शनिवार, 23 मार्च 2024

सृष्टिसर्जन खण्ड- सम्पूर्ण भाग- १

ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 5-

ब्रह्मा आदि कल्पों का परिचय, गोलोक में श्रीकृष्ण का नारायण आदि के साथ रास मण्डल में निवास, श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से श्रीराधा का प्रादुर्भाव; राधा के रोमकूपों से गोपांगनाओं का प्राकट्य तथा श्रीकृष्ण से गोपोंगौओं, बलीवर्दों, हंसों, श्वेत घोड़ों और सिंहों की उत्पत्ति; श्रीकृष्ण द्वारा पाँच रथों का निर्माण तथा पार्षदों का प्राकट्य; भैरव, ईशान और डाकिनी आदि की उत्पत्ति प्रचीन प्रकरण-
 
महर्षि शौनक के पूछने पर सौति कहते हैं – ब्रह्मन ! मैंने सबसे पहले ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन किया है। अब वाराह कल्प और पाद्म कल्प – इन दोनों का वर्णन करूँगा, सुनिये। मुने! ब्राह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन प्रकार के कल्प हैं; जो क्रमशः प्रकट होते हैं। जैसे सत्य युगत्रेताद्वापर और कलियुग– ये चारों युग क्रम से कहे गये हैं, वैसे ही वे कल्प भी हैं। तीन सौ साठ युगों का एक दिव्य युग माना गया है। इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है। चौदह मनुओं के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। ऐसे तीन सौ साठ दिनों के बीतने पर ब्रह्मा जी का एक वर्ष पूरा होता है। इस तरह के एक सौ आठ वर्षों की विधाता की आयु बतायी गयी है।

यह परमात्मा श्रीकृष्ण का एक निमेषकाल है। कालवेत्ता विद्वानों ने ब्रह्मा जी की आयु के बराबर कल्प का मान निश्चित किया है। छोटे-छोटे कल्प बहुत-से हैं, जो संवर्त आदि के नाम से विख्यात हैं। महर्षि मार्कण्डेय सात कल्पों तक जीने वाले बताये गये हैं; परंतु वह कल्प ब्रह्मा जी के एक दिन के बराबर ही बताया गया है। तात्पर्य यह है मार्कण्डेय मुनि की आयु ब्रह्मा जी के सात दिन में ही पूरी हो जाती है, ऐसा निश्चय किया गया है। ब्रह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन महाकल्प कहे गये हैं। इनमें जिस प्रकार सृष्टि होती है, वह बताता हूँ। सुनिये।

ब्राह्म कल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि-रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गयी थी, वाराह रूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि-रचना की; तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की, ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी नहीं। सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में मैंने यह काल-गणना बतायी है और किंचिन मात्र सृष्टि का निरूपण किया है। अब फिर आप क्या सुनना चाहते हैं?


ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 5-

ब्रह्मा आदि कल्पों का परिचय, गोलोक में श्रीकृष्ण का नारायण आदि के साथ रास मण्डल में निवास, श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से श्रीराधा का प्रादुर्भाव; राधा के रोमकूपों से गोपांगनाओं का प्राकट्य तथा श्रीकृष्ण से गोपोंगौओं, बलीवर्दों, हंसों, श्वेत घोड़ों और सिंहों की उत्पत्ति; श्रीकृष्ण द्वारा पाँच रथों का निर्माण तथा पार्षदों का प्राकट्य; भैरव, ईशान और डाकिनी आदि की उत्पत्ति प्रचीन प्रकरण-
 
महर्षि शौनक के पूछने पर सौति कहते हैं – ब्रह्मन ! मैंने सबसे पहले ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन किया है। अब वाराह कल्प और पाद्म कल्प – इन दोनों का वर्णन करूँगा, सुनिये। मुने! ब्राह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन प्रकार के कल्प हैं; जो क्रमशः प्रकट होते हैं। जैसे सत्य युगत्रेताद्वापर और कलियुग– ये चारों युग क्रम से कहे गये हैं, वैसे ही वे कल्प भी हैं। तीन सौ साठ युगों का एक दिव्य युग माना गया है। इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है। चौदह मनुओं के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। ऐसे तीन सौ साठ दिनों के बीतने पर ब्रह्मा जी का एक वर्ष पूरा होता है। इस तरह के एक सौ आठ वर्षों की विधाता की आयु बतायी गयी है।

यह परमात्मा श्रीकृष्ण का एक निमेषकाल है। कालवेत्ता विद्वानों ने ब्रह्मा जी की आयु के बराबर कल्प का मान निश्चित किया है। छोटे-छोटे कल्प बहुत-से हैं, जो संवर्त आदि के नाम से विख्यात हैं। महर्षि मार्कण्डेय सात कल्पों तक जीने वाले बताये गये हैं; परंतु वह कल्प ब्रह्मा जी के एक दिन के बराबर ही बताया गया है। तात्पर्य यह है मार्कण्डेय मुनि की आयु ब्रह्मा जी के सात दिन में ही पूरी हो जाती है, ऐसा निश्चय किया गया है। ब्रह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन महाकल्प कहे गये हैं। इनमें जिस प्रकार सृष्टि होती है, वह बताता हूँ। सुनिये।

ब्राह्म कल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि-रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गयी थी, वाराह रूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि-रचना की; तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की, ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी नहीं। सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में मैंने यह काल-गणना बतायी है और किंचिन मात्र सृष्टि का निरूपण किया है। अब फिर आप क्या सुनना चाहते हैं?
    

ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 5-

शौनक जी ने पूछा – सूतनन्दन! अब यह बताइये कि गोलोक में सर्वव्यापी महान परमात्मा गोलोक नाथ ने इस नारायण आदि की सृष्टि करके फिर क्या किया है? इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन करने की कृपा करें।

सौति ने कहा – ब्रह्मन! इन सबकी सृष्टि करके इन्हें साथ ले भगवान श्रीकृष्ण अत्यन्त कमनीय सुरम्य रासमण्डल में गये। रमणीय कल्पवृक्षों के मध्यभाग में मण्डलाकार रासमण्डल अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था। वह सुविस्तृत, सुन्दर, समतल और चिकना था। चन्दन, कस्तूरी, अगर और कुमकुम से उसको सजाया गया था। उस पर दही, लावा, सफेद धान और दूर्वादल बिखेरे गये थे। रेशमी सूत में गुँथे हुए नूतन चन्दन-पल्लवों की बन्दनवारों और केले के खंभों द्वारा वह चारों ओर से घिरा हुआ था। करोड़ों मण्डप, जिनका निर्माण उत्तम रत्नों के सारभाग से हुआ था, उस भूमि की शोभा बढ़ाते थे। उनके भीतर रत्नमय प्रदीप जल रहे थे। वे पुष्प और सुगन्ध की धूप से वासित थे। उनके भीतर अत्यन्त ललित प्रसाधन-सामग्री रखी हुई थी। वहाँ जाकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण सबके साथ उन मण्डपों में ठहरे।

मुनिश्रेष्ठ! उस रासमण्डल का दर्शन करके वे सब लोग आश्चर्य से चकित हो उठे। वहाँ श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से एक कन्या प्रकट हुई, जिसने दौड़कर फूल ले आकर उन भगवान के चरणों में अर्ध्य प्रदान किया। उसके अंग अत्यन्त कोमल थे। वह मनोहारिणी और सुन्दरियों में भी सुन्दरी थी। उसके सुन्दर एवं अरुण ओष्ठ और अधर अपनी लालिमा से बन्धुजीव पुष्प (दुपहरिये के फूल)– की शोभा को पराजित कर रहे थे। मनोहर दन्तपंक्ति मोतियों की श्रेणी को तिरस्कृत करती थी। वह सुन्दरी किशोरी बड़ी मनोहर थी। उसका सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमा के कोटि चन्द्रों की शोभा को छीन लेता था। सीमन्त भाग बड़ा मनोहर था। नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों के समान अत्यन्त सुन्दर दिखायी देते थे। उसकी मनोहर नासिका के सामने पक्षिराज गरुड़ की नुकीली चोंच हार मान चुकी थी। वह मनोहारिणी बाला अपने दोनों कपोलों द्वारा सुनहरे दर्पण की शोभा को तिरस्कृत कर रही थी। रत्नों के आभूषणों से विभूषित दोनों कान बड़े सुन्दर लगते थे। सुन्दर कपोलों में चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुमकुम और सिन्दूर की बूँदों से पत्र रचना की गयी थी, जिससे वह बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। उसके सँवारे हुए केश पाश मालती की माला से अलंकृत थे। वह सती-साध्वी बाला अपने सिर पर सुन्दर एवं सुगन्धित वेणी धारण करती थी। उसके दोनों चरणस्थल कमलों की प्रभा को छीन लेते थे। उसकी मन्द-मन्द गति हंस और खंजन के गर्व का गंजन करने वाली थी।
                    (२)


ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 5


वह उत्तम रत्नों के सार भाग से बनी हुई मनोहर वनमाला, हीरे का बना हुआ हार, रत्न निर्मित केयूर, कंगन, सुन्दर रत्नों के सार भाग से निर्मित अत्यन्त मनोहर पाशक (गले की जंजीर या कान का पासा), बहुमूल्य रत्नों का बना झनकारता हुआ मंजीर तथा अन्य नाना प्रकार के चित्रांकित सुन्दर जड़ाऊ आभूषण पहने हुए थी।

वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयी। उसकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।

मुने! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।

फिर तत्काल ही श्रीकृष्ण के रोमकूपों से नित्य सुस्थिर यौवन वाली गौएँ प्रकट हुईं, जिनके रूप-रंग अनेक प्रकार के थे। बहुतेरे बलीवर्द (साँड़), सुरभि जाति की गौएँ, नाना प्रकार के सुन्दर-सुन्दर बछड़े और अत्यन्त मनोहर, श्यामवर्ण वाली बहुत-सी कामधेनु गायें भी वहाँ तत्काल प्रकट हो गयीं। उनमें से एक मनोहर बलीवर्द को, जो करोड़ों सिंहों के समान बलशाली था, श्रीकृष्ण ने शिव को सवारी के लिये दे दिया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के चरणों के नखछिद्रों से सहसा मनोहर हंस-पंक्ति प्रकट हुई। उन हंसों में नर, मादा और बच्चे सभी मिले-जुले थे। उनमें से एक राजहंस को, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न था, श्रीकृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को वाहन बनाने के लिये अर्पित कर दिया।

तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के बायें कान के छिद्र से सफेद रंग के घोड़ों का समुदाय प्रकट हुआ, जो बड़ा मनोहर जान पड़ता था। उनमें से एक श्वेत अश्व गोपांगनावल्लभ श्रीकृष्ण ने देवसभा में विराजमान धर्म को सवारी के लिये प्रसन्नतापूर्वक दे दिया। फिर उन परम पुरुष के दाहिने कान के छिद्र से उस देवसभा के भीतर ही महान बलवान और पराक्रमी सिंहों की श्रेणी प्रकट हुई। श्रीकृष्ण ने उनमें से एक सिंह जो बहुमूल्य श्रेष्ठ हार से अलंकृत था, बड़े आदर के साथ प्रकृति (दुर्गा)– देवी को अर्पित कर दिया। उन्हें वही सिंह दिया गया, जिसे वे लेना चाहती थीं।
    
                      ( ३)

ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 5

इसके बाद योगीश्वर श्रीकृष्ण ने योगबल से पाँच रथों का निर्माण किया। वे सब शुद्ध एवं सर्वश्रेष्ठ रत्नों से बनाये गये थे। मन के समान वेग से चलने वाले और मनोहर थे। उनकी ऊँचाई लाख योजन की और विस्तार सौ योजन का था। उनमें लाख-लाख पहिये लगे थे। उनका वेग वायु के समान था। उन रथों में एक-एक लाख क्रीड़ा भवन बने हुए थे। उनमें श्रृंगारोचित भोग वस्तुएँ और असंख्य शय्याएँ थीं। उन गृहों में लाखों रत्नमय दीप प्रकाश फैलाते थे और लाखों घोड़े उस रथ की शोभा बढ़ाते थे। भाँति-भाँति के विचित्र चित्र उनमें अंकित थे।

सुन्दर रत्नमय कलश उनकी उज्ज्वलता बढ़ा रहे थे। रत्नमय दर्पणों और आभूषणों से वे सभी रथ (वाहन) भरे हुए थे। श्वेत चँवर उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। अग्नि में तपाकर शुद्ध किये गये सुनहरे वस्त्र, विचित्र-विचित्र माला, श्रेष्ठ मणि, मोती, माणिक्य तथा हीरों के हारों से वे सभी रथ अलंकृत थे। कुछ-कुछ लाल रंग के असंख्य सुन्दर कृत्रिम कमल, जो श्रेष्ठ रत्नों के सार भाग से निर्मित हुए थे, उन रथों को सुशोभित कर रहे थे।

द्विजश्रेष्ठ! भगवान श्रीकृष्ण ने उनमें से एक रथ तो नारायण को दे दिया और एक राधिका को देकर शेष सभी रथ अपने लिये रख लिये। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के गुह्य देश से पिंगल वर्ण वाले पार्षदों के साथ एक पिंगल पुरुष प्रकट हुआ। गुह्य देश से आविर्भूत होने के कारण वे सब गुह्यक कहलाये और वह पुरुष उन गुह्यकों का स्वामी कुबेर कहलाया, जो धनाध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित है। कुबेर के वामपार्श्व से एक कन्या प्रकट हुई, जो कुबेर की पत्नी हुई। वह देवी समस्त सुन्दरियों में मनोरमा थी, अतः उसी नाम से प्रसिद्ध हुई। फिर भगवान के गुह्य देश से भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस और विकृत अंग वाले वेताल प्रकट हुए।

मुने! तदनन्तर श्रीकृष्ण के मुख से कुछ पार्षदों का प्राकट्य हुआ, जिनके चार भुजाएँ थीं। वे सब-के-सब श्यामवर्ण थे और हाथों में शंखचक्रगदा एवं पद्म धारण करते थे। उनके गले में वनमाला लटक रही थी। उन सबने पीताम्बर पहन रखे थे, उनके मस्तक पर किरीट, कानों में कुण्डल तथा अन्यान्य अंगों में रत्नमय आभूषण शोभा दे रहे थे। श्रीकृष्ण ने वे चार भुजाधारी पार्षद नारायण को दे दिये। गुह्यकों को उनके स्वामी कुबेर के हवाले किया और भूत-प्रेतादि भगवान शंकर को अर्पित कर दिये।
   

                      ( ४)
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 5


तदनन्तर श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों से द्विभुज पार्षद प्रकट हुए, जो श्यामवर्ण के थे और हाथों में जपमाला लिये हुए थे। वे श्रेष्ठ पार्षद निरन्तर आनन्दपूर्वक भगवान के चरणकमलों का ही चिन्तन करते थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें दास्यकर्म में नियुक्त किया। वे दास यत्नपूर्वक अर्घ्य लिये प्रकट हुए थे। वे सभी श्रीकृष्ण परायण वैष्णव थे। उनके सारे अंग पुलकित थे, नेत्रों से अश्रु झर रहे थे और वाणी गद्गद थी। उनका चित्त केवल भगवत चरणारविन्दों के चिन्तन में ही संलग्न रहता था।

इसके बाद श्रीकृष्ण के दाहिने नेत्र से भयंकर गण प्रकट हुए, जो हाथों में त्रिशूल और पट्टिश लिये हुए थे। उन सब के तीन नेत्र थे और मस्तक पर चन्द्राकार मुकुट धारण करते थे। वे सब-के-सब विशालकाय तथा दिगम्बर थे। प्रज्वलित अग्निशिखा के समान जान पड़ते थे। वे सभी महान भाग्यशाली भैरव कहलाये। वे शिव के समान ही तेजस्वी थे। रुरुभैरवसंहारभैरवकालभैरवअसितभैरवक्रोधभैरवभीषणभैरवमहाभैरव तथा खटवांगभैरव – ये आठ भैरव माने गये हैं।

श्रीकृष्ण के बायें नेत्र से एक भयंकर पुरुष प्रकट हुआ, जो त्रिशूल, पट्टिश, व्याघ्रचर्ममय वस्त्र और गदा धारण किये हुए था। वह दिगम्बर, विशालकाय, त्रिनेत्रधारी और चन्द्राकार मुकुट धारण करने वाला था। वह महाभाग पुरुष ‘ईशान’ कहलाया, जो दिक्पालों का स्वामी है। इसके बाद श्रीकृष्ण की नासिका के छिद्र से डाकिनियाँयोगिनियाँ तथा सहस्रों क्षेत्रपाल प्रकट हुए। 


देवों औरलगोपों की उत्पत्ति में स्थान विशेष का भेद होने से दोनो समान महिमा वले
 नहीं हैं गोपों का स्थान देवों से उच्च है गोप भगवान श्रीकृष्ण के हृदय के  रोमकूपों से  कोशिका विधि से उत्पन्न होने के कारण सम्पूर्ण कृष्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं । जबकि देव गण पीठ( पृष्ठ) देश से उत्पन्न होने से कृष्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

इनके सिवा उन परम पुरुष के पृष्ठ देश से सहसा तीन करोड़ श्रेष्ठ देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ, जो दिव्य मूर्तिधारी थे।
    


                   ( ५)

ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 6-
श्रीकृष्ण का नारायण आदि को लक्ष्मी आदि का पत्नी रूप में दान, महादेव जी का दार-संयोग में अरुचि प्रकट करके निरन्तर भजन के लिये वर माँगना तथा भगवान का उन्हें वर देते हुए उनके नाम आदि की महिमा बताकर उन्हें भविष्य में शिवा से विवाह की आज्ञा देना तथा शिवा आदि को मन्त्रादि का उपदेश करना

सौति कहते हैं– तदनन्तर श्रीकृष्ण ने श्रेष्ठ रत्नों की माला के साथ महालक्ष्मी और सरस्वती– इन दो देवियों को भी नारायण के हाथ में सादर समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् ब्रह्मा जी को सावित्री, धर्म को मूर्ति, कामदेव को रूपवती रति और कुबेर को मनोरमा सादर प्रदान की। इसी तरह अन्यान्य स्त्रियों को भी पतियों के हाथ में दिया। जो-जो स्त्री जिस-जिससे प्रकट हुई थी, उस-उस रूपवती सती को उसी-उसी पति के हाथों में अर्पित किया।

तदनन्तर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ने योगियों के गुरु शंकर जी को बुलाकर प्रिय वाणी में कहा– ‘आप देवी सिंहवाहिनी को ग्रहण करें।’ श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर नीललोहित शिव हँसे और डरते हुए विनीत भाव से उन प्राणेश्वर प्रभु अच्युत से बोले। महादेव जी ने पहले प्रकृति के दोष बताकर उसे ग्रहण न करने की इच्छा प्रकट की। फिर इस प्रकार कहा–

श्री महेश्वर बोले – "नाथ! मुझे गृहिणी नहीं चाहिये। मुझे तो मनचाहा वर दीजिये। जिस सेवक को जो अभीष्ट हो, श्रेष्ठ स्वामी उसे वही वस्तु देते हैं। मैं आपकी भक्ति में लगा रहूँ, आपके चरणों की दासता– सेवा करता रहूँ यह लालसा मेरे हृदय में निरन्तर बढ़ रही है। आपके नाम-जप से, आपके चरणकमलों की सेवा से मुझे कभी तृप्ति नहीं होती है। मैं सोते-जागते हर समय अपने पाँच मुखों से आपके नाम और गुणों का, जो मंगल के आश्रय हैं, निरन्तर गान करता हुआ सर्वत्र विचरा करता हूँ। मेरा मन कोटि-कोटि कल्पों तक आपके स्वरूप का ध्यान करने में ही तत्पर रहे। भोगेच्छा में नहीं, यह योग और तपस्या में ही संलग्न रहे।

आपकी सेवा, पूजा, वन्दना और नाम-कीर्तन में ही इसे सदा उल्लास प्राप्त हो। इनसे विरत होने पर यह उद्विग्न हो उठे। सम्पूर्ण वरों के ईश्वर! आपके नाम और गुणों का स्मरण, कीर्तन, श्रवण, जाप, आपके मनोहर रूप का ध्यान, आपके चरणकमलों की सेवा, आपकी वन्दना, आपके प्रति आत्मसमर्पण और नित्य आपके नैवेद्य (प्रसाद) का भोजन– यह जो नौ प्रकार की भक्ति है, उसी को मुझे श्रेष्ठ वरदान मानकर दीजिये।

                       (६)

ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड : अध्याय 6 प्रभो! सार्ष्टि[1], सालोक्य[2], सारूप्य[3], सामीप्य[4], साम्य[5] और लीनता[6]– मुक्त पुरुष ये छः प्रकार की मुक्तियाँ बताते हैं। अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञता, दूरश्रवण, परकायप्रवेश, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, सृष्टिशक्ति, संहारशक्ति, अमरत्व और सर्वाग्रगण्यता – ये अठारह सिद्धियाँ मानी गयी हैं। सर्वेश्वर! योग, तप, सब प्रकार के दान, व्रत, यश, कीर्ति, वाणी, सत्य, धर्म, उपवास, सम्पूर्ण तीर्थों में भ्रमण, स्नान, आपके सिवा अन्य देवता का पूजन, देव प्रतिमाओं का दर्शन, सात द्वीपों की परिक्रमा, समस्त समुद्रों में स्नान, सभी स्वर्गों के दर्शन, ब्रह्मपद, रुद्रपद, विष्णुपद तथा परमपद– ये तथा और भी जो अनिर्वचनीय, वांछनीय पद हैं, वे सब-के-सब आपकी भक्ति के कलांश की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं। महादेव जी का यह वचन सुनकर भगवान श्रीकृष्ण हँसे और उन योगिगुरु महादेव जी से यह सर्वसुखदायक सत्य वचन बोले– श्रीभगवान ने कहा – सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सर्वेश्वर शिव! तुम पूरे सौ करोड़ कल्पों तक निरन्तर दिन-रात मेरी सेवा करो। सुरेश्वर! तुम तपस्वीजनों, सिद्धों, योगियों, ज्ञानियों, वैष्णवों तथा देवताओं में सबसे श्रेष्ठ हो। शम्भो! तुम अमरत्व लाभ करो और महान मत्युंजय हो जाओ। मेरे वर से तुम्हें सब प्रकार की सिद्धियाँ, वेदों का ज्ञान और सर्वज्ञता प्राप्त होगी। वत्स! तुम लीलापूर्वक असंख्य ब्रह्माओं का पतन देखोगे। शिव! आज से तुम ज्ञान, तेज, अवस्था, पराक्रम, यश और तेज में मेरे समान हो जाओ। तुम मेरे लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। तुमसे बढ़कर मेरा कोई प्रिय भक्त नहीं है– त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मनः परः । ये त्वां निन्दन्ति पापिष्ठा ज्ञानहीना विचेतनाः । पच्यन्ते कालसूत्रेण यावच्चन्द्रदिवाकरौ । शिव! तुमसे बढ़कर अत्यन्त प्रिय मेरे लिये दूसरा नहीं है। तुम मेरी आत्मा से बढ़कर हो। जो पापिष्ठ, अज्ञानी और चेतनाहीन मनुष्य तुम्हारी निन्दा करते हैं, वे तब तक कालसूत्र नरक में पकाये जाते हैं, जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता रहती है।

                     ( ७)

ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 6


शिव! तुम सौ कोटि कल्पों के पश्चात् शिवा को ग्रहण करोगे। मेरा वचन कभी व्यर्थ नहीं होता। तुम्हें इसका पालन करना चाहिये। तुम मेरे और अपने वचन का भी पालन करो।

शम्भो! तुम प्रकृति (दुर्गा)– को ग्रहण करके दिव्य सहस्र वर्षों तक महान सुख एवं श्रृंगाररस का आस्वादन करोगे, इसमें संशय नहीं है। तुम केवल तपस्वी नहीं हो। मेरे समान ही महान ईश्वर हो। जो स्वेच्छामय ईश्वर है, वह समयानुसार गृही, तपस्वी और योगी हुआ करता है।

शिव! दार-संयोग (पत्नी-परिग्रह) में तुमने जो दुःख बताया है, उसके विषय में मैं यह कहना चाहता हूँ कि कुलटा स्त्री ही स्वामी को दुःख देती है, पतिव्रता नहीं। जो महान कुल में उत्पन्न हुई है, कुलीन एवं कुल-मर्यादा का पालन करने वाली है, वह स्नेहपूर्वक उसी तरह पति का पालन करती है, जैसे माता उत्तम पुत्र का। पति पतित हो या अपतित, दरिद्र हो या धनवान-कुलवती स्त्री के लिये वही बन्धु, आश्रय और देवता है। जो नीच कुल में उत्पन्न हुई है, जिनमें माता-पिता के बुरे शील, स्वभाव और आचरण का सम्मिश्रण हुआ है तथा जो परपुरुषों के उपभोग में आने वाली हैं, अवश्य वे ही स्त्रियाँ सदा पति की निन्दा करती हैं। जो पति को हम दोनों से भी बढ़कर देखती और समझती है, वह सती-साध्वी स्त्री गोलोक में अपने स्वामी के साथ कोटि कल्पों तक आनन्द भोगती है।

शिव! वह वैष्णवी प्रकृति शिव प्रिया होकर तुम्हारे लिये कल्याणमयी होगी। अतः मेरी आज्ञा से लोक-कल्याण के निमित्त उस साध्वी को भार्यारूप से ग्रहण करो।

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने शिवलिंग के स्थापन और पूजन का महान फल बतलाते हुए कहा– जो ‘महादेव’, ‘महादेव’ और ‘महादेव’ का उच्चारण करता है, उसके पीछे मैं उस नाम-श्रवण के लोभ से अत्यन्त भयभीत की भाँति जाता हूँ। जो मनुष्य ‘शिव’ शब्द का उच्चारण करके प्राणों का परित्याग करता है, वह कोटि जन्मों के उपार्जित पाप से मुक्त हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ‘शिव’ शब्द कल्याण का वाचक है और ‘कल्याण’ शब्द मुक्ति का। शिव के उच्चारण से मोक्ष या कल्याण की प्राप्ति होती है, इसीलिये महादेव जी को शिव कहा गया है।[1] धन और भाई-बन्धुओं का वियोग होने पर जो शोक-सागर में डूब गया हो, वह मनुष्य शिव शब्द का उच्चारण करके सर्वथा कल्याण का भागी होता है। ‘शि’ पापनाशक अर्थ में है और ‘व’ मोक्षदायक अर्थ में। महादेव जी मनुष्यों के पापहन्ता और मोक्षदाता हैं। इसलिये उन्हें शिव कहा गया है। जिसकी वाणी में शिव- यह मंगलमय नाम विद्यमान है, उसके करोड़ों जन्मों का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है।

                    (८)

ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड : अध्याय 6 शूलधारी महादेव जी से ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कल्पवृक्ष-मन्त्र और मृत्युंजय-तत्त्वज्ञान दिया। तत्पश्चात् वे सिंहवाहिनी दुर्गा से बोले– श्री भगवान ने कहा – वत्से! इस समय तुम गोलोक में मेरे पास रहो। फिर समय आने पर कल्याण के आश्रय भूत मंगलदाता शिव को पति रूप में प्राप्त करोगी। सुमुखि! सम्पूर्ण देवताओं के तेजःपुंज से प्रकट हो समस्त दैत्यों का संहार करके तुम सबके द्वारा पूजित होओगी। तदनन्तर कल्प-विशेष में सत्य युग आने पर तुम दक्षकन्या सती होओगी और शिव की सुशीला गृहिणी बनोगी। फिर यज्ञ में अपने स्वामी की निन्दा सुनकर शरीर का त्याग कर दोगी और हिमवान की पत्नी मेना के गर्भ से जन्म लेकर पार्वती नाम से विख्यात होओगी। उस समय सहस्र दिव्य वर्षों तक तुम शिव के साथ विहार करोगी। तत्पश्चात् तुम सर्वदा के लिये पति के साथ पूर्णतः अभिन्नता प्राप्त कर लोगी। सुरेश्वरि! प्रतिवर्ष प्रशस्त समय में समस्त लोकों में तुम्हारी शरत्कालिक पूजा होगी। गाँवों और नगरों में तुम ग्रामदेवता के रूप में पूजित होओगी तथा विभिन्न स्थानों में तुम्हारे पृथक-पृथक मनोहर नाम होंगे। मेरी आज्ञा से शिव रचित नाना प्रकार के तन्त्रों द्वारा तुम्हारी पूजा की जायगी। मैं तुम्हारे लिये स्तोत्र और कवच का विधान करूँगा। तुम्हारे सेवक ही महान और सिद्ध होंगे तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप फल के भागी होंगे। मातः! पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में जो तुम्हारी सेवा-पूजा करेंगे, उनके यश, कीर्ति, धर्म और ऐश्वर्य की वृद्धि होगी। प्रकृति से ऐसा कहकर भगवान ने उसे कामबीज (क्लीं) सहित एकादशाक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया, जो परम उत्तम मन्त्रराज कहा गया है। फिर विधिपूर्वक ध्यान का उपदेश दिया तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये श्री (श्रीं), माया (ह्लीं) तथा काम (क्लीं) बीजसहित दशाक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया। साथ ही सृष्टि के लिये उपयोगी शक्ति और मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाली सम्पूर्ण सिद्धि देकर भगवान ने प्रकृति को उत्कृष्ट तत्त्वज्ञान भी प्रदान किया। इस तरह उसे त्रयोदशाक्षर-मन्त्र देकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने शिव को भी स्तोत्र और कवच दिया। ब्रह्मन! फिर धर्म को भी वही मन्त्र और वही सिद्धि एवं ज्ञान देकर कामदेव, अग्नि और वायु को भी मन्त्र आदि का उपदेश दिया। इसी प्रकार कुबेर आदि को मन्त्र आदि का उत्तम उपदेश देकर विधाता के भी विधाता भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के लिये ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले– श्री भगवान ने

कहा – महाभाग विधे! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिये तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरम माला दी। फिर गोप-गोपियों के साथ वे नित्य-नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गये।

                 (९)
ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 7


सृष्टि का क्रम– ब्रह्मा जी के द्वारा मेदिनीपर्वतसमुद्र, द्वीप, मर्यादा पर्वत, पातालस्वर्ग आदि का निर्माण; कृत्रिम जगत की अनित्यता तथा वैकुण्ठशिवलोक तथा गोलोक की नित्यता का प्रतिपादन
 
सौति कहते हैं– शौनक जी! तब भगवान की आज्ञा के अनुसार तपस्या करके अभीष्ट सिद्धि पाकर ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम मधु और कैटभ के मेदे से मेदिनी की सृष्टि की। उन्होंने आठ प्रधान पर्वतों की रचना की। वे सब बड़े मनोहर थे। उनके बनाये हुए छोटे-छोटे पर्वत तो असंख्य हैं, उनके नाम क्या बताऊँ? मुख्य-मुख्य पर्वतों की नामावली सुनिये– सुमेरुकैलासमलयहिमालयउदयाचलअस्ताचलसुवेल और गन्धमादन – ये आठ प्रधान पर्वत हैं। फिर ब्रह्मा जी ने सात समुद्रों, अनेकानेक नदों और कितनी ही नदियों की सृष्टि की। वृक्षों, गाँवों और नगरों का निर्माण किया। समुद्रों के नाम सुनिये– लवणइक्षुरससुराघृतदहीदूध और सुस्वादु जल के वे समुद्र हैं। उनमें से पहले की लंबाई-चौड़ाई एक लाख योजन की है। बाद वाले उत्तरोत्तर दुगुने होते गये हैं। इन समुद्रों से घिरे हुए सात द्वीप हैं। उनके भूमण्डल कमल पत्र की आकृति वाले हैं। उनमें उपद्वीप और मर्यादा पर्वत भी सात-सात ही हैं।

ब्रह्मन! अब आप उन द्वीपों के नाम सुनिये, जिनकी पहले ब्रह्मा जी ने रचना की थी। वे हैं–जम्बूद्वीपशाकद्वीपकुशद्वीपप्लक्षद्वीपक्रौंचद्वीपन्यग्रोध (अथवा शाल्मलि) द्वीप तथा पुष्करद्वीप। भगवान ब्रह्मा ने मेरु पर्वत के आठ शिखरों पर आठ लोकपालों के विहार के लिये आठ मनोहर पुरियों का निर्माण किया। उस पर्वत के मूलभाग–पाताल लोक में उन्होंने भगवान अनन्त (शेषनाग) की नगरी बनायी। तदनन्तर लोकनाथ ब्रह्मा ने उस पर्वत के ऊपर-ऊपर सात स्वर्गों की सृष्टि की।शौनक जी! उन सबके नाम सुनिये– भूर्लोकभुवर्लोक, परम मनोहर स्वर्लोकमहर्लोकजनलोकतपोलोक तथा सत्यलोक

मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर जरा-मृत्यु आदि से रहित ब्रह्मलोक है। उससे भी ऊपर ध्रुवलोक है, जो सब ओर से अत्यन्त मनोहर है। जगदीश्वर ब्रह्मा जी ने उस पर्वत के निम्न भाग में सात पातालों का निर्माण किया। मुने! वे स्वर्ग की अपेक्षा भी अधिक भोग-साधनों से सम्पन्न हैं और क्रमशः एक से दूसरे उत्तरोत्तर नीचे भाग में स्थित हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं– अतलवितलसुतलतलातलमहातलपाताल तथा रसातल। सबसे नीचे रसातल ही है। सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल– इन लोकों सहित जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, वह ब्रह्मा जी के ही अधिकार में है।

शौनक! ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और महाविष्णु के रोमांच-विवरों में उनकी स्थिति है। श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में दिक्पालब्रह्माविष्णु और महेश्वर हैं, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणी स्थित हैं। इन ब्रह्माण्डों की गणना करने में न तो लोकनाथ ब्रह्मा, न शंकर, न धर्म और न विष्णु ही समर्थ हैं; फिर और देवता किस गिनती में हैं? विप्रवर! कृत्रिम विश्व तथा उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य तथा स्वप्न के समान नश्वर हैं। वैकुण्ठशिवलोक तथा इन दोनों से परे जो गोलोक है, ये सब नित्य-धाम हैं। इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है। ठीक उसी तरह, जैसे आत्माआकाश और दिशाएँ कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं।


    

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