शनिवार, 23 मार्च 2024

{आध्यात्मिक-खण्ड}- " सम्पूर्ण खण्ड" संशोधित-पाठ -

                 

      "अध्याय - प्रथम"-

     "कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र- ऋषिकुमार नचिकेता और यम देव के बीच प्रश्नोत्तरों के रूप में आत्मा की स्थित का कथामयी वर्णन है।

बालक नचिकेता की आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे लौकिक उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करते हैं ।

सम्बन्धित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचनसारगर्भित हैं।

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय-१,वल्ली ३,श्लोक- ३)

अनुवाद:-इस जीवात्मा को तुम रथी, (रथ में सबार ) समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी- (रथ हांकने वाला) और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए होता है। अगले श्लोक में उल्लेख है।)

"इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय १,वल्ली ३,श्लोक ४)

अनुवाद:-मनीषियों, (मननशील पुरुषों), ने इन्द्रियों को इस शरीर रूपी-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इन्द्रिय-विषय ही विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।

प्राचीन भारतीय विचारकों का चिन्तन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रवृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा।

परन्तु उसकी परिवर्तनशील व नश्वरता ने उनका मोह अवश्य खण्डित किया होगा। तत्पश्चात उनका प्रयास रहा  होगा कि वे उसके मिथ्या आकर्षण पर विजय पायें ।

उनकी आध्यात्मिक साधना इसी प्रयास या रूपान्तरण है।

"रथ में सबार यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है। अब यह. प्रेरणा शारीरिक क्रिया तो है नहीं आत्मा रथी के रूप में  रथ के चालक को मात्र  प्रेरणा ही देता है।

वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है।

और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि को रथ हाँकने वाला सारथि जान लें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या कहें लगाम है।

अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। और  बुद्धि मन को नियन्त्रण करता है । और मन इन्द्रियों को-

विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं । और विषय ही मार्ग में आया हुआ उनका  भोजन ( ग्रास) आदि है।

वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है । 
जब उसमे अहं का भाव हो जाय तब यह भोक्ता भाव से युक्त होता है।
स्वत्व आत्मबोध या रूपान्तरण है। परन्तु अहंकार इसके विपरीत आत्मा के अबोध कि रूपान्तरण है। 
अहंकार की भूमि पर संकल्प का बीज इच्छाओं की वल्लरी (वेल) बनता है। जिसपर कर्म रूपी फल लगा हुआ है।
बिना इच्छाओं के कर्म उबले हुए  बीज की तरह अंकुरित ही नहीं हो सकता है।
संसार रूपी बारी में इच्छाओं सी वही वेल चलती फूलती हैं।

इन सबके मूल में  माया रूपी अज्ञानता से जनित प्रतीति है। द्वन्द्व संसार की आत्मा है।
संसार शब्द की व्युत्पत्ति "संसरत्यस्मादिति- संसार ।  सं + सृ गतौ +घञ् ।  जो सम्यक् रूप से सरति(गच्छति) गमन करता है।
 
"आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम्।१४।
भागवतपुराण-१/१/१४

आपन्नः – उलझा हुआ; संसृतिम् - जन्म और मृत्यु रूपी चक्र  में ; घोरम् - बहुत जटिल; यत् - जो; नाम -  नाम; विवशः - असमर्थ;  गृणान् - स्तुतियों को ततः -उससे; सद्यः - तुरन्त; विमुच्येत - मुक्ति मिले ; यत् - जो; बिभेति - डरता है ; स्वयंम् – व्यक्तिगत रूप से; भयम् - भय ही। 

अनुवाद:-

जो जीवित प्राणी जन्म और मृत्यु के जटिल चक्र में फंसे हुए हैं, वे अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का जाप करके तुरंत मुक्त हो सकते हैं, जिससे भय भी  भयभीत होता है।  

संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये अध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है।

क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं। दु:ख सुख आत्मा का विषय है ही नहीं।

व्यक्ति के मूर्च्छित होने पर दु:ख सुख की प्रतीति( अनुभव) नहीं होता है।
जीव जन्म- मरण के चक्र में वही अनादि काल से घूम रहा है।

दु:ख सुख मन के स्तर पर ही विद्यमान हैं ये  परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है। यही आत्मा की एक अवस्था व सहज अनुभूति है।
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सत् - चित् और आनन्द = सच्चिदानन्द ईश्वरीय अस्तित्व का बोधक है।
और यह मूल आत्मा परमात्मा का ही एक इकाई अथवा अंश रूप है।

आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)- तथा आनन्द ) से युक्त है  इसी लिए मनीषियों ने परमात्मा को  सच्चिदानन्द कहा है। 

अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे अवश्य मिलता है । यही क्रम संसार का अनादि काल से चलता-रहता है।

और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है । 
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में  निरन्तर पीसता रहता  है । _________________________________________________

श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना ही पड़ेगा । क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।
भगवान कृष्ण ने अपनी विभूतियों के सन्दर्भ में कहा भी है-
👇
अनुवाद :- मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।। 

अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं । ये तो सभी भाषाविद् जानते ही हैं कि "भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ" स्वर सबका आधार है। 

"अ" स्वर का ही उदात्त (ऊर्ध्वगामी) रूप "उ" तथा अनुदात्त (अधोगामी) "इ" रूप है।

और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए। 
"अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ । इन दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-(एकरूपता) श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान विद्यमान है ।

"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण के रूप मे गुम्फित है। और "अ" आत्मा के रूप में ।

"अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। 
हिब्रू तथा फोंनेशियन आदि सैमेटिक भाषाओं में "अकार का रूपान्तरण "अलेफ" वर्ण है ।
 श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण वचन  " अक्षराणामकारोऽस्मि के पश्चात कहा -

द्वन्द्वः सामासिकस्य च -मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । 
स्त्री-पुरुष द्वन्द्व हैं । शीत- और उष्ण(गर्मी) द्वन्द्व हैं।
संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।

समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? 

जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का दौनों में किसी एक का ही होता है। 
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है ।

अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा(शरीर) दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता ? -जैसे माया और ईश्वर ।
परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जैसे कलहंस के लिए नीर और क्षीर-
ये विवेक ( सत्य असत्य को अलग करने का ज्ञान) बुद्धि पर ईश्वरीय प्रकाश है। विवेक निर्णीत ज्ञान है।
वेद लौकिक ज्ञान के उद्भासक हैं।
वेद अध्यात्म की उस गहराई का कभी प्रतिपादन नहीं करते है। जिसका विवेचन भगवान कृष्ण स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में करते हैं।

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श्रीमद्भगवद्गीता -,अध्याय २- का (45-46) 
हे अर्जुुन सारे वेद सत्, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं।  अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों से परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर  मनुष्य का छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता है ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ! 

अनुवाद :-
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) में स्पष्ट वर्णन है। जब वेदों के सुनने से तेरी बुद्धि विचलित हो गयी है। परन्तु  जब ये समाधि
में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदों का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ;
क्योंकि वेद आध्यात्मिक पथ को प्रशस्त नहीं करते अपितु व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं की प्राप्ति के उपायों का वर्णन या प्रतिपादन ही करते हैं।
और कृष्ण का दर्शन कामनाओं के समूल त्याग की दीक्षा ( उपदेश) देता है।

"जब व्यक्ति में सत्य का निर्णय करने व उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है। तब ही वह भौतिक जगत की ओर आकर्षित होकर भागता है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण वैष्णव पुराण  में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताता है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ ही है- ब्रह्म का विवर्त ( परिवर्तन- नृत्य) अथवा विलास- क्रीड़ा या खेल है।

उत्तरमीमांसा (वेदान्त दर्शन)का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धान्त यह है कि जड़ जगत का उपादान( सामग्री) और निमित्त कारण चेतन ब्रह्म ही है।

"ठीक उसी प्रकार जैसे मकड़ी अपने भीतर से उत्पन्न लार से ही जाल बुनकर तानती है, वैसे ही  परम-ब्रह्म भी इस जगत्‌ को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है।

जीव और ब्रह्म का तादात्म्य( एकरूपता) है और इसी लिए अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत्‌ के कर्म-जाल से और बारम्बार के जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है।  तब मुक्तावस्था में परम आनन्द का अनुभव करता है।

संसार की सृष्टि का मूल  स्वत्व है और उसका अहंकार से उत्पन्न रूप संकल्प है। यही संकल्प प्रवाहित होकर इच्छा का रूप धारण करता है।

ये इच्छाओं की आपूर्ति का मूर्त  प्रयास ही कर्म है। ये सम्पूर्ण संसार कर्म से निर्मित हुआ है। यदि व्यक्ति कर्म से हीन हो जाए यदि उसकी इच्छाओं का शमन हो जाए तो संसार उसके लिए निस्सार हो जाता है।

"स्वप्न की सृष्टि( उत्पत्ति) भी प्राय: मन की इच्छाओं के  दमित( दबे हुए)  परिणाम का रूपान्तरण है।  इस लिए स्वप्न के विश्लेषण से सृष्टि उत्पत्ति के  रहस्य को सुलझाया जा सकता है।

परन्तु स्वप्न विश्लेषण व्यक्तिगत अनुभव है। लौकिक उपमा मकड़ी की हा सुबोध्य है।

जिसका प्रस्तुतिकरण हम पुन: करते हैं।

"भूतयोन्यक्षरमित्युक्तम्। तत्कथं भूतयोनित्वमित्युच्यते प्रसिद्धदृष्टान्तैः -
(1.1.7)
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा सतः पुरुषात्केशलोमानितथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम्।।1.1.7।
1.1.7।
यथा लोके प्रसिद्धम् - ऊर्णनाभिर्लूताकीटः किञ्चित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिप्रसारयति पुनस्तानेव गृह्यते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति। यथा च पृथिव्यामोषधयो व्रीह्यादिस्थावरान्ता इत्यर्थः। स्वात्माव्यतिरिक्ता एव प्रभवन्ति। यथा च सतो विद्यमानाञ्जीवतः पुरुषात्केशलोमानि केशाश्च लोमानि च सम्भवन्ति विलक्षणानि।
यथैते दृष्टानातास्तथा विलक्षणं सलक्षणं च निमित्तान्तन्तरानपेक्षाद्यथोक्तलक्षणादक्षरात्सम्भवति समुत्पद्यत इह संसारमण्डले विश्वं समस्तं जगत्। अनेकदृष्टान्तोपादानं तु सुखार्थप्रबोधनार्थम्।1.1.7।

____________

ऊर्णनाभः, पुल्लिंग- (ऊर्णेव तन्तुर्नाभौ यस्य-ऊन के समान तन्तु जिसकी नाभि में हैं वह ऊर्णनाभ है।

अनुवाद:- अक्षर ब्रह्म( नाद- ब्रह्म) का विश्व कारणत्व

पूर्व में इस प्रकार कहा जा चुका है। कि अक्षर ब्रह्म भूतों (प्राणियों) की योनि (जन्मस्थान) है। उसका वह भूत योनित्व किस प्रकार है। वह प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा बतलाया जाता है।

जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और फिर निगल जाती है। जैसे पृथ्वी में औषधीयाँ  उत्पन्न होती हैं। जैसे सजीव पुरुषों से जड़ केश तथा लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर ब्रह्म से  यह विश्व उत्पन्न होता है।

जिस प्रकार संसार में प्रसिद्ध है। कि ऊर्णनाभि (मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर से अभिन्न तन्तुओं (धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है। और फिर आवश्यकता समाप्त होने पर उसे ग्रहीत( घरी) भी कर लेती है। यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है । जैसे पृथ्वी में व्रीहि (धान) यव ( जौ)इत्यादि अन्न से लेकर  वृक्ष पर्यन्त ( तक ) सम्पूर्ण औषधीयाँ उससे अभिन्न ही उत्पन्न होती हैं। सत् (चेतनसत्ता)  युक्त पुरुष से भिन्न विलक्षण केश तथा रोम ( लोम) उत्पन्न होते हैं।

जैसा कि यह दृष्टान्त है उसी प्रकार इस संसार मण्डल में इससे विभिन्न और समान लक्षणों वाला यह विश्व-( समस्त जगत्) किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा न करने वाले उस उपर्युक्त लक्षण विशिष्ट अक्षर से ही उत्पन्न होता है।

ये अनेक दृष्टान्त केवल विषय को सरलता से समझने के लिए ही दिए गये हैं।७।

द्वितीयः खण्डः
समाप्तमिदं तृतीयकं मुण्डकम्

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मुण्डकोपनिषद् की कथा का विवरण इस लेख में प्रस्तुत किया गया है । प्रश्नोपनिषद् के समान, मुण्डकोपनिषद् में भी कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह भी, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है । 

मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है इसमें परम-ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् से संग्रहीत  है ।

इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात दार्शनिकता से पूर्ण हैं । 

इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं यह उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं ।

अति-स्पष्ट होने से, परातपर ब्रह्म के ज्ञान हेतु यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।

उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है ।

"इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ कभी नहीं समझना चाहिए – क्योंकि नपुंसकलिंग ’ब्रह्म’ शब्द परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग शब्द  ’ब्रह्मा’ देव-/मनुष्य-वाची होता है  ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी । अथर्वा ने अंगिरा ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया ।

 "ब्रह्मन्- बृंहति बर्द्धते निरतिशयमहत्त्व-  लक्षणबृद्धिमान् भवतीत्यर्थः ।  बृहिबृद्धौ + बृंहे- र्नोऽच्च । “  उणादि सूत्र- ४ । १४५ ।  + मनिन् नकार- स्याकारः ।  रत्वञ्च । )  जो परमेश्वर निरन्तर वृद्धि कर रहा है। जिसका कहीं और कभी अन्त ही नहीं हो रहा है।   

_________________________________'

मुण्डकोपनिषद, 1.1.7

"यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति।
यथा सः पुरुषात् केशलोमनि तथाऽक्षरात् संभवतिः विश्वमृ ॥
"

यथा -  - जैसे । ऊर्णाभिः -  - ऊन से  । सृजते -  - रचना करता है । गृह्णते च - - और संग्रह करता है( समेटता है) । यथा पृथिवीम् --जैसा कि पृथ्वी को  ओषधयः - जड़ी-बूटियाँ ।सम्भवन्ति - उत्पन्न होती हैं।  यथा सतः पुरूषात् -  - जैसे कि एक सत पुरुष से से ।केशलोमानि - सिर और शरीर के बाल  हैं -  तथा इह - वैसे ही यह  अक्षरात् - अक्षर से अपरिवर्तनीय | विश्वम् सम्भवति -  - संसार का जन्म होता है |

श्लोक 1.1.7

जैसे मकड़ी अपने लार से उत्पन्न  जाल को बनाती  और अपने में पुन: निगल लेती  है, जैसे औषधीय पौधे पृथ्वी से उगते हैं, जैसे जीवित व्यक्ति से  निर्जीव आभासी बाल उगते हैं, वैसे ही यह ब्रह्माणड परात्पर ब्रह्म  से विकसित और अन्त में उसमें ही विलय  हो जाता है।



"यह सृष्टि ब्रह्म का वैवर्त है (ब्रह्म -वैवर्त- पुराण -पुरुष और प्रकृति के परिणामों की कथानक मूलक प्रस्तुति करने वाला प्रथम और प्राचीन पुराण है। इसमें कोई सन्देह नहीं है।

अन्य अठारह पुराणों में इसकी गणना उसी रूप में नहीं की जा सकती है जैसे पद्मपुराण, मत्स्य पुराण, अथवा भागवत पुराण की की जाती है ।

पद्मपुराण कि सृष्टि खण्ड अन्य सभी पुराणों में प्राचीनतर है जिसकी तर्ज पर स्कन्द पुराण का लेखन भी किया गया -

वेदान्त के मनीषीयों जैसे रामानुजाचार्य आदि का  मत है कि सृष्टि का आधार सत्कार्यवाद का सिद्धान्त है।

इसकी मान्यता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है। जैसे एक छोटे से पीपल के बीज में सम्पूर्ण विशाल पीपल के वृक्ष की पूर्ण सम्भावनाऐं समाविष्ट (समाई)  हुई होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों के आने पर समय पर सम्पूर्ण पीपल काम विकास हो जाता है। 

यह कारण और कार्य की एकता का अकाट्य सिद्धान्त है। यह सत्कार्यवाद के परिणामवादी रूप को मानता है। 

इसका सिद्धान्त ब्रह्म-परिणामवाद कहलाता है जिसके अनुसार यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म का, उसके विशेषणांश का परिणाम है।

इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि रामानुज तत्त्वत्रय ईश्वर, चित्त( जीव) और अचित्त( प्रकृति) में विश्वास तो करते हैं। परन्तु अन्त में सबको एक ब्रह्म में तिरोहित ( समाविष्ट) कर देते हैं।

इनमें ईश्वर विशेष्य है तथा चित् एवं अचित् उसके विशेषण हैं।
ईश्वर अंशी है और चिदचित् उसके अंश हैं।
अंश कभी अंशी से पृथक ( अलग) नहीं हो सकता है।
ब्रह्म के विशेषणांश (चिदचित्) का ही यथार्थ रूपान्तरण यह चराचर जगत् है ।

अचित् ज्ञानशून्य (जड़) एवं परिणामी द्रव्य है। और चित् (आत्मा) अपरिवर्तित रूप है।

यह अचित्- तीन प्रकार का है।

      ●  शुद्ध सत्य या नित्य-विभूति

      ●   मिश्र सत्त्व या प्रकृति एवं

      ●    सत्त्वशून्य या काल शुद्ध

"सत्त्वं रजस्तमस्रहित एवं उदात्तीभूत प्रकृति है। यह वह उपादान है जिससे आदर्श जगत् (वैकुण्ठ लोक) की वस्तुएं, ईश्वर तथा मुक्त जीवों के शरीर बनते हैं। सत्त्वशून्य जड़द्रव्य 'काल' है। यह भी परिणामी है। 

वाराहमिहिर कृत ‘सूर्य सिद्धान्त’ में तारों, सूर्य, चन्द्रमा और अन्य ग्रहों की गति और गणितीय व्युत्पत्तियों के आधार पर समय के मापन की नौ पद्धतियों का विवेचन किया गया है।
तद्नुसार काल की नौ इकाईयाँ हैं।

१-ब्राह्म’, २‘दिव्य’, ३‘त्रिज्या ४-प्राजापत्य’, ५‘गौरव’, ६‘सौर’, ७‘सावन’, ‘८ चान्द्र’ और -‘आर्क्ष’।
प्रथम छ: इकाइयों ‘ब्राह्म से सौर पर्यन्त’ का प्रयोग ब्रह्माण्ड के आविर्भाव से व्यतीत होने वाले  समय को परिभाषित करने में किया गया है।

चान्द्रमान का उपयोग दैनिन्दिनदर्शिका (पंचांग) के निर्माण में होता है, जिससे विभिन्न संस्कारों तथा त्योहारों का निर्धारण किया जाता है।

सावन दिन (Solar day) और नाक्षत्र दिन (Sidereal day) का उपयोग ग्रहों की गति की गणना में किया जाता है।

सावन दिन:-पूरे एक दिन और एक रात का समय होता। 

एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के समय को सावन दिन कहा जाता है अर्थात् 60 दंड का  समय । 

विशेष— इस प्रकार के ३० दिनों का एक सावन मास होता है और ऐसे बारह सावन मासों अर्थात् ३६० दिनों का एक सावन वर्ष होता है, मलमासतत्व के अनुसार — 'सौर संवत्सरे दिवस षट्काधिक ? सावनो भवति'।

अर्थात् सौर और सावन वर्ष में लगभग ६ दिनों का अंतर होता है। 

"सवनं यागाङ्गं स्नानं सोमनिष्पीडनं वा तस्येदमण् सावनं - “अहोरात्रेण चैकेन सावनो दिवसः स्मृतः” ब्रह्मसिद्धान्तोक्ते (१) -अहोरात्रात्मके दिवसे, सवनत्रयस्य अहोरात्र- साध्यत्वादह्नस्तत्सम्बन्धित्वम्

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आधुनिक भौतिक विज्ञान के इस युग में भी हमने समय की इन दो इकाइयों को महत्त्व दिया है।

सावन दिन’ अपनी उपयोगिता के कारण दोनों पद्धतियों (वैशेषिक एवं भौतिकी) में समय  के मापन का ठोस एवं उत्तम आधार तैयार करता है।

प्राचीन भारतीय पद्धति में काल  की इकाई का विभाजन और उपविभाजन अधोलिखित प्रकार से होता है-

60 विपल=1 पल
 60 पल=1 घंटि (नाडी/दण्ड)
 21/2 घंटि=1 होरा (hour)
 24 होरा = 1 सावन दिन
आधुनिक समय में हम काल (समय) का विभाजन तथा उपविभाजन निम्न प्रकार से करते हैं-
६० सैकेण्ड=१ मिनट
६० मिनट=१ घण्टा
२४ घण्टा=१ दिन (सूर्य- दिवस)


भारतीय ज्योतिष में ग्रह, के अर्थ में, जो भी पिण्ड अंतरिक्ष में नक्षत्रों के सापेक्ष हमें गति करते दिखते हैं वे ग्रह कहलाते हैं। ग्रह का शाब्दिक अर्थ प्लैनेट  के रूप में व्यवहार ज्योतिष की दृष्टि से असंगत है।
काल (समय) की इकाई  होरा (जो घण्टा के समतुल्य है) साप्ताहिक दिनों के नामों की व्यवस्था प्रदान करता है। 

काल के विपरीत दिशा- आकाश से अभिन्न है और प्रकृतिजन्य है।

मिश्रसत्त्व में सत्त्व, रजस् एवं तमस्, तीनों गुण रहते हैं। इसे प्रकृति या माया कहते हैं।

रामानुज प्रकृति को ही सृष्टि का मूलभूत कारण कहते हैं।

उल्लेखनीय है कि रामानुज की प्रकृति सांख्य दर्शन की प्रकृति से पूरी तरह  भिन्न भी नहीं है। 

जैसे, सत्व, रजस् एवं तमस् सांख्य की प्रकृति के निर्माणक घटक हैं एवं द्रव्य रूप हैं, जबकि ये रामानुज की प्रकृति के गुण या विशेषण हैं जिससे संसार निर्माण होता है।।

ये उससे अवियोजनीय होते हुए भी मित्र हैं। पुनः, सांख्य की प्रकृति स्वतन्त्र  है जब द्वन्द्व के सापेक्ष हो तब, जबकि रामानुज की प्रकृति ब्रह्म पर आश्रित है। 

रामानुज के दर्शन में बन्धन और मोक्ष -रामानुज के अनुसार ब्रह्म ही संसार का ( उपादान - (कार्य सामग्री) और निमित्त कारण दोनों है। 

ईश्वर के अंशभूत तत्त्व, जीव और प्रकृति, जगत् के उपादान कारण हैं। ईश्वर के संकल्प से सृष्टि का प्रारम्भ होता है। अतः ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण भी है। 

जब ईश्वर अपने संकल्प से जीवों को उनके अतीत कर्मों का फल दिलाने के लिए चित् और प्रकृति का प्रवर्तन करता है तब सृष्टि उत्पन्न होती है। इसी को रामानुज ब्रह्म की लीला कहते हैं।

इस प्रकार रामानुज का ब्रह्मपरिणामवाद लीलावाद है। 

" यह सृष्टि ब्रह्म की लीला है जिसे प्रकार मकड़ी के अन्दर से जाला निकलता है और आवश्यकता समाप्त होने पर वह मकड़ी उस जाले को स्वयं ही निगल लेती है। उसी प्रकार ब्रह्म के अन्दर से सृष्टि निकली है और अन्त में उसी में विलीन हो जाती है।  

ब्रह्म के रूप

ब्रह्म के दो रूप हैं

    ●  कारणावस्था और 

    ●  कार्यावस्था

"ब्रह्म की कार्यावस्था ही सृष्टि है जो कारणरूप ब्रह्म में बीज रूप में सदैव निहित होती है।

यह सृष्टि ब्रह्म का ही यथार्थ रूपांतरण( वैवर्त) है। ईश्वर प्रलयकाल में कारण रूप में रहता है। यह ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में उसमें निहित होता है। सृष्टि की स्थिति में अव्यक्त रूप ब्रह्माण्ड व्यक्त होता है। 

इस अवधि में सूक्ष्म भूत स्थूल हो जाते हैं और जीव का धर्मभूत ज्ञान विस्तृत होकर अतीत कर्मों के अनुसार उसे भौतिक शरीरों से संयुक्त कर देता है।



"इस प्रकार एकमात्र ईश्वर ही सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है।

 उपादान:-वह कारण जो स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जाय । वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार हो उपादान है ।

 जैसे, घड़े का उपादान कराण मिट्टी है । वैशेषिक में इसी को "समवायिकरण" कहते हैं । सांख्य के मत से उपादान और कार्य एक ही है ।

अर्थात् सृष्टि किसी बाह्य साधन की सहायता के बिना ही उससे स्वतः विकसित होती है। रामानुज के अनुसार यह परिणाम केवल ईश्वर के विशेषणांश में होता है, ईश्वर स्वतः इससे अप्रभावित रहता है। इस प्रकार ब्रह्म इस परिवर्तनशील जगत् का अपरिवर्तनशील केन्द्र है। जैसे किसी चक्र की परिधि और धुरी या सम्बन्ध होता है।

जगत् भी सत् है- 

"मुण्डकोपनिषद्  की मान्यता है कि सत् कारण से उत्पन्न होने के कारण जगत् भी सत् है , संविशेष ब्रह्म की  विभूति होने के कारण जगत् की सत्ता पारमार्थिक है। रामानुज शंकर के इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं "कि जगत् केवल व्यावहारिक दृष्टि से सत् है और परमार्थतः( सिद्धान्तत:) असत् है ।

रामानुज की दृष्टि में शंकराचार्य का विचार श्रुति विरोधी है। उन्होंने इस बात का प्रतिपादन किया कि सृष्टि वास्तविक है। यह जगत् उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म ।

श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन है -

ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।

अर्थ- जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है, जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।

छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक चतुर्दश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित) (चतुर्दशः खण्डः)

सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत 
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके
पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत
॥ ३. १४. १ ॥
 यह ब्रह्म ही सब कुछ है । यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी परम्- ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा । ऐसा ही जान कर उपासक को शान्तचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे। जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मान्तर में वैसा ही हो जाता है।

रामानुज नानात्व का निषेध करने वाले 'नेह नानास्ति किञ्चन्' तथा उनकी एकता को स्वीकार करने वाले 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', इत्यादि श्रुतिवाक्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं।

कि ये वाक्य विषयों की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते हैं। वे केवल यह बताते हैं कि उनमें एक ही ब्रह्म निहित है। जिस प्रकार स्वर्ण के सभी आभूषण स्वर्ण ही हैं उसी प्रकार इन विषयों का आन्तरिक सत्य ब्रह्म ही है।

सृष्टि का विकास क्रम -

रामानुज भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति से सृष्टि का विकास क्रम दिखाते हैं। 

रामानुज भी सृष्टि का विकास क्रम लगभग सांख्य-जैसा ही मानते हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर यह है कि रामानुज उपनिषदों में प्रतिपादित 'पञ्चीकरण की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, जबकि सांख्य दर्शन भी  इसे मान्यता तो देता है परन्तु इसका निरूपण नहीं करता है। 

इस प्रक्रिया के अनुसार 'भूतादि अहंकार' से सर्वप्रथम पाँच सूक्ष्म भूतों का इस क्रम से आविर्भाव होता है —

        ◾  आकाश का गुण- ( ध्वनि)

        ◾  वायु का गुण -(स्पर्श)

        ◾ अग्नि का गुण- ( तेज)

        ◾ जल का गुण- (रस )

        ◾ पृथ्वी का गुण-( गन्ध)

इन पाँचों सूक्ष्म भूतों का पुनः पाँच प्रकार से संयोग होता है जिससे पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव होता है। पञ्चीकरण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक स्थूल महाभूत में आधा भाग (1/2) इस महाभूत का अपना होता है और शेष आधे भाग में अन्य महाभूतों के बराबर भाग (1/8) होते हैं।

अभिप्राय  यह है कि पंचीकरण-सिद्धान्त से पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव निम्नलिखित क्रम और अनुपात से होता है—

"आकाश महाभूत= 1/2 आकाश+ 1/8 वायु + 1/8 अग्नि+1/8 जल+1/8 पृथ्वी। 

"वायु महाभूत= 1/2वायु + 1/8 आकाश + 1/8 अग्रि + 1/8 जल + 1/8 पृथ्वी

"अग्नि महाभूत = 1/2अग्नि +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल + 1/8

 "पृथ्वी जल महाभूत= 1/2 जल +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 अग्नि + 1/8 पृथ्वी ।

"पृथ्वी महाभूत= 1/2 पृथ्वी +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल +1/8 अग्नि 

रामानुज के अनुसार सभी सांसारिक पदार्थ जिसमें जीव का शरीर भी शामिल है, इन्हीं पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं।

इसीलिए सभी सांसारिक वस्तुओं में पाँचों महाभूतों के तत्त्व पाये जाते हैं। पुनः, रामानुज ब्रह्म एवं जगत् के सम्बन्ध को आत्मा एवं शरीर के सम्बन्ध के समान मानते हैं।

"समालोचना-

हम ब्रह्म के स्वरूप विवेचन में देख चुके हैं कि रामानुज का 'परम यथार्थता' "का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भले ही सन्तोषजनक न हो परन्तु दार्शनिक रूप से सार्थक है। 

और उनका लीलावाद का सिद्धान्त एक प्रकार का रहस्यवाद है जिसे बौद्धिक धरातल पर ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्यों कि यह रहस्य मानवीय भौतिक बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है।

ईश्वर सृष्टि रचना का संकल्प क्यों करता है? क्या इसमें उसका कोई प्रयोजन निहित है ?

अवश्य प्रयोजन निहित है  लीला विलास उसका उद्देश्य है। सत- चित और आनन्द उस आत्मा की मौलिक सत्ताऐं हैं।

पुनः जगत् को ईश्वर के विशेषणांश या अंश (चिदचित्) का परिणाम बताया जाता है। क्या विशेषणांश के परिवर्तन से विशेष्य अप्रभावित रह सकता है ? क्या अंशों में परिणाम होने पर भी अंशी अपरिणामी बना रह सकता है ? क्या जगत् के दोष ब्रह्म को व्याप्त नहीं करते हैं?

रामानुज इन प्रश्नों का समाधान 'आत्मा-शरीर' एवं 'राजा-प्रजा' की उपमाओं के आधार पर करने का प्रयास करते हैं।

 किन्तु वे इस प्रयास में तर्कतः सफल नहीं होते। वास्तव में, यदि ब्रह्म अंशी है और जगत् अंश है तो जगत् के दोषों से ब्रह्म अक्षुण्ण नहीं रह सकता। इसी लिए उसका दोष पूर्ण रूपान्तरण ही जीवात्मा है।

 विशेषणांश के परिणामी होने पर विशेष्यांश के अपरिणामी बने रहने की बात स्थूल रूप से समझ में नहीं आती। परन्तु द्वन्द्व वाद के विवेचन करने पर यह बात समझ में आ जाती है। जैसे आधेय और आधार केन्द्र और परिधि आदि रूप इसी प्रकार समन्वित हैं।

यह संसार मन में स्वप्न के समान अथवा समुद्र में लहर के समान परिणामी है।

वह एक कृष्ण ही अनेक रूपों में उद्भासित होते हैं। अर्थात् ब्रह्म का रूपान्तर ही उसका वैवर्त  है। 

ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।

 विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 

'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।

कृष्ण से ही ब्रह्माविष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व( बगल) से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्रीकामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए

जिस प्रकार ब्रह्माण्ड, शरीर और परमाणु परस्पर समष्टि (समूह) और  व्यष्टि (इकाई) के रूप में  सम्बन्धित हैं। उसी प्रकार सृष्टि का भी क्रम है
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यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल (Neutral ) है जो उदासीन है।  परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा, बीटा और गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध  होते है।

परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक (Nucleus)भी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य  का समायोजन ब्रह्म से हो। अथवा सतोगुण का समायोजन परम्-ब्रह्म में हो।
क्योंकि परम्- ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सतोगुण को तो धारण करना पड़ेगा और अन्त में उसका परित्याग करना ही पड़ता है।

क्वार्क बोसॉन एक प्राथमिक कण है तथा यह पदार्थ का मूल घटक है। क्वार्क एकजुट होकर सम्मिश्रण कण हेड्रान बनाते है। परमाणु के मुख्य अवयव प्रोटॉन व न्यूट्रॉन इनमें से सर्वाधिक स्थिर होते है और बोसॉन जो कि गौड पार्टीकल्स के नाम से मशहूर है , जिससे बिग बैंग का पता चला था , उसी को बोसॉन कहते है ,

विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य(समान) प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन गतिशील हैं।

जो कक्षाओं में निरन्तर चक्कर काटते रहते हैं  इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है।

अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है।
इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी  होते हैं। 

परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है । 
प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक विद्युत आवेश होता है । और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता ।
तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओर आकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।

विद्युत के साथ चुम्बकत्व जुड़ी हुई घटना है।विद्युत आवेश वैद्युतचुम्बकीय क्षेत्र पैदा करते हैं। विद्युत क्षेत्र में रखे विद्युत आवेशों पर बल लगता है।

समस्त विद्युत का आधार इलेक्ट्रॉन हैं। क्योंकि इलेक्ट्रॉन हल्के होने के कारण ही आसानी से स्थानांतरित हो पाते हैं। इलेक्ट्रानों के हस्तानान्तरण के कारण ही कोई वस्तु आवेशित होती है। आवेश की गति की दर विद्युत धारा है। 

आधुनिक शब्द 'इलेक्ट्रॉन' का उपयेग यूनानी भाषा में अंबर के लिए किया जाता है। 'इलेक्ट्रिसिटी' शब्द का उपयोग सन् 1650 में वाल्टर शार्ल्टन (Walter Charlton) ने किया। इसी समय राबर्ट बायल -1627-1691 ई.) ने पता लगाया कि आवेशित वस्तुएँ हल्की वस्तुओं को शून्य में भी आकर्षित करती हैं, अर्थांत् विद्युत के प्रभाव के लिए हवा का माध्यम होना आवश्यक नहीं है।

वस्तुओं की रगड़ के कारण विद्युत दो प्रकार की होती है, घनात्मक एवं ऋणात्मक। पहले इनके क्रमश: काचाभ (vitreous) तथा रेजिनी (resionous) नाम प्रचलित थे।
सन्-1737में डूफे (Du Fay,1699-1739 ने बताया कि सजातीय आवेश एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं तथा विजातीय आकर्षित करते हैं। 
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ऐसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है । परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है।
वस्तुएँ न्यूनतम ऊर्जा विन्यास तक पहुँचने की प्रवृत्ति रखती हैं।
एक अन्य चुंबक उदाहरण, यदि आप दो बार चुंबकों को एक साथ रखते हैं, तो एक चुंबक का उत्तरी ध्रुव दूसरे के दक्षिणी ध्रुव के साथ संरेखित हो जाएगा। यह एक चुंबक के क्षेत्रों को दूसरे की ओर विपरीत दिशा में निर्देशित कर देगा, जिससे अधिकांश क्षेत्र रद्द हो जाएंगे, और इस प्रकार न्यूनतम ऊर्जा उत्पन्न होगी। 
समान ध्रुवों के बीच हमेशा प्रतिकर्षण बल होता है और विपरीत ध्रुवों के बीच में आकर्षण बल होता है।
इसका कारण दौनों ध्रुवों का परस्पर अपूर्णत्व ही है। इस लिए दौंनों मिलकर स्वयं को पूर्ण करना चाहते हैं।
स्त्री पुरुष की भी यही मिलन प्रवृत्ति है।
_पुरुष स्त्री की कोमलता का आकाँक्षी है तो स्त्री उसके पौरुष( परुषता) - या कठोरता की सहज आकाँक्षी है। _____________________________________


"यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में "आत्मा" शब्द के अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान हैं👇

 जैसे -
1-पुरानी अंगेजी में--(Aedm)
 2-डच( Dutch) भाषा में (Adem )
 3-प्राचीन उच्च जर्मन में (Atum) = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस-- 
4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना ।परन्तु (Auto) शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की (Hotos) रूप में था । 

जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है । श्री मद्भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को आत्मा अविनाशिता के रूप में उद्घोषित किया है।👇
मूल श्लोकः

"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
 (श्रीमद्भगवद्गीता-  2/23)

इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
 
आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है  आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है। 
क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है । 
ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है 
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सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं उसका मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है । 
क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म से अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।
परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है उसकी जिसमें अविद्या ही निर्देशक है। अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; उसका स्वभाव है "यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है। क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है।

अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं!

यही द्वन्द्व (दो) की सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है। स्त्री स्वभाव से ही कोमल और भावना प्रधान प्रकृति कि है और पुरुष कठोर तथा विचार प्रधान प्रकृति का है।

वस्तुत: कहना चाहिए कि स्त्री प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है। 
इसके परोक्ष में सृष्टा  का एक सिद्धान्त निहित है  वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है ।

अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है।
और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है । 

-आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी है और ब्रह्मन्- नपुसंक लिंग शब्द है। और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है।

जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है यह वेग जीवात्मा में मन अथवा चित्त या है ।
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों ही प्रकट हो जाता है ।

इच्छा संकल्प काम ही आवेशात्मक रूपान्तरण है। और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञात नहीं :-
********
"ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न !    
श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न । 

पर खोज अभी तक जारी है । 
अपने स्वरूप से मिलने की । 

हम सबकी अपनी तैयारी है । 
आशा के पढ़ाबों से दूर निकर
संसार में किसी पर मोह न कर।
ये हार का हार स्वीकार न कर ।।
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है । 

शोक मोह में तू क्यों खिन्न है ।
कुछ पल के रिश्ते सब छिन्न है । 
'ये मतलब की दुनियाँ सारी है ।
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है । 
 ***********************************

शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है । जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है । परन्तु परछाँईयों में वह उसे खोजता है।
सबका समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा उसका साक्षात्कार ही है । 
और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है।

 स्व: में आत्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ।

 परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________
अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर ,

सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि- ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी।

स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है ।
 
आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है । 

सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं ।
परन्तु चतुरीय (तुरीय) अवस्था आत्मा की अवस्था है।

"प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है 
जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है । 

जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं उसी प्रकार प्रवृत्तियों के (System Software) तथा (Application Software )हमारे मन /चित्त के (सी. पी.यू.) में समायोजित हैं।
 
जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं । वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं । 
और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से सम्बन्धित होता है।

जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न होते हैं।जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है। 

आत्मा का वाचक प्रेत शब्द‌ भारतीय भाषाओं में अपने मूल व प्रारम्भिक अर्थें में प्रेरक- शक्ति का वाचक रहा होगा ।

जो अंग्रजी में स्प्रिट (Spirit) है । 
पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से "(espirit)" शब्द है जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing) अथवा (inspiration)----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया -(Spirare---to breathe) से है।

भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् (speis)" से निर्धारित करते हैं । 

यद्यपि ईश्वर आदि और अन्त की सीमाओं से सर्वथा परे है। समुद्र बूँद तो नहीं हो सकता परन्तु अपनी इकाई रूप में बूँद अवश्य हो सकती है।

वह अन्तर्यामी ईश्वर व्यापक होते हुए भी अपने एक इकाई रूप से पृथ्वी पर भी अवतरित होता है।
भगवान कृष्ण गोलोक से सीधे भूलोक पर गोपों में ही अवतरित होते हैं।
क्यों वे धर्म की रक्षा के लिए अवतरण करते हैं।

"व्रजोपभोग्या च यथा नागे च दमिते मया ।
सर्वत्र सुखसंचारा सर्वतीर्थसुखाश्रया ।५७।

एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च ।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम् ।।

एनं कदम्बमारुह्य तदेव शिशुलीलया ।
विनिपत्य ह्रदे घोरे दमयिष्यामि कालियम्।५९

एवं कृते बाहुवीर्ये लोके ख्यातिं गमिष्यति। 2.11.६०।
अनुवाद:-मुझे इस नागराज का दमन करना है, जिससे जल देने वाली यह नदी कल्‍याणकारी जल का आश्रय हो सके। इस नाग का मेरे द्वारा दमन हो जाने पर यहाँ की नदी समूचे व्रज के उपभोग में आने योग्‍य हो जायेगी। यहाँ सब ओर सुखपूर्वक विचरण करना सम्‍भव हो जायगा तथा यह नदी समस्‍त तीर्थों और सुखों का आश्रय हो जायगी।

इसीलिये व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिये मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्‍माओं का दमन करने के लिये ही यहाँ मेरा अवतार हुआ है। मैं बालकों के खेल-खेल में ही इस कदम्‍ब पर चढ़कर उस घोर ह्नद में कूद पड़ूँगा और कालिय नाग का दमन करूँगा। 

ऐसा करने पर संसार में मेरे बाहुबल की ख्‍याति होगी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ 
_______
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ।११।

       

लोकाचरण-खण्ड}-
अध्याय.   षष्ठम  -  -•
 - कृष्ण के विचारों का सैद्धान्तिक  और संसार में उनके आचरण  की प्रतिष्ठा•

जिस प्रकार अग्नि में क्वथित बीज (उबला हुआ बीज) अंकुरित नहीं होता है उसी प्रकार तत्व ज्ञान (यथार्थ ज्ञान) की अग्नि में दग्ध (जला हुआ) अहंकार से रहित  संकल्प और उससे उत्पन्न कामनाओं से रहित कर्म भी कभी फल देने वाला नहीं होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता का निम्न श्लोक कर्म फल की सम्यक् व्याख्या करता है।
कहने तात्पर्य है कि संसार के हर कर्म के पीछे इच्छाओं का हाथ है। और इच्छाओं का कारण संकल्प ( मन का दृढ़ निश्चय) और संकल्प का कारण व्यक्ति का अहंकार है। और इस अहंकार के पीछे कारण है व्यक्ति का वह अज्ञान जिसके कारण कभी सत्य का पूर्णरूप से बोध नहीं होता है।
निम्नलिखित श्लोक में कर्म बन्धन से मुक्त होने की विधि का वर्णन है। क्योंकि कर्म बन्धन में
 पड़ा हुआ व्यक्ति द्वन्द्व (दु:ख-सुख) अथवा किस से लगाव -अलगाव आदि परस्पर विरोधी भावों से सदैव समान रूप से प्रभावित रहता है।
यही संसार का अनवरत चक्र गतिशील रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता दृश्य ( तमाशा) न बनाकर तमाशा देखने वाला बनने की शिक्षा देती है।
श्रीमद्भगवद्गीता का वह श्लोक जिसमें कर्म फल से मुक्त होने की विधि का वर्णन है।

श्रीमद्भगवद्गीता -  4.19  
"यस्य सर्वे समारम्भाः कर्मा: कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं  तमाहुः पण्डितं बुधाः॥ १९॥
शब्दार्थ-
यस्य—जिसके; सर्वे—सभी प्रकार के; समारम्भा:— समान रूप से आरम्भ ; कर्मा: कर्म समूह काम—इच्छा/ ; सङ्कल्प— मन का निश्चय; वर्जिता:—से रहित हैं; ज्ञान— ज्ञान की; अग्नि—अग्नि द्वारा; दग्ध—भस्म हुए; कर्माणम्—जिसका कर्म; तम्—उसको; आहु:—कहते हैं; पण्डितम्—बुद्धिमान्; बुधा:—बोध सम्पन्न ।.
 
भावार्थ--
जिस तत्वज्ञानी व्यक्ति के सभी कर्म -अहंकार जनित संकल्पों के प्रवाहात्मिका रूपा कामनाओं(इच्छाओं)  से रहित हो जाऐं  तो वह कभी भी संसार के कर्मफल का भागी नही होता यदि उससे कोई अप्राकृतिक अथवा उन्मादी कृत्य (कर्म) भी हो जाए तो  प्रायश्चित करने पर उसका शुद्धि करण हो जाता है।

जिस प्रकार अग्नि में क्वथित( उबला हुआ) बीज अंकुरित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में तप्त कर्म रूपी बीज संकल्प और इच्छाओं के रूप में अंकुरित नहीं होता है। अन्यथा संसारी लोग अहंकार के गुण संकल्प और संकल्प के प्रवाह इच्छाओं के वशीभूत होकर ही कर्म में प्रवृत होते हैं।
जिनके फल भोग के लिए ही उनका अनेक जीवों के रूप में वृत्ति और प्रवृत्ति के अनुरूप जन्म होता है।
आज भी वास्तविक अध्यात्म का प्रतिपादक श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है।
श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्यायः में  कर्मयोग  का  बड़ा सैद्धान्तिक विवेचन है।

द्वितीय अध्याय में  श्रीकृष्ण ने श्लोक 11 से श्लोक 30 तक आत्मतत्त्व का विवेचन कर  सांख्ययोग का प्रतिपादन किया ।

तत्पश्चात्  श्लोक 31 से श्लोक 53 तक समस्त बुद्धिरूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को पाये हुए "स्थितप्रज्ञ" सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का स्वाभाविक  प्रतिपादन किया है।

इसमें कर्मयोग की महिमा बताते हुए कृष्ण ने 47 तथा 48 वें श्लोक में कर्मयोग का स्वरूप बताकर अर्जुन को कर्म करने को प्रेरित किया है।

49 वें श्लोक में समत्व बुद्धिरूप कर्मयोग की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत निम्न बताया है। इसी अध्याय के  50 वें श्लोक में समत्व बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में संलग्न हो जाने के लिए कहा और 51 वें श्लोक में बताया कि समत्व बुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को परम पद की प्राप्ति होती है।
यह प्रसंग सुनकर अर्जुन ठीक से निश्चय नहीं कर पाया कि मुझे क्या करना चाहिए ? (मह्यं किं कर्त्तव्यम्)
इसलिए कृष्ण से उसका और स्पष्टीकरण कराने तथा अपना निश्चित कल्याण जानने की इच्छा से अर्जुन पुन: कृष्ण से पूछते हैं जिसे तृतीय अध्याय में निर्देशित किया गया है।

अथ तृतीयोऽध्यायः।

अर्जुन उवाच"

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।
अनुवाद-आप मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं | इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।

 'श्रीभगवानुवाच'

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
अनुवाद-श्री भगवनान बोलेः हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है | उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है |

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
अनुवाद-मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है!

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
अनुवाद-निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
अनुवाद-जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |

यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
अनुवाद-किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।8।।
अनुवाद-तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा |

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।9।।
अनुवाद-यज्ञ के निमित्त किये जाने कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |
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सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।।10।।
अनुवाद-प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
अनुवाद-तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें  इस प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे!

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।।12।।
अनुवाद-यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है |

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।।
अनुवाद-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है |

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
अनुवाद-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |
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तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।19।।
अनुवाद-इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है !

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।
अनुवाद-जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे | इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है |

? श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
अनुवाद-श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।
अनुवाद-हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न ही कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।।
अनुवाद-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं |

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।।
अनुवाद-इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायें और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ |

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।।
अनुवाद- हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे |

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
अनुवाद- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उन्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे |
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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
अनुवाद-वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है !

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।।
अनुवाद-परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण-ही-गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।।29।।
अनुवाद-प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे |

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।
अनुवाद-सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते है| फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
अनुवाद-इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं |

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।
अनुवाद-अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |
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अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।36।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?

'श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद् भवः
महाशनो महापाप्मा विद्धेयनमिह वैरिणम्।।37।।
अनुवाद-श्री भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान !

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।।
अनुवाद-जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है |

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।
अनुवाद-और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने
वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है !

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
अनुवाद-इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – ये सब वास स्थान कहे जाते हैं। यह काम( सेक्स प्रवृत्ति) इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है |

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मान प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
अनुवाद-इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42।।
अनुवाद-इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं | इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है |

एवं बुद्धेः परं बुद् ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।।
अनुवाद-इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |
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अर्थात - इस प्रकार हे अर्जुन ! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो।

कठोपनिषद् में रथ " रथी तथा सारथी के उपमान विधान  से शरीर" आत्मा और बुद्धि तत्व  की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है।

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च। 3।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः। 4।
(कठोपनिषद्-1.3.3-4)

श्रीमद्भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मेविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः |3|
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'कर्मयोग' नामक तृतीय अध्याय सम्पन्न हुआ |

आत्मानं रथिनं विद्धि- आत्मा को रथ समझो !
संसार की कामनाओं में काम ( उपभोग करने की इच्छा-अथवा बुभुक्षा- का समावेश है और ये कामनाऐं अपनी तृप्ति हेतु अनैतिक और पापपूर्ण परिणामों का कारण बनती हैं ।

इसी पाप का परिणाम संसार की यातना और असंख्य पीड़ाऐं हैं  इन कामनाओं का दिशा परिवर्तन आध्यात्मिक कारणों से ही सम्भव है ।

कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का आध्यात्मिक वर्णन है ।
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं ।

संबंधित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन सार्थक उपमा  के रूप  हैं !
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 आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।३।

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम –
इंद्रियों पर नियंत्रण का हेतु,
अगले मंत्र में उल्लेख
__________________
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः।)

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ की सबारी  करने वाला बताया है

प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन  आध्यात्मिकता प्रधान रहा है। ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  परन्तु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें जीवन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कर सकें ।

उनकी जीवन-पद्धति प्राय:  आधुनिक काल की  भौतिक पद्धति के विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं।

उनके दर्शन के अनुसार मृत्यु से परे आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के अति चेतन चेतन और अवचेतन आदि स्तरों द्वारा करती हैं ।

मन का संबंध बाहरी जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात्  जननेद्रिय,।

पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्यायित करता है मन के उसी विकल्प को सुख अथवा दुःख के रूप में जाना जाता है ।

इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।

किन विषयों में इंद्रियां विचरण करेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण करेगी  यह मन के उन पर नियंत्रण पर निर्भर करता है ।

इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है परन्तु जब मन के वासनाऐं समाप्त होकर बुद्धि में में ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश होता है।

उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार क्या करना चाहिए है और क्या नहीं करना चाहिए इसका निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों को निर्देशित करता है ।

इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धिरूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
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रथ:शरीर पुरुष सत्य दृष्टतात्मा नियतेन्द्रियाण्याहुरश्वान् ।
तैरप्रमत:कुशली सदश्वैर्दान्तै:सुखं याति रथीव धीर:।२३।

षण्णामात्मनि युक्तानामिन्द्रयाणां प्रमाथिनाम् ।
यो धीरे धारयेत् रश्मीन् स स्यात् परमसारथि:।२४।

इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु धृतिं कुर्वीत सारथ्येधृत्या तानि ध्रुवम् ।२५।

इन्द्रियाणां विचरतां यनमनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरते बुदिं नावं वायुरिवाम्भसि ।२६।

येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात् फलागमम्।
तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।२७।

इति महाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेय समस्या पर्वणि ब्राह्मण व्याधसंवादे एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय:(211 वाँ अध्याय)





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पुरुष का यह प्रत्‍यक्ष देखने में आने वाला स्‍थूल शरीर रथ के समान है। बुद्धि सारथि है और इन्द्रियों को घोड़े  बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर सारथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग सुगम्य करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं  पुरुष की बुद्धि मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा तय  करती है।२३।

जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्‍य विद्यमान छ: प्रमथनशील इन्द्रिय रुपी अश्वों  की लगाम संभालता है, वही उत्तम सारथी हो सकता है । २४।

सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्‍न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्‍य विजय प्राप्‍त होती है।२५।

जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्‍त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।२६।

सभी मनुष्‍य इन छ: इन्द्रियों के शब्‍द, रस  आदि विषयों में उनसे प्राप्‍त होने वाले सुखरुप फल पाने के सम्‍बन्‍ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्‍यानजनित आनन्‍द का अनुभव करता है ।२७।
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इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समस्‍या पर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दो सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ

आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में "स्वर् अथवा "स्व: कह कर वर्णित किया है। परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही विकसित रूप है ।

आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swḗsa( स्वेसा ) तथा swījēn( स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं।
अर्थात् own, relation प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में:
1-swēs (a) 2-`own'; swēs n. (b) `property' 2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s `lieb, traut' 3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum 4-Old English: swǟs `lieb, eigen' 5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter' 6-Old Saxon: swās `lieb' 7-Old High German: { swās ` 8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व 9-Old Indian: poss. svá- 10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian: 11-OldPersian huva- 'eigen, suus' 12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi' 13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus 14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology 15- Old Lithuanian: sawi, sau.

संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में स्व: शब्द आत्म बोधक है। ___________________________________

"स्वेन स्वभावेन सुखेन, वा तिष्ठति स्था धातु विसर्गलोपः । स्वभावस्थे अर्थात्‌ स्व आत्मनि तिष्ठति स्थायते इति स्वस्थ: अर्थात्‌ --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है ।।

योग स्वास्थ्य का साधक है ।

पञ्चम् सदी में पुना-रचित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बताया है ।
भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇

"सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा निष्काम कुरु कर्माणि समत्वं योग उच्चते ।।
श्रीमद्भगवत् गीता(2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है।

समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है।

भगवद्गीता के अनुसार -👇 " तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् " अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है । कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇 ____________________________________ बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। तब यह समता योग है । अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 🌸

पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं।
--जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा।

यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं ।
जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है ।
और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है ।

संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं। योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है । इसमें भी युति( युत् ) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है।👇 ____________________________________use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume,"

पुरानी लैटिन में युति क्रिया है। जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज ( Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है । जिससे (युज्+घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । ____________________________________ योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है । 👇
योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है ।

योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।

इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध।

और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है। योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇

१-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध। चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है ।

--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।

स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ।

१-संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि (-जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है।

और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं।

ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।

वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।
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योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं । चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ।

नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।

१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है ३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है ४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है ।

पञ्च-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है। परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है ।

वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं ।

ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।

भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।

जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।
जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।

👂👇👂👂 पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।

यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है। ___________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।

उपस्थिति मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
यह अधिचेतक भाग का अवयव है।

पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है।

पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है ।
--जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।

वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है ।

और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है । योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है । और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ।

और ज्ञान ही जान है ।
अस्तित्व की पहिचान है ।

कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇 __________________________________

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।। इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।। ( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ ) अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है । अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है।
--जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े ।
और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।

एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।

--जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है । भारोपीय भाषाओं में प्रचलित है ।
(प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है। आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।

और प्रेरणा कोई कर्म-- नहीं ! अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ।

परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से प्रेत का अर्थ ही बदल गया !

इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।
प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे ।
कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था ।

परन्तु उसे हटा दिया गया ।
यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है ।
वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।

और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है।
अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है।

जिसका नियन्त्रण बुद्धिके हाथों में मन का नियन्त्रण होता है ।
विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि । वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है।
जब मन में अहं का भाव हो जाय ।

परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है । क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं । जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है ।

आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात्‌ सच्चिदानन्द। अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है ।

और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है ।
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है  ___________________________________

पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता में आध्यात्मिक ज्ञान से समन्वित श्लोकों को छोड़कर प्राय: श्लोक वर्णव्यवस्था के मण्डन हेतु जोड़े गये हैं । परन्तु गीता के आध्यात्मिक सिद्धान्त सत्य के सन्निकट ही हैं। जो सांख्य और वैदान्त के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन करते हैं।


वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा ।
क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।👇

"अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।

अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं ।
भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"।
अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है ।
और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए  "अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ ।
दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में ।
अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है ।

मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है।

द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता?

-जैसे माया और ईश्वर । परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद। मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ।

वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है।

अत: मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।
मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है ।

उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों ।

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अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही स्व की स्थति स्वास्थ्य है ।
परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे । यानि शरीर की नीरोग अवस्था ।
परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है  ___________________________________
आध्यात्मिक स्तर पर स्वास्थ्य से तात्पर्य है । आत्मा की मूल स्वाभाविक स्थिति" बौद्धमतावलंबी भी जो पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा व्याख्यायित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं।
क्यों कि योग द्रविड़ो की आध्यात्मिक साधना-पद्धति है ।

अत: योग पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं । बौद्ध ,जैनों आदि सबने योग को स्वीकार किया । यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है।

इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है।

पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा।
क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध (फलित भाग्य) दहन हो गया होगा।

निरोध यदि सम्भव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो।
विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। क्यों जीवन ही कर्म मय है । 👇

"न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।3.5।

कोई भी मनुष्य कभी किसी भी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। यहाँ सभी प्राणीके साथ अज्ञानी विशेषण ( शब्द )जोड़ना चाहिये क्योंकि आगे के प्रकरण में जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है ।

अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित या मोहित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रियाका अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। केवल लीला सदृश्य वे निष्काम कर्म करते हैं ; लोक हित के लिए ।
परन्तु जब आत्मा से संयुक्त होकर कर्म और प्रारब्ध ही करते हैं जीवन की व्याख्या तब व्यक्ति संसार के चक्र में घूर्णन करता रहता है ।

कालान्तरण में जब बुद्ध के सिद्धान्तों को समझने वाले बुद्धत्व से हीन हुए दो बुद्ध का मार्ग दो रूपों में विभाजित हुआ ।

बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय बन गये। हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही था एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त को तो मानते परन्तु व्याख्या अपने स्वार्थों के अनुकूल करने लगे।

हीनयान अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्पराओं का पालन करने वाला एक सम्प्रदाय बन गया ।
परिचय संपादित करें प्रथम बौद्ध धर्म की दो ही शाखाएं थीं, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्‍यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्‍न मार्ग। यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही लिए ही सम्भव था।

हीनयान सम्प्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे। यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्‍यों त्‍यों बनाए रखना चाहते थे।

हीनयान सम्प्रदाय के सभी ग्रन्थ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्ध की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध को केवल महापुरुष मानते थे।

हीनयान की साधना अत्‍यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे। हीनयान सम्प्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है।
बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- १-वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक। इनका वर्णन वादरायण के ब्रह्-सूत्र में है । वैभाषिक मत की उत्‍पत्ति कश्‍मीर में हुई थी तथा सौतान्त्रिक तन्त्र-मन्त्र से संबंधित था।
सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्‍प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है।

थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'बड़े-बुज़ुर्गों का कहना'।
बौद्ध धर्म की इस शाखा में पालि भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रन्थों का पालन करने पर बल दिया जाता है।

थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं। इनके लिए गौतम बुद्ध एक गुरू एवं महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई अवतार या ईश्वर नहीं। वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है।

जहाँ महायान बौद्ध परम्पराओं में देवी-देवताओं जैसे बहुत से दिव्य जीवों को माना जाता है वहाँ थेरवाद बौद्ध परम्पराओं में ऐसी किसी हस्ती को नहीं पूजा जाता।

थेरवादियों का मानना है कि हर मनुष्य को स्वयं ही निर्वाण का मार्ग ढूंढना होता है।

इन समुदायों में युवकों के भिक्षु बनने को बहुत शुभ माना जाता है ; और यहाँ यह प्रथा भी है कि युवक कुछ दिनों के लिए भिक्षु बनकर फिर गृहस्थ में लौट जाता है।

थेरवाद शाखा दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित है, जैसे की श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, म्यान्मार, थाईलैंड और लाओस पहले ज़माने में 'थेरवाद' को 'हीनयान शाखा' कहा जाता था।

बौद्ध धर्म का सबसे विकृत रूप वज्रयान के रूप में वर्णित हुआ ।

वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म, तंत्रयान मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ।

वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में  विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है।

‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है।

यान ( रास्ता) ‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है। वज्रयानी ही कालान्तरण में सिद्ध कहलाए यह समय लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी है ।

सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे। इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था।
सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं।
इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है। एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं।

उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है।

एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है।

अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है।
सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।

उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे।
ये बुद्ध को मार्ग से पूर्ण रूपेण पृथक हो गये ।

योग को इन्होंने भोग का माध्यम बना लिया । दुनिया के करीब २ अरब (२९%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है। प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं। दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं।

किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं। योग को बुद्ध ने जाना इससे पूर्व कृष्ण ने योग को जाना जैनियों के त्रेसठ शलाका पुरुषों में कृष्ण और बलराम का भी वर्णन है ।

बुद्ध परम्परा में भी कृष्ण को माना ।
योग-सृष्टि के रहस्य को जानने रा सम्यक् विज्ञान है
योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी है । ___________________________________

यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है। जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है । और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं !

सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है।

और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए ।
क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।

.मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ।
जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।
इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है। यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है ।

परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा समायोजित किया गया। गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।

वह कृष्ण के मत के अनुमोदक अवश्य है ; कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं। वस्तुत वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । जिसमें -परोक्षत: -ब्रह्म-सूत्रपद के आश्रय से बौद्ध कालीन है ।
श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇 ___________________________________

दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है। जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
-ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई । द्वन्द्व से मुक्त होने को श्रीमद्भगवत् गीता मे योग कहा । और प्रकृति द्वन्द्व मयी है ।👇 ___________________________________
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)   यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45) -
---हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है । अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं  वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्"  तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं।

इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।

जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे । इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।

प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें---

 अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’

महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।

ईश्वर सार्वजनिक विषय नहीं है । ईश्वर को मानना भी अपने ऊपर आस्थाओं की चादर डालना है।

उससे केवल मन की उन्मुक्तता और उत्श्रृँखलता पर तो नियन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु ईश्वर को नहीं जाना जा सकता है।

क्योंकि वह निराकार और अनन्त है।  जन साधारण की बुद्धि से परे इसी लिए ईश्वरीय प्रतीक के रूप में मूर्ति या ईश्वर की कल्पित प्रतिमा की स्थापना की गयी जो वस्तुत श्रद्धा केन्द्रित करने का अवलम्बन मात्र थी ।

"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।39। (श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय-)
 
अनुवाद:- जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

श्रद्धा से से भी मनस् -शुद्धि द्वारा ज्ञान की ही प्राप्ति होती है।
जन्म और मृत्यु परिवर्तन के ही प्रवाह हैं! न तो आत्मा जन्म ही लेती है और ना ही मरती है।
परन्तु मन जो आत्मा और प्रकृति का मिश्रित रूप है
जागता सोता मरता और जीता है।
ईश्वर आदि ( प्रारम्भ) और अन्त से रहित असीम अस्तित्व है। जिसकी आँशिक अनुभूति तो सम्भव है परन्तु सम्पूर्ण अस्तित्व का दर्शन सम्भव और अनुभूति गद्य नहीं है।
फिर जन साधारण के लिए उसकी व्याख्या भी नहीं की जा सकती है।
अहं( ईगो) जीवन की सत्ता है अहंकार से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का प्रादुर्भाव ही जीवन के लिए उत्तरदायी है।
परन्तु स्व ( स्वयं) रूप ही आत्मा का अस्तित्व बोधक है।

अहं से हम और हम के भाव से स्व (आत्मा) की और जीवन के अग्रसर होने के लिए केवल कृष्ण ने निष्काम (कामना अथवा इच्छा रहित -) कर्म की प्रेरणा दी
अहं जहाँ जीवन को सीमित दायरे में संकुचित और सीमित करता है वहीं स्व का भाव बोध असीम की और अनन्त की अनुभूति का कारण है।

___________    

ज्ञान की स्थिति में मन द्वारा जो संकल्पित कर्म सम्पादित होता है। उसका परिणाम !

और ज्ञान के अभाव में मन द्वारा संकल्पित  सम्पादित कार्य का परिणाम भिन्न भिन्न प्रभाव वाला होता है।

श्रद्धा के  केन्द्रीकरण के आयाम सदैव स्थूल अवलम्बन का आश्रय लेते हैं। यही ईश्वर का साकार मान्य प्रतीक है।

वैदिक काल में भी प्रतिमा शब्द इसी अर्थ में रूढ़ हो गया था।

"कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥३॥ ( ऋग्वेद -१०/१३०/३)

“{प्रमा= प्रमाणम्} 
“प्रतिमा = हविष्प्रतियोगित्वेन मीयते निर्मीयते इति प्रतिमा देवता ।

परन्तु मूर्ति पूजा तो एक श्रद्धा का निमित्ति कारण है। दर-असल ईश्वर को जानना ही श्रेयकर है।

ईश्वरीय सत्ता का आंशिक ज्ञान भी तभी सम्भव है जब अन्त:करण चतुष्टय पूर्णत: दुर्वासना से रहित हो जाए  ! हमारी वासनाओं के आवेग ही मन में लालच की तरंगे पैंदा करते रहते हैं। जो दर्पण को मलिन करती रहती हैं। 

अन्त: करण एक दर्पण के समान स्वच्छ हो जाए तो साधक ईश्वरीय आंशिक सत्ता की तात्विक अनुभूति सहज कर लेता है।  ईश्वर की पूर्ण सत्ता का अनुभव तो स्वयं ईश्वर भी नहीं कर पाता है।  यही ईश्वरीय असमर्थता है। ईश्वर नाम से अभिहित तत्व स्वयं में अपरिमेय है।

उसके अनन्त अस्तित्व तो मापने का  कोई उपमान अथवा मानक  ही नही है।
पूर्ण ईश्वर को किसी ने नहीं देखा उसको जानने के सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं। साधक भी ईश्वरीय" सत्ता का आँशिक अनुभव करता है।

वह ईश्वर अपने आप में पूर्ण " अनन्त और अपरिमेय सत्ता है । 

भारतीय मनीषीयों ने अपने साधना काल में उसकी एक आँशिक झलक अनुभत की थी 
तब यह कहा -

"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

वह ईश्वर अनन्त है, और यह (ब्रह्माण्ड) अनन्त है। अनन्त से अनन्त की प्राप्ति होती है। (तब) अनन्त की अनंतता लेते हुए, भी वह अनंत के रूप में भी अकेला रहता है।

जिस प्रकार गणितीय प्रक्रिया में शून्य से शून्य को घटाया जाता है तो परिणाम शून्य ही आता है। उसी रूप मे ईश्वरीय अनन्तता को समझा जा सकता है।

इसी लिए उस अनन्त अपरिमेय आत्मिक सत्ता को सजीव और निर्जीव से भी पृथक शून्य ( ∅ ) रूप में  उपमित किया गया जिसमें अनन्त काल तक आप परिक्रमण करते रहो कोई अवरोध नहीं आयेगा- आप जीवन पर्यन्त निरन्तर चलते रहोगे -पर उसका कभी गन्तव्य अवरोध नहीं आयेगा-

हमारे सारे धार्मिक उपक्रम मन के शुद्धि करण के उपाय मात्र हैं। यदि यज्ञ अथवा किसी देवता की पूजा करने से अथवा तीर्थ यात्रा अथवा मन्दिर आदि के  द्वारा  मन न शुद्ध हो सके तो ये सारे उपक्रम व्यर्थ ही हैं।

ईश्वरीय सत्ता के अन्वेषण अथवा अनुभूति के इसलिए साधक को निरन्तर मन के शुद्धि करण हेतु तप "संयम " और योग अभ्यास भी करना चाहिए 
प्राचीन काल में साधक ही साधु संज्ञा के अधिकारी होते थे। 

और सन्त भी  पूजा( साधना ) करने वाले होते थे।
अरबी भाषा में प्रचलित शब्द (सनम) देव मूर्ति का वाचक है। 
दरअसल जब लोग ईश्वरी सत्ता की परिकल्पना करते थे तो वे किसी इमेज के रूप में मूर्ति भी  बनाते थे।

अरब  का यह सनम शब्द हिब्रू" अक्काडियन और अनेक सैमेटिक भाषाओं में कही  सनम- तो कहीं  "सलम आदि रूपों में प्रचलित है। 

वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में षण्-(सन्) धातु भ्वादिगणीय है। और दूसरी धातु सल्(शल्,) भी है जो स्तुति गमन और पार होने के अर्थ में प्रचलित है। षन् धातु का 
लट् लकार (वर्तमान) में  रूप निम्नलिखित हैं ।

एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः सनति सनतः सनन्ति
(वह पूजा करता है/ वे दोनों पूजा करते हैं/ वे सब पूजा करते हैं।

मध्यमपुरुषः सनसि सनथः सनथ
( तू पूजा करता है/ तुम दोनों पूजा करते हो/तुम सब पूजा करते हो/

उत्तमपुरुषः सनामि सनावः सनामः
( मैं पूजा करता हूँ/ हम दोनों पूजा करते हैं/ हम सब पूजा करते हैं/

मूर्तियों या निर्माण निराकार ईश्वर के साकार प्रतीक के विधान के तौर पर जन साधारण के लिए किया गया था।
अरबी में 
 صنم فروش ( सनम-फ़रोस- , " मूर्ति विक्रेता )        (
है।

सेमिटिक मूल का ‘"सनम’ صنم शब्द बनता है स्वाद-नून-मीम ص ن م तीन वर्णो  से मिलकर यह शब्द बनता है।।

इस्लाम से पहले सैमेटिक संस्कृति मूर्तिपूजक थी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति  बुतपरस्ती  के माध्यम से  ही प्रकट होती रही है।

प्रतीक, प्रतिमा, सनम या बुत तब तक निर्गुण-निराकारवादियों को नहीं खटकते जब तक वे धर्म के सर्वोच्च प्रतीक के तौर पर पूजित न हों।
मूर्ति पूजा या विधान जनसाधारण के लिए था।

"सनम" का सन्दर्भ भी प्रतिमा के ऐसे ही रूप का है। कुरान की टीकाओं व अरबी कोशों भी सनम को “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” के तौर पर ही व्याख्यायित किया गया है।

अनेक सन्दर्भों से पता चलता है कि "सनम" का व्युत्पत्तिक आधार हिब्रू भाषा का है और वहाँ से अरबी में दाखिल हुआ।

हिब्रू में यह स-ल-म अर्थात( salem) है  एक स्तुति वाचक शब्द है।

जिसमें बिम्ब, छाया अथवा प्रतिमा का आशय है। इस्लाम से पहले काबा में पूजी जाने वाली प्रतिमाओं के लिए भी" सनम शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। 

चूँकि “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” इस्लाम की मूल भावना के विरुद्ध है इसलिए सनम, सनमक़दा और सनमपरस्ती का उल्लेख इस्लामीय शरीयत  के परवर्ती सन्दर्भों में तिरस्कार के नज़रिये से ही प्रचलित हुआ  है।

प्राचीन सेमिटिक भाषाओं में अक्काद प्रमुख संस्कृति है जिसकी रिश्तेदारी हिब्रू और अरबी से रही है। 

उत्तर पश्चिमी अक्काद और उत्तरी अरबी के शिलालेखों में भी सनम का (‘स-ल-म)’ रूप मिलता है। 
दरअसल न और ल में बदलाव  की प्रवृत्ति भारतीय आर्यभाषाओं में भी होती रही है।

मिसाल के तौर पर पश्चिमी बोलियों में लूण ऊत्तर-पूर्वी बोलियों में नून, नोन हो जाता है। इसी तरह नील, नीला जैसे उत्तर-पूर्वी उच्चार पश्चिम की राजस्थानी या मराठी में जाकर लील, लीलो हो जाते हैं।
यही बात सलम के सनम रूपान्तर में सामने आ रही है।

इस सन्दर्भ में S-l-M से यह भ्रम हो सकता है कि इस्लाम की मूल क्रिया धातु s-l-m और सनम वाला s-l-m भी एक है।

दरअसल इस्लाम वाले स-ल-म में (सीन-लाम-मीम س ل م‎ है ! 

जिसमें सर्वव्यापी, सुरक्षित और अखंड सलामती जैसे भाव हैं। जाहिर है ये वही तत्व हैं जिनसे शांति उपजती है।
अत: सल् ( शल्) पार करना - स्तुति करना आदि अर्थ लेकर संस्कृत धातुपाठ में भी उपस्थित है।

जबकि प्रतिमा के अर्थ वाले स-ल-म का मूल स्वाद-लाम-मीम है।

ख़ास बात यह कि प्राचीन सामी सभ्यता में देवी पूजा का बोलबाला था।

लात, मनात, उज्जा जैसी देवियों की प्रतिमाओं की पूजा प्रचलित थी। इसलिए बतौर सनम अनेक बार इन देवियों की प्रतिमाओं का आशय रहा। 

बाद के दौर में सनम प्रतिमा के अर्थ में रूढ़ हो गया।

इस सिलसिले की दिलचस्प बात ये है कि जहाँ बुत, मूर्ति या प्रतिमा जैसे शब्दों का प्रयोग ‘प्रियतम’ के अर्थ में नहीं होता मगर प्रतिमा के अर्थाधार से उठे शब्द में किस तरह प्रियतम का भाव भी समा गया।

संस्कृत धातु पाठ में सन् - धातु का अर्थ पूजा-करना भी है।

यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में ईश्वर आराधना की प्रमुख दो पद्धति रही हैं- पहली है सगुण  अथवा साकार और दूसरी है निर्गुण अथवा निराकार।

सगुण (साकार)  पद्धति में ईश्वर की उपासना करने वाले समूह में भी प्रतिमा, उस परमशक्ति का रूप नहीं है।
जिस प्रतीक को परमशक्ति माना गया, उसकी प्रतिमा को  मात्र  ईश्वर की मानकर पूजा जाता है।

भारतीय पुराणों में ब्राह्मा के चार पुत्र 
सनत" सनत्कुमार" सनातन" सनन्दन " के नामों में भी यह सन् धातु समाविष्ट है।
चारो शब्दों की व्युत्पत्ति " सन्= पूजायां धातु परक है।

सन्त: शब्द के मूल में भी यही सन् धातु समाविष्ट है 
मत्स्यपुराण के अनुसार सन्त शब्द की निम्न परिभाषा है :

ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:।
सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥
अनुवाद:-
ब्राह्मण ग्रंथ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वही सन्त कहलाते हैं।

मनोज्ञैस्तत्र भावैस्ते सुखिनो ह्युपपेदिरे ।
अतः शिष्टान्प्रवक्ष्यामि सतः साधूंस्तथैव च ।१९ ।
सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तद्वंतो ये भवंत्युत ।
साजात्याद्ब्रह्मणस्त्वेते तेन सन्तः प्रचक्षते ।२०। 
सन्दर्भ:-
(ब्रह्माण्डपुराण /पूर्वभागः/अध्यायः ३२)

सन्त' शब्द 'सत्' शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। इसका अर्थ है - साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा आदि अर्थ है।

सच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥  
(यथा -रघुःवंश महाकाव्य । १।१०। 

रघुवंशम्-1.10

श्लोकः-" तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥
अनुवाद:-
उस वंश को सुनने को सत्य असत्य का निर्णय करने वाले सन्त ही योग्य है। 
सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥

एक अन्य ग्रन्थ विश्वामित्रसंहिता- के अध्याय 27 के श्लोक 42 में "सन्त" की परिभाषा निम्नलिखित है।

एककालं बलेर्हानौ द्विगुणं च बलिं हरेत् ।
कुर्याच्च पूर्ववच्छेषमिति सन्तः प्रचक्षते ॥ 42॥
पहले भारत को बुद्ध के द्वारा जाना गया था परन्तु अब भविष्य में कृष्ण के द्वारा भारत को जाना जाएगा इस्कॉन के द्वारा कृष्ण दर्शन यूरोप में प्रतिष्ठित हो गया

अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ या इस्कॉन (अंग्रेज़ी: International Society for Krishna Consciousness - ISKCON; , को "हरे कृष्ण आन्दोलन" के नाम से भी जाना जाता है। इसे 1966 में न्यूयॉर्क नगर में भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने प्रारम्भ किया था।

ये कायस्थ बंगाली परिवार में जन्में थे।
इनके माता-पिता: श्रीमन गौड़ मोहन डे तथा श्रीमती रजनी डे थे।

डे या डे आमतौर पर बंगाली समुदाय द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक उपनाम है। डे/डे अंतिम नाम देब/देव या देवा से लिया गया है।

उपनाम मुख्य रूप से बंगाली कायस्थों के साथ जुड़ा हुआ है।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदान्त प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे।

प्रस्तुतिकरण:- साधक - माताप्रसाद सिंह  व  योगेश कुमार रोहि- सम्पर्क सूत्र-8077160219


यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता-9/25) 
अनुवाद:-
देवताओं का पूजन करनेवाले  देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को ही प्राप्त होते हैं।
परन्तु  हे अर्जुन!  मेरा पूजन करने वाले वैष्णव भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।

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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।
 -श्रीमद्भगवद्गीता-(18.66)
अनुवाद:-
सब धर्मां का परित्याग करके मुझ एक की शरण में आजा। मैं तुझे सारे पापों से छुड़ा दूँगा। तू  शोक मत कर।66।
     
            
  

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