क्षत्रिय बनने से कौन सी सामाजिक वर्चस्व प्राप्त होगा ...
विगत कई दशकों से कुछ जन-जातियाँ --जो वस्तुत
स्वयं में दुनियाँ में सशक्त व यौद्धा रहीं हैं।
परन्तु भारतीय इतिहास में विशेषत: पुष्य-मित्र सुंग कालीन रचित पौराणिक ग्रन्थों में तत्कालीन समाज के पुरोहितों ने शूद्र रूप में वर्णित कर दी हैं ।
आज क्षत्रिय बनने के लिए अनेक उद्घोष कर रहे हैं ।
सायद वे लोग ये समझते हैं कि हम क्षत्रिय होकर समानित हो जाऐंगे ।
परन्तु यह अटल सत्य है कि रूढ़िवादी ब्राह्मण परम्पराओं के संवाहक उन्हें क्षत्रियों के रूप में नहीं मानेंगे ।
क्यों कि ये जन-जातियाँ ब्राह्मणों की हर अनुचित विधान का पालन नहीं करते थे ।
इसी लिए ये ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों के रूप में वर्णीकृत
हुए ...
और ये स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर भी ले तो कौन सी
सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेगें ?
स्वघोषित क्षत्रिय बन भी जाओ तो क्या बनने के बाद भी आप ब्राह्मणवादी-सामाजिक व्यवस्था में कभी ब्राह्मणों के बराबर आकर उनके द्वारा सम्मान पाएंगे सकोगे ?
क्या ब्राह्मणवादी व्यवस्था के शीर्ष पर आसीन जन-जातिजाति की दृष्टि में आप अचानक ही सम्मानित व पूज्यनीय बन जाओगे ?
आप उन धूर्त और कपटमूर्ति व्यभिचारी लोगों से ये अपेक्षाऐं किए बाठे हो जिन्होनें सदीयों से तुम्हारे इतिहास को विकृत व नष्ट करने की पूर्ण चेष्टा की
भूल जाओं कि तुम ब्राह्मण व्यवस्थाओं के अन्तर्गत क्षत्रिय हो !
क्षत्रियों का संहार करने वाले परशुराम ने -जब देखा कि ये विधवाऐं विधवा हो गयीं तो ऋतुकाल में
अन्य ब्राह्मणों से उनका समागम कराकर वे गर्भवती करायी गयीं
जिसे नियोग प्रथा कहा गया
तब --जो क्षत्रिय उत्पन्न हुए वही आज के क्षत्रिय हैं
अत: क्षत्रिय बनना भी दौगले पन की निशानी है
क्षत्रिय हैं ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें यह तथ्य तो ब्राह्मणों के ग्रन्थों में भी हैं
--देखें महाभारत में
त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा ।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।
तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत सुतार्थिन्य८भिचक्रमु:।५।
ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६।
तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९।
(महाभारत आदि पर्व ६४वाँ अध्याय)
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पाने के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
तब ऋतु काल में ब्राह्मणों ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए ।
और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई।
उसमें भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ माना गया ।
यही कारण है कि आज तक ब्राह्मण धर्म में ब्राह्मणों सर्वोपरि हैं ।
यदि ब्राह्मण व्यभिचारी भी हो तो भी पूजा के योग्य है ।
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और सुनो !
---जो स्वयं को क्षत्रिय अथवा राजपूत कहते हैं महाभारत और भागवतपुराण आदि पुराणों के अनुसार ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें हैं ।
इसे हम नहीं कहते पुष्य-मित्र सुंग कालीन रचित ई०पू० द्वितीय सदी का महाभारत कहता है ।
वर्तमान में मनु के नाम पर प्राप्त ग्रन्थ मनु-स्मृति जो शूद्रों को लक्ष्य करके योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध की गयी है ।
केवल पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४
के समकालिक रचना है ।
मनु स्मृति के कुछ अमानवीय रूप भी आलोचनीय हैं । "
शक्तिनापि हि शूद्रेण न कार्यो धन सञ्चय:
शूद्रो हि धनम् असाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ।। (मनुःस्मृति१०/१२६)
अर्थात् शक्ति शाली होने पर भी शूद्र के द्वारा धन सञ्चय नहीं करना चाहिए ; क्योंकि धनवान बनने पर शूद्र ब्राह्मणों को बाधा पहँचा के हैं । ------------------------------------------------------------------
विस्त्रब्धं ब्राह्मण: शूद्राद् द्रव्योपादाना माचरेत् ।
नहि तस्यास्ति किञ्चितस्वं भर्तृहार्य धनो हि स:।। ८/४१६
अर्थात् शूद्र द्वारा अर्जित धन को ब्राह्मण निर्भीक होकर से सकता है ।
क्योंकि शूद्र को धन रखने का अधिकार नहीं है ।
उसका धन उसको स्वामी के ही अधीन होता है -----------------------------------------------------------------
नाम जाति ग्रहं तु एषामभिद्रोहेण कुर्वत: ।
निक्षेप्यो अयोमय: शंकुर् ज्वलन्नास्ये दशांगुल : ।।(मनुस्मृति८/२१७ )
अर्थात् कोई शूद्र द्रोह (बगावत) द्वारा ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का नाम उच्चारण भी करता है तो उसके मुंह में दश अंगुल लम्बी जलती हुई कील ठोंक देनी चाहिए । -------------------------------------------------------------------
एकजातिर्द्विजातिस्तु वाचा दारुण या क्षिपन् ।
जिह्वया: प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि स:।८/२६९
अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग को यदि अपशब्द बोले जाएें तो उस शूद्र की जिह्वा काट लेनी चाहिए ।
तुच्छ वर्ण का होने के कारण उसे यही दण्ड मिलना चाहिए । -----------------------------------------------------------------
पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनम् अर्हति ।
पादेन प्रहरन्कोपात् पादच्छेदनमर्हति ।।२८०।
अर्थात् शूद्र अपने जिस अंग से द्विज को मारेउसका वही अंग काटना चाहिए ।
यदि द्विज को मानने के लिए हाथ उठाया हो अथवा लाठी तानी हो तो उसका हाथ काट देना चाहिए और क्रोध से ब्राह्मण को लात मारे तो उसका पैर काट देना चाहिए ।
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ब्राह्मणों के द्वारा यदि कोई बड़ा अपराध होता है तो तो उसका केवल मुण्डन ही दण्ड है ।
बलात्कार करने पर भी ब्राह्मण को इतना ही दण्ड शेष है
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"मौण्ड्य प्राणान्तिको दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते। इतरेषामं तु वर्णानां दण्ड: प्राणान्तिको भवेत् ।।३७९।।
न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्व पापेषु अपि स्थितम् ।
राष्ट्राद् एनं बाहि: कुर्यात् समग्र धनमक्षतम् ।।३८०।।
अर्थात् ब्राह्मण के सिर के बाल मुड़ा देना ही उसका प्राण दण्ड है ।
परन्तु अन्य वर्णों को प्राण दण्ड देना चाहिए ।
सब प्रकार के पाप में रत होने पर भी ब्राह्मण का बध कभी न करें।उसे धन सहित बिना मारे अपने देश से विकास दें ।
------------------------------------------------------------------- ब्राह्मणों द्वारा अन्य वर्ण की कन्याओं के साथ व्यभिचार करने को भी कर्तव्य नियत करने का विधान घोषित करना :---- नीचे देखें---
"उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्हति ।।
शुल्कं दद्यात् सेवमानस्तु :समामिच्छेत्पिता यदि।।
(३६६। मनुःस्मृति)
अर्थात् उत्तम वर्ण (ब्राह्मण)जाति के पुरुष के साथ सम्भोग करने की इच्छा से उस ब्राह्मण आदि की सेवा करने वाली कन्या को राजा कुछ भी दण्ड न करे ।
पर उचित वर्ण की कन्या का हीन जाति के साथ जाने पर राजा उचित नियमन करे ।
उत्तम वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला नीच वर्ण का व्यक्ति वध के योग्य है ।।
समान वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला , यदि उस कन्या का पिता धन से सन्तुष्ट हो तो पुरुष उस कन्या से धन देकर विवाह कर ले । -------------------------------------------------------------------
पुष्य मित्र सुंग काल का सामाजिक विधान देखिए :-
सह आसनं अभिप्रेप्सु: उत्कृष्टस्यापकृष्टज:
कटयां कृतांको निवास्य: स्फिर्च वास्यावकर्तयेत्।।२८१।। अवनिष्ठीवती दर्पाद् द्वावोष्ठौ छेदयेत् नृप: ।
अवमूत्रयतो मेढमवशर्धयतो गुदम् ।।२८२।।
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अर्थात् जो शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण आदि वर्णों के साथ आसन पर बैठने की इच्छा करता है तो राजा उसके तो राजा उसके कमर मे छिद्र करके देश से निकाल दे । अथवा उसके नितम्ब का मास कटवा ले राजा ब्राह्मण के ऊपर थूकने वाले अहंकारी के दौनों ओष्ठ तथा मूत्र विसर्जन करने वाला लिंग और अधोवायु करने वाला मल- द्वार कटवा दे --------
पराशरस्मृति में तो यहाँं तक विधान है कि
ब्राह्मण व्यभिचारी व बलात्कारी होने पर भी पूज्यनीय है
जबकि शूद्र संयमी र जितेन्द्रिय होने पर भी पूज्यनीय नहीं है ।
क्यों कि कौन दूषित अंगो वाली गाय को छोड़ कर
शीलवाती गर्दभी (गधी ) दुहेगा ? (१९२)
दु:शीलो८पि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् पाराशर-स्मृति (१९२)
विदित हो कि ब्राह्मण क्षत्रिय राजाओं की पत्नीयाें के साथ नियोग करके सन्तानें उत्पन्न करते थे ।
फिर तुम
इस दौगले पन से विभूषित क्षत्रिय विशेषण के लिए इतने लालायित हो ?
तो तुमसे बड़ा मू्ढ़ मति कौन ?
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