सोमवार, 24 जुलाई 2023

विष्णु गोप-

गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीनत्तम प्रसंग ऋग्वेद मैं प्राप्त होता है। कथाओ- प्रागैतिहासिक दौर की हैं सम्भव है कुछ तो इनके उपाख्यानों में  व्यतिक्रम हुआ ही होगा परन्तु इन प्राचीन पात्रों के अस्तित्व को खारिज नहीं किया जा सकता तथा यह भी मानना ही पड़ेगा कि भारतीय संस्कृति में  "शक्ति" "भक्ति"  "सौन्दर्य" और "ज्ञान" की जो अधिष्ठात्री देवीयाँ हुई हैं। उनका जन्म  भी अहीर जाति में  लेने का वर्णन भारतीय शास्त्रों में वर्णित हुआ है।

स्वयं भगवान विष्णु आभीर जाति में मानव रूप में जब -जब अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" दुर्गा "गायत्री" और उर्वशी" आदि को भी इन अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त  'गोप', 'गोपति' और बहुवचन में  'गोपा:' जैसे विशेषण-शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है।
इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप से परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने की सूचना ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में प्राप्त होता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही विष्णु को वैदिक सन्दर्भों गोप विशेषण से अभिहित किया गया है।

'त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
 (ऋग्वेद १/२२/१८)
पदों का अर्थ व अन्वय:-
(अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र  (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालकों के रूप, (विष्णुः) संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि) धर्मों को धारण करते हैं॥18॥
विशेष:- गोपों अथवा चावाहों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है।  चाहें वह इजराएल अथवा फलिस्तीन  हो अथवा भारत भगवान विष्णु ही गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णु देव का प्रमाण सुमेरियन संस्कृति में भी प्राप्त होता है।

प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन पिस्क-नु के बराबर माना जाता है, और " जल के बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा। और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी सूर्य-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है। ।
वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है !
इस संकेत को" वृद्धि हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गानू, बी, 6925) कहा जाता है, जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, संस्कृत व्याकरणिक शब्द गत के साथ समान रूप से होता है।

विसारः, पुं० रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ + “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ” ३ । ३ । १७ ।
इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)।
इति अमर कोश ॥
विसार शब्द ऋग्वेद में आया है ।
जो मत्स्य का वाचक है ।👇


आभीर  लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में जन्म लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक हैं :-जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
___________________________________
अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा(अवतारं करिष्येहं  ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
शास्त्र में लिखा है कि  वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है। 
क्यों कि ये गोप विष्णु के रोमकूपों से विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुए है। गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक(अलग)है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से इसी लिए गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट( included)
 
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
"तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४/५-६
भावार्थ
'विष्णुर्गोपा' अदाभ्यः (ऋग्वेद १/२२/१८)   
तात्पर्य:- विष्णु  गोप का दमन अथवा हिंसा नही की सकती हैं, वे गोपाल हैं, रक्षक हैं और उनके गोलोक धाम में बड़े सींगों वाली गायें रहती हैं - 

'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि     नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।  
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें  त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या  भगवत्   कहा  जाता है।     

इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी      जाना जाता है -                                          जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत्।              श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है।उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है'परब्रह्म तु कृष्णो हि'
(सिद्धान्त मुक्तावली-३)                           वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।

भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं  और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति  परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि  और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ। तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार  पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध -ये चार व्यूह माने गये हैं।                                
राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। 

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह  दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में  वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है।
यह उसी परम्परा अवशेष हैं। 

गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए
स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। 

गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है। 
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे 

 इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी 
 के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं । उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से वे  सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में यह महाशक्ति अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की  कन्या के रूप में जन्म लिया और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं ।  विष्णु अथवा नारायण के उर जंघा अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया । प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं।

"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी ।      ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
उर्वरा एक अन्य अप्सरा का नाम है।
और उर्वशी एक अन्य दूसरी अप्सरा का नाम है।

"उर्वशी मेनका रंभा चन्द्रलेखा तिलोत्तमा ।
वपुष्मती कान्तिमती लीलावत्युपलावती ।९१।
अलम्बुषा गुणवती स्थूलकेशी कलावती ।
कलानिधिर्गुणनिधिः कर्पूरतिलक- उर्वरा ।९२।
सन्दर्भ:-
"श्रीस्कांदमहापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्धे अप्सरः सूर्यलोकवर्णनंनामनवमोऽध्यायः।९।
तथा 
लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः १ (कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः ४५६ में श्लोक संख्या 92 में भी यह श्लोक है।
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सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है!  इसी कारण 
स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।

"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।

"ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।

ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।

ततश्चाऽप्सरसां लोकः स्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।

वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।

दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।

कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।

नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।

लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
"स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्याय(9)

प्रस्तुतिकरण:-
यादव  योगेश कुमार रोहि-

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