जादौन जन-जाति के आयाम -
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अभी तक जादौन , राठौर और भाटी आदि राजपूत जाति अथवा संघ को लोग प्राय: पुष्य-मित्र सुंग कालीन पुरोहितों के द्वारा लिखित काल्पनिक स्मृतियों ते हबाले से अहीरों को शूद्र तथा म्लेच्छ अथवा दस्यु के रूप में दिखाते रहते हैं ।
परन्तु उनका तो पौराणिक ग्रन्थों में किसी प्रकार का भी इतिहास नहीं है क्यों कि इनका आगमन भी परवर्ती काल में हुआ ह ।
आभीर ,गोप और यादव यद्यपि परस्पर समानार्थक व पर्यायवाची विशेषण रूप में पुराणों में प्रयुक्त हुए हैं। अधिकतर गोप शब्द और यादव शब्द का बहुतायत से प्रयोग हुआ है ।
आभीर शब्द गोपोंं के लिए केवल सभी पुराणों में तेरह वार ही आया है।
( विशेषत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड _ नान्दीपुराण_ लक्ष्मीनारायण संहिता_ और स्कन्द पुराण तथा गर्गसंहिता)
क्यों कि पुरोहितों ने यादवों का इतिहास विकृत करने के लिए यह उपक्रम किया।
और यदि आभीरों को दस्यु ,दास या म्लेच्छ कहा तो कम इतिहास कार ही जानते हैं कि वैदिक सन्दर्भों में यदु और तुर्वशु को तत्कालीन वैदिक पुरोहितों ने भी दास / दस्यु कहा यद्यपि वैदिक सन्दर्भों में दास _दाता का भी वाचक है।
परवर्ती वैदिक ऋचाओं में कृष्ण तक को अदेव ( देवों को न मानने वाला कहा है। अदेवीनाम् पद का भाष्य सायण ने असुर ही किया है । परन्तु सायण ये भूल गये कि असुर शब्द भी वेदों में प्रज्ञावान् और प्राणवान भी है।
ऋग्वेद का अष्टम मण्डल देखें इसके लिए पुराणों से पूर्व छान्दोग्य उपनिषद् तथा कौषीतकी ब्राह्मण में भी कृष्ण का उल्लेख है । तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं क्यों कि पुराणों या स्मृतियों ने जिन वेदों को आपना उपजीव्य माना है उनमें भी यदु और तुर्वशु को दास,दस्यु और असुर तक कहकर वर्णित किया है।
जैसे- ऋग्वेद में वर्णन है। वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम ग्रन्थ है।
और जिसके सूक्त ई०पू० २५०० से १५००तक के काल का दिग्दर्शन करते हैं।
इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ वर्णन हुआ है।
वह भी दास अथवा असुर और गोप रूपों में दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ जो हुआ ।
देव संस्कृति के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है। न कि गुलाम या पराधीन से
परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।
देव का अर्थ चमकना था परन्तु दानव और दास से प्रभावित होकर दान मूलक हो गया।
यादवों के आदिम पुरुष यदु के विषय में देखें---निम्न 👇
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
वह भी गोपों को रूप में अब कुछ भक्त ये विचार करें कि दास का अर्थ सेवक या नौकर है तो वेदों में दास असुरों को कहा।
और असुर ईरानी भाषा में अहुर है ।
देखें---ऋग्वेद में यदु के विषय में👇
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन दौनों सौभाग्य शाली दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। गो-पालक ही गोप होते हैं अन्यत्र ऋग्वेद में प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में भी हुआ है। 👇
प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:। नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
यह ऋचा भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो । और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो। और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो। और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है। देखें---👇
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया। यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया । यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी👇(सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२)
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । 👇 " किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/)
८९/३/ हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । तुम मुझे क्षीण न करो । यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
(शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे । राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६। उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् । श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।)
👇 यदुवंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६। पुराणों में भी वेदों के आधार पर किंवदन्तियों और काल्पनिकताओं के आधार पर लिखा गया ।
चलिए अहीरों को हमने दिखाया आज इन अहीरों के प्रतिद्वन्द्वीयों का भी इतिहास देख लो ____________________________________
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