मंगलवार, 8 जुलाई 2025

पञ्चम वर्ण की श्रेष्ठता और गोपों की उत्पत्ति -

एतस्मिन्नन्तरे देवीला जिह्वाग्रात्सहसा ततः ।
आविर्बभूव कन्यैका शुक्लवर्णा मनोहरा ॥ ५२ ॥

श्वेतवस्त्रपरीधाना वीणापुस्तकधारिणी ।
रत्‍नभूषणभूषाढ्या सर्वशास्त्राधिदेवता ॥ ५३ ॥
अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपो बभूव ह ।
वामार्धाङ्‌गाच्च कमला दक्षिणार्धाच्च राधिका ॥ ५४॥
अनुवाद:-
इसके बाद देवीके जिह्वाग्र से सहसा ही एक सुन्दर गौरवर्ण कन्या प्रकट हुई। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था तथा वे हाथमें वीणा पुस्तक लिये हुए थीं। सभी शास्त्रोंकी अधिष्ठात्री वे देवी रत्नोंके आभूषण से सुशोभित थीं। कालान्तरमें वे भी द्विधारूपसे विभक्त हो गयीं। उनके वाम अर्धागसे कमला तथा दक्षिण अर्धागसे राधिका प्रकट हुई। ll 52-54॥
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अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।
भूताश्चासंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः ॥६०॥

रूपेण च गुणेनैव बलेन विक्रमेण च ।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः॥६१॥

राधाङ्‌गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः ।
राधातुल्याश्च ताः सर्वा राधादास्यः प्रियम्वदाः॥६२॥

अनुवाद:-

हे मुने ! गोलोकनाथ श्रीकृष्णके रोमकूपों से असंख्य गोपगण प्रकट हुए; जो वय, तेज, रूप, गुण, बल तथा पराक्रम में उन्हीं के समान थे। 
वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण के प्राणों के समान प्रिय पार्षद बन गये ।। 60-61 ॥

श्रीराधा के अंगोंके रोमकूपों से अनेक गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सब राधा के ही समान थीं तथा उनकी प्रियवादिनी दासियों के रूप में रहती थीं। वे सभी रत्नाभरणों से भूषित और सदा स्थिरयौवना थीं,।
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नवम स्कन्ध अध्याय द्वितीय-

२)- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) , जिसमें गोप और गोपों की उत्पति के विषय में  लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२


अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष-रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

(३)-  ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।

अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

(४) - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्याय- (२) के श्लोक संख्या- (७) से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों (यादवों) का जन्म गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा से ही हुआ है। तो जाहिर सी बात है कि गोपों अर्थात् यादवों का जनन (Genetic) गोत्र सिद्धान्त के अनुसार इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार "कार्ष्ण" ही हुआ। यह वैज्ञानिक और ध्रुव सत्य है।

नंदो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपिसः॥
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोमसमुद्‌भवाः ॥२१॥

राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैःपरैः॥२२॥

 गर्ग संहिता विश्जित्खण्ड॒ अध्याय एकादश (11)


चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।

चातुर्वर्ण्यं= चार वर्णों को । मया = मेरा द्वारा । सृष्टि= रचना की गयी । गुणकर्मविभागशः  गुण = विशेषता । और कर्म करने की प्रवृत्ति । के विभाजन से। तस्य= उस व्यवस्था का कर्ता होते हुए भी। माम् = मुझको । विद्धि= जानो ।अकर्तारम् =इस वर्ण के कर्मो को न करने वाला।  अव्ययम्= मैं अव्यय हूँ। मेरा इस वर्ण व्यवस्था में कोई व्यय ( निवेश) नही होता है।

विशेष- चातुर्वर्ण्यं व्यवस्था ब्रह्मा के द्वारा स्वयं ईश्वर ने ही की है। अर्थात ब्रह्मा निमित्त कारण हैं और ईश्वर ( भगवान श्रीकृष्ण) उपादान कारण है। यह तो लोक प्रसिद्ध ही है कि ब्रह्मा ने ही चारों वर्णों की उत्पत्ति याज्ञिक क्रियाओं के सम्पादन हेतु की हैं। इसी लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उपादान कारण ते रूप में पहले कर्ता बताया परन्तु तुरन्त बाद अकर्तारम् अव्ययम् भी कहा इसका तात्पर्य यही है कि वह ब्रह्मा के चातुर्वर्ण्यं व्यवस्था से परे हैं।
स्वयं इसका प्रत्यक्षीकरण उनके वहुरूपीय चरित्र से ही होता है।
जैसे वे एक सारथि के रूप में सूत( शूद्र) की भूमिका में है। गोपालन करने से वैश्य की भूमिका में है।  श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान देने से ब्राह्मण की भूमिका में है। शत्रुओं का रण में संहार करने से क्षत्रिय की भूमिका भी है। वाराणसी सेना के योद्धा गोप ( अहीर ) लोग ही थे।

भगवान श्रीकृष्ण ने पञ्चम वर्ण की अवधारणा को चरितार्थ किया वैदिक साहित्य में पञ्चजना: और पञ्चकृष्टय: पद भारतीय समाज में  पाँच वर्णों की मान्यताओं को अभिव्यक्त करते हैं ।
कृष्ण ने स्वयं  पाञ्चजन्य शङ्ख का उद्घोष पाँच वर्णों के प्रतिनिधित्व के रूप में किया था

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण वैष्णव वर्ण के सूत्रधार हैं।
उनके चिर सहचर गोप भी रूप वेष और गुणों में
प्रारम्भिक अवस्था में  उन्ही कृष्ण के अनुरूप थे।
कृष्ण का गोलोक वासी रूप स्वराट् विष्णु है।
उन्हीं के रोमकूपों से गोप गण उत्पन्न होते हैं।
तीन चार ग्रन्थों में इसका प्रमाण मिलता है।

पञ्चम वर्ण के विषय में भी नहीं जानते हैं। 
जिसका वर्णन वेदों से लेकर पुराणों में भी मिलता है।

यदि आप चाहें  - तो हम आपको सभी सन्दर्भ भी उपलब्ध कराऐंगे-
हम आपको यह भी बता दें- कि 
पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति परमात्मा स्वराट- विष्णु  के स्वरूप गोपेश्वर श्रीकृष्ण से ही हुई है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण का सनातन मूल स्वरूप स्वराट विष्णु- है। जो गोलोक में विराजमान रहता है।
उन्ही स्वराट विष्णु की सृष्टि होने से सभी गोप गण वैष्णव वर्ण के धारक हैं।

आप सभी ब्राह्मण की  चार वर्णों सहित  उत्पत्ति ब्रह्मा से ही बतायी जाती हैं।
और ब्रह्मा की उत्पत्ति स्वराट्- विष्णु के  सबसे  छोटे रूप क्षुद्र-विराट विष्णु के नाभि कमल से हुई हैं।


और चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से ही उत्पन्न हैं।
तो आप ही अन्दाजा लगाइए कि गोप कहाँ उत्पन्‍न हुए और ब्रह्मा के पुत्र ब्राह्मण कहाँ उत्पन्न हुए हैं।
दोनों में उत्पत्ति भेद के स्तर में भी बड़ा अन्तर स्पष्ट होता है।
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ब्रह्मा ने केवल चार वर्णों की रचना की  पाँचवा वर्ण वैष्णव है जो विष्णु के द्वारा रचा गया है।

जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुके हैं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर वृत्तियों अथवा व्यवसायों का वरण (चयन) करती हैं।

उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। 
अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र)  आदि का निर्धारण हुआ है।

ठीक इसी तरह से यादवों अथवा गोपों का भी वैष्णव वर्ण उत्पत्ति भेद की दृष्टि से निर्धारित हुआ है।

जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से बिल्कुल अलग एवं स्वतन्त्र है।
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किन्तु परवर्ती पुरोहितों ने  पुराणों में गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया जो कि सैद्धान्तिक नहीं है।। 

जबकि देखा जाए तो ये दोनो जातियाँ  पाँचवें वर्ण की नहीं मानी जाऐंगी । जिसमें निषाद तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं।
इस प्रकार  ऐसे में एक जाति दो वर्णों को कैसे धारण कर सकती हैं। 

इसलिए निषाद जाति का पाँचवाँ वर्ण नहीं बल्कि चातुर्वर्ण्य का अवयव ही माना जा सकता है।

इसी तरह से कायस्थ जाति को भी पञ्चम-वर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया के उच्च भाग से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं, जो लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण तथा प्राणियों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के ही सन्निकट मानी जाऐंगे ।

अतः कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था का अंग हैं न कि पञ्चम-वर्ण का ।

तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चम वर्ण में कौन हो सकता है ? तो इसका जवाब भागवत धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया है 
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जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो स्वराट
विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से  गोप( यादव) ही वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। 
स्वराट्- विष्णु ( के रोमकूपों से उत्पन्न गोप लोग ही वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं। 
जो  सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के उत्तर-खण्ड के अध्याय (६८) के श्लोक संख्या १-२-३ से होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।*

                     -महेश्वर उवाच-
शृणु नारद ! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात्।१।  
            
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२।                                                   
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते।३।   

अनुवाद:-
१-महेश्वर-ने कहा ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
                    
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।     
                            
३-चूँकि वह स्वराट विष्णु (श्रीकृष्ण) से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३।        

यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण  से भी देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से सन्तति वाचक तद्धित 'अण्' प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द की  व्यत्पत्ति बताई गई है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द बना है जो- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- विष्णु से वैष्णव पद ( विभक्ति युक्त शब्द ) बनता है और इन्हीं विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है, जिसे पञ्चमवर्ण के नाम से भी जाना जाता है। जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।

                          श्लोक:
ब्राह्मण क्षत्त्रिय वैश्य शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
तथा स्वतन्त्रा जातिरेका आभीरा च तस्या वर्ण अस्मिन् विश्वे वैष्णवाभिधा।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखण्ड, एकादश अध्याय, सात्वतीय टीका)
सारांश (टीका के अनुसार)
यह श्लोक ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड से लिया गया है, जिसमें चातुर्यवर्ण्य  व्यवस्था के अतिरिक्त पाँवे वैष्णव वर्ण  की महत्ता को भी दर्शाया गया है। श्लोक में कहा गया है कि जैसे समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं, वैसे ही विश्व में वैष्णव नाम का एक स्वतन्त्र और सर्वोच्च वर्ण है।

इस वैष्णव वर्ण के अंतर्गत आभीर /आहीर (  यादव अथवा गोप  जाति को एक स्वतन्त्र और विशेष जाति के रूप में उल्लेखित किया गया है, जो गोप (आभीर) जाति  भगवान स्वराट्-  विष्णु  से उत्पन्न होकर  उनकी सनातन भक्ति में ही  लीन रहती है। वह वर्ण से वैष्णव है।

विस्तृत व्याख्या व भावार्थ:-
यह श्लोक भारतीय दर्शन और सामाजिक संरचना में ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था के साथ-साथ स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न  एक अन्य वर्ण वैष्णव की  सार्वभौमिकता , प्राचीनता  और उसकी सर्वोपरिता को स्थापित करता है।

शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था को समाज के कार्यों को सुचारु व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए बनाया गया था, जिसमें प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र) की अपनी विशिष्ट भूमिका थी। 
एक अन्य वर्ण वैष्णव इन चारों वर्णों से पृथक और सर्वोच्च था।

समाज में प्राचीन काल से ही  वर्ण व्यवस्था के प्रतिनिधित्व के लिए पञ्चायत व्यवस्था भी कायम थी। जो समवेत रूप से सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए सम्मति व निर्णय पारित करती थी। जिसे सम्पूर्ण समाज स्वीकार भी करता था।

पञ्च शब्द समाज के पाँच वर्णों के प्रतिनिधीयों को स्वयं में अन्तर्निहित किए हुए है।

वैदिक ऋचाओं में बहुतायत से पञ्चजना, और पञ्चकृष्टय: जैसे पद पाँच वर्णों से सम्बन्धित  पञ्चायत व्यवस्था की प्राचीनता को अभिव्यक्त करते है।
जैसे -ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा वर्णन करती है।
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम। 
ऊर्जाद उत यज्ञियास: *पञ्चजना* मम होत्रं जुषध्वम् ॥ (ऋग्वेद-१०/५३/४)
अनुवाद- अग्निदेव कहते हैं- आज उस प्रथम वाणी को हृदयस्थ रूपेण उच्चारण करता हूँ।  जिसके प्रभाव से देवगणों ने असुरो को अभिभूत (पराजित) किया था। पौष्टिक अन्नों का ही सेवन करनेवाले  पाँच वर्णों के यज्ञ कर्ता व्यक्तियों  !  तुम  मेरे हवन को प्रीतिपूर्वक सेवन करो।४।
भाष्य-
वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
 तथा पञ्चमो  वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा  भवन्ति।

अनुवाद:-
वेदों में लिखित पञ्चजना विशेषण शब्द पाँच वर्णों के प्रतिनिधि व्यक्तियों का वाचक  हैं।  चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - जो ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में हैं। 
और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों के वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित ही है।

ऋग्वेद में ही पञ्चकृष्टय:  पद पाँचवर्णों का प्रतिनिधि है।

"वयमग्ने अर्वता वा सुवीर्यं ब्रह्मणा वा चितयेमा जनाँ अति ।
अस्माकं द्युम्नमधि पञ्च कृष्टिषूच्चा स्वर्ण शुशुचीत दुष्टरम् ॥१०॥ 
ऋ०२/२/१०
अनुवाद:- हे अग्नि ! हम सब गतिशील घोड़े के द्वारा बढ़े हुए बल की वृद्धि से सभी व्यक्तियों को अतिक्रमण करते हुए प्रकाशित हों !
हमारा धन भी पाँच वर्णों में विभाजित ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पाँचवें वैष्णव वर्ण से भी अधिक ऊँचा हो।  सूर्य के समान दैदीप्यमान हम किसी के द्वारा न पराजित हो। (ऋ०२/२/१०)

(अग्ने) = हे अग्नि ! (वयम्) = हम (अर्वता वा) = अर्वत्- तृतीया विभक्ति एकवचन   घोड़े द्वारा =   (जनान् अति) = सब मनुष्यों को लाँघकर (सुवीर्यम्) = उत्कृष्ट शक्ति को (आ चितयेम) = प्रकाशित करें।   (अस्माकम्) = हमारा (द्युम्नम्) =  धन बल पञ्चे (कृष्टिषु) ='ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र व वैष्णव रूप' पाँच वर्णों में विभक्त हुए मनुष्यों में (उच्चा) = उच्च हो, (दुस्तरम्) = किसी से पराजित न किया जानेवाला हो और (स्वर्ण/ स्वर्+ न ) =  सोना / अथवा सूर्य के समान  (अधिशुशुचीत) = अधिक प्रकाशित हो उठे।
 
पुराणों में वर्णन मिलता है। कि 
कृष्ण की भक्ति और चरित्र को विषय में केवल चार लोग ही पूर्ण जानते हैं- जिनमें गोप अथवा यादव  भी सर्वप्रथम हैं।

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।                                          
अनुवाद -• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप- गोपियाँ ( यादव) ही जानते हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को तो कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८२-८३।

ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)
अध्यायः( ९४)

भगवान श्रीकृष्ण की चारित्रिक कथाओं का ही भागवत कथाओं के रूप में जाना जाता है।
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इसलिए भी भागवत कथाओं को वाचने का पूर्ण अधिकार शास्त्र सम्मत विधि से केवल यादवों को ही सबसे पहले है। ब्राह्मण अथवा किसी दूसरी जाति के व्यक्तियों को भी यह अधिकार नहीं है।
 क्योंकि ब्रह्मा जी  ही  जब कृष्ण चरित्र व भक्ति को पूरा नहीं जानते  हैं तो ब्रह्मा के पुत्र ब्राह्मण कृष्ण चरित्र ( भागवततत्व ) को कैसे  जान सकते हैं ?

वैसे भी जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के समान्तर भागवत धर्म गोपों ( यादवों) का प्राचीन धर्म है। 
और वैष्णव इनका वर्ण है। जो ब्रह्मा के चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था से बहुत ऊपर है। 

वैष्णव वर्ण के गोप नारायणी सेना के योद्धा बनकर महाभारत का युद्ध करते हैं और गोपालन तथा कृषि कर्म भी करते हैं। वे महाभारत में गीता का गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान भी कृष्ण के  गोप रूप में ही देते हैं-

और दीन हीन व्यक्तियों को लिए वे सदैव सहायक तथा सेवक बनकर  तत्पर भी रहते हैं।
ब्राह्मणों की चातुर्य वर्णव्यवस्था में ऐसा विधान नहीं है। वहाँ एक वर्ण का व्यक्ति एक ही काम को वंश परम्परागत रूप में करता रहेगा।

परन्तु वैष्णव वर्ण और भागवत धर्म के अनुयायी अहीर सब कर सकते हैं। अर्थात
अहीर ब्रह्मा की वर्ण- व्यवस्था के सभी कार्य करने से उनकी चातुर्य वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत नहीं आ सकते हैं।
इसलिए इनका अलग पाँचवाँ वर्ण है।

अत: अभी विगत दिवसों इटावा जिला  के बकेवर क्षेत्र  में की गयी  यादवों भागवतकथावाचकों के खिलाफ सामाजिक गन्दिगी सबको सुविदित ही है जिसमें यादव भागवत कथा वाचकों के साथ की गयी है। जो ब्राह्मण के पतन और विनाश का कारण  बनने की प्रारम्भिक अवस्था है।-
यह कटु है परन्तु सत्य है। समय इस घटना को प्रतिक्रियात्म रूप से दोहराएगा


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अविमुक्तेश्वरानन्द हम आपको यह भी संकेत कर दें कि आपने ब्राह्मण मोह में सत्य निर्णय नहीं लिया जबकि आप  शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हैं। आपने मूत्र छिड़कने वाले धूर्त  ब्राह्मणों के समर्थन में कई अपूर्ण और पूर्वदुराग्रह पूर्ण बातें कहीं  जैसा कि भागवत कथाओं के वाचक की पात्रता के विषय में भी कहा- जैसा कि

पद्मऱपुराण उत्तरखण्ड के निम्नलिखित श्लोकों को आपने भागवत कथा कहने की शास्त्रीय पात्रता के सन्दर्भ में उद्धृत किया।
जिन्हें हम नीचे उद्धृत कर रहे हैं-

"विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽति निःस्पृहः॥२०॥
अनुवाद:-विरक्त, वैष्णव और ब्राह्मण ये तीनों वेदों और शास्त्रों को पवित्र करते हैं ।
शास्त्र वक्ता को दृष्टान्तों में कुशल, संयमी  होना चाहिए तथा महत्वाकांक्षा से सर्वथा मुक्त होना चाहिए।20।

अनेकधर्मविभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः ।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि ब्राह्मणा:॥२१॥
अनुवाद:- जो व्यक्ति स्वयं धर्म के विभिन्न मार्गों से भ्रमित हैं, स्त्रियों में अत्यधिक आसक्त हैं, पाखण्ड को मानते हैं, वे भले ही ब्राह्मण क्यों न हों, भागवत पुराण कहने के  अयोग्य ही हैं।२१।

वक्तुः पार्श्वे सहायार्थमन्यः स्थाप्यस्तथाविधः ।
पण्डितः संशयच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः॥२२॥
अनुवाद:-
भागवत के व्याख्याता के साथ तथा उसकी सहायता के लिए , व्याख्याता के समान योग्यता वाला एक अन्य विद्वान ,जो (श्रोताओं के) संदेहों का समाधान करने में समर्थ हो तथा लोगों को ज्ञान देने में तत्पर हो, वक्ता बगल( पार्श्व) में  उसको बैठना चाहिए।२२।

पद्मपुराण-यह उत्तरखण्ड के (193) वें अध्याय में श्रीमद्भागवत की महिमा (महात्म्य) का वर्णन है.

आप शंकराचार्य पद पर बैठ कर भी  पुराण और वैदिक शास्त्रों के जानकार प्रतीत नहीं होते हैं।
उपर्युक्त  श्लोकों में  वर्णित वैष्णव शब्द  विष्णु से उत्पन्न गोप लोगों  का वाचक है। स्वयं पुराण भी  पाँचवें वर्ण के धारक गोपों को भागवतकथाओं को कहने का पात्र मानते हो।

सन्दर्भ ग्रन्थ-
    ★-श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी-★

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