भारतीय ग्रन्थों में भी कुछ मिलाबटें और जोड़ तोड़ की प्रक्रिया की गयी परिणाम स्वरूप शास्त्रीय सिद्धान्तों की तौहीन हुई ।
संसार का सबसे पवित्र पशु गाय और भैंस हैं ।
इनका मल मूत्र भी पवित्र करने लिए भारतीय संस्कृति में उपयोग में लिया जाता है ।जिस चौक में भगवान की लीलामयी कथाऐं कही जाती है अथवा को धार्मिक अनुष्ठान होता है उस चौक को भी गाय या भैंस के गोबर से ही लीपा जाता है।
दोनों ही सजातीय और बहिने बहिने हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में दोनों को कश्यप की पत्नी सुरभि की सन्तान बताया गया है।
गाय पालने वाले गोप अथवा आभीर जाति से सम्बन्धित लोग रहे हैं ।
शास्त्रों में गाय के विषय में बताया गया है। कि
भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि पीत्वा तोयं
जलाशयात् ।
दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥
अर्थ:- रूखे सूखे घास के तिनके खाकर और जलाशय से जल पीकर संसार को दूध पिलाने वाली गाय विश्व की माता है। जिसके दूध से हम शरीर का पोषण करते हैं।
गोप लोग उस गाय का पालन करते हैं जो गाय सारे संसार को अपने दूध दही मट्ठा और घृत( घी) से पालतू है।
उन गोपों की महानता को भुलाकर उनको वैश्य अथवा शूद्र वर्ण में पुरोहितों द्वारा निर्धारित करना
केवल द्वेष जलन और झूँठ का प्रसारण है।
यदि गोप गाय या भैंस पालने से वैश्य या शूद्र हैं।
तो वैश्य अथवा शूद्र के वर्णगत कर्म विधान होते हैं।
परन्तु गोपों ने वर्णव्यवस्था से परे होकर सभी संसार के कर्म या व्यवसाय किए हैं।
नारायणी सेना के सभी योद्धा गोप अथवा अहीर जाति के थे।
कृष्ण ने गोप रूप में ही गायें भी चराईं युद्ध भी किया गीता का ज्ञान भी दिया और युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में लोगों द्वारा भोजन पश्चात उनके उच्छिष्ठ पात्र( पत्तलें) भी उठाईं।
इसी सन्दर्भ में हम एक शास्त्रीय विधान का वर्णन करते हैं जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है।
मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है अथवा
वर्णित है।
जो परिव्राटमुनि और राजा दिष्ट के संवाद के प्रसंग में है।
( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है;
और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।।30।।
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ||30||
उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य कभी युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ किसी क्षत्रिय के द्वारा युद्ध नही किया जा सकता है ।
तो फिर यह यहाँ यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे यदि वैश्य वर्ण में मान लिए जाऐं तो नारायणी सेना के रूप में वे युद्ध जो क्षत्रियोचित कर्म है उसको क्यों करते इस लिए वे वैश्य कहाँ हुए ?
क्योंकि वे तो नित्य युद्ध करते थे।
इस लिए गोपों को वैश्य अथवा शूद्र मानने वाले स्वयं ही वर्णसंकर प्रजाति के हैं।
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