गुरुवार, 27 जुलाई 2023

गाय , भैंस और अहीरों का वर्ण वैष्णव-

"गोमहिष्यादि यत्किञ्चित्तत्सर्वं कर्षयेतन्नृपते न वस्त्रादिभि: सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्।२५०। 
- महर्षि पुलस्त्य भीष्म को सतयुग के प्राचीन इतिहास की बात बताते हैं । और  इसी ऐतिहासिक संवाद को सूत जी राजा जनमेजय को सुनाते हैं ।
अतः यहाँ नृपते ! इस पद का सम्बोधन कारक में प्रयोग हुआ है - और इस श्लोक मेंं गाय के साथ महिषी( भैंस) शब्द भी विचारणीय है कि सतयुग में भी आभीर जनजाति के लोग गाय-भैंस दोनों ही सजातीय पशुओं को पालते थे ।

अर्थ– गाय भैंस जो कुछ भी है वह सब वस्त्रादि से सुसज्जित करके तोरण –अर्थात् (बहिर्द्वार) पर प्रतिष्ठित करें।
विशेषतः वह द्वार जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार तथा मालओं और पताकाओं आदि से सजाया गया हो । 
प्राय: शोभा या सजावट के लिए बनाए जाने वाला अस्थायी स्वागत-द्वार होते थे। 

पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का दो सौ पचासवाँ श्लोक ) गाय और भैंस की समान रूप से प्रशंसा करता है ।
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गाय और भैंस सदैव यादवों की पाल्या ( पालने योग्य) रहीं थीं और भारतीय पुराणों में दोैनों पशुओं को सजातीय और सुरभि गाय की सन्तान कहा गया है जो सुरभि भगवान कृष्ण के वाम भाग से ही गोलोकधाम उत्पन्न हुई थीं। इस लिए भी गाय भैंस का गोपों से सनातन सम्बन्ध है।
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महाभारत का खिलभाग (हरिवंशपुराण) में भी गोवर्धन प्रकरण में गोवर्धन- यजन समारोह के अवसर पर जो पशु  जैसे महिषी( भैंस) आदि भोजन करने योग्य थे  उनका पूजन किया और समस्त गोप समुदाय को  उनकी पूजा में जुट जने का आदेश कृष्ण के द्वारा  दिया गया था। 
देखें हरिवंश पुराण का निम्न श्लोक-
"विशस्यन्तां च पशवो भोज्या  ये महिषादयः। प्रवर्त्यतां च यज्ञोऽयं सर्वगोपसुसंकुलः ।१५।
शब्दार्थ:- विशस्यन्तां=   अभ्यर्चना की जाए ।  च= और।  ये महिषादयः   भोज्या= जो भैंस गाय आदि पशु  हैं जिन्होंने अभी भोजन नहीं किया है अर्थात् जो भोजन करने योग्य है उन्हें भोजन कराय जाए। प्रवर्त्यतां= प्रारम्भ किया जाए। यज्ञोऽयं = यह यजन कार्य। सर्वगोपसुसंकुलः = सभी गोप समुदाय ।

(हरिवंश पुराण विष्णु पर्व 17 वा अध्याय)

प्रसंग - इन्द्र की यज्ञ बन्द कराकर कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत का यज्ञ कराया था उसका ही यहाँ वर्णन है।
अर्थ-
भोजन कराने योग्य जो भैंस-गाय आदि व्रज के पशु हैं, उनकी बड़ी अभ्यर्चना (सम्मान सत्कार) करें और साथ ही उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायँ और इस प्रकार समस्त गोपों के सहयोग से सम्पन्न होने वाले इस गोवर्द्धन गिरि की  यज्ञ का आरम्भ किया जाये।१५।
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महिषी की कभी पूज्या रही होगी इसी कारण से प्राचीन काल में पौराणिक ऋषियों ने इसको महिषी संज्ञा दी होगी -क्योंकि महिला" महिमा" और महिमान्य जैसे शब्द (मह्=पूजा करना)धातु से व्युत्पन्न हैं। महिषी शब्द भी इसी मह्= पूजा करना! धातु से उत्पन्न है।
 
मंहति पूजयति लोका तस्या: इति महिषी नाम: ख्यातो" के रूप में इस शब्द की व्युत्पत्ति (महि + “ अधिमह्योष्टिषच् / ड़ीष् )  “ उणादि सूत्र से मह्=पूजायाम् धातु में "टिषच्" और स्त्रीलिंग में "ड़ीष्" प्रत्यय लगाने से महिषी शब्द सिद्ध होता है । १ । ४६ । स्वनामख्यातपशुविशेषः । 
सन्दर्भ•
(हरिवंशपुराण हरिवंशपर्व के १७ वाँ अध्याय )

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और अन्यत्र भी ब्रह्मपुराण के अध्याय (190) के अन्तर्गत कंस -अक्रूर संवाद में कंस अक्रूर जी को गोकुल में नन्द के पास कृष्ण और बलराम को अपने साथ लाने के लिए तथा गोपों से महिषी ( भैंस) के उत्तम घृत और दधि को उपहार स्वरूप पाने की बात कहता है । देखे वह श्लोक-

"तदा निष्कंटकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीरगम्यताम् ।२१।
यथा च माहिषं सर्पिर्दधिचाप्युपहार्य वैै।
गोपास्समानयंत्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते।२२।

यही श्लोक विष्णु पुराण में भी है।
"तदा निष्कण्टकं सर्वंराज्यमे तदयादवम्। प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीर गम्यताम्।। २१। श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५)
"यथा च महिषीं सर्पदधि चाप्युपहार्य वै ।             गोपास्समानयन्त्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते।२२। 
श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५ )
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ये ही श्लोक ब्रह्म पुराण के १९० वें अध्याय में कुछ अन्तर के साथ हैं ।

ततो निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्या वीर गम्यताम्।। १९०.१८ ।।

यथा च महिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै।
गोपाः समानयन्त्याशु त्वया वाच्यास्तथा तथा।। १९०.१९ ।।
{-ब्रह्मपुराणअध्याय-(१९०)

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अर्थ-
तत्पश्चात आपके अतिरिक्त ( अक्रूर) समस्त गोकुल वासी यादवों के बध का उपक्रम करुँगा ।  तब सम्पूर्ण राज्य का शासन आप की कृपा से  निष्कण्टक होकर कर भोग सकुँगा ।   हे वीर मेरी प्रसन्नता के लिए आप गोकुल जायें और वे गोप जल्दी ही भैंस का सर्पि (घी) और दहि आदि उपहार स्वरूप लेकर आयें  आप उनसे ऐसा कहना।१९।।
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विष्णु पुराण में पाराशर वक्ता हैं तो ब्रह्म पुराण में व्यास जी को वक्ता बना दिया गया है ।

                श्रीपराशर उवाच
इत्याज्ञप्तस्तदाऽक्रूरो महाभागवतो द्विज
प्रीतिमानभवत्कृष्णं श्वो द्रक्ष्यामीति सत्वरः ।२३।

तथेत्युक्त्वा च राजानं रथमारुह्य शोभनम्
निश्चक्राम ततः पुर्य्या मथुराया मधुप्रियः ।२४।
 (श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५ )

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ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वाँ श्लोक में गाय और भैंस दौनों बहिनों की उत्पत्ति एक ही माता से हुई है ।

सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।

ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वाँ श्लोक  तथा इसी अध्याय नवम का ४६ वाँ श्लोक भी है इसी तथ्य को सूचित करता है ।
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"गावश्चमहिषाश्चैवसुरभि प्रवरा इमे।
सर्वे वै सारमेयाश्च बभूवुः सरमासुताः।४६।

जो सिद्ध करते हैं की गाय और भैंस सजातीय और सहोदरा( सगी) बहिनें हैं ।

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और चमत्कार तो तब हुआ जब भैंस की प्रतिष्ठा गाय से भी बढ़कर हुई ।
नारद पुराण का निम्न श्लोक यही प्रकाशित करता है ।
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महिषीदो जयत्येव ह्यपमृत्युं न संशयः
गवां तृणप्रदानेन रुद्र
 लोकमवाप्नुयात्।११२।
(नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय)
अर्थ-
महिषी दान करने से अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है इसमें कोई संशय नहीं और गाय को चारा देने से रूद्र (शिव) लोक की प्राप्ति होती है ।
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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (प्रकृतिखण्डः) अध्यायः ४६ में वर्णन है कि सुरभि गाय जो विश्व की समस्त गाय और भैंसों की माता है उसका प्रादुर्भाव (जन्म) भी कृष्ण के गोलोक धाम में कृष्ण के वामांग (बायें अंग ) से हुई है देखें निम्न श्लोक-
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              ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
            खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)
                    "नारद उवाच"
का वा सा सुरभी देवी गोलोका दागता च या ।।
तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।१।
                  "नारायण उवाच" 
गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः ।।
गवां प्रधाना सुरभी गोलोके च समुद्भवा ।। २।


यही सुरभि से सम्बन्धित श्लोक यथावत देवीभागवत पुराण में भी प्राप्त होते हैं देखें निम्न श्लोक
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देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः(०९) अध्यायः (४९)
     देवीभागवतपुराणम्‎ | स्कन्धः ०९
         सुरभ्युपाख्यानवर्णनम्

                'नारद उवाच'
का वा सा सुरभिर्देवी गोलोकादागता च या ।
तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि यत्‍नतः ॥ १ ॥

             "श्रीनारायणाय उवाच"
गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः ।
गवां प्रधाना सुरभिर्गोलोके सा समुद्‍भवा ॥ २ ॥

(देवीभागवतपुराणनवम स्कन्ध उनपचास वाँ अध्याय)

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ततः सर्वदशार्हाणामाहुकस्य 
च याः स्त्रियः।
नन्दगोपस्य महिषी यशोदा लोकविश्रुता।।
इतना ही नहीं नन्द की पत्नी का भी नाम यशोदा था और उनकी एक भैंस का नाम भी यशोदा था जो संसार में प्रसिद्ध थी ।
(2-59-1 महाभारत सभापर्व )
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जघान सहितान्सर्वानङ्गराजं च माधवः।।
एष चैव शतं हत्वा रथेन क्षत्रपुङ्गवान्।
गान्धारीमवहत्कृष्णो महिषीं यादवर्षभः।।
गाँधारी ने कृष्ण को शाप दिया कदाचित् श्लिष्ट अर्थ में भैसों और उनकी मुख्य रानीयों को लक्ष्य करके महिषी शब्द का प्रयोग किया है।-
( 2-61-13 महाभारत सभापर्व इकसठवाँ अध्याय)

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महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः।।
(2-57-31)महाभारत सभापर्व
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महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः।
प्रसादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः।।
(2-57-32 ) महाभारत सभापर्व

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वासुदेव राजा अवश्य थे परन्तु लोकतान्त्रिक प्रणाली से इसी लिए राजा शब्द का प्रयोग उनके लिए हुआ अन्यथा ययाति के शाप के परिणाम स्वरूप यदु वंश में कभी किसी ने पैत्रिक राजसत्ताको अधिग्रहण किया हो  यह सम्भव नहीं है ? अत: राजा शब्द यदुवंश के शासकों को एक दो बार ही प्रयुक्त है देखें वराह पुराण का ४६ वाँ अध्याय का छठवाँ श्लोक भी-

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वसुदेवोऽभवद् राजा यदुवंशविवर्द्धनः ।
देवकी तस्य भार्या तु समानव्रतधारिणी  ।४६.६।

इति श्रीवराहपुराणे भगवच्छास्त्रे षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ।। ४६ ।।
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यादवों द्वारा भैंसे के पालने का द्वारिका में वर्णन

महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में दक्षिणात्य प्रति में श्लोक है जो द्वारिका में यादवों द्वारा गाय के साथ भैंस पालने का भी विवरण देता है ।
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बभूवु: परमोपेता: सर्वे जगति पर्वता: तत्रैव  गजयूथानि तत्र  गोमहिषास्तथा निवाश्च कृतास्तत्र वराह मृगपक्षिणाम् ।।
अनुवाद:-
उस गृहोद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अँशत: संग्रहीत हुए हैं । 
वहाँ हाथियों यूथ तथा गाय भैंसों के समूह भी रहते हैं वहीं वराह और मृग तथा पक्षियों के रहने योग्य निवास भी बनाये गये ।

वास्तव में वराह सूकर से भिन्न होता है इसे विष्णु का रूप मानकर पूजा भी की जाती है ।
परन्तु सूकर पूजा का कहीं विधान नहीं हैं 
देखे वरापुराण-
और ये उद्यान को रखाने के लिए रखे जाते थे। इनके दान्त होते थे  जबकि सूअर के दाँत बाहर नहीं होते हैं।
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अब लक्ष्मीनारायणसंहिता‎
खण्डः १(सतयुगसन्तानः)अध्यायः ४३१  में वर्णन है कि - 

               "श्रीनारायण उवाच-
गोमहिष्यादि यच्छ्रेष्ठं नष्टं पशुधनं हि तत् ।
अजाविकं समस्तं च वन्यं मृगादिकं तथा ।५।
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अनुवाद:-
गाय" महिषी (भैंस) आदि जो श्रेष्ठ पशु धन  और बकरी भेड़ और हिरण आदि थे  वह सब लुप्त हो गये

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भविष्यपुराण के ब्रह्म खण्ड में  गाय और भैंस की पूजा करते हुए वर्णन किया गया है ।

"दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनम् ।
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं भूषयेन्नृप ।२५।

(भविष्य पुराण ब्रह्म पर्व का अठारह वाँ अध्याय)
अनुवाद:-
राजन् ! गाय और भैंस को सज्जित करके तथा दिव्य- दीप-आरती करने से जो कुछ भी रोग आदि है वह सब नष्ट हो जाता है ।
(पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह)  में वर्णन है।
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गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप ।
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत् ॥ २५० ॥ (पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का 250वाँ श्लोक)

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इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि प्रतिपत्कल्पसमाप्तिवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ।१८।
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ब्राह्मण" अजा के सजातीय और सहजन्मा होने से बकरी के परिवार के ही हैं इसी लिए प्राचीनतम ग्रन्थों में ब्राह्मण बकरी ही पालते थे गाय तो बाद में पालने लगे थे 
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                      "रूद्रोवाच- 
तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासम् अजा अविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
अनुवाद:-
उन ब्राह्मणों के यहाँ धन' पुत्र' दासी' दास' बकरी भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ भी हों ।७४। 
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड (अध्याय सत्रह)
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ऋग्वेद में महषी का वर्णन है।
कमेतं त्वं युवते कुमारं पेषी बिभर्षि महिषी जजान।
पूर्वीर्हि गर्भः शरदो ववर्धापश्यं जातं यदसूत माता ॥२॥

हिरण्यदन्तं शुचिवर्णमारात्क्षेत्रादपश्यमायुधा मिमानम् ।
ददानो अस्मा अमृतं विपृक्वत्किं मामनिन्द्राः कृणवन्ननुक्थाः ॥३॥

क्षेत्रादपश्यं सनुतश्चरन्तं सुमद्यूथं न पुरु शोभमानम्।
न ता अगृभ्रन्नजनिष्ट हि षः पलिक्नीरिद्युवतयो भवन्ति ॥४॥
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के मे मर्यकं वि यवन्त गोभिर्न( गोभि:) येषां गोपा अरणश्चिदास ।
य ईं जगृभुरव ते सृजन्त्वाजाति पश्व उप नश्चिकित्वान् ॥५॥

उपरोक्त ऋचाओं महिषी और गोप शब्द सूचित करते हैं कि यहा प्रकरण पशुपालक गोपों से ही सम्बन्धित है ।
भले सायण ने इसका भाष्य करते हुए महिष को राक्षस रूप में मान्य किया हो 
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कम् । एतम् । त्वम् । युवते । कुमारम् । पेषी । बिभर्षि । महिषी । जजान ।

पूर्वीः । हि । गर्भः । शरदः । ववर्ध । अपश्यम् । जातम् । यत् । असूत । माता ॥२

अत्राग्नेरुत्पाद्यमानत्वात् कुमारशब्देन व्यवहारः । हे "युवते =“त्वं "कमेतं= "कुमारं "पेषी =हिंसिका पिशाचिका सती “बिभर्षि । एवं वृशाख्यो महर्षिः कशिपुनाच्छन्नम् अग्नेर्हरो ब्रूते । त्वयानुत्पादितत्वात् धारणमनुचितमित्यर्थः। "महिषी= महती पूजनीयारणिः एनं "जजान अजनयत् । तदेवाह। "गर्भः शिशोर्ग्राहकोऽरण्याः संबन्धी गर्भः “हि यस्मात् "पूर्वीः "शरदः गताननेकान् संवत्सरान् "ववर्ध ववृधे । अहं च ततो "जातम् "अपश्यम् । "यत् यस्मात् "माता अरणिः "असूत उदपादयत् । राजकुमारपक्षे हे युवते भूदेवि कमेतं कुमारं पेषी सती बिभर्षि । अवशिष्टं कुमारजननपरतया योज्यम् । एवमुत्तरत्रापि कुमाराग्निहरसोः परत्वेन यथोचितं व्याख्येयम् ॥
ऋग्वेद ५/२/२   सूक्त/ऋचा
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वधूरियं पतिमिच्छन्त्येति य ईं वहाते महिषीमिषिराम्
आस्य श्रवस्याद्रथ आ च घोषात्पुरू सहस्रा परि वर्तयाते ॥३॥

न स राजा व्यथते यस्मिन्निन्द्रस्तीव्रं सोमं पिबति गोसखायम् ।
आ सत्वनैरजति हन्ति वृत्रं क्षेति क्षितीः सुभगो नाम पुष्यन् ॥४॥

वधूः । इयम् । पतिम् । इच्छन्ती । एति । यः । ईम् । वहाते । महिषीम् । इषिराम् ।
आ । अस्य । श्रवस्यात् । रथः । आ । च । घोषात् । पुरु । सहस्रा । परि । वर्तयाते ॥ ३ ॥

"इयं “वधूः इन्द्रस्य पत्नी पतिमिच्छन्ती स्वप्रियं यज्ञगमनाय प्रवृत्तमिच्छन्ती “ऐति अनुगच्छति । “यः “इन्द्रः "ईम् एनां 
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“महिषीं “महाते =वहति “इषिरां =गमनवतीम् “अस्य= इन्द्रस्य “रथः इन्द्र के गमन करते हुए रथ को वहन करने वाली महिषी  को

अर्वागस्मदभिमुखं “श्रवस्यात् अन्नमिच्छति । “आ “च “घोषात् आघुष्यति । शब्दयति । “पुरु अत्यधिकं “सहस्रा सहस्राणि धनानि “परि परितः "वर्तयाते वर्तयति । प्रापयति । श्रवस्यादा च घुष्यादिति वा ॥

ऋग्वेद-संहिता
५/३७/३
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महिषी -
महिषी शब्द संस्कृत भाषा में मह् = पूजायाम् (पूजन के अर्थ में) है धातु पाठ में (१/४८५ तथा १०/२९२ यह धातु उभयपदीय है ।
 उ० महयति अर्थात् मह् धातु में संज्ञा भाव में "टिषच् " प्रत्यय तथा स्त्री लिड़्ग भाव में "टाप् "प्रत्यय लगाने से बनता है ।

जिसकी पूजा या महिमा सर्वत्र है अर्थात्
( महयति पूजयति यस्माय सा महिषी )और हम सब आज भी भैंस का सबसे अधिक दूध पीते हैं ! और हमने जिसका एक वार दूध पी लिया वह हमारी वस्तुतः माता ही है।

इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं क्योंकि माता निर्माता भवति भैंस दूध से ही शरीर का पोषण होता है । हमने रूढ़िवादी लोगों की कुसंगति करके सत्य का कभी मूल्यांकन ही नहीं किया
सरे आम हम एहसान फरामोश और आँखों पर परदा डाले खामोश बने रहे ।

परन्तु तेरा सत्यानाश हो ! स्वार्थ
आज भौतिकता की चकाचोंध अन्धा व स्वार्थ प्रवण होकर हम कितने भ्रान्त,क्लान्त अशान्त व ,रोगी और अल्प आयु होते चले आ रहे हैं ! 
क्योंकि अब भैंस के मस्तिष्क वर्धक मस्तुम( मट्ठा) को सेवन नहीं कर पाते हैं ।

परन्तु फिर भी हमने कभी एक क्षण भी रुक कर,धैर्य पूर्वक अपने इस जीवन की विकृत प्रवृत्तियों का तनिक भी निश्पक्ष दृष्टि से आत्म कल्याण की भावना से ,निरीक्षण नहीं किया है ? और हम अपनी अन्तरात्मा की सात्विकता के साथ निरन्तर व्यभिचार करते रहे ,जीवन के समग्र नैतिक मूल्यों का भौतिकता की ध्वान्त वेदी पर हमने हवन कर दिया है ,और आज भी" " अज्ञान की दीर्घ कालिक तमस् निशा में समय के पथ पर कभी मूर्छित हो और कभी ठोकरें खाकर जीवन की गाड़ी को घसीट रहे हैं !

हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतनाऐं " " अन्धविश्वास और रूढि वादिता की गिरफ्त में आज दम तोड़ रहीं है ।
आज हम धनवान् होते हुए भी निर्धन हैं क्यों ? कि हमारी संस्कृति की फ़सल उजड़ गयी ,हमारा चरित्र रूपी वित्त(धन)भी लुट गया ,हमारे पास अब कोई अक्षय सम्पत्ति नहीं बची है !!! 

हमने अपने आप को लुटने दिया ,मिटने दिया !! इतना ही नहीं हमने अपनी उस माता को भी नीलाम कर दिया ,जिसने हम्हें जीवन दिया था .......
वह माता जो निर्माण करती है ,जीवन के हर पक्ष का "माता निर्माता भवति" के पवित्र भाव को हम विस्मृत कर बैठे , गो और भैंस हमारी माताएें हैं माता (माँ) माननीय ,सम्माननीय ही नहीं,हमारे जीवन का सर्वथा आधार भी है | 

प्राचीन काल में गौ (cow ) विश्व संस्कृति की आत्मा थी प्राचीन मैसोपोटामिया अर्थात् आज का ईराक की सुमेरियन संस्कृति में गौ (🐂🐂🐂) एक पवित्र पशु था और सुमेरियन गाय की पूजा करते थे।
आर्य संस्कृति की सम्वाहक भी गाय थी ; परन्तु गौ की महानता को आधार मानकर आर्यों में ही पश्चिमीय एशिया के धरातल पर एक विभेदक रेखा खिंच गयी यद्यपि पवित्र तो गाय को दौनों शाखाऔं ने माना ,परन्तु उनकी पवित्रता के मानक भिन्न भिन्न थे | 
भारतीय ऋषियो के ग्रन्थ ऋग्वेद-१०/८६/१४ पर तथा १०/९१/१४पर भी तथा १०/७२/०६ पर भी देवों की वलि के लिए गौ वध के उद्धरण हैं वाजसनेयी संहित्ता तथा तैत्तीरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में ब्राह्मणों के द्वारा गौ-मेध के पश्चात् गौ मांस भक्षण का उल्लेख भी है इतना ही नहीं बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये ग्रन्थ मनुस्मृति में भी ब्राह्मणों द्वारा बलि के पश्चात् बहुतायत से मांस खाने का उल्लेख है।

 "यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याःप्रशस्ता मृगपक्षिणाः मनुस्मृति (५/२३ ) अर्थात् ब्राह्मण यज्ञ के लिए बडे़ मृग (चौपाए) पशु और पक्षियों का वध करें ! और ब्राह्मण अपनी इच्छा के अनुसार धुले हुए मांस को खाएं !!!

अतः मनुस्मृति में ब्राह्मणों द्वारा पशुओ का वध करके मांस खाने का जिक्र बहुत से स्थलों पर है | परन्तु फिर भी ब्राह्मणों में ही परस्पर पशुओं की बलि (मेध) को लेकर वैचारिक भिन्नताऐं थी उपनिषद कालीन ब्राह्मण यज्ञ के नाम पर पशु वध के सशक्त विरोधी भी थे ।

वस्तुतः वह गौः ही थी जो हमारे जीवन के भौतिक (सभ्यता परक )और आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दौनो ही पक्षों को गति प्रदान करने वाली रही है और आज भी है ! 

यह तथ्य अब भी प्रासंगिक है स्वयं गौः शब्द का व्युत्पत्ति परक ( etymologically) विश्लेषण इसी तथ्य का प्रकासन करता है

 "गम्यते निर्भयेन अनेन इति गौः :- जिसके द्वारा निर्भय होकर गमन किया जाऐ " गम् धातु में संज्ञा करण में " डो" प्रत्यय करने पर गौः शब्द बनता है।
गाय प्राचीन काल मैं निर्भय होकर गमन करती थी आज गाय की इस प्रवृत्ति के अनुकूल परिस्थतियाँ नहीं रह गयीं हैं ।
आज गाय का जीवन संकट ग्रस्त है ।
.🌴🌱 विश्व की माता गाय --गावो विश्वस्य मातरः आज विपत्ति में भटक रही है गौः सृष्टि का प्रथम पाल्य पशु है !! 

भारोपीय ( भारत और यूरोप ) वर्ग की सभी भाषाओं में गौः शब्द अल्प परिवर्तन के साथ विद्यमान है ।

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 संस्कृत गौः ईरानी भाषा में (गाव) के रूप में है तो जर्मन भाषा में (कुह kuh) पुरानी अंग्रेजी में (कु ku) इसी का बहुवचन रूप काइ (cy) या काँइनस् शब्द बना ( coins) = सिक्के फ्राँस भाषा में काँइन coin = बिल्ला - वेज़ जिससे सटाम्प मनी (money) को रंगा जाता था यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में क्वनियस् ( cuneus) = wedge बिल्ला , जर्मन भाषा से निकली हुई मध्य इंग्लिश में यह शब्द क्येन( kyen) आयर्लेण्ड की भाषा में यह शब्द बहुवचन रूप में काँइन है।

अर्थात् बहुत सी गायें काँइन coin शब्द आज धन ,मुद्रा पैसा आदि के अर्थ में रूढ़ है !!!

 Coin कॉइन अंग्रेजी शब्द पाइस ( piece) समान अर्थक है ।
💰 और यह इतिहास का एक प्रमाणित तथ्य है कि प्राचीन विश्व में हमारी व्यापारिक गतिविधियों का माध्यम प्रत्यक्ष वस्तु प्रणाली थी अर्थात् वस्तुऔं की आपस में अदला बदली थी यह गौः नामक पशु ही हमारी धन सम्पदा थी।

संस्कृत पशु शब्द का ग्रीक (यूनानी) भाषा में पाउस ( pouch) रूप है।

 पुरानी अंग्रेजी में यह शब्द फ्यू ( feoh) = पोए है जर्मन भाषा में यह शब्द वीह( vieh) है पुरानी नॉर्स में ,फी, रूप है जो बाद में फ़ीस ( शुल्क) हो गया थी वास्तव में गाय और भैंस दूर के रिश्ते में सगी वहिनें थीं।

 अतः दौनो ही पूज्या मौसी और माताऐं है यह कोई उपहास नहीं वल्कि सत्य कथन है यह शोध भाषा विज्ञान ( philology) और प्राचीन विश्व संस्कृति के विशेषज्ञ योगेश कुमार रोहि के द्वारा किया गया है।

 जो कि प्रमाणौं के दायरे में है उन्होने प्रमाणित किया कि भूमध्य रेखीय दक्षिणा वर्ती भूस्थलों में जब आर्यों का स्कैण्डीनेविया ( बाल्टिक सागर) की ओर से प्रथम आगमन हुआ तब उन्होने गाय के समान जिस काले विशाल पशु को देखा उसे महिषः(🐃कहा अर्थात् महि = गाय क्यों कि गाय पूजनीया थी मह् = पूजा करना धातु मूलक शब्द है महि और महि के समान होने से भैंस भी महिषी कह लायी थी महिषी रूप प्राचीन मैसो- पोटामिया की सैमेटिक शाखा असीरी संस्कृति का सम्वाहक था जिसे पुराणों में असुर कहा है |
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ग्रीक ( यूनान) के आर्यों ने महिषी ( भैंस को बॉबेलॉस ( Boubalos) कहा ,तथा इटालियन भाषा में यह शब्द बुफैलॉ ( buffalo) है जिसका अर्थ होता है गाय के समान ग्रीक भाषा में बॉस् 
( bous ) का अर्थ है गौः भारोपीय भाषा ओं म, "ब," वर्ण कभी कभी " ग" रूप म में परिवर्तित होता है ,जैसे जर्मन में वॉडेन woden से गॉडेन शब्द बना और फिर गॉडेन से गॉड god शब्द बना है।

सांस्कृतिक द्वेष के कारण भी गौः शब्द का अर्थ पूज्य व भगवती के रूप में रूढ़ भी हुआ| 
और महिषी का भोग परक अर्थ हुआ जैसे राजा की पटरानी, दासी ,सैरन्ध्री तथा व्यभिचारिणी स्त्रीयों को महिषी की संज्ञा दी गयी इतिहास में प्रमाण है कि पुराने समय में पारसी जरत्उष्ट्रः के अनुयायी भी गाय की पूजा करते थे।

 इतना ही नही इस्लामीय शरीयत में भी गाय के पूज्य व महान होने का प्रमाण है।
 ...देखें बुख़ारी की हदीस "कंसुलअम्बिया पृष्ठ १५/ हदीसी व़ाकयात इस प्रकार है।

कि "जिब्राईल फरिश्ता ख़लीक़ सलल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत मोहम्मद को बताते हैं कि फिरदौस( paradise ) 
जिसे वेदौं में( प्रद्यौस् )भी कहा है उस फिरदौस में एक गाय जिसके सत्तर हजार सींग हैं ,जिसके सींग ज़मीन में गढे हुए हैं और वह गाय मछली की पीठ पर खड़ी है अगर वह तनिक हिल जाय तो सारी का़यनात नेस्तनाबूद हो जाय ।

भारतीय पौराणिक मान्यता के अनुसार पाताल के जल पर खडी़ हुई जिस गौ के सींग पर पृथ्वी खण्ड टिका है वस्तुतः यह वर्णन प्रतीकात्मक ही है। और इन धारणाओं का श्रोत प्राचीन सुमेरियन संस्कृति है।

इस्लामीय शरीयत मैं जो ""व़कर ईद़"" शब्द है वह सुमेरियन है जैसे आदम ,तथा नूह और नवी शब्द भी है अरबी भाषा में पहले वक़र ईद़ का अर्थ गाय की पूजा था । 

अरबी में वक़र शब्द का एक अर्थ है "" महान "" संस्कृत भाषा में वर्करः गाय तथा बकरी का वाचक भी  है।

कृष्ण हों, अथवा ईसा या ,फिर मोहम्मद गाय की महानता का सभी ने बख़ान किया है परन्तु प्राक् इतिहास के कुछ काले पन्ने भी थे गौ की महत्ता को आधार मान कर पश्चिमीय एशिया में आर्यों की दो विरोधी संस्कृतियाँ अस्तित्व में आयीं ऋग्वेद में अतिथि का वाचक गौघ्न =गां हन्ति तस्मै =उसके लिए गाय मारी जाय जो अतिथि आया हुआ है। आरे ते गौघ्नयुत पुरूषघ्नं क्षयत्वीरं सुम्न भस्मेते अस्तु त्रग्वेद ० १/११४/१० इतना ही नहीं वेद में अतिथि का वाचक गविष्टः शब्द भी आया है "प्रचिकित्सा गविष्टौः ऋग्वेद:- ६/३१/३ तथा युध्यं कुयवं गविष्टोः अग्रेजी में यही शब्द गैष्ट (guest) बन गया है।

अर्थात् गाय जिसके लिए इष्ट (इच्छित) हो वह गविष्ट वास्तव में शब्द संस्कृतियों के सम्प्रेषक होते हैं अथर्ववेद में गौ वध करने बालों को कहा है  कि यदि गौ हन्ता कहीं मिल जाय तो उसे मार दो ? ! यदि नो गाम् हंसि तम् त्वा सीसेन वध्यामो ऋग्वेद:-१/१५/५ 

"
प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत । 
तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम । 
ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।। 
तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।। 
मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता। 
अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
 (तैत्तिरीयसंहिता--७/१/१/४/)।👇 ____________________________________________
 अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं। 

( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए । ये उनके पारिवारिक सदस्य हैं।
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हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेड़ क्षत्रियों की सजातीय है इन्हें भेढ़  पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए। इसी लिए भेड़ मेढ्र कहा जाता है मेढ़े को । 
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मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए इनकी संख्या बहुत है । 
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए। 
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।

पीछे अनुष्टुप छन्द वैराज साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए ।
यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है ।
क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए। 


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ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) 
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ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। 
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं और वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति भी है इस संसार में है ।४३।

उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है ।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।

गोपों को ही पुराणों में आभीर और यादव कहा गया है परन्तु आभीर एक जनजातीय नाम है अहीर जाति का वर्णन सतयुग त्रेता और द्वापर तथा कलियुग तक मिलता है सबसे बड़े और प्राचीन पुराण पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में अध्याय द्वादश से लेकर सप्तदश अध्याय तक यदुवंश का वर्णन है परन्तु अध्याय सप्तदश में उस प्राचीन काल का वर्णन है जब जातीयों का भी प्रादुर्भाव नहीं हुआ था परन्तु वेदों की अधिष्ठात्री देवी माता गायत्री को आभीर या गोप कन्या के रूप में वर्णन किया गया है तथा जब इसी समय ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री विवाह यज्ञ के आयोजन कर्ता देवता शिव विष्णु और देवताओं की पत्नियों को क्रोधित होकर शाप देती है तो इन्द्र की पत्नी शचि को पुरुरवा के पौत्र आयुस् के पुत्र नहुष की पत्नी बन जाने का शाप देती हैं तो इसका कारण तो यही है कि उस समय तो नहुष के पुत्र ययाति के पुत्र यदु भी जन्म नहीं होता है और ये भविष्य के गर्त में समाहित है परन्तु आभीर जाति उस समय भी अच्छे व्रत और आचरणों की ज्ञाता( सुवृतज्ञ) रूप में वर्णित है और विष्णु गायत्री का कन्या दान करने वाले हैं । 

तभी सभी अहीरों को वरदान देते हैं कि मैं देव कार्य की सिद्धि के लिए तुम्हारी जाति के यदुवंश में नन्दादि के अवतरण ते समय जन्म लुँगा और इसी कारण से योगमाया को यादवी तथा गायत्री माता को यदुवंशसमुद्भवा (यदुवंश में उत्पन्न होने वाली) कहा गया है देवीभागवतपुराण में गायत्रीसहस्र नामों में वास्तव में दुर्गा गायत्री राधा आदि सभी वैष्णव शक्तियाँ ही थी। 
वेदों में विष्णु को गोप ' गोविद / गोविन्द रूप में वर्णन यही सिद्ध करता है कि विष्णु गोपों के ही सनातन देवता हैं और इनका अवतरण भी गोपों के उद्धार के लिए ही होता है ।
और फिर गोपों की किसी से तुलना वर्चस्व के स्तर पर कदापि नहीं क्यों कि नारद पुराण में वर्णन है कि  ब्रह्मा विष्णु और महेश जैसे देव त्रयी के देवता भी गोपों की चरणधूलि को प्राप्त करना अपना सौभाग्य मानते हैं ।

क्या ब्राह्मण की चरणधूलि भी ये देवता लेते हैं सायद नहीं ! 
गाय भैंस सजातीय पशु हैं जिन्हें आदि काल से आभीर लोग पालते रहे हैं ।

यद्यपि कालांतर में कुछ द्वेष वादी पुरोहितों ने 
गोपों की उत्पत्ति एक वर्णसंकर जाति के रूप में ही मनु स्मृति में लिपिबद्ध करादी - परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखा है कि गोप विष्णु के रेमकूपों से उत्पन्न होने के कारण वैष्णव वर्ण के होते हैं। 
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ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय (१०) के निम्न श्लोक बहुत परवर्ती काल के हैं।
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काश्यपः कश्यपाज्जातो भरद्वाजो बृहस्पतेः।
(स्वयं वात्स्यश्च पुलहात्सावर्णिर्गौतमात्तथा।१२ ।।
शाण्डिल्यश्च रुचेः पुत्रो मुनिस्तेजस्विनां वरः।)
बभूवुः पञ्चगोत्राश्च एतेषां प्रवरा भवे ।१३।
बभूवुर्ब्रह्मणो वक्त्रादन्या ब्राह्मणजातयः।
ताः स्थिता देशभेदेषु गोत्रशून्याश्च शौनक ।१४।
चन्द्रादित्यमनूनां च प्रवराः क्षत्रियाः स्मृताः ।
ब्रह्मणो बाहुदेशाच्चैवान्याः क्षत्रियजातयः ।१५।

ऊरुदेशाच्च वैश्याश्च पादतः शूद्रजातयः ।।
तासां सङ्करजातेन बभूवुर्वर्णसङ्कराः ।१६।
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" गोप नापित भिल्लाश्च तथा मोदक कूबरौ।       ताम्बूलि स्वर्णकारौ च वणिगजातय एव च।१७ -ब्रह्मवैववर्तपुराण  ब्रह्मखण्ड दशमोऽध्याय
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इत्येवमाद्या विप्रेन्द्र सच्छूद्राः परिकीर्त्तिताः ।
शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्यद्विजन्मनोः।१८।
विश्वकर्मा च शूद्रायां वीर्य्याधानं चकार सः ।
ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः ।१९।
मालाकारः शङ्खकारः कर्मकारः कुविन्दकः ।।
कुम्भकारः कांस्यकारः षडेते शिल्पिनां वराः। 1.10.२० ।।
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       (ब्रह्म वैवर्त पुराण)
       (अध्याय/खण्ड/श्लोक1/5/41)
लक्षकोटीपरिमितः शश्वत्सुस्थिरयौवनः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागण:।४१।
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"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य:सद्यो गोप गणो मुने।        आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्सम:।४२।   
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 {ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड दशमोऽध्याय का श्लोक   संख्या (४२)         

त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणःश्रुतौ।४३।
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"कृष्णस्यलोमकूपेभ्य: सद्यश्चाविर्बभूव ह।            नाना वर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवन:।।४४।
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{ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड दशमोऽध्याय का श्लोक   संख्या (४४)
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इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः(5)


"गा वर्धयति नित्यं यस्तेन गोवर्धनः स्मृतः ।।
गोवर्धनसमस्तात पुण्यवान्न महीतले ।। ८७ ।।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण)

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स्वामी योगेशाचार्य रोहि-

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