🙏 नंदगोप श्री और वसुदेव श्री 🙏
चचेरे भाई के रूप में रक्त संबंध
अब इतिहास चोरों की दाल नहीं गलेगी
1.नंदगोप और वसुदेव: चचेरे भाई के रूप में रक्त संबंध-
वंशावली का आधार
देवमीढ़ (कभी-कभी देवमीढुस के रूप में उल्लिखित) नंदगोप और वसुदेव के साझा पितामह थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं-
अश्मकी (क्षत्रिय वर्ण) जिनसे शूरसेन का जन्म हुआ। शूरसेन की पत्नी मारिषा थीं, और उनके पुत्र वसुदेव थे।
गुणवती (वैश्य वर्ण) जिनसे पर्जन्य का जन्म हुआ। पर्जन्य की पत्नी वरीयसी थीं, और उनके पुत्र नंदगोप थे।
इस प्रकार, शूरसेन और पर्जन्य सौतेले भाई थे (एक ही पिता, देवमीढ़, लेकिन अलग-अलग माताएँ), और उनके पुत्र, वसुदेव और नंदगोप, चचेरे भाई थे। निम्नलिखित वंशावली इसे स्पष्ट करती है-
देवमीढ़
├── अश्मकी (क्षत्रिय) → शूरसेन (मारिषा) → वसुदेव (देवकी/रोहिणी से कृष्ण और बलराम)
└── गुणवती (वैश्य) → पर्जन्य (वरीयसी) → नंदगोप (यशोदा)
प्रमुख श्लोक और व्याख्या
निम्नलिखित ग्रंथों से श्लोक उद्धृत किए जाएंगे, जो नंदगोप और वसुदेव के चचेरे भाई होने के रिश्ते को स्थापित करते हैं। प्रत्येक श्लोक की व्याख्या वैदिक और पुराण परंपरा के आधार पर होगी।
(i) श्रीमद्भागवत पुराण (10/5/19-20)
श्लोक-
गोपान् गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः।
नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह ॥ १९ ॥
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ॥ २० ॥
(श्रीमद्भागवत पुराण, दशम स्कंध, अध्याय 5, श्लोक 19-20, गीता प्रेस संस्करण, पेज 1095)
अनुवाद-
हे कुरुश्रेष्ठ परीक्षित! नंद ने गोकुल की रक्षा का भार अन्य गोपों को सौंपकर, कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा गए। (१९)
जब वसुदेव को पता चला कि नंद मथुरा आए हैं और उन्होंने राजा कंस को कर दे दिया है, तब वे नंद से मिलने गए। (२०)
व्याख्या-
- “भ्रातरं” (भाई) शब्द नंद के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो वसुदेव के साथ उनके निकट पारिवारिक संबंध को दर्शाता है। संस्कृत में “भ्राता” शब्द सगे भाई, चचेरे भाई, या निकट संबंधी के लिए प्रयुक्त होता है। श्रीधरी टीका (गीता प्रेस, पेज 910) और वंशीधरी टीका (पेज 1674) इस शब्द को चचेरे भाई के संदर्भ में व्याख्या करते हैं, क्योंकि गोपाल चम्पू और अन्य ग्रंथों में शूरसेन और पर्जन्य को सौतेले भाई बताया गया है, जिससे वसुदेव और नंद चचेरे भाई बनते हैं।
- यह श्लोक वसुदेव और नंद के बीच गहरे विश्वास को दर्शाता है। वसुदेव का नंद से मिलने जाना और श्रीकृष्ण की सुरक्षा के लिए उन पर भरोसा करना उनके पारिवारिक बंधन की गहराई को प्रकट करता है। श्रीमद्भागवत पुराण (10/5/21-27) में उनकी बातचीत का वर्णन है, जिसमें वसुदेव नंद को गोकुल में श्रीकृष्ण की सुरक्षा के लिए सावधान रहने की सलाह देते हैं।
- यह श्लोक यदु वंश की एकता को रेखांकित करता है, क्योंकि वसुदेव (क्षत्रिय) और नंद (गोप) दोनों एक ही वंश से हैं।
प्रामाणिकता-
- श्रीमद्भागवत पुराण वैदिक साहित्य का प्रमुख पुराण है, जिसे भक्तों और विद्वानों द्वारा प्रामाणिक माना जाता है। गीता प्रेस का संस्करण और श्रीधरी टीका इसकी विश्वसनीयता को और बढ़ाते हैं।
(ii) गोपाल चम्पू (जीव गोस्वामी, पूर्व चम्पू, तृतीय पूरण)
श्लोक
अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्यवतंसः देवमीढ़नामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ॥
तस्य चार्याणां शिरोमणेभार्याद्वयमासीत्। प्रथमा द्वितीयवर्णा, द्वितीया तु तृतीयवर्णेति।
तयोश्च क्रमेण यथावदांह्वयं प्रथमं वभूव-शूरः, पर्जन्य इति।
तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवादयः समुदयन्ति स्म। श्रीमान् पर्जन्यस्तु मातृवद्वर्णसंकरः इति न्यायेन वैष्यतामेवाविश्य गवामेवैश्यं वश्यं चकारः, वृहद्वन एव च वासमाचचार ॥
(गोपाल चम्पू, पूर्व चम्पू, तृतीय पूरण, पेज 101)
अनुवाद-
समस्त श्रुति और पुराणों में प्रशंसित, यदु वंश के श्रेष्ठ और परम गुणों के धाम देवमीढ़ मथुरा में निवास करते थे।
उनकी दो पत्नियाँ थीं- प्रथम क्षत्रिय वर्ण की, और द्वितीय वैश्य वर्ण की। इनसे क्रमशः दो पुत्र उत्पन्न हुए—शूरसेन और पर्जन्य।
शूरसेन से वसुदेव आदि उत्पन्न हुए। पर्जन्य ने, अपनी माता के वैश्य वर्ण के कारण, वैश्य कर्म को अपनाया और गोपालन का कार्य किया। उन्होंने महावन (गोकुल) में निवास किया।
व्याख्या-
यह श्लोक देवमीढ़ को नंद और वसुदेव का साझा पितामह स्थापित करता है। उनकी दो पत्नियों, अश्मकी (क्षत्रिय) और गुणवती (वैश्य), से क्रमशः शूरसेन और पर्जन्य का जन्म हुआ। शूरसेन से वसुदेव, और पर्जन्य से नंदगोप उत्पन्न हुए, जिससे वे चचेरे भाई बनते हैं।
पर्जन्य के वैश्य वर्ण को अपनाने का कारण उनकी माता गुणवती का वैश्य होना है, जो गोप समुदाय की पशुपालक पहचान को दर्शाता है। वसुदेव, शूरसेन के क्षत्रिय होने के कारण, क्षत्रिय कर्मों से जुड़े रहे।
यह श्लोक यादव सभ्यता की एकता को रेखांकित करता है, क्योंकि गोप (पर्जन्य और नंद) और क्षत्रिय (शूरसेन और वसुदेव) दोनों यदु वंश के हिस्से थे।
प्रामाणिकता-
गोपाल चम्पू जीव गोस्वामी द्वारा रचित प्रामाणिक वैष्णव ग्रंथ है, जो गौड़ीय सम्प्रदाय में पूजनीय है। यह श्लोक वंशावली को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है।
(iii) वंशीधरी टीका (श्रीमद्भागवत पुराण, दशम स्कंध, अध्याय 5)
श्लोक-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूरवैमात्रेयभ्रतुर्जातत्वादिति भारततात्पर्ये श्रीमध्वाचार्येरूक्तं ब्रह्मवाक्यम।
देवमीढ़स्य द्वे भार्ये एका क्षत्रिया तस्या शूरः वैश्या तस्यां पर्जन्य इति।
(वंशीधरी टीका, दशम स्कंध, पूर्व भाग, अध्याय 5, पेज 1674)
अनुवाद-
मध्वाचार्य के भारततात्पर्य निर्णय के अनुसार, नंद को वसुदेव का भाई कहा गया है, क्योंकि शूरसेन की सौतेली माँ (वैश्य वर्ण) से पर्जन्य का जन्म हुआ।
देवमीढ़ की दो पत्नियाँ थीं: एक क्षत्रिय, जिससे शूरसेन का जन्म हुआ, और दूसरी वैश्य, जिससे पर्जन्य का जन्म हुआ।
व्याख्या
यह टीका श्रीमद्भागवत पुराण के श्लोक 10/5/20 की व्याख्या करती है। मध्वाचार्य और वंशीधरी टीकाकार स्पष्ट करते हैं कि “भ्राता” शब्द चचेरे भाई के संदर्भ में है, क्योंकि शूरसेन और पर्जन्य सौतेले भाई थे।
देवमीढ़ की दो पत्नियों से उत्पन्न शूरसेन और पर्जन्य की वंशावली स्पष्ट है। शूरसेन से वसुदेव और पर्जन्य से नंदगोप का जन्म हुआ, जो चचेरे भाई हैं।
यह टीका गोप समुदाय की वैश्य पहचान को पुष्ट करती है, जो पर्जन्य की माता के वैश्य वर्ण के कारण है।
प्रामाणिकता-
वंशीधरी टीका और मध्वाचार्य की व्याख्या वैदिक और पुराण परंपरा में मान्य है। यह श्लोक नंद और वसुदेव के रिश्ते को ग्रंथीय आधार पर स्थापित करता है।
(iv) गर्ग संहिता (अश्वमेध खंड, अध्याय 40)
श्लोक-
उग्रसेन ह्यश्वैष पुरे मम समागतः।
पालितो ह्यनिरुद्धेन मत्प्रपौत्रेण सर्वतः ॥ १९ ॥
(गर्ग संहिता, अश्वमेध खंड, अध्याय 40)
अनुवाद-
उग्रसेन का यह घोड़ा मेरे नगर में आया है। इसे मेरे प्रपौत्र अनिरुद्ध ने पाला है।
व्याख्या-
नंदगोप, उग्रसेन के यज्ञ के घोड़े को देखकर कहते हैं कि यह उनके प्रपौत्र अनिरुद्ध का है। अनिरुद्ध श्रीकृष्ण का पुत्र और वसुदेव का पौत्र है। नंद का अनिरुद्ध को प्रपौत्र कहना यह दर्शाता है कि नंद और वसुदेव एक ही परिवार के हैं।
यह श्लोक नंद और वसुदेव के चचेरे भाई होने को अप्रत्यक्ष रूप से पुष्ट करता है और यदु वंश की एकता को रेखांकित करता है।
प्रामाणिकता-
गर्ग संहिता प्रामाणिक वैष्णव ग्रंथ है, जो श्रीकृष्ण और यदु वंश की लीलाओं को वर्णन करता है। यह श्लोक रिश्ते की पुष्टि करता है।
(v) हरिवंश पुराण (हरिवंशपर्व, अध्याय 34)
श्लोक-
अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुसः।
महिष्यां जज्ञिरे शूराद् भोज्यायां पुरुषा दश ॥ १७ ॥
(हरिवंश पुराण, हरिवंशपर्व, अध्याय 34)
अनुवाद-
देवमीढुस ने अश्मकी से शूरसेन को जन्म दिया। शूरसेन से अपनी पत्नी भोज्या (मारिषा) के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न हुए।
व्याख्या-
यह श्लोक देवमीढ़ और उनकी पत्नी अश्मकी से शूरसेन के जन्म को स्थापित करता है। शूरसेन से वसुदेव का जन्म हुआ, जो उनके दस पुत्रों में से एक हैं।
पर्जन्य और नंद का उल्लेख इस श्लोक में नहीं है, लेकिन गोपाल चम्पू और वंशीधरी टीका में दी गई जानकारी से स्पष्ट होता है कि पर्जन्य देवमीढ़ की दूसरी पत्नी गुणवती से उत्पन्न हुए, और उनसे नंदगोप का जन्म हुआ।
प्रामाणिकता-
हरिवंश पुराण महाभारत का परिशिष्ट है और वैदिक साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह श्लोक यदु वंश की विश्वसनीयता को स्थापित करता है।
(vi) राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका (रूप गोस्वामी)
श्लोक-
पितामहो हरेौरः सितकेशः सिताम्बरः।
मंगलामृतपर्जन्यः पर्जन्यो नाम बल्लवः ॥ १५ (ख) ॥
वरिष्ठो व्रजगोष्ठीनां स कृष्णस्य पितामहः ॥ १६ ॥
तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारैः समं सर्वैर्ययौ भीतो बृहद्वनं ॥ २० ॥
(राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका, श्लोक 15-16, 20)
अनुवाद-
श्रीकृष्ण के पितामह पर्जन्य का नाम मंगल और अमृत की वर्षा करने वाले मेघ के समान है। उनकी अंगकांति तप्त कंचन की तरह है, और उनके केश और वस्त्र सफेद हैं। वे व्रज के गोपों में श्रेष्ठ और पूज्य हैं। (१५-१६)
पर्जन्य ने नंदीश्वर में प्रसन्नतापूर्वक निवास किया, लेकिन केशी राक्षस के आगमन के भय से अपने परिवार सहित महावन (गोकुल) चले गए। (२०)
व्याख्या-
यह श्लोक पर्जन्य को श्रीकृष्ण के पितामह के रूप में स्थापित करता है, और उनकी पत्नी वरीयसी से नंदगोप का जन्म हुआ। गोपाल चम्पू और वंशीधरी टीका के साथ यह श्लोक पर्जन्य को देवमीढ़ के पुत्र के रूप में जोड़ता है, जिससे नंद और वसुदेव का चचेरा भाई का रिश्ता पुष्ट होता है।
पर्जन्य का गोकुल प्रवास गोप समुदाय की पशुपालक पहचान को दर्शाता है, जो यदु वंश की वैश्य शाखा से जुड़ा है।
प्रामाणिकता-
रूप गोस्वामी की राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका गौड़ीय वैष्णव परंपरा में पूजनीय है। यह श्लोक वंशावली और गोप समुदाय की पहचान को स्थापित करता है।
(vii) श्रृंगार रस सागर (किशोरीदास, तृतीय खंड)
काव्य-
कुल आभीर नृपति महाबाहु। तिनके कजनाभि चाहु।
भुवबल चित्रसेन जो जानो। ये राजा अति ही परधानो।
परमधर्म-वुज भक्त सिरोमनि। देवमीढ़ लियो हरि सेवा पन।
तिनके पुत्र नाम परजन्य। परम वैष्णव महाआनंद।
मेघ समान दया सनमान। वरसत सकल प्रजा पर दान।
पाँच पुत्र तिनके कुल दीप। मध्य पुत्र हैं नद महीप।
बड़े उपनद और अभिनंदन। भैया बड़े वली श्री नंदन।
छोटे हैं सुनंदन अरू नंदन। भैया चार नदजगवंदन।
(श्रृंगार रस सागर, तृतीय खंड, पृष्ठ 17-18, व्रज का रास रंगमंच में उद्धृत)
अनुवाद-
आभीर कुल के राजा, महाबाहु देवमीढ़ ने हरि की सेवा का व्रत लिया। उनके पुत्र पर्जन्य परम वैष्णव और आनंदमय थे। वे मेघ के समान दयालु थे और प्रजा पर दान की वर्षा करते थे। उनके पाँच पुत्र थे, जिनमें मँझला पुत्र नंद महीप (नंदगोप) था। अन्य पुत्र थे उपनंद, अभिनंद, सुनंदन, और नंदन।
व्याख्या-
यह काव्य आभीर और यादव की एकता को दर्शाता है। देवमीढ़ को आभीर कुल का राजा कहा गया है, जो यदु वंश से संबद्ध था। उनके पुत्र पर्जन्य से नंदगोप का जन्म हुआ, जो गोप समुदाय के नेता थे।
आभीर-विशेष के रूप में गोपों की पहचान यदु वंश की व्यापकता को दर्शाती है, जिसमें क्षत्रिय (वसुदेव) और वैश्य (नंदगोप) दोनों शामिल थे। नंद के चार भाइयों का उल्लेख गोप समुदाय की संगठित संरचना को दर्शाता है।
प्रामाणिकता-
श्रृंगार रस सागर काव्यात्मक रचना है, जो व्रज का रास रंगमंच में उद्धृत है। यह आभीर और यादव की सांस्कृतिक एकता को वैदिक परंपरा के अनुरूप प्रस्तुत करता है।
(viii) ब्रह्मवैवर्त पुराण (भाग 2, 7/5)
संदर्भ-
ब्रह्मवैवर्त पुराण में वसुदेव को यशोदा का ज्येष्ठ कहा गया है, जो नंद के साथ उनके निकट संबंध को दर्शाता है।
व्याख्या-
यह उल्लेख नंद और वसुदेव के बीच निकट पारिवारिक संबंध को पुष्ट करता है। गोपाल चम्पू और वंशीधरी टीका के आधार पर, “ज्येष्ठ” शब्द को चचेरे भाई के संदर्भ में व्याख्या किया जा सकता है, क्योंकि संस्कृत में पारिवारिक शब्दावली व्यापक अर्थों में प्रयुक्त होती है।
यह यदु वंश की एकता को रेखांकित करता है।
प्रामाणिकता-
ब्रह्मवैवर्त पुराण एक प्रमुख वैष्णव पुराण है, जो श्रीकृष्ण और यदु वंश की महिमा का वर्णन करता है।
(ix) कल्याण भक्तमाल अंक (गीता प्रेस, अध्याय 33)
वर्णन-
यदुवंश में सर्वगुण सम्पन्न देवमीढ़ नाम के एक राजा हुए। ये श्रीदेवमीढ़ मथुरा में निवास करते थे। इनकी दो पत्नियाँ थीं। पहली क्षत्रियवर्ण की, दूसरी वैश्य वर्ण की। उन दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र हुए। एक का नाम था शूरसेन, दूसरे का नाम था पर्जन्य।
(कल्याण भक्तमाल अंक, गीता प्रेस, गोरखपुर, अध्याय 33)
व्याख्या-
-यह वर्णन यदु वंश की वंशावली को प्रस्तुत करता है। यह नंद और वसुदेव के चचेरे भाई होने को पुष्ट करता है, क्योंकि शूरसेन और पर्जन्य सौतेले भाई थे।
देवमीढ़ को मथुरा का शासक बताया गया है, जो यदु वंश की गौरवशाली परंपरा को रेखांकित करता है।
प्रामाणिकता-
गीता प्रेस की प्रकाशन परंपरा वैदिक और पुराण साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जानी जाती है। यह वर्णन विश्वसनीयता प्रदान करता है।
(x) आनंद वृंदावन चम्पू (स्तवक 2)
श्लोक-
नाम्राः नंदीश्वर शैले मंदिरं। स्फुरदिन्दिरम ॥ ६२ ॥
(आनंद वृंदावन चम्पू, द्वितीय स्तवक, पेज 52)
अनुवाद-
नंदीश्वर पर्वत पर पर्जन्य का भव्य मंदिर था, जो इंदिरा (लक्ष्मी) की तरह शोभायमान था।
व्याख्या-
यह श्लोक पर्जन्य के नंदीश्वर में निवास और उनके गोपालन कार्य को दर्शाता है। आनंद वृंदावन चम्पू में पर्जन्य के केशी राक्षस के भय से नंदीश्वर छोड़कर महावन (गोकुल) जाने का वर्णन है, जो गोप समुदाय की पशुपालक पहचान को रेखांकित करता है।
पर्जन्य के पुत्र नंदगोप ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया, और श्रीकृष्ण को पालने का दायित्व लिया। यह श्लोक गोप समुदाय की यदु वंश से उत्पत्ति और उनकी सांस्कृतिक एकता को दर्शाता है।
प्रामाणिकता-
आनंद वृंदावन चम्पू वैष्णव साहित्य का काव्यात्मक ग्रंथ है, जो श्रीकृष्ण और गोप समुदाय की लीलाओं को जीवंत करता है।
2. गोप, आभीर (अहीर), और यादव सांस्कृतिक और वंशीय एकता
श्लोक और व्याख्या
(i) गोपाल चम्पू (पूर्व चम्पू, तृतीय पूरण, श्लोक 36)
श्लोक-
श्रीमदुपनंदादय पञ्चनंदना जगदेवानंद यामासुः।
उपनंदोऽभिनंदश्च नंदः सन्नंद नंदनौ ॥ ३६ ॥
(गोपाल चम्पू, पूर्व चम्पू, तृतीय पूरण)
अनुवाद-
उपनंद, अभिनंद, नंद, सन्नंद, और नंदन—ये पर्जन्य के पाँच पुत्र थे, जो संसार को आनंद प्रदान करने वाले थे।
व्याख्या-
यह श्लोक पर्जन्य के पाँच पुत्रों का उल्लेख करता है, जिनमें नंदगोप मँझला पुत्र है। यह गोप समुदाय की संगठित संरचना को दर्शाता है, जो यदु वंश की वैश्य शाखा से जुड़ा है।
आभीर-विशेष के रूप में गोपों की पहचान इस श्लोक में निहित है, क्योंकि पर्जन्य ने गोपालन का कार्य अपनाया था। यह यदु वंश की व्यापकता को दर्शाता है, जिसमें क्षत्रिय (वसुदेव) और वैश्य (नंद) दोनों शामिल थे।
प्रामाणिकता-
यह श्लोक गोप समुदाय की सांस्कृतिक और वंशीय पहचान को जीव गोस्वामी की काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत करता है, जो वैष्णव परंपरा में विश्वसनीय है।
(ii) विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश, अध्याय 14)
श्लोक-
यदोः पुत्रचतुष्कं तु यदुवंशविवर्द्धनम्।
सहस्रजित् क्रौष्टिश्चैव शतजित् चायुजस्तथा ॥ ११ ॥
(विष्णु पुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय 14)
अनुवाद-
यदु के चार पुत्र थे, जो यदु वंश को बढ़ाने वाले थे: सहस्रजित, क्रौष्टि, शतजित, और आयु।
व्याख्या-
विष्णु पुराण यदु वंश की वंशावली का विस्तृत वर्णन करता है। यदु के वंशजों में देवमीढ़, शूरसेन, पर्जन्य, वसुदेव, और नंद शामिल हैं। यह श्लोक यदु वंश की व्यापकता को स्थापित करता है, जिसमें गोप और आभीर समुदाय भी शामिल हैं।
गोप और आभीर को यदु वंश की पशुपालक शाखा के रूप में वर्णित किया गया है, जो गोपाल चम्पू और श्रृंगार रस सागर में “आभीर-विशेष” के रूप में उल्लिखित है।
प्रामाणिकता-
विष्णु पुराण एक प्रमुख वैदिक पुराण है, जो यदु वंश की वंशावली को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है।
3. यादव सभ्यता का संरक्षण और चुनौतियाँ
श्लोक और संदर्भ-
- यादव सभ्यता यदु वंश की गौरवशाली परंपरा है, जो श्रीकृष्ण, बलराम, वसुदेव, और नंदगोप जैसे व्यक्तित्वों से समृद्ध है। श्रीमद्भागवत पुराण (9/24), विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश, अध्याय 14), और हरिवंश पुराण में यदु वंश की वंशावली विस्तार से वर्णित है।
- गोप और आभीर यदु वंश की पशुपालक शाखाएँ हैं, जो गोपाल चम्पू, राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका, और श्रृंगार रस सागर में “आभीर-विशेष” के रूप में वर्णित हैं। ये समुदाय वैश्य वर्ण से जुड़े हैं, लेकिन उनकी यदु वंशी उत्पत्ति उन्हें यादव सभ्यता का अभिन्न अंग बनाती है।
- 15वीं-16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु और छह गोस्वामियों (रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी, सनातन गोस्वामी आदि) ने वृंदावन को केंद्र बनाकर यादव सभ्यता को पुनर्जनन किया। गोपाल चम्पू, राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका, और आनंद वृंदावन चम्पू जैसे ग्रंथों ने इस सभ्यता की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक पहचान को संरक्षित किया।
चुनौतियाँ-
कुछ समूह श्रीकृष्ण की सार्वभौमिक भक्ति के कारण उनकी विरासत को अपनी पहचान से जोड़ने का प्रयास करते हैं। श्रीमद्भागवत पुराण, गर्ग संहिता, गोपाल चम्पू, और राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका जैसे ग्रंथ स्पष्ट रूप से यादव, गोप, और आभीर की यदु वंश से उत्पत्ति को स्थापित करते हैं, जो इस सभ्यता की प्रामाणिकता को पुष्ट करते हैं।
मध्यकाल और औपनिवेशिक काल में शिक्षा से वंचन के कारण यादव समुदाय की ऐतिहासिक विरासत मौखिक परंपराओं तक सीमित रही। गीता प्रेस और वृंदावन के ग्रंथों ने इस विरासत को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संरक्षण के उपाय-
ग्रंथों का अध्ययन- गीता प्रेस, गोरखपुर और वृंदावन के गौड़ीय वेदांत प्रकाशन से श्रीमद्भागवत पुराण, गर्ग संहिता, गोपाल चम्पू, और राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका जैसे ग्रंथ प्राप्त किए जा सकते हैं। यदुकुल सर्वस्व (मन्नालाल अभिमन्यु, वाराणसी) और व्रज का रास रंगमंच (रामनारायण अग्रवाल) जैसे ग्रंथ भी उपयोगी हैं।
सांस्कृतिक उत्सव- जन्माष्टमी, होली, और गोवर्धन पूजा जैसे उत्सव यादव सभ्यता की स्मृति को जीवित रखते हैं।
सामुदायिक जागरूकता-यादव समुदाय को संगठित होकर अपनी वंशावली और इतिहास को प्रचारित करना चाहिए।
4. यादव सभ्यता की गौरव गाथा
यादव सभ्यता यदु वंश की अमर गाथा है, जो श्रीकृष्ण, बलराम, वसुदेव, और नंदगोप जैसे व्यक्तित्वों से सुशोभित है। देवमीढ़, यदु वंश के परम गुणवान राजा, इस सभ्यता के पितामह थे। उनकी दो पत्नियों, अश्मकी और गुणवती, ने क्रमशः शूरसेन और पर्जन्य को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत पुराण (10/5/19-20) में वसुदेव और नंद के “भ्राता” संबंध को, और गोपाल चम्पू, वंशीधरी टीका, और राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में उनकी चचेरे भाई की स्थिति को स्पष्ट रूप से स्थापित किया गया है। गर्ग संहिता (अश्वमेध खंड, अध्याय 40) में नंद द्वारा अनिरुद्ध को प्रपौत्र कहना उनके और वसुदेव के पारिवारिक बंधन को पुष्ट करता है।
वसुदेव, शूरसेन के पुत्र, मथुरा के क्षत्रिय नेता थे, जिन्होंने कंस के अत्याचारों का सामना किया। नंदगोप, पर्जन्य के पुत्र, व्रज के गोप समुदाय के अधिपति थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण को अपने पुत्र के रूप में पाला। राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका और श्रृंगार रस सागर में पर्जन्य और नंद की गोप पहचान को “आभीर-विशेष” के रूप में वर्णित किया गया है, जो यदु वंश की व्यापकता को दर्शाता है। आनंद वृंदावन चम्पू में पर्जन्य के गोकुल प्रवास और नंद की महिमा का वर्णन इस सभ्यता की सांस्कृतिक समृद्धि को जीवंत करता है।
गोप और आभीर यदु वंश की पशुपालक शाखाएँ हैं, जो वंशीधरी टीका और कल्याण भक्तमाल अंक में वैश्य वर्ण से जुड़ी हैं, लेकिन उनकी यदु वंशी उत्पत्ति उन्हें यादव सभ्यता का अभिन्न अंग बनाती है। श्रीकृष्ण, स्वयं एक गोप के रूप में व्रज में पले, ने गोपालन, भक्ति, और धर्म की परंपराओं को अमर किया।
15वीं-16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु और छह गोस्वामियों ने वृंदावन को केंद्र बनाकर यादव सभ्यता को पुनर्जनन किया। गोपाल चम्पू, राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका, और आनंद वृंदावन चम्पू जैसे ग्रंथों ने इस सभ्यता की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक पहचान को संरक्षित किया। गीता प्रेस की पुस्तकें और वृंदावन के ग्रंथ इस विरासत को जन-जन तक पहुँचाने का माध्यम हैं।
यह गाथा एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है, जो वैदिक परंपरा के अनुरूप पाठकों को गर्व और संतुष्टि प्रदान करती है।
5. निष्कर्ष और सुझाव
नंदगोप और वसुदेव- श्रीमद्भागवत पुराण (10/5/19-20), गोपाल चम्पू, वंशीधरी टीका, राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका, गर्ग संहिता, और श्रृंगार रस सागर स्पष्ट रूप से पुष्ट करते हैं कि नंदगोप और वसुदेव चचेरे भाई थे, जिनके पितामह देवमीढ़ थे। उनके पिता, शूरसेन और पर्जन्य, सौतेले भाई थे।
गोप-आभीर-यादव- ये सभी यदु वंश की शाखाएँ हैं। गोप और आभीर पशुपालक समुदाय थे, जो यदु वंश की क्षत्रिय और वैश्य पहचान से जुड़े थे। श्रृंगार रस सागर और गोपाल चम्पू उनकी सांस्कृतिक एकता को प्रस्तुत करते हैं।
यादव सभ्यता का संरक्षण- गीता प्रेस, गोरखपुर और वृंदावन के गौड़ीय वेदांत प्रकाशन से श्रीमद्भागवत पुराण, गर्ग संहिता, गोपाल चम्पू, और राधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका जैसे ग्रंथ प्राप्त किए जा सकते हैं। यदुकुल सर्वस्व (मन्नालाल अभिमन्यु, वाराणसी) और व्रज का रास रंगमंच (रामनारायण अग्रवाल) जैसे ग्रंथ भी उपयोगी हैं।
भाग- [२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म-
वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किन्तु ध्यान रहे- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्रीकृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से ही किया था। भगवान श्रीकृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है।
इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूँ। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के जन्मगत
क्षत्रियों से , और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण में नही।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) में अपने गोपों को अजेय योद्धा के रूप में बताते हैं-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। अर्थात् वे सभी नारायण नाम से विश्व विख्यात हैं। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि भूतल पर गोपों (अहिरों) से बड़ा क्षत्रियोचित कर्म करने वाला दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोपों को लेकर नारायणी सेना का गठन करके पृथ्वी का भार उतारते हैं।
इसीलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है।
✳️ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- (५) जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्दबाबा की पुत्री योगमाया- विन्ध्यवासिनी (एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
अनुवाद- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
किन्तु इस सम्बन्ध में ध्यान रहे कि योगमाया- विन्ध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण की। क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्माजी की वर्ण -व्यवस्था के जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण- दुर्गा, गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना के गोप (अहीर) हैं।
अब यहाँ पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएँ जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्रीकृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७।
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।
भाग [३] गोपों का वैश्यत्व कर्म-
ब्रह्माजी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतन्त्रत्तता पूर्वक करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किन्तु ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।
जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृँगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अन्तर्गत गोपालन करते थे जो आज भी परम्परागत रूप गोपों में देखा जा सकता है। अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किन्तु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
'कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
अनुवाद- बाबा हम सभी गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी को हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।
भाग [४] गोपों का शूद्रत्व कर्म-
देखा जाए तो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किन्तु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना किसी प्रतिबन्ध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और भक्तों के कल्याणार्थ व समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५)और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने।।४।
गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५।
युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।
अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे, सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, आए हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।४-५-६।
( ज्ञात हो यह घटना महाभारत युद्ध से पहले की है।)
इन उपर्युक्त श्लोक को यदि शुद्ध अन्तरात्मा से विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने समाज सेवा में वह कार्य किया जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्रीकृष्ण ने वैष्णव वर्ण के गोप होकर पांव- पखार (धोकर) कर यह सिद्ध कर दिया कि- वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) का कर्म करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से सेवा कर्म को निंदनीय माना गया है।
जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबन्ध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में ऐसी नहीं है।
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (१२) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
इस प्रकार से यह अध्याय-(११) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किन्तु ध्यान रहे- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्रीकृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से ही किया था। भगवान श्रीकृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है।
इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूँ। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के जन्मगत
क्षत्रियों से , और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण में नही।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) में अपने गोपों को अजेय योद्धा के रूप में बताते हैं-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। अर्थात् वे सभी नारायण नाम से विश्व विख्यात हैं। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि भूतल पर गोपों (अहिरों) से बड़ा क्षत्रियोचित कर्म करने वाला दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोपों को लेकर नारायणी सेना का गठन करके पृथ्वी का भार उतारते हैं।
इसीलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है।
✳️ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- (५) जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्दबाबा की पुत्री योगमाया- विन्ध्यवासिनी (एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
अनुवाद- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
किन्तु इस सम्बन्ध में ध्यान रहे कि योगमाया- विन्ध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण की। क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्माजी की वर्ण -व्यवस्था के जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण- दुर्गा, गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना के गोप (अहीर) हैं।
अब यहाँ पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएँ जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्रीकृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७।
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।
भाग [३] गोपों का वैश्यत्व कर्म-
ब्रह्माजी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतन्त्रत्तता पूर्वक करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किन्तु ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।
जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृँगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अन्तर्गत गोपालन करते थे जो आज भी परम्परागत रूप गोपों में देखा जा सकता है। अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किन्तु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
'कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
अनुवाद- बाबा हम सभी गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी को हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।
भाग [४] गोपों का शूद्रत्व कर्म-
देखा जाए तो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किन्तु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना किसी प्रतिबन्ध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और भक्तों के कल्याणार्थ व समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५)और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने।।४।
गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५।
युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।
अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे, सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, आए हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।४-५-६।
( ज्ञात हो यह घटना महाभारत युद्ध से पहले की है।)
इन उपर्युक्त श्लोक को यदि शुद्ध अन्तरात्मा से विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने समाज सेवा में वह कार्य किया जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्रीकृष्ण ने वैष्णव वर्ण के गोप होकर पांव- पखार (धोकर) कर यह सिद्ध कर दिया कि- वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) का कर्म करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से सेवा कर्म को निंदनीय माना गया है।
जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबन्ध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में ऐसी नहीं है।
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (१२) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
इस प्रकार से यह अध्याय-(११) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
________________०_________________
★अध्याय- द्वादश (12)
वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा एवं सांस्कृतिक विरासत-
इस अध्याय के महत्वपूर्ण प्रसंगों को अच्छी तरह से समझने के लिए इसको प्रमुख रूप से (दो) भागों में विभाजित किया गया है-
भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
(क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
(ख)-गोपों की देन "पञ्चम वर्ण"।
(ग)-किसान और कृषि शब्द कृष्ण सहित गोपों की देन है।
(घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
(ङ)-आभीर छन्द और आभीर राग।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
▪️भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्माजी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्माजी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- (१७) में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत: कन्यादत्ताचैषा विरञ्चये।।१७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या को ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है। यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।
कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।
यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।
अनुवाद -
आप (यादव) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ता में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवों के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल हैं। १२-१३।
★अध्याय- द्वादश (12)
वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा एवं सांस्कृतिक विरासत-
इस अध्याय के महत्वपूर्ण प्रसंगों को अच्छी तरह से समझने के लिए इसको प्रमुख रूप से (दो) भागों में विभाजित किया गया है-
भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
(क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
(ख)-गोपों की देन "पञ्चम वर्ण"।
(ग)-किसान और कृषि शब्द कृष्ण सहित गोपों की देन है।
(घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
(ङ)-आभीर छन्द और आभीर राग।
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▪️भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्माजी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्माजी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- (१७) में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत: कन्यादत्ताचैषा विरञ्चये।।१७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या को ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है। यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।
कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।
यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।
अनुवाद -
आप (यादव) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ता में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवों के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल हैं। १२-१३।
• आप सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रणाओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत हैं।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप सम्पूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।
✳️ ज्ञात हो श्लोक- (१५) में जो बात कही गई है वह यादवों के अतिरिक्त अन्य किसी पर लागू नहीं हो सकती क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में जन्मगत आधार पर यह प्रतिबन्धित कर दिया गया है कि (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) लोग अपने ही वर्ण में रहकर कार्य करें दूसरे वर्ण का कार्य कदापि न करें। जबकि वैष्णव वर्ण में इस तरह कोई प्रतिबन्ध नहीं है इस लिए वैष्णव वर्ण के गोप सभी तरह के कर्म बिना बन्धन के स्वतन्त्रता पूर्वक करते हैं। इसलिए कंस यह बात कहा कि-" आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।१६।
• आपके सदाचार में कभी आँच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसम्पन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों का नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ?।१७।
• आपका (यादवों का) आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुद्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों नें इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है।१९।
उपर्युक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए पाँच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-
(१)- यादव- पाखण्डपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी बहुतायत यादव दूर रहते हैं।
(२)- यादव- वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें ये लोग भली- भाँति जानते हैं। और ( ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था के जो ) चारों वर्णों के क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान हैं।
(३)- यादव- नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़-संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रूद्रो के, और तेज अग्नि के समान होता है।
दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इस पर नारद जी विष्णुपुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी ने बताया हैं -
स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान्।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।।६।
अनुवाद- तदनन्तर वीर्यमदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि- पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया।
इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खण्ड के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे वृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।।८।
अनुवाद - नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस व्रजभूमि में जो गोपियाँ हैं, उनके रूप में वेदों की ऋचाएँ यहाँ निवास करती हैं।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।
(४)- गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्माजी-ने श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हुए कहा- कि-
"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊँ। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जानें की इच्छा करते हैं।
(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्रीराधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्रीकृष्ण से- गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-(१८) के श्लोक संख्या -(२२) में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गङ्गा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्।७८।
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाऐं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्रीराधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।
पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -
"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।।७९।
गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।
ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।। ८३।।
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि।। ८५।।
न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।
अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण-कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।
• गोलोक- वासिनी राधाजी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की १६ (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहाँ गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।
पुनः इसके अगले श्लोक- (८५) और (८६) में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।।८५।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।।८६।।
अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।
गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।
ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है।
पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।८५-८९।
नारद पुराण में सभी गेपों की पूजा का विधान-
गोपवृंदयुतं वंशीं वादयन्तं स्मरेत्सुधीः ।।
एवं ध्यात्वा जपेदादावयुतद्वितयं बुधः ।८०-५०।
दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।
एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम् ।।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् । ८०-५९ ।।
पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।८०-६० ।
दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।
सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।
ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम् ।।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।
गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।
दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः ।।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।८०-६५।
अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
_____________________
श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे तृतीयपादे कृष्णमन्त्रनिरूपणं नामाशीतितमोऽध्यायः ।८०।
गया है। इसकी पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खण्ड़ के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक (गोप), यादवों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति।। ४।
अनुवाद - जिसमें श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
✳️ किन्तु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्णकथा में श्रीकृष्ण की आधी-अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्रीकृष्णकथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाएँ करते रहते हैं। इसीलिए बिना गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है।
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान तथा बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हैं।"
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक (गोप), यादवों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति।। ४।
अनुवाद - जिसमें श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
✳️ किन्तु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्णकथा में श्रीकृष्ण की आधी-अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्रीकृष्णकथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाएँ करते रहते हैं। इसीलिए बिना गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है।
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान तथा बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हैं।"
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।
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