Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VIII Jump to navigationJump to search मुख्य पृष्ठ और विषय सूची पर वापस जायें «« पिछले भाग (सप्तम अध्याय) पर जायेंअगले भाग (नवम अध्याय) पर जायें »» जाट वीरों का इतिहास लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत This chapter was converted into Unicode by Dayanand Deswal अष्टम अध्याय: भरतपुर जाट राज्य की स्थापना विषय सूची संक्षिप्त वर्णन यह प्रथम अध्याय में लिख दिया गया है कि वर्तमान भरतपुर नरेश श्रीकृष्ण महाराज के वंशज हैं। देखो प्रथम अध्याय, श्रीकृष्ण जी की वंशावली)। श्रीकृष्णजी से लेकर भरतपुर के अन्तिम नरेश बृजिन्द्रसिंह तक 101 पीढी हैं। यह सब चन्द्रवंश में यदुवंशीय हैं। तहनपाल (कृष्णजी से 68वीं पीढ़ी) के अनेक पुत्र थे, जिनमें ज्येष्ठ धर्मपाल से करौली और उसके तीसरे पुत्र मदनपाल से भरतपुर के परिवार निकले हैं। बयाना से इन यादवों का एक समूह धर्मपाल के साथ करौली चला गया था। आजकल वे करौली के यादव के नाम से प्रसिद्ध हैं। करौली के यादव राजपूत कहे जाते हैं और भरतपुर के यादव जाट। जब पौराणिकों ने क्षत्रिय जातियों (जाट, गुर्जर, अहीर आदि। का एक संघ बनाकर उसका नाम राजपूत रखा, तब कुछ समय के पश्चात् करौली के यादव भी उस संघ में मिल गये तथा राजपूत कहलाने लगे1। इन यादववंशी जाटों के शाखागोत्र सिनसिनवार एवं सोगढ़िया-सोगरवार, स्थान के नाम पर प्रचलित हुए, जिनका वर्णन निम्न प्रकार से है - सिंध से यादवों के एक समूह ने लौटकर फिर ब्रज में आकर बयाना पर अधिकार जमा लिया। इनका राजा विजयपाल (विजयदेव) था जो कृष्ण जी से 67वीं पीढ़ी में हुआ। कुछ समय के बाद सूये (सोहेदव) जो श्रीकृष्णजी से 70वीं पीढ़ी में हुआ, ने शूरसैनी गांव से बलाई लोगों को निकालकर अपना अधिकार जमाया। भाषाभेद से शूरसैनी गांव का नाम बदलकर सिनसिनी कहलाने लगा तथा वहां पर निवास करनेवाले यादव जाटों को सिनसिनवार-सिनसिनवाल पुकारा जाने लगा। इसके बाद के इस वंश के लोगों का गोत्र सिनसिनवाल ही कहा जाने लगा2। सोगढ़िया-सोगरवार - यादव जाटों के समूह में सुग्रीव नाम का प्रसिद्ध योद्धा था। उसने वर्तमान सोगर को बसाया था। उसने इस स्थान पर एक गढ़ बनाया था, जो सुग्रीवगढ़ कहलाया। सुग्रीवगढ़ ही आजकल सोगर कहलाता है जो क्रमशः सुग्रीवगढ़ से सुगढ़ और सोगर हो गया। इस स्थान के नाम से, इस वंश के यादव जाट, सोगढ़िया-सोगरवार कहे जाने लगे तथा इस तरह यह एक शाखागोत्र बन गया। इस वंश में खेमकरण नाम का एक प्रचण्ड वीर उत्पन्न हुआ था। उसने सोगर 1. जाट इतिहास पृ० 629, लेखक ठा० देशराज; महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 15, लेखक डा० प्रकाशचन्द्र चान्दावत। 2. जाट इतिहास, पृ० 629, लेखक ठा० देशराज। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-620 गांव में एक कच्ची गढ़ी बनाई। औरंगजेब की सेना के उसने रास्ते बन्द कर दिए थे। अपने मित्र रामकी चाहर से मिलकर आगरा, धौलपुर और ग्वालियर तक उसने आतंक जमा लिया था। मुगलों के सब सरदार उसके भय से कांपते थे। इसका राज्य सोगर से लेकर सीकरी तक फैला हुआ था। जिस समय चूरामन (चूरामणि) (सन् 1695 ई० से 1721 ई०) थून गढ़ी में राज्य करते थे, उस समय वीर खेमकरण सीकरी पर अधिकार किए हुए थे। खेमकरण दोपहर को धौंसा बजाकर भोजन करता था। उसकी आज्ञा थी कि धौंसे के बजने पर जो भी कोई भाई सहभोजन में शामिल होना चाहे, वह हो जाये। उसके पास हथिनी बड़ी चतुर और स्वामिभक्त थी। वह बड़े मजबूत शरीरवाला एवं प्रथम दर्जे का बलवान् था। एक बार आगरा में मुग़ल सूबेदार के सामने, एक साथ दो दिशाओं से छोड़े हुए, दो शेरों को केवल अपनी कटार से मार दिया था। मुगल बादशाहों ने उसे फौज़दार का खिताब दिया था। खेद है कि अडींग के तत्कालीन शासक खूंटेल गोत्र के जाट फोदासिंह ने वीर खेमरकण को भोजन में विष खिला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई1। किन बड़ी कठिनाइयों का सामना करके और किस प्रचण्ड वीरता से सिनसिनवार जाटों ने एक शक्तिशाली भरतपुर राज्य स्थापित किया, वह वर्णन निम्न प्रकार है - मुर्शिद कुली खां तुर्कमान और ब्रजमण्डल के जाट (सन् 1636-38) सम्राट् शाहजहां (सन् 1627-1658) ने हिन्दू किसानों पर लगान व अन्य नवीन कर लगा दिए। ब्रजमण्डल के किसानों ने इन करों को देने से इन्कार कर दिया। मुग़ल सरकार ने इनको विद्रोही मानकर फौज़दारों तथा नवीन जागीरदारों ने ब्रजमण्डल में अत्याचार करने शुरु कर दिये। सम्राट् शाहजहां ने 1636 ई० में लगान वसूल करने तथा ब्रजमण्डल की क्रान्ति को दबाने के लिए मुर्शिद कुली खां तुर्कमान को कांमा, पहाड़ी, मथुरा तथा महावन परगनों का फौजदार नियुक्त करके भेजा। वह अपनी एक विशाल सेना के साथ आगरा से मथुरा पहुंचा और उसने इन परगनों में अपनी सैनिक चौकियां स्थापित कीं। सैनिक अभियानों की आड़ में वह अपनी कामुक वृत्तियों का दास बन गया। वह किसानों को स्थान-स्थान पर सैनिक बल से खदेड़ने लगा और उनकी सुन्दर स्त्रियों को पकड़कर अपने हरम में ले जाता था। जन्माष्टमी के दिन मथुरा के पास यमुना नदी के उस पार गोवर्धन (गोकुल) में हिन्दुओं का एक बड़ा मेला लगता था। हिन्दुओं की तरह माथे पर तिलक लगाए तथा धोती पहिने खान तुर्कमान पैदल ही उस भीड़ में चला जाता था। जब कभी वह किसी चन्द्रमुखी सुन्दर हिन्दू लड़की को देखता, तो उस पर मेमनों के झुण्ड पर झपटने वाले भेड़िये की भांति झपटता और उसे पकड़कर ले जाता था। यमुना नदी के किनारे उसके आदमी नौका के साथ तैयार रहते थे। वे उसको नौका में बैठाकर बड़ी तेजी से आगरा ले जाकर तुर्कमान के हरम में पहुंचा देते थे। इस हरम में सैंकड़ों हिन्दू लड़कियां थीं। खान के इन अधम एवं धर्म विरोधी पापात्मक अत्याचारों का बदला लेने के लिए ब्रजमण्डल के किसान सक्रिय हो गए। वे उसकी सैनिक टुकड़ियों तथा चौकियों पर हमला करने लगे। विद्रोही 1. जाट इतिहास पृ० 554, 629, लेखक ठा० देशराज; जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव-खण्ड), पृ० 171, लेखक ठा० देशराज; जाटों का नवीन इतिहास पृ० 193, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-621 जाटों के दमन के लिए तुर्कमान ने सन् 1638 ई० में सम्भल के अन्तर्गत जटवाड़ नामक जाटों की एक सुदृढ़ गढ़ी पर आक्रमण किया, परन्तु स्वाभिमानी जाटों ने रात्रि के समय मदिरा में चूर तुर्कमान को घेर लिया और उसे कत्ल कर डाला1। इस क्रान्ति का प्रभाव हिण्डौन परगना के किसानों पर पड़ा तथा उन्होंने खालसा (सरकारी) भूमि का लगान रोक लिया। हिन्डौन परगने के किसानों से लगान वसूल करने के लिए शाहजहां ने 4 जून, 1637 ई० को एक फरमान मिर्जा राजा जयसिंह को भेजा जिसके मिलते ही वह कछवाहा फौज के साथ आमेर से हिण्डौन पहुंचा। भीषण प्रयास के बाद किसानों ने विवश होकर लगान अवश्य अदा कर दिया, परन्तु इससे स्थायी हल नहीं निकला। किसानों में क्रान्ति की भावनायें उभर रही थीं और प्रतिवर्ष उपद्रव भड़क रहे थे। इस प्रकार यह भूखण्ड क्रान्तिकारियों का अखाड़ा बनता गया। फौजदार मुर्शिद कुली खां की हत्या के बाद 1642 ई० में सम्राट शाहजहां ने इरादत खां को मथुरा, कांमा, महावन, पहाड़ी परगनों का फौजदार नियुक्त किया और वह अपनी सेनाओं के साथ इन परगनों में शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए पहुंचा। इसमें उदारता तथा नैतिकता थी। वह समझता था कि “जाटों को आंख दिखाकर या धमकी देकर बस में करना जितना कठिन है, उदारता, दयाभाव से बस में करना उतना ही सरल है।” यह देखकर ही वास्तव में उसने चार वर्ष (सन् 1642-46 ई०) तक सैनिक शक्ति की अपेक्षा प्रेम तथा सहनशीलता से स्वाभिमानी जाटों को बस में रखकर ब्रजमण्डल* में शान्ति व्यवस्था बनाने में सफलता प्राप्त की। सिनसिनवाल गोत्र के जाट मदुसिंह एवं सिंघा की वीरता - श्रीकृष्ण जी से 82वीं पीढ़ी तथा सूये (सोदेव) से 13वीं पीढ़ी में रौरियासिंह हुआ। उसके चार पुत्रों में से एक का नाम सिंघा (उदयसिंह) तथा दूसरे का नाम विजय था। उस विजय का पुत्र मदुसिंह था। इस मदु (मदुसिंह) को महाकवि सूदन ने ‘महीपाल’ तथा ‘शाह का उरसाल’ (शाहजहां के हृदय का कांटा) लिखा है। वह वीर साहसी तथा क्रान्तिकारी जाट जमींदार था। उसने सिनसिनी गांव का ठाकुर (मुखिया) पद प्राप्त किया और शाही फौजदार करोड़ी सागरमल का विरोध करके डूंग तथा समीपवर्ती अन्य जाटपालों में यथेष्ट सम्मान तथा प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। उसने अपने चाचा सिंघा के नेतृत्व में एक किसान संगठन तैयार कर लिया। इन्होंने कांमा, पहाड़ी, कसबाखोह आदि परगनों के खानजादौं मेवाती, जाट, गुर्जर तथा अन्य नवयुवकों के साथ मिलकर आगरा तथा दिल्ली के मध्य खालसा (सरकार के अधिकृत) गांव तथा शाही मार्गों में काफिलों तथा व्यापारियों के माल को लूटना शुरु कर दिया। इससे शाही मार्ग बन्द हो गये। 1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 76-77, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक इतिहासकारों का हवाला देकर लिखा है। जाट इतिहास, पृ० 21-22, लेखक कालिकारंजन कानूनगो । (*) = ब्रज प्रदेश की सीमायें - पूर्व में अलीगढ़ जिले का बरहद गांव, पश्चिम में गुड़गांव जिले में सोमनदी के किनारे तक, दक्षिण में बटेश्वर (जि० आगरा) और उत्तर में मथुरा जिले का शेरगढ़ परगना। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-622 मदुसिंह सिनसिनवार के नेतृत्व में क्रान्ति की व्यापकता से दुखित होकर सम्राट् शाहजहां ने 1 जुलाई 1650 ई० को मिर्जा राजा जयसिंह को इन क्रान्तिकारियों को कुचलने के लिए नियुक्त किया। उसकी सेना के अतिरिक्त सम्राट् ने उनको शाही सेना और काफी मात्रा में धनराशि दी। मिर्जा राजा ने अपने राज्य आमेर में 4000 सवार, 6000 पैदल बन्दूकची या धनुर्धारी तथा जंगलों को साफ करने वाले बेलदारों की एक अतिरिक्त विशाल सेना तैयार की और इन क्रान्तिकारी परगनों में पहुंच गया। सम्राट् ने 18 सितम्बर 1650 ई० को मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र कीरतसिंह को 800-800 सवारों का मनसब और कॉमा, पहाड़ी तथा खोह परगने जिनका वार्षिक लगान चार लाख 76 हजार रुपयों से अधिक था, जागीर में प्रदान करके सम्मानित किया। लगभग एक वर्ष तक मिर्जा राजा जयसिंह, उसका पुत्र कीरतसिंह तथा कल्याणसिंह नरूका कछवाहा राजपूतों की विशाल सेना के बल पर संघर्ष करते रहे। उन्होंने क्रान्तिकारियों को निकालने, घेरकर बरबाद करने के लिए भयंकर जंगलों को साफ करवाया, कच्ची गढ़ियों को गिराया। मदुसिंह तथा उसके चाचा सिंघा ने जमकर युद्ध किया और एक-एक इंच भूमि पर जमकर लड़े। दीर्घ संघर्ष के बाद असंख्य जाट, मेव, खानजादौं, गूजर किसान तथा परिवार खेत रहे या बन्दी बना लिए गए। झुण्ड के झुण्ड किसान अपनी मातृभूमि को छोड़कर भाग गये। उनके असंख्य पशुओं और सम्पत्ति पर राजपूतों की सेना ने अधिकार कर लिया। सम्राट् शाहजहां के आदेशानुसार मिर्जा राजा जयसिंह ने 23 सितम्बर 1651 ई० को इन क्रान्तिकारियों के परगनों में राजपूत सरदार, जागीरदार तथा परिवारों को लाकर बसा लिया। जयसिंह ने कुछ स्थायी प्रबन्ध भी किये और उसने कल्याणसिंह नरूका के नेतृत्व में नरूका कछवाहा परिवारों को टवर (लक्ष्मणगढ़) तथा कठूमर (अलवर के दक्षिण-पूर्व 38 मील; सिनसिनी के पूर्व में 15 मील, कॉमा के दक्षिण-पूर्व में 14 मील) परगने में बसाया और कल्याणसिंह को माचेड़ी, राजगढ़ तथा आधी राजपुर की जागीर प्रदान की। इन विजयों के उपलक्ष्य में सम्राट् ने कीरतसिंह के मनसब में वृद्धि की और उसको मेवात का फौजदार नियुक्त किया। कॉमा, पहाड़ी तथा खोहरी के परगने कीरतसिंह तथा उसके परिवार के हाथों में स्थायी रूप से चले गये। कीरतसिंह ने कांमा को अपना स्थायी निवास बनाया। वहां पर विशाल महल, दुर्ग, मन्दिर तथा बागों का निर्माण कराया। क्रान्तिकारियों की पराजय होने पर वीर सिंघा को गिरसा गढ़ी छोड़नी पड़ी और वह यमुनापारी जाट परिवारों में जा रहा। सम्राट् शाहजहाँ ने 1654 ई० के बाद अपने पुत्र दारा शिकोह को आगरा सूबे का प्रबन्ध और मथुरा का परगना जागीर में दे दिया। दाराशिकोह स्वयं नम्र स्वभाव का था और हिन्दू धर्म के प्रति सहानुभूति रखता था। फलतः ब्रजमण्डल में सहिष्णुतापूर्ण उदार धार्मिक नीति को प्रश्रय मिला। सम्राट् ने वजीर सादुल्ला खां को गोकुल की खालसा (सरकार के अधिकृत) भूमि जागीर में दे दी। वजीर ने जाटप्रधान ग्रामों के बीच में सादाबाद नामक नवीन छावनी स्थापित की। उसने सन् 1652 ई० में ठेनुआ गोत्री प्रधान टप्पा, जावरा, जलेसर के कुछ भाग, खंदौली के सात गांव और महावन के 80 गांवों पर कब्जा करके सादाबाद के परगने में शामिल कर लिए। यह वजीर सादाबाद में 1652 से 7 अप्रैल, 1656 ई० तक रहा। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-623 किन्तु जाट सादाबाद परगने में उस वजीर के अधीन होते हुए भी स्वतन्त्र रहे। उन्होंने कभी सरकारी खजाने के लिए टैक्स नहीं दिया। उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए नवीन कच्ची गढियां बनाईं। रात दिन युद्ध-आक्रमण और आघात-प्रत्याघात जारी रखे1। ब्रजमण्डल में औरंगजेब के हिन्दुओं पर अत्याचारों का परिणाम - औरंगजेब (सन् 1658 -1707 ई०) ने अगस्त 1660 ई० में अब्दुन्नबी खां को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। वह विशाल सेना के साथ आगरा से मथुरा पहुंचा। वह कट्टर मजहबी तथा मुस्लिमपरस्त था। उसने मथुरा शहर के बीचों-बीच हिन्दू मन्दिरों के खण्डहरों पर सन् 1661-62 ई० में एक जामामस्जिद बनवाई, जो अभी तक मौजूद है। उसने जाट उपद्रवकारियों पर अचानक आक्रमण किये और उनके गांवों को बरबाद किया। जो व्यक्ति सपरिवार इधर-उधर भागने में विफल रहे, उनको मौत के घाट उतारा गया। मथुरा में केशवदेव जी के मन्दिर को दाराशिकोह ने एक पत्थर की जाली भेंट की थी। औरंगजेब के आदेश से फौजदार अब्दुन्नबी खां ने सितम्बर-अक्टूबर, 1662 ई० में बलपूर्वक वह जालीदार कठहरा हटवा दिया। शाहजहां की मृत्यु (जनवरी 12, 1666 ई०) के बाद औरंगजेब 4 फरवरी से अक्टूबर 1666 ई० तक अकबराबाद में रहा। उसके आदेश से मथुरा के फौजदार तथा मुहतसिब ने केशवदेव जी के मन्दिर की उच्चतम छतरियां, परकोटा तथा समस्त देवालयों (ठाकुरद्वारों) को तुड़वा दिया और अमूल्य जवाहरात तथा आभूषणों से सज्जित प्रतिमाओं की गाड़ियां भरकर भेजीं, जहां इन प्रतिमाओं को जहानआरा मस्जिद की पैड़ियों के नीचे डलवा दिया, ताकि मुसलमानों के पैरों तले लगातार कुचलती रहें। जनवरी 1670 ई० में औरंगजेब ने केशवदेव जी के मन्दिर को जड़ से तुड़वाने का आदेश दिया, जिसके खण्डहरों पर एक विशाल मस्जिद खड़ी की गईं, जो अभी तक विद्यमान है। इसकी मूर्तियों को आगरा ले जाकर नवाब कुदसिया बेगम मस्जिद की पैड़ियों के नीचे गाड़ दिया गया। औरंगजेब ने 1670 ई० में मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रखा। उसने 1669 ई० में हिन्दू मन्दिर तथा पाठशालाओं को तोड़कर गिराने के लिए राज्यव्यापी आदेश जारी किये। हिन्दुओं पर जजिया लगाया और उन पर ईश्वर की आराधना, मूर्तिपूजा, धार्मिक उत्सवों पर पाबन्दी लगाई। इन अत्याचारों से देश में त्राहि-त्राहि मच गई। ब्रजमण्डल के जाट जमींदार किसानों ने धर्मरक्षा और मानव स्वाधीनता का झण्डा उठाया, जिसको इन्होंने आगरा से दिल्ली तक फहराया। जाट जमींदार, किसान, मजदूर के नवजागृत संगठन का नेतृत्व सिनसिनवार गोत्री जाट सरदार गोकुला ने सम्भालकर बीहड़ जंगलों और राजपथों पर क्रान्ति का बिगुल बजाया। वीरवर गोकुला (गोकुलराम) (सन् 1660-1670 ई०) जाट सरदार ओला, जो आगे चलकर भारतीय इतिहास में गोकुला नाम से प्रसिद्ध हुआ, का जन्म सिनसिनी ग्राम में हुआ था। ‘ब्रजेन्द्र वंश भास्कर’ में इसका नाम कान्हादेव सिनसिनवार लिखा है। मदुसिंह, जिसकी वीरता का वर्णन पिछले पृष्ठों पर किया गया है, के चार पुत्र सिन्धुराज, 1. जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 78-82, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक पुस्तकों के हवाले से लिखा है। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-624 ओला (गोकुला), झमन और समन नामक थे। सन् 1650-51 ई० में मदुसिंह तथा उसके चाचा सिंघा (उदयसिंह) ने मिर्जा राजा का अपार साहस व वीरता से सामना किया। क्रान्ति की विफलता के बाद सिंघा ने अन्य जाटों के साथ गिरसा गढ़ी छोड़कर यमुना पारी जाट इलाकों में शरण ली। गोकुला भी अपने दादा सिंघा के साथ ही चला गया। प्रारम्भ में यह गोकुल महावन क्षेत्र के पनाह गांव में जाकर आबाद हो गया जहां सिनसिनवाल जाट गंगादेव की सन्ततियों ने उनका साथ दिया। गोकुला स्वभावतः क्रान्तिकारी, सिनसिनवाल गोत्री जाट था और उसने क्रान्तिकारी भावनाओं को सबल बनाने के लिए लूटमार अथवा राहजनी का सामाजिक धन्धा अपनाया। उसने अपने प्रभाव से दिल्ली के दक्षिण पूर्व 12 मील पर तिलपत की जमींदारी प्राप्त की। गोकुल से तिलपत जाकर बसने के कारण वह गोकुला कहलाने लगा। गोकुला जाट धर्मनिष्ठ, स्वाधीनता प्रेमी, सुयोग्य संगठक, सैन्यसंचालक, पराक्रमी, साहसी, उद्यमशील, निर्भीक तथा स्वाभिमानी सरदार था। गोकुला व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामाजिक एकता के महत्त्व को समझने वाला तथा मुगल साम्राज्य में सशस्त्र क्रान्ति की जड़ों को जमाने वाला प्रथम जाट मुखिया था। फौजदार नन्दराम, जो ठेनुआं गोत्री माखनसिंह का प्रपौत्र था, ने जाट युवकों को साथ लेकर सन् 1660 ई० में कोइल (अलीगढ़), मुरसान, हाथरस और मथुरा परगने के कुछ गांवों पर अधिकार कर लिया। सम्राट् औरंगजेब जाटों के इस विकसित उपद्रव की उपेक्षा नहीं कर सका और उसने 1660 ई० में जाट सरदार नन्दराम को फौजदार की उपाधि देकर तोछीगढ़ परगने का प्रबन्धक बना दिया। इससे सब जाटों ने उसका साथ छोड़ दिया। नन्दराम ने 35 वर्ष फौजदारी का प्रबन्ध सम्भाला और सन् 1696 ई० में मर गया। फौजदार नन्दराम ने तोछीगढ़ की जागीर प्राप्त करके अपने स्वाभिमान को सम्राट् के हाथों बेच दिया। अतः गोकुला ने गरीब निःसहाय तथा मजदूरों का नेतृत्व सम्भाला। जमींदार किसानों ने अपनी गढ़ियों को मजबूत बनाकर सुरक्षात्मक साधनों से सुसज्जित किया। गोकुला पर समर्थ गुरु रामदास के भाषण का प्रभाव- एक साधु जिसका नाम समर्थ गुरु रामदास था, जो छत्रपति शिवाजी के गुरु थे, महाराष्ट्र से चलकर संवत् 1722 वि० (सन् 1665 ई०) में हरयाणाप्रदेश पहुंचे। उसने औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध लोगों को स्वाधीन, देशभक्त, स्वाभिमानी और हिन्दू जाति के रक्षक बनने का संदेश मथुरा, वृंदावन, गढ़मुक्तेश्वर, हरद्वार आदि स्थानों पर दिया। उसने अपना अन्तिम भाषण बैसाखबदी अमावस्या संवत् 1723 वि० (सन् 1666 ई०) के दिन ईस्सापुर टीले के स्थान पर दिया। यह स्थान यमुना नदी के निकट, जिला मुजफ्फरनगर (उत्तरप्रदेश) में है। समर्थ गुरु रामदास के भाषण का सारांश - एक विशाल सभा, जिसमें अधिकतर संख्या जाटों की थी, को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि “आगरा और दिल्ली मुग़ल साम्राज्य के दो पांव हैं, जिनको तोड़ना जरूरी है। मैंने औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध सारे भारत में बारूद बिछा दी है जिसको चिंगारी देने के लिए कोई जाट का बेटा चाहिये क्योंकि राजपूत राजाओं ने मुगल बादशाहों को अपनी लड़कियों के डोले देकर उनकी अधीनता स्वीकार कर ली है। राजपूतों में जीवन शेष नहीं रहा। मैं यह आशय लेकर आया जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-625 हूँ कि जाट ही इस महान् कार्य को कर सकते हैं।” उन्होंने कहा कि दिल्ली और आगरा के मध्य क्षेत्रों में क्रान्ति कर सकने वाला, माता का सच्चा पुत्र परीक्षा के लिए आगे आ जाओ। यह सुनकर गोकुला और अनेक पंचायती योद्धा आगे आये और उन्होंने स्वतन्त्रता युद्ध के लिए अपनी जान को बलिदान करने की प्रतिज्ञा की। इन सब मल्ल योद्धाओं ने, जो अन्य कई जातियों के थे, गोकुला को अपना नेता मान लिया। उन्होंने समर्थ गुरु रामदास को कहा कि “सर्वखाप पंचायत और समाज में जाट बड़े हैं, यह हमारे बड़े भाई हैं। हम सब गोकुला के नेतृत्व में रहकर उसका साथ देंगे।” सबने पीपल का पत्ता और गंगा, यमुना का जल हथेली में लेकर शपथ ली। गुरु रामदास ने गोकुला को कहा कि “प्रिय पुत्र गोकुल! अपने देश तथा धर्म के लिए अपनी जान की बलि दे दो।” इस पर गोकुल ने एक पान का बीड़ा चबाया और अपनी नंगी तलवार गुरु जी के पैरों में रखकर कहा कि “आपका आशीर्वाद मेरे साथ रहे, मैं पीछे कभी नहीं हटूंगा।” इसी तरह से 5000 मल्ल योद्धाओं ने शपथ ली। इस तरह से गोकुला का राजनीतिक जीवन आरम्भ हुआ। समर्थ गुरु रामदास सर्वखाप पंचायत से मोहनचन्द्र जाट, हरीराम जाट, कलीराम अहीर नामक मल्ल योद्धाओं को अपने साथ महाराष्ट्र प्रदेश में ले गये। ये योद्धा छापामार युद्ध कौशल में निपुण थे। गुरु जी ने इनके द्वारा वहां मराठों तथा शिवाजी एवं उसकी सेना को गुरिल्ला युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया2। (2. सर्वखाप पंचायत रिकार्ड, संसार के युवा जाटों का प्रथम सम्मेलन (4-5 अक्तूबर 1986), गांव कंझावला, नई दिल्ली, पृ० 4-5 पर बालकिशन डबास का लेख)। सन् 1666 ई०, मई में गोकुला ने भगवा रंग का झण्डा उठाया, जिस पर लिखा था “शिव हर-हर महादेव” और अपने 5000 वीर योद्धाओं के साथ मथुरा पहुंचा। वहां उसने मुख्य मुसलमान हाकिम तथा अन्य कई शाही अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। फिर वह उन मंदिरों में पहुंचा जहां पर गायों को काटा जाता था। उसने वहां 221 बूचड़ों तथा 250 मांस बेचने वालों को कत्ल कर डाला। गोकुला ने किसानों को शाही कर न देने की घोषणा कर दी और दिल्ली से आगरा के मध्य क्षेत्रों में लूट-पाट एवं छापामार युद्ध जारी रखे। औरंगजेब ने सितम्बर 14, 1668 ई० को अब्दुन्नवी खां को मथुरा का फौजदार पुनः नियुक्त किया। उसने प्रशासनिक दृष्टि से यमुना नदी के पार गोकुल के दक्षिण में अपने नाम से एक नवीन छावनी स्थापित की। सन् 1669 ई० के शुरु में खान के सैनिक दस्ते लगान वसूल करने में लग गये, लेकिन जाट किसानों के विरोध के कारण खान को स्वयं विप्लव क्षेत्र में उतरना पड़ा। मथुरा परगने के किसानों का नेतृत्व गोकुला ने स्वयं सम्भाला। अप्रैल 1669 ई० में फौजदार खान ने आन्दोलनकारियों के प्रमुख गढ़ सुराहा (सहोर) नामक गांव का घेरा डाल दिया और उसे बरबाद कर दिया। परन्तु आक्रमण के समय मई 10, 1669 ई० को गोकुला संगठन के जाट क्रान्तिकारियों ने उस अब्दुन्नवी खां फौजदार को गोली से उड़ा दिया। मुग़ल सैनिक मैदान छोड़कर भाग निकले और उनकी युद्ध सामग्री जाटों के हाथ लगी। सुरहा गांव की विजय ने जाट किसान क्रान्तिकारियों के उत्साह में वृद्धि की। जाटों ने सादाबाद नगर तथा परगने में भीषण लूटमार की और चारों ओर अग्निकांड का ताण्डव मचा दिया। उन्होंने शाही खजाना भी लूट लिया जिसमें उन्हें 80,000 रुपये जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-626 नकद हाथ लगे। अब आगरा, मथुरा, सादाबाद, महावन आदि परगने जाट क्रान्ति के केन्द्र बन गये। मुगल कर्मचारियों का आतंक उठ गया और हिन्दू नागरिकों ने गोकुला का मुक्त-हस्त होकर साथ दिया। गोकुला तथा उसके दादा सिंघा (उदयसिंह) ने हरयाणा प्रदेश के दूर-दूर के जाट क्षेत्रों के युवकों को भरती किया। कुछ ही समय में 21,000 जाट और 15,000 अन्य जातियों के युवक जैसे अहीर, गूजर, रवे, सैनी आदि गोकुला के झण्डे के नीचे आ गये। ये सब योद्धा बिना वेतन लिए ही लड़े। इनको बन्दूकें देकर सिपाही बनाया। औरंगजेब ने 13 मई, 1669 ई० को अपने एक सेनापति रादअंदाज़ को आगरा के सीमावर्ती क्रान्तिकारियों को दबाने के लिए भेजा और उसी दिन सुयोग्य प्रशासक सैफशिकनखां को मथुरा का फौजदार नियुक्त कर दिया। उसकी सहायता के लिए राजपूत सरदार वीरमदेव सिसौदिया को भी भेजा। किन्तु इन सेनापतियों से वीर आन्दोलनकारी नहीं दब सके और क्रान्ति की काली छाया प्रति माह तेजी के साथ फैलती गई, जिससे मुगलिया सरकार तथा परगनों में गोकुला का भयंकर आतंक छा गया। औरंगजेब स्वयं एक विशाल मुग़ल सेना तथा तोपखाने के साथ रविवार, 28 नवम्बर के दिन दिल्ली से मथुरा पहुंचा और वहां छावनी डालकर गोकुला के विरुद्ध फौजी सेनापतियों का संचालन किया। शनिवार, 4 दिसम्बर, 1669 ई० के दिन हसन अली खां बड़ी सेना के साथ सादाबाद तथा मुरसान की जाट गढ़ियों की ओर रवाना हुआ। उसी दिन उसकी सेनाओं ने रेवाडा, चंदरख और सरखरु नामक तीन जाट गढियों पर एक साथ आक्रमण किया और इन्हें चारों ओर से घेर लिया। क्रान्तिकारियों ने दोपहर तक शत्रु का वीरता, साहस तथा बड़े उत्साह के साथ जमकर मुकाबिला किया। परन्तु वे मुगल सेना को पराजित न कर सके। अतः अनेकों अपनी पत्नियों को जौहर की ज्वाला में विदा करके अथवा तलवार के घाट उतारकर शेर की भांति मुगल सेना पर टूट पड़े और उसके घेरे को तोड़कर भागने में सफल हुए। दोनों ओर के अनेक सैनिक काम आये। तिलपत युद्ध और उसका परिणाम फौजदार हसन अली खां एक विशाल मुगल सेना तथा अन्य फौजदारों की नई कुमुक लेकर गोकुला का पीछा करने को आगे बढ़ा। इस विशाल सेना ने मथुरा, महावन तथा सादाबाद परगनों को बुरी तरह घेर लिया। इस भारी दबाव के कारण जाट सरदार गोकुला को सादाबाद परगना खाली करना पड़ा और उसने तिलपत में युद्ध की घोषणा कर दी। अतः हसन अली खां भी सादाबाद को छोड़कर तिलपत की ओर बढ़ा। इस अभियान में उसके साथ उसका पेशकार शेख राजउद्दीन भागलपुरी भी था। इसके अतिरिक्त हसन अली खां के नेतृत्व में 2,000 घुड़सवार, 25 तोपें, 1000 तोपची, 1000 धनुर्धारी, 1000 राकेटधारी, 1000 बेलदार और 1000 मार्गदर्शक थे। गोकुला और उसके दादा सिंघा (उदयसिंह) के नेतृत्व में 20,000 सवार व पैदल जाट साहसी सैनिक थे। उन्होंने दिसम्बर, 1669 ई० में तिलपत से 20 मील दूर भयंकर जंगलों जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-627 की आड़ लेकर मुगलिया सेनाओं पर आक्रमण कर दिया। इन्होंने कई दिन तक शाही सेना का कड़ा मुकाबिला किया, किन्तु आग्नेय अस्त्रों ने इनके पैर उखाड़ दिये। अतः एक रात्रि में उन्होंने अपना घेरा उठा लिया और तिलपत गांव में युद्ध की तैयारियां शुरु कर दीं। शाही सेना ने तिलपत को घेर लिया और तोपों से गोलाबारी शुरु कर दी। किसानों के घर गोलों की मार से ध्वस्त होने लगे, किन्तु खण्डहरों में से शाही सेना पर जवाबी हमले होते रहे। शाही सैनिकों का साहस तीन दिन तक गांव में घुसने का नहीं हुआ। वे गांव में, उसी समय घुस सके, जब गांव का प्रत्येक पुरुष बलिदान कर चुका था। तिलपत गांव की समस्त विवाहित अथवा अविवाहित नारियों ने घरों में आग लगाकर अथवा कुओं में कूदकर अपने नारीत्व की रक्षा की। मुगल सेना ने तिलपत गढ़ी पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में मुगल सेनानायकों सहित 4000 सैनिक काम आये और कई हजार बुरी तरह जख्मी हुए, जबकि 5000 जाट खेत रहे। इससे जाटों के साहस व वीरता का भली-भांति पता चल जाता है। वीर गोकुला एवं उसके दादा सिंघा (उदयसिंह) को बन्दी बना लिया गया। इन दोनों को तिपलत से आगरा ले जाया गया। जाट सरदार गोकुला का बलिदान (जनवरी, 1670 ई०) शनिवार, जनवरी 1, 1670 ई० के दिन औरंगजेब ने मथुरा से अपनी छावनी उठाई और आगरा किले के महलों में प्रवेश किया। फौजदार हसन अली खां जाट सरदार गोकुला और उपनेता सिंघा (उदयसिंह) को सम्राट् के सामने ले गया। औरंगजेब ने वीर गोकुला से कहा कि “इस्लाम धर्म कबूल करो और वायदा करो कि छोड़ देने पर फिर विद्रोह नहीं करोगे।” उस देशभक्त तथा जाति के स्वाभिमानी वीर गोकुला ने औरंगजेब को कड़े शब्दों में उत्तर दिया कि “मैं क्षत्रिय जाट हूं, मुसलमान कभी नहीं बन सकता और छोड़ देने पर फिर विद्रोह की आग जला दूंगा।” अतः औरंगजेब ने इन दोनों जाट सरदारों को बेरहमी से कत्ल करने का आदेश दिया। जनवरी 1670 ई० के प्रथम सप्ताह में राष्ट्र, धर्म और जाति के स्वाभिमानी सरदार गोकुला एवं सिंघा (उदयसिंह) को आगरा की कोतवाली के सामने एक ऊँचे चबूतरे पर जंजीरों से बांधकर जल्लादों के सामने लाया गया। जल्लादों ने निर्दयता के साथ उनके विभिन्न अंगों को एक-एक करके नीचे से ऊपर तक कुल्हाड़ों से लकड़ियों की भांति काट डाला, किन्तु मरते दम तक वे यही कहते रहे कि “मुसलमान नहीं बनेंगे तथा छोड़ देने पर विद्रोह की आग जला देंगे।” आधार पुस्तकें - जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 65-97, लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अनेक पुस्तकों के हवाले से लिखा है; जाट इतिहास, पृ० 19-21, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; जाट इतिहास, पृ० 628-631 लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 430-431, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; महाराजा सूरजमल, पृ० 19-24, लेखक कुं० नटवरसिंह; महाराजा सूरजमल और उनका युग, पृ० 15-25, लेखक डॉ० प्रकाशचन्द्र चान्दावत; इतिहासपुरुष महाराजा सूरजमल, पृ० 3-10, लेखक नत्थनसिंह एम० ए० पी० एच० डी०; हरयाणा सर्वखाप रिकार्ड; संसार के युवा जाटों का प्रथम सम्मेलन (4-5 अक्टूबर 1986) गांव कंझावला, नई दिल्ली, पृ० 4-6, पर बालकिशन डबास का लेख। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-628 हिन्दू धर्म की रक्षा एवं देशभक्ति का यह अद्वितीय उदाहरण है। वीर योद्धा गोकुला एवं उसके दादा सिंघा का बलिदान सदा अमर रहेगा। हिन्दू-मुसलमान का विशाल समूह इस करुण दृश्य को देख रहा था। जिस समय इन वीरों के शरीर के अंगों को काटा जा रहा था, उस समय दर्शक हिचकियां भरकर रो रहे थे, किन्तु ये वीर निश्चल तथा प्रसन्नचित्त थे। गोकुला का खून व्यर्थ नहीं बहा, उसने जाटों के हृदय में स्वतंत्रता के नये अंकुर में पानी दिया। निडर वीर योद्धा राजाराम जाट (1670-1688 ई०) वंश परिचय - सिनसिनवाल गोत्री जाट मदुसिंह (गोकुला के पिता) से चौथी पीढ़ी में खानचन्द हुआ जिसके चार पुत्र जैनखा, झुझा, ब्रजराज और भज्जा (भगवन्त) नामक थे। भज्जा का पुत्र वीर राजाराम हुआ जिसके दो पुत्र जोरावरसिंह और फतहसिंह हुए। ब्रजराज के सात पुत्र हुए जिनमें से एक का नाम ठाकुर चूड़ामन और दूसरे का नाम भावसिंह था। ठाकुर चूड़ामन के नौ पुत्रों में से दो पुत्र जुलकरन तथा मोहकम नामक थे। भावसिंह के पुत्र बदनसिंह एवं रूपसिंह नामक थे। बदनसिंह के 26 पुत्रों में से एक महाराजा सूरजमल प्रसिद्ध भरतपुर नरेश थे। ठाकुर ब्रजराज तथा भज्जा – सिनसिनवाल गोत्री जाट खानचन्द ने उत्तराधिकार प्राप्त किया और सिनसिनी* गांव की सरदारी सम्भाली। उसने अपनी तलवार के बल पर सिनसिनी तथा उसके आस-पास आबाद गांवों की जमींदारी तथा सरदारी प्राप्त कर ली थी। ब्रजराज तथा भज्जा ने सिनसिनी ग्राम की जमींदारी प्राप्त की। ये दोनों भाई अति उदार, दानवीर थे। इन्होंने अपने दो बैलों की जोड़ी (केवल यही उनके पास थे) एक भट्ट ब्राह्मण को दान कर दी। उसी समय उस ब्राह्मण के मुंह से आशीर्वाद के रूप में ये शब्द निकल पड़े - इत दिल्ली उत आगरौ, बीचहि तख्त मझार। सुबस बसियौ सिनसिनी, जहं ब्रज भगवत दातार॥ ब्रजराज ने दो सदी (200) सवारों का तथा भज्जा ने एक सदी (100) सवारों का गिरोह तैयार किया और सिनसिनवार डूंग को इस योग्य बनाया कि वह अपने स्वाधीन भविष्य तथा भाग्य का निर्माण कर सके। उन दोनों भाइयों में संगठन की क्षमता और स्वाधीनता की भावना थी, जिसका नेतृत्व भज्जा के साहसी पुत्र राजाराम ने सम्भाला। राजाराम का अऊ की गढ़ी पर आक्रमण अऊ कस्बा, आधुनिक डीग नगर के दक्षिण-पूर्व में 4 मील पर था। अऊ में एक थाना स्थापित था जिसमें थानेदार लालबेग था और उसके पास काफी सिपाही थे। यह अति कपटी, दुराचारी तथा लम्पट अधिकारी था। यह सैनिक बल से हिन्दुओं की ललनाओं का अपहरण करता रहता था। (*) सिनसिनी = भरतपुर से 16 मील उ० प० में तथा डीग से 8 मील दक्षिण में। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-629 एक दिन एक अहीर अपनी विवाहित पत्नी के साथ अऊ कस्बे के समीप कुंआ तथा छायादार वृक्षों के नीचे भोजन करने के लिए रुका। यह स्त्री बड़ी रूपवती थी। यह पता लगने पर उस थानेदार ने अपने सिपाही भेजकर उस स्त्री को बन्दी बनाकर मंगवा लिया और उसको अपने बन्दीखाने में डाल दिया। जब यह समाचार भज्जा तथा उसके पुत्र राजाराम के पास पहुंचा तब उन्होंने भारतीय नारी सतीत्व की रक्षा करने का संकल्प कर लिया। इन्होंने अपने साथी युवकों के साथ उस थाने की गढ़ी को घेर लिया और मुगल सैनिकों पर टूट पड़े तथा उनको और थानेदार लालबेग खां को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार राजाराम ने प्रथम बार अऊ पर आक्रमण करके ख्याति उपलब्ध की। उसकी धाक आस-पास के परगनों में बैठ गई। इस घटना से बाध्य होकर उसको विद्रोही जीवन में प्रवेश करना पड़ा। सिनसिनवार तथा सोगरिया जाटों का संगठित होना - आधुनिक भरतपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में चार मील भयंकर जंगल में सोगर नामक कच्ची मिट्टी की एक साधारण गढ़ी, सोगरवार जाटों का प्रमुख स्थान था। इन जाटों ने भी अनेक गांवों की जमींदारी प्राप्त कर ली थी और ओल तथा हेलक परगनों में अपना प्रभुत्व तथा प्रभाव बढ़ाया। ये लोग भी लड़ाकू तथा लूटमार करने में प्रसिद्ध थे। इन जाटों का नेतृत्व इस समय रामकी चाहर (चाहरगोत्री जाट) नामक नवयुवक ने सम्भाला। राजाराम ने सर्वप्रथम रामकी चाहर से मित्रता की जिससे सिनसिनवार एवं सोगरवार जाटों का एक संगठन हो गया। रामकी चाहर ने राजाराम का जीवनभर साथ दिया और उसकी कमान में रहकर पूर्ण आज्ञाकारी रहा। इस एकता ने पश्चिमी तटवर्ती (काठेड़) जाट शक्ति को एक माला में पिरो दिया। जाट किसान नवयुवकों ने स्वाधीनता की विजयपताका फहराई और मुगलसाम्राज्य की महान् शक्ति को चुनौती दी। राजाराम ने मुगल जागीरदारी प्राप्त की राजाराम ने सिनसिनी छोड़कर परगना कठूमर में जाटौली थून1 नामक गांव की जमींदारी सम्भाली और कुछ समय में ही उसने जाटौली थून में रहकर 40 गांवों की जमींदारी प्राप्त की और इन गांवों का शक्तिसम्पन्न सरदार हो गया था। औरंगजेब जाट आंदोलन की जड़ों को उखाड़ने के लिए आगरा सूबे में स्थायी मुगल सेना रखने में असमर्थ था। अतः सन् 1672 में नियुक्त आगरे के सूबेदार हिम्मत खां की प्रेरणा से औरंगजेब ने जाटों को दबाने के लिए कड़ाई की अपेक्षा नम्रता का सहारा लिया। सम्राट् ने राजाराम को वफादारी जाहिर करने के लिए आमन्त्रित किया। एम० एफ० ओडायर का कहना है कि “मुगल दरबार में उपस्थित होने से पूर्व राजाराम ने सिनसिनवार डूंग तथा विभिन्न पालों की एक पंचायत की। बुजुर्ग सरदार जमींदार तथा चौधरियों ने एक स्वर से 1. डीग से दक्षिण-पश्चिम में 4 मील। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-630 सम्राट् के आमन्त्रण को स्वीकार किया और दिल्ली की प्रिय अथवा अप्रिय घटना के साथ अपने दिल-दिमाग को एक धागे में पिरोया।” राजाराम का दिल्ली में सत्कार किया गया और लूटमार बन्द करने के आश्वासन पर उसे मथुरा की गद्दी तथा 575 गांवों की जागीर दे दी गई। राजाराम ने इस जागीर से सामयिक लाभ उठाया और वह जागीर जाटों को वरदान तथा मुगल साम्राज्य को कांटों का ताज साबित हुई। राजाराम ने बन्दूकची सवारों की नियमित शर्त पर इनाम के रूप में अपने किसानों में इन गांवों की धरती को बांट दिया। भरतपुर राज्य की “पट्टा प्रणाली अथवा सैनिक जागीर” के विकास का यह प्रथम चरण था। इससे राजाराम तथा सिनसिनवार सरदारों को मात्र सम्मान ही नहीं मिला, अपितु उनको सैनिक शक्ति भी प्राप्त हुई, जिससे क्रान्ति, विकास तथा स्वाधीनता की परम्परा का मार्ग खुल गया2। स्थायी सैनिक संगठन - “सैनिक सेवावृत्ति” के कारण राजाराम को स्थायी बन्दूकची तथा सवार सेना रखने का अवसर मिला। यमुना नदी के पश्चिमी भूखंड (काथेज जनपद) में आबाद सिनसिनवार, सोगरिया, कुन्तल (खूंटेल) तथा चाहर डूंगों के जाट नवयुवक एक संगठन में बन्ध गए। राजाराम और रामकी चाहर ने वीर साहसी नवयुवकों की एक नियमित सेना तैयार की और उनके हाथों में आग्नेय अस्त्र, बन्दूक आदि देकर पूरा सिपाही बनाया। इनको गुरिल्ला (छापामार) युद्ध की शिक्षा-दीक्षा दी। कुछ समय में ही उसके नेतृत्व में 20,000 नवयुवक आकर एकत्रित हो गये। मुगल परगनों की लूट का माल-असबाब तथा युद्ध सामग्री को सुरक्षित करने के लिए मार्गहीन बीहड़ जंगलों के बीच में स्थान-स्थान पर छोटी-छोटी गढ़ियों का निर्माण किया गया। मुगल तोपखाना पंक्ति के बचाने के लिए स्थायी प्रबन्ध किये गए। धीरे-धीरे सिनसिनी, पैंघोर, सोगर, सौंख, अवार, पींगौरा, इन्दौली, इकरन, अधापुर, अड़ीग, अछनेरा, गूजर सौंख आदि अनेक ग्राम गढ़ियां इस क्रान्ति के प्रमुख गढ़ बन गये। आगरा परगने में लगान सम्बन्धी उपद्रव (जून, 1681 ई०) सम्राट् औरंगजेब 1681 ई० में दक्षिण भारत के अभियानों पर काबू पाने के लिए चला गया और वहां उसने शासन के पिछले 26 वर्ष व्यतीत किये। उसकी वहीं पर 20 फरवरी, सन् 1707 को मृत्यु हुई थी। आलमगीर ने इब्राहीम हुसैन को मुल्तफत खां उपाधि देकर और ढाई हजरी जात का मनसब बनाकर आगरा परगने का फौजदार नियुक्त कर दिया। उसकी कमान में किसानों से लगान वसूल करने के लिए शाही सेना रवाना की। 1681 ई० में आगरा के समीप ग्रामीण किसानों ने लगान न देने की घोषणा कर दी थी। मुल्तफत खां ने जून, 1681 ई० में एक विद्रोही गांव की घेराबन्दी की और बलपूर्वक लगान लेना शुरु किया। समस्त गांव के निवासियों ने उत्साह, साहस तथा लगन के साथ शाही सेना का सामना किया और उसे बुरी तरह कुचल कर खदेड़ दिया। किसान सैनिक मुल्तफत खां को बन्दी बनाकर अपनी गढ़ी में ले गये। उसकी 2. ओडायर, 3/25; मेनन, 251 के हवालों से जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 104-105, पर लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-631 जूतियों से अच्छी तरह पिटाई की और अन्त में उसे हिजड़ा समझकर छोड़ दिया। मनुची भाग 2, पृ० 223-5 और डॉ० सरकार का कथन है कि इस फौजदार मुल्तफत खां की मृत्यु प्राणघातक जख्मों के कारण 6 जुलाई 1681 ई० को हो गई। राजाराम के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों की शाही सेना से मुठभेड़ - सन् 1683-1684 ई० में राजाराम तथा रामकी चाहर के जाट सैनिक आगरा-दिल्ली, आगरा-बयाना तथा आगरा-ग्वालियर और मालवा को जाने वाले शाही मार्गों पर निडर होकर घूमने लगे। उन्होंने शाही खजाना, सैनिक साज-सामान, खाद्य सामग्री की गाड़ियां तथा कारवां को लूटना शुरु कर दिया। आगरा प्रान्त के सूबेदार तथा फौजदारों को क्रान्तिकारियों की भयंकर लूट का सामना करना पड़ा। फतुहात-ए-आलमगीरी के अनुसार, “जाटवीरों की भयंकर लूट, भय तथा आतंक से आगरा सूबे के समस्त शाही मार्ग पूर्णतः रुक गये। चारों ओर खजाना लूटने वाले दीवानों का काफिला दिखाई देता था, जिसे पार करके एक साधारण व्यापारी क्या! एक चिड़िया भी नहीं निकल सकती थी।” क्रान्तिकारियों ने व्यापारियों से अवैध ‘राहदारी कर’ वसूल करना शुरु किया। केवल आगरा से धौलपुर तक जाने वाले कारवां को 200 रुपया “सुरक्षा कर” अदा करना पड़ता था। इस लूट के माल से क्रान्तिकारियों की साधारण गढ़ियां भरने लगीं और बन्दूकों की नोक पर आगरा सूबे में जाट जमींदार मजदूर-किसानों का जागरण निनाद गूंज उठा। हाजी मुहम्मद शफी खां की राजाराम के साथ मुठभेड़ सम्राट् औरंगजेब ने औरंगाबाद के सूबेदार हाजी मुहम्मद शफी खां को 7 सितम्बर 1664 ई० के दिन आगरा सूबे का सूबेदार नियुक्त किया। उसने आगरा पहुंचकर जाटों की अनैतिक लूट-खसोट को रोकने के प्रयास किए किन्तु असफल रहा। उसने सिनसिनवारों की मातृभूमि सिनसिनी की गढ़ी को अपना लक्ष्य बनाया। शफी खां के अनुसार जाट सिनसिनी के गढ़ी में सुरक्षित रहकर आगरा के आसपास उपद्रव करते थे। प्रतिमाह आक्रमण करके अनेकों कारवां को लूट लेते थे। सन् 1684 ई० में शफी खां ने जाटों के दमन तथा सिनसिनी की गढ़ी को बरबाद करने के लिए मिर्जा खानजहां को रवाना किया। जाटों ने इसका वीरता एवं साहस से मुकाबिला किया और मुग़ल सेना को मार भगाया और मिर्जा खानजहां हारकर वापिस लौट गया। वीर राजाराम ने अपने जाट सैनिकों को साथ लेकर आगरा के सूबेदार शफी खां को आगरा में घेर लिया। जाटों ने शाही कोष और हथियारों को लूट लिया। शफी खां ने किले के फाटक बन्द करवा दिये और वह किले में चुप्पी साधकर छिप गया। उसकी हिम्मत सामना करने की नहीं पड़ी। अतः राजाराम ने आगरा परगने को दिल खोलकर लूटा। क्रान्तिकारियों ने किले का घेरा उठाकर अकबर महान् की समाधि सिकन्दरा की ओर कूच किया। वे सिकन्दरा समाधि (मकबरा) के कीमती माल और साज-सामान को लूटना चाहते थे। सूचना मिलते ही सिकन्दरा मकबरे का फौजदार मीर अबुल फजल अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा। इसकी राजाराम के साथ भयंकर मुठभेड़ हुई जिसमें क्रान्तिकारियों को वहां से हटना पड़ा। लेकिन इस युद्ध में मीर अबुल फजल सख्त घायल हुआ और उसके अधिकांश सिपाही काम आये अथवा घायल हुए। यद्यपि जाट क्रान्तिकारी सिकन्दरा को हानि पहुंचाने में असफल रहे, लेकिन उन्होंने पीछे जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-632 हटकर मुगलों के गांव शिकारपुर को बुरी तरह लूटा और यहां पर नकद तथा काफी अन्य माल उनके हाथ लगा। यहां से हटकर क्रान्तिकारी रतनपुर लौटे और इसे लूटते हुये अपनी गढ़ियों में वापिस लौट गये। महीना-दर-महीना राजराम अधिकाधिक दबंग होता गया। सन् 1686 ई० में एक तुरानी सेनाध्यक्ष आगा खां काबुल से आकर बीजापुर में औरंगजेब के पास जा रहा था। जब उसका काफिला धौलपुर पहुंचा, तब राजाराम के छापामार दल, आगा खां के सैनिकों पर टूट पड़े। इससे पहले कभी किसी ने शाही क़ाफिलों पर इस प्रकार खुल्लमखुल्ला हमला करने की हिम्मत नहीं की थी। यह धावा करके जाटों ने आगा खां की स्त्रियां, घोड़े और सामान छीन लिया और वापिस लौट गये। आगा खां ने उनका पीछा किया। जब वह जाटों के पास पहुंचा तो राजाराम ने उसे और उसके 80 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। जब सुदूर दक्षिण में औरंगजेब ने अपने तुरानी सेनाध्यक्ष का यह हाल सुना तो वह चौंक उठा। कालीकारंजन कानूनगो के लेख अनुसार - “दक्षिण में लोमड़ी की तरह चालाक मराठों का नित्य पीछा करके थका हुआ दुःखी सम्राट्, अपनी ही राजधानी के समीप शिकारी भेड़ियों की भांति जाटों की गुर्राहट सुनकर चकित रह गया।” अन्य मुगल सेनापति और क्रान्तिकारियों की मुठभेड़ सम्राट् औरंगजेब ने जाटों की क्रान्ति को दबाने के लिए सोमवार, मई 3, 1686 ई० के दिन, महान् मुगल सेनापति कोकलतास-जफरजंग को खानजहां बहादुर का खिताब देकर आगरा भेजा। खानजहां बहादुर ने आगरा पहुंच कर अपनी विशाल सेनाओं को अपने पुत्र की कमान में राजाराम के विरुद्ध इधर-उधर छितरा दिया। वह स्वयं राजमार्गों पर से जाटवीरों की छापामार टुकड़ियों को हटाने की चेष्टा में इधर-उधर भटकता रहा, लेकिन मुट्ठी भर क्रान्तिकारी सैनिकों को एक वर्ष तक कठिन प्रयासों के बाद भी नहीं दबा सका। इसका सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण कारण मुग़ल प्रबन्धक जागीरदार और प्रशासक थे। वे राजाराम के साथ मिलकर मुगल खजाने की लूट में साझीदार थे। फलतः जाट क्रान्तिकारियों को कोकलतास के खेमे में से सभी महत्त्वपूर्ण सूचनायें स्वच्छन्दतापूर्वक मिलती थीं। दूसरा कारण जाटों की गुरिल्ला युद्ध प्रणाली था। इन कारणों से मुगल सैनिक हताश हो गये और सेनापति के पैर उखड़ गये। उसे भारी विपत्तियां उठानी पड़ीं। अन्त में सम्राट् ने दिसम्बर 1687 ई० में अपने 17 वर्षीय नवयुवक पोते शहजादा बेदारबख्त को शाही सेनाओं की सर्वोच्च कमान सौंपकर जाटों के विरुद्ध भेजा और अपने धात्री भ्राता खानजहां को शहजादा का सलाहकार तथा नायब नियुक्त किया। राजाराम का महावत खां पर आक्रमण (1688 ई०) सन् 1688 ई० के प्रारम्भ में गुजरात के सूबेदार मीर इब्राहीम हैदराबादी को महावत खां का खिताब देकर सम्राट् ने उसे लाहौर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। वह गुजरात से पंजाब की ओर चल दिया। मार्ग में उसने यमुना नदी के किनारे सिकन्दरा के पास अपनी सेनाओं का पड़ाव डाला। जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-633
भाग प्रथम----
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