सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

क्या कृष्ण अहीर थे ?

क्या कृष्ण अहीर थे ?
विचार-विश्लेषण---  यादव योगेश कुमार "रोहि"
ग्राम- आजा़दपुर पत्रालय -पहाड़ीपुर जनपद- अलीगढ़---
सम्पर्क सूत्र --8077160219...../
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संस्कृत भाषा में आभीरः, पुल्लिंग विशेषण शब्द है ---
जैसे कि वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में उद्धृत किसानों है
वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में इसकी व्युत्पत्ति-
(आ समन्तात् भियं राति रा दाने आत् इति कः  आभीर:
अर्थात् चारो दिशाओं में भय  प्रदान करने वाला है  वह आभीर है  परन्तु अभीर अथवा आभीर शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ है  " जो भीरु अथवा कायर न हो वह अभीर है वही वीर अहीर (अभीर ) है ; अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता
आभीरस्य पर्याय: गोपो गौश्चरश्च इत्यमरः कोश: ॥
आहिर इति भाषा तथा प्राकृत भाषा में अहीर --
वस्तुतः अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता
अर्थात् अभीर: शब्द में अण् प्रत्यय समूह अथवा बाहुल्य प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होता है ।
और पाणिनीय तद्धिदान्त शब्दों में अण् प्रत्यय सन्तति वाचक भी है ।
अतः आभीर और अभीर शब्द मूलत: समूह और व्यक्ति (इकाई) रूप को प्रकट करते हैं ।
आभीर जन-जाति का सनातन व्यवसाय गौ - चारण रहा और चरावाहे ही कालान्तरण में कृषि - वृत्ति के सूत्रधार रहे ।

जाट  जन -जाति  सदीयों से कृषक जीवि रही है।
और यह भी सत्य है कि कृषि का विकास  चरावाहों के द्वारा आविष्कृत वानस्पतिक क्रिया है ।

हिन्दुस्तान की जन-जातियों में जाट, गुज्जर और अहीरों  की जैनेटिक कोड समान है ।
ये जातिया १००० ईस्वी सन् में गोपालन व्यवसाय परक थीं ।
अलवरुनी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "तहकीक ए हिन्द"
नन्द बाबा को जाट के रूप में वर्णित किया है ।
और अन्य ऐैतिहासिक विवरणों में नन्द बाबा को गुर्जर (गुज्जर) अर्थात् गौश्चर: के रूप में वर्णित किया जाना
प्रमाणित करता है कि ये विशेषण यादवों के गौ- पालन व्यवसाय परक विशेषण हैं ।
गोपों का अहीर विशेषण  अनेक पौराणिक ग्रन्थों में है ।
जैसे पद्मपुराण सृष्टि-खण्ड , भागवत पुराण के  प्रथम स्कन्ध , हरिवंश पुराण आदि ।
और विश्व की अनेक संस्कृतियों में अहीरों का उल्लेख इसी चरावाहों के रूप में हुआ ।
हिब्रू बाइबिल में अबीर तो मध्य-अफ्रीका में अफर चरावाहों के रूप में अज़रबेजान की संस्कृतियों में अवर के रूप में तो आयबेरिया अथवा जॉर्जिया की सर-जमीं पर आयबरी अथवा कज़र के रूप में है ।

वंशगत रूप में ये यदु की सन्तति हैं । यादव इनका वंशगत विशेषण है । तथा  गोप व्यवसाय गत विशेषण
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के 62 वें  सूक्त की दशवीं ऋचा में उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ।
इस कारण हम उनकी प्रशंसा करते हैं ।
गोप विशेषण केवल यादवों का यदु के गायों से घिरे हुए होने से तथा गोपालन के कारण हुआ है।
  दास शब्द का ईरानी सन्दर्भ   दाहे  है ।
खोतानी भाषा में दाहे का अर्थ नेता अथवा दाता है ।
और दाहिस्तानी भाषा में दाहे का अर्थ कालान्तरण में पर्वतीय क्षेत्र होने से  दाहे का अर्थ पर्वत ही हो गया ।
यदु को दास शब्द से सम्बोधित करना सिद्ध करता है कि ये देव-संस्कृति के प्रतिद्वन्द्वी रहे होंगे ।
क्यों कि वैदिक सन्दर्भों में दास असुरों का वाचक है ।
जो सैमेटिक यहूदियों के सजातिय बन्धु थे ।
विश्व इतिहास में इन्हें अब असीरियन नाम से जाना जाता है ।
ये द्रविडों एवं फॉनिशियनो ( पणियों) के सहवर्ती  और सम्भवत: इन्हीं की शाखाओं से सम्बद्ध थे ।
यादव चरावाहों के रूप में रहें हैं । जैसे कि हमने वेदों का भी प्रमाण दिया । और चरावाहों ने कृषि को आवष्कृत किया ।

हिन्दुस्तान की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ कृषि ही है ।
और जाट, गूर्जर तथा अहीर  कृषक वर्ग है ।

अहीर शब्द जाट और गूर्जर से प्राचीनत्म है ।
और इसके सूत्र हिब्रू बाइबिल में अबीर के रूप में हैं  ।
जिसका सम्बन्ध हिब्रू क्रिया अबर के मूल रूप बेर
से है । जिसका अर्थ होता है शक्तिसम्पन्न अर्थात् वीर
और अहीरों का इतिहास कारों के रूप में रहा है ।
ये वीर ही  संस्कृत भाषा में आवीर के रूप प्रविष्ट होकर   कालान्तरण में आभीर हो गया ।

अब आर्य और वीर शब्दों का विकास भी
परस्पर सम्मूलक है ।
और पश्चिमीय एशिया तथा यूरोप की  समस्त भाषाओं में ये दौनों  शब्द प्राप्त हैं ।
परन्तु  आर्य शब्द वीर  शब्द का ही सम्प्रसारित रूप है ।
अत: वीर शब्द ही  प्रारम्भिक है ।
क्यों कि वल ही कालान्तरण में एल अथवा उल के रूप में सुमेरियन, कैनानायटी आदि संस्कृतियों में है ।
दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -

यादव योगेश कुमार  'रोहि'
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यह लेख सांस्कृतिक और ऐैतिहासिक अवधारणाओं पर तो  आधारित है ही ।
यह  वर्तमान इतिहास कारों की दुराग्रहों से निर्मुक्त
एक सम्यक् गवेषणा को निर्देशित भी करता है ।

"आर्य" और "आर्यन" के अन्य उपयोगों के लिए, आर्य शब्द का प्रयोग ईरानीयों के धर्म ग्रन्थों में विशेषत: अवेस्ता ए जैन्द में देेखा जा सकता है ।
परन्तु वीर  शब्द भी  परवर्ती काल में  आर्य शब्द को समानान्तरण  प्रचलन में रहा है ।
प्रस्तुत है एक संक्षिप्त विवेचना----👇
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"आर्यन" इसका  (ग्रीक रूप ɛəriən ) एक शब्द है जिसका उपयोग  परवर्ती काल में भारत-ईरानी लोगों द्वारा आत्म-पदनाम के रूप में किया जाता रहा है ।
इस शब्द का उपयोग भारत में वैदिक काल के सिन्धु नदी के तटवर्ती  लोगों द्वारा जातीय स्तर के रूप में किया जाता था ।
परन्तु इसको जातिगत रूप देने में  पाश्चात्य इतिहास विदों का बड़ा योगदान है ।
परन्तु प्रारम्भिक सन्दर्भों में आर्य शब्द यौद्धा का वाचक था ।
और बहुत बाद में पाश्चात्य इतिहास विदों ने आर्य शब्द का प्रयोग " देव संस्कृति के अनुयायी यूरोपीय इण्डो-जर्मन जन-जातियों के लिए किया ।
जो बाल्टिक सागर पर अपने आव्रजन काल से पूर्व एक साथ थे । वहीं हंगरी अथवा दानव (डेन्यूव) नदी के पुरातात्विक अन्वेषणों में देव -संस्कृति के अतीव साक्ष्य उपलब्ध हुए है ।
असीरियन जन-जाति में प्राय: यौद्धा वर्ग स्वयं के लिए इस शब्द का प्रयोग करता था ।
और ईरानी संस्कृति में भी इसका  यही रूप  तीरंदाजों के अर्थ में रूढ़ हो गया ।
और कालान्तरण में  यौद्धा वर्ग के साथ-साथ भौगोलिक क्षेत्र को सन्दर्भित करने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग  किया जाने लगा है।
जहांँ भारत में आर्य शब्द देव संस्कृति पर आधारित है।
निकटतम ईरानी लोगों ने अवेस्ता ए जेन्द शास्त्र में स्वयं के लिए एक जातीय लेबल (स्तर)के रूप में आर्यन शब्द का उपयोग किया ।
और इस शब्द के आधार पर देश के ईरान नाम की व्युत्पत्ति निर्धारित हुई है।
19वीं शताब्दी में यह माना जाता था कि आर्यन भी सभी प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन द्वारा उपयोग किए जाने वाले आत्म-पदनाम थे ।
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परन्तु इस सिद्धान्त को  अब पीछे छोड़ दिया गया है।
विद्वान बताते हैं कि, प्राचीन काल में भी, "आर्यन" होने का विचार धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई था, नस्लीय नहीं। और सत्य पूछा जाय तो ये वीर शब्द अभीरों के रूप में में प्राप्त होता है ।
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19 वीं शताब्दी में पश्चिमी विद्वानों द्वारा ऋग्वेद में गलत व्याख्या किए गए सन्दर्भों पर चित्रण करते हुए, "आर्यन" शब्द को आर्थर डी गोबिनाऊ के कार्यों के माध्यम से एक नस्लीय श्रेणी के रूप में अपनाया गया था ।✍✍✍✍✍✍✍✍✍✍

जिनकी विचारधारा गोरा उत्तरी यूरोपीय "आर्यों के विचार पर आधारित थी " जो स्थानीय आबादी के साथ नस्लीय मिश्रण के माध्यम से अपमानित होने से पहले, दुनिया भर में स्थानान्तरित हो गया था ।
और सभी प्रमुख सभ्यताओं की स्थापना में समाविष्ट हो गया  था।
ह्यूस्टन स्टीवर्ट चेम्बरलेन के कार्यों के माध्यम से, गोबिनेउ के विचारों ने बाद में नाजी नस्लीय विचारधारा को प्रभावित किया, जिसमें "आर्यन लोग" को अन्य मूलवादी नस्लीय समूहों के लिए बेहतर रूप से श्रेष्ठ माना गया।
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इस नस्लीय विचारधारा के नाम पर किए गए अत्याचारों ने शिक्षाविदों को "आर्यन" शब्द से बचने के लिए प्रेरित किया है, जिसे ज्यादातर मामलों में "भारत-ईरानी" द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है।
यह शब्द अब केवल "इण्डो-आर्य भाषा" के सन्दर्भों में दिखाई देता है।
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व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि कोण से आर्य शब्द हिब्रू बाइबिल में वर्णित एबर से  भी सम्बद्ध है ।

जैसे लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्राञ्च में आर्य शब्द…Arien  तथा Aryen दौनों रूपों में।
…इधर दक्षिणी अमेरिक की ओर पुर्तगाली तथा स्पेनिश भाषाओं में यह शब्द आरियो Ario के रूप में विद्यमान है। पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ Ariano भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen (ऐरियल-ऐनन) के रूप में है।
रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में (Aryika) के रूप में है।
  कैटालन भाषा में (Ari )तथा (Arica) दौनों रूपों में है। स्वयं रूसी भाषा में आरिजक (Arijec) अथवा आर्यक के रूप में यह आर्य शब्द है विद्यमान है। इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में भी यह आर्य शब्द क्रमशः Ariacoi तथा Ari तथा अरबी भाषा में हिब्रू प्रभाव से म-अारि. M(ariyy तथा अरि दौनो रूपों में है
. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी (Oriyoyi )रूप में है …इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् Arice के रूप में है।
वेलारूस की भाषा में Aryeic तथा Aryika दौनों रूप में; पूरबी एशिया की जापानी ,कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द .
Ariaiin..के रूप में है ।
आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं।
परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति से हुआ ।
उनका वास्तविक चित्रण होमर ने ई०पू० 800 के समकक्ष इलियड और ऑडेसी महाकाव्यों में ही किया है ट्रॉय युद्ध के सन्दर्भों में-
ग्राम संस्कृति के जनक देव संस्कृति के अनुयायी यूरेशियन लोग थे।  तथा नगर संस्कृति के जनक द्रविड अथवा ड्रयूड (Druids) लोग ।
उस के विषय में हम कुछ कहते है ।
विदित हो कि यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोधों पर आधारित हैं।
भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ Rootnal-Mean ..आरम् धारण करने वाला वीर …..संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा ….अथवा वीरः |आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology )
संस्कृत की अर् ( ऋृ ) धातु मूलक है— अर् धातु के तीन अर्थ सर्व मान्य है । १–गमन करना To go २– मारना to kill ३– हल (अरम्) चलाना …. Harrow मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना ।
..प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे । इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तकृत्सन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा .अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है …….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis हैं । अर्थात् कृषि कार्य.भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है । देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य थे । परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था।
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इस देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने यह प्रेरणा ग्रहण की। …सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था।
देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे ।
घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे ।
ये कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था .अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे । संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।
…क्यों कि अब भी . संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में…. ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है ।
इसी सन्दर्भ में यह तथ्य भी प्रमाणित है कि देव संस्कृति के उपासक आर्य ही ज्ञान और लेखन क्रिया के विश्व में द्रविडों के बाद द्वित्तीय प्रकासक थे । …ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—–(ग्रस् मन् )प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है ।
जिससे ग्रह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है
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अंग्रेजी शब्द "आर्यन" (मूल रूप से "एरियन" लिखा गया) संस्कृत शब्द आर्य से लिया गया था, आर्य, 18 वीं शताब्दी में और सभी के द्वारा उपयोग किया जाने वाला आत्म-पदनाम माना जाता है ।
भारत-यूरोपीय लोग प्राय: इस शब्द का अधिक प्रयोग करते रहे हैं ।

आर्य शब्द का ऐैतिहासिक प्रचलित रूप -
आर्य शब्द के सबसे शुरुआती रूप से प्रमाणित संदर्भ 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में बेहिस्तून शिलालेख ईरान में प्राप्त होता है, जो स्वयं को "आर्य [भाषा या लिपि]"  में लिखा गया है।
जैसा कि अन्य सभी पुरानी ईरानी भाषा के उपयोग के मामले में भी है, शिलालेख की आर्यता "ईरानी" के अलावा कुछ भी संकेत नहीं देती है।
फिलोलॉजिस्ट (भाषा वैज्ञानिक) जेपी मैलोरी का तर्क है कि "एक जातीय पदनाम के रूप में, शब्द [आर्यन] भारत-ईरानियों तक सबसे उचित रूप से सीमित है, और सबसे हाल ही में बाद वाले लोगों के लिए जहां यह अभी भी ईरान देश को अपना नाम देता है"
संस्कृत भाषा में आर्य शब्द का प्रयोग -

प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में,(संस्कृत: आर्यावर्त, आर्यों का निवास) शब्द उत्तरी भारत को दिया गया था ।
, जहां भारत-आर्य संस्कृति आधारित थी।
मनुस्म्ति (2.22) नाम आर्यावर्त को पूर्वी (बंगाल की खाड़ी) से पश्चिमी सागर (अरब सागर) तक हिमालय और विंध्य पर्वत के बीच का मार्ग निर्धारित कर देता है।
प्रारम्भिक रूप में इस शब्द को वैदिक देवताओं (विशेष रूप से इंद्र) की पूजा करने वाले लोगों के लिए नामित करने के लिए राष्ट्रीय नाम के रूप में उपयोग किया गया था और वैदिक संस्कृति में (जैसे बलिदान, यज्ञ का प्रदर्शन) के सन्दर्भ में प्रयोग किया गया था।

प्रोटो-इण्डो-ईरानी
संस्कृत शब्द प्रोटो-इणडो-ईरानी लोगों के लिए ज़ैद अवेस्ता में  एयर्या  के रूप में 'आदरणीय' तथा वीर के अर्थ में है ।
और पुरानी फारसी आर्य शब्द भी है ।

ईरानी भाषाओं में, मूल आत्म-पहचानकर्ता "एलन" और "आयरन" जैसे जातीय नामों पर रहता है।
इसी तरह, ईरान का नाम आर्यों की भूमि / स्थान के लिए फारसी शब्द है।

प्रोटो-इण्डो-ईरानी शब्द को प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन उत्पत्ति के लिए अनुमानित किया गया है।
जबकि स्झेमेरेनी पाश्चात्य इतिहास विद के अनुसार यह संभवतया उग्रेटिक  आरी शब्द से साम्य रखता है ।
या उससे नि:सृत है ।

इसे प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन धातु शब्द को हेरोस haerós "के अर्थों के साथ" अपने स्वयं के (जातीय) समूह, सहकर्मी,स्वतन्त्र व्यक्ति "के सदस्यों के साथ-साथ आर्य के भारत-ईरानी अर्थ के साथ नियत किया गया है।
इससे व्युत्पन्न शब्द थे !
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"It has been postulated the Proto-Indo-European root word is haerós with the meanings "members of one's own (ethnic) group, peer वीर , freeman" as well as the Indo-Iranian meaning of Aryan. Derived from it were words like

the Hittite prefix arā- meaning member of one's own group, peer, companion and friend;
Old Irish aire, meaning "freeman" and "noble"
Gaulish personal names with Ario-
Avestan airya- meaning Aryan, Iranian in the larger sense
Old Indic ari- meaning attached to, faithful, devoted person and kinsman
Old Indic aryá- meaning kind, favourable, attached to and devoted
Old Indic árya- meaning Aryan, faithful to the Vedic religion.
The word haerós itself is believed to have come from the root haer- meaning "put together". The original meaning in Proto-Indo-European had a clear emphasis on the "in-group status" as distinguished from that of outsiders, particularly those captured and incorporated into the group as slaves. While in Anatolia, the base word has come to emphasize personal relationship, in Indo-Iranian the word has taken a more ethnic meaning.
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हित्ताइट उपसर्ग अरा- जिसका मतलब किसी के अपने समूह, साथी, साथी और मित्र का सदस्य है;

पुरानी आयरिश भाषा में आइर (आयर ), जिसका अर्थ है :- अभिजात अथवा स्वतन्त्र  और "महान" Old Irish (aire), meaning "freeman" and "noble"
एरियो- के साथ व्यक्तिगत नाम गॉलिश (प्राचीन फ्राँन्स की भाषा ) में तथा ईरानीयों के धर्म-ग्रन्थ
अवेस्ता में एेर्या airya है  जिसका अर्थ है आर्यन, ईरानी बड़े अर्थ में
ओल्ड इंडिक प्राचीन भारतीय भाषा में एरि-अर्थात्, वफादार, समर्पित व्यक्ति और रिश्तेदार से जुड़ा हुआ है।

माना जाता है कि  हेरोस स्वयं मूल हायर-अर्थ "एक साथ रखे" से आया है।
प्रोटो-इंडो-यूरोपीय में मूल अर्थ "इन-ग्रुप स्टेटस" पर स्पष्ट जोर दिया गया था, जो बाहरी लोगों की ओर से विशिष्ट था, विशेष रूप से उन लोगों को पकड़ा गया और समूह में गुलामों के रूप में शामिल किया गया था।
अनातोलिया (एशिया-माइनर) की भाषाओं में, मूल शब्द व्यक्तिगत सम्बन्धों पर जोर देने के लिए आया है, भारत-ईरानी में इस शब्द ने अधिक जातीय अर्थ ग्रहण कर लिया है।
सम्भवतया जर्मन , हर्मन अथवा आर्यन का अर्थ भ्रातृत्व है ।

इस सन्दर्भ में कई अन्य विचारों की समीक्षा, और प्रत्येक के साथ विभिन्न समस्याओं को विश्लेषित ओसवाल्ड स्झेमेरेनी द्वारा दिया जाता है।

नाज़ियों ने नस्लीय अर्थ में लोगों का वर्णन करने के लिए "आर्यन" शब्द का प्रयोग किया।
नाजी के आधिकारिक अल्फ्रेड रोसेनबर्ग का मानना ​​था कि नॉर्डिक जाति प्रोटो-आर्यों से निकली थी, जिन्हें उनका मानना ​​था कि उत्तरी जर्मन मैदान पर प्रागैतिहासिक रूप से रहते थे ।
और आखिरकार अटलांटिस के खोए महाद्वीप से निकल गए थे।
नाजी नस्लीय सिद्धान्त के अनुसार,"आर्यन" शब्द ने जर्मनिक लोगों का वर्णन किया। यद्यपि, "आर्यन" की एक सन्तोष-जनक परिभाषा नाजी जर्मनी के दौरान समस्याग्रस्त रही।

नाज़ियों को सबसे पुराना आर्य माना जाता है जो "नॉर्डिक रेस" भौतिक आदर्श से संबंधित हैं, जिन्हें नाजी जर्मनी के दौरान "मास्टर रेस" के नाम से जाना जाता है।
हालांकि नाजी नस्लीय सिद्धांतकारों का भौतिक आदर्श आम तौर पर लम्बा था, निष्पक्ष बालों वाली और हल्की आंखों वाले नॉर्डिक व्यक्ति, ऐसे सिद्धान्त कारों ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि बाल और आंखों का रंग काफी हद तक नस्लीय श्रेणियों के भीतर मौजूद था।
उदाहरण के लिए, एडॉल्फ हिटलर और कई नाजी अधिकारियों के पास काले बाल थे; और उन्हें अभी भी नाज़ी नस्लीय सिद्धांत के तहत आर्यन जाति के सदस्य माना जाता था, क्योंकि किसी व्यक्ति के नस्लीय प्रकार का निर्धारण केवल एक परिभाषित करने के बजाय किसी व्यक्ति में कई विशेषताओं की पूर्वनिर्धारितता पर निर्भर करता है सुविधा।
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The Nazis used the word "Aryan" to describe people in a racial sense.
The Nazi official Alfred Rosenberg believed that the Nordic race was descended from Proto-Aryans, who he believed had prehistorically dwelt on the North German Plain and who had ultimately originated from the lost continent of Atlantis.
According to Nazi racial theory, the term "Aryan" described the Germanic peoples. However, a satisfactory definition of "Aryan" remained problematic during Nazi Germany.
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The Nazis considered the most purest Aryans to be those that belonged to the "Nordic race" physical ideal, known as the "master race" during Nazi Germany.Although the physical ideal of the Nazi racial theorists was typically the tall, fair-haired and light-eyed  Nordic individual, such theorists accepted the fact that a considerable variety of hair and eye colour existed within the racial categories they recognised. For example, Adolf Hitler and many Nazi officials had dark hair and were still considered members of the Aryan race  under Nazi racial doctrine, because the determination of an individual's racial type depended on a preponderance of many characteristics in an individual rather than on just one defining feature."
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सितंबर 19 35 में, नाज़ियों ने नूर्नबर्ग कानून पारित किया। सभी आर्यन रीच नागरिकों को अपने आर्यन वंश को साबित करने की आवश्यकता थी, एक तरह से बपतिस्मा प्रमाण पत्र के माध्यम से सबूत प्रदान करके अहनेनपास प्राप्त करना था कि सभी चार दादा दादी आर्यन वंश के थे।
दिसंबर 1 9 35 में, नाज़ियों ने जर्मनी में आर्यन जन्म दर गिरने और नाजी यूजीनिक्स को बढ़ावा देने के लिए लेबेन्सबोर्न की स्थापना की।

भारतीय / संस्कृत साहित्य में आर्य शब्द का अर्थ
संस्कृत और संबंधित भारतीय भाषाओं में, आर्य का अर्थ है "वह जो महान कर्म करता है, एक महान व्यक्ति"। Āryvarta "आर्यों का निवास" संस्कृत साहित्य में उत्तर भारत के लिए एक आम नाम है।
मनु-स्मृति (2.22) नाम "पूर्वी सागर से पश्चिमी सागर तक हिमालय और विंध्य पर्वत के बीच का क्षेत्र को आर्यावर्त" नाम दिया जाता है।
भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न संशोधनों के साथ शीर्षक आर्य का उपयोग किया गया था। लगभग 1 ईसा पूर्व की कलिंग के सम्राट खरावेला को उड़ीसा के भुवनेश्वर में उदयगिरी और खंडागिरी गुफाओं के हाथीगुम्फा शिलालेखों में एक आर्य के रूप में जाना जाता है।
10 वीं शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहार शासकों को "आर्यवार्त के महाराजाधिराज" शीर्षक दिया गया था।
जो निश्चित रूप से जॉर्जियाई अथवा गुर्जिस्तान के निवासी थे ।
जिनका माउण्ट आबू पर राजपूत करण हुआ
परन्तु यहाँ यह नाम केवल वीरता सूचक है
जातिगत कदापि नहीं वैसे भी वाल्मीकि रामायण बौद्ध काल के बाद की रचना है ।
पूरे यूरोप और मध्य पूर्व में 500 ईसा पूर्व में भारत-यूरोपीय भाषाओं में आर्य शब्द मिलता है ।
यद्यपि हुर्रियन शब्द में सुर रूप अधिक ध्वनित होता है परन्तु कुछ विद्वान इसे आर्यन शब्द का तद्भव मानने के पक्षधर हैं ।
ईरानी साहित्य आर्य शब्द-
पुरानी इंडो-आर्य में आर्य से जुड़े कई अर्थों के विपरीत, पुरानी फारसी शब्द का केवल जातीय अर्थ है।
यह भारतीय उपयोग के विपरीत है, जिसमें कई माध्यमिक अर्थ विकसित हुए हैं, अर्थात् आत्म-पहचानकर्ता के रूप में अर्थ का अर्थ ईरानी उपयोग में संरक्षित है, इसलिए "ईरान" शब्द है।
The Avesta clearly uses airya/airyan as an ethnic name (Vd. 1; Yt. 13.143-44, etc.), where it appears in expressions such as airyāfi; daiŋˊhāvō "Iranian lands, peoples", airyō.šayanəm "land inhabited by Iranians", and airyanəm vaējō vaŋhuyāfi; dāityayāfi; "Iranian stretch of the good Dāityā", the river Oxus, the modern Āmū Daryā.
Old Persian  sources also use this term for Iranians. Old Persian which is a testament to the antiquity of the Persian language and which is related to most of the languages/dialects spoken in Iran including modern Persian, the Kurdish languages, and Gilaki makes it clear that Iranians referred to themselves as Arya.

The term "Airya/Airyan" appears in the royal Old Persian inscriptions in three different contexts:
एयरी  का अर्थ "ईरानी" था, और ईरानी anairya  मतलब था और "गैर-ईरानी" का मतलब है। आर्य को ईरानी भाषाओं में एक नृवंशविज्ञान के रूप में भी पाया जा सकता है, उदाहरण के लिए, एलन और फारसी ईरान और ओस्सेटियन  इर / आयरन यह नाम आर्यन के समतुल्य है, ।
जहां ईरान का मतलब है "आर्यों की भूमि," और सस्सिद काल के बाद से उपयोग में हैं
पुरानी फारसी जो फारसी भाषा की पुरातनता का प्रमाण है और जो आधुनिक फारसी, कुर्द भाषा और गिलकी समेत ईरान में बोली जाने वाली अधिकांश भाषाओं / बोलियों से संबंधित है ।
यह स्पष्ट करती है कि ईरानियों ने स्वयं को आर्य के रूप में संदर्भित किया है।

"एयर्या / एयरयान" शब्द शाही पुराने फारसी शिलालेखों में तीन अलग-अलग संदर्भों में दिखाई देता है:

बेहिस्तून में दारा प्रथम के शिलालेख के पुराने फारसी संस्करण की भाषा के नाम के रूप में
पर्शिपोलिस से शिलालेख में नकम-ए-रोस्तम और सुसा (डीएनए, डीएसई) और ज़ेरेक्स I
में शिलालेखों में दारा प्रथम की जातीय पृष्ठभूमि के रूप में वर्णित है ।
(Behistun )वहिस्तून शिलालेख के (Elamite )एलम भाषा संस्करण में, आर्यों के भगवान, अहुरा मज्दा की परिभाषा के रूप में।

उदाहरण के लिए डीएनए और डीएस दारा और जेरेक्स में खुद को "एक अमेमेनियन, एक फारसी का एक फारसी पुत्र और आर्यन स्टॉक के आर्यन" के रूप में वर्णित किया गया है।
यद्यपि दारा ने अपनी भाषा को  आर्य भाषा कहा, आधुनिक विद्वान इसे पुराने फारसी के रूप में संदर्भित करते हैं क्योंकि यह आधुनिक फारसी भाषा की पूर्वज है।

ग्रीक स्रोतों द्वारा पुरानी फारसी और अवेस्ता के  साक्ष्य की पुष्टि की गई है।
यूनानी इतिहास कार हेरोडोटस ने अपने इतिहास में ईरानी Medes मदीयन के बारे में टिप्पणी की है कि: "इन Medes को  सभी लोगों द्वारा ईमानदारी से बुलाया गया था;"पृष्ठ संख्या (7.62)।
अर्मेनियाई स्रोतों में, पार्थियन, मेडीयन और फारसियों को सामूहिक रूप से आर्यों के रूप में जाना जाता है।
[रोड्स के यूडेमस दमसियस के साथ (प्लैटोनिस परमेनिडेम 125 बीआईएस में डबिटेशंस एट सॉल्यूशंस)

यह "मागी और ईरानी (एरियन) वंशावली के सभी लोगों को संदर्भित करता है; डायोडोरस सिकुलस (1.94.2) ज़ोरोस्टर (ज़थ्रास्टेस) को अरियानो में से एक मानता है।
__________________________________________
भूगोलकार स्ट्रैबो, अपनी भूगोल में, मेद, फारसी, बैक्ट्रीशियन और सोग्डियन की एकता का उल्लेख करते हैं:

एरियाना का नाम फारस और मीडिया के एक हिस्से के साथ-साथ उत्तर में बैक्ट्रियन और सोग्डियनों तक भी बढ़ाया गया है;
इनके लिए लगभग एक ही भाषा बोलती है, लेकिन थोड़ी भिन्नताएं होती हैं।

- भूगोल, पृष्ठ संख्या (15.8)
शापुर के आदेश द्वारा निर्मित त्रिभाषी शिलालेख हमें एक और स्पष्ट विवरण देता है।
इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पार्थियन, मध्य फारसी और ग्रीक हैं। ग्रीक में शिलालेख कहता है:
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"... tou Arianon ethnous eimi despotes" जो अनुवाद करता है! "मैं आर्यों का राजा हूं"।
मध्य फारसी शापौर में कहते हैं: "मैं ईरान शहर का भगवान हूं" और पार्थियन में वह कहता है: "मैं आर्यन शहर का स्वामी हूं"।
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रब्बाक में कुषाण साम्राज्य के संस्थापक कनिष्क द ग्रेट का बैक्ट्रियन भाषा (एक मध्य ईरानी भाषा)में  शिलालेख, जिसे 1993 में बागानान के अफगानिस्तान प्रांत में एक अप्रत्याशित स्थान में खोजा गया था।
स्पष्ट रूप से इस पूर्वी ईरानी भाषा को आर्य के रूप में संदर्भित करता है।
इस्लामिक युग के बाद भी 10 वीं शताब्दी के इतिहासकार हमज़ा अल-इस्फाहनी के काम में आर्यन (ईरान) शब्द का स्पष्ट उपयोग देख सकता है।
अपनी मशहूर पुस्तक "द हिस्ट्री ऑफ़ प्रोपेट्स एंड किंग्स" में, अल-इस्फहानी लिखते हैं, "आर्यन जिन्हें पार भी कहा जाता है, इन देशों के बीच में है और इन छह देशों में इसका चारों ओर घिरा हुआ है ।
क्योंकि दक्षिण पूर्व चीन, उत्तर में है तुर्कों में, मध्य दक्षिण भारत है, मध्य उत्तर रोम है, और दक्षिण पश्चिम और उत्तर पश्चिम सूडान और बर्बर भूमि है "।
इन सब सबूतों से पता चलता है कि आर्य "ईरानी" नाम सामूहिक परिभाषा थी, जो लोगों को इंगित करता था (गीजर, पीपी 167 एफ।, श्मिट, 1978, पृष्ठ संख्या 31)
जो एक जातीय भाषा से संबंधित थे, एक आम भाषा बोलते थे , और एक धार्मिक परंपरा है जो अहुरा (असुर महत्) मज़दा की पंथ पर केंद्रित है।

ईरानी भाषाओं में, मूल आत्म-पहचानकर्ता "एलान", "आयरन" जैसे जातीय नामों पर रहता है।
इसी प्रकार, ईरान शब्द आर्य के भूमि / स्थान के लिए फारसी शब्द है।
यूरोपीय भाषाओं में आर्य शब्द का प्रचलित रूप

"आर्यन" शब्द का उपयोग नव खोजी गई इंडो-यूरोपीय भाषाओं के लिए, और विस्तार से, उन भाषाओं के मूल वक्ताओं के लिए किया गया था। और 19वीं शताब्दी में, "भाषा" को "जातीयता" की संपत्ति माना जाता था, और इस प्रकार भारत-ईरानी या भारत-यूरोपीय भाषाओं के वक्ताओं को "आर्यन जाति" कहा जाता था।
जैसा कि उन्हें क्या कहा जाता था, "सेमिटिक रेस"।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, कुछ लोगों के बीच, "आर्यन जाति" की धारणा नॉर्डिसिज्म से निकटता से जुड़ी हुई थी, जिसने अन्य सभी लोगों पर उत्तरी यूरोपीय नस्लीय श्रेष्ठता को जन्म दिया। इस "मास्टर रेस" आदर्श ने नाजी जर्मनी के "आर्यननाइजेशन" कार्यक्रमों को दोनों में शामिल किया, जिसमें "आर्यन" और "गैर-आर्यन" के रूप में लोगों का वर्गीकरण सबसे अधिक जोरदार रूप से यहूदियों को छोड़ने के लिए निर्देशित किया गया था।

द्वितीय विश्व युद्ध 1944 के अंत तक, 'आर्यन' शब्द नाज़ियों द्वारा नस्लीय विचारधाराओं और अत्याचारों के साथ कई लोगों से जुड़ा हुआ था।

19वीं सदी के अंत में और 20 वीं शताब्दी के शुरुआती नस्लीयवाद के रूप में "आर्यन जाति" के पश्चिमी विचारों में प्रमुखता बढ़ी, जो कि नाज़ीवाद द्वारा विशेष रूप से गले लगाए गए विचार थे। 
नाज़ियों का मानना ​​था कि "नॉर्डिक लोग" (जिन्हें "जर्मनिक लोग" भी कहा जाता है)  आर्यों की एक आदर्श और "शुद्ध जाति" का प्रतिनिधित्व करते हैं जो उन लोगों के मूल नस्लीय स्टॉक का शुद्ध प्रतिनिधित्व रूप है ।
जिन्हें बाद में प्रोटो-आर्यों कहा गया था ।
नाजी पार्टी ने घोषणा की कि "नॉर्डिक्स" शुद्ध आर्य थे क्योंकि उन्होंने दावा किया था कि वे "आर्यन लोगों" कहलाए जाने वाले अन्य लोगों की तुलना में अधिक "शुद्ध" (कम नस्लीय मिश्रित) थे।

इतिहास ---
अवेस्ता में वर्णित शब्द आर्य का प्रयोग प्राचीन फारसी भाषा ग्रंथों में किया जाता है, उदाहरण के लिए 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से बेहिस्तून के शिलालेख में, जिसमें फारसी राजा दारायस द ग्रेट( दारा प्रथम) और ज़ेरेक्स को "आर्यन स्टॉक के आर्यों" (आर्य आर्य चिसा) के रूप में वर्णित किया गया है।
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इस शिलालेख में देवता अहुरा मज़दा को "आर्यों का देवता" और प्राचीन फारसी भाषा के रूप में "आर्यन" के रूप में संदर्भित किया जाता है।

इस अर्थ में शब्द भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक पहलुओं सहित प्राचीन ईरानियों की कुलीन संस्कृति को भी  संदर्भित करता है।
इस शब्द में जोरोस्ट्रियन धर्म का एक केंद्रीय स्थान भी है जिसमें "आर्यन विस्तार" (एयर्याना वेजाह) को ईरानी लोगों के पौराणिक मातृभूमि और दुनिया के केंद्र के रूप में वर्णित किया गया है। जो वस्तुत: आज का अजर-बेजान है ।
सॉवियत रूस का सदस्य देश

वैदिक साहित्य में आर्य शब्द-
ऋग्वेद में 34 ऋचाओं में आर्य शब्द का प्रयोग 36 बार किया जाता है।
तलगेरी के अनुसार (2000, ऋग् वेद ए हिस्टोरिकल एनालिसिस) "ऋग्वेद के विशेष वैदिक आर्य इन पुरूषों में से एक वर्ग थे, जिन्होंने खुद को भारत कहा।" इस प्रकार, तालगेरी के अनुसार, यह संभव है कि एक बिंदु पर आर्य ने एक विशिष्ट जनजाति का उल्लेख किया था।

जबकि शब्द अंततः एक जनजातीय नाम से प्राप्त हो सकता है, पहले से ही ऋग्वेद में यह एक धार्मिक भेदभाव के रूप में प्रकट होता है, जो उन लोगों को अलग करता है जो ऐतिहासिक वैदिक धर्म से संबंधित नहीं हैं, बाद में हिंदू धर्म में उपयोग का प्रस्ताव देते हैं, जहां शब्द धार्मिक धार्मिकता या पवित्रता को दर्शाने के लिए आता है।
ऋग्वेद 9.63.5 में, आर्य "महान, पवित्र, धर्मी" का उपयोग अरवन के विपरीत "उदार, ईर्ष्यापूर्ण, शत्रुतापूर्ण" के विपरीत नहीं किया जाता है:

संस्कृत महाकाव्य में आर्य शब्द आमतौर पर नैतिक अर्थो में प्रयुक्त है ।
आर्य और अनार्य मुख्य रूप से भारतीय महाकाव्य में नैतिक भावना के सन्दर्भ में उपयोग किए जाते हैं।
लोगों को आम तौर पर आर्य या अनार्य को उनके व्यवहार के आधार पर कहा जाता है।
आयरिश भाषा में भारतीयों के समान अनार्य या अनाड़ी
शब्द प्रचलित है 👇

Irish Etymology
1 From an- +‎ airí.
Noun-
anairí f (genitive singular anairí, nominative plural anairithe)
undeserving, ungrateful, person
Declension
genitive singular feminine of anaireach (“heedless, careless, inattentive”)
comparative degree of anaireach
Mutation
Irish mutation
RadicalEclipsiswith h-prothesiswith t-prothesis
anairín-anairíhanairínot applicable
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आर्य आमतौर पर धर्म का अनुसरण करते हैं।
  यह ऐतिहासिक रूप से भारत वर्षा या विशाल भारत में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए लागू होता है। महाभारत के अनुसार, एक व्यक्ति का व्यवहार (धन या शिक्षा नहीं) निर्धारित करता है कि क्या वह आर्य कहा जा सकता है।
आयरिश भाषा में और भी पौराणिक समानताऐं हैं
Surviving Irish tales – resemblances – themes, stories, names in sagas of Indian Vedas [Sanskrit – start of 1st millennium BC]. Being – emerges as Mother Goddess of Celts = Danu (Anu in Old Irish) cognate with Don (Old Welsh). Emerges in literature of Vedas, Persia, Hittites.
Danu = ‘divine waters’.
European rivers acknowledge her. Story associated with Danuvius = first great Celtic river. Thus >myths about Boyne (from goddess Boann). and Shannon (from the goddess Sionan). Hindu goddess Ganga – Ganges.
Celts plus Hindus – worshipped in sacred rivers + votive offerings. Vedic myth = Danu – appears in deluge story = The Churning of the Ocean.
Resemblances – Irish culture and Hindu culture. Language – Old Irish law texts (the Fenechus or Brehon Laws) and the Vedic Laws of Manu. The Vedas = 4 books 1000-500 BC. Sanskrit root – vid + ‘knowledge’. Old Irish = vid = ‘0bservation’, ‘perception’, ‘knowledge’. Therefore roots of – compared Celtic druid = dru-vid – ‘thorough knowledge’.
Similarities – Old Irish and Sanskrit. Arya (freeman) = Sanskrit, and aire (a noble) in Old Irish. Naib (good) in Sanskrit, and noeib (holy) in Old Irish. Therefore – naomh = saint. Minda (physical defect) – Sanskrit > menda (one who stammers) – Old Irish.  Namas (respect) – Sanskrit > nemed (respect, priviledge) – Old Irish. Badhura (deaf) – Sanskrit > bodhar (deaf) – Old Irish. Borrowed by 18th century English = ‘bother’.

Raj (king) > Irish ri > continental rix > Latin rex.

Germanic group – developed another word – i.e., cyning, Koenig, king. But – retained in English as reach = Indo-European cconcept of king as one who – reaches or stretches out his hand to protect his people. This concept = found in many Indo-European myths.😂

Rig Vedas – sky god Dyaus = stretches forth his long hand. Cognate – Latin deus, Irish dia, Slavonic devos.  Means – ‘the bright one’. A sun-deity significance. Dyaus = Dyaus-Pitir = Father Dyaus. In Greek > Zeus. In Latin > Jovis-Pater (Father Jove). Julius Caesar observed Celts had a Dis–Pater (a father god). Irish reference = Ollathair = the All Father. Ollathair = sky god, the role given to Lugh.

Lugh – in Welsh myth = Lleu (Bright One). Lugh Lamhfada = Irish (Lugh of the Long Hand) = stretching and reaching. Llew Llaw Gyffes = Welsh (Lleu of the Skilfull Hand).

Boann – goddess = ‘cow-white’ > River Boyne. Mother to Aonghus Og – love god = guou-vinda (cow finder). Vedic name – Govinda = epithet for Krishna. Hindu name today. Motifs – sacred cow/bull = easily found in Celtic (particularly Irish) + Vedic/Hindu myths. Gualish god – Esus > equates with Asura (the powerful) and as Asvopati = epithet for Indra. Gualish – Ariomanus > cognate with Vedic Aryaman.

Horse rituals – once common with Indo-Europeans > Irish myth and ritual + Vedic sources. “The kingship ritual of symbolic union of horse and ruler survives in both.” Dates – when Indo-Europeans domesticated horses – thus helped commence expansions. Horses = power. Therefore proficient – agriculture, pastoralism, warriors.

Ireland – ritual of symbolic union of mare and king – mentioned by Geraldus Cambrensis [Typographica Hibernia]. = 11th century. India – similar symbolic ritual of stallion and queen = myth of Saranyn in Rig Veda.

The ‘Act of Truth’. Ancient Irish text Auraicept Moraind – could be mistaken for a passage in the Upanishad. [See: Dillon, M. ‘The Hindu Act of Truth in Celtic Tradition’, Modern Philology, Feb 1947].

Symbolism  – Irish myth = Mochta’s Axe (when heated in a fire of blackthorn, would burn a liar but not the opposite), or – Luchta’s iron (= same quality), or Cormac mac Art’s cup (= 3 lies and it fell apart) – 3 truths > whole again. All = counterparts in the Chandagya Upanishad.

Cosmological terms =comparisons – Celtic, Vedic culture. Similarities – Hindu, Celtic calendar, e.g., Coligny Calendar. Original computation + astronomical observations + calculation, therefore put at 1100 BC.

Celts = astrology – based on 27 lunar mansions = naks😂

-ईरानी तथा संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द वीर यूरोपीय भाषा में प्रचलित( wiHrás )से प्रोटो-इंडो-यूरोपीय रूप से नि: सृत है ।
wiHrós से संस्कृत वीर ( vīrá ) से आयात किया हुआ है।  ग्रीक रूप ʋiːɾ उइर/ वीर • ( vīr ) वीर , नायक , सेनानी , जो बहादुर है ।
wiHrás से , प्रोटो-इंडो-ईरानी * wiHrás से , प्रोटो-इंडो-यूरोपीय wiHrós से । अवेस्तान  ( वीरा ) , लैटिन वीर ( " पुरुष " ) , लिथुआनियाई výras विरास, पुरानी आयरिश फेर , पुराना नॉर्स verr , गोथिक  ( वेयर ) , ओस्सेटियन ир इर   ओस्सेटियन " ) के साथ संज्ञेय , पुरानी अंग्रेज़ी wer (कहां अंग्रेजी wer )।

1700 ईसा पूर्व - 1200 ईसा पूर्व ,ऋग्वेद में नायक या पति के अर्थ में ।

पाली: भाषा में वीरा सौरसानी प्राकृत:  ( वीरा ) हिंदी: बीर ) → हिन्दी: वीर ( वीर ) → इंडोनेशियाई: विरा → जावानीज: विरा → कन्नड़: विवेर ( वीरा ) → मलय: विरा → मराठी: वीर ( वीर )

लेडो-लेमोस द्वारा प्रस्तावित 'वर्जिन शब्द' की व्युत्पत्ति भी वीरांगना का तद्भव।

"uiH-ro- (आदमी) और * gʷén-eH₂- (महिला)" से एक यौगिक के रूप में वर्जिन शब्द बनता है।
, लेकिन * wir- 'युवा, युवा' ('आदमी' नहीं!) और '* gʷén-' महिला ' ।
इस परिकल्पना के अनुसार, लेट। कन्या एक परिसर के रूप में उभरा जिसका मूल अर्थ "युवा महिला" था (जैसे जर्मन जुंगफ्राउ 'युवा महिला> कुंवारी') के रूप में सन्दर्भित किया जा सकता है ।।

यदि लेडो-लेमोस परिकल्पना सच है, तो प्रतिक्रिया है: दोनों शब्द आईई से आए थे। जड़ जिसका अर्थ 'युवा, युवा' था।

लैटिन यूर का मतलब है "पुरुष", और यह भी माना जाता है कि यह शब्द अन्य भारतीय-यूरोपीय भाषाओं (पुरानी आयरिश फेर, गोथिक वायर इत्यादि) में दिखाता है। हालांकि, यह मानने का एक अच्छा कारण है कि इस तत्व का मूल मूल्य "युवा" था:

कुछ के अनुसार, * wiHrós क्रिया से  weyh₁- ("शिकार करने के लिए"  से लिया गया है।

WiHrós --
आदमी
पति
योद्धा, नायक

कर्ताकारक * wiHrós
संबंधकारक * wiHrósyo
विलक्षण दोहरी बहुवचन
कर्ताकारक * wiHrós * wiHróh₁ * wiHróes
सम्बोधन * wiHré * wiHróh₁ * wiHróes
कर्म कारक * wiHróm * wiHróh₁ * wiHróms
संबंधकारक * wiHrósyo *? * wiHróoHom
विभक्ति * wiHréad *? * wiHrómos
संप्रदान कारक * wiHróey *? * wiHrómos
स्थानीय * wiHréy, * wiHróy *? * wiHróysu
वाद्य * wiHróh₁ *? * wiHrṓys
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जर्मनिक, सेल्टिक, और इटालिक रूपों को रूट लारेंजियल के नुकसान के साथ एक छोटा रूप इंगित करता है, जिसे संस्कृत और लिथुआनियाई (बाल्टो-स्लाविक तीव्र, हर्ट के कानून द्वारा रूट स्वर में वापस ले जाने) के आधार पर पुनर्निर्मित किया जाता है।

अर्मेनियाई:
(संभवतः) पुरानी अर्मेनियाई: ամուրի (अमुरी, "पतिहीन")
बाल्टो-स्लाव: * व्यारास ("पति, आदमी")
लातवियाई: वीर
लिथुआनियाई: výras विरास
ओल्ड प्रशिया: विजर
सेल्टिक: * विरोस (आगे के वंशजों के लिए वहां देखें)
जर्मनिक: * वेराज़ (आगे के वंशजों के लिए वहां देखें)
हेलेनिक: [टर्म?]
(संभवतः) प्राचीन ग्रीक: * ϝῑρος (* विरोस, "हॉक, ईगल")
प्राचीन यूनानी: * ϝῑρᾱξ (* विरैक्स)
प्राचीन यूनानी: ἱέρᾱξ (hiérāx)
इंडो-ईरानी: * wiHrás (आगे के वंशजों के लिए वहां देखें)
इटालिक: * विरोस (आगे के वंशजों के लिए वहां देखें)
Tocharian: [टर्म?]
Tocharian ए: wir ("युवा, युवा, ताजा")
देखें संस्कृतियों भाषा में वीर शब्द के सन्दर्भ -
↑वीर = शौर्य्ये । इति कविकल्पद्रुमः ॥
(अदन्तचुरा०-आत्म०-अक०-सेट् ) ङ, अविवीरत ।
शौर्य्यमुद्यमः । इति दुर्गादासः निरुक्त भाष्य

वीरम्=, (अज् धातु + “स्फायितञ्चिवञ्चीति
उणादि सूत्र १।१३ ।
अर्थात् वी धातु का अज् आदेश होने पर  इत्यादिना रक् प्रत्यय ।
अजे- र्वीभावः ।
वीर + अच् वा ) शृङ्गी । नडः ।
इति मेदिनी ।  ६७ ॥ मरिचम् ।
पुष्कर- मूलम् ।
काञ्जिकम् ।
उशीरम् ।
आरूकम् । इति राजनिर्घण्टः ॥
वीरशब्दो मेदिन्यां पवर्गीयवकारादौ दृष्टोऽपि वीरधातोरन्तःस्थवकारादौ दर्शनादत्र लिखितः ॥

वीरः, पुं० (वीरयतीति । वीर विक्रान्तौ + पचाद्यच् । यद्वा, विशेषेण ईरयति दूरीकरोति शत्रून् ।
वि + ईर + इगुपधात् कः ।
यद्वा, अजति क्षिपति शत्रून् ।
अज + स्फायितञ्चीत्यादिना रक् ।
अजेर्व्वीः आदेश ) शौर्य्यविशिष्टः ।
तत्पर्य्यायः ।
१ -शूरः २ -विक्रान्तः ३ -। इत्यमरः कोश । २ । ८ । ७७ ॥ गण्डीरः ४ तरस्वी ५ ।
इति जटाधरः ॥ (यथा, महाभारते । १ ।१४१ ।४५ । “मृगराजो वृकश्चैव बुद्धिमानपि मूषिकः । निर्ज्जिता यत्त्वया वीरास्तस्माद्वीरतरो भवान् ॥
वेदों में वीर शब्द का प्रयोग -
यथा च ऋग्वेदे । १ । ११४ । ८ ।
वीरान्मानो रुद्रभामितो वधीर्हविष्यन्तः सद्मि त्वा हवामहे ॥” “वीरान् वीक्रान्तान् ।” इति सायणः भाष्य॥
पुत्त्रः । यथा, ऋग्वेदे । ५ । २० । ४ । “वीरैः स्याम सधमादः ” “वीरैः पुत्त्रैश्च सधमादः सहमाद्यन्तः स्याम तथा कुरु ।” इति तद्भाष्ये सायणः ॥
पतिः ।
पुत्त्रश्च । यथा, मार्कण्डेये । ३५ । ३१ ।
“न चालपेज्जनद्विष्टां वीरहीनां तथा स्त्रियम् । गृहादुच्छिष्टविण्मूत्रपादाम्भांसि क्षिपेद्बहिः ॥
यथा च अवीरा निष्पतिसुता ।
इत्यमरदर्शनाच्च ॥
दनायुदैत्यपुत्त्रः । यथा, महाभारते । १ । ६५ । ३३ । “दनायुषः पुनः पुत्त्राश्चत्त्वारोऽसुरपुङ्गवाः ।
विक्षरो बलवीरौच वृत्रश्चैव महासुरः )
जिनः । नटः । इति हेमचन्द्रः ॥
विष्णुः । यथा, वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ।
इति विष्णु सहस्रनाम ॥
शृङ्गाराद्यष्टरसान्तर्गतरसविशेषः ।
तत्पर्य्यायः । उत्साहवर्द्धनः २ । इत्यमरः ॥
“उत्तमप्रकृतिर्वीर उत्साहस्थायिभावकः ।
महेन्द्रदैवतो हेमवर्णोऽयं समुदाहृतः ॥
उत्साहं वर्द्धयति इति उत्साहवर्द्धनः नन्द्यादित्वादनः । दानधर्म्मयुद्धेषु जीवानपेक्षोत्साहकारी रसो वीरः । वीरयन्ते अत्र वीरः ।
वीर तङ्कत् शौर्य्ये घञ् स्फीततयैव स्वाद्यते इति सर्व्व- रसलक्षणं कटाक्षितम् ।
इति भरतः ॥ तान्त्रिकभावविशेषः ।
यथा, -- “तत्रैव त्रिविधो भावो दिव्यवीरपशुक्रमः । दिव्यवीरैकजः प्रोक्तः 

वीरः, त्रि, श्रेष्ठः । इति हेमचन्द्रः ॥ (कर्म्मठः । यथा, ऋग्वेदे । ८ । २३ । १९ । “इमं धा वीरो अमृतं वीरं कृण्वीतमर्त्त्यः ॥
“वीरः कर्म्मणि समर्थः ।” इति तद्भाष्ये सायणः ॥ यथा च । तत्रैव । ६ । २३ । ३ ।
“कर्त्ता वीराय सुष्वय उलोकं दाता वसु स्तुवते कीरये चित् ॥” “वीराय यज्ञादि कर्म्मसु दक्षाय ”
इति तद्भाष्ये सायणः ॥
प्रेरयिता । यथा, तत्रैव । ६ । ६५ । ४ ।
“इदा हि वो विधते रत्नमस्तीदा वीराय दाशुष उषासः
“वीराय प्रेरयित्रे ।” इति तद्भाष्ये सायणः ॥)
_________________________________________
वाचस्पत्यम्
'''वीर'''
नपुंसकलिंग रूप वीर--अच्। 

शृङ्गिणि 

२ नडे मेदि॰ 

३ गरिचे 

४ पद्म-मूले 

५ काञ्चिके 

६ उशीरे 

७ आरूके राजनि॰। 

८ शौर्य्यवि-शिष्टे शूरे त्रि॰ अमरः। 

९ जिने 

१० नटे पु॰ हेमच॰। 

११ विष्णौ पु॰ विष्णुस॰।
तन्त्रोक्ते 

१२ कुलाचारयुते त्रि॰ कुलाचारशब्दे पृ॰ दृश्यम्। 

१३ तण्डुलीये 

१४ वराहकन्दे

१५ लताकरञ्जे 

१६ करवीरे 

१७ अर्जुने पु॰ राजनि॰

१८ यज्ञाग्नौ भरतः वीरहा। 

१९ उत्तरे 

२० सुभटे च मेदि॰। 

२१ श्रेष्ठे त्रि॰ हेमच॰। 

२२ पत्यौ 

२३ पुत्रे च 

“अवीरानिष्पति सुता” अमरः कोश। 

👾👾👾👾
_______________________________________ "ब्राह्मणादुग्रकन्यामावृतोनाम जायते। आभोरोऽम्बष्टकन्यायामा-योगव्यान्तु धिग्वणः”
इति मनु-स्मृति-!
------------------------------------------------------------------
इसमें ब्राह्मण पिता और अम्बष्ठ माता से आभीर जन जाति को उत्पन्न मान कर मनु-स्मृति कार ने अहीरों को ब्राह्मण वर्ण में समायोजित करने का असफल प्रयास किया है ।
पुष्य-मित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक रचित ग्रन्थ मनु-स्मृति में आभीर नामक यादव जन-जाति की यह  काल्पनिक व्युत्पत्ति- है ।
कभी अहीरों को शूद्र घोषित कर दिया जाता है ,
तो कभी ब्राह्मण , ये दोगली बातें अहीरों के वास्तविक इतिहास को विकृत करने के लिए की गयीं हैं ।
अम्बष्ठ जन जाति का वर्णन चन्द्र गुप्त काल में आये यूनानी लेखक मैगस्थनीज ने भी किया है ,
अम्बष्ठ जन चिकित्सा शास्त्र के विशेषज्ञ होते थे ।

_____________________________________
जबकि भागवत पुराण में आभीर (अहीर) जन-जाति को यवन , किरात हूण ,अन्ध्र आदि  का सहवर्ती तथा विदेशी माना है ।
_________________________________________
"किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा आभीर कंका
यवना: खसादय: शुध्यन्ति  तस्यै प्रभविष्णवे नम:
  (द्वित्तीय स्कन्ध पृष्ठ १४३ चतुर्थ अध्याय श्लोक १८)
_________________________________________
अर्थात् :----- किरात ,हूण अन्ध्र , पुलिन्द , पुलकसा, तथा आभीर ,कंक यवन ,और खश आदि जन-जातियाँ
तथा दूसरे पापी जन भी कृष्ण के शरणागत भक्तों की शरण ग्रहण करने से पवित्र हो जाते हैं ।
उस सर्व -शक्तिमान् भगवान् को बारबार नमस्कार है ।
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यवन शब्द यूनानीयों के लिए प्रयुक्त होता है।
सिकन्दर यूनान के मैसीडॉनिया नगर का था ।
जिसका भारत -आगमन ई०पू० ३२२ में हुआ था ।
पुष्य-मित्र सुंग का समय ई०पू०१८४ के समकक्ष है ।
खश जन-जातीयाँ मैसॉपोटमिया की एक शाखा कैसाइट (कस्सी ) से सम्बद्ध हैं , जो कश्मीर से काशी में आकर सर्व-प्रथम वसीं -- यह घटना ई०पू० १५०० के समकक्ष की है ।
खश जाति का आगमन भारत में  आर्य संस्कृति से पूर्व हो चुका था ।
यद्यपि काशी और कशमीर जैसे शब्द कस्सीयों से सम्बद्ध है ।
खश जन-जातीयाँ जग्रौस -पहड़ीयों से निकल कर ई०पू० १५०० से पूर्व भारत में आ चुकी थीं ।
बाद में इन्हें ही खबीस अथवा खईस कहा गया ---जो भूत -प्रेतों की एक श्रेणि ही बन गयी ।
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यदि आभीर यूनानीयों के समकालिक हैं , तो राम ने समुद्र की प्रार्थना पर उत्तर दिशा में स्थित  द्रुमकुल्य देश में अपने अमोघ वाण छोड़ कर अहीरों को नष्ट कैसे  कर दिया था ? और अहीर आज भी जीवित कैसे हैं ?
ऐतिहासिक दृष्टि से राम का समय आज से सात हजार (७०००) वर्ष पूर्व माना जाता है ।
जबकि पौराणिक मतावलम्बीं राम का समय (९०००००) नौ लाख वर्ष मानते हैं ।
फिर राम आभीर जनों पर समुद्र की प्रार्थना पर उत्तर दिशा में स्थित द्रुमकुल्य देश में वाण छोड़ कर उन्हें कैसे नष्ट कर देते हैं ?
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वाल्मीकि-रामायण के युद्ध-काण्ड के २२वें सर्ग में  राम अाभीरों पर अमोघ वाण छोड़ कर आभीरों(अहीरों) को नष्ट कर देते हैं--देखें ब्राह्मण बुद्धि का काल्पनिक वर्णन--
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उत्तरेणावकाशो$स्ति कश्चित् पुण्यतरो मम ।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथाभवान् ।३२
"उग्र दर्शन कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: |
आभीर प्रमुखा पापी: पिबन्ति सलिलं मम ||३३
तैर्न तद् स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: ।
अमोघ: क्रियतां राम:  अयं तत्र शरोत्तम: ।।३४।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन :
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।।
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पुष्य-मित्र सुंग के काल के ब्राह्मणों की जड़ बुद्धि की काल्पनिक उड़ाने तो देखिए अर्थ :--समुद्र राम से कहता है ,हे  प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं ।
उसी प्रकार मेरे  उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम से विख्यात बड़ा ही पवित्र देश है ।३३।
वहाँ आभीर आदि जातियों के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं। जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं ।
सबके  सब पापी और लुटेरे हैं ।
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।।३३।
उन पापाचारियों के जल पीते हुए मुझसे स्पर्श होता रहता है ।
इसी पाप को मैं यह नहीं सकता हूँ ।
हे श्री राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।।३४।।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र द्वारा दिखाए
मार्ग के अनुसार श्री राम ने अपना अत्यन्त प्रज्वलित  अमोघ वाण द्रुमकुल्य देश में छोड़ दिया ।।३५।।
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अहीरों ने ब्राह्मणों की विषमता मूलक वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया, अर्थात् ब्राह्मण वर्चस्व की दासता को ठुकरा दिया  तथा इस पाखण्ड पूर्ण व्यवस्था से विद्रोह करने के लिए दस्यु बनना उचित समझा ---
दस्यु मूलत: दास का ही एक रूपान्तरण है ।
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इधर ब्राह्मण समाज ने अपने वर्चस्व को सर्वोपरि करने हेतु राम को आधार बनाकर राम के मुख से तथागत बुद्ध को भी चोर और नास्तिक कहलवाया है ।
बुद्ध का जन्म  प्रमाणत:  ई०पू० --- 566 से पूर्व ही है ।
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देखें--- वाल्मीकि-रामायण के अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग ३४ वाँ श्लोक ---
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" यथा ही चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि "
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अर्थात् राम जावालि ऋषि के सम्वाद रूप में
बुद्ध को चोर और नास्तिक बताते हैं ।
अब राम के विषय में ऋग्वेद क्या कहता है ?
यह भी देखें---
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भद्रो भद्रया सचमान: आगत ।
स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात् ।।
सुप्रकेतै: द्युभि: अग्नि वितिष्ठन् रूश द्रभिर्वर्णेरभि रामम् अस्थात् ।।
                                (ऋग्वेद १०/३/३/)
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अर्थात् भद्र: (भजनीय राम ) भद्रया -(भजनीय सीता के द्वारा) सचमान: (सेवित होते हुए )आगात (वन में आये)
स्वसारं (अर्थात् पत्नी सीता को )  जार-(जो सतीत्व को जीर्ण करे ) अभ्येति (आया ) अर्थात् राम और लक्ष्मण  परोक्ष होने पर आया और रावण के मारे जाने पर अग्नि:(अग्नि देव)  सुप्रकेतै: द्युभि: -(राम  की पत्नी सीता के ) (द्युभि:)- अग्नि के द्वारा  (रामम् अभि: -राम के सामने रुशद्भि: वर्णे:-उदीप्त वर्ण रंग या तेज के साथ
अस्थात् - (उपस्थिति हुए )और असली सीता को सौंप दिया ।
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विशेष:--- वैदिक काल में स्वसृ शब्द का अर्थ -बहिन और पत्नी भी है ।
भगिनी के सादृश्य पर महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के १४वें सर्ग के ३३वें श्लोक में राम को सीता का बन्धु कहा है ।
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देखें--- " वैदेहि बन्धोर्हृदयं विदद्रे "
जैनमत के हरिवंश पुराण में राम और सीता को भाई -बहिन माना गया है ।
बौद्ध ग्रन्थ दशरथ जातक में भी सीता को राम की -बहिन ही माना है ।
राम का जीवन रहस्य पूर्ण है ।
दुनियाँ में अब तक ३०० रामायण लिखी जा चुकी हैं।
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मैक्सिको की माया संस्कृति में राम और सीता को राम सितवा उत्सव के रूप आज भी याद किया जाता है ।
ये परम्पराऐं सदीयों पुरानी हैं ।
निश्चित रूप से राम का समय प्राचीनत्तम है।
राम ने न कभी शम्बूक वध किया ,और न बुद्ध को चोर कहा ..
राम ने अहीरों का भी वध नहीं किया ।
ये सारी मनगढ़न्त कथाएें ब्राह्मणों की धूर्त योजनाओं के अंग हैं ।
राम-राम हमारा अभिवादन  शब्द है हमारे दैनिक जीवन के व्यवहार में राम बहुतायत से व्याप्त हैं ।
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अमरकोशः  में आभीर शब्द के पर्याय वाची रूपों में गोप:. गोपालः जैसे शब्द हैं --
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गोविन्द,गोप 2।9।57।2।5 (अमरकोशः)
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कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्.
  गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥
अर्थात् गोप, गोपाल, गोसंख्य, गोधुक् , आभीर, वल्लभ,
ये सभी शब्द यादवों के पर्याय वाची हैं ।
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आभीर-पत्नी : आभीरी सेवक : गोपग्रामः वृत्ति : गौः : गवां_स्वामिः पदार्थ-विभागः : वृत्तिः, द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः
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वाचस्पत्यम् '''आभीर'''¦
पु॰. आ  समन्तात् भियं राति रा--क इति आभीर:
गोपे सङ्कीर्ण्णजातिभेदे स हि अल्पभोतिहेतोरप्यधिकं बिभेतीतितस्य तथा-त्वम्
“आभीरवाममयनाहृतमानसाय दत्तं मनोयदुपते!तदिदं गृहाण” उद्भटः
स च सङ्कीर्ण्णवर्ण्णः।
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अभीर का ही इतर रूप आभीर है -- जिसका व्युत्पत्ति- मूलक अर्थ ---जो भीर अर्थात् कायर नहीं है ।
अ निषेधार्थक उपसर्ग  (Prefix) + भीर: -भयभीत होने वाला अर्थात् जो किसी से भयभीत होने वाला नहीं है, वह जन अभीर अथवा आभीर है ।
हिब्रू बाइबिल में अबीर (Abeer) यहूदीयों की एक युद्ध कला में पारंगत शाखा का नाम है ।
हिब्रू भाषा में अबीर का अर्थ वीर अथवा यौद्धा अथवा सामन्त (knight) होता है ।
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सौलहवीं सदी के समकक्ष रसखान ने
व्रज की गोपिकाओं को अहीरों की छौरियाँ (लड़कीयाँ )
कह कर अपने सवैयायों की रचना की है ।
फिर महाभारत के मूसल पर्व में आभीर (अहीर)
गोपिकाओं को क्यों लूटने लगे --
ये तो स्वयं उनकी ही स्त्रीयाँ हैं ।
कितना विरोधाभासी और मूढ़तापूर्ण वर्णन सुंग कालीन ब्राह्मणों ने किया है ।
सारे ग्रन्थ ब्राह्मण वाद को परिपुुष्ट करने हेतु काल्पनिक रूप से लिपि-बद्ध किये गये हैं।
परन्तु रसखान अहीरों के विषय में क्या कहते हैं ? देखें---
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" शेष गनेश महेस दिनेस ,
        सुरेसहु जाय निरन्तर गावैं ।
जाहि अनादि अनन्त  अखण्ड,
         अछेद अभेद सुबेद बतावैं ।
नारद के सुक ब्यास रहैं ,
                       पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं ।
ताहि अहीर की छोहरियाँ
                       छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं "
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अर्थात् जिसे शेष नाग ,गणेश ,महेश (शंकर) तथा इन्द्र,सूर्य सभी देवता  निरन्तर चिन्तन करते हैं ।जिसे वेद भी अनन्त अखण्ड और अभेद्य बताते हैं ।नारद शुकदेव और व्यास जैसे मुनि भी  जिसका पार नहीं पा सके
उसी परब्रह्म परमात्मा को व्रज के अहीरों (गोपों ) की कन्याऐं राधा आदि छटाँक भर मट्ठे में ही नचाती हैं ।
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कृष्ण अहीर समाज से सम्बद्ध थे ।
यह उनका मानवीय रूप था
क्यों कि वसुदेव को महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण गोप कहता है --
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गवां कारणत्वज्ञ सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।
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(हरिवंश पुराण :----ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय)
कश्यप को वरुण ने पृथ्वी पर जाकर वसुदेव बनने का शाप दे दिया..
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“ब्राह्मणादुग्रकन्यामावृतोनाम जायते। आभोरोऽम्बष्टकन्यायामा-योगव्यान्तु धिग्वणः”
इति मनु-स्मृति--
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“श्रीकोङ्कणादधो-भागे तापीतः पश्चिमे तटे। आभीरदेशोदेविशि!
विन्ध्यशैले व्यवस्थित” इति शङ्क्तिसङ्गम॰ उक्ते २ देशभेदे ३ तद्देश-वासिनि ४ तद्देशराजे च ब॰ व॰। “एकादशकलधारिकविकुलमानसहारि।
इदमाभीरमवेहि जगणमन्त्र्यम-नुधेहि” इत्युक्तलक्षणे ५ मात्रावृत्तभेदे न॰।
शब्दसागरः आभीर¦
शक्तिसंगम तन्त्र में ही पृष्ठ संख्या १६४ पर
"आहुकवंशात् समुद्भूता आभीरा प्रकीर्तता "
के रूप में अहीर आहुक यादव के वंशज हैं ।
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इस प्रकार की उग्रसैन और देवक के पूर्वज आहुक से अहीरों की उत्पत्ति मानी है ।
देवक और शूरसेन के ही पूर्वज हैं ।
  आहुक के वंशज आभीर थे ।
नन्द तथा वसुदेव दौनों को ही महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण ---------------
में गोप कहा गया है :--
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इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत
गावां कारणत्वज्ञ : सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति "

   " ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय "
अर्थात् वरुण ने कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) होने का शाप दे दिया ।
क्योंकि कश्यप ने वरुण की गायों का अपहरण कर लिया था ।
ये कश्यप ही व्रज में वसुदेव नाम के गोप बने |
महाभारत के मूसल पर्व में आभीर जन के द्वारा प्रभास क्षेत्र में अर्जुन के साथ गोपिकाओं के लूटने का वर्णन"
पूर्ण रूपेण असंगत व विरोधाभासी ही है ।
मूसल पर्व में कोई उपसर्ग नहीं है ,और अध्यायों की संख्या भी केवल आठ ( ८) ही है ।
यह पर्व वाल्मीकि-रामायण के उत्तर काण्ड की तरह प्रक्षिप्त (नकली) ही है ।

*****************************************क्योंकि गोप तो स्वयं आभीरों का ही पर्याय वाची है ।
इतनी ही नहीं विरोधाभासी और विकृितियों को और भी देखें---
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व्यास-स्मृति के अध्याय प्रथम के श्लोक ११-१२ में गोप  जन-जाति को शूद्र ही माना गया है ।
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वर्द्धिकी नापितो गोप : आशाप: कुम्भकारको ।
वणिक: किरात: कायस्थो मालाकार ।
एते चान्ये बहव:शूद्रा: भिन्न स्वकर्मभि:
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अर्थात् बढ़ई नाई गोप आशाप कुम्भकार वणिक किरात कायस्थ अपने बहुत से भिन्न कर्मों के द्वारा शूद्र हैं ।
सत्य पूछा जाय तो कृष्ण को भी परोक्ष रूप से ब्राह्मण समाज ने शूद्र ही माना है ।
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जिसका सबसे प्रबल प्रमाण रूप ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक(ऋचा)है ।
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ।
इस कारण हम उनकी प्रशंसा करते हैं ।
गोप विशेषण केवल यादवों का यदु के गायों से घिरे हुए होने से तथा गोपलन के कारण हुआ है।
आज तक केवल आभीर जन जाति के लोग ही यादव कहलाते है ।
दास शब्द लौकिक संस्कृत भाषा में शूद्र का वाचक है
जैसे मनु-स्मृति विधान करती है --
कि ब्राह्मण का सम्मान - विशेषण शर्मा शब्द से
क्षत्रिय का सम्मान विशेषण वर्मा शब्द से
वैश्य का गुप्त अथवा भूति अथवा दत्त शब्द से ।
तथा शूद्रों का दास शब्द से होना चाहिए
ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत
यह विधान पारित हुआ कि --

अग्निना तुर्वशं यदुं  परावत उग्रादेवं हवामहे ।
अग्निर् नयन् अववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सह:।
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अर्थात् यदु और तुर्वसु दौनों दस्युयों को उग्रदेव अग्नि  के द्वारा  हमसे परे करदें हम उसका आह्वान करते हैं ।
अग्नि ले जाते हुए तुम दौनों ब्रहद्रथ और तुर्वीति को दस्युयों के साथ से उग्रदेव रक्षा करें ! अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दस्युयों का दमन करें ।
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ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 8 सूक्त 36 ऋचा 18

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शर्मा देवश्च विप्रस्य, वर्मा त्राता भूभुज: ।
भूतिर्दत्तश्च वैश्यश्च ,दास:शूद्रस्य कारयेत् ।।
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अर्थात् स्मृति-ग्रन्थों में विधान पारित हुआ कि विप्र की उपाधि देव और शर्मा तथा भूभुज अर्थात् क्षत्रिय की उपाधि त्राता और वर्मा ,वैश्य की उपाधि भूति और दत्त
तथा शूद्रों को दास उपाधि से सम्बोधित करना चाहिए ।
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अत: वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ।
कृष्ण यदु वंशी थे ।
अत:" यदोर्पत्यं इति यादव " अर्थात् यदु की सन्तान ही यादव हैं ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९६ में सूक्त की ऋचा संख्या १३,१४,१५, पर कृष्ण को असुर कहा है ।
और इन्द्र के साथ कृष्ण का युद्ध वर्णन है जो यमुना नदी (अंशुमती) के तलहटी मे कृष्ण गायें चराते हैं ।
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आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या ।।
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. Mahindra K Yadav

    वो कुषाण वंशज था.

    वासुदेव का क्रृष्ण (मतलब कुषाण) कर दीया उससे क्रृषिकार

    बाद मे क्रिश्ना और से कीशन से किसान कर दीया

    जाट, गुज्जर, कुर्मि, अहीर, यादव वो विभाजन तो आपस मे झगडा लगाने के लिये कीया

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