गुरुवार, 21 मार्च 2024

यज्ञ और दक्षिणा- यदु और यज्ञवती का उपाख्यान-

देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः (९) अध्यायः 

देवीभागवतपुराणम्‎  स्कन्धः ०९


पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥७१॥

राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२ ॥

आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा ।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने ॥ ७३ ॥

लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥


स्कन्ध (9)- अध्याय- (45) - 

"भगवती दक्षिणाका उपाख्यान"

श्रीनारायण बोले- [हे नारद !] मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया।

अब मैं भगवती दक्षिणा का आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये॥1॥

प्राचीनकाल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।

वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थलसे सुशोभित होती हुई "वट वृक्षों से घिरी रहती थी। उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पाके समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्ण के थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंस के समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी। भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावों को भलीभाँति जानती थी तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी।

रसज्ञानसे परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण के वाम अंक में बैठ गयी ॥2-7॥

तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय भामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से आती हुई देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥8-10॥

कान्तिमान् शान्त स्वभाव वाले, सत्त्वगुणसम्पन्न  तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भय से काँपने लगीं।

श्रीकृष्णको अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधा से बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरणकमल में भयपूर्वक शरणागत हो गयीं। हे नारद ! वहाँ के तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमल की शरण में गये ॥11-14 ॥

परमेश्वरी राधाने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला( दक्षिणा) को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16
ऐसा कहकर देवदेवेश्वरी रासेश्वरी राधा रोषपूर्वक रासमण्डलके मध्य रामेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको पुकारने लगीं ॥ 17 ॥

श्रीकृष्णको समक्ष न देखकर राधिकाजी विरहसे व्याकुल हो गयीं। उन परम साध्वीको एक-एक क्षण करोड़ों युगों के समान प्रतीत होने लगा। उन्होंने श्रीकृष्णसे प्रार्थना की- हे कृष्ण ! हे प्राणनाथ ! हे ईश! आ जाइये। हे प्राणोंसे अधिक प्रिय तथा प्राणके अधिष्ठाता देवेश्वर आपके बिना मेरे प्राण निकल रहे हैं ।। 18-19 ॥
पतिके सौभाग्यसे स्त्रियोंका स्वाभिमान दिन प्रतिदिन बढ़ता रहता है और उन्हें महान् सुख प्राप्त होता है। अतः स्त्रीको सदा धर्मपूर्वक पतिकी सेवा करनी चाहिये ॥20॥

कुलीन स्त्रियोंके लिये पति ही बन्धु, अधिदेवता, आश्रय, परम सम्पत्तिस्वरूप तथा भोग प्रदान करनेवाला साक्षात् विग्रह है ॥21॥

वही स्त्रीके लिये धर्म, सुख, निरन्तर प्रीति, सदा शान्ति तथा सम्मान प्रदान करनेवाला; आदरसे देदीप्यमान होनेवाला और मानभंग भी करनेवाला है। पति हो स्वीके लिये परम सार है और बन्धुओंमें बन्धुभावको बढ़ानेवाला है।
समस्त बन्धु बान्धवोंमें पतिके समान कोई बन्धु दिखायी नहीं देता ॥22-23॥

वह स्त्रीका भरण करनेके कारण 'भर्ता', पालन करनेके कारण 'पति', उसके शरीरका शासक होनेके कारण 'स्वामी' तथा उसकी कामनाएँ पूर्ण करनेके कारण 'कान्त' कहा जाता है। वह सुखकी वृद्धि करनेसे 'बन्धु', प्रीति प्रदान करनेसे 'प्रिय', ऐश्वर्य प्रदान करनेसे 'ईश', प्राणका स्वामी होनेसे 'प्राणनायक' और रतिसुख प्रदान करनेसे 'रमण' कहा गया है। स्त्रियोंके लिये पतिसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है। पतिके शुक्रसे पुत्र उत्पन्न होता है, इसलिये वह प्रिय होता है ।24-26 ll
उत्तम कुलमें उत्पन्न स्त्रियोंके लिये उनका पति सदा सौ पुत्रोंसे भी अधिक प्रिय होता है। जो असत् कुलमें उत्पन्न स्त्री है, वह पतिके महत्त्वको समझने में सर्वथा असमर्थ रहती है ॥27 ॥

सभी तीर्थोंमें स्नान, सम्पूर्ण यज्ञोंमें दक्षिणादान, पृथ्वीकी प्रदक्षिणा, सम्पूर्ण तप, सभी प्रकारके व्रत और जो महादान आदि हैं, जो-जो पुण्यप्रद उपवास आदि प्रसिद्ध हैं और गुरुसेवा, विप्रसेवा तथा देव पूजन आदि जो भी शुभ कृत्य हैं, वे सब पतिके चरणकी सेवाकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं ॥ 28-30 ॥

गुरु, ब्राह्मण और देवता-इन सभीकी अपेक्षा स्त्रीके लिये पति ही श्रेष्ठ है। जिस प्रकार पुरुषोंके लिये विद्याका दान करनेवाला गुरु श्रेष्ठ है; उसी प्रकार कुलीन स्त्रियोंके लिये पति श्रेष्ठ है ॥31॥

जिनके अनुग्रह से मैं लाखों-करोड़ गोपियों, गोपों, असंख्य ब्रह्माण्डों, वहाँके निवासियों तथा अखिल ब्रह्माण्ड- गोलककी ईश्वरी बनी हूँ, अपने उन कान्त श्रीकृष्णका रहस्य मैं नहीं जानती। स्त्रियोंका स्वभाव अत्यन्त दुर्लघ्य है ।।32-33 ॥

ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 343 ॥

हे मुने ! इसके बाद राधाके द्वारा गोलोक से च्युत सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नामसे प्रसिद्ध हुई। दीर्घकालतक तपस्या करके उसने भगवती लक्ष्मीके विग्रहमें स्थान प्राप्त कर लिया।

अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करनेपर भी जब देवताओंको यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजीके पास गये ॥35-36॥

देवताओंकी प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजीने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया।
अन्तमें उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ भगवान नारायणने महालक्ष्मी के विग्रहसे मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजीको सौंप दिया।
ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्यों की सम्पन्नता के लिये उन देवी दक्षिणाको यज्ञपुरुष को समर्पित कर दिया। तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणा की विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की।37-39॥

उन भगवती दक्षिणाका वर्ण तपाये हुए सोनेके समान था; उनके विग्रहकी कान्ति करोड़ों चन्द्रों के तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमलके समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमलके समान उनके विशाल नेत्र थे कमलके आसन पर पूजित होने वाली वे भगवती कमला के शरीर से प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्नि के समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वीके ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने केशपाश में मालती के पुष्पों की माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुस्कान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणों से अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियोंके भी मनको मोह लेती थीं कस्तूरी मिश्रित सुगन्धित चन्दनसे बिन्दी के रूप में अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाट पर  सुशोभित हो रहा था; केशोंके नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूरकी छोटी-छोटी बिन्दियों से अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थलसे वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधारस्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूच्छित हो गये।
पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूप में स्वीकार कर लिया ॥40-46॥

 

यदि यज्ञ के समय कर्ता के द्वारा संकल्पित दान नहीं दिया गया और प्रतिग्रह लेने वाले ने उसे माँगा भी नहीं, तो वे दोनों ही (यजमान और ब्राह्मण) नरक में उसी प्रकार गिरते हैं, जैसे रस्सी टूट जानेपर घड़ा ॥60॥

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श्रीनारायण बोले- हे मुने! दक्षिणाविहीन कर्म का फल हो ही कहाँ सकता है? दक्षिणायुक्त कर्म में ही फल प्रदान का सामर्थ्य होता है। 

हे मुने ! जो कर्म बिना दक्षिणाके सम्पन्न होता है, उसके  फलका भोग राजा बलि करते हैं। हे मुने। पूर्वकाल भगवान् वामन राजा बलिके लिये वैसा कर्म अर्पण कर चुके हैं ।।65-66॥


[हे नारद।] भगवती दक्षिणा का जो भी ध्यान, स्तोत्र तथा पूजाविधि का क्रम आदि है, वह सब कण्वशाखामें वर्णित है, अब मैं उसे बताऊँगा, ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 693 ॥
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पूर्वसमय में कर्म का फल प्रदान करने में दक्ष उन भगवती दक्षिणा को प्राप्त करके वे यज्ञपुरुष कामपीड़ित होकर उनके स्वरूप पर मोहित हो गये और उनकी स्तुति करने लगे ॥70॥

यज्ञ बोले- [ हे महाभागे ! ] तुम पूर्वकालमें गोलोक की एक गोपी थी और गोपियों में परम श्रेष्ठ थीं। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्णकी प्रिय सखी और पत्नी थीं। ll793॥

एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सवके अवसरपर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांश से प्रकट हो गयी थी, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। 

हे शोभने ! 
इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नामसे प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिका के शापसे गोलोकसे च्युत होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांश से आविर्भूत हो अब देवी दक्षिणा के रूपमें मेरे सौभाग्य से मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो
और मुझे ही अपना स्वामी बना लो ॥72–74॥

तुम्हीं यज्ञ करने वालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करनेवाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठान कर्ताओं का कर्म शोभा नहीं पाता है ll75-76॥

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियों को कर्म का फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं ॥77॥
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ब्रह्मा स्वयं कर्मरूप हैं, महेश्वर फलरूप हैं और मैं
विष्णु यज्ञरूप हूँ, इन सबमें तुम ही साररूपा हो॥ 78॥

"फल प्रदान करने वाले परब्रह्म, गुणरहित पराप्रकृति तथा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे ही सहयोग से शक्तिमान् हैं ।।79॥

हे कान्ते ! जन्म-जन्मान्तर में तुम्हीं सदा मेरी | शक्ति रही हो। हे वरानने ! तुम्हारे साथ रहकर ही मैं सारा कर्म करने में समर्थ हूँ ॥ 80 ॥

ऐसा कहकर यज्ञ के अधिष्ठातृदेवता भगवान् यज्ञ- पुरुष विष्णु दक्षिणा के समक्ष स्थित हो गये। तब भगवती ! कमला की कलास्वरूपिणी देवी दक्षिणा प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने यज्ञपुरुषका वरण कर लिया ।81।
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जो मनुष्य यज्ञ के अवसर पर भगवती दक्षिणा के इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है॥82॥


यह स्तोत्र मैंने कह दिया, अब ध्यान और पूजा-विधि सुनो। शालग्राममें अथवा कलश पर भगवती दक्षिणा का आवाहन करके विद्वान्‌ को उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ 88 ॥

[उनका ध्यान इस प्रकार करना चाहिये-] भगवती लक्ष्मी के दाहिने स्कन्ध से आविर्भूत होनेके कारण दक्षिणा नामसे विख्यात ये देवी साक्षात् कमलाकी कला हैं, सभी कर्मों में अत्यन्त प्रवीण( दक्ष)भी  हैं।

सम्पूर्ण कर्मो का फल प्रदान करने वाली हैं, भगवान् विष्णुकी शक्तिस्वरूपा है, सबके लिए वन्दनीय पूजनीय, मंगलमयी, शुद्धिदायिनी, शुद्धिस्वरूपिणी, शोभनशील वाली और शुभदायिनी हैं- ऐसी देवी की मैं आराधना करता हूँ ॥89-90।। 

हे नारद ! इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष को मूलमन्त्र से इन वरदायिनी देवी की पूजा करनी चाहिये। वेदोक्त मन्त्रके द्वारा देवी दक्षिणा को पाद्य आदि अर्पण करके 'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं दक्षिणायै स्वाहा' - इस मूल मन्त्र से बुद्धिमान् व्यक्ति को सभी प्राणियों द्वारा पूजित भगवती दक्षिणा की भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा करनी चाहिये ॥91-92।।

सन्दर्भ:-
(देवी भागवत पुराण नवम स्कन्ध )

विशेष—पुराणों में दक्षिणा को  यज्ञ की पत्नी बतलाया गया है और यज्ञ स्वयं श्रीहरि का स्वरूप है-।

ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में लिखा हैं कि कार्तिकी पूर्णिमा की रात को जब एक बार रास महोत्सव हुआ उसी में श्रीकृष्ण के दक्षिणांश से दक्षिणा की उत्पत्ति हुई।

 यह परमेश्वर श्री कृष्ण के दक्षिण अंश से उत्पन्न होने से दक्षिणा कहलायी परन्तु यह गोलोक में सुशीला नाम की गोपी थी। जिस प्रकार राधा नामक आदि -प्रकृति परमेश्वर श्रीकृष्ण के वामांग से उत्पन्न होने से वामा कहलायी सम्पूर्ण नारी प्रकृति का प्रतिनिधि होने से "वामा कहलाती है।

विष्णु स्वयं यज्ञ पुरुष हैं। वैष्णव यज्ञ पशुओं की हिंसा से रहित शुद्ध सात्विक विराट पुरुष के निमित्त किये जाने वाले यज्ञ हैं।


परन्तु पशुओं की बलि या वध द्वारा सम्पन्न यज्ञ देवों को लक्ष्य करके किये जाते हैं।

विशेषत: इन्द्र यज्ञ पशुओं की हिंसा से सम्पन्न होते थे। पशु हिंसा से सम्पन्न इन्द्र यज्ञों  का स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन  पूजन के अवसर पर बन्द करा दिया था।

स्वयं यादवों के नायक श्रीकृष्ण के आदि पूर्वज यदु बहुत बड़े वैष्णव यज्ञ करने वाले पशुपालक गोप थे। उनका नाम यदु उनकी यज्ञ करने की प्रवृत्ति के कारण सार्थक हुआ। गोपों मे ही भगवान विष्णु के समय -समय पर अनेक अवतरण हुए नहुष स्वयं विष्णु के अंशावतार थे। इसी परम्परा में स्वराज विष्णु परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक अंश से यदु और उन्हीं कृष्ण के दक्षिण (अंग) से देवी सुशीला गोपी रूप में गोलोक में उत्पन्न होकर श्री कृष्ण की प्रेयसीऔर (पत्नी) रूप में प्रख्यात हुई-

कालान्तर में श्रीकृष्ण के गोलोक से भूलोक पर अवतरण होने पर श्रीकृष्ण के ही अंश से यादवों के आदि पुरुष यदु का अवतरण हुआ। 

और उनकी पत्नी यज्ञवती के रूप में स्वयं साक्षात् सुशीला गोपी भूलोक पर अवतरित हुईं थीं। जो भूलोक पर दक्षिणा और यज्ञवती के  दो रूपों में अवतीर्ण हुईं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण से हम सुशीला गोपी का उपाख्यान प्रस्तुत करते हैं।

            "दक्षिणोपाख्यानवर्णनम्

              "श्रीनारायण उवाच-
उक्तं स्वाहास्वधाख्यानं प्रशस्तं मधुरं परम् ।
वक्ष्यामि दक्षिणाख्यानं सावधानो निशामय॥१॥

गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः ।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥२॥

अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥ ३ ॥

कलावती कोमलाङ्‌गी कान्ता कमललोचना ।
सुश्रोणी सुस्तनी श्यामा न्यग्रोधपरिमण्डिता ॥४॥

ईषद्धास्यप्रसन्नास्या रत्‍नालङ्‌कारभूषिता ।
श्वेतचम्पकवर्णाभा बिम्बोष्ठी मृगलोचना ॥ ५ ॥

कामशास्त्रेषु निपुणा कामिनी हंसगामिनी।
भावानुरक्ता भावज्ञा कृष्णस्य प्रियभामिनी ॥६॥

रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा॥ ७ ॥

सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम्॥८॥

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम्॥९॥

वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥१०॥

पलायन्तं च कान्तं च शान्तं सत्त्वं सुविग्रहम् ।
विलोक्य कम्पिता गोप्यः सुशीलाद्यास्ततो भिया॥ ११॥

विलोक्य लम्पटं तत्र गोपीनां लक्षकोटयः ।
पुटाञ्जलियुता भीता भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥१२॥

रक्ष रक्षेत्युक्तवन्त्यो देवीमिति पुनः पुनः।
ययुर्भयेन शरणं यस्याश्चरणपङ्‌कजे ॥१३॥

त्रिलक्षकोटयो गोपाः सुदामादय एव च ।
ययुर्भयेन शरणं तत्पादाब्जे च नारद ॥१४॥

पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा ॥१५॥

अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥१६॥

इत्येवमुक्त्वा तत्रैव देवदेवेश्वरी रुषा ।
रासेश्वरी रासमध्ये रासेशमाजुहाव ह ॥१७॥

नालोक्य पुरतः कृष्णं राधा विरहकातरा ।
युगकोटिसमं मेने क्षणभेदेन सुव्रता ॥१८॥

हे कृष्ण प्राणनाथेशागच्छ प्राणाधिकप्रिय ।
प्राणाधिष्ठातृदेवेश प्राणा यान्ति त्वया विना ॥१९॥

स्त्रीगर्वः पतिसौभाग्याद्वर्धते च दिने दिने।
सुखं च विपुलं यस्मात्तं सेवेद्धर्मतः सदा ॥२०॥

पतिर्बन्धुः कुलस्त्रीणामधिदेवः सदागतिः ।
परसम्पत्स्वरूपश्च मूर्तिमान् भोगदः सदा ॥२१॥

धर्मदः सुखदः शश्वत्प्रीतिदः शान्तिदः सदा ।
सम्मानैर्दीप्यमानश्च मानदो मानखण्डनः ॥२२॥

सारात्सारतरः स्वामी बन्धूनां बन्धुवर्धनः ।
न च भर्तुः समो बन्धुर्बन्धोर्बन्धुषु दृश्यते ॥ २३ ॥

भरणादेव भर्ता च पालनात्पतिरुच्यते ।
शरीरेशाच्च स स्वामी कामदः कान्त उच्यते ॥२४॥

बन्धुश्च सुखवृद्ध्या च प्रीतिदानात्प्रियः स्मृतः ।
ऐश्वर्यदानादीशश्च प्राणेशात्प्राणनायकः ॥ २५ ॥

रतिदानाच्च रमणः प्रियो नास्ति प्रियात्परः ।
पुत्रस्तु स्वामिनः शुक्राज्जायते तेन स प्रियः ॥२६॥

शतपुत्रात्परः स्वामी कुलजानां प्रियः सदा ।
असत्कुलप्रसूता या कान्तं विज्ञातुमक्षमा ॥ २७ ॥

स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दक्षिणा ।
प्रादक्षिण्यं पृथिव्याश्च सर्वाणि च तपांसि च ॥२८॥

सर्वाण्येव व्रतादीनि महादानानि यानि च ।
उपोषणानि पुण्यानि यानि यानि श्रुतानि च ॥२९॥

गुरुसेवा विप्रसेवा देवसेवादिकं च यत् ।
स्वामिनः पादसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ ३०॥

गुरुविप्रेन्द्रदेवेषु सर्वेभ्यश्च पतिर्गुरुः ।
विद्यादाता यथा पुंसां कुलजानां तथा प्रियः ॥३१॥

गोपीनां लक्षकोटीनां गोपानां च तथैव च ।
ब्रह्माण्डानामसंख्यानां तत्रस्थानां तथैव च ॥३२॥

विश्वादिगोलकान्तानामीश्वरी यत्प्रसादतः ।
अहं न जाने तं कान्तं स्त्रीस्वभावो दुरत्ययः ॥३३॥

इत्युक्त्वा राधिका कृष्णं तत्र दध्यौ स्वभक्तितः ।
रुरोद प्रेम्णा सा राधा नाथ नाथेति चाब्रवीत् ॥३४॥

दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ॥३५॥

सुचिरं च तपस्तप्त्वा विवेश कमलातनौ ।
अथ देवादयः सर्वे यज्ञं कृत्वा सुदुष्करम् ॥३६॥

नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम् ॥३७॥

दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः ।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः ॥३८॥

विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम् ॥३९॥

यज्ञः सम्पूज्य विधिवत्तां तुष्टाव तदा मुदा ।
तप्तकाञ्चनवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् ॥ ४० ॥

अतीव कमनीयां च सुन्दरीं सुमनोहराम् ।
कमलास्यां कोमलाङ्‌गीं कमलायतलोचनाम् ॥४१॥

कमलासनपूज्यां च कमलाङ्‌गसमुद्‍भवाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां बिम्बोष्ठीं सुदतीं सतीम्॥४२॥

बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ४३ ॥

सुवेषाढ्यां च सुस्नातां मुनिमानसमोहिनीम् ।
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्धं सुगन्धिचन्दनेन्दुभिः ॥४४॥

सिन्दूरबिन्दुनाल्पेनाप्यलकाधःस्थलोज्ज्वलाम् ।
सुप्रशस्तनितम्बाढ्यां बृहच्छ्रोणिपयोधराम् ॥४५॥

कामदेवाधाररूपां कामबाणप्रपीडिताम् ।
तां दृष्ट्वा रमणीयां च यज्ञो मूर्च्छामवाप ह ॥४६॥

पत्‍नीं तामेव जग्राह विधिबोधितपूर्वकम् ।
दिव्यं वर्षशतं चैव तां गृहीत्वा तु निर्जने ॥४७॥

यज्ञो रेमे मुदा युक्तो रामेशो रमया सह ।
गर्भं दधार सा देवी दिव्यं द्वादशवर्षकम् ॥४८॥

ततः सुषाव पुत्रं च फलं वै सर्वकर्मणाम् ।
परिपूर्णे कर्मणि च तत्पुत्रः फलदायकः ॥४९॥

यज्ञो दक्षिणया सार्धं पुत्रेण च फलेन च ।
कर्मिणां फलदाता चेत्येवं वेदविदो विदुः ॥५०॥

तत्सर्वं कण्वशाखोक्तं प्रवक्ष्यामि निशामय ।
पुरा सम्प्राप्य तां यज्ञः कर्मदक्षां च दक्षिणाम् ॥ ७०

मुमोहास्याः स्वरूपेण तुष्टाव कामकातरः ।
                   "यज्ञ उवाच"
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥७१॥

राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२ ॥

आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा ।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने ॥ ७३ ॥

लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥

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कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ॥ ७५ ॥

त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते ॥७६॥

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७ ॥

कर्मरूपी स्वयं ब्रह्मा फलरूपी महेश्वरः ।
यज्ञरूपी विष्णुरहं त्वमेषां साररूपिणी ॥ ७८ ॥

फलदातृपरं ब्रह्म निर्गुणा प्रकृतिः परा ।
स्वयं कृष्णश्च भगवान् स च शक्तस्त्वया सह ॥७९।

त्वमेव शक्तिः कान्ते मे शश्वज्जन्मनि जन्मनि ।
सर्वकर्मणि शक्तोऽहं त्वया सह वरानने ॥ ८० ॥

इत्युक्त्वा च पुरस्तस्थौ यज्ञाधिष्ठातृदेवता ।
तुष्टा बभूव सा देवी भेजे तं कमलाकला॥८१॥

इदं च दक्षिणास्तोत्रं यज्ञकाले च यः पठेत् ।
फलं च सर्वयज्ञानां प्राप्नोति नात्र संशयः ॥ ८२ ॥

राजसूये वाजपेये गोमेधे नरमेधके ।
अश्वमेधे लाङ्‌गले च विष्णुयज्ञे यशस्करे॥ ८३ ॥

धनदे भूमिदे पूर्ते फलदे गजमेधके ।
लोहयज्ञे स्वर्णयज्ञे रत्‍नयज्ञेऽथ ताम्रके॥ ८४ ॥

शिवयज्ञे रुद्रयज्ञे शक्रयज्ञे च बन्धुके ।
वृष्टौ वरुणयागे च कण्डके वैरिमर्दने ॥ ८५ ॥

शुचियज्ञे धर्मयज्ञेऽध्वरे च पापमोचने ।
ब्रह्माणीकर्मयागे च योनियागे च भद्रके ॥ ८६ ॥

एतेषां च समारम्भे इदं स्तोत्रं च यः पठेत् ।
निर्विघ्नेन च तत्कर्म सर्वं भवति निश्चितम् ॥ ८७ ॥

इदं स्तोत्रं च कथितं ध्यानं पूजाविधिं शृणु ।
शालग्रामे घटे वापि दक्षिणां पूजयेत्सुधीः ॥ ८८ ॥

लक्ष्मीदक्षांससम्भूतां दक्षिणां कमलाकलाम् ।
सर्वकर्मसुदक्षां च फलदां सर्वकर्मणाम् ॥ ८९ ॥

विष्णोः शक्तिस्वरूपां च पूजितां वन्दितां शुभाम् ।
शुद्धिदां शुद्धिरूपां च सुशीलां शुभदां भजे ॥९०॥

ध्यात्वानेनैव वरदां मूलेन पूजयेत्सुधीः ।
दत्त्वा पाद्यादिकं देव्यै वेदोक्तेनैव नारद ॥ ९१ ॥

ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं दक्षिणायै स्वाहेति च विचक्षणः ।
पूजयेद्विधिवद्‌ भक्त्या दक्षिणां सर्वपूजिताम् ॥ ९२॥

इत्येवं कथितं ब्रह्मन् दक्षिणाख्यानमेव च ।
सुखदं प्रीतिदं चैव फलदं सर्वकर्मणाम् ॥ ९३ ॥

इदं च दक्षिणाख्यानं यः शृणोति समाहितः ।
अङ्‌गहीनं च तत्कर्म न भवेद्‍भारते भुवि ॥ ९४ ॥

अपुत्रो लभते पुत्रं निश्चितं च गुणान्वितम् ।
भार्याहीनो लभेद्‍भार्यां सुशीलां सुन्दरीं पराम् ॥९५॥

वरारोहां पुत्रवतीं विनीतां प्रियवादिनीम् ।
पतिव्रतां च शुद्धां च कुलजां च वधूं वराम् ॥९६॥

विद्याहीनो लभेद्विद्यां धनहीनो लभेद्धनम् ।
भूमिहीनो लभेद्‌भूमिं प्रजाहीनो लभेत्प्रजाम् ॥९७॥

सङ्‌कटे बन्धुविच्छेदे विपत्तौ बन्धने तथा ।
मासमेकमिदं श्रुत्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे दक्षिणोपाख्यानवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥


      (भगवती दक्षिणा का उपाख्यान)

"श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया। अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ 1 ॥ 

प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी।  परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।

वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थल से सुशोभित होती हुई वट वृक्षों से घिरी रहती थी।

उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नता से युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी।

भगवान् श्रीकृष्णकी प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी।

तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी। रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरस हेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक में बैठ गयी ॥ 2-7॥

तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया।

उस समय कामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। 

तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ 8-10 ॥

कान्तिमान् शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न | तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं।

 श्रीकृष्ण को अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधासे बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरणकमलमें भयपूर्वक शरणागत हो गर्यो।

 हे नारद ! वहाँके तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमलकी शरण में गये ॥ 11 - 14 ॥

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परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीलाको पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16

ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 34॥

हे मुने ! इसके बाद राधाके द्वारा गोलोकसे भूलोक पर  शापित सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।

दीर्घकाल तक उस दक्षिणा ने तपस्या करके  भगवती लक्ष्मी के शरीर में स्थान प्राप्त कर लिया। अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करने पर भी जब देवताओंको यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजीके पास गये ॥ 35-36 ॥
___________________________________

देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी ने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया। 

अन्त में उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ। 

*********

भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रहसे मर्त्यलक्ष्मीको प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजीको सौंप दिया। ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्योंकी सम्पन्नताके लिये उन देवी दक्षिणाको यज्ञपुरुषको हरि को पुन: समर्पित कर दिया।

तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणाकी विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ।37-39॥

उन भगवती दक्षिणाका वर्ण तपाये हुए सोनेके समान था; उनके विग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमलके समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमल के समान उनके विशाल नेत्र थे कमल के आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमलाके शरीरसे प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वी के ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने केशपाश में मालती के पुष्पोंकी माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियोंके भी मन को मोह लेती थीं कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दन से बिन्दी के रूपमें अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाटपर सुशोभित हो रहा था; 

केशों के नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूर की छोटी-छोटी बिन्दियोंसे अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थल से  वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधारस्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूर्च्छित हो गये। 

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पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया ॥ 40-46 ॥

तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रमेश ने रमारूपिणी भगवती दक्षिणाको निर्जन स्थानमें ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षोंतक आनन्दपूर्वक रमण किया।

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अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः ।
अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥४॥


              श्रीनारायण उवाच
नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः ।
श्रुतं कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन् सुदुर्लभम्॥५॥

जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणों में अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेद प्रतिपादित हो ।2-4।

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! ऐसे अनेक विध आख्यान हैं, जो पुराणों में वर्णित नहीं हैं। कई प्रकार के आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं।

सन्दर्भ:- श्रीमद्देवी भागवत -9/43/4-5

हिब्रू ईश्वर वाची शब्द  यहोवा   यह्व= (ह्वयति ह्वयते जुहाव जुहुवतुः जुहुविथ जुहोथ) आदि संस्कृत क्रिया-पदों से सम्पृक्त है।  "ह्व" धातु से अन्य तद्धित शब्द ( निहवः 'अभिहवः' उपहवः विहवः) आदि उपसर्ग पूर्वक निष्पन्न शब्द हैं । "ह्वः का संप्रसारणं रूप "हु" के रूप में भी लौकिक संस्कृत में प्रचलित है  "

उदाहरण:-

(आहावः ) "निपानमाहावः'' इति प्रसारणे वृद्धौ निपात्यते निपानमुपकूपं जलाशये यत्र गावः पानार्थमाहूयन्ते ( आह्वा ) "आतश्चोपसर्गे'' इति स्त्रियामङ्ग्याल्लोपः ( आहूतिः संहूतिः ) इति बाहुलकात् क्तिन् वेञादयस्त्रयोऽनुदात्ता उभयतो भाषाः ह्वेञ् स्पर्द्धायां, शब्दे च ह्वयति। 

ह्वयते । निह्वयते । हूयते । जुहाव । जुहुवे । जुहुवतुः । जुहुवाते । ह्वाता । अह्वास्त ।अह्वत् ।अह्वत । जोहूयते । जुहूषति । जुहूषते । जुहावयिषति । अजूहवत् । प्रह्वः । हूतः । निहवः । हवः । आहवः । हूतिः । मित्रह्वायः ।। 

"ह्वः धातु से व्युत्पन्न शब्द "यह्व" यहूदियों की प्राचीन भाषा हिब्रू में   वैदिक ऋचाओं के समान मूल रूप में ही विद्यमान है।

यह्व / YHVH / = yod-he-vau-he / יהוה, -- We find, the above word is perhaps used first time in Rigveda Madala (1, /36/1) 

अर्थात्‌ ऋग्वेद के दशम मण्डल में हम यह्वः शब्द  पाते है । संस्कृत यह्वः (पुं.) / यह्वी (स्त्री.) ऋग्वेद 1/36/1 में 👇

प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् ।
अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ॥१॥

 

यह्वं= महान्तम् । 'यह्वः ववक्षिथ ' (नि. ३.३.१३) इति महन्नामसु पाठात् । "अग्निं “सूक्तेभिर्वचोभिः सूक्तरूपैर्वाक्यैः

We find, the above word is perhaps used last time in the Rigveda Madala 10, 110/03.( ऋग्वेद 10/110/03 )

आजुह्वान ईळ्यो वन्द्यश्चा याह्यग्ने वसुभिः सजोषाः।
त्वं देवानामसि यह्व होता स एनान्यक्षीषितो यजीयान् ॥
आहूयमान ईळितव्यो वन्दितव्यश्च । आयाह्यग्ने वसुभिः सहजोषणः । त्वं देवानामसि यह्व होता । यह्व इति महतो नामधेयम् । यातश्च हूतश्च भवति । स एनान्यक्षीषितो यजीयान् । इषितः प्रेषित इति वा अधीष्ट इति वा । यजीयान्यष्टृतरः । बर्हिः परिबर्हणात् । तस्यैषा भवति ।८/८।


 त्वं देवानामसि यह्व होता ... -- The last mention of यह्व / YHVH /yod-he-vau-he is used as an address to Lord Indra, though Rigveda Mandala 1.164.46 clearly explains all these devata are different names and forms of the same Lord (Ishvara) इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ऋग्वेद (10/110/03 )

 Accordingly the above mantra in veda categorically defines 'Who' is 'यह्वः (पुं.)' / YHVH / yod-he-vau-he / יהוה, I strongly feel this the conclusivevidence that puts to rest all further doubt and discussion, / speculation about 'God' ___________________________________

(त्वं देवानामसि यह्व होता ) अर्थात् तुम देवों में यह्व (YHVH) को बुलाने वाले हो ! ...

in Sanskrit clearly means that 'यह्वः' is either the priest to 'devata,s' or the one who Himself performed vedika sacrifice especially in Agni / Fire for them. There are at least more than 30 places in entire Rigveda, where 'यह्वः' finds a mention. And the first time we find यह्वीः / 'yahwI:' in Rigveda is here - ऋग्वेद (1.59.04) अर्थात् यह्व (YHVH) शब्द अग्नि का भी वाचक है - क्योंकि जलती हुई झाड़ियों से मूसा अलैहि सलाम को धर्म के दश आदेश यहोवा से प्राप्त हुए - **************************************

बृहती इव सूनवे रोदसी गिरो होता मनुष्यो न दक्षः स्वर्वते सत्यशुष्माय पूर्वीवैश्वानराय नृतमाय यह्वीः।(ऋ० 1/ 59/4)

॥ Obviously, this 'यह्वीः' is in accusative plural case of 'यह्वी' feminine. 
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यहोवा वस्तुतः फलस्तीन (इज़राएल)के यहूदीयों का ही सबसे प्रधान व राष्ट्रीय देवता था। 
तथा ( यदु:) यहुदह् शब्द का नामकरण यहोवा के आधार पर हुआ।

यहुदह् शब्द का तादात्म्य वैदिक यदु: से पूर्ण रूपेण प्रस्तावित है । परन्तु कालान्तरण में बहुत सी काल्पनिक कथाओं का समायोजन यदु: अथवा यहुदह् के मूल आख्यानको में कर दिया गया ।

यज्ञ एक अग्नि अनुष्ठान ही है। और यह अग्नि ही साक्षात् देव है। नकि देव दूत- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा मूलत: गोलोक की गोपी सुशीला है जो परमेश्वर श्रीकृष्ण की एक पत्नी ही है।

इजरायल के यहूदी मूलत: यादव ही थे परन्तु कालान्तर में दूरवर्ती होने से भारतीय याद व और यहूदियों की संस्कृति में कुछ भिन्नताएं भी आयीं।

यह्व" यज्ञ" और यदु: जैसे शब्द बहुत ही सम्पूरक हैं। यदु शब्द की व्युत्पत्ति मूलत: हिब्रू भाषा से सम्बन्धित है।


भारतीय कोश कार यज्- धातु से उण् प्रत्यय द्वारा यदु शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं। यदु का अर्थ होता है।- यजन करने वाला / यज्ञ करने वाला।

यदु की पत्नी यज्ञवती साक्षात्  दक्षिणा का रूप है जो गोलोक- में सुशीला नाम की गोपी थी। दक्षिणा यज्ञ पुरुष की पत्नी है।

यज्ञ में दान का विधान केवल दीन और वञ्चितों के लिए है।

यद्यपि दक्षिणा शब्द का दान अर्थ कभी भी किसी काल में पहले नहीं था ।

धातु पाठ में दक्ष्- धातु पाँच अर्थ सुनिश्चित हैं-  दक्ष्= १-गति- २-वृद्धि-३-शासन-४-शीघ्रार्थ-५-हिंसायाम्-

अब उपर्युक्त अर्थों में दान अर्थ तो कहीं नहीं है।

Dexterous comes from the Latin word dexter, that

meaning "on the right side.

"Since most people are right-handed, and therefore do things more easily with their right hand, 

dexter developed the additional sense of "skillful.

" English speakers crafted dexterous from dexter and have been using the resulting adjective for ...

"चूंकि अधिकांश लोग दाएं हाथ के होते हैं, और इसलिए अपने दाहिने हाथ से काम अधिक आसानी से करते हैं,

डेक्सटर ने "कुशल" की अतिरिक्त भावना विकसित की।

"अंग्रेजी बोलने वालों ने डेक्सटर से डेक्सटरस तैयार किया है और इसके लिए परिणामी विशेषण का उपयोग कर रहे हैं..

दक्षिणा का पुल्लिंग रूप दक्ष शब्द भारोपीय-( भारत और यूरोप की अनेक भाषाओं मे विद्यमान है । परन्तु दान अर्थ इस शब्द का कहीं नहीं है।

*deks is a

Proto-Indo-European root word  that's  meaning "right, (opposite left,)" hence "south" (from the viewpoint of one facing east).

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:

Sanskrit daksinah "on the right hand,

southern, skillful;" 

Avestan dashina- "on the right hand;"

Greek dexios "on the right hand," 

also "fortunate, clever;" 

Latin dexter "skillful," also "right (hand);"

 Old Irish dess "on the right hand,

 southern;" 

Welsh deheu; 

Gaulish Dexsiva, name of a goddess of fortune; 

Gothic taihswa;

Lithuanian dešinas; 

Old Church Slavonic -desnu,

Russian desnoj. 

*डेक्स एक है

प्रोटो-इंडो-यूरोपीय मूल शब्द जिसका अर्थ है "दाएं, (बाएं के विपरीत)" इसलिए "दक्षिण" (पूर्व की ओर मुख करने वाले के दृष्टिकोण से)।

इसके अस्तित्व का काल्पनिक स्रोत/सबूत निम्न द्वारा प्रदान किया जाता है:

 संस्कृत दक्षिणः "दाहिने हाथ पर,

 दक्षिणी, कुशल;"

अवेस्तन दाशिना- "दाहिने हाथ पर;"

 ग्रीक डेक्सियोस "दाहिने हाथ पर,"

इसके अलावा "भाग्यशाली, चतुर;"

लैटिन डेक्सटर "कुशल," भी "दायाँ (हाथ);"

पुरानी आयरिश डेस "दाहिने हाथ पर,

दक्षिणी;"

वेल्श देहु;

गॉलिश डेक्ससिवा, भाग्य की देवी का नाम;

गॉथिक तैह्स्वा;

लिथुआनियाई डेसिनास;

पुराना चर्च स्लावोनिक -डेस्नु,

 रूसी देसनोज.

परमेश्वर श्रीकृष्ण कभी भी नैवेद्य की इच्छा नहीं करते हैं । कृष्ण के लिए भक्तगण जो नैवेद्य अर्पित करते हैं वह विराट पुरुष, विष्णु आदि को पन्द्रह सोलहवें अंश में प्राप्त होता है। कृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। 

भगवान श्रीकृष्ण केवल भक्ति और सात्विक भावों की भक्तों से अपेक्षा करते हैं। उनका संकीर्तन और भजन ही श्रेष्ठ है।

दान यज्ञ को अवसर पर अवश्य करें परन्तु दीन और वञ्चित लोगों के लिए न कि किसी पुरोहित को ही दान करें ।

दान की भावना दाता की इच्छा के अनुरूप होती है। और वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही दान करता है।

परन्तु पुरोहित की दिया गया धन उस पुरोहित का शुल्क /फीस ही है। दान कदापि नहीं है।

पुरोहितों द्वारा माँगा गया धन जो  पुरोहित द्वारा किये गये  यजमान के कर्मकाण्ड की एवज है - पूर्ण रूप से भिक्षा ( भीख) है। जो पुरोहित की इच्छा के अनुसार होती है।

 यादवों के पूर्वज यदु यज्ञ तत्व के पूर्ण ज्ञाता थे। इसी लिए लोक में उन्हें यदु भी कहा गया।

यदु वैष्णव यज्ञों के प्रवर्तक थे। इसके विपरीत जो देवयज्ञ होते थे वे पशु हिंसा से सने हुए और भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र आदि देवों के निमित्त किये जाते थे।

लोक में यज्ञ मूलक यज्- धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं- यज्= दानकरना- देवपूजाकरना- संगति करण करना।

दान का विधान यज्ञ के पश्चात दीन और वञ्चितों के लिए था। यज्ञ के नाम पर देवों की भी पूजा प्रचलित थी  ।

और वैष्णव भक्त सत्संग- कीर्तन और आध्यात्मिक चर्चाओं द्वारा संगति करण करते थे।




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