शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

जीतीय कुण्ठा जिसने समाज के एक तबके को हीन बनाया

आज भी  भारती समाज के रूढ़िवादी जनमानस पर विकृत-पूर्ण जाति व्यवस्था की एक दृढ़ मलिन पर्त जमीं हुई है ।

जो अनुकूल परिस्थितियों में उघड़ कर वातावरण के दुर्गन्ध मय कर देती है ।

आज भी भारतीय मन्दिरों में ब्राह्मणों का वंश मूलक वर्चस्व स्थापित है।
ये विशेष चढ़ावे के केन्द्र और रूढ़िवादी आस्थाओं के केन्द्र हैं ।
75℅ महिलाऐं तथा 50℅ पुरुष समाज धर्म के नाम पर केवल कर्म-काण्ड मूलक पृथाओं में उलझा हुआ है ।

मन्दिरों में वह धनाढ्य वर्ग जो अनेक अनैतिकताओं का राहों पर चलकर अनाप-सनाप मन्दिरों में दान करता हैं
जिसका बहुतायत रूप ब्राह्मणों के प्राप्त होता है ।
क्यों कि वहाँ परम्परागत रूप से ब्राह्मणों का वंश मूलक वर्चस्व स्थापित है ।

देश के कई हिस्सों में आज भी जातीय विशेष अधिकार कायम है जांच के निष्कर्षों से जो तथ्य उद्घाटित होते हैं वह नि:संदेह हमारी सामाजिक विचारधारा को सदियों पीछे धकेल देते हैं !

हमारे समाज शास्त्रियों ने जो पूर्व-दुराग्रह स्थापित किया हैं जो कथन दर्ज कर दिया है कि अब जातियों केवल राजनैतिक तौर पर जीवित हैं।
उनका सामाजिक अस्तित्व समाप्त प्राय है तो यह कथन पूर्णत:  तथ्यों के विपरीत है ।

क्योंकि सत्य पूछा जाए तो भारतीय संस्कृति ग्रामीण स्तर पर बसी हुई है और गांव में आज भी जाति व्यवस्था उसी मूल रूप में कायम है शहर में भी इसकी दुर्गंध कहीं नहीं दिखाई दे जाती है और इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति से यह प्रकाशित होता है कि  जातियों का खात्मा आज भारतीय समाज में नहीं हुआ है यह केवल एक दिवास्वप्न है ।

हमारा मन आज भी सामाजिक तौर पर वहीं है जहां प्रारंभिक और आदिम समाज रहता था ।

सभ्यता और सांस्कृतिक विकास के क्रम में मन का विकास और उसकी विकास यात्रा आज भी कहीं पीछे छूटी हुई है ।

इसीलिए मानव को खौेंसती और  मन को कचोटती ऐसी दुर्घटनाएं आ भी समाज में कई धार्मिक स्थलों पर देखने को मिलती हैं जो हमारे मानवीय स्तर पर हमारी सामाजिक समरसता पर, हमारी सामाजिक व्यवस्था पर और उसके समता मूलक स्तर और उनके अस्तित्व पर एक सवाल खड़ा करती हैं ।
इतिहास को ज्यादा दूर तक अन्वेषण करने की आवश्यकता नहीं आप महाराष्ट्र की सरजमी पर देखिए छत्रपति शिवाजी ने जब महाराष्ट्र के बड़े भूभाग पर शासन स्थापित किया तो महाराष्ट्र का कोई पुरोहित उनका राज्याभिषेक करने को तत्पर नहीं था।

अंत में काशी के गंगा भट्ट नाम के एक ब्राह्मण ने जो बहुत ही रूढ़िवादी और  लालची भी वह बड़ी दक्षिणा के बाद कहीं तैयार हुआ !

लेकिन उन्होंने शिवाजी का राजतिलक हाथ के अंगूठे के बजाय अपने दाहिने पैर के अंगूठे से किया ।

क्योंकि शिवाजी वर्ण-व्यवस्था के सोपान में कहीं से भी क्षत्रिय  नहीं हो रहे थे ।

क्योंकि वह होयशल /घौसले थे जो यादवों का उपवर्ग  था ।
और उनकी माता जाधव  लघूजी राव की पुत्री थीं
1670 ईस्वी की इस घटना ने अपने साथ ऐतिहासिक ग्रंथों में अपने आप पूर्ण हेयता और अपमान पूर्ण रूप में  दर्ज किया है ।

शिवाजी के वंशज छत्रपति शाहूजी महाराज के साथ भी समाज ने ऐसा ही अपमानजनक व्यवहार करने का जो दुष्कर्म किया वह सबको विदित है ।

साहू जी महाराज जब सुबह बाणगंगा में स्नान करने के लिए जाते थे तो उनका कुल पुरोहित वैदिक मंत्रों के स्थान पर पुराण के मंत्र पढ़ता था ।

वह भी बिना स्नान किए हुए ?
क्यों कि उस पुरोहित की दृष्टि में शिवाजी का कुल  कोई गैर क्षत्रिय था

एक दिन शाहूजी महाराज को यह रहस्य पता चला तो उन्होंने पुरोहित का पद प्रजापति समाज के लिए आरक्षित कर दिया ।

और उन्हें संस्कृत पढ़ने के लिए उन्हे काशी भेजा तब से लेकर आज तक कोल्हापुर का कुल पुरोहित प्राजापति समाज है ।
उन्होंने इसी घटना से प्रेरित होकर अपनी विरासत में सर्वप्रथम आरक्षण लागू किया ।

आधुनिक भारत में महात्मा फूले को समाज सुधार का पिता कहा जाता है उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले विद्यालय में बालिकाओं को पढ़ाने के लिए जाती तो रास्ते में ऊपर कूड़ा डाला जाता ।

क्योंकि उन दिनों यह मान्यता थी कि जो बालिकाएं शिक्षा ग्रहण करेंगी तो उनके पति असमय काल कवलित हो जाएंगे ।

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर बाबा साहब ने जब महार सत्याग्रह के तहत तालाब का पानी पिया तो ब्राह्मण समाज द्वारा उस तालाब को शुद्ध किया गया ।

इसी अवसर पर अंबेडकर ने मर्म आहत होकर कहा कि यह कैसा समाज है जो कुत्ते बिल्लियों को तो तालाब में पानी पीने देता है लेकिन इंसान के पानी पीने से अपवित्र हो जाता ।

गैर बराबरी की व्यथा कथा ही अंबेडकर जैसे विद्वान को अपनी धर्म बदलने पर मजबूर करती है ।

ज्ञान के क्षेत्र में में अग्रसर करने के लिए प्रेरित करती है आज जो लोग हिंदू अस्मिता के खतरे में होने की बात कर रहे हैं उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि खतरा इस गैर बराबरी से है या तथाकथित ईसाईइज्म से

आज भी समाज में पुरोहितों का पद जाति विशेष के लिए आरक्षित है और सच पूछा जाए तो यह आरक्षण सदियों से ब्राह्मण समाज का जीविका का आधार रहा है

उसके ऐश्वर्य का और उनकी जीविका का ।
मन्दिर  सदियों से आरक्षित दुकानें रहीं।
उनकी मंदिरों के रूप में स्थापना रही ।
  शंकराचार्य के पद भी ब्राह्मणों के लिए आरक्षित हैं और उसके लिए ब्राह्मण ही होना चाहिए ।

परन्तु निम्न वर्ण- की कन्याऐं देवदासी  के लिए रखी जाती थी ।
लेकिन देवदासियों के रूप में समाज के वंचित तबके से ही बनती थी

आरक्षण जो वञ्चितों की बैशाखी है ।
क्यों कि जिस व्यक्ति के हाथ पैर सदीयों से बँधे हुए हो
उनके अभी हाथ-पैर खोलकर बरावर करके साथ साथ दौड़ाया जाए तो जो सदीयों से बँधे हुए थे वे दौड़ाया वहीं सकते उनके मुकाबले जो सदीयों से स्वतन्त्र रहे ।
और वे जो सदीयों से स्वतन्त्र रहे ।
दौनों तो साथ साथ दौड़ाया जाए

सामाजिक अन्याय को बढ़ावा देने वाले आरक्षण के खिलाफ कोई सुगबुगाहट नहीं देखी जाती निश्चित रूप से इससे   बड़ा षड्यंत्र  और क्या हो सकता है ?

इसके लिए सारे बुद्धिजीवीयों की बुद्धि तो लू मार गयी है ।
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प्रस्तुति करण :- यादव योगेश  कुमार "रोहि"

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