रविवार, 26 अप्रैल 2020

अहीर, गोप और यादव वंश वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक रूप से समानान्तरण अर्थ वाचक विशेषण हैं एक ही जन-जाति के .....

मिथकों और यथार्थ के समक्ष आज हम फिर उपस्थित होते हैं ...प्रश्न किया है कि  (1) लोग जो आज भी पूर्व दुराग्रह से ग्रस्त, रूढ़िवादी और सड़ी-गली मानसिकता से समन्वित होकर
 जीवन जी रहे हैं ।

झूँठ के नशीले ही नहीं अपितु जहरीले घूँठ भी पी रहे हैं
वे सत्य के प्रकाश से बचकर असत्य के अँधेरे में क्यों जी रहे हैं ?

उन्हें सच्चाई के प्रकाश से भय या चौंद भी 
क्यों लगता हैं ?

इसलिए उन्हें 'हम क्या 'कहें' उनकी इस प्रवृत्ति के कारण उल्लू या चमकादर या एकाक्ष कौआ !

वे लोग अक्सर  कहते रहते है कि पाँचवीं सदी में अहीरों को गोपों में जोड़ा गया है ;इससे पहले नहीं।

'परन्तु उनके पास इस बात का  कोई भी प्रमाण  ठोस नहीं हैं ।

तो हम  बता दें उनको कि वे अधूरी व भ्रान्तिमूलक जानकारी में ही दम तोड़ देते हैं । 
कभी भी सत्य का साक्षात्कार नही होता उन्हें !

और कुछ लोग द्वेष वश या विरोध वश भी मन से सत्य स्वीकार करते हुए भी;  बाह्य रूप से सत्य को स्वीकार नहीं करते जैसे कि वो लोग ! 

जो आज अहीरों को यदुवंशी होने से नकारते हैं और खुद को यदुवंशी बताते फिरते हैं ।
उनके पास भी स्वयं अपनेे को यदुवंशी सिद्ध करने का एेसा कोइ प्रमाण नहीं ।

आइए हमारी पोष्ट पर ( हमारे शोध परक तथ्य पर !

 उपर्युक्त बातों को हम शिरे से असत्य व मिथ्या सिद्ध करते हुए निराकरण मूलक उत्तर प्रमाण युक्त रूप में प्रस्तुत करते हैं कि वो लोग कौन हैं ? :- 👇

जो अहीरों को यदुवंशी होने से नकारते हैं ?
सर्व प्रथम  हम बता दें कि प्राचीन विद्वानों 'ने अहीरों को ही गोपालन वृत्ति के कारण ही गोप भी कहा है ; 
जैसा कि ईसा० पूर्व द्वित्तीय सदी के समकक्ष अमर सिंह द्वारा विरचित संस्कृत भाषा के शब्द कोश में गोप का पर्य्यायवाची आभीर शब्द भी वर्णित किया है ।

अमर सिंह राजा विक्रमादित्य की राजसभा के नौ रत्नों में से एक थे; और ये कालिदास के समकालिक थे ।
उनका बनाया 'अमरकोष' संस्कृत भाषा का सबसे प्रसिद्ध और प्राचीनत्तम कोष ग्रन्थ है। 

उन्होंने इसकी रचना (दूसरी शताब्दी ई. पू.) में की थी। 
ऐसा प्रमाण मिलता है ।
'परन्तु तथ्य ये  ईसा० पूर्व तृत्तीय सदी में भी प्रचलन में थे अमर सिंह ने तो  ' केवल अपने नाम से इसका सम्पादन मात्र किया था ।

कालिदास का समय भतृहरि विक्रमादित्य के समकालिक है जो विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे चन्द्रगुप्त द्वितीय ( उनका राज्य 375-414 ई. के समकालिक है)  को तो यह  उपाधि कालान्तरण में दी गयी !

विक्रमादित्य का  सम्वत् ईसा० पूर्व 57 साल से ही प्रारम्भ है जो विक्रमादित्य के अनुयायीयों ने विक्रमादित्य की -स्मृति में चलाया तथा इनके पिता  
 गर्दभिल्ल थे । 

इस तथ्य का प्रमाण अमरकोश के भीतर ही मिलता है कि अमरसिंह बौद्ध थे।

 अमरकोश के मंगलाचरण में प्रच्छन्न रूप से बुद्ध की स्तुति की गई है, किसी हिंदू देवी देवता की नहीं। 

यह पुरानी किंवदंती है कि शंकराचार्य के समय (आठवीं शताब्दी) में अमरसिंह के ग्रंथ जहाँ-जहाँ मिले, जला दिए गए।

 अमरसिंह ने अपने से पहले के कोशकारों के नाम ही नहीं दिए हैं।
केवल इतना लिखा है:-
'सम्गर्हते अन्यत्राणि" अन्य  कोशों से सामग्री ली जाती है, किन्तु किससे ली है, इसका उल्लेख नहीं किया।

अमरकोश से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य 
 गोप : -  (गां गोजातिं पाति रक्षतीति ।
 गो + पा + कः ।) व्यवसाय मूलक जातिविशेषः । गोयाल  इति भाषा ॥
 तत्-पर्य्यायः । गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ । इत्यमरः कोश । २ । ९ । ५७ ॥ 

स्मतियों में लिखा कि  तस्योत्पत्तिर्यथा, --
 “मणिबन्ध्यां तन्त्रवायात् गोपजातेश्च सम्भवः ।” इति पराशरपद्धतिः ॥ (यथा, मनुः स्मृति। ८ । २६० ।

 “व्याधाञ्छाकुनिकान् गोपान् कैवर्त्तान् मूल- खानकान् । व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः ॥”)

 गोष्ठाध्यक्षः :- (गां पृथिवीं पाति रक्षतीति । पा + कः ।)
 पृथ्वीपतिः । बहुग्रामस्याधिकृतः । इति मेदिनी । पृष्ठ संख्या।। ५ ॥ 
(गाः पाति रक्षतीति । पा + कः । गोरक्षकः । यथा, मनुः । ८ । २३१ । “गोपः क्षीरभृतो यस्तु स दुह्याद्दशतो वराम् ।
 गोस्वाम्यनुमते भृत्यः सा स्यात् पाले भृते भृतिः ॥”
 गन्धर्व्वविशेषः । यथा, रामायणे । ६ । ९१ । ४६ । “नारदस्तुम्बुरुर्गोपः प्रभया सूर्य्यवर्च्चसः ।
 एते गन्धर्व्वराजानो भरतस्याग्रतो जगुः ॥”)
____
अमर सिंह राजा विक्रमादित्य की राजसभा के नौ रत्नों में से एक थे; और ये कालिदास के समकालिक हैं ।👇
इसका प्रमाण देखें 
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि
धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः ।।
शंकूवेतालभट्ट,घटकर्परकालिदासाः।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां 
रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥

 उन्होंने अपने ग्रन्थ अमर कोश में गोप के समानार्थक:, शब्द विशेषणों में (गोपाल,गोसङ्ख्य,गोधुक्,आभीर,वल्लव,गोविन्द,गोप , गौश्चर, पाल आदि का वर्णन किया 
अध्याय खण्ड आदि संख्या :-3।3।130।1।1 

अत: पाँचवीं सदी का अहीरों और गोप के मिलने का तर्क पूर्ण रूप से खण्डित  और दुर्बल तर्कों पर प्रतिष्ठित है ।

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इसी श्रृंखला में 
प्रश्न (2)वही लोग ये भी  कहते हैं कि मध्य प्रदेश में घोषी अपने को अहीर नहीं लिखते हैं। 

बिहार में ग्वाला भी अहीर नहीं लिखता है जबकि उत्तर प्रदेश में ग्वाला अहीर लिखता है कास्ट सर्टिफिकेट पर।

उपर्युक्त तर्क का निराकरण मूलक उत्तर भी सरल है
क्यों कि कालान्तरण में लोगों की अज्ञानता में वृद्धि स्वरूप उन्हें केवल एक विशेषण पर
 बलाघात किया गया।
पर्य्याय वाची शब्द ही अपने में मौलिक व पृथक् जाति बन गये ।
यही कारण हुआ कि जितने अहीर के पर्य्याय उतनी अहीर के समानान्तरण पृथक जाति हो गयीं ।

गोप अलग कर दिए तो अहीर अलग और तो और  घोष अलग गोधुक्, पल्लव (पाल) वल्लव आदि से अलग हो गये धेनुकर अलग गौश्चर अलग सब पर्याय अलग-अलग जाति बन गयी जबकि अहीर विशेषण सबसे प्राचीनत्तम व व्यापक है ।

उत्तर प्रदेश में घोषी अहीरों की सबसे बड़ी कम्यूनिटी है ।

विशेषण मुख्यत: वंशमूलक , व्यवसाय और प्रवृत्ति मूलक रूप से ये तीन ही प्रकार के थे ।
आभीर शब्द आर्य्य शब्द के सम्प्रसारित रूप वीर से विकसित है ।

ययाति को आर्य्य शब्द से सम्पादित किया गया 'परन्तु उनके पुत्र यदु के साथ द्वेष या विरोध सम्पूर्ण पश्चिमी एशिया तथा भारतीय मिथकों यहाँ तक कि वेदों में भी सर्वविदित है ।

पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों में विशेषत हिब्रूू बाइबिल के ओल्ड टेक्टामेण्ट में यहुदह् (Yahuda  )के पिता याकूब को इज़राएल और अबीर भी कहा गया है देखें जैनेसिस खण्ड में और देखें सुमेरियन, बैबीलॉनियन संस्कृतियों में भी यदु को उदु कहा है ।

ऋग्वेद में यदु को गोप व दास शब्द के  द्वारा सम्बोधित किया गया है ।
गोप का नामान्तरण ही प्राचीन वैदिक शब्द गोषन् या (गोष:) है ।

घोसी का मूल रूप घोष है और जो वैदिक कालीन सन्दर्भ में गोष: है । 

संस्कृत के महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग के  45 वें श्लोक में एक प्रसंंग में वृद्ध घोषों को नवनीत लेकर उपस्थित हुआ वर्णित किया है अत: नामान्तरण से अहीरों को  घोष कहा है ।
नीचे श्लोक देखें 👇
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 हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां
 मार्गशाखिनाम् ॥ १-४५॥
________
हैयङ्गवीनमिति :- ह्यस्तनगोदोहोद्भवं घृतं हैयङ्गवीनम् । ह्यः पूर्वेद्युर्भवम् । तत्तु हैयङ्गवीनं यद्ध्यो गोदोहोद्भवं घृतम् इत्यमरः कोश।

 हैयङ्गवीनं संज्ञायाम् इति निपातः ।
संज्ञा पुं० [सं० हैयङ्गवीन] १. एक दिन पहले के दूध के मक्खन से बनाया हुआ घी। ताजे मक्खन का घी। 
एक दिन पूर्व के दूध का बनाया हुआ मक्खन। ताजा मक्खन (को०

 तत् सद्योघृतमादाय उपस्थितान् घोषवृद्धान्, घोष: आभीर:।
 वन्यानां मार्गशाखिनां नामधेयानि पृच्छन्तौ ।
 दुह्याच्.... इत्यादिना पृच्छतेर्द्विकर्मकत्वम् । 
कुलकम् ।।
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अमरसिंह विरचित संस्कृत भाषा के अमरकोश में 
घोष पुंल्लिंग शब्द है जिसके दो अर्थ रूढ़ हैं  

प्रथम गोपग्रामः 
समानार्थक:घोष,आभीरपल्ली 
और द्वित्तीय अर्थ आभीर या गोप ।
2।2।20।2।1 

ग्रामान्तमुपशल्यं स्यात्सीमसीमे स्त्रियामुभे।
 घोष आभीरपल्ली स्यात्पक्कणः शबरालयः॥ 
 घोष:- गोपति : गोपालः 

गोपराष्ट्र = पुल्लिंग  गोपप्रधानाः राष्ट्राः।
 भारतवर्षस्थे आभीरप्रधाने जनपदभेदे। 
“अत ऊर्द्ध्वं जनपदान्निबोध गदतो मम” इत्युपक्रमे “अश्मकाः पांशुराष्ट्राश्च गोपराष्ट्राः करीतयः” भा० आ० ९ अ०।
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प्रश्न (3 )उनका ये भी कहना है कि महाभारत में अहीर या आभीर को म्लेच्छ बताया गया है।

निराकरण मूलक उत्तर :- 
यद्यपि महाभारत पुष्यमित्र सुंग कालीन पुरोहितों 'ने वृहद् रूप में सम्पादित किया यह क्रम अठारह वीं सदी तक चलता रहा है ।
महाभारत के आदिपर्व में महात्मा बुद्ध का भी वर्णन है ।
बुद्ध का समय ईसा० पूर्व 563 है ।
अत: पुष्यमित्र सुंग कालीन पुरोहितों'ने महभारत में भले ही अहीरों को म्लेच्छ कहा ये प्रक्षिप्त रूप हैं 'परन्तु वहाँ तो यादव और वार्ष्णेय को भी निम्न व पराधीन मानव जाति के रूप में वर्णित किया गया है ;जो की असत्य है ।

स्मृतियों तथा ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में कुछ स्थान पर गोप को वर्ण- संकर (Hybrid) जन -जाति के रूप में वर्णित किया गया है ।
ताकि ये स्वयं को उच्चता पर प्रतिष्ठित 'न कर सकें ।
जबकि पद्म-पुराण, अग्निपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को  नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या तथा नामान्तरण से गोप कन्या कहकर भी वर्णित किया है ।
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर  तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी 
वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे ही माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा 
तो उन्होंने अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !

क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।

यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।

•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे एसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।

लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम् ।। 3/80/11 ।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11

इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे 
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।

हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में 
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !
____________
स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।
अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक  श्री कृष्ण से कहता है 
अलं ( बस कर  ठहरे!)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26। 
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)

गोप+ अलं = गोप ठहरो ! यह  अर्थ देने वाले शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है 
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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥

'परन्तु कुछ समय बाद गोपों / गोपालों को शूद्र कहा जाने लगा सत्य है क्योंकि वेदों में यदु और तुर्वशु को वश में करने लिए इन्द्र उपासक पुरोहितों जिन रात इन्द्र प्रार्थना करते हैं फिर भी यादव किसी के अधीन नहीं हो जलकर पुरोहित यादवों को कभी शूद्र तो कभी  वैश्य तो कभी क्षत्रिय भी वर्णित करते है और तो और ज्वाला प्रसाद मिश्र मुरादावादी तो अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में अहीरों को ब्राह्मण भी वर्णित किया है।

अब हम उन के खोखले तर्कों का खण्डन करते हुए
 कुछ पुराणों और वैदिक सन्दर्भों से उद्धरण प्रस्तुत करते हैं कि गोपों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है पाराशर स्मृति में लिखा कि 

मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः” पराशरः -स्मृति ( मण वन्द्य जाति की स्त्री में तन्तुवाय पुरुष से गोप उत्पन्न होता है ।

और दूसरी तरफ यह भी वर्णित किया गया कि 
सच्छूद्रौ गोपनापितौ” इत्युक्तेः तस्यसच्छूद्रत्वम् 
नाई और गोप सद् शूद्र हैं।
अर्थात्‌ जहाँ जहाँ पुरोहितों का स्वार्थ सिद्ध हुआ वहाँ 'वहाँ विधानों को स्वार्थ के अनुसार कर लिया ।  इसलिए  झूँठ से भी इन लोगों ने समझौता किया । 'परन्तु 'पद्म-पुराण अग्निपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री गोप कन्या या आभीर कन्या ही कहा है ।👇

स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या ,
शुभास्यां चारू लोचना ।७।

न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।

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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके

परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।

उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।

इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ?

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पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड के  निम्नलिखित श्लोकाशों में आभीर का नामान्तरण गोप है ।

पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय 16
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में

इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो ,

अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।

देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।

१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
यह गोप या अहीरों की कन्या है ।

अब अन्य पुराणों जैसे अग्नि पुराण में देखें 
कि गायत्री गोप या आभीर कन्या है ।

आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे । ४०।

इसी पुराण में नामान्तरण से गोप विशेषण का प्रयोग

कन्यका गोपजा तन्वी चंद्रा स्या पद्मलोचना
कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्यब्रवीहिनः । ५७

कन्योवाच गोपकन्यास्मि भद्रं  ते तक्रं विक्रेतुमागता
परिगृह्णासि चेन्तक्रं मूल्यं मेदेहि माचिरम् । ५८

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'परन्तु विचारणीय तथ्य यह भी है कि जो गोप या आभीर नारायणी सेना के यौद्धाओं में शुमार हैं 
वे शूद्र कैसे हुए गायत्री शूद्र क्यों नहीं हुई ..

नारायणी सेना के यौद्धाओं का वर्णन कहीं गोप रूप में है  तो कहीं यादव !
जैसे भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के -पन्द्रह वें अध्याय के श्लोक संख्या 20  में नारायणी सेना के गोपों ने पंजाब  में परास्त कर दिया था ।
यही बात महाभारत के मूसलपर्व अष्टम अध्याय के श्लोक 47 में आभीर रूप में है ।
'परन्तु परवर्ती रूपान्तरण होने से प्रस्तुति-करण गलत है 
गोपों ने ही पंजाब प्रदेश में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था वे भी गोप अहीर नामान्तर 

कमातुलानीं सनाभिञ्च मातुलस्यात्मजां स्नुषाम् ।
एता गत्वा स्त्रियो मोहान् पराकेश विशुध्यति ।।157। (सम्वर्त स्मृति )

मामी ,सनाभि मामा की पुत्री अथवा उसकी पुत्र वधू इनके साथ जो  मैथुन मोहित होकर करे तो पराक नामक प्रायश्चित से शुद्धिकरण होता है ।
यह महापाप है ।
शात्रों में ये विधान सामाजिक व्यवस्थाओं के उन्नयन के लिए नैतिक रूप से बनायी गये थे ।

आपको ये भी याद होगा की अर्जुन 'ने अपने मामा वसुदेव की कन्या और अपनी ममेरी बहिन सुभद्रा का अपहरण काम मोहित होकर किया था ।

वह भी कपटपूर्वक नारायणी सेना के यौद्धाओं अर्थात्‌ अहीरों या गोपों'ने अर्जुन को पंजाब प्रदेश में तब और बुरी तरह परास्त कर दिया था जब वह कृष्ण के कुल की यदुवंशी स्त्रीयो गोपियों को अपने ही साथ इन्द्र प्रस्थ ले जा रहा था ।

इसी कहीं गोप तो कहीं अहीर शब्दों के द्वारा अर्जुन को परास्त करने वाला बताया गया पुराणों में ।

हम आपको वे श्लोक भी दिखाते हैं
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प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले 
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से 
यह प्रक्षिप्त (नकली)श्लोक उद्धृत करते हैं ।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले !अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है ।
इसे देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । 
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। 

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । 
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 

परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!

( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है। 
अब भी कोई सन्देह की गुँजाइश है ।
कि अहीर और गोप अलग अलग हैं ।

दरअसल नारायणी सेना के गोप यदुवंशी यौद्धा ही थे 
सुभद्रा हरण ' 'ने यदुवंशी गोपों को अर्जुन का घोर शत्रुओं बना दिया था इन्हीं गोपो नें पंजाब में अर्जुन को बुरी तरह परास्त कर दिया था।

हरिवशं पुराण' में कृष्ण 'ने स्वयं को गोप कहा है ।
तो कृष्ण भी तो गोप ही थे 👇

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)

यद्यपि गोप आभीर और यादव समानान्तरण अर्थ में प्रयुक्त हैं ।

 केवल कुछ शातिर व धूर्त पुरोहितों 'ने द्वेष वश  आभीर के स्थान पर गोप लिखा और फिर गोप को केवल यादव लिखा ।
और आज अहीरों, गोप और यादवों को अलग- अलग
बताने की कोशिश में हैं ।

अहीर शब्द तो पुराणों में से लगभग यादवों का प्रत्यक्ष रूप से विशेषण नही रहने दिया ।
स्मृतियों में द्वेष वश तत्कालीन पुरोहितों'ने गोपों या कीं अहीरों को वर्ण संकर (Hybrid) या शूद्र कहकर भी वर्णित किया है ।👇

देखें निम्नलिखित श्लोकों में गोप के विषय में देखें

 "वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । 
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: 
एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। 

एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: 
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 

चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।

और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । 
इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।

 शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। (व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।

तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________

 (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२)
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स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।

इधर हरिवंशपुराण में यादवों को गोपालन वृत्ति के कारण गोप भी कहा गया है ।

ऋग्वेद में यदु को गोप व दास रूप में वर्णित किया वैदिक सन्दर्भों में दास का तात्पर्यं देव संस्कृतियों का विद्रोही ही है ।
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प्रश्न (4) किया है कि 
हिन्दू समाज में कुछ समय से " महापुरुष कृष्ण " को लेकर ब्राह्मण तथा ठाकुर समाज में यह भ्रान्त धारणा
रूढ़ (प्रचलित) हो गयी है ।

कि कृष्ण वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय थे । 
कृष्ण का जन्म वसुदेव के यहाँ हुआ , और वसुदेव क्षत्रिय थे ! 

तथा लालन-पालन नन्द के यहाँं और नन्द गोप अर्थात् अहीर थे ।

यदु वंश को भी ये लोग ब्राह्मण वर्ण -व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय ही कहते हैं "

जबकि वस्तु-स्थिति ठीक इसके विपरीत है ।
क्यों कि यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
और ये किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए ।

इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।
ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।

वस्तुतः --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उस आप नहीं तो क्षत्रिय मानसकते हैं ना ही शूद्र ।

क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर  किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान वेदों के ही अनुगामी हैं ।
---जो वेद में है ; उसी का विस्तार पुराणों में है। 

अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
विदित हो कि  वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण  को  दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।

सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में  यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं । 
जब यदु को ही वेदों में दास अथवा शूद्र कहा है । 

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।  

वह भी गोपों को रूप में 
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि ।

     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं 
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;।

वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वशीभूत करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ 
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि 
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)

 हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।

और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 

(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी  यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तमभी है देखें---

अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! 
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों  (यहूदीयों ) को  शासन (वश) में किया ।

वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।

हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है ।
पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति 
भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त
ब्रह्मवाक्यं ।।५१।

शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं)

संस्कृत कोश के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन कुल के विषय में वर्णन है ।👇

यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।
यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । 
इतिमेदिनी कोष:)

परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्ता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।

और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।

जैसे  अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।

आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।
'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि - गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍

अभीर:- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । गोपे जातिवाचकादन्तशब्दत्वेन ततः स्त्रियां ङीप् ।

आभीर :-समन्तात् भियं राति रा--क । गोपे सङ्कीर्ण्ण जातिभेदे स हि अल्पभोतिहेतोरप्यधिकं बिभेतीतितस्य तथात्वम्

प्रश्न यह भी किया जाता है क
  पुराणों में उल्लेख के अनुसार वसुदेव जी के चचेरे भाई बाबा नन्द जो गोकुल के जागीरदार थे उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। 

बाबा नन्द की मात्र एक कन्या आदि शक्ति माँ योगेश्वरी थीं जो भगवान कृष्ण की बहन थीं एवं कालान्तरण में समस्त यदुवंश की कुलदेवी कहलाईं।

अत: भगवान कृष्ण ने अपने तात नन्दराय के वंश को आगे बड़ाने के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र अनिरुद्ध के पौत्र वज्रनाभ के पुत्रो में से एक सुबाहु को आज्ञा दी।अर्थात् नन्द वंश वज्रनाभ के पुत्र
सुबाहु ने ही बाबा नंदराय का वंश आगे बड़ाया जिनके वंशज महाराजा प्रहलाद सिंह थे।
नन्द वंशका विलय होगा ।
राजा प्रहलाद
 सिंह ने मथुरा एवं पूर्वी राजपुताना में बसे सगोत्रीय भाईबंदों के संग आकर बुंदेलखंड की तरफ़ मथूरा के पास गढ प्रहलादखेड़ा की नींव रखी और वहां पर एक किले का निर्माण करवाया। 

इसके पश्चात महाराजा प्रहलाद सिंह की वीर पुलैया गाँव मध्य प्रदेश के विदिशा तक आव्रजन  कर गए वहाँ पर कई जागीरों को स्थापित किया जिसमे पट्टन, सहजाखेड़ी रामगढ़ , दुनात्र घराने आदि प्रमुख हैं।


पुरोहितो के पास रखे दस्तावेज़ और वंशावली के अनुसार आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व विदिशा के पट्टन में भगवान श्री कृष्ण की पीढ़ी के 152वे शासक राजा धुंधसहाय सिंह का शासन था।

और  महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 

और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; एेसा वर्णन है । 
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहाँ कहा है ?
______________________

"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।२७।

गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में 
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।

अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा 
।२१।

 कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।

इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।

मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।

कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं 
२४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)

पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
____________________

गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की 
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) के घर में क्यों हुए ? ।९।

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) 
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय 
पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व (संस्कृत) अध्याय 11 श्लोक 58
_______
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्‍म च।
अमीषामुत्‍पथस्‍थानां निग्रहार्थं दुरात्‍मनाम्।।58।।
__________________________
 इसलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और  मैंने गोपों में जन्म लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्‍माओं का दमन कर सकूँ ।।58।।
 
_______________________
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ ।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्‍णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोअध्‍याय:।



अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। 

यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
नारायणी सेना गोपों ने ही पंजाब प्रदेश में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था वे भी गोप अहीर नामान्तर 
____________________________________

प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले 
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से 
यह प्रक्षिप्त (नकली)श्लोक उद्धृत करते हैं ।

और अपने आप को यदुवंशी क्षत्रिय होने का दाबा करते हैं तो 
राजपूत भी पुराणों और -स्मृतियों वर्ण संकर Hybrid जाति है 
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में लिखा है कि करणी कन्या की क्षत्रिय से गुप्त या अवैध सन्तानें राजपूत हैं ।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले !अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है ।
_______________
                    (भाग प्रथम समाप्त )
सत्य तो यह है कि प्रत्येक काल में इतिहास पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर लिखा जाता रहा है ;
आधुनिक इतिहास हो या फिर प्राचीन इतिहास या पौराणिक आख्यानकों में वर्णित कल्पना रञ्जित कथाऐं 
सभी में लेखकों के पूर्वाग्रह समाहित रहे हैं ।

भारतीय पुराणों अथवा मिथकों में यह पूर्वाग्रह यादवों को हेय व हीन वर्णित करने के रूप में आया 
इसके सन्दर्भ तो वैदिक ऋचाओं में भी प्राप्त हुए हैं ।
और अहीरों की पक्षपात विरोधी प्रवृत्ति के कारण या 'कहें' उनका बागी प्रवृत्ति के कारण 
भारतीय पुरोहित वर्ग ने अहीरों को (Criminal tribe ) अापराधिक जन-जाति के रूप में अथवा दुर्दान्त हत्यारों  और लूटेरों के रूप में भी वर्णित किया है। 

विदित हो की यादवों ने अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए दस्यु या डकैटी को तो अपनाया था 
'परन्तु चौरी करना डकैटी करना या डकैट होना 
 गरीबों की सम्पत्ति चुराना कभी नहीं है ।
और चोर और डकैट एक दूसरे समानार्थक शब्द कदापि नहीं हैं 
अपने अधिकारों को छीनने वाला डकैट है ; तो चोर वह है जो बिना किसी की इजाज़त के उसकी वस्तु को छुपा ले ...
डकैटी नीति परक है ।
 डकैट चुराते कभी नहीं वह छीनते हैं और वह भी उन शोषकों से  जिन्होंने गरीबों के हक मार लिए हैं ।

दस्यु यदि हेय हैं यदि ऐसी होता तो महाभारत में दस्युओं की प्रसंशा नहीं की जाती ।

दस्यु वे विद्रोही थे जिन्होंने कभी भी किसी की अधीनता स्वीकार  करके उनके द्वारा लागू किए गये अनुचित कानून को ना माना हो ।

अपितु  ऐसे विद्रोही हर युग और हर समाज में अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए सदैव से बनते रहे हीे हैं ।
और अागे भी बनते रहेंगे !

जहांँ डकैट में स्वाभिमान होता है । वहीं चौर में स्वाभिमान 'नहीं होता है !

और यह भी सर्वविदित है कि 
 इतिहास कार भी विशेष समुदाय वर्ग के ही आश्रित थे ।
उस वर्ग के जो समाज पर सदीयों से अपना वर्चस्व स्थापित कर के समाज के निम्न और मध्य वर्गों पर शासन करते थे ।

उनकी सुन्दर कन्याओं और स्त्रीयों को अपनी वासना पूर्ति के लिए तत्काल तलब कर लेते थे ।
 इसलिए अहीरों ने दासता स्वीकार 'न करके दस्यु बनना बहतर समझा !

क्यों की वीर अथवा यौद्धा कभी असमानता मूलक सामाजिक अव्यवस्थाओं से समझौता नहीं करते हैं ।

अहीरों के विषय में निम्न सोच रखने वाले  तथा केवल नकारात्मक ऐैतिहासिक विवरण पढ़ने वाले गधों से अधिक कुछ और नहीं हैं।

अहीर क्रिमिनल ट्राइब कदापि  नही हैं अपितु विद्रोही ट्राइब अवश्य रही है ; 
और विद्रोही या  क्रान्तकारीयों को विरोधी लोग  लूटेरा या आतंकवादी तो कहेंगे ही ... 

इन अहीरों की श्रृँखला में में गूजर तथा जाटों की भी लम्बी फेहरिस्त है ।
वे भी इतिहास में उपेक्षित रहे पश्चिमी एशिया में ये तीनों जनजातियाँ सजातीय और सहवर्ती के रूप में अवर , कज्जर और गेटे (जेटे) के रूप में विद्यमान रहीं हैं ।

आज भी तीनों जनजातियाँ एक दूसरे को समानता का दर्जा देती हैं ।
यहाँ हम बात अहीरों के विषय में करते हैं ।
अहीर बागी थे वो भी अत्याचारी शासन व्यवस्थाओं  के खिलाफ ,
क्योंकि इतिहास भी शासन के प्रभाव में ही लिखा जाता था इसी लिए इसकी निश्पक्षता 
सन्दिग्ध है ।

 और कोई शासक इसीलिए विद्रोहियों को सन्त तो कहेगा नहीं
और 'न ही उसको सम्मानित दर्जा ही देगा ।

 परन्तु जनता भी क्यूँ सच मान लेती है इन सारी काल्पनिक बातों को! यही समझ में नहीं आती  ? 
सम्भवत: जनता में भी वर्चस्व वादीयों की धाक होती है ।

 नकारात्मक रूप से ऐसी ऊटपेटांग बातें आजादी के बाद यादवों के बारे में वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने ही पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित होकर लिखीं ।

क्यों की उन्हें उनसे खतरा था कि ये तो सबकी समानता के पक्षधर हैं ।
तो हमारी स्वार्थ वत्ता कैसे सिद्ध होती रहेंगी ?
हमारी गुलामी कौन करेगा ?
जो हमारी परम्परागत विरासत है ।

परन्तु यथार्थोन्मुख सत्य तो ये है कि यादवों ने ना कभी कोई  अापराधिक कार्य अपने स्वार्थ या अनुचित माँगों को मनवाने के लिए किया हो !

 कोई तोड़ फोड़ कभी  की हो ! और ना ही -गरीबों की -बहिन बेटीयों  को सताया हो ।
गरीबों को अपना हमकदम अपना भाई ही माना 

केवल कुकर्मीयों , व्यभिचारीयों के खिलाफ विद्रोह अवश्य किया, वो भी हथियार बन्ध होकर ,
इसे डकैटी या लूट कहो तो अतिरञ्जना है ।

यादवों का विद्रोह शासन और उस  शासक के खिलाफ रहा हमेशा से , जिसने समाज का शोषण किया हो 'न कि आम लोगों के खिलाफ !

जिस प्रकार से आज समाज में अहीरों के खिलाफ सभी रूढ़ि वादी समुदाय एक जुट हो गये हैं ।
और उन्हें घेरने की कोशिश करते हैं 
नि: सन्देह यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है 

क्यों की हर क्रिया की प्रतिक्रियाऐं शाश्वत हैं ।
जो धूल को ठोकर मार कर यह सोचते हैं की हम बादशह हैं तो वह धूल उन्हीं के सिर पर बैठती है ।
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पुष्यमित्र सुंग कालीन पुरोहितों ने मौखिक रूप से तो अहीरों को हीन और हेय सिद्ध करने के लिए  पदे- पदे 
 दुष्चेष्टा की ही अपितु उनको पूर्ण रूप से हीन बनाने के लिए उनकी वंश उत्पत्ति भी बेतुकी और अनार -सनाप तर्क हीन पद्धति से कर डाली ।

अहीरों की उत्पत्ति कभी अम्बष्ठ कन्या में ब्राह्मण की अवैध सन्तान के रूप में की ; 
तो कभी माहिष्य कन्या में ब्राह्मण के द्वारा अवैध सन्तान के रूप में कर डाली ।

ऐसा इस लिए कि अहीर कभी भी ब्राह्मणों से अधिक पूजनीय न हो जाऐं ।

क्यों की पश्चिमी एशिया फलिस्तीन,  इज़राएल आदि के मिथकों में अहीर  अबीर के रूप में ईश्वरीय सत्ता के रूप हैं ।
इतनी ही नहीं भारतीय पुराणों विशेषत : हरिवंशपुराण अग्निपुराण पद्म-पुराण आदि ग्रन्थों में अहीरों को  गोप रूप में देवों का अवतार ही वर्णित किया है ।

ब्राह्मण अहीरों की प्रतिष्ठा से आशंकित थे कि कहीं ये ब्राह्मण धर्म के वर्चस्व को धूमिल 'न कर दें 
इस लिए सबसे ज्यादा ब्राह्मण समाज 'ने अहीरों को ही हीन, शूद्र और वर्ण संकर जाति के रूप वर्णित किया 'परन्तु ये मूर्ख यह भी भूल गये कि बादलों से सूर्य कुछ पल के लिए छिप सकता है हमेशा के लिए नहीं ...

इन मूर्खो ने नये चमत्कारिक ढ़ंग से अहीरों की उत्पत्ति एक ब्राह्मण के द्वारा दो स्त्रियों में बता दी ...
जो पूर्ण रूपेण अवैज्ञानिक और हास्यापद है ।

तात्पर्यं दो स्त्रीयों में एक ही ब्राह्मण के द्वारा जो एक सन्तान हुई वह आभीर है ।
'परन्तु ये असम्भव है आज तक एक स्त्री में अनेक पुरुषों द्वारा सन्तानें उत्पन्न सुनी थी और सम्भवत भी थीं 'परन्तु यहाँ तो 
अम्बष्ठ कन्या और माहिष्य कन्या में एक ही सन्तान आभीर उत्पन्न हो गये ।

 विदित हो की अम्बष्ठ और माहिष्य दौनों ही अलग अलग जनजातियाँ हैं

माहिष्यजन-जाति स्मृतियों के अनुसार एक वर्ण-संकर जाति है विशेषत:
—याज्ञवल्क्य स्‍मृति इसे क्षत्रिय पिता और वैश्या माता की औरस संतान मानती है । 

तो आश्रलायन इसे सुवर्ण नामक जाति से करण जाति की माता में उत्पन्न सन्तान मानती है ।

 सह्याद्रि खण्ड  स्कन्द  पुराण में इसको यज्ञोपवीत  आदि संस्कारों का वैश्यों के समान ही अधिकारी कहा हैं; ।
पर आश्वलायन इसे यज्ञ करने का निषेध करते हैं ।

 इस जाति के लोग अब तक बालि द्वीप में मिलते हैं और अपने को माहिष्य क्षत्रिय कहते हैं ।

 संभवत: ये लोग किसी समय महिष- मंडल देश के रहनेवाले होंगे ।
अब यही गड़बड़ है कि सभी स्मृतियों के विधान भी परस्पर विरोधाभासी व भिन्न-भिन्न हैं ।

अब अम्बष्ठ नामक वर्णसंकर जाति का उल्लेख भी देखें इनका वर्णन महाभारत में हुआ है। 
यह वैश्य स्त्री  और ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न सन्तान थी।
नीचे सन्दर्भ सूची देखें👇
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
महाभारत शब्दकोश |लेखक: एस.पी. परमहंस |प्रकाशक: दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 126 |
'परन्तु ये असम्भव है ! 

अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप भी है ।
गोपो की उत्पत्ति के विषय में ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है।👇

कृष्णस्य  लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।
              (ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)

अर्थात कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं की उत्पत्ति हुई है , जो रूप  और वेश में उन्हीं कृष्ण के समान थे ।

और जब भगवान की नंद राय से बात हुई है तब उन्होनें नन्द से कहा !
"हे वैश्येन्द्र सति कलौ न नश्यति वसुन्धरा "
     ब्रह्म-पुराण 128/33
है वैश्यों के मुखिया कलि का आरम्भ होने से कलि धर्म प्रचलित होंगेे ।
पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी ।
इसमें नन्द जी का वैश्य होना पाया जाता है ।
परन्तु हरिवंश पुराण में तो 👇

और यह श्रेणि पुरोहितों ने गो-पालन वृत्ति के कारण दी थी  तो ध्यान रखना चाहिए कि चरावाहे ही किसान हुए।
तो क्या किसान क्षत्रिय न होकर वैश्य हुए।
क्यों कि गाय-भैंस सभी किसान पालते हैं ।
क्या वे वैश्य हो गये ?
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धूर्त पुरोहितों ने द्वेष वश यादवों का इतिहास विकृत किया अन्यथा विरोधाभास और भिन्नता का सत्य के रूप निर्धारण में  स्थान हि कहाँ ?
क्यों की झूँठ बहुरूपिया तो सत्य हमेशा एक रूप ही होता है। 

परन्तु कृष्ण जी जब नंद राय के घर थे तब उनके संस्कार को नंद जी के पुरोहित ना आए गर्ग जी को वसु देव जी ने भेजा यह बड़े आश्चर्य की बात है !

नन्द के पुरोहित साण्डिल्य भी गर्ग के शिष्य थे।
यही कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ के पुरोहित भी थे।

तो इसमें भेद निरूपण नहीं होता कि यादवों के पुरोहित गर्गाचाय थे और अहीरों के शाण्डिल्य ! 
जैसा कि कुछ धूर्त अल्पज्ञानी भौंका करते हैं ।

परन्तु उसी पुराण में लिखा है कि जब श्रीकृष्ण गोलोक को गए तब सब गोपोंं को साथ लेते गए और अमृत दृष्टि से दूसरे गोपो से गोकुल को पूर्ण किया जता है।
वस्तुत यहाँं सब विकृत पूर्ण कल्पना मात्र है ।👇

योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि:।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णं चकार स:।। 
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण)

क्यों कि यदि गोप वैश्य ही होते तो कृष्ण की नारायणी सेना के यौद्धा कैसे बन गये।
जिन्होनें ने अजुर्न -जैसे यौद्धा को परास्त कर दिया।

अब सत्य तो यह है कि जब धूर्त पुरोहितों ने किसी जन-जाति से द्वेष किया तो 
उनके इतिहास को निम्न व विकृत करने के लिए
कुछ काल्पनिक उनकी वंशमूलक उत्पत्ति कथाऐं ग्रन्थों में लिखा दीं ।

क्यों कि जिनका वंश व उत्पत्ति का ज्ञान होने पर 
ब्राह्मणों से उनकी गुप्त या अवैध उत्पत्ति कर डाली ।
ताकि वे हमेशा हीन बने रहें !

-जैसे यूनानीयों की उत्पत्ति 
क्षत्रिय पुरुष और शूद्रा स्त्री ( गौतम-स्मृति)

पोलेण्ड वासी (पुलिन्द) वैश्य पुरुष क्षत्रिय कन्या।(वृहत्पाराशर -स्मृति)

आभीर:- ब्राह्मण पुरुष-अम्बष्ठ कन्या।
आभीरो८म्बष्ठकन्यायाम् मनुःस्मृति 10/15
अब दूसरी -स्मृति में अाभीरों की उत्पत्ति का भिन्न जन-जाति की कन्या से  है कि
"महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् आभीर  
तथैव च आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् (128-130)

माहिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो पैदा हो वह आभीर है।

तथा ब्राह्मण द्वारा अाभीर पत्नी में भी अाभीर ही उत्पन्न होता है ।
अब कल्पना भी मिथकों का आधार है 
सत्य सदैव सम और स्थिर होता है जबकि असत्य बहुरूपिया और विषम होता है ।

यह तो सभी बुद्धिजीवियों को विदित ही है । ।
अत: एक -स्मृति कहती है की ब्राह्मण द्वारा माहिष्य स्त्री में आभीर उत्पन्न होता है।

और दूसरी -स्मृति कहती है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न आभीर है ।

अब देखिए माहिष्य और अम्बष्ठ अलग अलग जातियाँ हैं 
स्मृतियों और पुराणों में भी 👇
__________________________________________

ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठोनाम जायते मनुःस्मृति “
( ब्राह्मण द्वारा वैश्य कन्या में उत्पन्न अम्बष्ठ है ।

क्षत्रेण वैश्यायामुत्पादितेमाहिष्य: 
( क्षत्रिय पुरुष और वैश्य कन्या में उत्पन्न माहिष्य है वैश्यात्ब्राह्मणीभ्यामुत्पन्नःमाहिष कथ्यते।
___________________________________________
ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15
आर्य्य समाजी विद्वान मनुःस्मृति के इस श्लोक को प्रक्षिप्ति मानते हैं ।

जबकि हम तो सम्पूर्ण 
मनुःस्मृति को ही प्रक्षिप्त मानते हैं ।

क्यों बहुतायत से मनुःस्मृति में प्रक्षिप्त रूप ही है ।
तो शुद्ध रूप कितना है ?

क्यों कि मनुःस्मृति पुष्य-मित्र सुंग के परवर्ती काल खण्ड में जन्मे सुमित भार्गव की रचना है ।

यदि मनुःस्मृति मनु की रचना होती तो इसकी भाषा शैली केवल उपदेश मूलक विधानात्मक होती ;  

परन्तु इसमें ऐैतिहासिक शैली का प्रयोग सिद्ध करता है कि यह तत्कालीन उच्च और वीर यौद्धा जन-जातियों को निम्न व हीन या वर्ण संकर बनाने के लिए 'मनु के नाम पर लिखी गयी।

परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है ।
'वह भी कल्पना प्रसूत जैसा कि 
आर्य्य समाज के कुछ बुद्धिजीवी इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देते रहते हैं 👇
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।।
(10/34) मनुःस्मृति
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ।।
(10/43) 
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)मनुःस्मृति
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10

पुष्यमित्र सुंग कालीन पुरोहितों को जब किसी जन जाति की वंशमूलक उत्पत्ति का ज्ञान 'न होता था तो वे उसे अजीब तरीके से उत्पन्न होने की कथा लिखते हैं। 

जैसा यह विवरण प्रस्तुत है ।
इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों हूणों,पारसीयों ,पह्लवों ,शकों ,द्रविडो ,सिंहलों तथा पुण्डीरों (पौंड्रों) की उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि, मूत्र ,गोबर आदि से बता डाली है।👇
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असृजत् पह्लवान् पुच्छात् 
प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान् 
(द्रविडान् शकान्)।योनिदेशाच्च यवनान् 
शकृत: शबरान् बहून् ।३६।

मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।
पौण्ड्रान् किरातान् यवनान् 
सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७। 
____________________________________________

यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व हेयतापूर्ण व्युत्पत्तियाँ अविश्वसनीय हैं ।
________________________________________
•नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।

•तथा धनों से द्रविड और शकों को।

•यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर उत्पन्न हुए।

कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की सृष्टि ।३७।

ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनको विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते । 

अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
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चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।

इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक ,पुलिन्द, चीन ,हूण केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय)
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भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।
दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।।

तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी 
अट्टालिका वाली है ।

(महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय )

वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड के चौवनवे सर्ग में वर्णन है कि 👇

-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गोै को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक और यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होती हैं ।

अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।
👴...

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभि: सासृजत् तदा ।
तस्या हंभारवोत्सृष्टा: पह्लवा: शतशो नृप।।18।

राजकुमार उनका 'वह आदेश सुनकर उस गाय ने उस समय वैसा ही किया उसकी हुँकार करते ही सैकड़ो पह्लव जाति के वीर (पहलवान)उत्पन्न हो गये।18।

पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।20।

भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रतान् ।।
तैरासीत् संवृता भूमि: शकैर्यवनमिश्रतै:।21।।

उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: 
यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई 20 -21।

ततो८स्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह।
तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृता ।23।

तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन ,कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे ।23।।

अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में भी देखें---
कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं 
और गोबर से शक उत्पन्न हुए थे ।

योनिदेशाच्च यवना: शकृतदेशाच्छका: स्मृता।
रोमकूपेषु म्लेच्‍छाश्च हरीता सकिरातका:।3।

यौनि देश से यवन शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए रोम कूपों म्लेच्‍छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।।

यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ 
बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है।

कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया.
माना जाता है कि चीन के "वी बोयांग" ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली.
बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया.

300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए किया.

इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया ।
बारूद का वर्णन होने से ये मिथक अर्वाचीन हैं ।

अब ये काल्पनिक मनगड़न्त कथाऐं किसी का वंश इतिहास हो सकती हैं ?

हम एसी नकली ,बेबुनियाद  आधार हीन मान्यताओं का शिरे से खण्डन करते हैं ।
पश्चिमीय राजस्थान की भाषा की शैली (डिंगल' भाषा-शैली) का सम्बन्ध चारण बंजारों से था। 

जो अब स्वयं को राजपूत कहते हैं।

जैसे जादौन ,भाटी आदि छोटा राठौर और बड़ा राठौर के अन्तर्गत समायोजित बंजारे समुदाय हैं ।

राजपूतों का जन्म करण कन्या और क्षत्रिय पुरुष के द्वारा हुआ यह ब्रह्मवैवर्त पुराण के दशम् अध्याय में वर्णित है । 

परन्तु ये मात्र मिथकीय मान्यताऐं हैं 

जो अतिरञ्जना पूर्ण हैं ।

👇

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे -

ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)

← अध्यायः ०९ ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

अध्यायः १०

क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 

राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 

1/10।।

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈

करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 

ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।

ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।

एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।

लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।

पर चारणों का वृषलत्व कम है । 

इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

 चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।

करणी चारणों की कुल देवी है ।💒🚩
अब  ये लोग अपने यूनाइटेड क्षत्रिय नामक वेवसाइट पर खुद को  असली यदुवंशी कह रहे हैं 
और अहीरों को नकली 

'परन्तु प्रमाण कोई भी नहीं है-इनके पास ...

ऋग्वेद में यदु और तुर्वशु को प्राचीनत्तम विश्व का सबसे बडा गोप कहा :- जो करोड़ो गायों से घिरे हुए हैं ।👇
_____________
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(ऋ०10/62/10)

अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/) 

विशेष:-  व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में "दासा" शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है।

क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है।

परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।

गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।

अथवा गो परिणसा गायों  से घिरा हुआ

यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व 
सामासिक रूप ।

मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय  बहुवचन रूप  अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
___________________

गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है।

वैदिक काल में ही यदु को "दास" सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की कुत्सित चेष्टा की।
और वैदिक सन्दर्भ में " दास " का अर्थ असुर अथवा देव संस्कृति का विद्रोही ही है ।
सेवक या भक्त नहीं जैसा कि आधुनिक समय में हुआ है 

कदाचित् ब्राह्मणों को ये जन-श्रुतियाँ पश्चिमीय एशिया के मिथकों से प्राप्त हुईं !

क्यों कि कनानी संस्कृतियों तथा फोएनशियन सैमेटिक संस्कृतियों में यहुदह् (Yahuda)
 का वर्णन इसी प्रकार हुआ है ।

--जो यहूदियों का आदि पुरुष यदु: है ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये उपर्युक्त ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।

ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
प्रशंसात्मक रूप में कभी नहीं हुआ 
एक दो ऋचाओं में बाद में यदुवंशीयों के वर्चस्व को जान कर यदु और तुरवसु की प्रशंसात्मक कर दी गयी है ।

दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाहे" शब्द के रूप में विकसित है ।
:-जो  एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है। 
---जो वर्तमान में दाहिस्तान "Dagestan" को आबाद करने वाले हैं।

दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
तुर्को के अादि-पूर्वज तुर्वशु थे।

विदित हो कि यहूदी प्राचीन पश्चिमीय एशिया में कनान ,फलिस्तीन, सीरिया, अराम आदि देशों के ये सबसे बड़े चरावाहे थे। 
और चरावाहे आर्य्य ही थे जिसमें अबीर, बीर, अवर ,अफर, आयबेरिया, आभीर ,वीर नाम ध्वनित हैं ।

पश्चिमीय एशिया के इतिहास कारों ने यहूदियों के रूप में "गुजर" जन-जाति का भी उल्लेख किया है ।
सैमेटिक तथा सुमेरियन संस्कृति में "गु" गाय को ही कहा गया है ।

इसी से पश्चिमी एशिया में  गोर्सी, गोर्जी तथा वैदिक रूप गोषन् लौकिक घोष: आदि रूप विकसित हुए ।

गा चारयति इति गौश्चर: जश्त्व सन्धि विधान से गौश्चर से गुर्जर शब्द विकसित हुआ ।

अब ये लोग भारत में यादवों के रूप में थे ।
ऐसा अनेक विद्वान लिखते हैं।

पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने यहुदह् "Yahuda" को यदु: से एकरूपता स्थापित की ।

और यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक पहले कभी नहीं था केवल गोप का वाचक था ।
हाँ यह घोष यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक उपाधि या विशेषण अवश्य था।

वैदिक काल में ई०पू० सप्तम् सदी में यह गोष:( गौषन् ) के रूप में था ।
और घोष रूप ई०पू० पञ्चम् सदी में हो गया था ।
यादवों ने वर्ण व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं किया 
यह वैदिक ऋचाओं में प्रतिध्वनित ही है ।
यद्यपि यादवों की निर्भीक यौद्धा प्रवृत्ति के कारण ईसा० पूर्व द्वितीय सदी के ग्रन्थों में ( आ-समन्तात् भियं-भयं रीति ददाति इति आभीर ...
आभीरः, पुं, (आ समन्तात् भियं राति । रा दाने आत इति कः ।) गोपः । इत्यमरः ॥ आहिर इति भाषा ।

अमरकोशः

आभीर पुं। 

गोपालः 

समानार्थक:गोप,गोपाल,गोसङ्ख्य,गोधुक्,आभीर,वल्लव,गोविन्द,गोप , गौश्चर, गोषन्, घोष: ।

2।9।57।2।5 
कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्.
 गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥ 

_____ 
 जैसे राजा के पुत्र होने से हम राजपुत्र तो हो सकते हैं 
और राजकुमार ही राजा की वैध सन्तानें मानी जाती थीं 
यदु का वंश सदीयों से पश्चिमी एशिया में शासन करता रहा 'परन्तु भारतीय पुरोहितों ने भले ही यदु को क्षत्रिय वर्ण में समाहित 'न किया हो तो भी हम स्वयं को राजा यदु की सन्तति मानने के कारण से राजपुत्र या राजकुमार मानते हैं।
______________________
'परन्तु बात राजपूत समाज की बात आती है तो हम राजपूत इस लिए नहीं बन सकते क्यों कि राजपूत शब्द ही पञ्चम- षष्ठम सदी की पैदाइश है ।
और यह शब्द राजपुत्र या राजकुमार की अपेक्षा हेय है ।
ऐसी पौराणिक पुरोहितों की मान्यता है ।
देखें निम्नलिखित श्लोकाशों में
_______
राजपूत को पुराणों और -स्मृतियों में करणी जाति की वर्ण संकर कन्या से उत्पन्न राजा की अवैध सन्तान माना गया है ।

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिनकी स्‍मृति में राजपूतों ने करणी सेना का गठन कर लिया है ।
 विदित हो की करणी एक चारण कन्या थी ।
और चारण और भाट जनजातियाँ ही बहुतायत से राजपूत हो गये हैं ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
राजपूत की उत्पत्ति👇
____________________
शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मो प्रजायते ।
 शस्त्रविद्यासु कुशल संग्रामे कुशलो भवेत् ।
तथा वृत्या सजीवैद्य शूद्र धर्मां प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद : ।
हिन्दी अनुवाद:-👇

क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है ।
यह उग्र  भयानक शस्त्र-विद्या और रण में चतुर और शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र-वृत्ति से अपनी जीविका चलाने वाला होता है ।
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण 26 )

 दूसरे ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार वर्णन है।👇
< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः 1 -(ब्रह्मखण्डः)
← (अध्यायः 09 ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः 10)
____________________
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈

करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने भी वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति भी है ।
______
क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
'परन्तु राजपूतों 'ने आज स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर लिया है।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
ये भाट के समानान्तरण अर्थवाची हैं।
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हम घोष 'लोग' यादव हैं अहीर है गोपाल है  वीर हैं 
शत्रु का दमन करने वाला होने से हमारे दादा का मूल नाम दम था ;और घोष वे इसलिए कहलाए क्यों कि 
वे गोपालक थे और वंशमूलक रूप में यादव थे । 

हाँ यह घोष शब्द सनातन काल से यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक उपाधि या विशेषण अवश्य था।
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वैदिक काल में ई०पू० सप्तम् सदी में यह गोष:( गौषन् ) के रूप में था ।
और घोष रूप में तो यह ई०पू० पञ्चम् सदी में हो गया था ।

क्यों कि हैहय वंशी यादव राजा दमघोष से पहले भी घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है ।

इस विषय में वेद प्रमाण हैं; उसमे भी ऋग्वेद और उसमें भी इसके लिए चतुर्थ और षष्ठम मण्डल महत्वपूर्ण श्रोत हैं।

मध्यप्रदेश में "घोष" यद्यपि यादवों का प्राचीनत्तम विशेषण है।
जो गोपालन की प्राचीन वृत्ति ( व्यवसाय) से सम्बद्ध है

परन्तु आज ये लोग दुर्भाग्यवश संस्कृत भाषा को न जानने के कारण अपने प्राचीनत्तम इतिहास को भी भूल गये हैं।
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घोषी यदुवंशी अहीरों का एक प्रसिद्ध और स्वतंत्र खानदान(शाखा)है जिनका ठिकाना मुख्यतः पश्चिमी यूपी का ब्रज क्षेत्र, मध्यप्रदेश, अफ़ग़ानिस्तान, पंजाब, सिंध भी है।
गुर्जर जाट और अहीरों में भी घोषी या गोर्सी गोत्र है।
 घोषी यादवों में लगभग 225 से ज़्यादा गोत्र आते हैं।
घोषी अहीरों की ब्रज क्षेत्र में कई ज़मीदारी और रियासतें 
रही हैं।

'घोषी' शब्द की उत्पत्ति पर विस्तृत रूप से प्रकाशन हो चुका है ।
यदुवंशियों के प्रसिद्ध चेदि राजवंश के महाराजा  दमघोष भगवान कृष्ण के बुआ के पुत्र  युवराज शिशुपाल के पिता थे।

चेदि जनपद आज के बुंदेलखंड के इलाके को कहा जाता था।

घोषी अहीरों को ठाकुर, संवाई आदि की भी पदवी है और ये "घोषी ठाकुर" नाम से प्रसिद्ध हैं।

ब्रज के घोषी अहीरों की परम्परा है ;
घोषी यादवों ने अपनी क्षत्रिय परम्परा आज भी बरकरार रखी है एवं इनकी  विवाह कार्यक्रमों मे गौड़ ब्राह्मण फेरों की रस्म सम्पन्न करवाते है।

घोषियों मे खाप प्रथा व वंशानुगत चौधरी प्रथा का भी प्रचलन है, यदि किसी चौधरी का कोई वैध उत्तराधिकारी नही होता है तो उसके मरणोपतरान्त  उसकी विधवा किसी दत्तक पुत्र को उसका वंशज घोषित करती है, 

दत्तक पुत्र न चुने जाने की स्थिति मे पंचों द्वारा योग्य उत्तराधिकारी का चयन होता है। 
यही परम्परा यहूदियों में भी विद्यमान थी।
क्योंकि वे भी यादव वंश के थे।

 मध्य प्रदेश में  घोसी अहीरों के गोत्र-
चंदेल गोत्र, मेहर गोत्र , पोहिया गोत्र, भृगुदेव गोत्र, रोहिणी गोत्र( बलराम जी के वंशज), गुरेलवंशी अहीर,
पंवार गोत्र, गढवाल गोत्र, राधेय गोत्र(राधारानी के वंशज),
अत्रि गोत्र, नागवंशी गोत्र, अत्रेय, पंवार गोत्र, सिकेरा गोत्र,
बाबरिया गोत्र (पांडू पुत्र अर्जुन के प्रपौत्र राजा जनमेजय के वंशज), रौंधेला गोत्र, सौंधेले, हवेलिया,
वितिहोत्र गोत्र ( सम्राट सहस्त्रार्जुन के वंशज), प्रद्यौत गोत्र,  बिलौन गोत्र, वेद, फाटक गोत्र (मथुरा नरेश ) आदि प्रसिद्ध हैं ।

 यदुवंशी अहीर राजा दिगपाल के वंशज जिन्होंने (शिकोहाबाद जिला फीरोजाबाद उत्तर प्रदेश) में सम्मोहन चौरासी जागीर स्थापित करी थी।), 
धूमर आदि 200 से ज्यादा गोत्र पाए जाते हैं घोषियों में।
लेकिन मध्यप्रदेश के घोषी अब यादव संघ से दूर होने लगे हैं एवं इसका मुख्य कारण है।
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भारत के  यादव समाज के संगठनों द्वारा मध्यप्रदेश के घोषी अहीर भाईयों की उपेक्षा हुई अत: उन्होंने अपने को अलग-  अनुभव किया ऐसी ही राजस्थान के जोधपुर के आसपास कई चंद्रवंशी घोषी अहीरों के ठिकाने आबाद थे लेकिन अब ये अग्निवंशी चौहानों और राठौड़ों में सम्मिलित हो गए हैं।

अहीर एक शुद्ध आर्य चंद्रवंशी क्षत्रिय नस्ल है ।
और प्राचीनत्तम चौहान गुर्जरों का गौत्र था ।

लेकिन लगता है राजनीति के चक्कर में ये नेता दुसरी बिरादरी के लोगों को हमसे जोड़ हमारी शुद्ध आर्य क्षत्रिय नस्ल को बरबाद करके ही मानेंगे।

यद्यपि गूजर और जाटों जैसे संघों में भी हमारे घोसी 'लोग' समायोजित हैं ।
जो अब अपने को गुर्जर या जाट लिखते हैं ।
घोष शब्द गो-सेवा से सम्बद्ध है ।
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इन्हें नहीं पता कि गोषन् शब्दः ही
पौराणिक काल में  "घोष " बन गया जबकि वैदिक
सन्दर्भों में यह गोष: ही है ।
 ऋग्वेद के उद्धरण👇

गोष: (गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु)
अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है ।

गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सिद्धान्त कौमुदीय धृता श्रुतिः 👇 
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नूनं न इन्द्रापराय च स्या भवा
मृळीक उत नो अभिष्टौ ।
इत्था गृणन्तो महिनस्य 
शर्मन्दिवि ष्याम पार्ये गोषतमाः 
(ऋग्वेद ६ । ३३ । ५ । )

प्र ते बभ्रू विचक्षण शंसामि गोषणो नपात् ।
माभ्यां गा अनु शिश्रथः ॥२२॥
ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।👇

सायण भाष्य:-प्र ते॑ ब॒भ्रू वि॑चक्षण॒ शंसा॑मि गोषणो नपात्

माभ्यां॒ गा अनु॑ शिश्रथः ॥२२

प्र । ते॒ । ब॒भ्रू इति॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒ । शंसा॑मि । गो॒ऽस॒नः॒ । न॒पा॒त् ।

मा । आ॒भ्या॒म् । गाः । अनु॑ । शि॒श्र॒थः॒ ॥२२

प्र । ते । बभ्रू इति । विऽचक्षण । शंसामि । गोऽसनः । नपात् ।

मा । आभ्याम् । गाः । अनु । शिश्रथः ॥२२

हे “विचक्षण प्राज्ञेन्द्र “ते त्वदीयौ “बभ्रू बभ्रुवर्णावश्वौ “प्र “शंसामि प्रकर्षेण स्तौमि" ।

हे “गोषनः गवां सनितः हे “नपात् न पातयितः
स्तोतॄनविनाशयितः।

किंतु पालयितरित्यर्थः । 
हे इन्द्र त्वम् “आभ्यां त्वदीयाभ्यामश्वाभ्यां “गा “अनु अस्मदीया गा लक्षीकृत्य “मा “शिश्रथः विनष्टा मा कार्षीः  गावोऽश्वदर्शनात् विश्लिष्यन्ते । 
तन्मा भूदित्यर्थः ।।

उपर्युक्त ऋचा में गोष: शब्द गोपोंं का वाचक है।
जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में वर्णित है।

शब्दों का शारीरिक परिवर्तन भी होता है ।
लौकिक भाषाओं में यह घोष: हो गया।

तब भी इसकी आत्मा (अर्थ) अपरिपर्वतित रहा।
आज कुछ घोष लोग अपने को यादव भले ही न मानें परन्तु इतिहास कारों ने उन्हें यादवों की ही गोपालक जन-जाति स्वीकार किया है।

दर-असल उसमें इनका भी कोई दोष नहीं है 
क्यों कि
कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी काल में अपने उसी मूल यथावत्-रूप में नहीं रह पाता है।

परिवर्तन का यह सिद्धान्त संसार की प्रत्येक वस्तु पर लागू है ।

जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है।

  नि:सन्देह वह इसका मूल रूप नहीं होता ।
वह बहुतायत बदला हुआ रूप होता है

क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, 
श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है।
और अल्पज्ञता ही है ।

और इस परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया भी स्वाभाविक ही है ।
देखो ! जैसे👇

आप नवीन वस्त्र और उसीका अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! चीथड़ा हो जाता है जानते हो ।
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घोष: शब्द के जिस रूप को लोगों ने सुना तो उन्होनें 
(घुष् ध्वनौ धातु की कल्पना कर डाली )

और अर्थ कर दिया कि --जो  गायें को आवाज देकर बुलाता है 'वह घोष है।

परन्तु -जब घोष शब्द ही अपने इस मूल रूप में नहीं है- तो यह व्युत्पत्ति भी अभाषा-वैज्ञानिक ही है ।

परन्तु घोष शब्द मूलत: गोष: है  --जो ऋग्वेद में  गोष:गोषन् और बहुवचन गोषा रूप में गोपालकों का 
विशेषण शब्द है।


परिशिष्ट भाग :- 
विक्रमादित्य गुर्जर परमार उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे।

विक्रमादित्य के जीवन चरित 'ने मिथकों का रूप धारण कर दिया 

 "विक्रमादित्य" की उपाधि  यद्यपि कालान्तरण में भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, 
जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जिन्हें हेमु के नाम से प्रसिद्ध माना जाता था) के नाम उल्लेखनीय हैं। 
इनका समय भी 375-414 ई. के समकालिक है
राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।

उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)।

 भविष्य पुराण व आईने अकबरी के अनुसार विक्रमादित्यविक्रमादित्य गुर्जर परमार वंश के सम्राट थे जिनकी राजधानी उज्जयनी थी ।

भारतीय  शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं एवम् गाथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है। 

ये गुर्जर परमार वंश के राजा थे
विक्रमादित्य उज्जयिनी के राजा थे। 
एक 'विक्रमादित्य' उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय भी हैं ।

 ये विक्रमादित्य भतृहरि के छोटे भाई थे ।
इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। 
पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे।
यह लोक साहित्य में अत्यंत प्रचारित है ।

 कुछ लेखकों के अनुसार गर्दभिल्‍ल शकवंशी एक राजा का नाम था 
 जिसका मौर्यकालीन बुंदेलखंड पर अधिकार रहा था।
उनके पुत्र का नाम ही विक्रमादित्य था ।

'परन्तु भविष्य पुराण के अनुसार राजा विक्रमादित्‍य के पिता का नाम गन्‍धर्वसेन था।

मालवा (मगध) देश में गन्‍धर्व के स्‍थान पर श्वेताम्बर मान्‍यता के अनुसार गर्दभिल्‍ल का नाम आता है ।
अथवा गर्दभी विद्या जानने के कारण यह राजा गर्दभिल्‍ल के नाम से भी प्रसिद्ध हो गये ।

एक जैन जनश्रुति के अनुसार भारत में शकों को आमंत्रित करने का श्रेय आचार्य कालक को है।

 ये जैन आचार्य उज्जैन के निवासी थे और वहां के राजा गर्दभिल्ल के अत्याचारों से पीड़ित होकर सुदूर पश्चिम के पार्थियन राज्य में चले गए थे।
 
'परन्तु भारतीय परम्परागत प्रवाद के अनुसार उज्जैन के प्रतापी शकारि राजा विक्रम की विजय के समय (ई० पू० 57) से ही इस मालव अथवा विक्रम संवत् का प्रारंभ हुआ था। 

और कालिदास इनके ही समकालिक हैं ।
अमर सिंह भी विक्रमादित्य के नव- रत्नों से एक थे ।

विक्रमादित्य परमार उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। 

"विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। 
यह हम पूर्व में बता चुके हैं ।

राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है।
 (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य 
है)। 
भविष्य पुराण व फारसी ग्रन्थ"आईने अकबरी "के अनुसार विक्रमादित्यविक्रमादित्य परमार वंश के सम्राट थे जिनकी राजधानी उज्जयनी थी ।

विक्रमादित्य की पौराणिक कथाऐं ।

कालकाचार्य कथा की पाण्डुलिपि, (छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय, मुंबई)
के अनुसार 
अनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। 

उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों,
 हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है। 

संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी ("पिशाच की 25 कहानियां") और सिंहासन-द्वात्रिंशिका ("सिंहासन की 32 कहानियां" जो सिहांसन बत्तीसी के नाम से भी विख्यात हैं)।

 इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपान्तरण मिलते हैं।

पिशाच (बेताल) की कहानियों में बेताल, पच्चीस कहानियां सुनाता है, जिसमें राजा बेताल को बंदी बनाना चाहता है और वह राजा को उलझन पैदा करने वाली कहानियां सुनाता है और उनका अंत राजा के समक्ष एक प्रश्न रखते हुए करता है। 

वस्तुतः पहले एक साधु, राजा से विनती करते हैं कि वे बेताल से बिना कोई शब्द बोले उसे उनके पास ले आएं, नहीं तो बेताल उड़ कर वापस अपनी जगह चला जाएगा| 

राजा केवल उस स्थिति में ही चुप रह सकते थे, जब वे उत्तर न जानते हों, अन्यथा राजा का सिर फट जाता|

 दुर्भाग्यवश, राजा को पता चलता है कि वे उसके सारे सवालों का जवाब जानते हैं; इसीलिए विक्रमादित्य को उलझन में डालने वाले अंतिम सवाल तक, बेताल को पकड़ने और फिर उसके छूट जाने का सिलसिला चौबीस बार चलता है।

 इन कहानियों का एक रूपांतरण कथा-सरित्सागर में देखा जा सकता है।

सिंहासन के क़िस्से, विक्रमादित्य के उस सिंहासन से जुड़े हुए हैं जो खो गया था और

 कई सदियों बाद धारा नगरी के गुर्जर परमार राजा भोज द्वारा बरामद किया गया था।

 स्वयं राजा भोज भी काफ़ी प्रसिद्ध थे और कहानियों की यह श्रृंखला उनके सिंहासन पर बैठने के प्रयासों के बारे में है। 

इस सिंहासन में 32 पुतलियां लगी हुई थीं, जो बोल सकती थीं और राजा को चुनौती देती हैं कि राजा केवल उस स्थिति में ही सिंहासन पर बैठ सकते हैं, यदि वे उनके द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में विक्रमादित्य की तरह उदार हैं।

 इससे विक्रमादित्य की 32 कोशिशें (और 32 कहानियां) सामने आती हैं और हर बार भोज अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। अंत में पुतलियां उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें सिंहासन पर बैठने देती हैं।


भारतीय परंपरा के अनुसार १-धन्वन्तरि, २-क्षपनक, ३-अमरसिंह, ४-शंकु, ५-खटकर्पर,६- कालिदास, ७-वेतालभट्ट (या (बेतालभट्ट), ८-वररुचि और ९-वराहमिहिर उज्जैन में विक्रमादित्य के राज दरबार का अंग थे।

 कहते हैं कि राजा के पास "नवरत्न" कहलाने वाले नौ ऐसे विद्वान थे।

कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। 

वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी।

 वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना "नीति-प्रदीप" ("आचरण का दीया") का श्रेय दिया है।
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विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि
धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥

मध्यप्रदेश में स्थित उज्जैन-महानगर के महाकाल मन्दिर के पास विक्रमादित्य टीला है।

 वहाँ विक्रमादित्य के संग्रहालय में नवरत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थों का विवरण
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द कथा सरित सागर, या ओशन ऑफ़ द स्ट्रीम्स ऑफ़ स्टोरी, सी.एच टॉने द्वारा अनूदित, 1880

विक्रम एंड द वैम्पायर रिचर्ड आर. बर्टन द्वारा अनूदित, 1870

द इनरोड्स ऑफ़ द स्काइथियंस इनटू इंडिया, एंड द स्टोरी ऑ कलकाचार्य, रॉयल एशियाटिक सोसायटी की मुंबई शाखा की पत्रिका, VVol. IX, 1872

विक्रमाज़ एडवेंचर्स ऑर द थर्टी-टू टेल्स ऑफ़ द थ्रोन, संस्कृत मूल के चार अलग संपादित पाठ संशोधन (विक्रम-चरित या सिंहासन-द्वात्रिंशिका), फ्रेंकलिन एजरटॉन द्वारा अनूदित, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1926...
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प्रस्तुति-करण :- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर 
पत्रालय- पहाड़ीपुर
 जनपद- अलीगढ़---उ०प्र० 8077160219

2 टिप्‍पणियां:

  1. Bhut sunder lekh hai yoges ji ka aap ne bhut sunder lekh likha hai or hakikat bya ki hai .

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  2. yogesh ji aap baar baar maleksho ke ahir na hone ka praman kaise de sakte hein? jab yayati ko hi abhir kaha gya ho? ho sakta hei atri ki sabhi sabhi santane ahir hoti hein? aur maleksha bhi to atri ki hi santan hein

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