गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

चारण या करण बंजारे समुदाय की कुल माता करणी कन्या ...

पश्चिमीय राजस्थान की भाषा की शैली (डिंगल' भाषा-शैली) का सम्बन्ध चारण बंजारों से था। 

जो अब स्वयं को राजपूत कहते हैं।
जैसे जादौन ,भाटी आदि छोटा राठौर और बड़ा राठौर के अन्तर्गत समायोजित बंजारे समुदाय हैं ।

राजपूतों का जन्म करण कन्या और क्षत्रिय पुरुष के द्वारा हुआ यह ब्रह्मवैवर्त पुराण के दशम् अध्याय में वर्णित है । 
परन्तु ये मात्र मिथकीय मान्यताऐं हैं 
जो अतिरञ्जना पूर्ण हैं ।
👇

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः ०९ ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १०

क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।
( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
 लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः ०९ ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १०

क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

 चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।🚩

सन्दर्भ:-
Deshnok – Kani Mata Temple India, by Joe Bindloss, Sarina Singh, James Bainbridge, Lindsay Brown, Mark Elliott, Stuart Butler. Published by Lonely Planet, 2007. ISBN 1-74104-308-5. Page 257
___________________________'
                 ( ब्रह्मवैवर्तपुराणम् )
श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।

                    ।।सौतिरुवाच ।। 
भृगोः पुत्रश्च च्यवनः शुक्रश्च ज्ञानिनां वर ।। 
क्रतोरपि क्रिया भार्य्या वालखिल्यानसूयत ।। १ ।। 

त्रयः पुत्राश्चाङ्गिरसो बभूवुर्मुनिसत्तमाः ।। 
बृहस्पतिरुतथ्यश्च शम्बरश्चापि शौनक ।। २ ।। 

वसिष्ठस्य सुतः शक्तिः शक्तेः पुत्रः पराशरः ।। 
पराशरसुतः श्रीमान्कृष्णद्वैपायनो हरिः ।। ३ ।। 

व्यासपुत्रः शिवांशश्च शुकश्च ज्ञानिनां वरः ।। 
विश्वश्रवाः पुलस्त्यस्य यस्य पुत्रो धनेश्वरः ।। ४ ।। 

          ।।शौनक उवाच ।। 
अहो पुराण वदुषामत्यन्तं दुर्गमं वचः ।। 
♪न बुद्धं वचनं किंचिद्धनेशोत्पत्तिपूर्वकम् ।। ५ ।।
 
अधुना कथितं जन्म धनेशस्येश्वरादिदम् ।। 
पुनर्भिंन्नक्रमं जन्म ब्रवीषि कथमेव माम् ।। ६ ।। 

                ।।सौतिरुवाच ।। 
बभूवुरेते दिक्पालाः पुरा च परमेश्वरात् ।। 
पुनश्च ब्रह्मशापेन स च विश्वश्रवस्सुतः ।। ७ ।। 

गुरवे दक्षिणां दातुमुतथ्यश्च धनेश्वरम् ।। 
ययाचे कोटिसौवर्णं यत्नतश्च प्रचेतसे ।। ८ ।। 

धनेशो विरसो भूत्वा तस्मै तद्दातुमुद्यतः ।। 
चकार भस्मसाद्विप्र पुनर्जन्म ललाभ सः ।। ९ ।। 

तेन विश्रवसः पुत्रः कुबेरश्च धनाधिपः ।। 
रावणः कुम्भकर्णश्च धार्मिकश्च विभीषणः ।। 1.10.१० ।। 


पुलहस्य सुतो वात्स्यः शाण्डिल्यश्च रुचेः सुतः ।। 
सावर्णिर्गौतमाज्जज्ञे मुनिप्रवर एव सः ।। ११ ।। 

काश्यपः कश्यपाज्जातो भरद्वाजो बृहस्पतेः ।। 
( स्वयं वात्स्यश्च पुलहात्सावर्णिर्गौतमात्तथा ।। १२ ।। 

शाण्डिल्यश्च रुचेः पुत्रो मुनिस्तेजस्विनां वरः ।।) 
बभूवुः पञ्चगोत्राश्च एतेषां प्रवरा भवे ।। १३ ।। 

बभूवुर्ब्रह्मणो वक्त्रादन्या ब्राह्मणजातयः।। 
ताः स्थिता देशभेदेषु गोत्रशून्याश्च शौनक ।। १४ ।। 

चन्द्रादित्यमनूनां च प्रवराः क्षत्रियाः स्मृताः ।। 
ब्रह्मणो बाहुदेशाच्चैवान्याः क्षत्रियजातयः ।। १५ ।। 

ऊरुदेशाच्च वैश्याश्च पादतः शूद्रजातयः ।। 
तासां सङ्करजातेन बभूवुर्वर्णसङ्कराः ।। १६ ।।

♪ गोपनापितभिल्लाश्च तथा मोदककूबरौ ।। 
ताम्बूलिस्वर्णकारौ च वणिग्जातय एव च ।। १७ ।। 

इत्येवमाद्या विप्रेन्द्र सच्छूद्राः परिकीर्त्तिताः ।। 
शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्यद्विजन्मनोः ।। १८ ।। 

विश्वकर्मा च शूद्रायां वीर्य्याधानं चकार सः ।। 
ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः ।। १९ ।। 

मालाकारः शङ्खकारः कर्मकारः कुविन्दकः ।। 
कुम्भकारः कांस्यकारः षडेते शिल्पिनां वराः ।। 1.10.२० ।। 


सूत्रकारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च ।। 
पतितास्ते ब्रह्मशापादयाज्या वर्णसङ्कराः ।। ।।२१।। 


             ।।शौनक उवाच ।। 
कथं देवो विश्वकर्मा वीर्य्याधानं चकार सः ।। 
शूद्रायामधमायां च कथं ते पतितास्त्रयः ।। २२ ।। 

कथं तेषु ब्रह्मशापो ह्यभवत्केन हेतुना ।। 
हे पुराणविदां श्रेष्ठ तन्नः शंसितुमर्हसि ।। २३ ।। 


                 ।।सौतिरुवाच ।। 
घृताची कामतः कामं वेषं चक्रे मनोहरम् ।। 
तामपश्यद्विश्वकर्मा गच्छन्तीं पुष्करे पथि ।। २४ ।। 

आगच्छत्तद्विलोकाच्च प्रसादोत्फुल्लमानमः ।। 
तां ययाचे स शृङ्गारं कामेन हृतचेतनः ।। २५ ।। 

रत्नालङ्कारभूषाढ्यां सर्वावयवकोमलाम् ।। 
यथा षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।।२६।। 

बृहन्नितम्ब भारार्तां मुनिमानसमोहिनीम् ।। 
अतिवेगकटाक्षेण लोलां कामातिपीडिताम् ।।२७।। 

तच्छ्रोणीं कठिनां दृष्ट्वा वायुनाऽपहृतांशुकाम् ।। 
अतीवोच्चैः स्तनयुगं कठिनं वर्तुलं परम् ।। २८ ।। 


सुस्मितं चारु वक्त्रं च शरच्चन्द्रविनिन्दकम् ।। 
पक्वबिम्बफलारक्तस्वोष्ठाधरमनोहरम् ।। २९ ।। 


सिन्दूरबिन्दुसंयुक्तं कस्तूरीबिन्दुसंयुतम् ।। 
कपोलमुज्ज्वलं शश्वन्महार्हमणिकुण्डलम् ।। 1.10.३० ।। 


तामुवाच प्रियां शान्तां कामशास्त्रविशारदः ।। 
कामाग्निवर्द्धनोद्योगि वचनं श्रुतिसुन्दरम् ।। ३१ ।। 

                    ।।विश्वकर्मोवाच ।। 
अयि क्व यासि ललिते मम प्राणाधिके प्रिये ।। 
मम प्राणांश्चापहत्य तिष्ठ कान्ते क्षणं शुभे ।। ३२ ।। 

तवैवान्वेषणं कृत्वा भ्रमामि जगतीतलम् ।। 
स्वप्राणांस्त्यक्तुमिष्टोऽहं त्वां न दृष्ट्वा हुताशने ।।३३।। 

त्वं कामलोकं यासीति श्रुत्वा रम्भामुखोदितम् ।। 
आगच्छमहमेवाद्य चास्मिन्वर्त्मन्यवस्थितः ।। ३४ ।।

अहो सरस्वतीतीरे पुष्पोद्याने मनोहरे ।। 
सुगन्धिमन्दशीतेन वायुना सुरभीकृते ।। ३५ ।। 

यभ कान्ते मया सार्द्धं यूना कान्तेन शोभने।।
विदग्धाया विदग्धेन सङ्गमो गुणवान्भवेत् ।।३६।।

स्थिरयौवनसंयुक्ता त्वमेव चिरजीविनी।। 
कामुकी कोमलाङ्गी च सुन्दरीषु च सुन्दरी।।३७।।

मृत्युंजयवरेणैव मृत्युकन्या जिता मया ।। 
कुबेरभवनं गत्वा धनं लब्धं कुबेरतः।।३८।।

रत्नमाला च वरुणाद्वायोः स्त्रीरत्नभूषणम् ।।
वह्निशुद्धं वस्त्रयुगं वह्नेः प्राप्तं महौजस.।।३९।।

कामशास्त्रं कामदेवाद्योषिद्रञ्जनकारम्।।
शृङ्गारशिल्पं यत्किञ्चिल्लब्धं चन्द्राच्च दुर्लभम् ।। 1.10.४० ।। 


रत्नमालां वस्त्रयुग्मं सर्वाण्याभरणानि च ।।
तुभ्यं दातुं हृदि कृतं प्राप्तं तत्क्षणमेव च ।। ४१ ।। 

गृहे तानि च संस्थाप्य चागतोऽन्वेषणे भवे ।। 
विरामे सुखसम्भोगे तुभ्यं दास्यामि साम्प्रतम् ।। ४२ ।। 

कामुकस्य वचः श्रुत्वा घृताची सस्मिता मुने ।। 
ददौ प्रत्युत्तरं शीघ्रं नीतियुक्तं मनोहरम् ।। ४३ ।। 

            ।।घृताच्युवाच ।। 
त्वया यदुक्तं भद्रं तत्स्वीकरोम्यधुना परम् ।। ।
किन्तु सामयिकं वाक्यं ब्रवीष्यामि स्मरातुर ।। ४४ ।। 

कामदेवालयं यामि कृतवेषा च तत्कृते ।।
यद्दिने यत्कृते यामो वयं तेषां च योषितः ।।४५।। 

अद्याहं कामपत्नी च गुरुपत्नी तवाधुना ।। 
त्वयोक्तमधुनेदं च पठितं कामदेवतः ।। ४६ ।।

विद्यादाता मन्त्रदाता गुरुर्लक्षगुणैः पितुः ।। 
मातुःसहस्रगुणवान्नास्त्यन्यस्तत्समो गुरुः ।।४७।। 

गुरोः शतगुणैः पूज्या गुरुपत्नी श्रुतौ श्रुता।।
पितुः शतगुणं पूज्या यथा माता विचक्षण ।।४८।। 

मात्रा समागमे सूनोर्यावान्दोषः श्रुतौ श्रुतः ।। 
ततो लक्षगुणो दोषो गुरुपत्नीसमागमे ।। ४९ ।। 

मातरित्येव शब्देन यां च सम्भाषते नरः ।। 
स मातृतुल्या सत्येन धर्मः साक्षी सतामपि ।। 1.10.५० ।। 

तया हि संगतो यस्स्यात्कालसूत्रं प्रयाति सः ।। 
तत्र घोरे वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ५१ ।। 

मात्रा सह समायोगे ततो दोषश्चतुर्गुणः ।। 
सार्द्धं च गुरुपत्न्या च तल्लक्षगुण एव च।।५२।।

कुम्भीपाके पतत्येव यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।।
प्रायश्चित्तं पापिनश्च तस्य नैव श्रुतौ श्रुतम् ।।५३।। 

चक्राकारं कुलालस्य तीक्ष्णधारं च खङ्गवत् ।। 
वसामूत्रपुरीषैश्च परिपूर्णं सुदुस्तरम् ।। ५४ ।। 

शूलवत्कृमिसंयुक्तं तप्तमग्निसमं द्रवत् ।। 
पापिनां तद्विहारं च कुम्भीपाकप्रकीर्तितम् ।। ५५ ।।

यावान्दोषो हि पुंसां च गुरुपत्नीसमागमे ।। 
तावांश्च गुरुपत्न्यां वै तत्र चेत्कामुकी यदि ।। ५६ ।। 

अद्य यास्यामि कामस्य मन्दिरं तस्य कामिनी ।। 
वेषं कृत्वा गमिष्यामि त्वत्कृतेऽहं दिनान्तरे ।।५७।। 

घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्मा रुरोष ताम् ।। 
शशाप शूद्रयोनिं च व्रजेति जगतीतले ।।५८।। 

घृताची तद्वचः श्रुत्वा तं शशाप सुदारुणम् ।। 
लभ जन्म भवे त्वं च स्वर्गभ्रष्टो भवेति च ।। ५९ ।। 

घृताची कारुमुक्त्वा च साऽगच्छत्काममन्दिरम् ।। 
कामेन सुरतं कृत्वा कथयामास तां कथाम् ।।1.10.६० ।। 


सा भारते च कामोक्त्या गोपस्य मदनस्य च ।। 
पत्न्यां प्रयागे नगरे लेभे जन्म च शौनक ।। ६१ ।। 

जातिस्मरा तत्प्रसूता बभूव च तपस्विनी ।। 
वरं न वव्रे धर्मिष्ठा तपस्यायां मनो दधौ ।। ६२ ।। 

तपश्चकार तपसा तप्तकाञ्चनसन्निभा ।। 
दिव्यं च शतवर्षं सा गङ्गातीरे मनोरमे ।। ६३ ।। 

वीर्येण सुरकारोश्च नव पुत्रान्प्रसूय सा ।। 
पुनः स्वलोकं गत्वा च सा घृताची बभूव ह ।। ६४ ।।

          ।।शौनक उवाच ।। 

कथं वीर्य्यं सा दधार सुरकारोस्तपस्विनी ।। 
पुत्रान्नव प्रसूता च कुत्र वा कति वासरान्।। ६५ । 

               ।।सौतिरुवाच ।। 
विश्वकर्मा तु तच्छापं समाकर्ण्य रुषाऽन्वितः ।। 
जगाम ब्रह्मणः स्थानं शोकेन हृतचेतनः ।। ६६ ।। 

नत्वा स्तुत्वा च ब्रह्माणं कथयामास तां कथाम् ।। 
ललाभ जन्म ब्राह्मण्यां पृथिव्यामाज्ञया विधेः ।। ६७ ।। 

स एव ब्राह्मणो भूत्वा भुवि कारुर्बभूव ह ।। 
नृपाणां च गृहस्थानां नानाशिल्पं चकार ह ।।६८।। 

शिल्पं च कारयामास सर्वेभ्यः सर्वतः सदा ।
विचित्रं विविधं शिल्पमाश्चर्य्यं सुमनोहरम् ।। ६९ ।। 

एकदा तु प्रयागे च शिल्पं कृत्वा नृपस्य च ।। 
स्नातुं जगाम गङ्गां स चापश्यत्तत्र कामिनीम्।1.10.७०।। 

घृताचीं नवरूपां च युवतिं तां तपस्विनीम् ।। 
जातिस्मरां तां बुबुधे स च जातिस्मरो द्विज ।। ७१ ।।

दृष्ट्वा सकामः सहसा बभूव हृतचेतनः ।। 
उवाच मधुरं शान्तः शान्तां तां च तपस्विनीम्।।७२।।

     ।।ब्राह्मण उवाच ।। 
अहोऽधुना त्वमत्रैव घृताचि सुमनोहरे ।। 
मा मां स्मरसि रम्भोरु विश्वकर्माऽहमेव च।।७३।। 

शापमोक्षं करिष्यामि भज मां तव सुन्दरि।।
त्वत्कृतेऽतिदहत्येव मनो मे स च मन्मथः।। ।। ७४ ।। 

द्विजस्य वचनं श्रुत्वा घृताची नवरूपिणी।।
उवाच मधुरं शान्ता नीतियुक्तं परं वचः ।।७५।। 

                     ।।गोपिकोवाच।। 
तद्दिने कामकान्ताऽहमधुना च तपस्विनी ।। 
कथं त्वया संगता स्यां गंगातीरे च भारते ।। ७६ ।। 

विश्वकर्मन्निदं पुण्यं कर्मक्षेत्रं च भारतम् ।। 
अत्र यत्क्रियते कर्म भोगोऽन्यत्र शुभाशुभम् ।। ७७ ।। 

धर्मी मोक्षकृते जन्म प्रलभ्य तपसः फलात् ।। 
निबद्धः कुरुते कर्म मोहितो विष्णुमायया ।। ७८ ।। 

माया नारायणीशाना परितुष्टा च यं भवेत् ।। 
तस्मै ददाति श्रीकृष्णो भक्तिं तन्मन्त्रमीप्सितम् ।। ७९ ।।

यो मूढो विषयासक्तो लब्धजन्मा च भारते ।। 
विहाय कृष्णं सर्वेशं स मुग्धो विष्णुमायया ।।1.10.८० ।। 

सर्वं स्मरामि देवाहमहो जातिस्मरा पुरा ।। 
घृताची सुरवेश्याऽहमधुना गोपकन्यका ।। ८१ ।। 

तपः करोमि मोक्षार्थं गङ्गातीरे सुपुण्यदे ।। 
नात्र स्थलं च क्रीडायाः स्थिरस्त्वं भव कामुक ।८२।

अन्यत्र यत्कृतं पापं गंगायां तद्विनश्यति ।। 
गंगातीरे कृतं पापं सद्यो लक्षगुणं भवेत् ।। ८३ ।। 

तत्तु नारायणक्षेत्रे तपसा च विनश्यति ।। 
यद्येव कामतः कृत्वा निवृत्तश्च भवेत्पुनः ।। ८४ ।। 

घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्माऽनिलाकृतिः ।। 
जगाम तां गृहीत्वा च मलयं चन्दनालयम् ।। ८५ ।। 

रम्यायां मलयद्रोण्यां पुष्पतल्पे मनोरमे ।। ।
पुष्पचन्दनवातेन संततं सुरभीकृते।।८६।। 

चकार सुखसम्भोगं तया स विजने वने ।। 
पूर्णं द्वादशवर्षं च बुबुधे न दिवानिशम्।।८७।। 

बभूव गर्भः कामिन्याः परिपूर्णः सुदुर्वहः।।
सा सुषाव च तत्रैव पुत्रान्नव मनोहरान्।।८८।।

कृतशिक्षितशिल्पांश्व ज्ञानयुक्तांश्च शौनक।। 
पूर्णप्राक्तनतो युग्यान्बलयुक्तान्विचक्षणान् ।। ८९ ।। 

मालाकारान्कर्मकाराञ्छङ्खकारान्कुविन्दकान् ।। 
कुम्भकारान्सूत्रकारान्स्वर्णचित्रकरांस्तथा ।। 1.10.९० ।। 

तौ च तेभ्यो वरं दत्त्वा तान्संस्थाप्य महीतले ।। 
मानवीं तनुमुत्सृज्य जग्मतुर्निजमन्दिरम् ।। ९१ ।। 

स्वर्णकारः स्वर्णचौर्याद्ब्राह्मणानां द्विजोत्तम ।। 
बभूव पतितः सद्यो ब्रह्मशापेन कर्मणा ।। ९२ ।। 

सूत्रकारो द्विजानां तु शापेन पतितो भुवि ।। 
शीघ्रं च यज्ञकाष्ठानि न ददौ तेन हेतुना।।९३।।

व्यतिक्रमेण चित्राणां सद्यश्चित्रकरस्तथा ।। 
पतितो ब्रह्मशापेन ब्राह्मणानां च कोपतः।।९४।

कश्चिद्वणिग्विशेषश्च संसर्गात्स्वर्णकारिणः ।। 
स्वर्णचौर्य्यादिदोषेण पतितो ब्रह्मशापतः ।।९५।। 

कुलटायां च शूद्रायां चित्रकारस्य वीर्य्यतः ।। 
बभूवाट्टालिकाकारः पतितो जारदोषतः ।। ९६ ।। 

अट्टालिकाकारबीजात्कुम्भकारस्य योषिति ।। 
बभूव कोटकः सद्यः पतितो गृहकारकः ।। ९७ ।। 


कुम्भकारस्य बीजेन सद्यः कोटकयोषिति ।। 
बभूव तैलकारश्च कुटिलः पतितो भुवि।। ।। ९८ ।। 
________
सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति ।। 
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः ।। ९९ ।। 

तीवरस्य तु बीजेन तैलकारस्य योषिति।। 
बभूव पतितो दस्युर्लेटश्च परिकीर्तितः ।। 1.10.१०० ।। 


लेटस्तीवरकन्यायां जनयामास षट् सुतान् ।। 
माल्लं मन्त्रं मातरं च भण्डं कोलं कलन्दरम् ।। १०१ ।। 

ब्राह्मण्यां शूद्रवीर्य्येण पतितो जारदोषतः ।। 
सद्यो बभूव चण्डालः सर्वस्मादधमोऽशुचिः ।।  १०२ ।। 

तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह ।। 
चर्मकार्य्यां च चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह ।। १०३ ।। 

मांसच्छेद्यां तीवरेण कोञ्चश्च परिकीर्तितः ।। 
कोञ्चस्त्रियां तु कैवर्त्तात्कर्त्तारः परिकीर्तितः ।। १०४ ।। 

सद्यश्चण्डालकन्यायां लेटवीर्य्येण शौनक ।। 
बभूवतुस्तौ द्वौ पुत्रौ दुष्टौ हड्डिडमौ तथा ।।१०५।। 

क्रमेण हड्डिकन्यायां सद्यश्चण्डालवीर्य्यतः ।। 
बभूवुः पञ्च पुत्राश्च दुष्टा वनचराश्च ते ।। १०६ ।। 

लेटात्तीवरकन्यायां गङ्गातीरे च शौनक ।। 
बभूव सद्यो यो बालो गङ्गापुत्रः प्रकीर्तितः ।। १०७ ।। 

गङ्गापुत्रस्य कन्यायां वीर्य्याद्वै वेषधारिणः ।। 
बभूव वेषधारी च पुत्रो युङ्गी प्रकीर्तितः ।। १०८ ।। 

वैश्यात्तीवरकन्यायां सद्यः शुण्डी बभूव ह ।। 
शुण्डीयोषिति वैश्यानु पौण्ड्रकश्च बभूव ह ।। १०९ ।। 
_______________________
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः ।। 1.10.११० ।। 

क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायां कैवर्त्तः परिकीर्तितः ।। 
कलौ तीवरसंसर्गाद्धीवरः पतितो भुवि ।। १११ ।। 

तीवर्यां धीवरात्पुत्रो बभूव रजकः स्मृतः ।। 
रजक्यां तीवराच्चैव कोयालीति बभूव ह ।। ११२ ।।

नापिताद्गोपकन्यायां सर्वस्वी तस्य योषिति ।। 
क्षत्राद्बभूव व्याधश्च बलवान्मृगहिंसकः ।। ११३ ।। 

तीवराच्छुण्डिकन्यायां बभूवुः सप्त पुत्रकाः ।। 
ते कलौ हड्डिसंसर्गाद्बभूवुर्दस्यवः सदा ।। ११४ ।। 

ब्राह्मण्यामृषिवीर्य्येण ऋतोः प्रथमवासरे ।। 
कुत्सितश्चोदरे जातः कूदरस्तेन कीर्तितः ।। ११५ ।। 

तदशौचं विप्रतुल्यं पतितश्चर्तुदोषतः ।। 
सद्यः कोटकसंसर्गादधमो जगतीतले ।। ११६ ।। 

क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायामृतोः प्रथमवासरे ।। 
जातः पुत्रो महादस्युर्बलवांश्च धनुर्द्धरः ।। ११७ ।। 

चकार वागतीतं च क्षत्रियेणापि वारितः ।। 
तेन जात्याः स पुत्रश्च वागतीतः प्रकीर्तितः ।। ११८ ।। 

क्षत्त्रवीर्य्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापतः ।। 
बलवन्तो दुरन्ताश्च बभूवुर्म्लेच्छजातयः ।। ११९ ।। 


अविद्धकर्णाः क्रूराश्च निर्भया रणदुर्जयाः ।। 
शौचाचारविहीनाश्च दुर्द्धर्षा धर्मवर्जिताः ।। 1.10.१२० ।। 

म्लेच्छात्कुविन्दकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह।। । 
जोलात्कुविन्दकन्यायां शराङ्कः परिकीर्तितः ।। १२१ ।। 

वर्णसङ्करदोषेण बह्व्यश्चाश्रुतजातय ।। 
तासां नामानि संख्याश्च को वा वक्तुं क्षमो द्विज ।१२२ ।। 

वैद्योऽश्विनीकुमारेण जातो विप्रस्य योषिति ।। 
वैद्यवीर्य्येण शूद्रायां बभूवुर्बहवो जनाः ।। १२३ ।। 

ते च ग्राम्यगुणज्ञाश्च मन्त्रौषधिपरायणाः ।। 
तेभ्यश्च जाताः शूद्रायां ये व्यालग्राहिणो भुवि ।। १२४ ।। 

            ।।शौनक उवाच ।। 
कथं ब्राह्मणपत्न्यां तु सूर्य्यपुत्रोऽश्विनीसुतः ।। 
अहो केनाविवेकेन वीर्य्याधानं चकार ह ।। १२९ ।। 


                   ।।सौतिरुवाच ।। 
गच्छन्तीं तीर्थयात्रायां ब्राह्मणीं रविनन्दनः ।। 
ददर्श कामुकः शान्तः पुष्पोद्याने च निर्जने ।। १२६ ।। 

तया निवारितो यत्नाद्बलेन बलवान्सुरः ।। 
अतीव सुन्दरीं दृष्ट्वा वीर्य्याधानं चकार सः ।। १२७ ।। 

द्रुतं तत्याज गर्भं सा पुष्पोद्याने मनोहरे ।। 
सद्यो बभूव पुत्रश्च तप्तकाञ्चनस न्निभः ।। १२८ ।। 

सपुत्रा स्वामिनो गेहं जगाम व्रीडिता सदा ।। 
स्वामिनं कथयामास यन्मार्गे दैवसङ्कटम् ।। १२९ ।। 

विप्रो रोषेण तत्याज तं च पुत्रं स्वकामिनीम् ।। 
सरिद्बभूव योगेन सा च गोदावरी स्मृता ।। 1.10.१३० ।। 

पुत्रं चिकित्साशास्त्रं च पाठयामास यत्नतः ।। 
नानाशिल्पं च मंत्रं च स्वयं स रविनन्दनः ।। १३१ ।।

विप्रश्च वेतनाज्योतिर्गणनाच्च निरन्तरम् ।। 
वेदधर्मपरित्यक्तो बभूव गणको भुवि ।। १३२ ।। 

लोभी विप्रश्च शूद्राणामग्रे दानं गृहीतवान् ।। 
ग्रहणे मृतदानानामग्रादानो बभूव सः ।। १३३ ।। 

कश्चित्पुमान्ब्रह्मयज्ञे यज्ञकुण्डात्समुत्थितः ।। 
स सूतो धर्मवक्ता च मत्पूर्वपुरुषः स्मृतः ।। १३४ ।। 

पुराणं पाठयामास तं च ब्रह्मा कृपानिधिः ।। 
पुराणवक्ता सूतश्च यज्ञकुण्डसमुद्भवः ।। १३९ ।। 


वैश्यायां सूतवीर्य्येण पुमानेको बभूव ह ।। 
स भट्टो वावदूकश्च सर्वेषां स्तुतिपाठकः ।। १३६ ।। 

एवं ते कथितः किंचित्पृथिव्यां जातिनिर्णय ।। 
वर्णसङ्करदोषेण बह्व्योऽन्याः सन्ति जातयः।। १ ३७।। 

सबन्धो येषु येषां यः सर्वजातिषु सर्वतः ।। 
तत्त्वं ब्रवीमि वेदोक्तं ब्रह्मणा कथितं पुरा ।। १३८ ।। 

पिता तातस्तु जनको जन्मदाता प्रकीर्तितः ।। 
अम्बा माता च जननी जनयित्री प्रसूरपि ।। १३९ ।। 

पितामहः पितृपिता तत्पिता प्रपितापहः ।। 
अत ऊर्ध्वं ज्ञातयश्च सगोत्राः परिकीर्तितः ।1.10.१४० ।। 

मातामहः पिता मातुः प्रमातामह एव च ।। 
मातामहस्य जनकस्तत्पिता वृद्धपूर्वकः ।। १४१ ।। 

पितामही पितुर्माता तच्छ्वश्रूःमातुर्माता 
पितुर्माता श्वश्रूपित्रोः स्वसा तथा।।
पितृव्यस्त्री मातुलानी मातरश्च चर्तुदश।।१५५।।

पौत्रस्तु पुत्रपुत्रे च प्रपौत्रस्तत्सुतेऽपि च ।। 
तत्पुत्राद्याश्च ये वंश्याः कुलजाश्च प्रकीर्तिताः।।१५६।।

कन्यापुत्रश्च दौहित्रस्तत्पुत्राद्याश्च बांधवाः।।
भागिनेयसुताद्याश्च पुरुषा बांधवाः स्मृताः।।१५७।।

भ्रातृपुत्रस्य पुत्राद्यास्ते पुनर्ज्ञातयः स्मृताः ।। 
गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्यः परमबान्धवः।।१५८।।

गुरुकन्या च भगिनी पोष्या मातृसमा मुने।।
पुत्रस्य च गुरुर्भ्राता पोष्यः सुस्निग्धबान्धवः ।।१५९।।

पुत्रस्य श्वशुरो भ्राता बन्धुर्वैवाहिकः स्मृतः।।
कन्यायाः श्वशुरे चैव तत्सम्बन्धः प्रकीर्तितः।।1.10.१६०।।

गुरुश्च कन्यकायाश्च भ्राता सुस्निग्धबान्धवः ।। 
गुरुश्वशुरभ्रातॄणां गुरुतुल्यः प्रकीर्तितः ।। १६१।। 

बन्धुता येन सार्द्ध च तन्मित्रं परिकीर्तितम् ।। 
मित्रं सुखप्रदं ज्ञेयं दुःखदो रिपुरुच्यते ।। १६२ ।। 

बान्धवो दुःखदो दैवान्निस्सम्बन्धोऽसुखप्रदः ।। 
सम्बन्धास्त्रिविधाः पुंसां विप्रेन्द्र जगतीतले ।। १६३ ।। 

विद्याजो योनिजश्चैव प्रीतिजश्च प्रकीर्तितः ।। 
मित्रं तु प्रीतिजं ज्ञेयं स सम्बधः सुदुर्लभः ।। १६४ ।। 

मित्रमाता मित्रभार्य्या मातृतुल्या न संशयः।। 
मित्रभ्राता मित्रपिता भ्रातृतातसमौ नृणाम् ।।१६५।।

चतुर्थं नामसम्बन्धमित्याह कमलोद्भवः।।
जारश्चोपपर्तिर्बन्धुर्दुष्टा सम्भोगकर्त्तरि ।। १६६ ।। 

उपपत्न्यां नवज्ञा च प्रेयसी चित्तहारिणी ।। 
स्वामितुल्यश्च जारश्च नवज्ञा गृहिणी समा ।। १६७ ।।

सम्बन्धो देशभेदे च सर्वदेशे विगर्हितः ।। 
अवैदिको निन्दितस्तु विश्वामित्रेण निर्मितः।। १६८।। 

दुस्त्यजश्च महद्भिस्तु देशभेदे विधीयते ।। 
अकीर्तिजनकः पुंसां योषितां च विशेषतः ।। १६९ ।। 

तेजीयसां न दोषाय विद्यमाने युगे युगे ।। 1.10.१७० ।। 

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।। 

          "प्रपितामही ।। 
तच्छ्वश्रूश्च परिज्ञेया सा वृद्धप्रपितामही ।। १४२ ।। 

मातामही मातृमाता मातृतुल्या च पूजिता ।। 
प्रमातामहीति ज्ञेया प्रमातामहकामिनी ।। १४३ ।। 

वृद्धमातामही ज्ञेया पत्पितुः कामिनी तथा ।। 
पितृभ्राता पितृ व्यश्च मातृभ्राता च मातुलः ।। १४४ ।। 

पितृष्वसा पितुर्मातृष्वसा मातुस्स्वसा स्मृता ।। 
सूनुश्च तनयः पुत्रो दायादश्चात्मजस्तथा।। ।। १४५।
 ।।

धनभाग्वीर्य्यजश्चैव पुंसि जन्ये च वर्त्तते ।। 
जन्यायां दुहिता कन्या चात्मजा परिकीर्तिता ।। १४६ ।। 

पुत्रपत्नी वधू ज्ञेया जामाता दुहितुः पतिः ।। 
पतिः प्रियश्च भर्ता च स्वामीकान्ते च वर्तते ।। १४७ ।। 


देवरः स्वामिनो भ्राता ननांदा स्वामिनः स्वसा ।। 
श्वशुरः स्वामिनस्तातः श्वश्रूश्च स्वामिनः प्रसूः ।। १४८ ।। 


भार्य्या जाया प्रिया कान्ता स्त्री व पत्नी प्रकीर्तिता ।।
पत्नीभ्राता श्यालकश्च स्वसा पत्न्याश्च श्यालिका ।। १४९ ।। 


पत्नीमाता तथा श्वश्रूस्तत्पिता श्वशुरः स्मृतः ।। 
सगर्भः सोदरो भ्राता सगर्भा भगिनी स्मृता ।। 1.10.१५० ।। 


भगिनीजो भागिनेयो भ्रातृजो भ्रातृपुत्रकः ।। 
आवुत्तो भगिनीकान्तो भगिनीपतिरेव च ।। १९१ ।। 

श्यालीपतिस्तु भ्राता च श्वशुरैकत्वहेतुना ।। 
श्वशुरस्तु पिता ज्ञेयो जन्मदातुः समो मुने ।।१९२।। 

अन्नदाता भयत्राता पत्नीतातस्तथैव च ।। 
विद्यादाता जन्मदाता पंचैते पितरो नृणाम् ।। १५३।।

अन्नदातुश्च या पत्नी भगिनी गुरुकामिनी 
माता च तत्सपत्नी च कन्या पुत्रप्रिया तथा ।।१५४।।

मातुर्माता पितुर्माता श्वश्रूपित्रोः स्वसा तथा।।
पितृव्यस्त्री मातुलानी मातरश्च चर्तुदश।।१५५।।

पौत्रस्तु पुत्रपुत्रे च प्रपौत्रस्तत्सुतेऽपि च ।। 
तत्पुत्राद्याश्च ये वंश्याः कुलजाश्च प्रकीर्तिताः।।१५६।।

कन्यापुत्रश्च दौहित्रस्तत्पुत्राद्याश्च बांधवाः।।
भागिनेयसुताद्याश्च पुरुषा बांधवाः स्मृताः।।१५७।।

भ्रातृपुत्रस्य पुत्राद्यास्ते पुनर्ज्ञातयः स्मृताः ।। 
गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्यः परमबान्धवः।।१५८।।

गुरुकन्या च भगिनी पोष्या मातृसमा मुने।।
पुत्रस्य च गुरुर्भ्राता पोष्यः सुस्निग्धबान्धवः ।।१५९।।

पुत्रस्य श्वशुरो भ्राता बन्धुर्वैवाहिकः स्मृतः।।
कन्यायाः श्वशुरे चैव तत्सम्बन्धः प्रकीर्तितः।।1.10.१६०।।

गुरुश्च कन्यकायाश्च भ्राता सुस्निग्धबान्धवः ।। 
गुरुश्वशुरभ्रातॄणां गुरुतुल्यः प्रकीर्तितः ।। १६१।। 

बन्धुता येन सार्द्ध च तन्मित्रं परिकीर्तितम् ।। 
मित्रं सुखप्रदं ज्ञेयं दुःखदो रिपुरुच्यते ।। १६२ ।। 

बान्धवो दुःखदो दैवान्निस्सम्बन्धोऽसुखप्रदः ।। 
सम्बन्धास्त्रिविधाः पुंसां विप्रेन्द्र जगतीतले ।। १६३ ।। 

विद्याजो योनिजश्चैव प्रीतिजश्च प्रकीर्तितः ।। 
मित्रं तु प्रीतिजं ज्ञेयं स सम्बधः सुदुर्लभः ।। १६४ ।। 

मातुर्माता पितुर्माता श्वश्रूपित्रोः स्वसा तथा।।
पितृव्यस्त्री मातुलानी मातरश्च चर्तुदश।।१५५।।

पौत्रस्तु पुत्रपुत्रे च प्रपौत्रस्तत्सुतेऽपि च ।। 
तत्पुत्राद्याश्च ये वंश्याः कुलजाश्च प्रकीर्तिताः।।१५६।।

कन्यापुत्रश्च दौहित्रस्तत्पुत्राद्याश्च बांधवाः।।
भागिनेयसुताद्याश्च पुरुषा बांधवाः स्मृताः।।१५७।।

भ्रातृपुत्रस्य पुत्राद्यास्ते पुनर्ज्ञातयः स्मृताः ।। 
गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्यः परमबान्धवः।।१५८।।

गुरुकन्या च भगिनी पोष्या मातृसमा मुने।।
पुत्रस्य च गुरुर्भ्राता पोष्यः सुस्निग्धबान्धवः ।।१५९।।

पुत्रस्य श्वशुरो भ्राता बन्धुर्वैवाहिकः स्मृतः।।
कन्यायाः श्वशुरे चैव तत्सम्बन्धः प्रकीर्तितः।।1.10.१६०।।

गुरुश्च कन्यकायाश्च भ्राता सुस्निग्धबान्धवः ।। 
गुरुश्वशुरभ्रातॄणां गुरुतुल्यः प्रकीर्तितः ।। १६१।। 

बन्धुता येन सार्द्ध च तन्मित्रं परिकीर्तितम् ।। 
मित्रं सुखप्रदं ज्ञेयं दुःखदो रिपुरुच्यते ।। १६२ ।। 

बान्धवो दुःखदो दैवान्निस्सम्बन्धोऽसुखप्रदः ।। 
सम्बन्धास्त्रिविधाः पुंसां विप्रेन्द्र जगतीतले ।। १६३ ।। 

विद्याजो योनिजश्चैव प्रीतिजश्च प्रकीर्तितः ।। 
मित्रं तु प्रीतिजं ज्ञेयं स सम्बधः सुदुर्लभः ।। १६४ ।। 

मित्रमाता मित्रभार्य्या मातृतुल्या न संशयः।। 
मित्रभ्राता मित्रपिता भ्रातृतातसमौ नृणाम् ।।१६५।।

चतुर्थं नामसम्बन्धमित्याह कमलोद्भवः।।
जारश्चोपपर्तिर्बन्धुर्दुष्टा सम्भोगकर्त्तरि ।। १६६ ।। 
उपपत्न्यां नवज्ञा च प्रेयसी चित्तहारिणी ।। 
स्वामितुल्यश्च जारश्च नवज्ञा गृहिणी समा ।। १६७ ।।

सम्बन्धो देशभेदे च सर्वदेशे विगर्हितः ।। 
अवैदिको निन्दितस्तु विश्वामित्रेण निर्मितः ।। १६८ ।। 

दुस्त्यजश्च महद्भिस्तु देशभेदे विधीयते ।। 
अकीर्तिजनकः पुंसां योषितां च विशेषतः ।। १६९ ।। 

तेजीयसां न दोषाय विद्यमाने
 युगे युगे ।। 1.10.१७० ।। 
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इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।


2 टिप्‍पणियां:

  1. Bhai pehle poora etihaas samaj le fir hi blog banao or post karo agar kuch nahi pata hai to dada prdada se puch lo charan or rajput me bahot fark hai dono alag alag hai, charan kshatriya nahi hai or na hi rajput me aate hai ... Agar etihaas nahi pata to apne blog ko bandh kar de

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    1. Bhi Ab jab Tum sabit ho gye ki Tum Varnasankar Maleecha jati ho toh tumko dard ho raha hai. Lekin tum log sabko Shudra aur Chamar bulate ho Khudko Bhagwan Ram ka vansaj bata ke jo ki tumhara fake claim hai toh log kaise mane

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