(महाराज यदु का विस्तृत पौराणिक परिचय)-
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महाराज यदु, यादवों के आदिपुरुष या कहें पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११) वें स्कन्ध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।
अनुवाद- हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति भक्ति थी। ३१।
अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इन सभी बातों का समाधान इस आलेख में किया गया है।
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✴️ यदु शब्द की व्युत्पत्ति-
यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है।
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं। जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है।
जैसे-
संस्कृत भाषा में 'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल + उणादि प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं" अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
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महाराज यदु, यादवों के आदिपुरुष या कहें पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११) वें स्कन्ध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।
अनुवाद- हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति भक्ति थी। ३१।
अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इन सभी बातों का समाधान इस आलेख में किया गया है।
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✴️ यदु शब्द की व्युत्पत्ति-
यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है।
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं। जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है।
जैसे-
संस्कृत भाषा में 'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल + उणादि प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं" अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
[ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में "पृषोदरादीनि एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८) इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
ये तो रही यदु शब्द की व्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ लोक- प्रसिद्ध हैं।
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण, दानेषु च] इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा सकता है -
यज् =१- यजन करना।
२- न्याय करना (संगतिकरण) के भाव से -युद्ध(संघर्ष) करना भी अर्थ होता है।
३- दान करना।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपर्युक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)- हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।
(२)- वे सबका यथोचित न्याय किया करते थे।
(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे।
इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि) भी प्रखर हो गयी थी।
तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के (११)वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- (३१) में उद्धव जी से कहते हैं कि
'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे। ३१।
तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के (११)वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- (३१) में उद्धव जी से कहते हैं कि
'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे। ३१।
महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१०
में ऋषियों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
में ऋषियों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"
अनुवाद:- वे दोनों यदु और तुर्वसु दास- (दाता) कल्याणकारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें -
१- उत = अत्यर्थेच अपि च, =और भी।
२- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ= वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि वाले।
३- गोपरीणसा- गोपरीणसौ =गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ । गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं।
४- दासा = दासतः दानकुरुत: = वे दोनों दान करने वाले ।
(यदु और तुर्वसु)। (ज्ञात हो- "दासा" बहुवचन शब्द है जो यदु और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त है।
५- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ = गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहाँ पर यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)
अब विचार यह करना है कि यदु को दास क्यों कहा गया? तथा दास शब्द का अर्थ यदु के समय में क्या था ?
तो इसका समाधान इस प्रकार है-
[ उपर्युक्त श्लोक में आया "दासा" शब्द वैदिक शब्द निघण्टु में द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]
क्योंकि पाणिनीय धातुपाठ में दास् धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं। और दासा द्विवचन में कर्तृबोधक है।
महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे") है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता (दानी) के अर्थ में चरितार्थ था।
किन्तु समय और परिस्थिती के साथ दास शब्द के अर्थ में भी उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा और असुर शब्द के अर्थ में परिवर्तन हुआ।
५- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ = गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहाँ पर यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)
अब विचार यह करना है कि यदु को दास क्यों कहा गया? तथा दास शब्द का अर्थ यदु के समय में क्या था ?
तो इसका समाधान इस प्रकार है-
[ उपर्युक्त श्लोक में आया "दासा" शब्द वैदिक शब्द निघण्टु में द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]
क्योंकि पाणिनीय धातुपाठ में दास् धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं। और दासा द्विवचन में कर्तृबोधक है।
महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे") है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता (दानी) के अर्थ में चरितार्थ था।
किन्तु समय और परिस्थिती के साथ दास शब्द के अर्थ में भी उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा और असुर शब्द के अर्थ में परिवर्तन हुआ।
असुर शब्द का भी पूर्ववैदिक अर्थ- प्राणवान और प्रज्ञावान था।
क्योंकि वैदिक काल में घृणा शब्द दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है। ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - "दाता" था। उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था।
इसीलिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियां और प्रशंसा किया करते थे। जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१० में यदु और तुर्वसु की दास (दाता) के रूप में स्तुतियाँ की गईं है।
इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।
वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में "वैष्णव" वाचक के रूप में स्थापित हुआ।
वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में "वैष्णव" वाचक के रूप में स्थापित हुआ।
इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमिखण्ड अध्यायः(83) से होती से होती है। जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए राजा "ययाति" वैष्णव होकर भगवान विष्णु से वर माँगते हैं कि- हे प्रभु ! मुझे दासत्व प्रदान करो। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक-
-विष्णूवाच-
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।।७९।।
अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।
राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद-
राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दें। ८०।।
'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो। ८१।।
यदि उपर्युक्त श्लोक- (81) को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्त, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे।
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।।७९।।
अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।
राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद-
राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दें। ८०।।
'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो। ८१।।
यदि उपर्युक्त श्लोक- (81) को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्त, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे।
और जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे कि कुछ समय पूर्व हुए विष्णु भक्त सन्त - तुलसीदास, सूरदास रैदास इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
किन्तु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहितवाद की चपेट में आकर शूद्र और देव विद्रोहीयों का पर्याय बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञानी लोग यादवों के पुर्वज यदु को दास अथवा शूद्र कहते हैं।
जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ?
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क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति नही करता है।? अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना मूर्खता पूर्ण बातें हैं।
और वैसे भी देखा जाए तो गोपों (यादवों) का वर्ण "वैष्णव" है। इस बात को गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में स्वयं अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।। ९२
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ । और वनों में चन्दन हूँ।
पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२
अतः वैष्णव वर्ण के गोपों को ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि में स्थापित करना सिद्धान्त विहीन होगा, क्योंकि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तानुसार- ब्राह्मण- ब्रह्माजी के मुँख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं।
गोप ( अहीर) लोग ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं इस लिए ही उन्हें ब्रह्मा की बनायी वर्ण व्यवस्था में शामिल नही किया जा सकता है।
जबकि गोप और गोपियाँ गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्माजी के चार वर्णों में शूद्र वैश्य अथवा और कुछ कहना निराधार होगा।
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।। ९२
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ । और वनों में चन्दन हूँ।
पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२
अतः वैष्णव वर्ण के गोपों को ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि में स्थापित करना सिद्धान्त विहीन होगा, क्योंकि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तानुसार- ब्राह्मण- ब्रह्माजी के मुँख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं।
गोप ( अहीर) लोग ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं इस लिए ही उन्हें ब्रह्मा की बनायी वर्ण व्यवस्था में शामिल नही किया जा सकता है।
जबकि गोप और गोपियाँ गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्माजी के चार वर्णों में शूद्र वैश्य अथवा और कुछ कहना निराधार होगा।
अब वही दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।
जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है। चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किन्तु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हुआ।
इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो।
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✴️ यदु का जीवन परिचय-
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यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके गृहस्थान से ही प्रारम्भ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है -
यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियाँ देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम की थीं।
उनमें से दो पत्नियों से कुल पाँच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र- द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए।
ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पाँच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वञ्चित कर पशुपालक होने का शाप दिया और सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया।
इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।। ७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे शाप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।
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"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।। ७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे शाप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।
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पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे। ७६।
यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारम्भ हुआ।
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एक पिता के शाप और राजपद से वञ्चित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारम्भ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने बल एवं पौरुष से राजतन्त्र के विकल्प में प्रजातन्त्र की स्थापना की और प्रजातान्त्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।
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एक पिता के शाप और राजपद से वञ्चित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारम्भ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने बल एवं पौरुष से राजतन्त्र के विकल्प में प्रजातन्त्र की स्थापना की और प्रजातान्त्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।
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ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दिया था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही समाधान की भी जननी होती है। अतः यदु ने राजतन्त्र के विकल्प में प्रजातन्त्र को खोज लिया और प्रजातान्त्रिक तरीके से राजा हुए।
इसीलिए यदु को प्रजातन्त्र का जनक माना जाता है।
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादववंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपतियों को यादव कहा गया। इस सम्बन्ध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में (अण्) प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें 'अण्' प्रत्यय पश्चात लगाने पर यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है।
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[यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]
यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत विख्यात थी, जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भी भू-तल पर अवतरित हुई। जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है।
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादववंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपतियों को यादव कहा गया। इस सम्बन्ध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में (अण्) प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें 'अण्' प्रत्यय पश्चात लगाने पर यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है।
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[यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]
यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत विख्यात थी, जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भी भू-तल पर अवतरित हुई। जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है।
जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण- स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में मिलता है।
[ इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन श्रीकृष्ण सारांगिणी तथा इसके सहवर्ती ग्रन्थ "श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चमवर्ण "में किया गया है। वहाँ से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।]
आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए।
[ इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन श्रीकृष्ण सारांगिणी तथा इसके सहवर्ती ग्रन्थ "श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चमवर्ण "में किया गया है। वहाँ से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।]
आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए।
जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्घ- ९ के अध्याय- २३ में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥२०॥
चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः ॥२१॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः॥२२॥
अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।
इस वंश में स्वयं भगवान परंब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय। ।२०-२१।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्घ- ९ के अध्याय- २३ में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥२०॥
चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः ॥२१॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः॥२२॥
अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।
इस वंश में स्वयं भगवान परंब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय। ।२०-२१।
यदु गोप थे पशु पालक थे गोपों का ही एक प्राचीन प्रवृत्ति मूलक विशेषण आभीर भी ।
आभीर जाति को यदि शब्द व्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है।
अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोशकारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो तरह से भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं। जैसे-
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ईसा पूर्व पाँचवी सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की है। नीचे देखें।
आ= समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
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किन्तु वहीं पर अमरसिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके ही सुनिश्चित किया है। नींचे देखें।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर से गायें चराता है या उन्हें घेरता है।
अगर देखा जाय तो उपर्युक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की व्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नहीं है। क्योंकि एक नें अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है
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ईसा पूर्व पाँचवी सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की है। नीचे देखें।
आ= समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
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किन्तु वहीं पर अमरसिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके ही सुनिश्चित किया है। नींचे देखें।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर से गायें चराता है या उन्हें घेरता है।
अगर देखा जाय तो उपर्युक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की व्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नहीं है। क्योंकि एक नें अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है
तो वहीं दूसरे नें अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है।
अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप आहीर होता है।
अब यहाँ पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते हैं।
ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिन्दी में आये हैं,वे 'तद्भव' कहलाते हैं। अर्थात- तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किन्तु कालान्तरण में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिन्दी में आहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
किन्तु यहाँ पर हमें अहीर और आभीर, शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिन्दी और संस्कृत ग्रन्थों में कब, कहाँ और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले अहीर शब्द के विषय में जानेंगे कि हिन्दी ग्रन्थों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ। इसके बाद संस्कृत ग्रन्थों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिन्दी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं-
***
इसी ग्रन्थ "सुजानरसखान" में अन्यत्र भी रसखान श्रीकृष्ण को अहीर लिखते हैं ।
देस बदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगो।
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौ गुन सौगुन गाँठि परैगो।
बाँसुरीबारो बड़ो रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ।।18।
तातें तिन्हैं तजि जानि गिरयौ गुन सौगुन गाँठि परैगो।
बाँसुरीबारो बड़ो रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ।।18।
बाँकी धरै कलगी सिर ऊपर बाँसुरी-तान कटै रस बीर के।
कुंडल कान लसैं रसखानि विलोकन तीर अनंग तुनीर के।
डारि ठगौरी गयौ चित चोरि लिए है सबैं सुख सोखि सरीर के।
जात चलावन मो अबला यह कौन कला है भला वे अहीर के।।88।।
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इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांँव में हुआ था। जिन्होंने (500) साल पहले दो ग्रन्थ "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।
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नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूँ चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांँव में हुआ था। जिन्होंने (500) साल पहले दो ग्रन्थ "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।
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नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूँ चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८।
अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्रीकृष्ण) ! आप जगत के तारण तरण (उद्धारक) हो, मैं चारण आप श्रीहरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर गुणों के क्षीर से भरा हुआ है।५८।
और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्रीकृष्ण को अहीर कहते हुए उनका स्तवन किया है। सूरसागर के दशमस्कन्ध-(पृष्ठ ४७९) में लिखा है-
और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्रीकृष्ण को अहीर कहते हुए उनका स्तवन किया है। सूरसागर के दशमस्कन्ध-(पृष्ठ ४७९) में लिखा है-
चातकी बूंद भई हो हेरत हेरत रही हिराइ ।८१॥जैतश्री॥
सखीरी काके मीत अहीर ।
काहे को भरि भरि ढारति हो इन नैन राह के नीर।।
आपुन पियत पियावत दुहि दुहिं इन धेनुनके क्षीर। निशि वासर छिन नहिं विसरतहै जो यमुना के तीर।। ॥
मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानिकै छांडि गए वे पीर ।।८२॥
सूरसागर.पृष्ठ/
ये उपर्युक्त सभी उदाहरण श्रीकृष्ण के अहीर जाति का होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं। अब हम लोग आभीर शब्द को जानेंगे जो प्राकृत भाषा के आहीर का तत्सम रूप है, वह संस्कृत ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रन्थों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।
सबसे पहले हम गर्गसंहिता के विश्वजितखण्ड के अध्याय -(७) के श्लोक संख्या- (१४) को लेते हैं जिसमें में भगवान श्रीकृष्ण और नन्दबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय करता है जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहाँ जाते हैं। किन्तु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहता है कि-
(४७९)
दशमस्कन्ध-१०
ये उपर्युक्त सभी उदाहरण श्रीकृष्ण के अहीर जाति का होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं। अब हम लोग आभीर शब्द को जानेंगे जो प्राकृत भाषा के आहीर का तत्सम रूप है, वह संस्कृत ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रन्थों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।
सबसे पहले हम गर्गसंहिता के विश्वजितखण्ड के अध्याय -(७) के श्लोक संख्या- (१४) को लेते हैं जिसमें में भगवान श्रीकृष्ण और नन्दबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय करता है जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहाँ जाते हैं। किन्तु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहता है कि-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।।१४।
प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६।
अनुवाद -
• वह (श्रीकृष्ण) पहले नन्द नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वसुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं।१४।
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीत कर भूमण्डल को यादवों से शून्य कर देने के लिए कुशस्थली पर चढ़ाई करूँगा।१६।
उपर्युक्त दोनो श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें भगवान श्रीकृष्ण सहित सम्पूर्ण अहीर अथवा यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन
महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक - (६) और (७) में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बन्धित थे।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।
यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।।७।
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर अथथवा वीर ) और दशेरक।६।
अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी और शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश के तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या- (१६-१७ और १८ ) में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-
"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।१६।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः। मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।१७।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। १८।
अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी और शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश के तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या- (१६-१७ और १८ ) में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-
"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।१६।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः। मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।१७।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। १८।
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर( वीर) आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं।१७-१७।
*********"
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।१८।
▪ इसी तरह से महाभारत के उद्योगपर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों (अहीरों) को अजेय योद्धा के रूप में वर्णन है-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
इसी तरह से जब भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र की पूजा बन्द करवा दी, तब इसकी सूचना जब इन्द्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्रीकृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय -(२५ )के श्लोक - (३) से( ५) में मिलता है। जिसमें इन्द्र ने अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।।३।
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्।। ५।
अनुवाद- ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमण्ड ! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला।३।
• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।१८।
▪ इसी तरह से महाभारत के उद्योगपर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों (अहीरों) को अजेय योद्धा के रूप में वर्णन है-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
इसी तरह से जब भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र की पूजा बन्द करवा दी, तब इसकी सूचना जब इन्द्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्रीकृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय -(२५ )के श्लोक - (३) से( ५) में मिलता है। जिसमें इन्द्र ने अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।।३।
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्।। ५।
अनुवाद- ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमण्ड ! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला।३।
• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।
उपर्युक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर तथा यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग भागवत पुराण स्कन्ध दशम के अध्याय- (६१) के श्लोक (३५) में मिलता है। जिसमें द्यूत- क्रीडा) जूवा खेलते समय रुक्मि बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।।३४।
अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले गोपाल (ग्वाले) ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्गसंहिता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में लिखते हैं।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया।
जब यज्ञ हेतु सर्वसम्मति श्रीकृष्ण को अग्रपूजा के लिए चुना गया। किन्तु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्रीकृष्ण को यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से सम्बोधित करते हुए उनका तिरस्कार करता है। यद्यपि शिशुपाल भी स्वयं चेदिवंश का यादव है। परन्तु आज वह गाय नहीं पालता है इस लिए। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय (७४) के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।।१८।
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।।१९।
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०।
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
• यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं।१९।
• यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्णा ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४।
अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४
उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार यदि शिशुपाल के कथनों पर विचार किया जाए तो वह श्रीकृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहाँ तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्रीकृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। परन्तु उसकी भाषा में ये शब्द कृष्ण के प्रति क्रोध और घृणा को प्रकट करते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहते हैं जो इस प्रकार है-
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।।१८।
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।।१९।
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०।
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
• यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं।१९।
• यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्णा ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४।
अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४
उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार यदि शिशुपाल के कथनों पर विचार किया जाए तो वह श्रीकृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहाँ तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्रीकृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। परन्तु उसकी भाषा में ये शब्द कृष्ण के प्रति क्रोध और घृणा को प्रकट करते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहते हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
अतः शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कही। किन्तु वह भगवान श्रीकृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहता है, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया।
इसी तरह से पौण्ड्रक ने अपने सभासदों से भी श्रीकृष्ण के लिए गोपबालक और यदुश्रेष्ठ (यादव श्रेष्ठ) नाम से सम्बोधित किया है। जिसका वर्णन हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- ९१ के श्लोक- १४ में कुछ इस तरह से वर्णित की गयी है।
वासुदेवेति मां ब्रूत न तु गोपं यदुत्तमम्।
एकोऽहं वासुदेवो हि हत्वा तं गोपदारकम्।। १४।
अनुवाद - पौण्ड्रक अपने सभासदों से कहता है कि- मुझे ही वासुदेव कहो उस यदुश्रेष्ठ गोप कृष्ण को नहीं। उस गोपबालक को मारकर एकमात्र मैं ही वासुदेव रहूँगा।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - (२६ और ४१ ) में भगवान श्रीकृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। श्रीकृष्ण जाति से गोप ( अहीर)और वंश से यादव हैं। जो पौण्ड्रक, श्रीकृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के बीच पौण्ड्रक भगवान श्रीकृष्ण से कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।
अनुवाद- राजा पौण्ड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहाँ चले गए थे ? ।२६।
• तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा- राजन ! मैं सर्वदा गोप हूँ, अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूँ , सम्पूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ।
देखा जाए तो उपर्युक्त तीनों श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहली यह कि- राजा पौण्ड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव, यादवश्रेष्ठ, गोपबालक और गोप शब्दों से सम्बोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप (अहीर) एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं।
• दूसरी यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने लिए उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि - "मैं सर्वदा गोप हूँ"।
• तीसरी यह कि- गोप ही एक ऐसी जाति है जो सम्पूर्ण लोकों की रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
✳️ ज्ञात हो - अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द के ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, यादव कहें ,सब एक ही बात है।
जैसे भगवान श्रीकृष्ण को तो सभी जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको गोप जाति में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया जो उनकी जाति रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति (व्यवसाय) मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी जाति मूलक पहचान के लिए उन्हें आभीर या अहीर अथवा गोप कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें, गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है। ये सब भगवान श्रीकृष्ण के गुणगत विशेषण हैं।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपजाति के साथ यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय- (५) में बताया गया है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपजाति के साथ यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय- (५) में बताया गया है।
और जहाँ तक बात रही आभीर जाति की वंश मूलक पहचान की, तो इनके वंशमूलक पहचान को इसी अध्याय के भाग (३) में आगे बताया गया है।
अब हमलोग इसके अगले भाग-(दो) में आभीर जाति के यादवों के वर्ण को जानेंगे। क्योंकि जाति के बाद वर्ण का निर्धारण होता है।
वर्ण की सामाजिक पृष्ठभूमि के लिए पञ्च प्रथा को जानना पहले आवश्यक है।
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गोपों का क्षत्रित्व कर्म-
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वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किन्तु ध्यान रहे- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्रीकृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से ही किया था।
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वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किन्तु ध्यान रहे- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्रीकृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से ही किया था।
भगवान श्रीकृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है।
इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूँ। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के जन्मगत
क्षत्रियों से , और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण में नही।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) में अपने गोपों को अजेय योद्धा के रूप में बताते हैं-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। अर्थात् वे सभी नारायण नाम से विश्व विख्यात हैं। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि भूतल पर गोपों (अहिरों) से बड़ा क्षत्रियोचित कर्म करने वाला दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोपों को लेकर नारायणी सेना का गठन करके पृथ्वी का भार उतारते हैं।
इसीलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है।
✳️ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- (५) जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्दबाबा की पुत्री योगमाया- विन्ध्यवासिनी (एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
अनुवाद- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
किन्तु इस सम्बन्ध में ध्यान रहे कि योगमाया- विन्ध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण की। क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्माजी की वर्ण -व्यवस्था के जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण- दुर्गा, गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना के गोप (अहीर) हैं।
अब यहाँ पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएँ जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्रीकृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७।
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।
भाग [३] गोपों का वैश्यत्व कर्म-
ब्रह्माजी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतन्त्रत्तता पूर्वक करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किन्तु ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।
जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृँगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अन्तर्गत गोपालन करते थे जो आज भी परम्परागत रूप गोपों में देखा जा सकता है। अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किन्तु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
'कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
अनुवाद- बाबा हम सभी गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी को हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।
इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूँ। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के जन्मगत
क्षत्रियों से , और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण में नही।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) में अपने गोपों को अजेय योद्धा के रूप में बताते हैं-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। अर्थात् वे सभी नारायण नाम से विश्व विख्यात हैं। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि भूतल पर गोपों (अहिरों) से बड़ा क्षत्रियोचित कर्म करने वाला दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोपों को लेकर नारायणी सेना का गठन करके पृथ्वी का भार उतारते हैं।
इसीलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है।
✳️ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- (५) जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्दबाबा की पुत्री योगमाया- विन्ध्यवासिनी (एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
अनुवाद- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
किन्तु इस सम्बन्ध में ध्यान रहे कि योगमाया- विन्ध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण की। क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्माजी की वर्ण -व्यवस्था के जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण- दुर्गा, गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना के गोप (अहीर) हैं।
अब यहाँ पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएँ जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्रीकृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७।
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।
भाग [३] गोपों का वैश्यत्व कर्म-
ब्रह्माजी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतन्त्रत्तता पूर्वक करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किन्तु ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।
जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृँगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अन्तर्गत गोपालन करते थे जो आज भी परम्परागत रूप गोपों में देखा जा सकता है। अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किन्तु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
'कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
अनुवाद- बाबा हम सभी गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी को हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-
"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।
गोपों की पौराणिक प्रशंसा का सन्दर्भ व विवरण-
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्माजी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्माजी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- (१७) में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत: कन्यादत्ताचैषा विरञ्चये।।१७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या को ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है। यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।
कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।
यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।
अनुवाद -
आप (यादव) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ता में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवों के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल हैं। १२-१३।
• आप सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रणाओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत हैं।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप सम्पूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।
✳️ ज्ञात हो श्लोक- (१५) में जो बात कही गई है वह यादवों के अतिरिक्त अन्य किसी पर लागू नहीं हो सकती क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में जन्मगत आधार पर यह प्रतिबन्धित कर दिया गया है कि (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) लोग अपने ही वर्ण में रहकर कार्य करें दूसरे वर्ण का कार्य कदापि न करें। जबकि वैष्णव वर्ण में इस तरह कोई प्रतिबन्ध नहीं है इस लिए वैष्णव वर्ण के गोप सभी तरह के कर्म बिना बन्धन के स्वतन्त्रता पूर्वक करते हैं। इसलिए कंस यह बात कहा कि-" आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।१६।
• आपके सदाचार में कभी आँच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसम्पन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों का नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ?।१७।
• आपका (यादवों का) आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुद्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों नें इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है।१९।
उपर्युक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए पाँच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-
(१)- यादव- पाखण्डपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी बहुतायत यादव दूर रहते हैं।
(२)- यादव- वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें ये लोग भली- भाँति जानते हैं। और ( ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था के जो ) चारों वर्णों के क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान हैं।
(३)- यादव- नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़-संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रूद्रो के, और तेज अग्नि के समान होता है।
दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इस पर नारद जी विष्णुपुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी ने बताया हैं -
स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान्।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।।६।
अनुवाद- तदनन्तर वीर्यमदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि- पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया।
इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खण्ड के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे वृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।।८।
अनुवाद - नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस व्रजभूमि में जो गोपियाँ हैं, उनके रूप में वेदों की ऋचाएँ यहाँ निवास करती हैं।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।
(४)- गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्माजी-ने श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हुए कहा- कि-
"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊँ। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जानें की इच्छा करते हैं।
(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्रीराधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्रीकृष्ण से- गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-(१८) के श्लोक संख्या -(२२) में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गङ्गा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्।७८।
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाऐं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्रीराधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।
पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -
"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।।७९।
गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।
ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।। ८३।।
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि।। ८५।।
न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।
अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण-कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।
• गोलोक- वासिनी राधाजी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की १६ (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहाँ गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।
पुनः इसके अगले श्लोक- (८५) और (८६) में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।।८५।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।।८६।।
अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।
गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।
ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है।
पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।८५-८९।
नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-
गोपवृंदयुतं वंशीं वादयन्तं स्मरेत्सुधीः ।।
एवं ध्यात्वा जपेदादावयुतद्वितयं बुधः ।८०-५०।
दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।
एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम् ।।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् । ८०-५९ ।।
पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।८०-६० ।
दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।
सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।
ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम् ।।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।
गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।
दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः ।।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।८०-६५।
अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
_____________________
श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे तृतीयपादे कृष्णमन्त्रनिरूपणं नामाशीतितमोऽध्यायः ।८०।
गया है। इसकी पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खण्ड़ के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक (गोप), यादवों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति।। ४।
अनुवाद - जिसमें श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
✳️ किन्तु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्णकथा में श्रीकृष्ण की आधी-अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्रीकृष्णकथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाएँ करते रहते हैं। इसीलिए बिना गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है।
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक (गोप), यादवों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति।। ४।
अनुवाद - जिसमें श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
✳️ किन्तु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्णकथा में श्रीकृष्ण की आधी-अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्रीकृष्णकथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाएँ करते रहते हैं। इसीलिए बिना गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है।
प्रस्तुति करण- योगेश कुमार रोहि-
जनपद अलीगढ़ ( उ०प्र०)
सम्पर्क सूत्र- 8077160219
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