शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

स्कन्द पुराण में और पद्म पुराण में आभीरों का विरोधाभासी वर्णन-

एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा शक्रं प्रोवाच सादरम् ॥
कृतस्नानं सुरैः सार्धं विनयावनतं स्थितम् ॥४९॥

सहस्राक्षं त्वया कष्टं मन्मखे विपुलं कृतम्॥
आनीता च तथा पत्नी गायत्री च सुमध्यमा॥ ६.१९०.५०
         ।।स्कन्दपुराण नागर खण्ड।।१९०।।

स्कन्द पुराण के १९२ वें अध्याय में प्रक्षेप रूप में
गायत्री का नामकरण शंकर द्वारा कराया गया जबकि (१९०)में गायत्री नाम पहले से ही अहीर कन्या कि है।। 
और इस प्रक्षेप के अतिरिक्त गायत्री को दिए गये सावित्री को शाप के बहाने से अहीरों को अपवित्र तथा उनकी स्त्रियों को बहुत से पतियों वाली बताकर दुराचारी रूप में परवर्ती पुराणकारों द्वारा वर्णित करना,अहीरों के वर्चस्व में कि गयी ग़ुस्ताखी के अलाव कुछ नहीं है।

स्कन्दपुराणम्-खण्डः- ६ (नागरखण्डः)अध्यायः (१९२)

                    ॥सूत उवाच॥
अथ श्रुत्वा महानादं वाद्यानां समुपस्थितम् ॥
नारदः सम्मुखः प्रायाज्ज्ञात्वा च जननीं निजाम्।१।

प्रणिपत्य स दीनात्मा भूत्वा चाश्रुपरिप्लुतः॥
प्राह गद्गदया वाचा कण्ठे बाष्पसमावृतः ॥२॥

आत्मनः शापरक्षार्थं तस्याः कोपविवृद्धये ॥
कलिप्रियस्तदा विप्रो देवस्त्रीणां पुरः स्थितः॥३॥

मेघगम्भीरया वाचा प्रस्खलंत्या पदेपदे ॥
मया त्वं देवि चाहूता पुलस्त्येन ततः परम् ॥४॥

स्त्रीस्वभावं समाश्रित्य दीक्षाकालेऽपि नागता॥५॥

ततो विधेः समादेशाच्छक्रेणान्या समाहृता॥
काचिद्गोपसमुद्भूता कुमारी देव रूपिणी ॥६॥
____________________________________
अनुवाद-सूत जी कहते हैं ;- उस समय वहाँ उठ रहे महान वाद्यों के नाद को सुनकर नारद महर्षि अपनी माता सावित्री को समागत जानकर उनके सामने गये तथा उनको प्रणाम करके दीनतापूर्वक धर्रायी वाणी में अपने शाप-मोचन के लिए तथा देवी की क्रोध-वृद्धि को देखकर मेघ-गम्भीर स्वर में कदम कदम पर रुकते रुकते कहने लगे- कलह-प्रिय ब्राह्मण नारद देव-स्त्रियों के सामने स्थित होकर कह रहे थे। हे देवी! मैंने पहले आपको बुलाया था। उसके बाद पुलस्त्य ने आपका आह्वान किया था।
तो भी आपने स्त्री स्वभाव के कारण उसी समय आगमन नहीं किया इसी ब्रह्मा के आदेश से इन्द्र ने एक अन्य स्त्री को बुलाया। वे आभीर कन्या कुमारी और देवी रूपा हैं।१-६।

गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्यमार्गेण तत्क्षणात्॥
आकर्षिता महाभागे समानीताथ तत्क्षणात् ॥७॥

सा विष्णुना विवाहार्थं ततश्चैवानुमोदिता॥
ईश्वरेण कृतं नाम गायत्री च तवानुगम् ॥८॥

ब्राह्मणैः सकलैः प्रोक्तं ब्राह्मणीति भवत्वियम्॥
अस्माकं वचनाद्ब्रह्मन्कुरु हस्तग्रहं विभो ॥९॥

देवैः सर्वैः स सम्प्रोक्तस्ततस्तां च वराननाम्॥
ततः पत्न्युत्थधर्मेण योजयामास सत्वरम्॥६.१९२.१०॥

किं वा ते बहुनोक्तेन पत्नीशालां समागता॥
रशना योजिता तस्या गोप्याः कट्यां सुरेश्वरि॥११॥

तद्दृष्ट्वा गर्हितं कर्म निष्क्रांतो यज्ञमण्डपात्॥
अमर्ष वशमापन्नो न शक्तो वीक्षितुं च ताम् ॥१२॥

उस आभीर कन्या को गो के मुख में प्रवेश कराया उसके बाद गो के गुदामार्ग से उसे खींचकर बाहर निकाला-भगवान विष्णु ने उसके साथ ब्रह्मा के विवाह का अनुमोदन किया शंकर ने आपके नाम के ही अनुसार उसका नाम गायत्री रखा।
 तब ब्राह्मणों ने कहा था कि हे ब्रह्मन् यह  ब्राह्मणी हो हमारे कथनानुसार आप इससे पाणिग्रहण कीजिए! 
देवताओं द्वारा अभिहित होने पर ब्रह्मा ने दाक्षिण्य में योजित कर लिया।
 हे माता ! आपसे और अधिक क्या कहा जाय-वे विधाता कि पत्नी-शाला में चलीं गयी। हे सुरेश्वरी दु:ख की बात क्या कहूँ।विधाता ने उस आभीर कन्या के कटि( कमर) में चन्द्रहार पहनाया। मैं यह गर्हित( निन्दित) कर्म देखकर यज्ञ मण्डप से गया। 
मैं क्रोधान्वित होकर यह दृश्य नहीं देख पाया।७-१२।

एतज्ज्ञात्वा महाभागे यत्क्षमं तत्समाचर॥
गच्छ वा तिष्ठ वा तत्र मण्डपे धर्मवर्जिते ॥१३॥

तच्छ्रुत्वा सा तदा देवी सावित्री द्विजसत्तमाः॥
प्रम्लानवदना जाता पद्मिनीव हिमागमे ॥१४॥

लतेव च्छिन्नमूला सा चक्रीव प्रियविच्युता ॥
शुचिशुक्लागमे काले सरसीव गतोदका ॥१५॥

प्रक्षीणचन्द्रलेखेव मृगीव मृगवर्जिता॥
सेनेव हतभूपाला सतीव गतभर्तृका ॥१६॥

संशुष्का पुष्पमालेव मृतवत्सैव सौरभी॥
वैमनस्यं परं गत्वा निश्चलत्वमुपस्थिताम्॥
तां दृष्ट्वा देवपत्न्यस्ता जगदुर्नारदं तदा॥१७॥

धिग्धिक्कलिप्रिय त्वां च रागे वैराग्यकारकम्॥
त्वया कृतं सर्वमेतद्विधेस्तस्य तथान्तरम् ॥१८॥

हे द्विज श्रेष्ठगण ! महर्षि नारद के मुख से यह वृतान्त सुनकर सावित्री की वह स्थिति हो गयी जिस प्रकार हिम पड़ने पर पद्मिनी की होती है। मूल कट जाने पर लता की,प्रिय से अलग हो जाने पर चकवी की प्रक्षीणा चन्द्रलेखा की हिरन से अलग हिरना की राजा के मर जाने पर सेना की और पति के मर जाने पर सती स्त्री की जो स्थिति होती है। जैसे सूखे फूलों की माला की स्थिति होती अथवा जैसे वह गाय जिसका बछड़ा मर गया हो  गायत्री की स्थिति इसी प्रकार परिलक्षित होने लगी। तब देवपत्नीयों ने गायत्री को बेमनवाली( वैमनस्य) तथा निश्चलत्व होते देखकर नारद से कहा-हे कलह-प्रिय तुमको धिक्कार है। तुमने हमारे इस राग को वैराग्य में बदल दिया। तुमने ब्रह्मा के साथ इसका मनमुटाव कराने लिए ही ऐसा किया है ।१३-१८।।

                     ॥गौर्युवाच॥
अयं कलिप्रियो देवि ब्रूते सत्यानृतं वचः॥
अनेन कर्मणा प्राणान्बिभर्त्येष सदा मुनिः॥१९॥

अहं त्र्यक्षेण सावित्रि पुरा प्रोक्ता मुहुर्मुहुः॥
नारदस्य मुनेर्वाक्यं न श्रद्धेयं त्वया प्रिये॥
यदि वांछसि सौख्यानि मम जातानि पार्वति॥ ६.१९२.२०॥

ततःप्रभृति नैवाहं श्रद्दधेऽस्य वचः क्वचित्॥
तस्माद्गच्छामहे तत्र यत्र तिष्ठति ते पतिः॥२१॥

स्वयं दृष्ट्वैव वृत्तांतं कर्तव्यं यत्क्षमं ततः॥
नात्रास्य वचनादद्य स्थातव्यं तत्र गम्यताम् ॥२२॥

गौरी कहती हैं ;-हे देवी नारद तो कलह-प्रिय है।
यह सच-झूँठ कहता ही रहता है। 
इस कर्म को करते हुए भी नारद प्राण-धारण करता है। हे सावित्री शंकर ने मुझसे पूर्वकाल में बारम्बार कहा था ।
हे प्रिये पार्वति ! यदि तुम मेरे साथ सुखपूर्वक रहना चाहो तो नारद का वाक्य कभी भी मत सुनना- जब से मेने शंकर से यह सुना ! तब से मैं नारद के कथन या विश्वास नहीं करती हूँ। जहाँ तुम्हारे पति हैं हम सब वहाँ चलें वहाँ समस्त वृतान्त को जानकर जो कर्तव्य होगा।वह किया जाएगा ! 
अब चलो !हम इसकी बात मानकर वहाँ नहीं रुकेंगे।१९-२२।।

                    ॥सूत उवाच॥
गौर्या स्तद्वचनं श्रुत्वा सावित्री हर्षवर्जिता॥
मखमण्डपमुद्दिश्य प्रस्खलन्ती पदेपदे ॥२३॥

प्रजगाम द्विजश्रेष्ठाः शून्येन मनसा तदा॥
प्रतिभाति तदा गीतं तस्या मधुरमप्यहो ॥२४॥

कर्णशूलं यथाऽऽयातमसकृद्द्विजसत्तमाः॥
वन्ध्यवाद्यं यथा वाद्यं मृदंगानकपूर्वकम् ॥२५॥

प्रेतसंदर्शनं यद्वन्मर्त्यं तत्सा महासती॥
वीक्षितुं न च शक्रोति गच्छमाना तदा मखे॥२६॥

शृंगारं च तथांगारं मन्यते सा तनुस्थितम् ॥
वाष्पपूर्णेक्षणा दीना प्रजगाम महासती ॥ २७॥

सूतजी कहते हैं!हे द्विजप्रवरवृन्दों! देवी सावित्री गौरी कि वाक्य सुनकर आनन्द से रहित स्थिति में लड़खड़ाते पैरों से यज्ञ मण्डप की ओर जाने लगी-तब वहाँ मधुर-गीत औरमृदंगादि वाद्यो की ध्वनि इनके कानों में शूल की तरह लगने लगी। जैसे मनुष्य प्रेत को नहीं देख सकते हैं  उसी प्रकार यह महा सती यज्ञ मण्डप की ओर जाते-जाते किसी को भी नहीं देख पा रहीं थी। उस समय उनको अपने अंगों के आभूषण अंगार के समान प्रतीत होने लगे । वे आँखों में आँसू भरे हुए दीन भाव से जा रहीं थी उन्होंने यज्ञ मण्डप में इस प्रकार से प्रवेश किया मानों किसी कारागार में जा रही हों-२३-२७

ततःकृच्छ्रात्समासाद्य सैवं तं यज्ञमंडपम् ॥
कृच्छ्रात्कारागृहं तद्वद्दुष्प्रेक्ष्यं दृक्पथं गतम् ॥२८॥

अथ दृष्ट्वा तु संप्राप्तां सावित्रीं यज्ञमण्डपम्॥
तत्क्षणाच्च चतुर्वक्त्रःसंस्थितोऽधोमुखो ह्रिया।।२९।।

तथा शम्भुश्च शक्रश्च वासुदेवस्तथैव च।
ये चान्ये विबुधास्तत्र संस्थिता यज्ञमंडपे। ६.१९२.३०॥

ते च ब्राह्मणशार्दूलास्त्यक्त्वा वेदध्वनिं ततः ॥
मूकीभावं गताः सर्वे भयसंत्रस्तमानसाः ॥३१॥

सावित्री को यज्ञ मण्डप में प्रवेश करते देखकर लज्जा के कारण चतुर्मुखी ब्रह्मा नीचे मुख करके बैठे रह गये। 
शंकर, इन्द्र ,वासुदेव  ( विष्णु) जो भी देवता वहाँ उपस्थित थे। 
वे सभी नीचे मुख करके बैठे रह गये। 

ब्राह्मण लोग वेद-ध्वनि छोड़कर भय भीत हो शान्त भाव से स्थित हो गये। 

वहाँ सावित्री ने अपनी सौत के साथ अपने पति को देखा यह देखकर उसके नेत्र क्रोध से रक्तवर्ण हो गये। वह उनसे कठोर वाक्य कहने लगी-२८-३१।। 

अथ संवीक्ष्य सावित्री सपत्न्या सहितं पतिम् ॥
कोपसंरक्तनयना परुषं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
                  ॥सावित्र्युवाच॥
किमेतद्युज्यते कर्तुं तव वृद्ध तमाकृते ॥
ऊढवानसि यत्पत्नीमेतां गोपसमुद्भवाम् ॥३३॥

सावित्री बोली- उसके बाद सावित्री पति को सौत के साथ एक ही आसन पर दौंनो को आसीन देखकर क्रोध से लाल नेत्र करके उनसे कहा ।
 हे वृद्धतमाकृति ! क्या आपका ऐसा करना उचित है । जिससे आपने विवाह किया है।
 वह गोप कन्या है। उनके दोनों कुल में स्त्रीयाँ इच्छा के अनुसार आपस में वरण की जाती हैं। उसके वंश के लोग शोचाचार- और धर्मकृत्य से विमुख (रहित )होते हैं।३२-३३।।


उभयोः पक्षयोर्यस्याः स्त्रीणां कांता यथेप्सिताः ॥
शौचाचारपरित्यक्ता धर्मकृत्यपराङ्मुखाः ॥ ३४ ॥

यदन्वये जनाः सर्वे पशुधर्मरतोत्सवाः॥
सोदर्यां भगिनीं त्यक्त्वा जननीं च तथा पराम्।३५

तस्याः कुले प्रसेवंते सर्वां नारीं जनाः पराम् ॥
यथा हि पशवोऽश्नंति तृणानि जलपानगाः ॥३६॥

विण्मूत्रं केवलं चक्रुर्भारोद्वहनमेव च ॥९।।
तद्वदस्याः कुलं सर्वं तक्रमश्राति केवलम् ॥३७॥

कृत्वा मूत्रपुरीषं च जन्मभोगविवर्जितम् ॥
नान्यज्जानाति कर्तव्यं धर्मं स्वोदरसं श्रयात् ॥३८॥

इस गोप कन्या के वंश के पुरुष सगी बहिन और माता के अतिरिक्त सभी स्त्रियों से संगत होकर कामाचार( मैथुन क्रिया) करते हैं।जिस प्रकार पशु तृण-घास कि भोजन करते हैं।
जलपान करके मलमूत्रत्याग और भारवहन करते हैं। इसी तरह इनके कुल वाले केवल दूध की जगह मठ्ठा( तक्र) ही पीते हैं।मलमूत्रत्यागना तथा अपना पेट-भरना ही इनके जन्म ग्रहण सा उद्देश्य रहता है। इनका इसके अतिरिक्त अन्य कर्तव्य और धर्म नहीं है।-३४-३८।।


अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम्॥
आभीरास्तच्च कुर्वंति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥३९॥

अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे॥
त्वया वा ब्राह्मणी कापि प्रख्याता भुवनत्रये॥ ६.१९२.४० ॥


नोढा विधे वृथा मुण्ड नूनं धूर्तोऽसि मे मतः ॥
यत्त्वया शौचसंत्यक्ता कन्याभावप्रदूषिता॥४१॥

प्रभुक्ता बहुभिः पूर्वं तथा गोपकुमारिका॥
एषा प्राप्ता सुपापाढ्या वेश्याजनशताधिका॥४२॥

अन्त्यजाता तथा कन्या क्षतयोनिः प्रजायते॥
तथा गोपकुमारी च काचित्तादृक्प्रजायते॥४३॥

मातृकं पैतृकं वंशं श्वाशुरं च प्रपातयेत्।
तस्मादेतेन कृत्येन गर्हितेन धरातले॥४४॥
______________
न त्वं प्राप्स्यसि तां पूजां तथा न्ये विबुधोत्तमाः॥
अनेन कर्मणा चैव यदि मे स्ति ऋतं क्वचित्॥४४॥

पूजां ये च करिष्यंति भविष्यंति च निर्धनाः॥
कथं न लज्जितोसि त्वमेतत्कुर्वन्विगर्हितम्॥४६॥
________
अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम्॥
आभीरास्तच्च कुर्वंति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥३९॥
अनुवाद-
अन्यज जाति के लोग भी जो घृणित कर्म नहीं करते अहीर जाति के लोग वह कर्म करते हैं।३४-३८।।
।।स्कन्दपुराण नागर खण्ड।।१९०वाँ अध्याय।।
_________

हे व्यर्थमुण्ड वाले ब्रह्मा! यज्ञ मेंआपको क्या ऐसा पत्नी या प्रयोजन पड़ गया ।जिसके कारण आपने किसी प्रख्यात वंश वाली ब्राह्मण कन्या से विवाह न करके आभीर कन्या से विवाह किया ? आप अवश्य धूर्त हैं। 

तभी आपने (शौच-परित्यक्ता-कन्या- भावविदूषिता- बहुभुक्ता( बहुतों के द्वारा भोगी गयी) पापिनी तथा सौ वेश्याओं के बराबर गोप कन्या को ग्रहण किया? अत: आप अब पूजित नहीं होंगे  अन्त्यज कन्याऐं कन्या -अवस्था में ही क्षतयौनि हो जाती हैं ।

इसी प्रकार कोई गोप कुमारी भी हो जाती है। ऐसी कन्या मातृ पितृ और श्वशुर कुल को भी पतित कर देती है।
इसलिए यदि मुझमें तनिक भी सत्य हो तो आप अन्य देव गणों की तरह जैसे वे पूजित होते हैं। पृथ्वी पर पूजित नहीं होंगे आपकी पूजा करने वाला धन हीन होगा। आप ऐसा घृणित कर्म करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते हैं। आपने ऐसा कर्म किया है । कि आपके पुत्र- पौत्र भी देवताओं और ब्राह्मणों के लिए अयोग्य हे गये।३९- ४६।

पुत्राणामथ पौत्राणामन्येषां च दिवौकसाम्॥
अयोग्यं चैव विप्राणां यदेतत्कृतवानसि॥४७॥

आप ऐसा घृणित कर्म करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते हैं। आपने ऐसा कर्म किया है । कि आपके पुत्र- पौत्र भी देवताओं और ब्राह्मणों के लिए अयोग्य हे गये।४७- ५६।

अथ वा नैष दोषस्ते न कामवशगा नराः॥
लज्जंति च विजानंति कृत्याकृत्यं शुभाशुभम्॥४८॥

अकृत्यं मन्यते कृत्यं मित्रं शत्रुं च मन्यते॥
शत्रुं च मन्यते मित्रं जनः कामवशं गतः॥४९॥

द्यूतकारे यथा सत्यं यथा चौरं च सौहृदम्॥
यथा नृपस्य नो मित्रं तथा लज्जा न कामिनाम्॥६.१९२.५०॥

अपि स्याच्छीतलो वह्निश्चंद्रमा दहनात्मकः।
क्षाराब्दिरपि मिष्टः स्यान्न कामी लज्जते ध्रुवम्॥५१॥

न मे स्याद्दुखमेतद्धि यत्सापत्न्यमुपस्थितम्॥
सहस्रमपि नारीणां पुरुषाणां यथा भवेत्॥५२॥

कुलीनानां च शुद्धानां स्वजात्यानां विशेषतः॥
त्वं कुरुष्व पराणां च यदि कामवशं गतः॥५३॥

एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥५४॥

तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥५५॥

अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥५६॥

अथवा यह आपका दोष नहीं क्योंकि काम  भावना के वशीभूत  मनुष्य लज्जित नहीं होते वे क्या कृत्य है क्या अकृत्य है। 

क्या शुभ है क्या अशुभ है। क्या शुभ है क्या अशुभ है। इसकी पहचान नहीं कर पाते हैं काम ( sex) के वशीभूत लोग कर्तव्य को अकर्तव्य मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्रवत् मानने लगते हैं। : हे व्यर्थमुण्ड वाले ब्रह्मा! यज्ञ मेंआपको क्या ऐसा पत्नी या प्रयोजन पड़ गया । 

जिसके कारण आपने किसी प्रख्यात वंश वाली ब्राह्मण कन्या से विवाह न करके आभीर कन्या से विवाह किया ? आप अवश्य धूर्त हैं।
 तभी आपने (शौच-परित्यक्ता-कन्या- भावविदूषिता- बहुभुक्ता( बहुतों के द्वारा भोगी गयी) पापिनी तथा सौ वेश्याओं के बराबर गोप कन्या को ग्रहण किया ? अत: आप अब पूजित नहीं होंगे  अन्त्यज कन्याऐं कन्या -अवस्था में ही क्षतयौनि हो जाती हैं ।

इसी प्रकार कोई गोप कुमारी भी हो जाती है। ऐसी कन्या मातृ पितृ और श्वशुर कुल को भी पतित कर देती है।
इसलिए यदि मुझमें तनिक भी सत्य हो तो आप अन्य देव गणों की तरह जैसे वे पूजित होते हैं। पृथ्वी पर पूजित नहीं होंगे आपकी पूजा करने वाला धन हीन होगा।

अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥५७॥

भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये॥५८॥

एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि ॥५९।

न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः। ६.१९२.६०॥

करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित्।
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता।६१।

पापिष्ठा नष्टचारित्रा यथैषा पंचभर्तृका॥
विख्यातिं यास्यते लोके यथा चासौ तथैव सा।६२।

एतस्या अन्वयः पापो भविष्यति निशाचर ॥
सत्यशौचपरित्यक्ताः शिष्टसंगविवर्जिताः ॥ ६३॥

अनिकेता भविष्यंति वंशेऽस्या गोप्रजीविनः॥
एवं शप्त्वा विधिं साध्वी गायत्रीं च ततः परम्॥६४॥

मैं सौत के कारण दु:खी नहीं हूँ।
हजारों स्त्रियों और पुरुषों के साथ ऐसा होता रहता है। 
यदि आप काम के वश में हो गये थे तो शुद्ध कुलीन स्वजातीय कन्या से विवाह क्यों नहीं किया। मुझे यही महान दु:ख है। कि तुमने वेश्या के समान नष्ट- चरित्रा अनेक पुरुषों वाली विगर्हिता आभीरी कन्या गायत्री जिसने मेरा स्थान छीन लिया है ।५१-५३।।
________________

ततो देवगणान्सर्वाञ्छशाप च तदा सती ॥
भोभोः शक्र त्वयानीता यदेषा पंचभर्तृका ॥ ६५॥

तदाप्नुहि फलं सम्यक्छुभं कृत्वा गुरोरिदम् ॥
त्वं शत्रुभिर्जितो युद्धे बंधनं समवाप्स्यसि ॥ ६६॥

कारागारे चिरं कालं संगमिष्यत्यसंशयम् ॥
वासुदेव त्वया यस्मादेषा वै पंचभर्तृका ॥ ६७॥

अनुमोदिता विधेः पूर्वं तस्माच्छप्स्याम्यसंशयम् ॥
त्वं चापि परभृत्यत्वं संप्राप्स्यसि सुदुर्मते ॥ ६८॥

समीपस्थोऽपि रुद्र त्वं कर्मैतद्यदुपेक्षसे ॥
निषेधयसि नो मूढ तस्माच्शृणु वचो मम ॥६९॥

जीवमानस्य कांतस्य मया तद्विरहोद्भवम्॥
संसेवितं मृतायां ते दयितायां भविष्यति॥ ६.१९२.७०॥

यत्र यज्ञे प्रविष्टेयं गर्हिता पंचभर्तृका॥
भवानपि हविर्वह्ने यत्त्वं गृह्णासि लौल्यतः॥७१॥

तथान्येषु च यज्ञेषु सम्यक्छंकाविवर्जितः ॥
तस्माद्दुष्टसमाचार सर्वभक्षो भविष्यसि ॥ ७२॥

स्वधया स्वाहया सार्धं सदा दुःखसमन्वितः॥
नैवाप्स्यसि परं सौख्यं सर्वकालं यथा पुरा ॥७३॥

एते च ब्राह्मणाः सर्वे लोभोपहतचेतसः।
होमं प्रकुर्वते ये च मखे चापि विगर्हिते।७४।

वित्तलोभेन यत्रैषा निविष्टा पञ्चभर्तृका ॥
तथा च वचनं प्रोक्तं ब्राह्मणीयं भविष्यति ॥७५॥

दरिद्रोपहतास्तस्माद्वृषलीपतयस्तथा ॥
वेदविक्रयकर्तारो भविष्यथ न संशयः ॥७६॥

भोभो वित्तपते वित्तं ददासि मखविप्लवे।
तस्माद्यत्तेऽखिलं वित्तमभोग्यं संभविष्यति।७७।

तथा देवगणाः सर्वे साहाय्यं ये समाश्रिताः।
अत्र कुर्वंति दोषाढ्ये यज्ञे वै पांचभर्तृके ॥७८॥

संतानेन परित्यक्तास्ते भविष्यंति सांप्रतम्॥
दानवैश्च पराभूता दुःखं प्राप्स्यति केवलम् ॥७९॥

एतस्याः पार्श्वतश्चान्याश्चतस्रो या व्यवस्थिताः॥
आभीरीति सप त्नीति प्रोक्ता ध्यानप्रहर्षिताः॥ ६.१९२.८०॥

मम द्वेषपरा नित्यं शिवदूतीपुरस्सराः॥
तासां परस्परं संगः कदाचिच्च भविष्यति ॥८१॥

नान्येनात्र नरेणापि दृष्टिमात्रमपि क्षितौ॥
पर्वताग्रेषु दुर्गेषु चागम्येषु च देहिनाम्॥
वासः संपत्स्यते नित्यं सर्वभोगविवर्जितः॥८२॥

                   ॥सूत उवाच॥
एवमुक्त्वाऽथ सावित्रीकोपोपहतचेतसा॥
विसृज्य देवपत्नीस्ताः सर्वा याः पार्श्वतः स्थिताः॥ ८३॥

उदङ्मुखी प्रतस्थे च वार्यमाणापि सर्वतः ॥
सर्वाभिर्देवपत्नीभिर्लक्ष्मीपूर्वाभिरेवच ॥८४॥

तत्र यास्यामि नो यत्र नामापि किल वै यतः॥
श्रूयते कामुकस्यास्य तत्र यास्याम्यहं द्रुतम् ॥८५॥

एकश्चरणयोर्न्यस्तो वामः पर्वतरोधसि॥
द्वितीयेन समारूढा तस्यागस्य तथोपरि ॥८६॥

अद्यापि तत्पदं वामं तस्यास्तत्र प्रदृश्यते ॥
सर्वपापहरं पुण्यं स्थितं पर्वतरोधसि ॥८७॥

अपि पापसमाचारो यस्तं पूजयते नरः॥
सर्वपातकनिर्मुक्तः स याति परमं पदम् ॥८८॥

यो यं काममभि ध्याय तमर्चयति मानवः ॥
अवश्यं समवाप्नोति यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्॥८९॥
                  ॥ सूत उवाच ॥ 
एवं तत्र स्थिता देवी सावित्री पर्वता श्रया॥
अपमानं महत्प्राप्य सकाशात्स्वपतेस्तदा॥ ६.१९२.९०॥

यस्तामर्चयते सम्यक्पौर्णमास्यां विशेषतः॥
सर्वान्कामानवाप्नोति स मनोवांछितां स्तदा।९१॥

या नारी कुरुते भक्त्या दीपदानं तदग्रतः ॥
रक्ततंतुभिराज्येन श्रूयतां तस्य यत्फलम् ॥९२॥

यावन्तस्तंतवस्तस्य दह्यंते दीप संभवाः॥
मुहूर्तानि च यावंति घृतदीपश्च तिष्ठति।
तावज्जन्मसहस्राणि सा स्यात्सौभाग्यभांगिनी॥ ९३॥

पुत्रपौत्रसमोपेता धनिनी शील मंडना॥
न दुर्भगा न वन्ध्या च न च काणा विरूपिका।९४।


या नृत्यं कुरुते नारी विधवापि तदग्रतः।
गीतं वा कुरुते तत्र तस्याः शृणुत यत्फलम् ॥९५॥

यथायथा नृत्यमाना स्वगात्रं विधुनोति च॥
तथातथा धुनोत्येव यत्पापं प्रकृतं पुरा ॥९६॥

यावन्तो जन्तवो गीतं तस्याः शृण्वंति तत्र च॥
तावंति दिवि वर्षाणि सहस्राणि वसेच्च सा ॥९७॥

सावित्रीं या समुद्दिश्य फलदानं करोति सा॥
फलसंख्याप्रमाणानि युगानि दिवि मोदते ॥९८॥

मिष्टान्नं यच्छते यश्च नारीणां च विशेषतः ॥
तस्या दक्षिणमूर्तौ च भर्त्राढ्यानां द्विजोत्तमाः॥
स च सिक्थप्रमाणानि युगा नि दिवि मोदते ॥९९॥

यः श्राद्धं कुरुते तत्र सम्यक्छ्रद्धासमन्वितः॥
रसेनैकेन सस्येन तथैकेन द्विजोत्तमाः॥
तस्यापि जायते पुण्यं गयाश्राद्धेन यद्भवेत् ॥ ६.१९२.१००॥

यः करोति द्विजस्तस्या दक्षिणां दिशमाश्रितः॥
सन्ध्योपासनमेकं तु स्वपत्न्या क्षिपितैर्जलैः॥ १०१॥

सायंतने च संप्राप्ते काले ब्राह्मणसत्तमाः।
तेन स्याद्वंदिता संध्या सम्यग्द्वादशवार्षिकी।१०२।

यो जपेद्ब्राह्मणस्तस्याः सावित्रीं पुरतः स्थितः।
तस्य यत्स्यात्फलं विप्राः श्रूयतां तद्वदामि वः।१०३।

दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेन च पुरा कृतम् ॥
त्रियुगे तु सहस्रेण तस्य नश्यति पातकम् ।१०४।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चमत्कारपुरं प्रति ॥
गत्वा तां पूजयेद्देवीं स्तोतव्या च विशेषतः।१०५।

सावित्र्या इदमाख्यानं यः पठेच्छृणुयाच्च वा ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुखभागत्र जायते ॥ १०६ ॥

एतद्वः सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं द्विजोत्तमाः॥
सावित्र्याः कृत्स्नं माहात्म्यं किं भूयः प्रवदाम्यहम् ॥१०७॥

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सावित्रीमाहात्म्यवर्णनंनाम द्विनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १९२ ॥

सूत जी कहते हैं ;- उस समय वहाँ उठ रहे महान वाद्यों के नाद को सुनकर नारद महर्षि अपनी माता सावित्री को समागत जानकर उनके सामने गये तथा उनको प्रणाम करके दीनतापूर्वक धर्रायी वाणी में अपने शाप मोचन से लिए तथा देवी की क्रोध-वृद्धि को देखकर मेघ-गम्भीर स्वर में कदम कदम पर रुकते रुकते कहने लगे- कलह-प्रिय ब्राह्मण नारद देव-स्त्रियों के सामने स्थित होकर कह रहे थे। हे देवी ! मैंने पहले आपको बुलाया था। उसके बाद पुलस्त्य ने आपका आह्वान किया था। 
तो भी आपने स्त्री स्वभाव के कारण उसी समय आगमन नहीं किया इसी ब्रह्मा के आदेश से इन्द्र ने एक अन्य स्त्री को बुलाया। वे  आभीर कन्या कुमारी और देवी रूपा हैं।१-६।

अथवा यह आपका दोष नहीं क्योंकि काम  भावना के वशीभूत  मनुष्य लज्जित नहीं होते वे क्या कृत्य है क्या अकृत्य है।क्या शुभ है क्या अशुभ है।क्या शुभ है क्या अशुभ है। इसकी पहचान नहीं कर पाते हैं काम ( sex) के वशीभूत लोग कर्तव्य को अकर्तव्य मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्रवत् मानने लगते हैं। जैसे जुआरी में सत्य चोर में सौहार्द तथा नृपति में मित्रता नहीं होती ( राजा किसी का मित्र नहीं होता। तद् रूप कामी में लज्जा नहीं होती भले ही अग्नि शीतल क्यों न हो जाय चन्द्रमा जलाने लगे। खारा समुद्र मीठा हो जाये तो भी कामी में लज्जा नहीं होती यह ध्रुव सत्य है ।५१-५३।।


हे कालुब्ध निर्लज्ज ब्रह्मा ! मैं ऐसे स्थान पर जा रही हूँ।
जहाँ आपका कामलुब्ध नाम भी सुनायी न पड़ सके
 हे ब्रह्मा देवपत्नी, द्विज और देव गणों के समक्ष आपने मुझे विडम्बित किया ।
इस लिए आप किसी से भी पूजित नहीं होगें । आज से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र व्यक्ति  अन्य देव गणों  तुम्हारे




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें