मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

पात्रा शब्द का इतिहास-

क्या है पात्रा शब्द की उत्पत्ति का श्रोत?

प्रचीन काल में एक वर्ग का जिक्र मिलता है जिसे पातर कहा जाता है। यज्ञवाल्यक्य समृति में इसका जिक्र है। पातर का अर्थ वह महिला जिसकी शादी न हो, जो रखैल की मानिंद किसी पर पुरुष के आसरे हों। “यज्ञवाल्यक्य स्मृति” के अलावा अलबेरूनी कि “किताबुल हिंद” और प्रतिष्ठित इतिहासकार “झा-श्रीमाली" द्धारा लिखित "प्रचीन भारत का इतिहास" नामक पुस्तक पढने से ज्ञात होता है कि पातर औरतों से जो बच्चे (बेटे) उत्पन्न होते, वे सामाजिक दृष्टि से अवैध होते थे। जमीदार इन रखैल पुत्रों को कुछ धन आदि देकर अलग कर देता था, पातरों के यही पु़त्र कालांतर में पातरा (पात्रा) कहलाए।
वैसे पात्रा से सम्बिंधित अनेकों कथाएं मिलेंगी, जिसमें उन्हें कुछ और भी बताया होगा, लेकिन यह केवल कहानी नहीं है, ये एक एतिहासिक साक्ष्य है। व्यक्तिगत रूप से मै जाति वर्ण को नहीं मानता हूं, लेकिन इतिहास का यह प्रसंग वर्तमान परिप्रक्ष्य में बताना प्रासांगिक था। जरूरी नहीं कि यह बात उड़ीसा के पात्रा या अन्य किसी के बारे में भी कही गई हो। उत्तर प्रदेश के पुराने हिस्से उत्तराखंड के कुमायूं मंडल में अभी भी बदनाम और अवांछनीय महिला के लिए पातर शब्द को प्रयोग कहीं कहीं मिल जायेगा।
इतिहास में केवल पात्रा शब्द की उत्पत्ति पर ही ज्यादा जोर दिया गया है। वैसे कुछ लोगों किनना है कि पातर के बेटे को जिस प्रकार पातरा (पात्रा) कहा गया,उसी तरह संभव है कि बेटियों को पातरिया (पतुरिया) कहा गया हो। पतुरिया शब्द भी बदचलन महिलाओं को कहा जाता है। लेकिन इतिहास इस विषय में कोई जानकारी नहीं देता, या शायद देता भी हो तो कम से कम हम जैसों की नजरों से नहीं गुजरा है। इस बारे में किसी भाई को कुछ और एतिहासिक जानकारी हो तो ज्ञान बढाने का कष्ट करें। हां तो कौन जात हो भाई

संज्ञा स्त्री० [सं० पातली = (स्त्री विशेष)] वैश्या। रंडी। उ०—काछें सितासित काछनी केसव पातुर ज्यों पुतरीनि बिचारौ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ८१।

संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विशेष वर्ग की स्त्री। २. जाल। पाश। फंदा। ३. मिट्टी का पात्र [को०]

शब्दः :: पातिली
लिङ्गम् प्रकारश्च :: स्त्री
अर्थः सन्दर्भश्च :: (पातिः सम्पातिः पक्षियूथं लीयतेऽत्र । ली + डः । ङीष् च । ) वागुरा । (पातिः स्वामी लीयतेऽस्याम्  ) नारी । मृत्पात्रभेदः । इति मेदिनी ॥ पातिल् इति भाषा ॥

पात्र'''¦ पु॰ न॰ अर्द्धर्च्चा॰ प्राति रक्षत्याधेयं पिबत्यनेन वा पा-ष्ट्रन्। 

१ जलाद्याधारे भोजनयोग्ये 

२ अमत्रे अमरः। अस्य स्त्रीत्वमपि षित्त्वात् ङीष्। विद्यादियुक्ते दान-योग्ये 

३ ब्राह्मणे न॰ 
“ब्राह्मणं पात्रमाहुः” इति स्मृतिः। 

४ यज्ञिये स्रुवादौ, तीरद्वयमध्यवर्त्तिनि 

५ जला-धारस्थाने 

६ राजामात्ये च मेदि॰। नाटकेऽभिनेये

७ नायकादौ च न॰ हेमच॰ 





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