राय है कि असभ्य खानाबदोशों (अर्थात् आर्यों) की चढ़ाई के कारण संगठित कृषि बिखर गई, पर अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर कहा जाए कि सैंधव शहरी सभ्यता के लोगों और आर्यों के बीच जमकर लड़ाई हुई। ↑ ऋग्वेद, X 83.1. ‘साह्यम दासमार्यं त्वयायुजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता’, जो अथर्ववेद, IV. 32.1 जैसा ही है। ↑ ऋग्वेद, X. 38.3; देखें अथर्ववेद, XX. 36.10. ↑ ऋग्वेद, VII. 83.1. ‘दासाच वृत्रा हतमार्याणि च सुदासम् इन्द्रावरुणावसावतम्’। ↑ ऋग्वेद, VI. 60.6. ↑ ऋग्वेद, VI. 33.3; ऋग्वेद X. 102.3. ↑ सात नदियों ↑ ऋग्वेद, VIII. 24.27. ‘य ऋक्षादंहसो मुचद्योवार्यात् सप्तसिन्धुषु; वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनम्;’ गेल्डनर इस परिच्छेद का अर्थ लगाते हैं कि इंद्र ने दासों के अस्त्रों को आर्यों से विमुख कर दिया है। ↑ ऋग्वेद, VI. 33.3; 60.6; VII. 83.1; VIII. 24.27 (विवादास्पद कंडिका); X. 38.3, 69.6, 83.1, 86.19, 102.3. इनमें से चार निर्देशों को अंबेडकर ने सही रूप में उद्धृत किया है। अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़ पृष्ठ 83-4. ↑ वैदिक इंडेक्स, I. , ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’ ↑ ऋग्वेद, VII. 33.2-5, 83.8. वास्तविक युद्ध-स्तुति ऋग्वेद, VII. 18 में है। ↑ आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, पृष्ठ 245.। अन्य आर्यों के प्रति बैरभाव के कारण पुरुओं को ऋग्वेद, XII. 18.13 में मृध्रवाच: कहा गया है। ↑ रावी नदी ↑ पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. 11.) ↑ अथर्ववेद, V. 11.3; पैप्पलाद, VIII. 1.3. ‘नमे दासोनार्यों महीत्वा व्रतं मीमाय यदहम् धरिष्ये’। (सन्दर्भ-१)

प्रभु वैदिक कालीन सन्दर्भ में दास का तात्पर्य वह नहीं महर्षि दयान्द के अनुयायी दर्शा रहे हैं यदि उनका अर्थ सही है तो

फिर ये लौकिक ग्रन्थों में दास का तात्पर्य शूद्र से क्यों है ।

जैसा की ब्राह्मणों ने स्मृतियों में लिखा की शूद्र अपने नाम के पश्चात दास लगाए वैश्य गुप्त और क्षत्रिय वर्मा तथा ब्राह्मण शर्मा शब्द को लगाए !✍

 मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा हैं कि :

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3
 (अध्याय 2 मनुस्मृति)

शर्म देवश्च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुज:।
भूतिर्दत्ताश्च वैश्यस्य दास: शूद्रस्य कारयेत्॥
( यमसंहिता )॥

शर्म वद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रा संयुतम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो: ।
(विष्णुपुराण)

अग्निपुराण अध्याय 153 निम्नलिखित श्लोकांश देखे 

शर्मान्तं ब्राह्मस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ।१५३.००४
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३.००५
शर्मान्तं ब्रह्मणस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्यच।१५३.००६
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३.००७

सबका निचोड़ (सार ) यह हैं कि ''ब्राह्मणों के नाम के अन्त में शर्मा और देव शब्द होने चाहिए, एवं क्षत्रिय के नामान्त में वर्मा और त्राता, वैश्य के गुप्त, दत्त आदि और शूद्र के नामान्त में केवल दास शब्द लगाना चाहिए।

तो फिर ये लौकिक ग्रन्थ पुराण, स्‍मृति आदि इस बात का क्यों विरोध करें ?
वे तो वेदों का ही अनुकरण करेंगे ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। 

अब आप कहो कि दास शब्द का अर्थ इस ऋचा में सेवक है; तो वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ देव संस्कृति का विद्रोही है सेवक नहीं ।

ईरानी भाषाओं में दास शब्द का प्रतिरूप "दाहे" है जिसका  अर्थ है ; नेता अथवा दाता !
ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में कृष्ण के समान की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करता हुआ वर्णित किया गया कि 
वह भी अदेव के रूप में 

और कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बन्द करायी ये आप जानते ही हैं ।
समस्त पुराणों में यह प्रतिध्वनित ही है ।

विद्वान पाठक 

पं० हरिश्चन्द्र सिद्धान्तालंकार की व्याख्या  का औचित्य और अनौचित्य बताकर प्रतिक्रियाऐ अवश्य दें 👇

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