मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

पात्रा पात्रा का स्त्रीलिंग रूप-

स्मृति -ग्रन्थों में  पात्र जन जाति का उल्लेख मिलता है।
जिसका स्त्रीलिंग रूप  पात्रा है ।जिसका अर्थ वह महिला जिसकी शादी न हो, जो रखैल की मानिंद किसी पर पुरुष के आसरे हों।
“यज्ञवाल्यक्य स्मृति” के अलावा 100 ईस्वी में ईरानी इतिहास वेत्ता अलबेरूनी ने “किताबुल हिन्द” और प्रतिष्ठित इतिहासकार “झा-श्रीमाली" द्धारा लिखित "प्रचीन भारत का इतिहास" नामक पुस्तकों के पढने से ज्ञात होता है कि पातर औरतों से जो बच्चे (बेटे) उत्पन्न होते, वे सामाजिक दृष्टि से अवैध होते थे।
जमीदार इन रखैल पुत्रों को कुछ धन आदि देकर अलग कर देता था, पातरों के यही पु़त्र कालांतर में पातरा (पात्रा) कहलाए। 

 हिन्दी भाषा का एक शब्द है पतुरिया। 

प्रचलित अर्थों में पतुरिया स्त्रीवाची शब्द है जिसमें दुश्चरित्रा या नाचने गाने वाली औरत का भाव है। 

 बोलचाल की भाषा में शब्दों का किस तरह अर्थान्तर होता है उसका उदाहरण है यह शब्द। यहां इसके साथ अर्थसंकोच या अर्थापकर्ष (अर्थावनति) हुई है। पतुरिया शब्द बना है संस्कृत के पात्र शब्द से जिसका अर्थ है नाट्यकर्म करनेवाला। अभिनय करनेवाला। संस्कृत के पात्र का स्त्रीवाची देशज रूप बना पात्रा या पात्री यानी वह स्त्री जो नारी पात्रों का अभिनय करे। पात्रा या पात्री के लोकरूप हुए पातर, पातुर, पातरिया, पातुरी अथवा पतुरिया। 

गौरतलब है कि नाट्यशास्त्र में एक साथ कई कलाओं का उल्लेख है। जिसमें नृत्य भी शामिल है। प्राचीन काल से ही प्रदर्शनकारी कलाओं में घरेलु स्त्री की उपस्थिति अच्छी नहीं समझी जाती थी।

 सामान्य स्त्री मनोरंजन माध्यमों में सार्वजनिक भूमिका नहीं निभाती थी बल्कि यह काम पेशेवर नर्तकियों का था। चाहे जितनी गुणी नृत्यांगना हो, उसे हीन नजरिये से ही देखा जाता था। ऐसी उच्च श्रेणी की नृत्यांगनाएं भी रूपजीवा और देहजीवा के ठप्पे के साथ रहती थीं। 

ऐसे में नाट्य की पात्र के तौर पर एक स्त्री कलाकार के हिस्से में या तो नृत्य ही आता था अथवा कमनीय, कामोद्दीपक नायिका का अभिनय।

वैसे पात्रा से सम्बिंधित अनेकों कथाएं मिलेंगी, जिसमें उन्हें कुछ और भी बताया होगा, लेकिन यह केवल कहानी नहीं है, ये एक एतिहासिक साक्ष्य है। 

व्यक्तिगत रूप से यह जाति वर्ण से  नहीं न इतिहास का यह प्रसंग वर्तमान परिप्रक्ष्य में बताना प्रासांगिक था। 

जरूरी नहीं कि यह बात उड़ीसा के पात्रा या अन्य किसी के बारे में भी कही गई हो। उत्तर प्रदेश के पुराने हिस्से उत्तराखंड के कुमायूं मंडल में अभी भी बदनाम और अवांछनीय महिला के लिए पातर शब्द को प्रयोग कहीं कहीं मिल जायेगा।
इतिहास में केवल पात्रा शब्द की उत्पत्ति पर ही ज्यादा जोर दिया गया है। वैसे कुछ लोगों किनना है कि पातर के बेटे को जिस प्रकार पातरा (पात्रा) कहा गया,उसी तरह संभव है कि बेटियों को पातरिया (पतुरिया) कहा गया हो। पतुरिया शब्द भी बदचलन महिलाओं को कहा जाता है।

 लेकिन इतिहास इस विषय में कोई जानकारी नहीं देता, या शायद देता भी हो तो कम से कम हम जैसों की नजरों से नहीं गुजरा है। इस बारे में किसी भाई को कुछ और एतिहासिक जानकारी हो तो ज्ञान बढाने का कष्ट करें। हां तो कौन जात हो भाई

संज्ञा स्त्री० [सं० पातली = (स्त्री विशेष)] वैश्या। रंडी। उ०—काछें सितासित काछनी केसव पातुर ज्यों पुतरीनि बिचारौ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ८१।

संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विशेष वर्ग की स्त्री। २. जाल। पाश। फंदा। ३. मिट्टी का पात्र [को०]

शब्दः :: पातिली
लिङ्गम् प्रकारश्च :: स्त्री
अर्थः सन्दर्भश्च :: (पातिः सम्पातिः पक्षियूथं लीयतेऽत्र । ली + डः । ङीष् च । ) वागुरा । (पातिः स्वामी लीयतेऽस्याम्  ) नारी । मृत्पात्रभेदः । इति मेदिनी ॥ पातिल् इति भाषा ॥

पात्र'''¦ पु॰ न॰ अर्द्धर्च्चा॰ प्राति रक्षत्याधेयं पिबत्यनेन वा पा-ष्ट्रन्। 

१ जलाद्याधारे भोजनयोग्ये 

२ अमत्रे अमरः। अस्य स्त्रीत्वमपि षित्त्वात् ङीष्। विद्यादियुक्ते दान-योग्ये 

३ ब्राह्मणे न॰ 
“ब्राह्मणं पात्रमाहुः” इति स्मृतिः। 

४ यज्ञिये स्रुवादौ, तीरद्वयमध्यवर्त्तिनि 

५ जला-धारस्थाने 

६ राजामात्ये च मेदि॰। नाटकेऽभिनेये

७ नायकादौ च न॰ हेमचन्द्र 


यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कथक लोग अपनी बेटियों या बहुओं नाच की शिक्षा कभी देते नहीं थे, क्योंकि वे समझते थे कि यह वेश्याओं का कार्य है। 

वेश्याओं को वे निस्संकोच नचाते थे, उनसे धन लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था, परन्तु उनकी बहू-बेटियां स्वं कथक-नृत्य की राधा बने यह उन्हें सह्य नहीं था।

 स्वयं न तो उन्हें लखनववी कन्हैया बनने में संकोच था, न अपने पुत्रों कन्हैया बनाने में।”

 आचार्य बृहस्पति ने भी पतुरिया शब्द को संस्कृत पात्र का अपभ्रंश माना है। शार्ङगदेव कृत संगीत रत्नाकर के अनुसार नृत्य का पात्र नारी ही हो सकती है।

 मुग्धा, मध्यमा और प्रगल्भा नारी को पात्र बनाया जाता था। 

ऐसी स्थिति में गणिका ही  नायिका या नारी पात्र का काम कर सकती थी। नाचनेवालियों द्वारा नाटकों में भूमिकाएं करने की परम्परा बहुत प्राचीन रही है और इसीलिए पात्रा, पात्री से घिसघिस कर इसके पतुरिया, पातुर जैसे विभिन्न रूप प्रदर्शित हुए जिनमें एक पेशे का भाव था न कि सम्मान का। 

कालांतर में तो पतुरिया शब्द सिर्फ नाचनेवाली का पर्याय हो गया और बाद में खुले आम रंडी, कुलटा या वेश्या को पतुरिया का नाम मिल गया। यानी बेबात ही पतुरिया पतिता बन गई।

पात्र शब्द बना है संस्कृत के पात्रम् से जिसकी व्युत्पत्ति पा धातु में ष्ट्रन प्रत्यय लगने से हुई है। संस्कृत की पा धातु में मुख्यतः पालन करना, समाहित करना, पान करना, शासन करना, योग्य होना, आकार देना, आधार प्रदान करना, सहारा देना, धारण करना या स्थापित रखने का भाव है। पिता, पालक, पति जैसे बहुप्रचलित शब्दों के मूल में भी यही पा धातु है। संस्कृत के पात्रम् में नृत्य-नाट्य की अर्थवत्ता भी है और पीने का प्याला अथवा बर्तन का भाव भी। 

गौरतलब है कि किसी पदार्थ को स्वयं में धारण करने या आधार प्रदान करने की वजह से बरतन को पात्र कहा जाता है और किसी काल्पनिक चरित्र को धारण करने या खुद में स्थापित करने की वजह से कोई कलाकार नाटक का पात्र कहलाता है। पात्र वही है जो धारण करे या किसी भूमिका का पालन करे। बरतन रूपी पात्र की भूमिका उसमें उपस्थित द्रव या वस्तु को सुरक्षा प्रदान करने की है। पा धातु में निहित रक्षा का भाव पाल में स्पष्ट होता है।

 पाल अर्थात मेड़, दीवार। किसी बर्तन की गोलाई और गहराई उसकी चारों ओर की पाल की वजह से होती है। इसी तरह किसी ऐतिहासिक या काल्पनिक चरित्र को खुद में स्थापित करना, उसे आधार प्रदान करना एक कुशल पात्र का ही काम है। एक कुशल कलाकार किन्ही नाटकीय चरित्रों को खुद में पालता-पोसता है, उसकी खूबियों और वास्तविकता की रक्षा करने का दायित्व उस पर होता है।

पात्र से भी कुछ शब्द जन्में हैं जैसे कृपापात्र, दानपात्र, कुपात्र, सुपात्र आदि। आमतौर पर किसी के प्रति आभार जताने के संदर्भ में अक्सर धन्यवाद का पात्र जैसा वाक्यांश इस्तेमाल होता है।

 गौर करें कि यहां धन्यवाद को ग्रहण करने, आभार को आधार प्रदान करनेवाले व्यक्ति के लिए पात्र शब्द का प्रयोग है। यानी जो धन्यवाद के लायक हो, उसे ग्रहण कर सके, आधार दे सके वह है धन्यवाद का पात्र। कृपापात्र वह है जिस पर कृपा की जाए। संस्कृत भाषा में पात्र'''¦ पु॰ न॰ अर्द्धर्च्चा॰ प्राति रक्षत्याधेयं पिबत्यनेन वा पा-ष्ट्रन्। 


१ जलाद्याधारे भोजनयोग्ये 

२ अमत्रे अमरः। अस्य स्त्रीत्वमपि षित्त्वात् ङीष्। विद्यादियुक्ते दान-योग्ये 

३ ब्राह्मणे न॰ 
“ब्राह्मणं पात्रमाहुः” इति स्मृतिः। 

४ यज्ञिये स्रुवादौ, तीरद्वयमध्यवर्त्तिनि 

५ जला-धारस्थाने 

६ राजामात्ये च मेदि॰। नाटकेऽभिनेये

७ नायकादौ च न॰ हेमच॰ 




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