वर्ण-व्यवस्था की प्रक्रिया का वर्णन करने वाले ऋग्वेद के पुरुष सूक्त की वास्तविकताऐं ।
वैदिक भाषा (छान्दस्) और लौकिक भाषा (संस्कृत) को तुलनानात्मक रूप में सन्दर्भित करते हुए --
प्रस्तुति करण:-यादव योगेश कुमार "रोहि"
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ऋग्वेद को आप्तग्रन्थ एवं अपौरुषेय भारतीय रूढि वादी ब्राह्मण समाज सदीयों से मानता आ रहा है ।
वेदों के सूक्तों को ईश्वरीय विधान के रूप में भारतीय समाज पर आरोपित किया गया ।
यद्यपि ऋग्वेद के अनेक सूक्त प्राचीनत्तम हैं ---जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन संस्कृतियों की पृष्ठ-भूमि को आलेखित करती है ।
मैसॉपोटमिया की संस्कृतियाँ आधुनिक ईरान तथा ईराक की प्राचीनत्तम व पूर्व इस्लामिक संस्कृतियाँ थीं ।
वस्तुत: भारत और ईरानी समाज में वर्ग -व्यवस्था तो थी ।
परन्तु वर्ण -व्यवस्था कभी नहीं रही ।
हम्बूरावी कि विधि संहिता में भी समाज का व्यवसाय परक -तीन वर्गों में विभाजन था ।
इधर भारतीय धरातल पर आगत देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने वेदों का प्रणयन किया जिसमें स्केण्डिनेवियन संस्कृतियों तथा अजरवेज़ान आर्यन-आवास की संस्कृतियाँ की धूमिल स्मृतियाँ अवशिष्ट थी
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के 90 वें सूक्त का 12 वीं ऋचा में शूद्रों की उत्पत्ति ईश्वर (विराट् पुरुष)के पैरों से करा कर ; उनके लिए आजीवन ब्राह्मण के पैरों तले पड़े रहने का कर्तव्य नियत कर दिया गया ।
जो वस्तुत ब्राह्मण समाज की स्वार्थ-प्रेरित परियोजना थी
निश्चित रूप से इससे बड़ा संसार का कोई जघन्य पाप- कर्म मानवता के प्रति नहीं था ।
शूद्रों के लिए धार्मिक मान्यताओं की मौहर लगाकर ब्राह्मणों के पद-प्रणति परक दासता पूर्ण विधान पारित किये गये थे।
कि शूद्र आजीवन ब्राह्मण तथा उनके अंग रक्षक क्षत्रियों के पैरों की सेवा करते रहें ।
... उनके पैरों के लिए जूते ,चप्पल बनाते रहें ... यह निश्चित रूप से ब्राह्मण की बुद्धि -महत्ता नहीं थी!
अपितु चालाकी , पूर्ण कपट और दोखा अथवा प्रवञ्चना थी ।
इस कृत्य के लिए ईश्वर भी इन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा !
और कदाचित वो दिन अब आ भी चुके हैं ।
अब इन व्यभिचारीयों के वंशजों की दुर्गति हो रही है ।
भारत में आगत आर्यों का प्रथम समागम द्रविड परिवार की एक शाखा कोलों से हुआ था ।
जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था ।
ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण - कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ग - व्यवस्था में वर्गीकृत किया था न कि हुत्ती रूप में !
फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में इन चार वर्णों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ---जैसे :-
देखें:---
नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार
१ --- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है ..
२---नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा
३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा
४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही
वास्तर्योशान कहा गया है !!!!
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वास्तर्योशान यह लोग द्रुज थे !
जिन्हे कालान्तरण में दर्जी या दारेजी भी कहा गया है ।
ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी ।
वर्तमान सीरिया , जॉर्डन पैलेस्टाइन अथवा इज़राए, कनान
तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे ।
यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है ।
अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्द आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक यौद्धा कब़ीला है ।
इसके लिए देखें--- हिब्रू बाइबिल का -सृष्टि खण्ड (जेनेसिस)-
शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी ।
पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को सॉडर (Souder ) तथा(Soldier )कहा जाता था । व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से --Celtic genus or tribe of a Scots origin --- which was related to pictus; And Battle waged in war, it was called Shudra (Shooter ) in Europe...
एक स्कॉट्स मूल की कैल्टिक जन-जाति --जो पिक्टों से सम्बद्ध थी ; तथा युद्ध में वेतन लेकर युद्ध करती थी , वह यूरोप में शूद्र कहलाती थी ।
वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था ।
इस कारण ये सॉल्जर कह लाए .. ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।
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Shudras only mastered martial arts. Soldier or warrior in old French was called Soder Souder (Soldier). Originally-derived - One tribe who serves in the army for pay is called Souder .. In fact, gold coins in the Roman culture were called Solidus. Because of this, they called the Soldier. These people were called paintings.
शूद्रों की एक शाखा को पिक्टस कहा गया।
जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये ।
जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है पख़्तो है ।
फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून भी इसी शब्द से सम्बद्ध हैं ।
... क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर सजाते थे ।
ताकि युद्ध काल में व्रण- संक्रमण (सैप्टिक )न हो सके ।
ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे ।
ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे
" The pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland... "
ये लोग यहाँ पर ड्रयूडों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे ।
मैसॉपोटामिया की धरा पर एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है।
जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं ।
बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है ।
यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है।
ये सेमेटिक जन-जाति के थे ; अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा ।
जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।
पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है । चन्द्र शब्द नहीं ...
वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे ; जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ ।
मैसॉपोटामिया की असीरियन (असुर) अक्काडियन, हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डिय संस्कृति भी एक कणिका थी।
भारतीय समाज की सदीयों से यही विडम्बना रही की यहाँ ब्राह्मण समाज ने ( उपनिषद कालीन ब्राह्मण समाज को छोड़कर)
अशिक्षित जनमानस को दिग्भ्रमित करने वाली प्रमाण रूप बातों को बहुत ही सफाई से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है!
लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन करने वाले ग्रन्थ हों सम्भव नहीं !
सब के सब जनता को पथ-भ्रमित करने के लिए एक अतिशयोक्ति और चाटूकारिता पूर्ण कल्पना मात्र हैं,जो लोगों को मानवता के पथ से विचलित कर रूढ़िगत मार्ग पर ले जाती हैं।
जैसे आपका ऋग्वेद जो अपौरुषेय वाणी बना हुआ भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पटल पर दौड़ लगा रहा है ! वह भी पारसीयों ( ईरानीयों) के सर्वमान्य ग्रन्थ जींद ए अवेस्ता का परिष्कृत संस्कृत रूपान्तरण है।
दोनों में काफी साम्य देखने को मिलता है,
-जैसे यम विवस्वत् का पुत्र है ।
वृत्रघ्न , त्रित ,त्रितान अहिदास ,सोम ,वशिष्ठ ,अथर्वा, मित्र आदि को क्रमश यिम, विबनघत ,वेरेतघन ,सित, सिहतान ,अजिदाह ,हॉम वहिश्त ,अथरवा ,मिथ्र आदि
दौनों की घटनाओं का भी समायोजन है ।
ऋग्वेद की प्रारम्भिक ऋचाओं का प्रणयन अजरवेज़ान ( आर्यन-आवास ) रूस तथा तुर्की के समीप वर्ती क्षेत्रों में हुआ ।
और दौनों -ग्रन्थों में जो विषमताएं देखने को मिलती हैं स्पष्टत: वे बहुत बाद की है
और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि-
यही ऋचा यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
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ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
इसमें प्रयुक्त क्रिया (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है ।
नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय लड्. लकार के क्रिया रूप हैं
एक वचनम्द्विवचनम् बहुवचनम् प्रथमपुरुषःअजायत अजायेताम् अजायन्त
मध्यमपुरुषःअजायथाः अजायेथाम् अजायध्वम्
उत्तमपुरुषः अजाये अजायावहि अजायामहि
लड्.( अनद्यतनप्रत्यकष् भूत काल ) लकार का प्रयोग हुआ है ---जो असंगत तथा व्याकरण नियम के विरुद्ध भी है ।
क्योंकि अनद्यतन परोक्ष भूत काल में लिट लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है ।
और लड् लकार का प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरे मन्त्रों में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है ।
वह भी व्याकरण नियम के विरुद्ध ।
लिट् लकार का क्रिया रूप---
प्रथमपुरुषःजज्ञे जज्ञाते जज्ञिरे
मध्यमपुरुषःजज्ञिषे जज्ञाथे जज्ञिध्वे
उत्तमपुरुषःजज्ञे जज्ञिवहे जज्ञिमहे
कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है ।
क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है।
और वेद में सिर्फ और सिर्फ लिट् लकार व लेट् लकार का प्रयोग होता है ।
जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है
इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व में चतुराई से चली गई गहरी साजिश है ।
जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया।
मानव समाज सदैव से दो प्रकार की व्यवस्थाऐं रही हैं, एक जन जातिगत व्यवस्था, दूसरी होती है वर्णगत व्यवस्था।
दोनों एक सीमा के बाद पूर्ण रूप से भिन्न भिन्न हैं ।
जैसे विकास और वृद्धि जहाँ विकास आजीवन या जीवन पर्यन्त
होता है वही वृद्धि केवल परिपक्वता की सम्पूरक के रूप में कुछ निश्चित समय तक होती है ।
'परन्तु समय सापेक्ष दौनों'ने मे दौनों' का समावेश होता है ।
बिल्कुल अलग अलग हैं जातियां अलग अलग हो सकती हैं लेकिन जहाँ जनजातियाँ ऊँच नीच के भेद से रहित पृथक संस्कृति और क्षेत्र विशेष को आत्मसात किये होती हैं ।
वहाँ कृत्रिम रूप से निर्मित वर्णगत व्यवस्था में ऊँच नीच के भावों का समावेश होता है ।
भारतीय समाज में ईसा० पूर्व सप्तम सदी के समकक्ष ईरानी वर्ग व्यवस्था के विकृति-पूर्ण रूप में वर्ण-व्यवस्था का निर्माण तत्कालीन पुरोहितों 'ने समाज में अपना वर्चस्व स्थापित करने क् निमित्त वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया ।
और जिन जनजातियों 'ने पुरोहितों और उनके विधानों के संरक्षक के रूप में स्वीकृति दी वे क्षत्रिय हुए यद्यपि जो ब्राह्मणो के ऊपर एक संरक्षक छत्र के रूप में रहे और जिन्होंने उनके धर्मशास्त्रों स्मृति आदि के विधानों को क्षति पहुँचाने वाले बौद्ध और जैन मतों से त्राण किया रक्षा की वही राजपूती करण के रूप में क्षत्रिय बनाए ।
कई विदेशी आदिवासी या वर्ण संकर जनजातियों को क्षत्रिय वर्ण में समाविष्ट कर दिया, स्वयं ब्राह्मण वर्ण, जिन्होंने इन विधानों को नही माना या विरोध किया उनको शूद्र बोलकर और किसी को वैश्य मानकर वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया
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फालतू बकवास बिना सर पैर के बातें लिखी गयी है ताकि हिन्दू शूद्रों को मूर्ख बनाया जा सके
जवाब देंहटाएंआपने अपने मन की और अपने विचारों के अनुरुप वेद मंत्रों का स्वअर्थ निकाल कर पूर्णतः गलत अर्थ निकाला है।
जवाब देंहटाएंवर्ण व्यवस्था पूर्ण रूप से वर्णन वर्णन वरण पर और लोगों की कार्य क्षमता पर निर्भर थे। ऋग्वेद में कई ऐसे श्लोक हैं जिनमें शूद्रों महिलाओं और बाकी वर्णों को वेद पढ़ने पर उनका प्रसार करने को कहा गया है। ब्राह्मण शुद्र बन सकता है अगर वेद ना पढ़ें और उस तरीके का आचरण ना हो, और शूद्र ब्राह्मण बन सकता है अगर वह वेदों का पठन-पाठन करता है जैसे कि ऋषि विश्वामित्र जो कि एक क्षत्रिय थे लेकिन वेद पठन के बाद वे ब्राह्मण वर्ण में आ गए, लोपामुद्रा जैसी अनेक महिलाओं ने वेद मंत्रों में अपना योगदान दिया, रामचरितमानस के रचयिता कालिदास भी शुद्र थे लेकिन पठन-पाठन के बाद वे ब्राह्मण वर्ण में आए और भी अनेक ऐसे उदाहरण है और वेदों में ऐसे प्रमाण एवं मनुस्मृति में ऐसे प्रमाण है- जो समान अपराध के लिए शुद्रों को जितना दंड मिलता है उसी अपराध के लिए वैश्य को दुगना क्षत्रिय को 4 गुना एवं ब्राह्मणों को 100 गुना से ज्यादा दंड देने का प्रावधान है। कृपया आप अपने सोच के हिसाब से अर्थ ना निकालें।