मंगलवार, 12 मार्च 2024

Yadav Yogesh Kumar Rohi:
अहीर जाति की वैष्णव उत्पत्ति-
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण- तथा "शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य" और क्रमश: "ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन भारतीय शास्त्रों में वर्णित हुआ है।

दर-असल ये भारतीय प्राचीन शास्त्र संस्कृत भाषा में लिखे हुए थे और संस्कृत भाषा आज के दौर में अधिक प्रचलित नहीं हैं।
आधिकारिक रूप से इस भाषा के विशेषज्ञ भी बहुत कम हैं। कुछ पुरोहित वर्गीय जाति विशेष लोगों ने संस्कृत के उन उन अँशों का अनुवाद करना और समाज में उनका विज्ञापन करना उचित नहीं समझा जिससे आभीर जाति की महिमा का वर्णन था।
पुरोहित वर्ग को अनुमान था कि कहीं उनकी प्रतिष्ठा अथवा वर्चस्व किसी अन्य जाति से कम आकलन हो -
शास्त्रों के हवाले से हम आपको बता दें कि "स्वयं भगवान विष्णु 'आभीर' जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" "दुर्गा" "गायत्री" और "उर्वशी" आदि को भी इन्हीं अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप' 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषण-पद गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है।

इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी भगवान्- विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स (श्रोत) और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने का भाव सूचित करता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही भगवान्- विष्णु को गोप कहा गया है।
"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥(ऋग्वेद १/२२/१८)
भावार्थ-(अदाभ्यः) -सोमरस अथवा अन्न आदि रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्)- धारण करता हुआ । (गोपाः)- गोपालकों के रूप, (विष्णुः)- संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि)- तीन (पदानि)- क़दमो से (विचक्रमे)- गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि)- धर्मों को धारण करते हैं॥18॥
विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। 
स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
_______
"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।

गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट (included ) किया गया है।
"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे।  त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।
अनुवाद:- तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।
ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
"सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे  उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।

त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।

श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।
अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।


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"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।



विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-
(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥

ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि) इच्छा करते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) बैल हैं (परमम्) जो उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अवभाति) प्रकाशमान होता है (तत्) उस स्थान को (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६ ॥
ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४/५-६
(गोपाः)गायों के पालक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा:) कदम अथवा लोक [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) गमन किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों काे (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥१८॥
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥
' (ऋग्वेद १/२२/१८) अथर्वेद-७/२६/५
तात्पर्य:- तीनों लोकों में गमन करने वाले भगवान विष्णु हिंसा से रहित और धर्म को धारण करने वाले हैं।
'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है।
इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है - जो भगवत् का भक्त है वह भागवत्। श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है 'परब्रह्म तु कृष्णो हि'(सिद्धान्त मुक्तावलली-( ३ )वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।
भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम. से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ।
तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध.ये चार व्यूह( समूह) माने गये हैं।
लौकिक मान्यताओं में राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं।
और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है।
तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे

मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं‌। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को समाप्त कर समान्य करना और समान्य को फिर वरदान में बदल देना अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा ही सम्भव हो सका ।  

अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विप्रादि वर्णों के मन्त्र का पुर: सर( अगुआ) ब्रह्मा ही हैं।
अनुवाद:-सावित्री ने कहा कि किसी वर्ण का मनुष्य मन्त्र विधि से ब्रह्मा का पूजन कभी न करे।८।
ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु समये धरणीतले ॥ न ब्रह्मणा विना किंचित्कृत्यं सिद्धिमुपैष्यति ॥९॥
"अनुवाद:-फिर भी मैं गायत्री कहती हूँ। सम्पूर्ण पृथ्वी पर ब्रह्मा के बिना ब्राह्मण आदि वर्णों का कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।
कृष्णार्चने च यत्पुण्यं यत्पुण्यं लिंग पूजने॥ तत्फलं कोटिगुणितं सदा वै ब्रह्मदर्शनात्॥ भविष्यति न सन्देहो विशेषात्सर्वपर्वसु।१०।
"अनुवाद:-कृष्ण ( विष्णु) अर्चना और लिंगार्चना से जो पुण्य मिलता है। ब्रह्मा के दर्शन मात्र से उसका करोड़ों गुना फल मिलेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। विशेष कर पर्वों पर तो दर्शन जनित अत्यधिक फल लाभ होगा।१०।
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥ तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥
"अनुवाद:-हे विष्णु आपको जो उस सावित्री के द्वारा यह शाप दिया कि मृत्युलोक में जन्म लेकर अन्य के दास होंगे ।११।
तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि॥
यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः।
"अनुवाद:- तो इस सम्बन्ध में आपको सावित्री द्वारा जो यह शाप दिया है उसका मैं निवारण करती हूँ।
कि आपके दो रूप होंगे ! मुझ गायत्री को सावित्री ने गोप कुल में उत्पन्न कहा है इस सन्दर्भ में मेरा यह कथन है। कि हे विष्णु आप भी गोप कुल को पवित्र करने के लिए मेरे ही गोपकुल में जन्म लेंगे।८-१२।
_______
एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥
"अनुवाद:- तब पृथ्वी पर जन्म लेने वाले आपके एक शरीर का नाम कृष्ण तथा दूसरे शरीर का नाम अर्जुन होगा। अपने उस दूसरे अर्जुन शरीर के लिए तुम सारथि बनोगे।
विशेष :- 
अहीर अथवा गोप जाति प्राचीनतम है मत्स्य पुराण में उर्वशी अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित पद्मसेन आभीर की पुत्री है । जिसने कल्याणनी नामक कठोर व्रत का सम्पादन किया और जो अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बन गयी यही कल्याणनि व्रत का फल था।

उधर
ऋग्वेद
के दशममण्डलते95 वेंसूक्तकी18ऋचाऐं"
पुरूरवाऔरउर्वशीकेसंवादरूपमेंहै।
जिसमेंपुरूरवाकेविशेषणगोष:(घोष−गोप)
तथागोपीथ−है।
अत:पुरुरवा गो−पालक राजाहै।उधर ऋग्वेदके दशम मण्डल के 95वें
सूक्त क ी18ऋचाऐं"पुरूरवा और उर्वश ीक ेसंवादरूप में है।जिसम ेंपुरूरवा क ेविशेषण गोष:(घोष−गोप)तथा गोपीथ−है।अत:पुरुरवा गो−पालक राजाहै।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे ।
इसी लिए रूद्रयामलतन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।
अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है।
परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्णन आभीर तथा गोष(घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है।
इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए ।
अहीर अथवा गोप ही आज के किसान हैं। जिसमें कुछ कबीला जाटों में समाहित हुए कुछ गुर्जरों में भी समाहित हुए है।
राजपूत भी एक जातीयों का संघ है। जिसका विकास बहुत बाद में भारत में ६०६ ई से ६४७ ईस्वी के समय से हुआ। और चरम विकास १६ वीं सदी तक हुआ ।
सम्भवत: इनमें भी अहीरों जाटों और गुर्जरो से निकल कर कुछ शाखाएं आज समाहित हो गयीं है।
जैसे अहीरों से निकले राजपूत जादौन, चुडासमा , और जड़ेजा भाटी आदि - परन्तु ये राजपूत अब स्वयं को अहीरों से अलग मानने का राग आलाप रहे हैं।
अहीर अथवा गोप शब्द कई उतार-चढ़ावों के बाद आज तक समाज में यदुवंश को समाहित किए हुए है। यदुवंश के मूल प्रवर्तक यदु एक गोप अथवा पशपालक होकर भी लोकतान्त्रिक राजा थे।
यद्यपि यदु के अन्य भाई जैसे तुर्वसु और पुरु को भी शास्त्र पशु पालक के रूप में वर्णित करते हैं।
भारतीय पौराणिक कथा-कोश लक्षीनारायण संहिता में कुरुक्षेत्र का वर्णन करते हुए पुरु के वंशज कुरु को पशु पालक कहा है ।

गायत्री द्वारा विष्णु को गोप रूप में दो शरीर (कृष्ण और अर्जुन ) के रूप में उत्पन्न होने को कहना भी अर्जुन का गोपालक रूप है।

कौसललिया अहीर स्वयं को पाण्डु का वंशज मानते हैं। परन्तु शास्त्र तथा समाज में आभीर शब्द केवल यदुवंश के गोपों के ही लिए रूढ़ हो गया।
अर्जुन को पञ्चनद प्रदेश ( पंजाब) में परास्त करने वाले नारायणी सेना से सम्बन्धित वृष्णि कुल के आभीर थे । जिन्हें नारायणी सेना के गोप कहा गया है।
यादवों के लिए ही आभीर शब्द रूढ़ हो गया दरअसल आभीर एक जाति है जिसमें यदु वंश पुरु वंश और तुर्वशु वंश भी समाहित थे।
इस स्थान पर हम यह सिद्ध करेंगे कि जाट "गूजर और अहीरों का रक्त सम्बन्ध अधिक सन्निकट है ।
यद्यपि गूजर और जाटों के कुछ कबीले सपना सम्बन्ध सूर्यवंश से भी जोड़ रहे हैं।
फिर भी इनमें स्वयं को यदुवंश से जोड़ने वाले कबीलों का जैनेटिक मिलान अहीरों से है।
तीनों ही जातियों में गोत्र भी बहुत से समान हैं। सबसे बड़ी बात इनका ( डी॰ एन॰ ए॰)-जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तन्तुनुमा अणु हैं जिनको( डी-ऑक्सी राइबोन्यूक्लिक अम्ल) या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं।
इसमें अनुवांशिक कूट( कोड) निबद्ध रहता है। इसी लिए गूजर जाट और अहीरों की प्रवृत्ति समान होती है ।
परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए की अहीर जाति सबसे प्राचीनतम है। जब गुर्जर और जाट जैसे शब्द भी नहीं थे तब आभीर थे ।
इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं।
कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।
"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।
यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप। जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्। सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।
"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने के पांच कारण होते हैं १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा ( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।
श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः। तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।७५।
"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम। इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम।
कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७। 
"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा मैं हरि का सदैव भजन करूँगा।७७।
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कः पिता कोऽत्र वै माता सर्वे स्वार्थपरा भुवि। न कांक्षे तव राज्यं वै न दास्ये यौवनं मम ।७८।
"अनुवाद:-कौन पिता है कौन माता है यहाँ सब स्वार्थ में रत हैं इस संसार में न मैं अब तुम्हारे राज्य की इच्छा करता हूँ और ना ही अपने यौवन की ही इच्छा करता हूँ यह बात पुरु ने अपने पिता ययाति से कही ।७८।
इत्युक्त्वा पितरं नत्वा हिमालयवनं ययौ।तत्र तेपे तपश्चापि वैष्णवो धर्मभक्तिमान् ।७९।
"अनुवाद:- इस प्रकार कहकर पिता को नमन कर पुरु हिमालय के वन को चला गया और वहाँ तप किया और वैष्णव धर्म का अनुयायी बन भक्ति को प्राप्त किया।७९।
कृषिं चकार धर्मात्मा सप्तक्रोशमितक्षितेः । हलेन कर्षयामास महिषेण वृषेण च ।८०।
"अनुवाद:-उस धर्मात्मा ने पृथ्वी को सात कोश नाप कर वहाँ हल के द्वारा कृषि कार्य भैंसा और बैल के द्वारा भी किया।८०।
आतिथ्यं सर्वदा चक्रे नूत्नधान्यादिभिः सदा ।विष्णुर्विप्रस्वरूपेण ययौ कुरोः कृषिं प्रति ।८१।

"अनुवाद:-:- नवीन धन धान्य से वह सब प्रकार से अतिथियों का सत्कार करता तभी एक बार विष्णु भगवान विप्र के रूप धारण कर कुरु के पास गये और उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। ८१।
आतिथ्यं च गृहीत्वैव मोक्षपदं ददौ ततः कुरुक्षेत्रं च तन्नाम्ना कृतं नारायणेन ह ।।८२।।


"अनुवाद:-तब भगवान् विष्णु ने कुरु का आतिथ्य सत्कार ग्रहण कर उसे मोक्ष पद प्रदान किया उस क्षेत्र का नाम नारायण के द्वारा कुरुक्षेत्र कर दिया गया।८२।

कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती लोग सदीयों से कृषि और पशुपालन कार्य करते चले आ रहे हैं। आज कल ये लोग जाट " गूजर और अहीरों के रूप में वर्तमान में भी इस कृषि और पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।८२।
""सन्दर्भ:-
श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७३ ।।
जाट इतिहास के महान अध्येता
राम स्वरूपजून (झज्जर , हरियाणा के प्रतिष्ठित जाट इतिहासकार थे । वह जाटों के इतिहास नामक पुस्तक के लेखक हैं ।
उनका जन्म हरियाणा के झज्जर जिले के नूना मजरा गांव में हुआ था ।
राम सरूप जून लिखते हैं कि ....
"उन्होंने 1900 ईस्वी में अपना पाठ शुरू किया जब वह उस क्षेत्र में पढ़ने वाले पहले स्कूलों में एक दशक में थे।
राम स्वरूप जून जाटों का रक्त सम्बन्ध अहीरों से निश्चित करते हैं।

वे लिखते हैं कि आज के अहीर ययाति की यदु शाखा के हैं । वे यदु के दूसरे पुत्र सत्जित के वंशज हैं जबकि सभी गोत्र, अहीरों के जाटों में भी पाए जाते हैं । दूसरे शब्दों में जाट और अहीर बहुत निकट संबंधी हैं।
उनके गोत्रों को मिलाकर, जाट गोत्रों की कुल संख्या बढ़कर 700 हो जाती है। उत्तर पश्चिमी अहीरों में केवल 97 गोत्र हैं जिनमें 20 प्रतिशत जाट गोत्र भी शामिल हैं ।
अलवरूनी ने तहकीके हिन्द में वसुदेव को पशुपालक जाट कहकर वर्णित किया है।
वर्तमान में जाट और गुर्जर संघ हैं जिनमें अनेक देशी विदेशी जातियों का समावेश है। जो स्वयं को सूर्य वंशी या चन्द्र वंशी लिखते कुछ स्वयं को अग्नि वंशी भी लिखते हैं।
परन्तु अहीर आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान हैं अहीरों के विषय में गोप रूप में यह वर्णन समीचीन ही है।
स्कन्दपुराण- (नागरखण्डः) के अध्यायः 193 में वर्णन है कि
"यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः॥ तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥१२॥
एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥
"तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम्॥सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥
"अनुवाद:-उनके द्वारा किए गये कार्यों में तुम्हारे रक्त सम्बन्धी सजातीय ये गोप प्रशंसा को प्राप्त करेंगे।१४।
यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वं शप्रभवानराः ॥ तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥
विशेषत :- सावित्री के शाप का निवारण करते हुए आभीर कन्या गायत्री ने कहा था।
सभी लोकों और देवों में भी
जहाँ जहाँ मेरे वंश जाति के अहीर लोग निवास करेंगे वहीं वहीं लक्ष्मी निवास करेगी चाहें वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१३-१४-१५।
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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः।१थे।

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