शनिवार, 20 जुलाई 2019
द्वितीय भाग
शहजादा बेदारबख्त और उसके साथ विशाल मुगल सेना के दक्षिण से रवाना होने से पूर्व ही राजाराम ने विशाल टुकड़ी के साथ महावत खां पर धावा बोलकर घेरा डाल दिया। महावत खां रणविद्या में अद्वितीय था। उसने अपने तोपखाना पंक्ति को व्यवस्थित किया और युद्ध के लिए तैयार हो गया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें जाटों के 400 सैनिक खेत रहे जबकि खां के 150 सैनिक काम आए तथा 40 घायल हुए। राजाराम को खां की काफी युद्ध-सामग्री हाथ लगी। राजाराम शीघ्र ही वहां से हट गया और महावत खां पंजाब को चल दिया।
सिकन्दरा की लूट (मार्च 1688 ई०)
औरंगजेब ने अपने चाचा अमीर-उल-उमरा शाइस्ता को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया और उसके आगरा पहुंचने तक मुजफ्फरखां मुहम्मद वाका को आगरा सूबे का प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किया। राजाराम ने इस परिवर्तन का लाभ उठाया। शाइस्ता खां तथा शहजादा बेदारबख्त के आने से पूर्व ही उसने सिकन्दरा को अपना लक्ष्य बनाया। राजाराम ने अपने विशाल सैनिक दल के साथ मार्च 1688 ई० के अन्तिम सप्ताह में एक रात्रि को, अकबर महान् के मकबरा को घेर लिया।
गोकुला की दर्दनाक हत्या से जाट सरदार राजाराम में प्रतिशोध की भावना प्रबल हो उठी थी। उसने तैमूर वंशज अकबर महान् की कब्र को खोदकर सम्राट् औरंगजेब की क्रोधाग्नि को अशान्त कर दिया। सिकन्दरा मकबरा की लूट औरंगजेब कालीन इतिहास में अपना प्रमुख स्थान रखती है। राजाराम ने इस मकबरे को नष्ट करने में बस जरा-सी ही कसर छोड़ी। मनुची का कथन है कि “जाटों ने इस मकबरे के सदर द्वारों पर लगे कांसे के फाटकों को तोड़ डाला। दीवार, छत तथा फर्श में जड़े हुए अमूल्य रत्न और सोने चांदी के पत्तरों को उखाड़ किया। सोने-चांदी के बर्तन, चिराग, मूल्यवान कालीन, गलीचे आदि को लूटकर ले गये। जिन वस्तुओं को वहां से हटाने में असमर्थ रहे, उनको पूर्णतः तोड़-फोड़ कर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। अकबर की भूमिगत समाधि को खोदकर उसकी अस्थियों को बाहिर निकाल कर अग्नि में झोंक दिया। मकबरे की गुम्बजों को पूरी तरह तोड़कर जाट सरदार ने शान्ति का श्वास लिया।” मकबरे का रक्षक मीर अहमद भयभीत होकर चुपचाप यह विनाश देखता रहा। मुगल सेनापति खानजहां बहादुर तथा नायब मुजफ्फरखां मुहम्मद वाका उस समय अकबराबाद (आगरा) के दुर्ग में मौजूद थे, लेकिन उनमें राजाराम का मुकाबिला करने का साहस नहीं था। राजाराम सिकन्दरा से हट गया और आगरा के समीप सम्राट् शाहजहां के मकबरा के प्रबन्ध के लिए पुण्यार्थ जागीर के आठ गांवों को घेरकर बुरी तरह लूटा। महाराजा रामसिंह (जयपुर नरेश) के नाम दरबारी वकील केशोराय का पत्र, पृ० 117 से पता चलता है कि “जहां एक ओर राजाराम मुग़लों की प्रथम राजधानी आगरा में प्रवेश कर रहा था, वहां दूसरी ओर उसने अन्य जाट जमींदारों को दिल्ली-आगरा मार्ग को बन्द करके लूटमार करने का आदेश दिया था। जाटों के एक दल ने इसी समय खुर्जा परगने को लूट लिया जबकि एक अन्य जाट दल ने पलवल के थानेदार को बन्दी बना लिया था। इस प्रकार दिल्ली-आगरा दोनों सरकारों के मध्यवर्ती परगनों में जाटों का विद्रोह प्रबल होने लगा।” ईशरदास (पाण्डुलिपि), पृ० 132-ब पर लेख है कि “अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृतियों के विनाश तथा लूट के समाचार पाकर औरंगजेब को
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-634
भारी ठेस लगी और वह अत्यधिक क्रोधित हुआ। उसने आगरा सूबे के प्रमुख सेनापति खानजहां और नायब मुजफ्फरखां का क्रमशः एक सहस्र तथा पांच सौ सवारों का भत्ता कम कर दिया।”
वीर योद्धा राजाराम के विरुद्ध मुगल-राजपूत संगठन
सिकन्दरा की हृदय विदारक घटना के बाद आलमगीर का पोता शहजादा बेदारबख्त आगरा पहुंचा। उसने बड़ी तत्परता से जाट क्रान्तिकारियों को दबाने के लिए योजना बनाई। उसने आगरा छोड़कर मथुरा को अपनी सैनिक छावनी बनाया और विशाल पैमाने पर सैनिक तथा युद्ध सामग्री एकत्रित की। इस समय आगरा सरकार तथा ब्रजमण्डल की स्थिति विषम तथा भयपूर्ण थी। क्षेत्रीय जनता मुख्यतः ब्राह्मण, राजपूत, गूजर, अहीर, मीणा तथा मेव आदि जाट क्रान्तिकारियों का पूरी तरह साथ दे रहे थे। चारों ओर दूर-दूर तक फैली अराजकता तथा क्रान्ति को दबाना बड़ा कठिन कार्य था।
छावनियों में मुगल सेना और सेना अधिकारी व्याप्त-आतंक से भयभीत थे। यहां तक कि स्वयं बेदारबख्त, खानजहां बहादुर तथा अन्य सेनानायक भी मथुरा छावनी से बाहर निकलने का साहस नहीं कर पाते थे। इन दृश्यों को देखकर नवयुवक शहजादा बेदारबख्त घबरा गया। उसने सम्राट् से अधिक सेना भेजने का आग्रह किया।
सम्राट् ने 28 जनवरी 1688 ई० को आमेर (जयपुर) नरेश रामसिंह को मथुरा की फौजदारी दी और उसको काबुल से वापिस लौटकर राजाराम जाट को पूरी तरह दबाने का फरमान भेजा। इस समय मुगल सरकार रणथम्भोर भी जाट क्रान्ति का शिकार थी और आमेर राज्य की जागीरों के समीप उपद्रव भड़क चुके थे। राजा रामसिंह, औरंगजेब के फरमान का पालन करने में असमर्थ था। अतः अप्रैल 10, 1688 ई० को उसकी मृत्यु निराशा तथा अपमान की स्थितियों में हो गई। अब औरंगजेब ने महाराजा रामसिंह के पुत्र कुँवर बिशनसिंह को टीका भेजकर आमेर राज्य को जागीर में देकर खिलअत तथा मनसब प्रदान किये। इसके बदले में कुंवर बिशनसिंह को ‘जाट विरोधी अभियान’ के संचालन का भार उठाने का लिखित आश्वासन देना पड़ा। इसी तरह हाड़ौती (कोटा-बूंदी) के महाराज और हाड़ा राजपूतों ने शाही आदेश का पालन किया। शेखावटी के जागीरदार साम्राज्य के स्वाधीन मनसबदार थे किन्तु वह स्वयं चौहानों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर रहे थे। इस प्रकार मुगल तथा राजपूतों ने मिलकर राजाराम के विरुद्ध तैयारियां कीं।
चौहान-शेखावत युद्ध में वीर राजाराम की मृत्यु (14 जुलाई 1688 ई०)
मेवात की पहाड़ियां, राजपूताना और ब्रजमण्डल की सीमायें निर्धारित करती हैं। मेवात के इलाके में स्थित बगथरिया तथा अन्य परगनों की भूमि आधिपत्य को लेकर शेखावटी के राजपूत और चौहानों में पिछले कई वर्षों से तनाव चल रहा था। 1688 ई० में यह प्रश्न दोनों राजपूत गोत्रों में भयंकर युद्ध का कारण बन गया। जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 120-122 पर उपेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है कि “राजाराम स्वाभिमानी आर्य पुत्रों का सुयोग्य सरदार, साहसी कुशल सिपाही, निपुण सेनापति तथा धूर्त (जादूगर) राजनयिक था, जिसे क्षेत्रीय हिन्दू मुसलमान दोनों का सहयोग प्राप्त था।” चौहानों ने उसे अपनी सहायता के लिए बुलाया और वह अपनी जाट सेना के साथ इस युद्ध में
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शामिल हुआ। शेखावतों ने मेवात के फौजदार मुरतिजा खां की सहायता की। अतः शहजादा बेदारबख्त, कोकलतास, जफरजंग, उसका पुत्र सिपहदार खां तथा मेवात में उसका नायब शाहजी आदि के साथ शेखावतों की ओर पहुंचा। बूंदी के 22 वर्षीय राव राजा अनिरुद्धसिंह और कोटा के महाराज किशोरसिंह हाड़ा अपने जागीरदारों की सेना के साथ शेखावतों की तरफ इस युद्ध में शामिल हुए। बृहस्पतिवार, 14 जुलाई, 1688 ई० को प्रातःकाल बीजल* गांव के पास चौहान-शेखावत राजपूतों में भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें दोनों ओर के असंख्य सैनिक काम आये। इस युद्ध ने वास्तव में ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ का रूप ले लिया जिसके परिणामस्वरूप चौहानों की अपेक्षा राजाराम को साम्राज्यवादी सेनाओं से भयंकर युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में जाट सवार तथा पैदल सैनिकों ने भीषण रण-कौशल दिखलाया। जाटों ने चारों ओर घुसकर आक्रमण किए और मुगल सेना को रणक्षेत्र में तितर-बितर करते हुए हाड़ा राजपूतों को करारी मात दी। युद्ध-स्थल में राव राजा अनिरुद्ध सिंह घबड़ा गया और अपनी सेना के साथ मैदान छोड़कर भाग गया।
इस युद्ध में अनेक राजपूत सरदार तथा उनके सैनिक काम आये। महाराजा किशोरसिंह के शरीर पर 37 घाव लगे। मूर्च्छित होते ही हाड़ा अंगरक्षक उसको मैदान से उठा ले गये। जब युद्ध अपनी प्रचण्ड तीव्रता पर था, उस समय साहसी राजाराम ने अपने चुनींदा सवारों के साथ शत्रु के गोल में प्रवेश किया और राजपूतों को हटाकर मुगल दस्तों पर टूट पड़ा। जाटों के भयंकर संग्राम को देखकर मुगल सेना विचलित हो गई और स्वयं बेदारबख्त भी घबरा गया। सिपहदार खां के एक अचूक बन्दूकची ने राजाराम के इस शौर्य को देखकर एक पेड़ की आड़ में छिपकर गोली का निशाना लगाया। यह गोली राजाराम की छाती में लगी और वह घोड़े से नीचे गिर गया। उसने रणक्षेत्र में ही 14 जुलाई, 1688 के दिन वीरगति प्राप्त की। इसी युद्ध में रामकी चाहर भी उसी दिन वीरगति को प्राप्त हुआ।
राजाराम के गिरते ही रणक्षेत्र में चारों ओर विजयनाद गूंज उठा और चौहान राजपूतों को रणक्षेत्र छोड़ना पड़ा। औरंगजेब के आदेश पर राजाराम का सिर आगरा की कोतवाली पर लटकाया गया।
राजाराम के बलिदान के बाद एकता निनाद शान्त नहीं हो सका। उसने स्थायी आन्दोलन का रूप लिया। राजाराम ने अपने पीछे निःसन्देह जन जागृति, ठोस स्थायी संगठन का नेतृत्व, धार्मिक सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्वाधीनता प्राप्ति के महान् संकल्प को धरोहर के रूप में सौंपा।
(*) बीजल = बीजल, रेवाड़ी के दक्षिण में 18 मील, [[Alwar|अलवर तहसील में बीजवाड नामक गांव अभी तक आबाद है।
आधार पुस्तकें -
1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 99-123, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा।
2. जाट इतिहास, पृ० 21-23, लेखक के० आर० कानूनगौ।
3. जाट इतिहास, पृ० 631-632, लेखक ठा० देशराज।
4. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 421-432, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
5. महाराजा सूरजमल, पृ० 24-28, लेखक कुंवर नटवरसिंह।
6. महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 22-26, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।
7. इतिहास पुरुष महाराजा सूरजमल, पृ० 10-12, लेखक नत्थनसिंह।
8. भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह जाट, पृ० 4-6, लेखक मनोहरसिंह राणावत।
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वीरशिरोमणि भज्जासिंह
वीर योद्धा राजाराम तथा रामकीचाहर सोगरिया सरदार, दोनों की मृत्यु से सिनसिनवार और सोगरिया जाटों तथा अन्य जातियों के उनके समर्थकों को भारी आघात पहुंचा। राजाराम के पुत्र जाट संघों का नेतृत्व करने में अयोग्य थे। अतः जाट खापों के मुखिया सिनसिनी में एकत्र हुए और उन्होंने राजाराम के पिता, वयोवृद्ध भज्जासिंह से अनुरोध किया कि वह उनका नेतृत्व करे। भज्जासिंह ने न चाहते हुए भी इसे स्वीकार कर लिया।
अपने यशस्वी परदादा अकबर के मकबरे की लूटपाट की खबर सुनकर औरंगजेब का खून खौल उठना स्वाभाविक था। सर जदुनाथ सरकार के लेख अनुसार - “उसने ‘जाट भेड़ियों’ का दमन करने के लिए बिशनसिंह को नियुक्त किया, जिसका हाल ही में आमेर के राजा के रूप में राज्याभिषेक हुआ था।”
राजा बिशनसिंह को मथुरा का फौजदार बनाया गया। उसे जाटों का सर्वनाश करने का काम सौंपा गया और पुरस्कार के रूप में सिनसिनी की जागीर देने का वायदा किया गया। बिशनसिंह इतना अदूरदर्शी था कि उसने सम्राट् को यह आश्वासन दे दिया कि वह सिनसिनी को तुरत-फुरत जीत लेगा और शाही परगनों में जाट-विद्रोह को सदा के लिए समाप्त कर देगा। कालिकारंजन कानूनगो लिखते हैं कि “वह अपने पिता रामसिंह और दादा मिर्जा जयसिंह की भांति ऊंचा मनसब हासिल करने के लिए उतावला हो रहा था।” बिशनसिंह और शहजादा बेदारबख्त की राजपूत-मुगल विशाल सेनायें मथुरा से सिनसिनी गढ़ी पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुईं। सिनसिनी राज्य में उस समय केवल 30 गांव थे। इस गढ़ी के चारों ओर दूर-दूर तक अनेक गढियां बनी हुई थीं। जाट राज्य सिनसिनी पर अधिकार करना कोई आसान कार्य नहीं था। मार्ग में पड़ने वाले जाटों ने शाही सेनाओं पर छापामार युद्ध करके, उनके छक्के छुड़ा दिये। शाही सेनाएं चार मास में सिनसिनी गढ़ी के निकट पहुंच पायीं। वहां पर इन्होंने सिनसिनी गढ़ी से 10 मील पर अपना पड़ाव डाला और सिनसिनी का घेरा दे दिया जोकि एक महीने तक रहा। अब जाटों ने शाही सेना को परास्त करने के लिए छापामार युद्ध करने आरम्भ कर दिये और अवसर देखकर वे शाही सेना पर रात्रि में आक्रमण करने लगे।
ईश्वरदास के अनुसार - “शाही सेना में रसद पहुंचना और तालाब से पानी भरकर ले जाना भी कठिन हो गया। ऐसी परिस्थिति हो गई कि व्यक्ति भूख से अशक्त हो गये और घास के अभाव में पशु इतने कमजोर हो गये कि उनके लिए जमीन से उठना भी कठिन हो गया था।”
सिनसिनी गढ़ी पर प्रथम विफल आक्रमण (जनवरी, 1690 ई०)
साम्राज्यवादी सेनायें दिसम्बर, 1689 ई० में सिनसिनी गढ़ी के आगे पहुंच गई थीं। उनके कारीगरों ने गढ़ी के प्रवेश द्वार को उड़ाने के लिए जनवरी, 1690 ई० के प्रथम सप्ताह में एक गुप्त सुरंग तैयार की, जिसमें बारूद की बोरियां रखकर उड़ाने का प्रबन्ध किया गया था। लेकिन इस सुरंग योजना का पता जाटों को लग गया। उन्होंने रात्रि की काली छाया में पीछे से सुरंग का मुंह पत्थरों व मिट्टी से बन्द कर दिया जिसका मुग़ल तोपचियों को पता नहीं लग सका। प्रातःकाल ज्यों ही मुगल
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तोपचियों ने बारूद में पलीता लगाया, एक भयंकर विस्फोट हुआ और उनका यह प्रयास विफल हो गया। पिछला मुंह बन्द हो जाने के कारण सिनसिनी गढ़ी का प्रवेश द्वार जहां नष्ट होने से बच गया, वहां बारूद की उल्टी मार से सुरंग की छत उड़ गई। साम्राज्यवादियों के विशाल सैनिक दस्ते, तोपखाना सहित अनेकों तोपची, योग्य सेनानायक अग्नि में झुलस गये अथवा धमाके के साथ आकाश में उड़ गये। बेदारबख्त के पक्ष के ऊंट, घोड़े-खच्चर भी बारूद की मार से नहीं बच सके। इस अभियान का मुख्य उत्तरदायित्व राजपूतों पर था और यही साम्राज्यवादी सेना का अग्रभाग था। उसको विशेष क्षति उठानी पड़ी। राजपूतों का सेनापति हरीसिंह खंगारोत बुरी तरह घायल हुआ। भज्जासिंह अपने पोते जोरावर (सुपुत्र राजाराम) के साथ इस अभियान का संचालन कर रहा था। सिनसिनी गढ़ी में जोरावर के नेतृत्व में जाटों का एक छोटा सा रक्षकदल छोड़कर अन्य जाट सरदार गढ़ी से बाहर चले गये। भज्जासिंह सोगर गढ़ी में चला गया, सोगर ब्रजराज की ससुराल थी, उसके परिवार ने वहां शरण ली। चूड़ामन और उसका भाई अतिराम अन्य क्षेत्रों में चले गये। जोरावर का दूसरा भाई फतेसिंह पीगोंरा गढ़ी को शक्तिशाली बना रहा था।
साम्राज्यवादियों ने अपनी विफलता को देखकर भी मैदान नहीं छोड़ा और वे दूसरे आक्रमण की तैयारी में जुट गये।
द्वितीय आक्रमण, सिनसिनी का पतन (जनवरी, 1690 ई०)
साम्राज्यवादियों के कारीगरों तथा सैनिकों ने गढ़ी की दीवार के नीचे तक एक महीने से कम समय में दूसरी सुरंग तैयार की और उसे बारूद की बोरियों से भर दिया। जाटरक्षकों को इसका पता नहीं लग सका। आलमगीर दोआब प्रान्त में जाटों के आन्दोलन को दूसरी सिनसिनी समझने लगा। अतः उसने राजा बिशनसिंह को आदेश दिया कि वह वहां शीघ्र ही अमरसिंह जाट के विरुद्ध अपनी सेनायें रवाना करे। राजा ने जनवरी, 1690 ई० के शुरु में हरीसिंह खँगारोत के नेतृत्व में पांच हजार पैदल और विशाल शाही तोपखाना, यमुना नदी के पार भेजे। राजा बिशनसिंह को स्वयं सिनसिनी अभियान का उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ा। जनवरी, 1690 ई० के अन्त में बारूद में आग लगाई गई, जिससे परकोटा का एक भाग उड़ गया। इस समय गढ़ी रक्षक सैनिक जो परकोटे पर तैनात थे, वे सब मर गये।
विस्फोट शान्त हो जाने के बाद शाही सेनाओं ने चारों ओर से किले में प्रवेश किया, जहां जाट सैनिकों ने अदम्य उत्साह, स्फूर्ति तथा पराक्रम से उनका तीन घण्टे तक सामना किया। वे आत्मसम्मान के साथ आगे बढ़े। एक-एक इंच पर जाट क्रान्तिकारी तथा साम्राज्यवादियों में बल परीक्षा हुई। अन्त में निर्जन गढ़ी पर शत्रुओं का अधिकार हो गया। सिनसिनी दुर्ग के दोनों अभियानों में जाटों के 1500 सैनिक काम आये अथवा घायल हुये। मुगलों के 200 सैनिक तथा राजपूतों के 700 सैनिक मारे गये। सैंकड़ों घायल भूमि पर तड़फ रहे थे। मुगलों ने बाकी जाट दस्तों को तलवार के घाट उतार दिया।
राजा बिशनसिंह का जाटों के साथ संघर्ष (सन् 1690-1695 ई०)
सिनसिनी की विजय के बाद जाटों के विरुद्ध मुगल अभियान की बागडोर कछवाहा राजा बिशनसिंह को सौंप दी गई। बिशनसिंह ने 6 महीनों में जाटों को नष्ट करने का लिखित आश्वासन
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औरंगजेब को दिया था, परन्तु इस कार्य को वह 6 वर्ष में भी पूरा न कर सका। इस अभियान में मिली सफलताओं का श्रेय उसके अतालिक और मुख्य सेनापति हरीसिंह खंगारोत को है, जिसने मृत्युपर्यन्त (सन् 1695 ई०) अनेक युद्धों में अभूतपूर्व साहस एवं क्षमता का प्रदर्शन किया था। दूसरी तरफ जाटों ने अब सिनसिनी को अपनी स्वतन्त्रता का प्रतीक बनाकर सामूहिक नेतृत्व में व्यापक संघर्ष छेड़ दिया। ब्रज (ब्रजराज), उसके पुत्र भावसिंह, अतिराम, चूड़ामन तथा राजाराम के द्वितीय पुत्र फतहसिंह ने सिनसिनी के चारों ओर प्रत्येक गांव को संघर्ष के लिए तैयार किया। दोआब में अमरसिंह जाट और नन्दा जाट ने सिनसिनी के जाटों से सम्पर्क बनाए रखा। अन्य जाति के लोगों ने भी साथ दिया।
सोगर गढ़ी का पतन (मई, 1691) - मई, 1691 ई० में कछवाहा सेना को जाटों के दूसरे सुदृढ़ दुर्ग सोगर में आश्चर्यजनक सफलता मिली। ईश्वरदास लिखता है, “जब कछवाहा राजा सोगर पहुंचा तब संयोग से दुर्ग के दरवाजे अन्न प्रवेश के लिए खुले हुए थे। आक्रमणकारियों ने सरपट अन्दर प्रवेश करके प्रतिरोध करने वालों को मौत के घाट उतारकर 500 विद्रोहियों को बन्दी बना लिया।”
किन्तु अनार गढ़ी साम्राज्यवादी सेनाओं के लिये दूसरी सिनसिनी साबित हुई, जिस पर अधिकार करने के लिए 10 महीने (जून 1691 - फरवरी 1692 ई०) का समय लगा। सन् 1692, वर्षा ऋतु में कासोट व पींगौरा तथा 1693 ई० के आरम्भ में जाटों को सौंख, रायसीस, भटावली आदि गढ़ियां खोनी पड़ीं। सन् 1694 ई० में कछवाहा सेना को आगरा-बयाना क्षेत्र में जाटों के साथ अनेक रक्तरंजित युद्ध करने पड़े। राजा बिशनसिंह का अन्तिम महत्त्वपूर्ण अभियान नन्दा जाट के विरुद्ध था। एक लम्बे और विकट संघर्ष के बाद, जिसके बीच 5 अप्रैल, 1695 ई० को सेनापति हरीसिंह को अपने प्राण खोने पड़े, कछवाहा सेना मई, 1695 ई० में जावरागढ़ी पर अधिकार करने में सफल हुई, फिर भी नन्दा जाट वहां से बच निकला और 1708 ई० तक शाही सेना से संघर्ष करता रहा।
महाराजा बिशनसिंह की विफलता
महाराजा बिशनसिंह ने आमेर राज्य की तीस हजार राजपूत सेनाओं और इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में मुग़ल सेना एवं भारी तोपखाने के साथ मथुरा तथा आगरा जिले के क्रान्तिकारियों का छः वर्ष तक पीछा किया। अगणित योग्य सेनानायक, मनसबदार तथा कछवाहा राजपूतों की प्राणाहुति के बाद भी वह मातृभूमि के सच्चे सेवक जाट सरदारों को जीवित अथवा मृतक किसी भी रूप में नहीं पकड़ सका। उसने आमेर राज्य के बड़े खजाने को तो बुरी तरह बहाया ही, साथ ही अनेक परगनों की प्राप्त आमदनी भी स्वाहा कर दी और इन अभियानों के कारण वह ऋणी हो गया। फौलादी अभियान किसी एक परगने के विद्रोह को दबा सकता था, किन्तु विशाल भूमिखण्ड पर लाखों की संख्या में फैले स्वाभिमानी जाटों को नहीं दबा सकता था। इस क्षेत्र में नियुक्त वरिष्ठ तथा छोटे सभी कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त थे। वे केवल लूटमार में साझीदार ही नहीं थे बल्कि राजपूत राजा की शक्ति प्रसार के भी प्रबल शत्रु थे। जाटों की गुरिल्ला युद्ध नीति एवं वीरता ने राजा बिशनसिंह के पैर न जमने दिये। यद्यपि उसने जाटों की अनेक गढ़ियां जीत
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-639
लीं परन्तु जाटों को कुचलने में तथा उनके किसी एक परगने में अपना राज्य स्थायी करने में वह विफल रहा। औरंगजेब ने उसको जाट अभियान स्थगित कर शीघ्र ही दक्षिण की ओर कूच करने का आदेश दिया। लेकिन सम्राट् ने अपने पुत्र शहजादा मुहम्मद मुअज्जम आलम शाह को जाटों के दबाने के लिए 9 मई, 1695 ई० को आगरा सूबे का वायसराय नियुक्त किया। जनवरी 1696 ई० में बिशनसिंह को मथुरा की फौजदारी से हटाकर मेवात की फौजदारी दी गई। शायस्त खां के ईरानी पुत्र एतकाद खां को मथुरा की फौजदारी मिली। अन्त में महाराजा बिशनसिंह 12 जुलाई, 1696 ई० को, शहजादा आलम के साथ, शाही आदेश के अनुसार, मुलतान को रवाना हो गया। उसने मेवात परगना का प्रबन्ध नायब फौजदार गजसिंह खंगारोत को सौंपा तथा उसे अपने ज्येष्ठ पुत्र जयसिंह का संरक्षक नियुक्त किया। 19 दिसम्बर, 1699 ई० को महाराजा बिशनसिंह की मृत्यु के समाचार के बाद राजपूत अभियानों का पूर्णतः अन्त हो गया।
जाटों का सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार तथा दूसरी बात पतन
सिनसिनी गढ़ी पर साम्राज्यवादियों का अधिकार होने के पश्चात् उसको फिर प्राप्त करने हेतु जाटों ने तैयारियां आरम्भ कर दी थीं। उन्होंने ब्रजराज की अधीनता में संगठित होकर अऊ की गढ़ी में रहने वाले मुगल थानेदार तथा उनके सैनिकों को मारकर वहां पर अपना अधिकार कर लिया। फिर ब्रजराज ने अपने पुत्र भावसिंह को साथ लेकर सिनसिनी गढ़ी पर आक्रमण कर दिया और वहां अपना अधिकार कर लिया। ब्रजराज ने शीघ्र ही इस गढ़ी की मरम्मत शुरु की और लगान रोककर अऊ परगने के आमिल तथा मुगल सैनिकों को मार भगाने में सफलता प्राप्त कर ली। यह घटना सन् 1696 ई० की है।
इससे मुगल सूबेदार तथा फौजदारों में खलबली मच गई। सूबेदार एतकाद खां ने शीघ्र ही मेवात के फौजदार को सिनसिनी पर आक्रमण करने का निर्देश भेजा। उसकी सहायता के लिए उसने आगरा से नियमित सेना भेजी। मुग़लिया सेनाओं ने शीघ्र ही सिनसिनी की गढ़ी को घेरकर आक्रमण किया, जहां ब्रजराज तथा उसके पुत्र भावसिंह ने मेवाती तथा मुगल सेनाओं का जमकर मुकाबला किया। ए० एफ० ओडायर का मत है कि, “इस युद्ध में ब्रजराज स्वयं काम आया और उसका पुत्र भावसिंह दुर्ग के फाटक की रक्षा करते समय पांच खानजादौं (मेवाती मनसबदार) को मारकर वीरगति को प्राप्त हुआ।” ब्रजराज की मृत्यु के बाद उसके भाई वृद्ध भज्जासिंह ने एक बार फिर सिनसिनी को स्वतन्त्र कराने की चेष्टा की। किन्तु उसका यह प्रयास विफल हो गया और
आधार पुस्तकें -
1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 124-186, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा।
2. जाट इतिहास, पृ० 23-24, लेखक कालिकारंजन कानूनगो।
3. महाराजा सूरजमल जीवन और इतिहास, पृ० 24-29, लेखक कुंवर नटवरसिंह।
4. महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 22-28, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत।
5. भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह जाट, पृ० 4-7, लेखक मनोहरसिंह राणावत।
6. जाट इतिहास, पृ० 631-633, लेखक ठा० देशराज।
7. जाटों का उत्कर्ष पृ० 431-432, योगेन्द्रपाल शास्त्री।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-640
1702 में उसकी मृत्यु हो गई। दोनों भाई अपने पीछे भारी उथल-पुथल छोड़ गये। थोड़े ही दिन में जाटों के सुयोग्य नेता के रूप में चूड़ामन जाट उभरे, जिसने कालान्तर में जाट शक्ति को चरम सीमा पर पहुंचा दिया तथा जिसके कारनामे गोकुला, राजाराम, और रामकी चाहर (रामचाहर) से भी आगे बढ़ गये।
युग निर्माता ठाकुर चूड़ामन जाट (1695-1721 ई०)
चूड़ामन अपने पिता ब्रजराज का सुयोग्य पुत्र, भावसिंह का भ्राता तथा वीर राजाराम का चचेरा भाई था। इतिहासकारों ने इसको चूड़ामन, चूरामणि, चूड़ामणि एवं चूरामन नामों से पुकारा है। हम अपने लेख में आपका नाम चूड़ामन लिखेंगे।
चूड़ामन में जाटों जैसी दृढ़ता और मराठों जैसी चतुराई व राजनैतिक दूरदर्शिता कूट-कूटकर भरी हुई थी। कार्यकुशलता तथा अवसरवादिता ही उसके जीवन के प्रमुख अंग थे। वह राजनीति का प्रयोग केवल राजनीति के लिए ही करता था, मानवीय भावनाओं के लिए नहीं। इसी के सहारे उसने औरंगजेब जैसे सम्राट् को नाकों चने चबवाये थे। वही एक ऐसा व्यक्ति था जिसने 18वीं शताब्दी में शत्रुओं का मानमर्दन कर, उत्तरी भारत में जाट शक्ति को भारत की प्रमुख शक्तियों में स्थान दिलाया था। उसी के प्रयत्नों के फलस्वरूप जाटशक्ति का तेजस्वी सितारा उत्तरी भारत के राजनैतिक आकाश में जगमगा उठा था। वीरता तथा बुद्धिमत्ता इन दो गुणों के मेल ने ही चूड़ामन को इस योग्य बनाया कि जाटों की विद्रोही शक्ति को राज्यशक्ति के रूप में बदल सका। सही अर्थों में वह भरतपुर के प्रथम ऐतिहासिक जाटराज्य का निर्माता था।
चूड़ामन ने अपने पिता ब्रजराज के जीवनकाल में रूपवास, बाड़ी, बसेडी, सिरमथरा, बयाना तथा कठूमर के बीहड़ जंगल तथा पहाड़ों में शरण लेकर नवीन छापामार दल संगठित कर लिए थे। इन दलों ने पांच-छः वर्ष तक आगरा, दिल्ली तथा रणथम्भौर मुगल सरकारों के मध्य भाग में लूटमार करके अराजकता को फैलाया। मुगल सरकारों के सूबेदार तथा परगनों के फौजदार क्रान्तिकारी समूह की गतिविधियों को नियन्त्रित रखने में पूर्णतः असफल रहे। अपने पिता ब्रजराज तथा ज्येष्ठ भ्राता भावसिंह की मृत्यु के बाद वह अपने लड़ाकू जाट सैनिकों के साथ कठूमर परगना को छोड़कर अपनी जन्मभूमि (सिनसिनी परगना) में वापिस लौट आया। इस समय समस्त गांवों के सिनसिनवार जाट मुखियाओं की एक पंचायत बैठी और उस पंचायत ने फतेसिंह (सुपुत्र राजाराम) को अयोग्य समझकर चूड़ामन को सिनसिनवार जाट पंचायत का प्रधान निर्वाचित किया। यह पंचायत 1702 ई० के आस-पास हुई थी।
सिनसिनी परगने में आने से पहले चूड़ामन ने अपनी कमान में 500 घुड़सवार और 1000 पैदल सैनिक इकट्ठे कर लिए थे। नन्दा (नन्दराम जाट जो भूरेसिंह का पिता एवं दयाराम और भूपसिंह जो कि हाथरस व मुरसान (मुड़सान) दुर्गों के प्रसिद्ध अधिपति थे, के दादा 100 घुड़सवारों के साथ चूड़ामन के संघ में शामिल हो गया था। चूड़ामन ने व्यापारियों के काफलों तथा परगनों को लूटकर धन तथा सम्पत्ति एकत्रित कर ली थी। इस लूट के माल को जमा करने के लिए उसने आगरा से 48 कोस पर एक स्थान दलदल और गहरे जंगल में बनाया और उसके चारों ओर एक गहरी खाई खोदी। बाद में इसी स्थान पर भरतपुर की स्थापना हुई। इस लूट के माल की रक्षा हेतु चूड़ामन ने
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निकट के गांवों में हिन्दू चमारों को लाकर वहां बसाया और रक्षा का कार्य उनको सौंप दिया। जब उसकी सेना की संख्या 14,000 सैनिकों की हो गई, तब उसने कोटा तथा बूंदी तक के काफलों को लूटकर बड़ी धनराशि प्राप्त की। उसने शाही मार्गों पर दरबार के कई वजीरों तथा शाही तोपखाने व प्रान्तों से भेजे जाने वाले राजस्व को भी लूटा। (इमाद एवं वैंडल के हवाले से, जाट इतिहास, पृ० 25 पर लेखक कालिकारंजन कानूनगो)।
मार्च 1695 ई० में राजपूत सेनापति हरिसिंह के, नन्दा जाट के सैनिकों द्वारा मारे जाने और जुलाई, 1696 ई० में शहजादा बेदारबख्त के साथ राजा बिशनसिंह के काबुल चले जाने पर चूड़ामन को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला । उसने थून1 (जाटौली थून) में सिनसिनी से भी अधिक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करके उसे अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया। सौंख एवं सोगर के जाट भी चूड़ामन के साथ मिल गए। सोगर गढ़ी के सरदार जाट रुस्तम सोगरिया ने अपने सुयोग्य वीर योद्धा पुत्र खेमकरण को ठाकुर चूड़ामन के पास भेज दिया। इस प्रकार इन दो सरदारों ने सिन-सोग को पुनः मजबूत किया। अब चूड़ामन की शक्ति काफी बढ़ गई थी और वह “बिना ताज का जाट राजा” कहलाने लगा।
चूड़ामन का सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार
सिनसिनवार जाटों का नेतृत्व सम्भालने के बाद चूड़ामन का यह उत्तरदायित्य था कि वह अपने जन्मस्थान सिनसिनी को मुग़लों से पुनः मुक्त कराये। अतः उसने 1704 ई० में आक्रमण करके सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार कर लिया और उसकी मरम्मत शुरु की। सिनसिनी की गढ़ी जाटों तथा मुग़लों के बीच में एक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई थी। इस पर अधिकार बनाए रखने के लिए दोनों में आंख-मिचौनी का क्रम चलता रहा। सम्राट् औरंगजेब के आदेश पर आगरा के नाज़िम मुखत्यार खां ने मेवात के फौजदार को साथ लेकर मंगलवार, 9 अक्तूबर, 1705 ई० के दिन सिनसिनी गढ़ी पर अधिकार कर लिया। चूड़ामन गढ़ी से निकल भागने में सफल हुआ। औरंगजेब की मृत्यु (सन् 1707 ई०) के बाद चूड़ामन ने शासन अधिकार की परिवर्तन बेला से लाभ उठाया और सितम्बर 1707 ई० में अपनी जन्मभूमि सिनसिनी पर अधिकार कर लिया। सम्राट् बहादुरशाह के आदेश मिलने पर फौजदार रिजाबहादुर ने बड़ी भारी मुगलिया सेना के साथ सिनसिनी की ओर प्रस्थान किया और कई महीनों के प्रयास के बाद उसे सिनसिनी गढ़ी का घेरा डालने में सफलता मिल सकी। इस समय चूड़ामन अपने सैनिकों के साथ किसी दूसरे स्थान पर था। दिसम्बर 2, 1707 ई० को सिनसिनी गढ़ी के वीर सैनिकों और मुगलिया सेना में भयंकर मुठभेड़ हुई। इस युद्ध में 1000 जाट काम आये और फौजदार रिजाबहादुर के हाथ 10 गाड़ी हथियार लगे। मुगलों का भी भारी नुकसान हुआ। सिनसिनी गढ़ी पर शाही सेना का अधिकार हो गया।
निःसन्देह मनसबदारी के प्रलोभन में यह चूड़ामन का समर्पण था। अवसर मिलने पर चूड़ामन ने सिनसिनी गढ़ी पर फिर अपना अधिकार कर लिया। अब सिनसिनी की गढ़ी, गांव तथा जमींदारी चूड़ामन के हाथ स्थायी रूप से आ गई।
1. सिनसिनी के 8 मील पश्चिम में, आधुनिक डीग कस्बा के पश्चिम में 11 मील पर।
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जाजो (Jajau) युद्ध और चूड़ामन का मनसबदारी प्राप्त करना
सम्राट् औरंगजेब की मृत्यु (फरवरी 20, 1707 ई०) होने पर उसके अयोग्य पुत्रों के मध्य उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ जिसमें अवसरवादी चूड़ामन ने विजेता का ही पक्ष लिया। यह निर्णायक युद्ध औरंगजेब के दो पुत्रों आजम और मुअज्ज़्म ‘शाह आलम प्रथम’ के मध्य, जून 8, 1707 ई० को जाट इलाके में, आगरा के दक्षिण में 20 मील पर जाजो के स्थान में हुआ। इस समय चूड़ामन अपने वीर सैनिकों के साथ युद्ध का रुख देखता रहा और आक्रमण के लिए मौके की तलाश करता रहा। पहले उसने मुअज्जम के कैम्प को लूटा। जब उसने देखा कि आजम हारने लगा है तब मौके का फायदा उठाकर वह भी आजम पर टूट पड़ा और उसके कैम्प को भी लूट लिया। इस लूट के फलस्वरूप चूड़ामन बहुत धनी बन गया। मुग़लों की नकदी, सोना-चांदी, अमूल्य रत्नजड़ित आभूषण, शस्त्रास्त्र, घोड़े, हाथी और रसद उसके हाथ लगे। इस धन के कारण वह जीवन भर आर्थिक चिन्ताओं से बिलकुल मुक्त रहा। इस बारे में कोई सन्देह नहीं कि इस विपुल सम्पत्ति का कुछ भाग सन् 1721 ई० में चूड़ामन की आत्महत्या के पश्चात् ठाकुर बदनसिंह और महाराजा सूरजमल के खजाने में भी पहुंचा। अब चूड़ामन अपने सैनिकों को वेतन दे सकता था, अपने विरोधियों को धन देकर अपने पक्ष में कर सकता था और आवश्यकतानुसार किले बनवा सकता था, थून का दुर्ग इसी धन से बनवाया और सुसज्जित किया गया। जाजो के युद्ध में जाट सिनसिनवारों ने जो सहायता दी थी, उसके उपलक्ष्य में उन्हें भी विजयी सम्राट् बहादुरशाह ने इनाम दिये।
सम्राट् बहादुरशाह द्वारा चूड़ामन को मनसब प्रदान करना (सितम्बर, 1707 ई०)
जाजो युद्ध के बाद विजेता मुअज्जम आलम शाह प्रथम, ‘बहादुरशाह’ की उपाधि धारण करके मुगल साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। उसने आगरा किले में पहुंचकर शत्रु तथा मित्र सभी सरदारों को सम्मानित किया। विरोधी होने पर भी असद खां को निजाम उल्मुल्क आसफ-उद्दौला के खिताब के साथ वकील-ए-मुतलक का उच्च पद दिया।
मुनईम खां को खानखाना का खिताब देकर साम्राज्य का वजीर बनाया और आगरा की सूबेदारी पद पर नियुक्त किया। इस गृहयुद्ध से चूड़ामन ने अत्यधिक लाभ उठाया और कुछ ही क्षणों में उसने अपने पूर्वजों से कहीं अधिक सम्मान तथा विशाल कोष प्राप्त किया। इस युद्ध ने एक साधारण सरदार को मुग़ल साम्राज्य में यथेष्ट स्थान प्राप्त करने का सफल अवसर दिया। इन विद्रोहपूर्ण दिनों में उसकी अपेक्षा करना असम्भव हो गया था।
चूड़ामन ने जाजो युद्ध से वापिस लौटकर न केवल सिनसिनी पर ही अधिकार किया बल्कि ‘दस्तरूल इंसा’ के लेखक ‘यार मोहम्मद’ के अनुसार “आगरा तथा दिल्ली का शाही मार्ग दो महीने तक पूर्णतः बन्द रखा, जिससे हजारों यात्रिओं को अपनी सरायों में ही रुकना पड़ा। इन काफिलों में सुप्रसिद्ध योद्धा अमीन्नुद्दीन सम्भाली की पत्नी भी शामिल थी। उसे भी जाट लुटेरों के कारण मार्ग में दो महीने तक रुकना पड़ा। उसने उपद्रव भी शुरु कर दिये।”
वजीर मुनईम खां अपने पक्ष को प्रबल रखने के लिए अपने शुभचिन्तकों को अपने पक्ष में रखना
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चाहता था। सम्राट् बहादुरशाह भी चूड़ामन से टकराव की बजाए दोस्ती करना उचित समझता था। अतः वजीर मुनईम खानखाना के परामर्श पर चूड़ामन 16 सितम्बर 1707 ई० को आगरा दरबार में सम्राट् बहादुरशाह के समक्ष पहुंचा। सम्राट् ने चूड़ामन को 1500 जात और 500 घुड़सवार का मनसब प्रदान किया। विद्रोही को अचानक ही सरकारी-कर्मचारी वर्ग में स्थान मिल गया।
विद्रोही गतिविधियों में चूड़ामन की कूटनीति
मनसब प्राप्त होने के बाद चूड़ामन ने अपनी विद्रोही गतिविधियों पर राजभक्ति का आवरण चढ़ाने के लिए शाही अभियानों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। जयसिंह के विरुद्ध मेवात के फौजदार सैय्यद हुसैन खां के नेतृत्व में पहले शाही सेना में शामिल हो जाना और बाद में 3 अक्तूबर 1708 ई० के सांभर युद्ध में भाग न लेना उसकी कूटनीति का ही अङ्ग था। नायब फौजदार रहीमुल्ला खां शेरगढ़ के बलूची प्रबन्धकों को दबाना चाहता था लेकिन चूड़ामन के परामर्श तथा मदद के बिना उसकी हिम्मत नहीं थी। चूड़ामन अपनी जाटसेना के साथ रहीमुल्ला खां से मिल गया और शेरगढ़ पर आक्रमण कर दिया। बलूचियों ने तीन दिन तक जाट तथा मुग़लिया सेना का जमकर मुकाबला किया और भयङ्कर युद्ध किया।
अन्त में हताश होकर उन्होंने मैदान छोड़ दिया और चूड़ामन को दो हजार रुपये की जायदाद देने का वायदा किया। शेरगढ़ के पतन के कारण चूड़ामन की समस्त ब्रजमण्डल में ख्याति फैल गई और उसे सामरिक तथा राजनैतिक क्षितिज में चमकने का पर्याप्त अवसर मिला। 7 अक्तूबर, 1708 ई० को कॉमा के युद्धों में राजपूतों की विजय तथा सम्राट् बहादुरशाह द्वारा उनके साथ समझौते की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए, जनवरी 1709 ई० में चूड़ामन ने सवाई राजा जयसिंह के साथ एक समझौता कर लिया। किन्तु इस समझौते की आड़ में चूड़ामन ने राजपूत जमीदारियों के उन्मूलन और कछवाहों द्वारा अधिकृत जाटक्षेत्रों को मुक्त कराने का अभियान तेज कर दिया। अक्तूबर, 1709 ई० में उसने सोगर एवं भुसावर जीत लिया और शीघ्र ही कॉमा, खोहरी, कोट, खूंटहड़े, ईटहेड़ा, जाड़िला तथा चौगड़दा सहित अनेक स्थानों पर अपने थाने स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।
चूड़ामन सन् 1710-11 ई० में सिखों के विरुद्ध अभियान में मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह के साथ गया और 17 फरवरी, 1712 ई० को जब लाहौर में बहादुरशाह की मृत्यु हुई, तब चूड़ामन वहीं था। सिखों के विरुद्ध अभियान में चूड़ामन दिल से साथ नहीं था। सिखों में बहुत से लोग, भले ही वे नानक धर्मी थे, उसी जैसे जाट थे।
लाहौर में सम्राट् बहादुरशाह की मृत्यु के समय उसके चारों पुत्र उसके पास ही थे। उत्तराधिकार के लिए युद्ध होना ही था; वह बड़ी अशोभन जल्दबाजी में हुआ। 14 मार्च, 1712 ई० को शहजादा जहांदारशाह एवं उसके भाई अज़ीमउश्शान के मध्य भयङ्कर युद्ध छिड़ गया जो तीन दिन तक चला। इस युद्ध में शहजादा अज़ीमउश्शान रणक्षेत्र में काम आया। इस युद्ध में चूड़ामन ने अज़ीमउश्शान की सहायता की थी। जहांदारशाह ने अपने दो अन्य भाइयों को भी मार दिया और
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स्वयं 29 मार्च, 1712 ई० को सिंहासन पर बैठा, जो केवल 10 महीने (10 जनवरी 1713 ई० तक) ही बादशाह पद पर रहा। जहांदारशाह की विजय होने पर चूड़ामन लाहौर से लौटकर अपनी जन्मभूमि में वापिस आ गया। यहां आकर उसने शाही मार्ग पर पुनः लूटमार प्रारम्भ कर दी, जिसके परिणामस्वरूप राजधानी तक अशान्ति फैल गई।
चूड़ामन बिना तख्त का राजा
बादशाह जहांदारशाह सुरा पीकर एक लालकुमारी या लालकंवर नाम की बाजारू वेश्या के साथ रंगरलियां मनाता रहता था। चूड़ामन ने सम्राट् की इस कमजोरी से लाभ उठाया और अपनी जागीर को बढ़ाने में सफलता प्राप्त की। उसने मथुरा के पश्चिमी भाग नगर, कठूमर, नदबई, हेलक परगनों पर बिना विरोध के अपना अधिकार कर लिया। दिल्ली से चम्बल तक आबाद जाट तथा अन्य हिन्दू नागरिकों का वह न्यायाधिकारी, जीवन तथा सम्पदा का रक्षक था। उसने मुसलमान नागरिकों का भी सम्मान किया और दो धर्म के अनुयायी बिना भेदभाव के शान्तिपूर्वक जीवनयापन करने लगे। इस प्रकार मदिरा और मोहिनी के शासन में हिन्दू स्वाधीनता और धर्म की रक्षा में तत्पर जाट सरदार चूड़ामन दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ता गया। दिसम्बर, 1712 ई० में उत्तर में दिल्ली सीमान्त प्रदेश से दक्षिण में चम्बल नदी पर्यन्त, पूर्व में आगरा से पश्चिम में आमेर (जयपुर) राज्य की सीमाओं तक चूड़ामन बिना तख्त का राजा था। इस क्षेत्र के समस्त जाट, गूजर, मैना (मीणा), मेवाती, अहीर आदि लड़ाकू जातियों का उसको पूर्ण समर्थन प्राप्त था। किसी भी राज्य क्रान्ति तथा साम्राज्य सत्ता युद्ध में उसके सहयोग तथा सद्भावना की उपेक्षा करना अनुचित था1।
सामूगढ़ युद्ध (जनवरी 10, 1713 ई०)
शहज़ादा फर्रुखसियर ने अपने पिता अज़ीमउश्शान की मृत्यु का समाचार सुनकर अप्रैल 6, 1712 ई० को पटना में हिन्दुस्तान का सम्राट् बनने की घोषणा कर दी थी और वह 18 सितम्बर को आगरा की ओर रवाना हुआ। उसने इलाहाबाद तथा बिहार के सूबेदार क्रमशः सैयद अब्दुल्ला खां और सैयद हुसैन अली खां (दोनों भाई जो सैयद बन्धु कहलाते थे), को भी साथ लिया। उनके आगरा आने की सूचना सुनकर सम्राट् जहांदारशाह ने दिसम्बर 5, 1712 ई० को भारी मिथ्या आश्वासन देकर चूड़ामन को फर्रूखसियर के विरुद्ध आगरा पहुंचने का आग्रह किया। सम्राट् के अनुरोध पर चूड़ामन अपनी बड़ी सेना लेकर आगरा तक बढ़ आया। जहांदारशाह ने उसे एक पोशाक भेंट की और उसे उचित सम्मान दिया।
10 जनवरी 1713 ई० के दिन आगरा के निकट सामूगढ़ के मैदान में दोनों सेनाओं में युद्ध शुरु हो गया। सैयद हुसैन अली खां की मूर्च्छा और सैयद अब्दुल्ला खां के सैनिकों को रणक्षेत्र से भागते हुये देखकर जाट सरदार चूड़ामन शत्रु पक्ष के पिछले भाग पर टूट पड़ा और उनके युद्ध साज-सामान से लदे हाथी तथा ऊंट गाड़ियों पर अधिकार कर लिया।
रणक्षेत्र में जाट सैनिकों ने बुरी तरह लूट मचाई और चूड़ामन सामान के साथ हाथी तथा
1. जाटों का नवीन इतिहास पृ० 227, 229 लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा, बहवाला कई लेखक।
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ऊंटों को लेकर अपने कैम्प में वापिस लौट आया। सायंकाल लड़ाई का पासा बदला तथा फर्रूखसियर की सेना के धावे से जहांदारशाह की सेना में भगदड़ मच गई। उस समय चूड़ामन ने जहांदारशाह के हरम तथा गायिकाओं की छावनी, जहां लालकुमारी गायिका तथा हिजड़े सवार थे, पर आक्रमण कर दिया। जाटों ने हरम निवास को खूब लूटा। स्वयं सम्राट् मैदान छोड़कर आगरा से दिल्ली की ओर भाग गया। चूड़ामन ने इस गृह युद्ध में शाही सेना के पिछले भाग में भारी भगदड़ मचवा दी और उसको शाही खजाना, युद्ध सज्जा से सज्जित हाथी, ऊंट गाड़ियों की लूट का माल हाथ आया। इस तरह से चूड़ामन ने दोनों पक्षों को लूटा और युद्ध के शीघ्र बाद चूड़ामन लूट के विशाल माल के साथ थून दुर्ग में वापिस लौट आया। इस युद्ध में फर्रूखसियर विजयी रहा तथा वह जनवरी 12, 1713 ई० में आगरा किले में शाही गद्दी पर बैठा। कुछ ही दिन बाद जहांदारशाह को गला घोटकर मार दिया गया।
चूड़ामन को जागीर व राहदारी का अधिकार (अक्तूबर, 1713 ई०)
फर्रूखसियर सम्राट् बन गया परन्तु वास्तविक शक्ति दो सैय्यदबंधुओं के हाथों में रही। सम्राट् ने विजय के बाद ख्वाजा आसीम को शम्सुद्दौला खान-ए-दौरान की उपाधि प्रदान की। उसको दीवान-ए-खास के दरोग़ा पद व बालाशाही (सम्राट् का निजी अंगरक्षक दल) के बख्शी पद पर नियुक्त किया गया। सम्राट् फ़र्रूखसियर ने 9 फरवरी, 1713 ई० को सैय्यद अब्दुल्ला खां को कुतुब-उल-मुल्क की उपाधि व मुलतान की सूबेदारी देकर वजीर पद प्रदान कर दिया। उसके लघु भ्राता हुसैन अली खां को बिहार की सूबेदारी तथा साम्राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण मीर बख्शी (अमीर-उल-उमरा) का पद दे दिया। सम्राट् ने, राजा छबीलाराम नागर के आगरा से दिल्ली वापिस लौटने पर शम्सुद्दौला खान-ए-दौरान को आगरा प्रान्त का सूबेदार नियुक्त कर दिया।
शम्सुद्दौला चतुर एवं दूरदर्शी था। वह चूड़ामन जाट से विरोध पालना और एक अनिश्चित उद्यम के फेर में पड़कर अपनी प्रतिष्ठा गंवाना नहीं चाहता था, अतः उसने चूड़ामन से मैत्री की चर्चा चलायी। यद्यपि चूड़ामन ने फर्रूखसियर की सेना और सामान को लूटा था, फिर भी वह इतना समझदार था कि नए सम्राट् को व्यर्थ ही न खिझाता रहे। उसने खान-ए-दौरान द्वारा प्रस्तुत समझौता प्रस्तावों को स्वीकार करना ही उचित समझा। सूबेदार ने सम्राट् को भी चूड़ामन के लिये क्षमा करके शाही सेवा में लाने के लिए राजी कर लिया। सम्राट् ने चूड़ामन के पास दरबार में उपस्थित होकर ‘शाही चाकरी’ स्वीकार करने का फरमाना भेजा। सितम्बर 27, 1713 ई० के दिन चूड़ामन 4000 घुड़सवारों के साथ दिल्ली के निकट बड़फूला (बाराहपूला) पहुंच गया। यहां से उसने अपने प्रतिनिधि वकील के हाथों सम्राट् के लिए कीमती नज़रे (भेंट) व क्षमा-याचना का पत्र प्रस्तुत करने के लिए भेजा। राजधानी से अजीमउश्शान के मामूज़ाद भाई राजा राजबहादुर राठौड़ किसनगढ़ ने बाराहपूला पहुंचकर चूड़ामन की एक राजा के अनुरूप अगवानी की।
20 अक्तूबर को जाट सरदार ने सम्मान व प्रतिष्ठा के साथ राजधानी में प्रवेश किया। सम्राट् की ओर से दीवान-ए-खास में खानदौरान ने उसका स्वागत सत्कार व आगवानी की और दरबार में ले जाकर उपस्थित किया। फर्रूखसियर ने चूड़ामन को क्षमा कर दिया। उसके मनसब में वृद्धि की। ‘राव बहादुर खां’ की उपाधि से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त सम्राट् ने उसको
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उत्तर में बाराहपूला से दक्षिण में चम्बल नदी पर्यन्त, पूर्व में आगरा से पश्चिम में रणथम्भौर प्रान्त की सीमाओं तक शाही मार्गों की राहदारी का भार सौंपकर ‘राहदार खां’ के शाही पद पर नियुक्त किया। ऐसा करने पर प्रोफेसर के० आर० कानूनगो के लेख अनुसार “एक भेड़िये को भेड़ों के रेवड़ का रखवाला बना दिया गया।” सम्राट् ने चूड़ामन को बरौड़ा मेव (आधुनिक तहसील नगर), कठूमर, (जिला अलवर), अखैगढ़ या सौंखर-सौंखरी (कुछ भाग आधुनिक जिला अलवर तथा कुछ भाग आधुनिक तहसील नदबई में शामिल), हेलक (तहसील कुम्हेर) और अऊ (तहसील डीग) नामक पांच शाही परगने जागीर में प्रदान कर दिये1।
इस प्रकार चूड़ामन को शाही स्वीकृति की छाप मिल गयी। उसे यह अधिकार था कि जो क्षेत्र उसकी देख-रेख में छोड़ा गया था, उस पर आने-जाने वाले लोगों पर ‘पथ-कर’ लगा सके। पहले जिस उत्साह से वह मुग़लों के काफिलों को लूटा करता था, उसी उत्साह से अब वह पथ-कर वसूल करने लगा। उसने ये कर इतनी कठोरता और स्वेच्छा से वसूल किये कि चारों को कोलाहल मच गया। कालिकारंजन कानूनगो (जाट, पृ० 27) के शब्दों में, “कहावत है कि टैक्स वसूल करने वाला जाट सचमुच ईश्वर के कोप का चिन्ह है। उसका एक पैसा सिर फोड़ देता है जबकि बनिया के सौ रुपये मुश्किल से खाल को छूते हैं।”
चूड़ामन की इच्छा व आज्ञा से ही जागीरदार अपने अधिकार में गांवों से लगान वसूल कर सकते थे। चूड़ामन की धींगामस्ती की शिकायतें दिल्ली पहुंचीं, परन्तु अशक्त सम्राट् उसकी रोकथाम करने या उसे दंड देने के लिए कुछ भी नहीं कर सका।
इसके अतिरिक्त सैय्यद बंधुओं के साथ मिलकर चूड़ामन ने खान-ए-दौरान तथा सैय्यद बंधुओं के मध्य विद्यमान मतभेदों से भी लाभ उठाया। फर्रूखसियर को राजसिंहासन सैयद-बंधुओं की सहायता एवं कृपा से मिला था, फिर भी वह उनके विरुद्ध षड्यन्त्र करता रहता था। उसे मालूम था कि सैय्यद-बंधु जयपुर के राजा से खुश नहीं हैं। उसे मालूम था कि सैय्यद-बंधु जयपुर के राजा से खुश नहीं हैं (उन्होंने चूड़ामन को उत्साहित किया था कि वह जरा कछवाहा की शेखी झाड़ दे), अतः सम्राट् ने सैय्यदों की पीठ पीछे जयपुर के सवाई जयसिंह कछवाहा से चूड़ामन के थूनगढ़ पर आक्रमण करने को कहा। राजपूत कछवाहों और सिनसिनवार जाटों के बीच खून की नदियां बह चुकी थीं। सम्राट् शाहजहां के फरमान अनुसार सन् 1650-51 ई० में मिर्जा राजा जयसिंह (प्रथम) कछवाहा आमेर नरेश ने सिनसिनवार जाट मदुसिंह तथा उसके चाचा सिंघा के साथ भयंकर युद्ध किये थे। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह आमेर नरेश को सन् 1688 ई० में सिनसिनवार जाट राजाराम को दबाने का फरमान भेजा, जिसके पालन करने में वह असमर्थ रहा। फिर औरंगजेब ने सन् 1690 ई० में राजा रामसिंह के पुत्र राजा बिशनसिंह से वीर भज्जासिंह के विरुद्ध सिनसिनी गढ़ी पर आक्रमण करवाया। इस तरह से कछवाहा राजपूतों और सिनसिनवार जाटों की खूनी दुश्मनी कई वर्षों से चली आ रही थी। (देखो इसी अष्टम अध्याय के पिछले पृष्ठों पर)।
थून जाट गढ़ी का प्रथम घेरा (1716-18 ई०) और राजपूतों की पराजय
थून गढ़ी के युद्ध को यदि जाट एवं राजपूत शक्ति परीक्षण कहा जाये तो ठीक होगा। सम्राट्
1. जाटों का नवीन इतिहास पृ० 237-239, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेकों के हवाले से लिखा है।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-647
फर्रूखसियर के वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां के परामर्श के बिना ही 15 सितम्बर, 1716 ई० को सवाई राजा जयसिंह कछवाहा को जाट विरोधी अभियान की उच्च कमान सम्भालने का नियुक्ति पत्र मिल गया था। 18 सितम्बर को महाराजा जयसिंह की प्रधान छावनी में उसके अंगरक्षक राजपूत सैनिकों के अतिरिक्त दस हजार घुड़सवार तथा पांच हजार पैदल हाड़ा, गौर, खंगारोत राजपूत सैनिक उपस्थित थे। इसके अतिरिक्त कोटा का महाराव भीमसिंह हाड़ा, नरवर का राजा गजसिंह, विजयसिंह कछवाहा (महाराजा जयसिंह का भाई) राव इन्द्रसिंह, व्याजिद खां मेवाती आदि अपनी सेनाओं के साथ उपस्थित थे। इस प्रकार अनुमानतः 40,000 बन्दूकची सवार तथा 40,000 से अधिक पैदल सैनिकों की विशाल सेना उसकी कमान में थी। उसने कॉमा1 को थून अभियान का आधार बनाया।
चूड़ामन के गुप्तचर दिल्ली में थे जो उसके विरुद्ध योजनाओं की सूचना उसे देते रहते थे। सूचना मिलने पर चूड़ामन ने जयसिंह के मुकाबिले के लिए एक लम्बे युद्ध की तैयारी की। उसने इतना अनाज, नमक, घी, तमाखू, कपड़ा और ईंधन इकट्ठा कर लिया कि वह 20 वर्ष के लिए काफी रहे। शाही गुप्तचरों की सूचनानुसार इस युद्ध के समय चूड़ामन 7000 प्रशिक्षित, दक्ष व कुशल योद्धाओं के साथ थून गढ़ी में मौजूद था।
राजा जयसिंह को सम्राट् की ओर से 40 लाख रुपये, शाही तोपें तथा मुग़ल सेना भी मिल गयी थी। उसने इन विशाल सेनाओं के साथ थून गढ़ी की ओर अक्तूबर, 1716 ई० में कूच कर दिया। 15 अक्तूबर को चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह ने 2000 सवारों के साथ गहन जंगलों से निकलकर व्याजिद खां मेवाती की सेना पर धावा कर दिया, जिसमें व्याजिद खां घायल हो गया। पांच दिन तक उसकी छावनी को घेरे रखा। 20 अक्तूबर को जयसिंह के राजपूत सैनिकों ने आकर व्याजिद खां की सेना को बचा लिया।
चूड़ामन के भतीजे रूपसिंह ने 2000 सवारों के साथ 9 नवम्बर, 1716 ई० को शत्रु के अग्र दलों पर आक्रमण कर दिया। भयंकर मुठभेड़ में रूपसिंह स्वयं घायल हो गया तथा चूड़ामन का भाई अतिराम वीरगति को प्राप्त हुआ। इस मुठभेड़ में छापामार जाट सवारों ने राजपूत सैनिकों के छक्के छुड़ा दिये थे और उनको पीछे हटना पड़ा।
17 नवम्बर, 1716 ई० को थून गढ़ी का घेरा प्रारम्भ हुआ। सिनसिनवार प्रदेश में प्रवेश करते ही साम्राज्यवादी सेना को जाट गुरिल्ला दस्तों का सामना करना पड़ा। जाट सैनिक घने जंगलों तथा गढ़ियों से निकलकर शत्रु सेना पर धावे करने लगे। चूड़ामन के पुत्र मोहकमसिंह ने शाही सेना के अगले दलों पर आक्रमण करके उनको पीछे धकेल दिया। केवल जाटों की छापामार सैनिक टोलियां ही शत्रु के मार्ग में बाधक नहीं थी बल्कि स्वाभिमानी तथा स्वाधीनता प्रेमी प्रत्येक जमींदार, किसान, मजदूर शत्रु पर हमला कर रहे थे। 11 दिसम्बर, 1716 ई० के पत्र में महाराजा जयसिंह ने विजय प्राप्त करने का दावा किया था। सम्राट् ने 7 जनवरी, 1717 ई० को अपने फरमान में जयसिंह को आदेश दिया कि जो शत्रु थून गढ़ी में शरण ले रहे हैं उनको कैद करके शीघ्र
1. कांमा से डीग की सहायक गढ़ी 14 मील दक्षिण में तथा थून की जाट प्रधान गढ़ी 14 मील दक्षिण-पश्चिम में थी।
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ही दरबार में उपस्थित किया जावे। फर्रूखसियर ने 13 मार्च, 1717 ई० को अपने फरमान में जयसिंह को लिखा कि “असंख्य सेना, विशाल तोपखाना पंक्ति तथा विपुल धनराशि के साथ जाटों का दमन करने के लिए योग्य राजा को नियुक्त किये सात माह निकल चुके हैं, किन्तु अभी तक गढ़ी एक ओर से भी नहीं घेरी जा सकी है।”
साम्राज्यवादी सेनायें हल्के तोपखाने से पूरी तरह सुसज्जित थीं, फिर भी मई-जून 1717 ई० में कई विशाल व 84 छोटी तोपें, 300 मन विस्फोटक बारूद, 150 मन सीसा और 500 बानों (राकेट) का भण्डार, आगरा से थून गढ़ी तक पहुंचा दिया गया। इसके अतिरिक्त जयसिंह ने अपने राज्य आमेर से आवश्यक गोला बारूद आदि युद्ध साज-सामान मंगवा लिया था।
साम्राज्यवादी सेनापति जयसिंह की विफलता
महाराजा जयसिंह 20 महीने (सितम्बर 1716 ई० से अप्रैल 1718 ई०) तक दृढ़ता के साथ घेरा डालकर पड़ा रहा, किन्तु इस अभियान में चूड़ामन की निर्भीकता, चतुरता तथा साहस के कारण वह एक बहादुर सैनिक तथा सफल सेनापति प्रमाणित नहीं हो सका।
चूड़ामन अन्त तक किले में रहकर शान्तिपूर्वक विघ्नकारी तोड़फोड़ तथा गुरिल्ला युद्धनीति से शत्रु को हानि पहुंचाता रहा। जयसिंह को नई कुमुक राजपूत व मुगल सैनिकों की मिलती रही। तजस्वी युवक एवं कुशल योद्धा खान-ए-जहाँ मुग़ल सैनिकों की नई कुमुक लेकर थून छावनी में पहुंच गया था। नई कुमुक मिलने के बाद भी साम्राज्यवादी सेनापति जाट गुरिल्ला दलों पर, जिनका नेतृत्व मोहकमसिंह तथा रूपसिंह, बदनसिंह और अन्य सिनसिनवार भाई बन्धु कर रहे थे, कोई प्रभाव नहीं डाल सका। अन्य जमींदार तथा ग्रामीणों ने चूड़ामन का पक्ष लिया और शाही राहों से आने-जाने वाले यात्री तथा काफ़िलों को लूटा। उदाहरण के रूप में 1300 बैलगाड़ियों में शुद्ध घी के कुप्पों को लादकर एक व्यापारी दल जब होडल से 5-6 मील दूर पहुंचा तब जाट-मेवाती लुटेरों ने इस काफिले को घेर लिया। एक सहस्र रक्षक अपनी बन्दूकों को छोड़कर भाग गये और लुटेरा दल बैलगाड़ियों को हांककर वजीर सैयद अब्दुल्ला खां तथा खान-ए-दौरान की जागीर के गांवों में ले गये। लुटेरों को लगभग 20 लाख रुपये का माल हाथ लगा। संजर खां इन जागीरों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। सूचना मिलने पर वह स्वयं घटनास्थल पर पहुंचा, किन्तु उसने लुटेरा दलों का पीछा नहीं किया। साम्राज्यवादी सेनायें थून गढ़ी के चारों ओर दूर-दूर तक घने जंगलों को काटकर उसके निकट पहुंचने का प्रयास कर रही थीं। उनका लक्ष्य था कि इस गढ़ी के भीतर खाद्य सामग्री, पानी, शस्त्रास्त्र आदि बाहिर से रोक देना, जिससे चूड़ामन हथियार डाल देगा। परन्तु वह विफल रहे। चूड़ामन के छापामार सैनिक थून गढ़ी के भीतर से तथा अन्य जाट गढ़ियों से निकलकर शाही सेनाओं पर आक्रमण करते रहे तथा उनको पीछे धकेलते रहे जिससे वे थून गढ़ी तक पहुंच ही नहीं सकें। इन छापामार जाट सैनिकों ने अनेक बार शाही सेनाओं के हथियार, गोला बारूद, खाद्यसामग्री आदि छीने और अपनी गढ़ियों में ले गये। इन मुठभेड़ों में जाट सैनिक कम तथा शाही सैनिक बड़ी संख्या में काम आये। महाराजा जयसिंह के सब इरादे विफल कर दिये गये। वह 20 महीने तक थून गढ़ी का घेरा डाले पड़ा रहा परन्तु सफलता प्राप्त न कर सका।
दिल्ली शाही दरबार में हिन्दुस्तानी दल के नेता सैय्यद बंधुओं और तुरानी दल के नेता
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खान-ए-दौरान के मध्य मतभेद हो गया जो चूड़ामन के लिए एक वरदान था।
थून रणक्षेत्र में खान-ए-जहां अपनी सैनिक प्रतिष्ठा कायम करना चाहता था। वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां जयसिंह की सैनिक शक्ति का विरोधी था वह खुलकर दरबार में चूड़ामन का पक्ष लेने लगा था। सैय्यद बन्धु जाटों व जाटनेता चूड़ामन के हितैषी थे। इसका कारण था कि उनका पालन-पोषण एक जाटनी ने किया था। सर्वखाप पंचायत रिकार्ड के अनुसार - “ये सैय्यद बंधु जुड़वां बालक थे, जिनको एक मुसलमान स्त्री ने जन्मा था। संकटकालीन समय आने पर उस स्त्री ने अपने दोनों बालक पुत्र मेरठ जिले की अपनी जाट सहेली को सौंप दिए तथा स्वयं वहां से कहीं दूसरे स्थान पर चली गई। इन बालकों को उस जाट स्त्री ने अपने स्तनों का दूध पिलाकर पाला तथा सुरक्षित रखा। ये दोनों उसको मां कहते थे। जब ये युवा हुए तो मां की आज्ञा का पालन करने का वचन दिया। मां ने केवल इतनी ही मांग की कि पुत्रो! मेरे दूध को याद रखना और समय आने पर जाटों की सहायता करना।”
अब चूड़ामन ने सैनिक ताक़त, गुरिल्ला युद्ध की अपेक्षा कपटी तथा गुप्त नीतियों से काम लिया। उसने दिल्ली दरबार में तैनात अपने कूटनीतिज्ञ वकील को लिखा - “यदि सम्राट् हमारे भूतकालिक अपराधों को क्षमा करके उच्च सम्मान व मनसब प्रदान करने का आश्वासन दे तो वह स्वयं दरबार में उपस्थित होकर पेशगी अदा करके समर्पण करने को तैयार है, परन्तु इसमें यह स्पष्ट शर्त होगी कि जयसिंह को इस समझौते में साझीदार नहीं बनाया जाये।” जाट वकील ने वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां कुतुबुल्मुल्क का आश्वासन प्राप्त कर लिया। वजीर ने प्रस्तावित शर्तों को स्वीकार करके दरबार में चूड़ामन का खुलकर पक्ष लिया। उसने सम्राट् को कहा - “जाट अभियान का संचालन करते हुए 20 महीने निकल चुके हैं और कोई निश्चित हल नहीं निकला है। अब तक राजा जयसिंह शाही खजाने से दो करोड़ रुपया खर्च कर चुका है और उसका मासिक खर्च भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इतने प्रयास के बाद भी विजय की कोई आशा दिखाई नहीं देती। चूड़ामन अब समर्पण करने तथा दरबार में उपस्थित होने को तैयार है। अतः उसकी प्रार्थना को मान लेना साम्राज्य के हित में है।” वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां के दबाव में आकर सम्राट् ने चूड़ामन से समझौता स्वीकार कर लिया।
सम्राट् ने मार्च 22, 1718 ई० को राजा जयसिंह को एक फरमान भेजकर उसे थून गढ़ी से घेरा उठाने का आदेश दिया गया। प्रकटतः क्षुब्ध, पर मन ही मन प्रसन्न जयसिंह थून से वापस लौट गया। उसके हाथ केवल विफलता ही लगी।
जाट-मुगल सन्धि (अप्रैल 1718 ई०)
अप्रैल 6, 1718 ई० को खान-ए-जहां, राव चूड़ामन उसके भतीजे रूपसिंह व अन्य भाई-बन्धुओं के साथ दिल्ली पहुंच गया। राव चूड़ामन 15 अप्रैल को वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां के साथ शाही दरबार में उपस्थित हुआ। बादशाह ने चूड़ामन को अपने समीप बैठाया और उसको एक खिलअत तथा एक सहस्र अशर्फियां प्रदान की गईं। उसके अन्य पुत्र, भतीजे रूपसिंह तथा अन्य सहयोगी रिश्तेदार व भाई-बन्धुओं को अन्य सुविधायें तथा कृपायें प्राप्त हुईं। वजीर के दबाव में आकर असहाय सम्राट् ने चूड़ामन को क्षमा करके शाही सेना में लेने का आदेश देना पड़ा। इस सन्धि में
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वजीर के प्रयासों के बाद चूड़ामन ने 50 लाख रुपया, 26 अप्रैल के दिन देना स्वीकार कर लिया। इस राशि में से 20 लाख रुपया वजीर को तथा 20 लाख रुपया शाही खजाने में नकद व जिंस के रूप में आसान किस्तों पर भुगतान करना था। चूड़ामन के मनसब में वृद्धि की गई और उमराव का उच्च तथा सम्माननीय पदक दिया गया। अब वजीर व चूड़ामन एक हो गये थे। चूड़ामन ने सैयद बन्धुओं से जीवन पर्यन्त मित्रता का नाता निभाया।
चूड़ामन की सैय्यद बन्धुओं को सहायता
सम्राट् फर्रूखसियर और सैय्यद बन्धुओं में मतभेद बढ़ते गये। उन्होंने चूड़ामन की सहायता से उसको गद्दी से उतार दिया* और 28 फरवरी 1719 ई० को रफीउद्दरजात को गद्दी पर बैठा दिया जो 20 जून, 1719 ई० तक रहा और फिर रफीउद्दौला शाहजहां द्वितीय को 21 जून, 1719 ई० को सिंहासन पर बैठा दिया जो 18 सितम्बर, 1719 ई० तक रहा। अब सैयदों ने प्रशासन तथा सेना की सर्वोच्च कमान स्वयं सम्भाल ली थी। इस राजनैतिक गठबन्धन तथा शाही क्रान्ति में राव चूड़ामन ने सैयदों का पूरा साथ दिया। जाट जनशक्ति तथा चूड़ामन के क्रान्तिकारी जीवन को बरबाद करने के प्रयास में जयसिंह कछवाहा को हताश होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा और फर्रूखसियर को साम्राज्य से हाथ धोना पड़ा। यह चूड़ामन की विशिष्ट राजनैतिक उपलब्धि थी, जिसने काठेड़ परगने को एक राज्य का रूप दिया और जन-जीवन को केन्द्रित कर लिया था।
सैय्यद बन्धुओं ने चूड़ामन को पुनः बाराहपूला से ग्वालियर सरकार की सीमाओं तक शाही मार्गों की सुरक्षा का भार सौंपा तथा राहदारी वसूल करने का निश्चित अधिकार प्रदान करके ‘राहदार’ पद पर उसकी पुनः नियुक्ति की गई। इबरतनामा से पता चलता है कि इस समय चूड़ामन की राज्यसीमायें इतनी लम्बाई, चौड़ाई में फैल चुकी थीं कि उसको पार करने में 20 दिन लगते थे। इनकी जमींदारी में समस्त काठेड़ प्रान्त शामिल था। उनकी वतन जागीर की उत्तरी सीमायें परगना सहार तथा कोसी से मिलती थीं। इस प्रकार दिल्ली साम्राज्य पर सैय्यद बन्धुओं का नियंत्रण हो चुका था और आगरा प्रान्त पर चूड़ामन का पूर्ण प्रभुत्व था।
रफीउद्दौला शाहजहां द्वितीय की मृत्यु होने पर सैय्यदों ने मुहम्मदशाह रंगीला को 28 सितम्बर 1719 ई० को सिंहासन पर बैठा दिया जो सन् 1748 तक बादशाह पद पर रहा।
आगरा में सम्राट् पद के एक नकली दावेदार नेकोसियर को, सैय्यद बन्धुओं के शत्रुओं ने, सम्राट् घोषित कर दिया। सैय्यदों ने विशाल सेना के साथ आगरा पर चढ़ाई की। इस अभियान में चूड़ामन की सहायता से वे कामयाब हुये और आगरा किले पर सैय्यदों का अधिकार हो गया। निकोसियार को पकड़ कर सलीमगढ़ के शाही कारागृह में भेज दिया गया, जहां मार्च 12, 1723 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।
9 अक्तूबर, 1720 ई० को टोडाभीम के समीप शाही कैम्प में विश्वासघाती मित्रों के इशारे पर हेदरबेग दौगलत ने मीर बख्शी सैय्यद हुसैन अली खां को खंजर से मार डाला।
चूड़ामन को ठाकुर पद देकर सम्मानित करना (अक्तूबर 1720 ई०)
मीर बख्शी सैय्यद हुसैन अली की मृत्यु के बाद सम्राट् मुहम्मदशाह ने शाही लश्कर को टोडाभीम
(*) - सैयद बन्धुओं ने फर्रूखसियर को अन्धा कर दिया और उसी के रनिवास में ही उसको गला घौटकर मार डाला।
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से दिल्ली वापिस लौटने का आदेश दिया। यह लौटने का मार्ग जाट सरदारों की सीमाओं से गुजरता था। यद्यपि चूड़ामन सैय्यद बन्धुओं का अनन्य मित्र, सहयोगी तथा भक्त था, फिर भी सम्राट् मुहम्मदशाह ने चूड़ामन की उपेक्षा नहीं की। उसने चूड़ामन तथा उसके साथी सैनिकों को अपने पक्ष पोषण के लिए भारी पुरस्कार तथा भेंट भेजकर सम्मानित किया। चूड़ामन ने मार्ग चलते सम्राट् से व्यर्थ शत्रुता मोल लेना उचित न समझकर अवसर से लाभ उठाया और जाट जमींदारों को मुग़ल साम्राज्य का सहायक घोषित कर दिया। वह स्वयं सैनिक दल के साथ शाही छावनी में अपनी निष्ठा दिखलाने के हेतु उपस्थित हुआ। वास्तव में चूड़ामन ने अपनी वाक्पटुता से सम्राट् तथा वजीर दोनों को अपने जाल में फंसा लिया। सम्राट् मुहम्मदशाह ने इस समय चूड़ामन को ठाकुर1 पदवी तथा अधिकार देकर सम्मानित किया और शाही लश्कर को यमुना नदी के किनारे तक सकुशल पहुंचाने के लिए मार्ग-दर्शक बनाया।
हसनपुर युद्ध (14-15 नवम्बर, 1720 ई०) में चूड़ामन का वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां का पक्ष लेना
वजीर सैय्यद अदुल्ला खां को सराय छठ (आगरा से उत्तर-पश्चिम 48 मील) पर 9 अक्तूबर की अर्द्धरात्रि को अपने भाई सैय्यद हुसैन अली खां की हत्या का समाचार मिला और वह दिल्ली की ओर बढ़ा। उसने नवम्बर 12 तक 90 सहस्र सवार पैदल सेना और 400 जिन्सी तथा भारी तोपों का एक तोपखाना तैयार कर लिया था। इसके अलावा राजा मोहकमसिंह, चूड़ामन तथा समीपस्थ जाट, राजपूत जमींदारों की जमात भी उसके पास पहुंच गई थी। इस विशाल सेना के साथ वजीर नवम्बर के दूसरे सप्ताह में बिलोचपुर (परगना पलवल) में पहुंच गया। सम्राट् मुहम्मदशाह ने भी 12 नवम्बर के दिन बिलोचपुर के दक्षिण में छः मील हसनपुर के पास युद्ध छावनी डाली। वजीर ने ठाकुर चूड़ामन को हसनपुर युद्ध में सहायता के लिए कई पत्र लिखे। ठाकुर चूड़ामन हसनपुर पहुंचने तक पाखण्डी की तरह सम्राट् के लश्कर में शामिल रहा। वजीर के सन्देश अनुसार चूड़ामन 13 नवम्बर को बादशाही बारूदखाने को उड़ाने में असफल रहा किन्तु अपने प्रथम धावा में सामान से लदे तीन-चार हाथी तथा ऊंट गाड़ियों के विशाल झुण्ड को उड़ाकर लाने में सफल रहा।
इसके बाद वह अपने भाई-बन्धु, भतीजे, बदनसिंह, रूपसिंह आदि की कमान में सज्जित दस सहस्र सेना के साथ वजीर की छावनी में उपस्थित हुआ। उसने शाही लश्कर से उड़ाये हाथी, बैल व ऊंट गाड़ियां वजीर को भेंटस्वरूप प्रस्तुत कीं लेकिन वजीर ने इनको सम्मान सहित ठाकुर चूड़ामन को पुरस्कार के रूप में लौटा दिया।
बुधवार, 14 नवम्बर 1720 ई० को दोनो सेनायें भिड़ गईं। जब सेनायें भयंकर टक्कर ले रही थीं, उस समय चूड़ामन ने अपने जाट सैनिकों के साथ बादशाही डेरा तथा सैनिक सामान पर पीछे
1. डा० मथुरालाल शर्मा (कोटा राज्य का इतिहास, 1/136-7) से स्पष्ट है कि प्रत्येक परगने में चौधरी, कानूनगो और एक ठाकुर - ये तीन अफसर रहते थे। चौधरी, कानूनगो लगान वसूल करने वाले अधिकारी थे और ठाकुर परगने का शासन प्रबन्ध और शान्ति सुरक्षा के लिए जिम्मेदार था।
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से धावा कर दिया और वहां भयंकर उत्पात तथा लूटमार की। चूड़ामन ने इस युद्ध में अत्यधिक धृष्टता दिखलाई और शाही छावनी पर बार-बार आक्रमण करके लूटमार के करारे हाथ दिखलाये। इससे शाही सैनिक तथा व्यापारी रणक्षेत्र को छोड़कर भागने लगे जिनको रास्ते में जाटों तथा मेवातियों ने लूट लिया। चूड़ामन ने शाही गोला बारूद से लदे हजारों खच्चर और बैलगाड़ियों और सम्राट् की व्यक्तिगत शाही सम्पत्ति, अमूल्य सामान से लदे ऊंटों के झुण्ड पर अपना अधिकार कर लिया। चूड़ामन की इस घुसपैठ से वजीर ने लाभ उठाया और वह शाही सेना के मध्य भाग की ओर बढ़ा। अन्त में वजीर सैय्यद अब्दुल्ला खां घायल हो गया और पकड़ा गया। सन् 1722 ई० में उसे जहर देकर मार दिया।
जब वजीर की सेना की हार के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देने लगे तब चूड़ामन ने वजीर की छावनी पर धावा बोल दिया। जाट सैनिकों ने शाही सैनिकों के साथ मिलकर वजीर की छावनी को खूब लूटा। इस युद्ध में ठाकुर चूड़ामन को अमूल्य सामान, एक हजार खच्चर तथा ऊंट गाड़ियों पर लदा माल, शाही सदर के कागजात तथा बीस लाख मोहरें भी मिलीं। इस युद्ध में सम्राट् मुहम्मदशाह को विजय प्राप्त हुई।
हसनपुर के युद्ध के बाद सम्राट् के प्रतिशोध को अवश्यम्भावी जानकर चूड़ामन अब खुले तौर पर स्वतंत्र ‘राजा’ की तरह आचरण करने लगा। सन् 1722 ई० में उसने सआदत खां के विरुद्ध मारवाड़ के राजा अजीतसिंह राठौर और बाद में इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद खां बंगश के सेनापति दिलेर खां के विरुद्ध बुन्देलों की सहायतार्थ सेना भेजी। आगरा के सूबेदार सआदत खां के निर्देश पर उसका नायब नीलकण्ठ नागर जाटों को दण्डित करने आया। 16 सितम्बर, 1721 ई० को फतेहपुर सीकरी के निकट युद्ध में चूड़ामन के पुत्र मोहकमसिंह के हाथों शाही सेना पराजित हुई और नीलकण्ठ नागर मारा गया। चूड़ामन ने जयसिंह कछवाहा के विरुद्ध अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए मारवाड़ के राजा अजीतसिंह से मित्रता स्थापित की।
चूड़ामन की मृत्यु (22 सितम्बर, 1721 ई०)
शिवदास लखनवी, गुलाम हुसैन, मीरगुलाम अली, कालिकारंजन कानूनगो आदि लेखक चूड़ामन की मृत्यु के बारे में लिखते हैं -
“ठाकुर चूड़ामन का एक निकट सम्बन्धी अपने पीछे विशाल सम्पत्ति (84 गांवों की जागीर) को छोड़कर निःसन्तान ही मर गया। मोहकमसिंह तथा जुलकरनसिंह के मध्य इस सम्पत्ति और जमींदारी के बंटवारे को लेकर महत्त्वाकांक्षाओं का संघर्ष फूट पड़ा। जब चूड़ामन ने न्यायोचित ढ़ंग से अपने पुत्रों को समझाने का प्रयास किया तो मोहकमसिंह ने अपने वयोवृद्ध पिता को विद्रोहात्मक अशोभनीय बात कही और पिता तथा भाई दोनों से लड़ने को तैयार हो गया। इस अपमान और पारिवारिक फूट को सहन न कर पाने के कारण 22 सितम्बर, 1721 ई० को चूड़ामन ने विष खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी।”
कोई भी शत्रु उसे जिस विष को खाने के लिए विवश नहीं कर पाया था, वही अब उसके एक मूर्ख तथा उद्धत पुत्र ने उसे खिला दिया।
सवाई जयसिंह द्वारा थून गढ़ी का पतन (18 नवम्बर, 1722 ई०)
चूड़ामन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मोहकमसिंह उसका उत्तराधिकारी तथा जाटों का नेता
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-653
बना। मोहकमसिंह ने सर्वप्रथम अपने प्रतिद्वन्द्वी बदनसिंह एवं उसके भाई रूपसिंह जो उसके चाचा भावसिंह के पुत्र थे, को कैद में डाल दिया। प्रमुख जाट सरदारों के हस्तक्षेप के बाद उन्हें कैद से मुक्त किया गया। मोहकमसिंह से अपने अपमान का बदला लेने हेतु बदनसिंह ने अपने भाई रूपसिंह को आगरा के सूबेदार सआदत खान के पास आगरा भेजा और स्वयं सवाई राजा जयसिंह से जा मिला। जाटों की इस पारिवारिक फूट ने जयसिंह को एक बार फिर जाट दमन के कार्य को हाथ में लेकर पुराने कलंक को धो डालने के लिए प्रोत्साहित किया। यह कार्य उसने सआदत खान खान-ए-दौरान की मार्फत किया।
शाही दरबार से जाटों के विरुद्ध अभियान की कमान और आगरा की सूबेदारी मिलने पर अगस्त, 1722 ई० के अन्त में सवाई जयसिंह 14,000 घुड़सवार और 50,000 पैदल सैनिकों की एक विशाल सेना के साथ थून गढ़ी की ओर चल दिया। 24 सितम्बर को जब वह थून गढ़ी के निकट पहुंचा तब बदनसिंह अपने पूरे दलबल के साथ आकर उससे मिल गया। इस बार जाट के विरुद्ध जाट था। अतः जयसिंह का कार्य आसान हो गया। मोहकमसिंह थून में बुरी तरह से घिर गया और बदनसिंह उसके अनेक साथियों को तोड़ने में सफल हुआ। बदनसिंह ने थून गढ़ी के कमजोर स्थानों का भेद दे दिया, इससे शाही सेना को गढ़ी के मजबूत द्वारों पर अधिकार करने का सफल अवसर मिल गया। अतः मोहकमसिंह 17 नवम्बर की रात्रि को बारूदखाने में आग लगाकर अपने चल-सम्पदा, नकदी, आभूषन, हीरा-जवाहरात के खजाने और अपने परिवार के साथ थून की गढ़ी से भाग गया और मार्ग में आ रही राठौड़ सेना की सुरक्षा में महाराजा अजीतसिंह राठौड़ के पास जोधपुर पहुंच गया।
18 नवम्बर, 1722 ई० को सवाई जयसिंह ने निर्जन तथा वीरान गढ़ी में प्रवेश करके अपने कलंक को धो लिया। जयसिंह ने अपनी पिछली पराजय के प्रतिशोध के रूप में दुर्ग को मिट्टी में मिलाकर उसे गधों से जुतवा दिया, जिससे वह ऐसा अभिशप्त प्रदेश बन जाये कि किसी राजवंश का केन्द्रस्थान बनने के उपयुक्त न रहे।
थून के इस युद्ध के बारे में एक दोहा प्रचलित है -
लेन चहति है दिल्ली आगरा घर की थून दई।
बन्धु वैर अनबन के कारण कैसी कुमति ठई॥
(बृजेन्द्रवंश भास्कर, पृ० 30)
थून गढ़ी के पतन के बाद जाटों की सरदारी बदनसिंह ने संभाली और चूड़ामन की जमींदारी उसे प्राप्त हुई।
आधार पुस्तकें - जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 187-318, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक लेखकों के हवाले से लिखा है; जाट इतिहास पृ० 24-31, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; महाराजा सूरजमल, पृ० 29-38, लेखक कुं० नटवरसिंह; महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 28-41, लेखक डॉ० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; इतिहासपुरुष महाराजा सूरजमल, पृ० 12-14, ले० नत्थनसिंह; जाट इतिहास, पृ० 633-635 लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष पृ० 432-433, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग, पृ० 104-123, लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-654
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