🙏 देवताओं की संतान 🙏
पवित्र रक्त आज भी मौजूद
भारतवर्ष- आर्यव्रत की पावन भूमि और यदुवंश की पवित्रता
भारतवर्ष, जिसे शास्त्रों में आर्यव्रत की पावन भूमि कहा गया है, वह न केवल सनातन धर्म का उद्गम स्थल है, बल्कि वह पवित्र धरती है, जहाँ वेदों, पुराणों और महर्षियों की तपस्या ने मानवता को धर्म, कर्म और सत्य का मार्ग दिखाया। इस भूमि पर जन्मे प्राणियों की रक्त परंपरा में पवित्रता का ऐसा समन्वय है, जो उन्हें देवताओं की संतान के समान बनाता है। विशेष रूप से ययाति और देवयानी से उत्पन्न यदुवंश, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ, वह इस पवित्रता का सर्वोच्च प्रतीक है।
यह कथा नन्दगोप के क्षत्रियत्व, वीर्य प्रधानता सिद्धान्त, चाण्डाल-शूद्र से उत्पन्न ऋषियों के वर्ण, और यदुवंश की महिमा को जोड़ते हुए, श्रीकृष्ण के नाम की शक्ति और भारतवर्ष की पावनता को उजागर करती है।
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भारतवर्ष- आर्यव्रत की पवित्र भूमि
इस पावन भूमि पर जन्मे प्राणियों की रक्त परम्परा को शास्त्रों में विशेष स्थान प्राप्त है। यहाँ की सन्तानों को देवताओं की सन्तान कहा गया है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति वेदों, यज्ञों और तपस्या की पवित्रता से जुड़ी है। यदुवंश, जो ययाति और देवयानी से प्रारंभ हुआ, इस पवित्रता का जीवन्त उदाहरण है।
नन्दगोप का क्षत्रियत्व- वीर्य प्रधानता का सिद्धांत
नंदगोप, जिन्हें गोकुल के गोपों के नायक और श्रीकृष्ण के पालक पिता के रूप में जाना जाता है, उनका वर्ण वैष्णव महाक्षत्रिय है । कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि उनकी पितामही गुणवती के वैश्य होने के कारण वे वैश्य थे। परंतु शास्त्र इस भ्रान्ति का खण्डन करते हैं। वीर्य प्रधानता सिद्धान्त के अनुसार, सन्तान का वर्ण पिता के वर्ण से निर्धारित होता है।
स्वयं रूढ़िवादी ग्रन्थ मनुस्मृति (9/35) में कहा गया है-
बीजस्य चैव योन्याश्च बीजमुत्कृष्टमुच्यते ।
सर्वभूतप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता ॥ ३५।
सर्वभूतप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता ॥ ३५।
अर्थ- बीज (पिता का वीर्य) और योनि (माता का गर्भ) में बीज ही श्रेष्ठ है, क्योंकि समस्त प्राणियों की उत्पत्ति बीज के लक्षणों से होती है। ३५।
मनुस्मृति (10/70-71) इसे और स्पष्ट करती है-
अक्षेत्रे बीजमुत्सृष्टमन्तरेव विनश्यति।
अबीजकमपिक्षेत्रं केवलं स्थण्डिलं भवेत्। 70।
यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोऽभवन्।
पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद्बीजं प्रशस्यते। 71।
अर्थ- यदि बीज अनुपजाऊ क्षेत्र में डाला जाए, तो वह नष्ट हो जाता है। यदि क्षेत्र उपजाऊ हो, पर बीज निम्न हो, तो वह बेकार है। फिर भी, बीज की श्रेष्ठता के कारण निम्न योनियों से उत्पन्न प्राणी पूजनीय ऋषि बने।
महाभारत, अनुशासनपर्व (48/7) में लिखा है-
तिस्त्रः क्षत्रियसम्बंधाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृतः।
अर्थ- क्षत्रिय की क्षत्रिया या वैश्या पत्नी से उत्पन्न पुत्र क्षत्रिय होता है, परन्तु शूद्रा पत्नी से उत्पन्न पुत्र हीन वर्ण का होता है।
नंदगोप की वंशावली पर दृष्टि डालें: उनके दादा देवमीढ़ क्षत्रिय थे, उनकी पत्नी गुणवती वैश्य थीं। उनके पुत्र पर्जन्य (नन्दगोप के पिता) क्षत्रिय हुए, क्योंकि पिता का वर्ण ही संतान का वर्ण निर्धारित करता है। अतः पर्जन्य के पुत्र नन्दगोप भी क्षत्रिय थे।
हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व (3/23) में नंदगोप की पुत्री योगमाया को क्षत्रिया कहा गया है-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
अर्थ- समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा (योगमाया) क्षत्रिया है। यह नंदगोप के क्षत्रियत्व की पुष्टि करता है।
अन्वितार्थप्रकाशिका, दशम स्कंध, अध्याय 39 में लिखा है-
एवमिति सार्द्धम्। एवं नन्दगोपः क्षत्रा व्रजरक्षाधिकृतेन गोकुले आघोषयत् सर्वत्र घोषितवान्।
अर्थ- नंदगोप क्षत्रिय थे और गोकुल में व्रज रक्षक के रूप में विख्यात थे।
सम्यगुक्तं न भवता शशांकः प्राह तत्त्ववित् ।
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
इति पौराणिकाः प्राहुर्मुनयो नयचक्षुषः ॥ ४२ ॥ (भविष्य पुराण-4/99/42)
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
इति पौराणिकाः प्राहुर्मुनयो नयचक्षुषः ॥ ४२ ॥ (भविष्य पुराण-4/99/42)
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥२१। (महाभारत- 9/20/21)
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥२१। (महाभारत- 9/20/21)
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
भागवतपुराण-9/20/21
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः। विष्णु पुराण (4/19/12) कहता है-
अर्थ- माता केवल एक माध्यम है, पुत्र पिता के वर्ण का होता है।
इस प्रकार, नन्दगोप का वर्ण उनके पिता पर्जन्य के क्षत्रिय होने के कारण क्षत्रिय ही था।
यद्यपि गोपों का वर्ण वैष्णव है । परन्तु ब्राह्मण लोग जब उनका वर्ण निर्धारण ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत करते हैं चो भी वे उनके सिद्धान्त से भी महाक्षत्रिय हैं।
यदि वसुदेव के साथ भी नन्द की तुलना यू जाए तो वसुदेव की वृत्ति भी गोपालन और कृषि रही है।
जैसा कि देवीभागवतमहापुराण में वर्णन है।
देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के
अनुसार-
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा॥५८॥
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा॥५८॥
अनुवाद:-
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।। ____________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥
अनुवाद:-अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
_________ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के देहावसान हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह किया ।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! ।६१।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से गोप बनकर शूरसेन के पुत्र वसुदेव रूप में उत्पन्न हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।
पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति।
वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।फिर दोनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?
🙏
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