सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र अहीर लोग-

सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा

                 सत्यनारायणव्रतकथाः विशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

                    ॥ अथ कथा ॥
                    "व्यास उवाच ॥ 

एकदा नैमिषारण्ये ऋषय: शौनकादय: ॥ पप्रच्छुर्मुनय: सर्वे सूतं पौराणिकं खलु ॥१॥                             ऋषय ऊचु:। 

व्रतेन तपसा किंवा प्राप्यते वाञ्छितं फलम् ॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: कथयस्व महामुने ॥२॥                           सूत उवाच। 

नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापित:॥    सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिता:॥३॥ एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्क्षया॥      पर्यटन् विविधान् लोकान् मर्त्यलोकमुपागत:॥४॥ततो दृष्टवा जनान्सर्वान्नानाक्लेशसमन्वितान्॥ नानायोनिसमुत्पन्नान्क्लिश्यमानान् स्वकर्मभि:।५।  केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद ध्रुवम् ।      इति सञ्चिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा॥६॥तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम् । शङखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम् ॥७॥द्दष्टवा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ॥                               -नारद उवाच ॥                          नमो वाङमनसातीतरूपायानन्तशक्तये ॥८॥आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणत्मने ॥ सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने ॥९॥श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत ॥                          -श्रीभगवानुवाच॥                       किमर्थमागतोऽसि त्वं कि ते मनसि वर्तते ॥१०॥कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते ॥                          नारद उवाच ॥              मर्त्यलोके जना: सर्वे नानाक्लेशसमन्विता:॥ नानायोनिसमुत्पन्ना: पच्यन्ते पापकर्मभि:॥११॥

तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद॥ श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि॥१२॥

                   श्रीभगवानुवाच॥

साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकाङ्क्षया ॥ यत्कृत्वा मुच्यते मोहात्तच्छृणुष्व वदामि ते॥१३॥

व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मर्त्ये च दुर्लभम् ॥      तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाश:क्रियतेऽधुना॥१४॥

सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग्विधानत:॥        कृत्वा सद्य:सुखं भुक्त्त्वापरत्र मोक्षमाप्नुयात्॥१५॥

 तच्छुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत् ॥                             "नारद उवाच ॥

किंफलं किंविधानं च कृतं केनैव तद् व्रतम्॥१६॥
तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्यं हि तद व्रतम्॥ दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ॥१७॥

सौभाग्यसन्ततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम्।      यस्मिन् कस्मिन्दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धासमन्वित:।१८।

सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे॥ ब्राह्मणैर्बान्धबैश्चैव सहितो धर्मतत्पर:॥१९॥

नैवेद्यं भक्तितो दद्यात्सपादं भक्तिसंयुतम् ॥ रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णाकम् ॥२०॥

अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा च गुडस्तथा ।     सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत् ॥२१॥

विप्राय दक्षिणां दद्यात्कथां श्रुत्वा जनै: सह ॥ ततश्च बन्धुभि: सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत् ॥२२॥

प्रसादं भक्षयेद्भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत् ॥    ततश्च स्वगृहं गच्छेत्सत्यनारायणं स्मरन् ॥२३॥

एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ विशेषत: कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले ॥२४॥

श्री व्यासजी ने कहा- एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि हजारों ऋषि-मुनियों ने पुराणों के महाज्ञानी श्री सूतजी से पूछा कि वह व्रत-तप कौन सा है, जिसके करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है। हम सभी वह सुनना चाहते हैं। कृपा कर सुनाएँ। श्री सूतजी बोले- ऐसा ही प्रश्न नारद ने किया था। जो कुछ भगवान कमलापति ने कहा था, आप सब उसे सुनिए।

परोपकार की भावना लेकर योगी नारद कई लोकों की यात्रा करते-करते मृत्यु लोक में आ गए। वहाँ उन्होंने देखा कि लोग भारी कष्ट भोग रहे हैं। पिछले कर्मों के प्रभाव से अनेक योनियों में उत्पन्न हो रहे हैं। दुःखीजनों को देख नारद सोचने लगे कि इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर किया जाए। मन में यही भावना रखकर नारदजी विष्णु लोक पहुँचे। वहाँ नारदजी ने चार भुजाधारी सत्यनारायण के दर्शन किए, जिन्होंने शंख, चक्र, गदा, पद्म अपनी भुजाओं में ले रखा था और उनके गले में वनमाला पड़ी थी।

नारदजी ने स्तुति की और कहा कि मन-वाणी से परे, अनंत शक्तिधारी, आपको प्रणाम है। आदि, मध्य और अंत से मुक्त सर्वआत्मा के आदिकारण श्री हरि आपको प्रणाम। नारदजी की स्तुति सुन विष्णु भगवान ने पूछा- हे नारद! तुम्हारे मन में क्या है? वह सब मुझे बताइए। भगवान की यह वाणी सुन नारदजी ने कहा- मर्त्य लोक के सभी प्राणी पूर्व पापों के कारण विभिन्न योनियों में उत्पन्न होकर अनेक प्रकार के कष्ट भोग रहे हैं।

यदि आप मुझ पर कृपालु हैं तो इन प्राणियों के कष्ट दूर करने का कोई उपाय बताएँ। मैं वह सुनना चाहता हूँ। श्री भगवान बोले हे नारद! तुम साधु हो। तुमने जन-जन के कल्याण के लिए अच्छा प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से व्यक्ति मोह से छूट जाता है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ। यह व्रत स्वर्ग और मृत्यु लोक दोनों में दुर्लभ है। तुम्हारे स्नेहवश में इस व्रत का विवरण देता हूँ।

सत्यनारायण का व्रत विधिपूर्वक करने से तत्काल सुख मिलता है और अंततः मोक्ष का अधिकार मिलता है। श्री भगवान के वचन सुन नारद ने कहा कि प्रभु इस व्रत का फल क्या है? इसे कब और कैसे धारण किया जाए और इसे किस-किस ने किया है। श्री भगवान ने कहा दुःख-शोक दूर करने वाला, धन बढ़ाने वाला। सौभाग्य और संतान का दाता, सर्वत्र विजय दिलाने वाला श्री सत्यनारायण व्रत मनुष्य किसी भी दिन श्रद्धा भक्ति के साथ कर सकता है।

सायंकाल धर्मरत हो ब्राह्मण के सहयोग से और बंधु बांधव सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करें। भक्तिपूर्वक खाने योग्य उत्तम प्रसाद (सवाया) लें। यह प्रसाद केले, घी, दूध, गेहूँ के आटे से बना हो। यदि गेहूँ का आटा न हो, तो चावल का आटा और शक्कर के स्थान पर गुड़ मिला दें। सब मिलाकर सवाया बना नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद कथा सुनें, प्रसाद लें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और इसके पश्चात बंधु-बांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।

प्रसाद पा लेने के बाद कीर्तन आदि करें और फिर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए स्वजन अपने-अपने घर जाएँ। ऐसे व्रत-पूजन करने वाले की मनोकामना अवश्य पूरी होगी। कलियुग में विशेष रूप से यह छोटा-सा उपाय इस पृथ्वी पर सुलभ है।


          इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे  सत्यनारायणव्रतकथायां प्रथमोऽध्याय: ॥१॥

                     सूत उवाच॥ अथान्यत्सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विज॥ कश्चित्काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्विप्रोऽतिनिर्धन:॥१॥

क्षुतृडभ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले॥ दू:खितं ब्राह्मणं दृष्टवा भगवान् ब्राह्मणप्रिय:॥२॥

वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात् ॥    किमर्थं अमसे विप्र महीं नित्यं सुदु:खित:॥३॥

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम ॥                          ब्राह्मण उवाच॥                        ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम् ॥४॥
उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ।                              वृद्धब्राह्मण उवाच।                      सत्यनारायणो विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रद:॥५॥
तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम् ॥    यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥६॥
विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य यत्नत:॥ सत्यनारायणो वद्धस्तत्रैवान्तरधीयत ॥७॥
तदव्रतं सङ्करिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै॥      इति सञ्चिन्त्यविप्रोऽसौ रात्रौनिद्रांलब्धवान्।८।
तत प्रात: समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम् ॥      करिष्य इति सङ्कल्प्य भिक्षार्थमगमद् द्विज:॥९॥
तस्मिन्नेव दिने विप्र: प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान्।        तेनैव बन्धुभि: सार्द्धं सत्यस्य व्रतमाचरत्॥१०॥
सर्वदूःखविनिर्मुक्त: सर्वसम्पत्समन्वित:॥        बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रभावत:॥११॥
तत:प्रभृति कालं च मासि मासि व्रतं कृतम्॥      एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तम:॥१२॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् ।      व्रतमस्य यदा विप्रा: पृथिव्यां सङ्करिष्यति॥१३॥
तदैव सर्वदुःखं च मनुजस्य विनश्यति।              एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने॥१४॥
मया तत्कथितं विप्रा: किमन्यत्कथयामि व:॥                               ऋषय ऊचु:।                          तस्माद्विप्राच्छ्रुतं केन पृथिव्यां चरितं मुने॥    तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: श्रद्धास्माकं प्रजायते॥१५॥
                       सूत उवाच॥                         
श्रृणुध्वं मुनय: सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि ॥          एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरै:॥१६॥

बन्धुभि:स्वजनै: सार्धं व्रतं  कर्तुं समुद्यत:॥ एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत्॥१७॥
बहि:काष्ठं च संस्थ्याप्य विप्रस्य गृहमाययौ॥ तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रंकृत व्रतम्॥१८॥
प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया ॥      कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद्वाद मे प्रभो ॥१९॥
                   विप्र उवाच॥                              सत्यनारायणस्येदं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम् ॥          तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत् ॥२०॥
तस्मादेतद् व्रतं ज्ञात्वा काष्ठविक्रेतातिहर्षित:॥      पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ ॥२१॥
सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत् ॥          काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद्‌धनम् ॥२२॥
तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम् ॥            इतिसञ्चिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके॥२३॥
जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थिति: ॥      तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ॥२४॥
तत: प्रसन्नहृदय: सुपक्वं कदलीफलम् ॥ शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम्॥२५॥
कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ ॥        ततो बन्धून्समाहूय चकार विधिना व्रतम् ॥२६॥
तदव्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्।    इहलोके सुखं भुंक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥२७॥


सूत जी बोले – हे ऋषियों ! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास कहता हूँध्यान से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था।  भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था।  ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा – हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते होदीन ब्राह्मण बोला – मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ।  भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ।

हे भगवन् ! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो कृपाकर बताइए।  वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो।  इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।  वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए।  ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है मैं उसे अवश्य करूँगा।  यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नीँद नहीं आई।

वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। जिससे उसने बंधु-बाँधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत संपन्न किया। भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया। उसी समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा।

इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा। सूत जी बोले कि इस तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा। हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँऋषि बोले – हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को कियाहम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है। सूत जी बोले – हे मुनियों ! जिस-जिस ने इस व्रत को किया हैवह सब सुनो ।

एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बाँधवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ। उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला लकड़हाड़ा आया और लकड़ियाँ बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा ब्राह्मण को व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं तथा इसे करने से क्या फल मिलेगाकृपया मुझे भी बताएँ।ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है।इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है।

विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ ।चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्रीसत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा। मन में इस विचार को ले लकड़हारा सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ धनी लोग ज्यादा रहते थे। उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिला ।

लकड़हारा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केलेशक्करघीदूधदही और गेहूँ का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने अपने बंधु-बाँधवों को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला गया।

        इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां द्वितीयोऽध्याय:॥२॥
                 सूत उवाच ॥                              पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥            पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासी:महामति:॥१॥
जितेन्द्रिय: सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति ॥        दिने दिने धनं दत्वा द्विजान्सन्तोषयत्सुधी:॥२॥
भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती ॥ भद्रशीला नदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत् ॥३॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेक: समागत: ॥ वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकै: परिवारित: ॥४॥
नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति ॥          दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वित:॥५॥
                   साधुरुवाच ॥                            किमिदं कुरुषे राजन्भक्तियुक्तन चेतसा ॥      प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्॥६॥
                    राजोवाच ॥                        पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजस: ॥            व्रतं च स्वजनै: सार्वं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया॥७॥
भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधु: प्रोवाच सादरम् ॥      सर्वं कथय मे राज्यन्करिष्येऽहं तवोदितम् ॥८॥
ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्॥    ततो निवृत्य वाणिज्यात्सानन्दो गृहमागत:॥९॥
भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्ततिदायकम् ॥        तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे सन्ततिर्भवेत् ॥१०॥
इति लीलावतीं प्राह पत्नीं साधु: स सत्तम:॥ एकस्मिन्दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती॥११॥
भर्तृयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्मपरायणा ॥  गर्भिणी साऽभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादत:॥१२॥
दशमे मासि वै तस्या: कन्यारत्नमजायत ॥        दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी॥१३॥
सम्ना कलावति चेति तन्नामकरण कृतम् ॥        ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वच:॥१४॥
न करोषि किमर्यं वै पुरा सङ्कल्पितं व्रतं॥                               साधुरुवाच॥                            विवाहसमये त्वस्या: करिष्यामि व्रतं प्रिये ॥१५॥
इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति॥          तत: कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि॥१६॥
दृष्ट्वा कन्यां तत: साधुर्नगरे सखिभि:सह॥ मन्त्रयित्वा द्रुतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्॥१७॥
विवाहार्थे च कन्याया: वरं श्रेष्ठं विचारय ॥ तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काञ्चनं नगरं ययौ ॥१८॥
तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो हि स: ॥       दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालंवणिक्पुत्रं गुणान्वितम्॥१९॥
ज्ञातिभिर्बन्धुभि: सार्धं परितुष्टेन चेतसा ॥    दत्तवान् साधु: पुत्राय कन्यां विधिविधानत:॥२०॥
ततो भाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम् ॥ विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टेऽभवत्प्रभु:॥२१॥
तत: कालेन नियतो निजकर्मविशारद:॥ वाणिज्यार्थं तत:शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्।२२।
रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपत:॥ वाणिज्यमकरोत्साधुर्जामात्रा श्रीमता सह॥२३॥
तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च॥  एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायण:प्रभु:॥२४॥
भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान् ॥      दारुणं कठिनं चास्य महद दुःखं भविष्यति॥२५॥
एकस्मिन्दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्कर:॥        तत्रैव चागतश्चौरो वणिजौ यत्र संस्थितौ॥२६॥
तत्पश्चाद्धावकान् दूतान्‌ दृष्ट्वा भीतेन चेतसा ॥ धनं संस्थाप्य तत्रैव स तु शीघ्रमलक्षित:॥२७॥
ततो दूता:समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्॥  दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बदध्वाऽऽनीतौ वणिक्सुतौ॥२८॥
हर्षेण धावमानाश्च ऊचुर्नृपसमीपत:॥            तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय प्रभो॥२९॥
राज्ञाऽऽज्ञप्तास्तत: शीघ्रं दृढं बदध्वा तु तावुभौ ॥ स्थापितौ द्वौमहादुर्गे कारागारेऽविचारत:॥३०॥
मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वच: ॥ अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना ॥३१॥
तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदुःखिता ॥ चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम् ॥३२॥
आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपासातिदुःखिता ॥ अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे ॥ कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम् ॥३३॥
एकस्मिन्दिवसे जाता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम् ॥ गत्वाऽपश्यद व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च॥३४॥
उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं प्रार्थितवत्यपि । प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति ॥३५॥
माता कलावतीं कन्यां कथयामास प्रेमत: ॥      पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते ॥३६॥
कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्॥ द्विजालये व्रतं मातर् दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम् ॥३७॥
तच्छत्वा कन्यकावाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यता ॥      सा तदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च ॥३८॥
व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभि: स्वजनै: सह ॥ भर्तृजामातरौ क्षिप्रमागच्छेतांस्वामाश्रमम् ॥३९॥
अपराधं च मे भर्तुर्जामातु: क्षन्तुमर्हसि ।      व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायण: पुन:॥४०॥
दर्शयामास स्वप्नं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥    बन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम ॥४१॥
देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाधुना ॥              नो चेत्त्वां नाशयिष्यामि सराज्यं धनपुत्रकम्॥४२॥
एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत्प्रभु:॥      तत: प्रभातसमये राजा च स्वजनै: सह ॥४३॥
उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति॥      वृद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचयद्वौ वणिक्सुतौ॥४४॥
इति राज्ञो वच:श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ॥ समानीय नृपस्याग्रे प्राहुस्ते विनयान्विता:॥४५॥
आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्तो निगडबन्धनात् ॥ ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥४६॥
स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविह्वलौ॥          राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वच:प्रोवाच सादरम्॥४७॥
दैवात्प्राप्तं महद्दुःखमिदानीं नास्ति वै भयम्॥      तदा निगडसंत्यागं क्षौरकर्माद्यकारयत् ॥४८॥
वस्त्रालङ्कारकं दत्वा परितोष्य नृपश्च तौ॥ पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोषयद् भृशम॥४९॥
पुराऽऽनीतं तु यद्- द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान् । प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो निजाश्रमम्।५०।
राजानं प्रणिपत्याह गन्तव्यं त्वत्प्रासादत:॥ इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतु: स्वगृहं प्रति॥५१॥

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सूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियोंअब आगे की कथा कहता हूँ। पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था। राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा


हे राजन ! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैंमैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएँ। राजा बोला – हे साधु ! अपने बंधु-बाँधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला – हे राजन ! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा। मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुनव्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया। साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा।
साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। दिनोंदिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा। एक दिन लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया हैआप इस व्रत को करिये। साधु बोला कि हे प्रिये ! इस व्रत को मैं उसके विवाह पर करुँगा।

इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचनपुर नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु-बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे।

एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से दो चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था। राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बाँधकर राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैंआप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया ।

और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया। श्रीसत्यनारायण भगवान के श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई।

माता ने कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़तेरे मन में क्या हैकलावती ने अपनी माता से कहा – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें। श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए ।

और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि – हे राजन ! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो। अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए। प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ।

दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा मीठी वाणी में बोला – हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।


     इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोऽध्याय:॥३॥

                  सूत उवाच॥                                यात्रां तु कृतवान् साधुर्मङ्गलायनपूर्विकाम् । ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ ॥१॥
कियद दूरे गते साधौ सत्यनारायण: प्रभु:॥ जिज्ञासां कृतवान् साधो किमस्ति तव नौ स्थितम्।२।
ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै  ॥        कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां नेतुं किमिच्छसि।३।
लतापत्रादिकं चैव वर्तने तरणौ मम ॥            निष्ठुरं च वच: श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वच:॥४॥
एवमुक्त्वा गत: शीघ्रं दण्डी तस्य समीपत:॥ कियद् दूरे ततो गत्वा स्थित: सिन्धुसमीपत:॥५॥
गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा ॥ उत्थितां तरणिं द्दष्ट्वा विस्मयं परमं ययौ ॥६॥
दृष्ट्वा लतादिकं चैव मूर्छितो न्यपतद भुवि ॥ लब्धसंज्ञो वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत् ॥७॥
तदा तु दुहितु: कान्तो वचनं चेदमब्रवीत् ॥      किमथ क्रियते शोक: शापो दत्तश्च दण्डिना॥८॥
शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं चात्र न संशय:। अतस्तच्छरणं यामो वाञ्छितार्थो भविष्यति॥९॥
जामातुर्वचनं श्रत्वा तत्सकाशं गतस्तदा ॥      दृष्ट्वा च दण्डिनं भक्तया नत्वा प्रोवाच सादरम्।१०।
क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ॥            एवं पुन: पुनर्नत्वा महाशोकाकुलोऽभेवत्॥११॥
प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च॥          मा रोदी:श्रृणु मद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुख:॥१२॥
ममाज्ञया च दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं मुहुर्मुहु:॥      तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं कर्तुं समुद्यत:॥१३॥
                      साधुरुवाच॥                           त्वन्मायामोहिता: सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकस:॥     न जानन्ति गुणान् रूपं तवाश्चर्यमिदं प्रभो॥१४॥
मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया॥    प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरै:॥१५॥
पुरा वित्तं च तत्सर्वं त्राहि मां शरणागतम् ॥      श्रत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दन:॥१६॥
वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रैवान्तर्दधे हरि: ॥          ततो नौकां समारुह्य द्दष्ट्वा वित्तप्रपूरिताम्॥१७॥
कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम॥ इत्युक्त्वा स्वजनै:सार्द्धं पूजांकृत्वा यथाविधिम्।१८।
हर्षेण चाभवत्पूर्ण:सत्यदेवप्रसादत:।              नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम्॥१९॥
साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरी मम ॥              दुतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम्॥२०॥
दूतोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च॥ प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यंनत्वा बद्धाञ्जलिस्तदा।२१।
निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक् ॥ आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च बहुभिर्युत:॥२२॥
श्रुत्वा दूतमुखाद्वाक्यं महाहर्षवती सती ॥ सत्यपूजां तत: कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति॥२३॥
व्रजामि शीधमागच्छ साधुसंदर्शनाय च ॥          इति मातृवच: श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समाप्य च॥२४॥
प्रसादं च परित्यज्य गता सापि पतिं प्रति।          तेन रुष्ट: सत्यदेवो भर्तारं तरर्णि तथा॥२५॥
संहृत्य च धनै: सार्द्धं जले तस्यावमज्जयत् ॥ तत: कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम् ॥२६॥
शोकेन महता तत्र रुदती चापतद भुवि ॥             दृष्ट्वा तथाविधां नावं कन्यां च बहुदु:खिताम्।२७।
भीतेन मनसा साधु: किमाश्चर्यमिदं भवेत् ॥ चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहका: ॥२८॥
ततो लीलावती कन्यां दृष्ट्वा सा विह्वलाभवत् ॥ विललापातिदुःखेन भर्तारं चेदमब्रवीत्॥२९॥
इदानीं नौकया सार्द्धं कथं सोऽभूदलक्षित:॥        न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता ॥३०॥
सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते ॥ इत्युक्त्वा विललापैव ततश्व स्वजनै:सह ॥३१॥
ततो लीलावती कन्यां क्रोडे कृत्वा रुरोद ह॥      तत: कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दुःखिता॥३२॥
गृहीत्वा पादुकां तस्यानुगन्तुं च मनो दधे॥ कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्य: सज्जनो वणिक्।३३।
अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित् ॥        हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया॥३४॥
सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरै: ॥      इति सर्वान्समाहूय कथयित्वा मनोरथम्॥३५॥
नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुन: पुन: ॥ ततस्तुष्ट: सत्यदेवो दिनानां परिपालक:॥३६॥
जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सल: ॥        त्यक्त्वा प्रसादं ते कन्या पर्ति द्रष्टुं समागता॥३७॥
अतोऽदृष्टोऽभवत्तस्या: कन्यकाया: पतिर्ध्रुवम् ॥ गृहं गत्वाप्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत्पुन:।३८।
लब्धभर्त्री सुता साधो भविष्यति न संशय:॥ कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात्।३९॥
क्षिप्रं तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा॥        सा पश्चात्पुनरागत्य ददर्श स्वजनं पतिम् ॥४०॥
तत: कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति ॥      इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम् ॥४१॥
तच्छुत्वा कन्यकावाक्यं सन्तुष्टोऽभूद्वणिक्सुत: ॥ पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानत:॥४२॥
धनैर्बन्धुगणै: सार्धं जगाम निजमन्दिरम् ॥ पौर्णमास्यां च सङ्क्रा:तौकृतवा:सत्यपूजनम्।४३।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥४४॥

चतुर्थोऽध्यायः – 

सूतजी बोले- साधु नामक वैश्य मंगल स्मरण कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देअपने घर की ओर चला। अभी कुछ दूर ही साधु चला था कि भगवान सत्यनारायण ने साधु वैश्य की मनोवृत्ति जानने के उद्देश्य सेदंडी का वेश धरवैश्य से प्रश्न किया कि उसकी नाव में क्या है। संपत्ति में मस्त साधु ने हंसकर कहा कि दंडी स्वामी क्या तुम्हें मुद्रा (रुपए) चाहिए। मेरी नाव में तो लता-पत्र ही हैं। ऐसे निठुर वचन सुन श्री सत्यनारायण भगवान बोले कि तुम्हारा कहा सच हो।

इतना कह दंडी कुछ दूर समुद्र के ही किनारे बैठ गए। दंडी स्वामी के चले जाने पर साधु वैश्य ने देखा कि नाव हल्की और उठी हुई चल रही है। वह बहुत चकित हुआ। उसने नाव में लता-पत्र ही देखे तो मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। होश आने पर वह चिंता करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा ऐसे शोक क्यों करते हो। यह दंडी स्वामी का शाप है। वे दंडी सर्वसमर्थ हैं इसमें संशय नहीं है। उनकी शरण में जाने से मनवांछित फल मिलेगा।

दामाद का कहना मानवैश्य दंडी स्वामी के पास गया। दंडी स्वामी को प्रणाम कर सादर बोला। जो कुछ मैंने आपसे कहा था उसे क्षमा कर दें। ऐसा कह वह बार-बार नमन कर महाशोक से व्याकुल हो गया। वैश्य को रोते देख दंडी स्वामी ने कहा मत रोओ। सुनो! तुम मेरी पूजा को भूलते हो। हे कुबुद्धि वाले! मेरी आज्ञा से तुम्हें बारबार दुःख हुआ है। वैश्य स्तुति करने लगा। साधु बोला- प्रभु आपकी माया से ब्रह्मादि भी मोहित हुए हैं। वे भी आपके अद्भुत रूप गुणों को नहीं जानते।

हे प्रभु! मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं माया से भ्रमित मूढ़ आपको कैसे पहचान सकता हूं। कृपया प्रसन्न होइए। मैं अपनी सामर्थ्य से आपका पूजन करूंगा। धन जैसा पहले था वैसा कर दें। मैं शरण में हूं। रक्षा कीजिए। भक्तियुक्त वाक्यों को सुन जनार्दन संतुष्ट हुए। वैश्य को उसका मनचाहा वर देकर भगवान अंतर्धान हुए। तब वैश्य नाव पर आया और उसे धन से भरा देखा। सत्यनारायण की कृपा से मेरी मनोकामना पूर्ण हुई हैयह कहकर साधु वैश्य ने अपने सभी साथियों के साथ श्री सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा प्राप्त कर साधु बहुत प्रसन्न हुआ। नाव चलने योग्य बना अपने देश की ओर चल पड़ा।

अपने गृह नगर के निकट वैश्य अपने दामाद से बोला- देखो वह मेरी रत्नपुरी है। धन के रक्षक दूत को नगर भेजा। दूत नगर में साधु वैश्य की स्त्री से हाथ जोड़कर उचित वाक्य बोला। वैश्य दामाद के साथ तथा बहुत-सा धन ले संगी-साथी के साथनगर के निकट आ गए हैं। दूत के वचन सुन लीलावती बहुत प्रसन्न हुई। भगवान सत्यनारायण की पूजा पूर्ण कर अपनी बेटी से बोली। मैं पति के दर्शन के लिए चलती हूं। तुम जल्दी आओ अपनी मां के वचन सुन पुत्री ने भी व्रत समाप्त माना।

प्रसाद लेना छोड़ अपने पति के दर्शनार्थ चल पड़ी। भगवान सत्यनारायण इससे रुष्ट हो गए और उसके पति तथा धन से लदी नाव को जल में डुबा दिया । कलावती ने वहां अपने पति को नहीं देखा। उसे बड़ा दुख हुआ और वह रोती हुई भूमि पर गिर गई। नाव को डूबती हुई देखा। कन्या के रुदन से डरा हुआ साधु वैश्य बोला- क्या आश्चर्य हो गया। नाव के मल्लाह भी चिंता करने लगे। अब तो लीलावती भी अपनी बेटी को दुखी देख व्याकुल हो पति से बोली।


इस समय नाव सहित दामाद कैसे अदृश्य हो गए हैं। न जाने किस देवता ने नाव हर ली है। प्रभु सत्यनारायण की महिमा कौन जान सकता है। इतना कह वह स्वजनों के साथ रोने लगी। फिर अपनी बेटी को गोद में ले विलाप करने लगी। वहां बेटी कलावती अपने पति के नहीं रहने पर दुखी हो रही थी। वैश्य कन्या ने पति की खड़ाऊ लेकर मर जाने का विचार किया। स्त्री सहित साधु वैश्य ने अपनी बेटी का यह रूप देखा। धर्मात्मा साधु वैश्य दुख से बहुत व्याकुल हो चिंता करने लगा। उसने कहा कि यह हरण श्री सत्यदेव ने किया है। सत्य की माया से मोहित हूं।

सबको अपने पास बुलाकर उसने कहा कि मैं सविस्तार सत्यदेव का पूजन करूंगा। दिन प्रतिपालन करने वाले भगवान सत्यनारायण कोबारंबार प्रणाम करने पर प्रसन्न हो गए। भक्तवत्सल ने कृपा कर यह वचन कहे। तुम्हारी बेटी प्रसाद छोड़ पति को देखने आई। इसी के कारण उसका पति अदृश्य हो गया। यदि यह घर जाकर प्रसाद ग्रहण करे 
और फिर आए। तो हे साधु! इसे इसका पति मिलेगा इसमें संशय नहीं है। साधु की बेटी ने भी यह आकाशवाणी सुनी।

तत्काल वह घर गई और प्रसाद प्राप्त किया। फिर लौटी तो अपने पति को वहां देखा। तब उसने अपने पिता से कहा कि अब घर चलना चाहिए देर क्यों कर रखी है। अपनी बेटी के वचन सुन साधु वैश्य प्रसन्न हुआ और भगवान सत्यनारायण का विधि-विधान से पूजन किया। अपने बंधु-बांधवों एवं जामाता को ले अपने घर गया। पूर्णिमा और संक्रांति को सत्यनारायण का पूजन करता रहा। अपने जीवनकाल में सुख भोगता रहा और अंत में श्री सत्यनारायण के वैकुंठ लोक गयाजो अवैष्णवों को प्राप्य नहीं है और जहां मायाकृत (सत्यरजतम) तीन गुणों का प्रभाव नहीं है।


        इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्याय:॥४॥




        श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे अन्तर्गते सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्मोऽध्याय: प्रारम्भ ॥४॥

सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र अहीर लोग-

सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा

                 सत्यनारायणव्रतकथाः विशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

                    ॥ अथ कथा ॥
                    "व्यास उवाच ॥ 



                     सूत उवाच॥ 

अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥ आसीत्तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥१॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप स:॥  एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्पशून् ॥२॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् ॥    गोपा:कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबान्धवा:।३॥राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:॥      ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्या सर्वे यथेप्सितम् ॥ तत: प्रसादं सन्त्यज्य राजा दुःखमवाप स: ॥५॥तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् ॥ सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६॥अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम् ॥      मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह ॥ भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥८॥
सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ॥        इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥९॥
य इदं कुरुने सत्यव्रतं परमदुर्लभम् ॥          श्रुणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तांफलप्रदाम्।१०।

धनधान्यादिकं तस्य भवेत्सत्यप्रसादत: ॥        दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥११॥
भीतो भयात्प्रसुच्येत् सत्यमेव न संशय:॥    ईप्सितं च फलं भुक्त्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्।१२।
इति व: कथितं विप्रा; सत्यनारायणव्रतम् ॥ यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥१३॥
विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा ॥ केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥
सत्यनारायणं केचित्सत्यदेवं तथापरे ॥ नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद: ॥१५॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:॥ श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥
य इदं पठते नित्यं श्रृणोति मुनिसत्तमा: ॥        तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादत:॥१७॥
व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च ॥          तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥१८॥
शतानन्दो महाप्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणो ह्मभूत ॥ तम्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह।१९।
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह ॥ तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥२०॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् ॥ श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥
धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् ॥ देहार्धं क्रकचैश्छित्वा दत्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥
तुङ्गध्वजो महाराज: स्वायम्भुरभवत्किल॥      सर्वान्भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्।२३।

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँउसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया।


लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।

तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।

सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा  कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।

 इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायः समाप्तः ॥ 

          इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्याय:।५।  इति श्रीसत्यनारायणकथा समाप्त।।

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सत्यनारायण व्रत कथा करवाने का संकल्प किए हुए व्रती को प्रातः उठकर नित्यक्रिया से निवृत होकर दिनभर व्रत (उपवास)करे। संध्याबेला (शाम)को पुजा करने वाली स्थल को गोबर से लीप कर धान्य या आटा(रंगोली)से सुंदर चौंक बनावे,उस पर पाटा रख दें । गौरी-गणेश ,नवग्रह ,कलश की स्थापना,पूजन  करें। फिर इन्द्रादि दशदिक्पालपंच लोकपाल,लक्ष्मी-नारायणमहादेव-पार्वती और ब्रह्मा-सरस्वतीजी की पूजा करें। तत्पश्चात् पाटा पर सत्यनारायण भगवान  या शालिग्राम रखें पाटा के चारों कोर पर केलापत्ता लगा देवें। पूजन की समस्त सामाग्री,आटे या सूजी से बना प्रसाद या पंजरी इकट्ठा कर आचार्य को बुलवाकर  सत्यनारायण भगवान का पूजन करें  व व्रत कथा का श्रवण करेंआरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। आचार्य को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। आचार्य के भोजन के पश्चात् उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं समस्त कुटुम्बसहित  भोजन करें।

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श्रीसत्यनारायण जी की

        श्रीसत्यनारायण  की आरती 

जय लक्ष्मी रमणाजय श्रीलक्ष्मी रमणा ।सत्यनारायण स्वामी जन – पातक – हरणा ।। जय ।।टेक 
रत्नजटित सिंहासन अदभुत छबि राजै ।       नारद करत निराजन घंटा-ध्वनि बाजै ।। जय ।।
प्रकट भये कलि-कारणद्विजको दरस दियो । बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो ।। जय ।।
दुर्बल भील कठारोजिन पर कृपा करी । चन्द्रचूड़ एक राजाजिनकी बिपति हरी ।। जय ।।
वैश्य मनोरथ पायोश्रद्धा तज दीन्हीँ ।  सो फल फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं ।जय । 
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रुप धरयो । श्रद्धा धारण कीनीतिनको काज सरयो ।। 
जय ।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी । मनवाँछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी ।। जय ।।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफलमेवा । धूप –दीप – तुलसी से राजी सत्यदेवा ।। जय ।। 
सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै । तन मन सुख संपत्ति मन वांछित फल पावै ।। जय॥