शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

जादौन चारण बंजारे


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जादौन जन-जाति के आयाम -



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अभी तक जादौन , राठौर और भाटी आदि राजपूत जाति अथवा संघ को लोग प्राय:  पुष्य-मित्र सुंग कालीन पुरोहितों के द्वारा लिखित काल्पनिक  स्मृतियों ते  हबाले से अहीरों को शूद्र तथा म्लेच्‍छ अथवा दस्यु के रूप में दिखाते रहते हैं । 

परन्तु उनका तो पौराणिक ग्रन्थों में किसी प्रकार का भी इतिहास नहीं है क्यों कि इनका आगमन भी परवर्ती काल में हुआ ह ।

आभीर ,गोप और यादव यद्यपि परस्पर समानार्थक व पर्यायवाची विशेषण रूप में पुराणों में प्रयुक्त हुए हैं। अधिकतर गोप शब्द और यादव शब्द का बहुतायत से प्रयोग हुआ है । 
आभीर शब्द गोपोंं के लिए केवल सभी पुराणों में तेरह वार ही आया है।

( विशेषत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड _ नान्दीपुराण_ लक्ष्मीनारायण संहिता_ और स्कन्द पुराण तथा गर्गसंहिता)

क्यों कि पुरोहितों ने यादवों का इतिहास विकृत करने के लिए यह उपक्रम किया। 
और यदि आभीरों को दस्यु ,दास या म्लेच्‍छ कहा तो कम इतिहास कार ही जानते हैं कि वैदिक सन्दर्भों में यदु और तुर्वशु को तत्कालीन वैदिक पुरोहितों ने भी दास / दस्यु कहा यद्यपि वैदिक सन्दर्भों में दास _दाता का भी वाचक है।

परवर्ती वैदिक ऋचाओं में कृष्ण तक को अदेव ( देवों को न मानने वाला कहा है। अदेवीनाम् पद का भाष्य सायण ने असुर ही किया है । परन्तु सायण ये भूल गये कि असुर शब्द भी वेदों में प्रज्ञावान् और प्राणवान भी है।

ऋग्वेद का अष्टम मण्डल देखें इसके लिए पुराणों से पूर्व छान्दोग्य उपनिषद् तथा कौषीतकी ब्राह्मण में भी कृष्ण का उल्लेख है । तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं क्यों कि पुराणों या स्मृतियों ने जिन वेदों को आपना उपजीव्य माना है उनमें भी यदु और तुर्वशु को दास,दस्यु और असुर तक कहकर वर्णित किया है। 

जैसे- ऋग्वेद में वर्णन है। वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम ग्रन्थ है। 
और जिसके सूक्त ई०पू० २५०० से १५००तक के काल का दिग्दर्शन करते हैं।

इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ वर्णन हुआ है। 
वह भी दास अथवा असुर और गोप रूपों में दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ जो हुआ ।

देव संस्कृति के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है। न कि गुलाम या पराधीन से 
परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।

(ईरानीयों की भाषाओं में दास (दाहे) रूप में नेता या दाता का वाचक है। दास शब्द दा धातु मूलक अर्थ है ।
-जैसे दानव ,सुदानव , दास आदि ये सभी दाता के वाचक हैं । 

देव का अर्थ चमकना था परन्तु दानव और दास से प्रभावित होकर दान मूलक हो गया।

यादवों के आदिम पुरुष यदु के विषय में देखें---निम्न 👇
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।

वह भी गोपों को रूप में अब कुछ भक्त ये विचार करें कि दास का अर्थ सेवक या नौकर है तो वेदों में दास असुरों को कहा।
और असुर ईरानी भाषा में अहुर है ।
 देखें---ऋग्वेद में यदु के विषय में👇

 " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०)

यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन दौनों सौभाग्य शाली दासों की प्रशंसा करते हैं । 
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। गो-पालक ही गोप होते हैं अन्यत्र ऋग्वेद में प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में भी हुआ है। 👇
 
प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:। नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
 (ऋग्वेद ७/१९/८ )

यह ऋचा  भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो । और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो। और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो। और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है। देखें---👇
 
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।    अवाहन् नवतीर्नव ।१।                                 पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
 (ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२) 

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । 
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १। 
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया। यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे। 
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया । यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी👇(सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२)
 हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला । 
अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । 👇 " किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/)
 ८९/३/ हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । तुम मुझे क्षीण न करो । यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे । 

यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है । 
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति । यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है । 

ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु ऐसे स्थान पर रहते थे।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
 यह स्था (उष+ ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से इस पशु की ऊँट संज्ञा )।
 (ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । 👇 “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् देखें---ऋग्वेद में 

(शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे । राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६। उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् । श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।)

 👇  यदुवंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६। पुराणों में भी वेदों के आधार पर किंवदन्तियों और काल्पनिकताओं के आधार पर लिखा गया । 
चलिए अहीरों को हमने दिखाया आज इन अहीरों के प्रतिद्वन्द्वीयों का भी इतिहास देख लो ____________________________________

जैसे जादौन (जिसे जादोैं के रूप में भी जाना जाता है) राजपूतों के एक कबीले (गोत्र) से सम्बद्ध हैं। 
जादौन मूलतः बंजारा समुदाय रहा है । एक खानाबदोश समुदाय, सैनी (माली) जाति का एक समूह और भारत में यह जादौं कुर्मी जाति की एक उपजाति को भी सन्दर्भित करता है। 

पहले हम नीचे भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्रीयों व लेखकों जैसे  एस.जी. देवगांवकर (S.G.DeoGaonkar) और उनकी सहायिका शैलजा एस. देवगांवकर के द्वारा लिखी बंजारा जन-जाति के गहन सर्वेक्षण पर आधारित पुस्तक से उद्धरण पेश करेंगे "
 "भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3" से कुछ अंश उद्धृत करते है.
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 💐"Sociologist Deu Gaonkar and his assistant Shelaja Gaonkar Wrote in his book. - which publishes books and lives on history.👇
 "Mathurias ,Labhans and Dharias are The Charans Banjara , Who are more in numbers and important Among The Banjara are Divided into Five main class viz. Rathod, Panwar, Chauhan, puri and Jadon or Burthia. Each Class Sept is Divided into a Number of Sub-Septs  Among Rathods The important Sub-sept of Bhurkiya called After The Bhika, Rathod Which is Again sub-divided into four groups viz Merji, Mulaysi, Dheda and Khamdar( The Groups based on the four son of Bhika Rathod ) ⛑ The Mathuriya Banjara already referred to Aabove derive their name from mathura and are supposed to be bramins Whith The secred thread ceremony monj. They are who called Ahiwasi. The third Devision the Labhans Probably  Derived  Their from Labana i.e. Salt Which they used to Carry from place to place Another etymology relate the Lava The son of Lord Rama chandra connecting lineage to him . 
The Dharis( Dhadis) are The bards of the caste who get the lowest rank According to their story, their ancestor was a disple  of Guru Nanak (The Sikh guru) Whith whom The Attended a feast given by mughal Emperor humanyun . There he ete cow flesh and conseguently become a muhmmedan and and was circumcised . 
He worked as a musicians at mughal court .his son joined at the Charans and became the Bards of the banjaras. the Dharias are musicians and mendicants . 
they worship sarswati and their marriage offer a he-got to Gagi and Gandha. 
The two sons of original bhat who become Muhammedan.  
From the used tahsil of Yeotmal District. where both he  sub-Groups of Rathods viz. the bada Rathod and The chhota Rathod are present the following clans are reported Bada -Rathod : (1-khola 2-Ralot 3- Khatrot 4- Gedawat 5- Raslinaya 6- Didawat . Chhota- Bajara (1-Meghawat 2- Gheghawat 3-Ralsot 4- Ramavat 5-Khelkhawat 6- Manlot 7-Haravat 8-Tolawat 9-Dhudhwat 10- Sangawat 11- Patolot .. These two types are from the Charans banjara Alternativly are called "Gormati" in the area Another set of reported from the area are .. 
"The Banjara caste and tribe of India -3 "  writer S.G.DeoGaonkar Shailja S. Deogaonkar . इसी का हिन्दी रूपान्तरण निम्न है 👇 ______________________________________________ 
भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3" लेखक  एस .जी.देवगॉनकर (S.G.DeoGaonkar) और शैलजा एस. देवगांवकर
अध्याय द्वितीय पृष्ठ संख्या- 18-
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 यद्यपि जादौन शब्द राजस्थानी भाषा में जादव का रूपान्तरण है । कुछ जादौन राजपूत स्वयं को करौली के यदुवंशी पाल ( आभीर) राजाओं का तो वंशज मानते हैं ; परन्तु अहीरों से पीढ़ी दर पीढ़ी घृणा करते रहते हैं । दर असल मुगल काल में ये लोग मुगलों से जागीरें मिलने के कारण ठाकुर उपाधि धारण करने लगे । और ब्राह्मणों ने इनका राजपूती करण करके इन्हे मूँज के जनेऊ पहनायी और इन्हें तभी क्षत्रिय प्रमाण पत्र दे दिया। तब से अधिकतर बंजारे क्षत्रिय हो गये और ब्राह्मण धर्म का पालन करने लगे । ठाकुर शब्द भी तुर्को के माध्यम से ईसा की नवम शताब्दी में प्रचलित होता है । यह मूलत: ताक्वुर (tekvur) रूप में है। --जो संस्कृत कोश कारों ने ठक्कुर के रूप स्वीकार कर लिया। 
विदित हो कि बाद में प्रत्येक वर्ग को राठौड़ों बंजारों के बीच कई उप-वर्गों में विभाजित किया गया है। अब राठौर और राठौड़ --जो अलग अलग रूपों में दो जातियाँ बन गयी हैं ।
 वे भी मूलत: एक ही थे एक राजपूत के रूप में हैं तो दूसरी बंजारे के रूप में। आज भी हैं । ऐसे ही जादौनों का हाल हुआ है-।
 जादौन --जो बंजारे थे वे मुगलों के प्रभाव में ठक्कुर हो गये । 
इसी प्रकार गौड और गौड़ जन-जातियों के भेद इतना ही नहीं अहीरों की शाखा गुज्जर और राजपूतों की गुर्ज्जरः दो हैं 'वह भी इसी प्रकार हुआ एक अपने को रघुवंश से सम्बद्ध मानते रहे हैं तो दूसरे नन्द या वृषभानु गोप अथवा अहीरों से सम्बद्ध मानते रहे हैं । क्यों कि राधा और वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री को अपने गुज्जर कबीले की मानने वाले अहीरों से सम्बद्ध हैं। यद्यपि  पाश्चात्य इतिहास कार दोनों को जॉर्जिया गुर्जिस्तान से भी सम्बद्ध मानाते हैं।
 इसी प्रकार जाट और जट्ट दो रूप हैं । जट्ट गुरूमुखी होकर गुरूनानक के अनुयायी हैं और जाट मुसलमान और हिन्दु रूप में भी हैं । दर -असल  महाभारत के कर्ण पर्व में बल्ख अफगानिस्तान में तथा ईरान में रहने वाले जर्तिका जन -जाति-के रूप में हैं --जो पंजाब के अहीरों से सम्बद्ध हैं वास्तव में जर्तिका शब्द पूर्व रूप में संस्कृत चारतिका का रूपान्तरण है।)ते हैं ।👇
महाभारत कार ने चारतिका का रूपान्तरण जर्तिका कर दिया ।
क्यों कि ये चरावाहों का समुदाय था । जिसे पाश्चात्य इतिहास विदों ने आर्य्य कहा ।
गुर्ज्जरः तो गौश्चर का परवर्ती रूपान्तरण है ही । विदित हो कि आज जाट और गुर्जर एक संघ बन चुके हैं जिनमें चन्द्र वंशी और सूर्यवंशी तथा अग्निवंशी के रूप में अनेक समानान्तर गोत्र मिलते हैं। 
(अब बात करते हैं कि जादौन शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई👇
 यद्यपि ये जादौन यदुवंशी की अफगानिस्तान के जादौन पठानों से निकली हुई शाखा है । तब ये लोग मुसलमान नहीं थे क्यों इस्लाम का उदय सातवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ। जादौन पठान जो स्वयं को वनी- इज़राएल अर्थात्‌ यहूदियों के वंशज मानते हैं वे भी भारत नें आये विदित हो कि । जूडान शब्द से ही जादौन शब्द बनता है |
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Judah Hebrew name יְהוּדָה (Yehudah), probably derived from יָדָה  (yadah) meaning "praise".
 In the Old Testament Judah is the fourth of the twelve sons of Jacob by Leah, and the ancestor of the tribe of Judah. An explanation for his name is given in Genesis 29:35. 
His tribe eventually formed the Kingdom of Judah in the south of Israel.
 King David and Jesus were among the descendants of him and his wife Tamar. 
This name was also borne by Judah Maccabee, the Jewish priest who revolted against Seleucid rule in the 2nd century BC, as told in the Books of Maccabees. 
The name appears in the New Testament using the spellings Judas  and Jude.
 See All Relations · 
Show Family Tree Related Names Other Languages & CulturesIoudas(Biblical Greek) Yehudah(Biblical Hebrew) Iudas(Biblical Latin) Jude(English) Yehuda, Yehudah(Hebrew) Yidel, Yudel(Yiddish) jadon. judan. यहूदा  हिब्रू नाम( יahהוּדָה )(येहुदा), शायद י (ה (यादा) से लिया गया है जिसका अर्थ है "प्रशंसा"।
 संस्कृत धातु यज् का रूपान्तरण  हिब्रू यदअ रूप है ।
हिब्रू में प्राय धातु त्रि- अक्षर वाली होती है । पुराने नियम में यहूदा, लियॉ /दियॉ द्वारा याकूब के बारह बेटों में से चौथा और यहूदा के गोत्र का पूर्वज है।
हिब्रू बाइबिल उत्पत्ति खण्ड 29:35 में उनके नाम के लिए स्पष्टीकरण दिया गया है। 
उसकी जमात ने अंततः इस्राएल के दक्षिण में यहूदा राज्य का गठन किया। राजा दाऊद और यीशु उसके और उसकी पत्नी तामार के वंशजों में से थे। विदित हो कि यदु की एक पत्नी का वर्णन भारतीय पुराणों में ताम्रा या ताम्रिका मिलता है। 
 यह नाम नए नियम में वर्तनी यहूदा और यहूदा का उपयोग करता हुआ दिखाई देता है।
संबंधित नाम अन्य भाषाएँ और संस्कृति याउदस- (बाइबिल ग्रीक) येहुदा (बाइबिल हिब्रू)  इदस- (बाइबिल लैटिन) जूडा (अंग्रेजी) येहुदा, येहुदा (हिब्रू) येल्ड, युडेल (येदिश) जुदान( judan) अत: जादौन रूपान्तरण यादौं का भी है । 
व्रज भाषा और राजस्थान में इसलिए ये भी यदुवंश की ही एक यायावर शाखा मान्य होगयी थी।
कालान्तरण में इन्होंने करौली रियासत के पाल उपाधि धारक यदुवंशी शासकों को अपनाया।
पाल केवल अहीरों का गो-पालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है। 
धेनुकर(धनगर )इन्हें की शाखा थी परन्तु अब ये लोग स्वयं को वघेला राजपूत कहते हैं । 

क्यों कि संस्कृत समें धेनु का अर्थ गाय है । अर्थात्‌ धेनुकर = गोपालक। 
(अन्यत्र भी पश्चिमीय एशिया के संस्कृतियों में पॉल और गेडेरी शब्द चरावाहों के लिए रूढ़ हैं। जिसका विश्लेषण हम अन्यत्र पोष्ट में कर चुके हैं। हिब्रू बाइबिल में पॉल ईसाई मिशनरीयों की उपाधि रही है --जो वपतिस्मा या उपनयन संस्कार कराते थे ।
और मूलतः ये ईसाई भी  यहूदियों से ही सम्बद्ध थे । भारतीय चारण या भाट बंजारों में --जो जादौन हैं उनकी निकासी जादौन पठानों की मणिकार या मनिहार शाखाओं से है जो मुगलकाल में रियासतो के उत्तराधिकारी हुए। 
( जादौनों के बाद के भूरिया नामक महत्वपूर्ण उप-वर्ग, राठौड़ों में है; जिसे फिर से चार समूहों में उप-विभाजित किया गया है , मुलसेई ,खेड़ा, खामदार और भीका ये राठौड़ के चार पुत्रों पर आधारित समूह) है ।
 राजस्थान का (भीकानगर )ही बीकानेर हो गया ।
 मथुरिया बंजारों का पहले ही ऊपर  उल्लेख किया है जो उनका नाम मथुरा से सम्बद्ध होता है और माना जाता है कि वे धार्मिकों  के रूप में थे। 
ब्राह्मणों ने इन्हें मूँज का यज्ञोपवीत पहनाया। ये ही कालान्तरण में ब्राह्मण धर्म के संरक्षक हुए ये ही लोग अपने को करौली से जोड़ने लगे । 
जिन्हें आज जादौं करते हैं । ये लोग वीर और सुन्दर होते हैं ।
तीसरा विभाजन  लावनांश या लबना (लवण)यानि साल्ट से सम्बद्ध है। जो लवण (नमक)एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए इस्तेमाल किया था ! ये लोग फिर लव से स्वयं को सम्बद्ध मानने लगे । लव भगवान राम के पुत्र हैं , जो लावांस को इस लव के वंश से जोड़ते हैं। धारीस (धादी) जाति के गोत्र हैं। सबसे निचली रैंक( श्रेणि) प्राप्त करें उनकी कहानी के अनुसार, उनके पूर्वज गुरु नानक (सिख गुरु) के एक शिष्य थे !
 जिनका साथ मुगल सम्राट हुमायूं ने दिया था। वहाँ वह गाय का मांस खाते है और शंकुधारी होकर मुसलमान बन जाते हैं और उसका खतना कर दिया जाता है। 
फिर उन्होंने मुगल दरबार में एक संगीतकार के रूप में काम किया। यह भाट चारणों में शामिल होकर अन्त में बंजारों का आश्रय बन गये। 
वे धारी संगीतकार अथवा गायक हैं। वे सरस्वती की पूजा करते हैं और उनके विवाह की एक भेंट बकरा ,गगी और गन्ध से होती है। 

🚶🐂 मूलतः इसके  दो पुत्र जो भाट थे मुसलमान बने। ये ओतमल जिले की प्रयुक्त तहसील से सम्बद्ध हैं । जहाँ दोनों ने राठौड़ों के उप-समूह मे स्वयं को समायोजित किया हैै -जिन्हें इतिहास कारों ने १- बड़ा राठौड़ और २- छोटा राठौड़ रूपों में प्रस्तुत किया है। 
इनके निम्नलिखित कबीले बताए गए हैं देखें नीचे👇 
(बड़ा-राठौड़: (1-  खोला 2-रालोट 3- खटरोट 4- गेडावत 5- रसलिनया 6- डिडावत। 
छोटा- राठौड़-बंजारा (१-मेघावत २- घेघावत ३-रालसोत ४- रामावत ५-खलखावत ६- मनलोत--हारावत । -तोलावत ९-धुधावत १० संगावत ११- पटोलोट ।
ये दो प्रकार के हैं चारण बंजारे वैकल्पिक रूप से क्षेत्र में गोरमती कहा जाता है। 
वास्तव आज  बंजारों का रूपान्तरण राजपूतों के रूप में है। ये प्राय: कुछ भूबड़िया के रूप में भी हैं 
। --जो चीमटा फूकनी आदि बनाये हैं। ___________________________________________
 उद्धृत अंश भारत की बंजारा जाति और जनजाति -3" लेखक S.G.DeoGaonkar शैलजा एस. देवगांवकर पृष्ठ संख्या- (18)चैप्टर द्वितीय... ___________________________________________

भरतपुर के जाट जिन्हें अपना पूर्वज मानते हैं । धर्म्मपाल के बाद पैंतालीसवाँ पाल शासक अर्जुन पाल हुआ ।ये सभी पाल शासक पाल उपाधि का ही प्रयोग करते थे । क्यों कि इनका विश्वास था कि हमारे पूर्व पुरुष यदु ने गोपालन की वृत्ति को ही स्वीकार किया था । अतः पाल उपाधि गौश्चर गोप तथा अभीरों की आज तक है ।

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यादवों का व्रज क्षेत्र की परिसीमा करौली का इतिहास--- धर्म्मपाल से लेकर अर्जुन पाल तक ---- प्रस्तुति-करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"

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संस्कृत व हिन्दी वर्णमाला का ध्वनि वैज्ञानिक विवेचन नवीनत्तम गवेषणाओं पर आधारित ----- यादव योगेश कुमार "रोहि"

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हिन्दी वर्णमाला का वैज्ञानिक विवेचन (संशेधित संस्करण)

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कृष्ण और राधा एक परिचय                           वैदिक धरातल पर " _________________________________________

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यादव इतिहास

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