इतिहास का सच यही है.....
भारत मे जब भी किसी को गद्दार की उपमा दी जाती है तो उसे जयचन्द कहा जाता है। गहरवार वंश के महान शासक जयचन्द के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार भगवत शरण लिखते हैं कि ये जयचन्द के प्रति अन्याय है। दरअसल पृथ्वीराज और गोरी के युद्ध मे जयचन्द के तटस्थ रहने के कारण कथाओं में उसे हिन्दू विरोधी कहा गया। इसके पीछे पृथ्वीराज का महिमा मंडन भी करना था जिसमे उसके चारण, भाट सफल भी हुए।
जयचन्द और पृथ्बिराज मौसेरे भाई थे। अजमेर के साथ नाना की सत्ता पाने के बाद पृथ्वी कुछ ज्यादा अभिमानी हो चुका था। इसके अलावा वह महिलाओं पर बुरी तरह आसक्त रहता था। उसने अपने जीवन काल मे आधा दर्जन युद्ध केवल राजकुमारियों के अपहरण के लिये लड़े। इसमें एक युद्ध यादव गढ़ की राजकुमारी के असफल अपहरण के प्रयास को लेकर भी हुआ, जो जयचन्द की मंगेतर थी। दूसरा आक्रमण महोबा पर किया, जिसमे जयचन्द ने महोबा की मदद की। पृथ्वी ने सोलंकियों की राजकुमारी के अपहरण के लिए भी युद्ध किये, जिसके कारण सोलंकियों ने पृथ्वी के पिता सोमेश्वर की हत्या कर दी। भावार्थ ये की सुंदर राजकुमारियों के अपहरण के चक्कर मे पृथ्वी ने लगातार युद्धों में अपने प्रमुख सरदार खोए, अपनी शक्ति खोई और अपने इर्द गिर्द के सारे हिन्दू राजाओं को अपना विरोधी बनाया।
कथाओं और भाट रचित काव्यों में आरोप लगाया जाता है कि जयचन्द ने गौरी को पृथ्वी पर हमले का निमंत्रण दिया था, लेकिन इतिहास इसकी पुष्टि नही करता। हिन्दू वादी रुझान वाले वरिष्ठ इतिहासकार यदुनाथ सरकार से लेकर आर सी मजूमदार तक जयचन्द पर लगे इस आरोप का खंडन करते हैं।
1192 में तराईन के मैदान में गोरी और पृथ्वी के बीच हुए युद्ध मे जयचन्द वैसे ही तटस्थ था, जैसे पृथ्वी से त्रस्त अन्य हिन्दू राजा थे। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि उस युद्ध मे सोलंकियों की एक टुकड़ी गौरी के पक्ष में लड़ने भी गई थी। ऐसे में जयचन्द को गद्दार कैसे कह जा सकता है।
तराईन के मैदान में पृथ्वी भागते हुए पकड़ा गया था। उसके बाद उसने गौरी की अधीनता स्वीकार् की थी।उसने गौरी की शान में सिक्के भी ढलवाये जिसके एक तरफ पृथ्बिराज की तस्वीर है, दूसरी तरफ गौरी की। पृथ्वीराज को 1192 नहीं 1193 में मारा गया जब उसने बगावत की कोशिश की, इसके बाद वहां का शासक उसके बेटे गोविंन्द को बनाया गया। इस कथन की प्रामाणिकता की गारंटी अब सभी वरिष्ठ इतिहासकार करते हैं।कारण उन सिक्कों और कुछ पुराने दस्तावेजों का मिल जाना है।
एक तरफ ये है दूसरी तरफ जयचन्द है। पृथ्वी को 1192 में निपटाने के बाद गौरी ने जयचन्द को अधीनता स्वीकार करने का सन्देश् भेजा। जयचन्द के इनकार करने पर 1194 में गोरी और जयचन्द के बीच युद्द हुआ। वीर जयचन्द चंदवार के मैदान में आखिरी दम तक लड़ता रहा और अंत में शहीद हुआ। वो चाहता तो पृथ्वी की तरह जान बचा कर भाग सकता था और गौरी की अधीनता कबूल कर सकता था।
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