शूराभीर को किया मुद्रण त्रुटिवश द्वेषीयों शूद्राभीर-
महाभारत सभापर्व अध्याय (29) श्लोक संख्या (9) में शूद्राभीरा: पद को देखकर कुछ पूर्वदुराग्रही
कहते हैं कि अहीरों को महाभारत में शूद्र कहा है।
महाभारत के सभापर्व में लिखित यदि शूद्राभीर संज्ञा पद को सही मान भी लिया जाए तो ये पद बहुवचन में है और "च" इस योजक अव्यय के द्वारा जुड़ा हुआ है।
निम्न श्लोक देखें- में शूद्राभीर पद को ही सही मान ले तो अर्थ व्यञ्जना में अनेक आपत्तियाँ है।
पहले हम निम्नलिखित श्लोक का व्याकरण सम्मत अर्थ करते हैं-
शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् ।
वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः॥९॥
अनुवाद:- शौर्ययुक्त आभीरगण सरस्वती नदी के तट पर आश्रय लिए हुए मत्स्य( मीणा) जाति के साथ व्यवहार ( वर्ताव) करते हैं जो पर्वतों पर निवास करती है।९।
शूर को शूद्र मानने पर अनुवाद इस प्रकार होगा-
शूद्रगण और आभीरगण भी सरस्वती नदी में आश्रय लिए हुए थे।
ये सभी मत्स्य ( मीणा) जनजाति के साथ वर्ताव ( व्यवहार) करते रहते है। जो पर्वतों पर निवास करती है।।९।
एक अन्य श्लोक शल्य पर्व से
महाभारत के शल्यपर्व- अध्यायः(३६) में
-वैशम्पायन उवाच-
ततो विनशनं राजन्नाजगाम हलायुधः।
शूराऽऽभीरान्प्रति द्वेषाद्यत्र नष्टा सरस्वती॥१॥
अनुवाद:- राजन् ! उद्पान तीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ आये। जहाँ शूरवीर अहीरों से द्वेष करने के कारण सरस्वती नदी नष्ट हो गयी थी।१।
"पूर्वेकाले सरस्वत्या आभीरकन्याया गायत्र्या: प्रति द्वेषादस्मात्कारणात् गायत्र्या:बान्धवा: शूराभीरेण निरुद्धा कृतवन्त: सरस्वत्या नाम्ना नदीति तत्रैव भवान्तर सरस्वती नदी विलुप्तवती।
भावार्थ-
अहीर कन्या गायत्री से पहले द्वेष सरस्वती ने किया इसी कारण शूरवीर अहीरों ने सरस्वती का जल विरुद्ध कर दिया और वह नदी वहीं विलुप्त हो गयी- ।
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विशेष- सरस्वती नदी के अवशेषों में प्राचीन बस्तियों, नदी के मार्ग के निशान, और पुरातात्विक स्थल शामिल हैं। इनमें से कुछ अवशेष राजस्थान के डींग के बहज गाँव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा की गई खुदाई में मिले हैं,।
जहाँ 3500 से 1000 ईसा पूर्व की सभ्यता के प्रमाण मिले हैं।
यहाँ पहाड़ों की स्थिति चम्बल नदी के तटवर्ती है। और सरस्वती नदी की घाटी में मीणा लोग आज तक बहुतायत रूप से रहते हैं।
महाभारत में अन्यत्र भी बहुतायत से शूराभीर शब्द तो आया है। परन्तु शूद्राभीर शब्द नहीं आया है।
शूद्राभीर शब्द एक ही बार आया है। यह अशुद्ध है इसका प्रयोग यदि व्याकरण की दृष्टि किया जाए तो अर्थ भिन्न ही निकलता है। शुद्ध शब्द शूराभीर ही होना चाहिए-
क्यों कि शूद्र और आभीर में दीर्घ सन्धि है ये विशेषण और विशेष्य पद न होकर बहुवचन में दो स्वतन्त्र पद हैं।
शूद्र वर्ण है और आभीर जनजाति
अब आभीर जन जाति कृषि कर्म और गोपालन के कारण वैश्य वर्ण में तो शामिल की सकती हैं- जैसा कि कुछ पुराणों में लिखा गया भी है। गोपालन और कृषि कर्म के कारण ब्रह्मा की वर्ण व्यवस्था में कुछ तथाकथित ब्राह्मणों ने आभीर ( गोपों) को वैश्य वर्ण में समाहित करने का प्रयास किया है।
परन्तु अहीरों ने कभी भी ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं किया है।
यह एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण पर आधारित तथ्य है।
इन्होंने गोपालन, कृषि, युद्ध, सदाचरण तथा लोक सेवा सभी कार्य भी किये है। अर्थात ब्राह्मणीय वर्ण व्यवस्था के सभी वर्णों से सम्बन्धित कार्य करने से इन्हें किसी एक वर्ण में निर्धारित नहीं किया जा सकता है। - अत: इन्हें ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के किसी एक वर्ण में नहीं रखा जा सकता है। आभीर ऩिर्भीक और वीर जनजाति के लोग थे। उनमें शौर्य की अधिकता थाी ।ये शत्रुओं के हृदय में चारो तरफ से भय भरते थे। अहीरों की इसी प्रवृत्ति को दृष्टिगत करते हुए ईसापूर्व पाँचवी सदी के संस्कृत कोश कार अमरसिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की- "आ समन्तात् भियं राति शत्रूणां हृत्सु इति आभीर:। आभीर वीर थे इसी लिए उनको शूरााभीर कहा गयी। और सम्भवतः
यह शूराभीर पद श्लोक में द्वेष वश अथवा मुद्रण त्रुटि के कारण ही शूद्राभीर कर दिया गया अथवा हो गया है। और इसी की पुनरावृत्ति सभी रूढ़िवादीयों ने की आज तक की है।-
क्योंकि महाभारत में अन्यत्र भी शूराभीरा पद ही है। शूद्राभीर नहीं जैसे निम्नलिखित श्लोक में आप देख सकते हैं। -
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः ।
शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपदाश्च ये ॥ ७ ॥
सन्दर्भ-
महाभारत द्रोणपर्व अध्याय/19/7
विष्णु पुराण में भी शूराभीर पद है।
देखें निम्नलिखित श्लोक-
पुण्ड्राः कलिङ्गा मगधा दक्षिणाद्याश्च सर्वशः ।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्बुदाः ।१६।
विष्णु पुराण द्वितीयांश तृतीय अध्याय (२/३/१६/
नीचे कूर्मपुराण में फिर शूराभीर को शूद्राभीर लिख दिया गया- जबकि यह श्लोक विष्णुपुराण द्वितीयांश के ही समान यथावत है।
पुण्ड्राः कलिङ्गामगधा दाक्षिणात्याश्चकृत्स्नशः ।
तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूद्राभीरास्तथाऽर्बुदाः ॥४२॥
सन्दर्भ
कूर्मपुराण पूर्वभाग अध्याय (47)
नीचे पद्म पुराण स्वर्गखण्ड में अध्याय (६) में श्लोक है - जिसमें शूराभीर शब्द ही आया और क्षत्रिय वैश्य शूद्र पद अलग आये हैं।
निम्नलिखित श्लोक देखें-
क्षत्रियोपनिवेशाश्च वैश्यशूद्र कुलानि च ।
शूराभीराश्च दरदाः काश्मीराः पशुभिः सह ।६२।
सन्दर्भ-(पद्म पुराण स्वर्ग-खण्ड अध्याय (6)
आन्ध्राः शकाः पुलिन्दाश्च यवनाश्च नराधिपाः।
काम्भोजा बाह्लिकाः शूराऽऽ भीरस्तथा नरोत्तमा ।।
काम्भोजा बाह्लिकाः शूराऽऽ भीरस्तथा नरोत्तमा ।।
महाभारत आरण्यक पर्व अध्याय-(191)
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पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में वर्णन है कि आभीर लोगों को पूर्वकाल में भी धर्मतत्ववेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल तथा सुव्रतज्ञ कहकर सम्बोधित किया गया है।
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के उन तीनों श्लोकों को हम नीचे प्रस्तुत कर सकते हैं।
तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन निम्नलिखित तीन श्लोकों में निर्दशित है।
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धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।।
"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।।
अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा- मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक ,सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है।१५।
विशेष-
(क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और (अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं। यह शास्त्रों में वर्णित है।)
भगवान विष्णु कहते हैं- हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों (गोलोकों) को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।
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नारदपुराण उत्तरखण्ड अध्याय (68) तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड और गर्गसंहिता विश्वजितखण्ड तथा देवीभागवतमहापुराण नवम स्कन्ध अध्याय तृतीय में अहीरों को विष्णु से उत्पन होने से वैष्णव वर्ण में माना गया है।
अहीरों की वीरता को दर्शाने के लिए जो शब्द. प्रारम्भ में शूराभीर था उसे बाद में शूद्राभीर बना कर प्रमाणित किया जाने लगा कि अहीर लोग शूद्र होते हैं। ।
अब अहीरों को गोपालन के कारण वराहपुराण में वैश्य लिखा है । परन्तु वैश्य वर्ण में रहने पर सन्तुष्टि नहीं हुई तो धूर्त पुरोहितों ने शूद्र भी बनाने का बाद के ग्रन्थों में अभियान चलाया ।
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आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी (अच्छे व्रत का पालन करने वाले और जानकार रहे हैं।!
संसार में गोप जाति से बढ़कर कोई दूसरी जाति नहीं है। गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड में यह कहा गया है ।
"लगातार गायों को पालने वाले तथा गायों की चरण धूलि ( रज ) की गंगा में स्नान करने वाले तथा गायों को स्पर्श करने वाले तथा गायों के शुभ नाम का जाप करने वाले दिनरात गायों के सुन्दर निर्मल मुखों को देखने वाले गोपों से बढ़कर कोई जन जाति इस संसार में नहीं है।२२।
उपर्युक्त श्लोक काम मूल इस श्लोक में है।
गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च
गंगां स्पृशन्ति च जपंति गवां सुनाम्नाम्।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः॥ २२ ॥
और पुराणो में यह भी बताया गया कि
वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है ।
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।। ४३।।
सन्दर्भ:-श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड विष्णुवैष्णव प्रशंसा नामैकादशोऽध्यायः।।११।।
अनुवाद- ब्राह्मण "क्षत्रिय "वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है गोप ( आभीर)।४३।
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं।
वैष्णव सबसे श्रेष्ठ वर्ण है। देखें निम्न श्लोक
"सर्वेषांचैववर्णानांवैष्णवःश्रेष्ठ-उच्यते । येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥४।
(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)
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वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है । पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय (68) में वर्णन है। कि सभी वर्णों में वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ है।
"महेश्वर उवाच- ! शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् ।१।
"यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रहत्यादिपातकात् । तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।२।
तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि सांप्रतम् ।विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। ३।
सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते । येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः ।४।
क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज । तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत् ।५।
हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थिता मतिः ।शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः।६।
तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः। तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः ।७।
धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते।वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः।८।
उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः । तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते ।९।
ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः। एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः ।१०।
अनुवाद:-महेश्वर ने कहा:- हे नारद सुनो ! मैं वैष्णव के लक्षण बताता हूँ। उसके सुनने मात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है ।१।
वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ उसे तुम सुनो!।२।
चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होता है। इस लिए वह वैष्णव हुआ।
("विष्णोरयं यतो हि आसीत् तस्मात् वैष्णव उच्यते सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णव श्रेष्ठ: उच्यते ।३।
जिनका आहार ( भोजन ) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।
उन वैष्णवों के दर्शन मात्र से पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५।
जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।
प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७।
जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।____________________
सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)
कुछ कूपमण्डूक आज कल अहीरों को शूद्र बनाने के लिए महाभारत का प्रक्षिप्त श्लोक और उसका गलत अनुवाद दिखा रहे है।
हमने यद्यपि सभी आक्षेपों का समाधान कर दिया है।
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योगेश कुमार रोहि-
8077160219
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